हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 54 ☆ बारिश ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  एक भावप्रवण रचना “बारिश”। )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 54 ☆

☆  बारिश ☆

 

फिर वही खिलते हुए गुल,

फिर वही गीत गाती कोयल,

फिर वही बारिश,

फिर मेरा वो भीग जाने को मचल जाना

और फिर वही बूंदों में

किसी हमख़याल का अक्स…

 

बाहर बगीचे में निकली

तो बादल रुखसत ले ही रहे थे,

पर कुछ आखिरी बूँदें मेरे लब पर ठहर गयी

और मुझे मुहब्बत से भिगोने लगीं

और झाँकने लगा उससे वो अक्स…

 

मैंने मुस्कुराते हुए

लबों से उन बूंदों को हटा दिया,

कि मुहब्बत से लबरेज़ होने के लिए

नहीं थी ज़रूरत मुझे

या ही बूंदों की या ही बारिश की…

 

इंसान को बनाते वक़्त

ईश्वर मुहब्बत के पैग़ाम तो

यूँ ही उसके ज़हन में भर देता है,

पर उस राज़ से कुछ अनजान से

हम खोजते रहते हैं उसे यहाँ-वहाँ!

 

मेरा अब इस पैग़ाम से

यूँ रिश्ता बन गया था

कि जिगर में मेरे जब चाहूँ

बारिश हो जाया करती थी!

 

बगीचे की बारिश तो मात्र एक बहाना थी

खुश होने का!

असली बारिश तो गिरती ही रहनी चाहिए

जिगर के हर ज़रीन कोने में!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ एलिअन ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ एलिअन

मुखौटोंवाला झुंड

निरंतर नोंचता रहा

मेरा चेहरा,

दूसरी-तीसरी-चौथी

परत के भ्रम में

खींचता रहा मांस

झिल्ली-दर-झिल्ली,

मैं तड़पता रहा,

चिल्लाता रहा,

दर्द से बिलबिलाता रहा,

झुंड पर कोई असर नहीं पड़ा,

एकाएक

उसके चेहरे पर

भय नज़र आने लगा है,

समूह मुझसे

दूर जाने लगा है,

झुंड ने मुझे

घोषित कर दिया है

एलिअन,..,

उसकी मान्यता है,

मुखौटेविहीन चेहरा

धरती पर

नहीं पाया जाता।

 

©  संजय भारद्वाज 

(कवितासंग्रह ‘योंही’ से)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ नवरात्रि विशेष☆ देवी गीत – दर्शन के लिये , पूजन के लिये,  जगदम्बा के दरबार चलो ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

( आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित नवरात्रि पर्व पर विशेष दर्शन के लिये , पूजन के लिये,  जगदम्बा के दरबार चलो। ) 

☆ नवरात्रि विशेष  ☆ देवी गीत – दर्शन के लिये , पूजन के लिये,  जगदम्बा के दरबार चलो  ☆

 

दर्शन के लिये , पूजन के लिये,  जगदम्बा के दरबार चलो

मन में श्रद्धा विश्वास लिये , मां का करते जयकार चलो !! जय जगदम्बे , जयजगदम्बे !!

 

है डगर कठिन देवालय की , माँ पथ मेरा आसान करो

मैं द्वार दिवाले तक पहुँचू ,इतना मुझ पर एहसान करो !! जय जगदम्बे , जयजगदम्बे !!

 

उँचे पर्वत पर है मंदिर , अनुपम है छटा छबि न्यारी है

नयनो से बरसती है करुणा , कहता हर एक पुजारि है !! जय जगदम्बे , जयजगदम्बे !!

 

मां ज्योति तुम्हारे कलशों की , जीवन में जगाती उजियाला

हरयारी हरे जवारों की , करती शीतल दुख की ज्वाला  !! जय जगदम्बे , जयजगदम्बे !!

 

जगजननि माँ शेरावाली ! महिमा अनमोल तुम्हारी है

पर करती तुम कृपा वही , जग में सुख का अधिकारी है !! जय जगदम्बे , जयजगदम्बे !!

