हिन्दी साहित्य – कविता ☆ सन्दर्भ: एकता शक्ति ☆  गांधी – एक सोच ☆ सुश्री दामिनी खरे

सुश्री दामिनी खरे

हम ई-अभिव्यक्ति पर एक अभियान की तरह प्रतिदिन “संदर्भ: एकता शक्ति” के अंतर्गत एक रचना पाठकों के लिए लाने जा रहे हैं। लेखकों से हमारा आग्रह  है कि इस विषय पर अपनी सकारात्मक एवं सार्थक रचनाएँ प्रेषित करें। हम सहयोगी  “साहित्यम समूह” में “एकता शक्ति आयोजनमें प्राप्त चुनिंदा रचनाओं से इस का प्रारम्भ कर रहे हैं।  आज प्रस्तुत है सुश्री दामिनी खरे जी की कविता “गांधी -एक सोच”

☆  सन्दर्भ: एकता शक्ति ☆  गांधी – एक सोच  ☆

वर्ष में फिर एक बार

सत्य अहिंसा पुकार

गाँधी के नाम से

बातों से करें वार

 

गांधी एक पुरुष नहीं

गांधी एक व्यक्ति नहीं

गांधी एक सोच हैं

जिसमे कोई रोष नहीं

 

ऊंच नीच भेद नही

जाति धर्म भेद नहिं

लिंगभेद रंगभेद

कर्म-वचन भेद नहीं

 

आज कहाँ हैं गांधी

त्रस्त आधी आबादी

सत्ता मुठ्ठी में बंद

लिख रही है बर्बादी

 

दिनों को न लेखिए

कर्म को उकेरिए

राह जो दिखा गए

चल कर तो देखिए

 

रामराज्य सपन आज

विस्मृत कर करें काज

दीनहीन निर्बल की

रखता है कौन लाज

 

क्षण भर को सोचिए

पापकर्म रोकिए

आचरण सुधार कर

शुचिता को पोषिए

 

रामराज्य कल्पना

भारती की वन्दना

शंख नाद से करें

भारत की अर्चना।।

 

©  सुश्री दामिनी खरे

भोपाल

मोबाइल 09425693828

2.10.20

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ हरापन ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ हरापन

जी डी पी का बढ़ना

और वृक्ष का कटना

समानुपाती होता है;

“जी डी पी एंड ट्री कटिंग आर

डायरेक्टली प्रपोर्शिएनेट

टू ईच अदर-”

वर्तमान अर्थशास्त्र पढ़ा रहा था..,

‘संजय दृष्टि’ देख रही थी-

सेंसेक्स के साँड़

का डुंकारना,

काँक्रीट के गुबार से दबी

निर्वसन धरा का सिसकना,

हवा, पानी, छाँव के लिए

प्राणियों का तरसना-भटकना

और भूख से बिलबिलाता

जी डी पी का

आरोही आलेख लिए बैठा

अर्थशास्त्रियों का समूह..!

हताशा के इन क्षणों में

कवि के भीतर का हरापन

सुझाता है एक हल-

जी डी पी और वृक्ष की हत्या

विरोधानुपाती होते हैं;

“जी डी पी एंड ट्री कटिंग आर

इनवरसली प्रपोर्शिएनेट

टू ईच अदर-”

भविष्य का मनुष्य

गढ़ रहा है..!

©  संजय भारद्वाज 

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ व्रत करती हुई स्त्री ☆ श्री रामस्वरूप दीक्षित

श्री रामस्वरूप दीक्षित

(वरिष्ठ साहित्यकार  श्री रामस्वरूप दीक्षित जी गद्य, व्यंग्य , कविताओं और लघुकथाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। धर्मयुग,सारिका, हंस ,कथादेश  नवनीत, कादंबिनी, साहित्य अमृत, वसुधा, व्यंग्ययात्रा, अट्टाहास एवं जनसत्ता ,हिंदुस्तान, नवभारत टाइम्स, राष्ट्रीय सहारा,दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, नईदुनिया,पंजाब केसरी, राजस्थान पत्रिका,सहित देश की सभी प्रमुख पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित । कुछ रचनाओं का पंजाबी, बुन्देली, गुजराती और कन्नड़ में अनुवाद। मध्यप्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन की टीकमगढ़ इकाई के अध्यक्ष। हम भविष्य में आपकी चुनिंदा रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करने का प्रयास करेंगे।