 

तुम सबको देती हो खुशियाँ , सब भक्त यही बतलाते हैं

जो निर्मल मन से जाते हैं वे झोली भर वापस आते है !! जय जगदम्बे , जयजगदम्बे !!

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ लेखनी सुमित्र की – दोहे ☆ डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम दोहे । )

 ✍  लेखनी सुमित्र की – दोहे  ✍

 

मेरे मन की विफलता, तेरे मन का ताप ।

हैं लहरें एहसास की, कह जाती चुपचाप।।

 

मन को कसकर बांध लो, कड़ी परीक्षा द्वार ।

चाह रहा में हारना, तुम जीतो सरकार।।

 

नाम तुम्हारा कुछ नहीं, हम भी हैं बेनाम ।

अलग-अलग थे कब हुए, जाने केवल राम।।

 

आयु रूप की संपदा ,सब कुछ है बेमेल ।

एकाकी अर्पित हुआ, यह किस्मत का खेल।।

 

दिल के भीतर वायलिन, झंकृत है हर तार।

भावों का पूजार्चन, साधे    बंदनवार।।

 

बार-बार में कर रहा, तर्क और अनुमान।

सत्यापित कैसे करूं, जन्मों की पहचान।।

 

दो क्षण के सानिध्य ने, सौंप दिए मधुकोष।

तृषित आत्मा को मिला ,अद्वितीय परितोष।।

 

प्रेम तृषा की वासना, अद्भुत तिर्यक रेख।

चातक मन की चाहना, मौन मुग्ध आलेख।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 20 – ओ सुहागिन झील ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज पस्तुत है आपका अभिनव गीत  “ओ सुहागिन झील। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 20– ।। अभिनव गीत ।।

☆ ओ सुहागिन झील

लक्ष्य को संधान करते

देखता है नील

धनुष की डोरी चढ़ाते

काँपता है भील

 

कथन :: एक

बस अँगूठा ,तर्जनी की

पकड़ का यह संतुलन भर

आदमी की हिंस्र लोलुप

वृत्ति का उपयुक्त स्वर

 

या प्रतीक्षित परीक्षण का

मौन यह उपक्रम अनूठा

या कदाचित अनुभवों

की पुस्तिका अश्लील

 

कथन :: दो

पुण्य पापों की समीक्षा

के लिये उद्यत व्यवस्था

याक जंगल के नियम को

जाँचने कोई अवस्था

 

या प्रमाणों में कहीं

बचता बचाता झूठ कोई

दी गई जिसको यहाँ पर

फिर सुरक्षित ढील

 

कथन:: तीन

गहन हैं निश्चित यहाँ की

राजपोषित सब प्रथायें

फिर कहाँवन के प्रवर्तित

रूप पर कर लें सभायें

 

पैरव फैलाये थके हैं

सभी पाखी अकारण ही

जाँच लेतू भी स्वयं को

ओ! सुहागिन झील

याक=या कि

पैर व= पैर

© राघवेन्द्र तिवारी

27-06-2020

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ नवरात्रि विशेष☆ देवी गीत – मात जगदंबे  ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

( आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित नवरात्रि पर्व पर विशेष देवी गीत – मात जगदंबे । ) 

☆ नवरात्रि विशेष  ☆ देवी गीत – मात जगदंबे  ☆

हे जग की पालनहार मात जगदंबे

हम आये तुम्हारे द्वार मात जगदंबे

 

तुम आदि शक्ति इस जग की मंगलकारी

तीनों लोकों में महिमा बड़ी तुम्हारी ,

इस मन की सुनो पुकार मात जगदंबे

 

देवों का दल दनुजों से था जब हारा

असुरों को माँ तुमने रण में संहारा ,

तव करुणा अपरम्पार मात जगदंबे

 

चलता सारा संसार तुम्हारी दम से

माँ क्षमा करो सब भूल हुई जो हम से,

तुम जीवन की आधार मात जगदंबे

 

हर जन को जग में भटकाती है माया

बच पाया वह जो शरण तुम्हारी है पाया ,

माया मय है संसार मात जगदंबे

 

माँ डूब रही नित भवसागर में नैया

है दूर किनारा कोई नहीं खिवैया,

संकट से करो उबार मात जगदंबे

 

सद् बुद्धि शांति सुख दो मां जन जीवन को

हे जग जननी सद्भाव स्नेह दो मन को ,

बस इतनी ही मनुहार  मात जगदंबे

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ ☆ सन्दर्भ: एकता शक्ति ☆ एकता व शक्ति ☆ श्री सुशील कुमार श्रीवास्तव “सुशील”

श्री सुशील कुमार श्रीवास्तव “सुशील”

  

हम ई-अभिव्यक्ति पर एक अभियान की तरह प्रतिदिन “संदर्भ: एकता शक्ति” के अंतर्गत एक रचना पाठकों से साझा कर रहे हैं। हमारा आग्रह  है कि इस विषय पर अपनी सकारात्मक एवं सार्थक रचनाएँ प्रेषित करें। हमने सहयोगी  “साहित्यम समूह” में “एकता शक्ति आयोजन” में प्राप्त चुनिंदा रचनाओं से इस अभियान को प्रारम्भ कर दिया  हैं। आज प्रस्तुत है श्री सुशील कुमार श्रीवास्तव “सुशील”  जी की  एक विचारणीय लेख  “एकता व शक्ति”

☆  सन्दर्भ: एकता शक्ति ☆ एकता व शक्ति 

बिखरे बिखरे रहने से,

बट जाती है शक्ति सारी;

पांच उंगलियां बंधी रहें जो,

दिखती है तब दमदारी।

अभी न जागे तो जागेंगे,

हम तुम सब कब बोला;

नीहित है एका में शक्ति,

बात जरा ये पहचानो।।

 

कब तक बांध रखोगे खुद को,

ऊंच नीच के बंधन में;

कब तक सिमट रखोगे खुद को,

संप्रदाय के बंधन में।

शक्तिशाली बनना है तो फिर,

देश राग को अपना लो;

नीहित है एका में शक्ति,

बात जरा ये पहचानो।।

 

अब न देना अवसर गैरों को,

रखना एका आपस में;

वरना सदियां कोसेंगी,

जो फूट पड़ी फिर आपस में।

मिली है सत्ता संघर्षों से,

फूट का न फिर विष घोलो;

नीहित है एका में शक्ति,

बात जरा ये पहचानो।।

 

जब जब फूट पड़ी है हम में,

औरों ने हमको लूटा;

आया जब तक होश हमें तो,

हमने अपना माथा कूटा।

देता रहा इतिहास गवाही,

अब तो “सुशील” आंखें खोलो;

नीहित है एका में शक्ति,

बात जरा ये पहचानो।।

 

© श्री सुशील श्रीवास्तव ‘सुशील’

9893393312

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ निधि की कलम से # 23 ☆ खुशियाँ ☆ डॉ निधि जैन

डॉ निधि जैन 

डॉ निधि जैन जी  भारती विद्यापीठ,अभियांत्रिकी महाविद्यालय, पुणे में सहायक प्रोफेसर हैं। आपने शिक्षण को अपना व्यवसाय चुना किन्तु, एक साहित्यकार बनना एक स्वप्न था। आपकी प्रथम पुस्तक कुछ लम्हे  आपकी इसी अभिरुचि की एक परिणीति है। आपका परिवार, व्यवसाय (अभियांत्रिक विज्ञान में शिक्षण) और साहित्य के मध्य संयोजन अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है  आपकी एक अतिसुन्दर भावप्रवण कविता  “खुशियाँ ”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆निधि की कलम से # 23 ☆ 

☆ खुशियाँ 

 

खुशियों की चादर को, यादों के धागों से बनाया.