☆ कविता – व्रत करती हुई स्त्री ☆

स्त्री शिव भक्त है

रखती है

हर सोमवार को व्रत

यह सोचकर

कि शायद

ऐसा करने से

हो जाएं खुश

भगवान शिव

और कट जाएं उसकी मजबूत बेड़ियां

जो डाल रखी हैं समाज ने

उसके चारों तरफ

उसके सोचने, बोलने

लिखने – पढ़ने

चलने फिरने

घूमने घामने

खिलखिलाकर हंसने  बेबात

आँखें खोलकर देखने

अपने चारों तरफ

एकांत में ताकने

जी भर अपना आकाश

बगीचे में टहलते हुए

सहलाना फूलों को

तोड़ लेना कुछ पत्तियाँ यूं ही

पता नहीं क्या तो सोचते हुए

पहन लेना

अपनी पसंद के कपड़े

या गरमी के दिनों में

शाम को चले जाना

अकेले ही नदी के किनारे

और लौटना गुनगुनाते हुए

अपनी पसंद का गीत

पर सालों हो गए व्रत करते

न खुश हुए शिव

न कमजोर हुई बेड़ियों की जक

उम्मीद से भरी स्त्री

आज भी रख रही है व्रत

उम्मीद स्त्री की आखिरी ताकत है

 

© रामस्वरूप दीक्षित

सिद्ध बाबा कॉलोनी, टीकमगढ़ 472001  मो. 9981411097

ईमेल –[email protected]

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ आँख …(3) ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ आँख …(3)

दीवार पर

जो उभरता है

मुझे, तुम्हें

चित्र अलग कैसे

दिखता है..?

देखने, मिटाने का

अपना आयाम,

अपनी रेखाएँ

खींचता है…,

दीवार पर नहीं,

आँख में चित्र

बसता है…!

 

हर आयाम देखने में आँख सक्षम हो।…शुभ प्रभात

 

©  संजय भारद्वाज 

प्रात: 5:17, 3.10.2020

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 64 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  “भावना के दोहे। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 64– साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

 

हर युग की पीड़ा रही, रहा मिलन का राग।

योग न बन पाया कभी, नहीं नदी का भाग।।

 

पेड कटे जंगल नहीं, तपती आज जमीन।

तड़प रहा है आदमी, बिन ज्यों पानी  मीन।।

 

प्रीति तुम्हारी पावनी, जैसे दिव्य  प्रकाश।

साथ तुम्हारा चाहिए,  छू लूँगी आकाश ।।

 

भरी हृदय में वेदना, कदम कदम पर खार।

खारा सागर नैन में, किस विधि पाऊं पार।।

 

प्रीति बिना उर हो गए, जैसे रेगिस्तान।

रिश्तों की बगिया जली, घर लगते शमसान।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 55 ☆ संतोष के दोहे ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  “संतोष के दोहे। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार  आत्मसात कर सकते हैं।)

अपने मनोबल से कोरोना को पराजित कर लौटे श्री संतोष नेमा युगल का  ई- अभिव्यक्ति परिवार की ओर से हार्दिक अभिनंदन।

ईश्वर सभी को सदैव स्वस्थ रखें इसी कामना के साथ…..