सपनों के सितारों को, प्यार की रौशनी से सजाया।

 

हर दिन कुछ और रंगों से रंगाया,

हर शाम हसीन फूलों की इत्र में महकाया,

हर पल हँसा और हँसाया,

हर मौसम को रंगीन बनाया,

खुशियों की चादर को, यादों के धागों से बनाया,

सपनों के सितारों को, प्यार की रौशनी से सजाया।

 

यादों ने जीवन को रंगीन बनाया,

ठोकरों ने उसे और भी मजबूत बनाया,

प्यार के आँगन ने जीवन के श्रृंगार को पूरा कराया,

नन्हे बालक ने आकर मातृत्व का बोध कराया,

खुशियों की चादर को, यादों के धागों से बनाया,

सपनों के सितारों को, प्यार की रौशनी से सजाया।

 

यूँ ही ज़िंदगी गुजरी चली जा रही है,

हर खुशी को सब मुकाम समझ लेते हैं,

मुकाम मिलने पर एक और राह ढूंढ लेते हैं,

रास्ते कटते जाते है, मंजिले मिलती जाती हैं,

खुशियों की चादर को, यादों के धागों से बनाया,

सपनों के सितारों को, प्यार की रौशनी से सजाया।

 

खुशियाँ पूरी होती हैं, एक और नई मिल जाती है,

खुशियों की चादर द्रौपदी के चीर सी लंबी होती जाती है,

धीरे-धीरे उम्र कटती जाती है,

खुशियों की चादर का छोर नहीं मिलता,

खुशियों की चादर को, यादों के धागों से बनाया,

सपनों के सितारों को, प्यार की रौशनी से सजाया।

 

चलो इस जीवन इसी पल हम जी लें,

अपने आप को खुशियों की चादर से ढँक लें,

सपनों के सितारों में, और सुख की रौशनी में खो जाना है,

जीवन का खजाना मिट्टी से मिल मिट्टी में मिल जाना हैं

खुशियों की चादर को, यादों के धागों से बनाया,

सपनों के सितारों को, प्यार की रौशनी से सजाया।

 

©  डॉ निधि जैन,

पुणे

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी #13 ☆ मोहरे ☆ श्री श्याम खापर्डे

श्री श्याम खापर्डे 

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं । सेवारत साहित्यकारों के साथ अक्सर यही होता है, मन लिखने का होता है और कार्य का दबाव सर चढ़ कर बोलता है।  सेवानिवृत्ति के बाद ऐसा लगता हैऔर यह होना भी चाहिए । सेवा में रह कर जिन क्षणों का उपयोग  स्वयं एवं अपने परिवार के लिए नहीं कर पाए उन्हें जी भर कर सेवानिवृत्ति के बाद करना चाहिए। आखिर मैं भी तो वही कर रहा हूँ। आज से हम प्रत्येक सोमवार आपका साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी प्रारम्भ कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर रचना “मोहरे”।  खेल चाहे जिंदगी का हो या शतरंज की बिसात, हम और हमारे आस पास मोहरे, चाल, शाह और मात विचारणीय है।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 13 ☆ 

☆ मोहरे ☆ 

मोहरों की बिसात

ही क्या है

चाहे सफेद हो या काले

खिलाड़ी जैसे चाल चलेगा

वैसे है वो दौड़ने वाले

हाथी, घोड़ा, ऊंट, प्यादा

या हो शातिर वजीर

सबकी चाल निराली है

हर चाल ऐसी मारक है

जैसे मात होने वाली है

मंझे हुए हैं सभी खिलाड़ी

मंझा हुआ है इनका खेल

एक दूसरे के चिर प्रतिद्वंद्वी

कैसे होगा इनका मेल

नई नई रणनीतियाॅ

चतुराई भरी चालें

नये नये उभरते खिलाड़ी

कोई मुगालता ना पालें

अपने अपने मोहरों से

लगे हुए हैं

देने शह और मात

रच रहे नित नए षड़यंत्र

विनाशकारी घात-प्रतिघात

अपने मोहरों पर

यह व्यर्थ का अभिमान है

शतरंज का खेल है जीवन

बेबस हर इंसान हैं

शतरंज का जो है निपुण खिलाड़ी

उसके मोहरों की

कोई समझ ना पाए चाल

वो पल भर में शह दे दे

वो पल भर में दे दे मात

 

© श्याम खापर्डे 

18/10/2020

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़)

मो  9425592588

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ समंदर ☆ श्री संजय भारद्वाज

 

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ समंदर

वह प्याले में

उठे तूफान के

किस्से सुनाता रहा,

अपने भीतर

एक समंदर छिपाये

मैं चुपचाप सुनता रहा।

 

©  संजय भारद्वाज 

प्रातः 6:50 17.10.18

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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