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 55☆

☆ संतोष के दोहे ☆

नदी,पेड़ आकाश अरु, सागर रेगिस्तान

कुदरत के सब रंग हैं, हो इनका सम्मान

 

नदियाँ सागर में मिलें, सागर बनता भाप

बादल बन कर बरसता, खुशियों की दे थाप

 

पेड़ों की रक्षा करें, देते जीवन दान

पर्यावरण हो सुरक्षित, रख पेड़ों का मान

 

मन का ओर न छोर है, मन स्वछंद आकाश

मन को जो भी साध ले, उसका जल्द विकास

 

सागर सी पीड़ा मिले, मन पर बढ़े दबाब

कोरोना के काल में, इसका नहीं जवाब

 

मन की पीड़ा जब बढ़े, लगता रेगिस्तान

खुशियाँ मन की उछलकर, जोड़ें सकल जहान

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ उलटबाँसी ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

पुनर्पाठ-

☆ संजय दृष्टि  ☆ उलटबाँसी

लिखने की प्रक्रिया में

वांछनीय था

पैदा होते लेखन के

आलोचक और प्रशंसक,

उलटबाँसी तो देखिये,

लिखने की प्रक्रिया में

पैदा होते गये लेखक के

आलोचक और प्रशंसक!

 

©  संजय भारद्वाज 

10.33 बजे, 13.11.18

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन# 66 – रतनगढ़ का हमाम ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है एक हाइबन   “रतनगढ़ का हमाम। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन  # 66 ☆

☆ रतनगढ़ का हमाम ☆

चित्तौड़गढ़ से 70 किलोमीटर पूर्व में अरावली की पहाड़ी पर  तीनों ओर गहरी खाई के घुमावदार हिस्से पर रतनगढ़ का किला 11 वीं शताब्दी का बना हुआ है। इसे राजा रतनसिंह के नाम पर रतनगढ़ का किला कहते हैं। इसी से गांव का नाम रतनगढ़ पड़ा है।

यह रतनगढ़ सिंगोली तहसील जिला नीमच मध्यप्रदेश में स्थित है। पूर्व में यह जागीर ग्वालियर रियासत को इंदौर रियासत द्वारा स्थानांतरित की गई थी।

खंडहर हो चुके किले में एक अद्भुत हमाम घर है। यह हमामघर रूपी बावड़ी आज भी बनी हुई है । जिसमें 12 महीने पानी आज भी भरा रहता है । इसकी बनावट, तकनीकी व खुबसूरती से जमीन के अंदर की निर्माण कला की उत्कृष्टता का बखूबी समझा जा सकता है। जब यह बावड़ी सह हमाम घर आज के समय यह इतना बेजोड़ और उम्दा है तो उस जमाने में कैसा रहा होगा ?

प्राचीन समय में जमीन से इतनी ऊपर पहाड़ी पर इतनी जोरदार वास्तुकला की यह बावड़ी आधुनिक स्विमिंग पूल को भी मात देती है । यह ऊंची पहाड़ी पर समतल जमीन से तीन मंजिला नीचे दो भागों में विभाजित स्विमिंग पुल यानी पुराना हमामघर बहुत ही उत्कृष्ट ढंग से बनाया गया है।

इसी किले पर बड़ी-बड़ी धान भरने की गोलाकार कोठियां बनी हुई है । जिनका दीवारों पर लगा चिकना प्लास्टर आज भी विद्यमान है । कई शताब्दी बीत जाने के बाद भी यह कोठियां आज भी बेहतर हालत में विद्यमान है। इससे भारतीय कामगारों की उत्कृष्टता और गुणवत्ता युक्त सामग्री का अंदाजा लगाया जा सकता है।

रतन-गढ़~

धानकोठी में गिरा

चूहा ले सांप।

~~~~~~~

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

26-08-20

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 43 ☆ हम बढ़े-बढ़े चले ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं  “हम बढ़े-बढ़े चले.)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 43 ☆

☆ हम बढ़े-बढ़े चले ☆ 

हम बढ़े- बढ़े चले

राह भी बढ़ी चली।

जीत- हार जिंदगी

खिल उठी कली- कली।।

 

सत्य मेरा मीत है

बढ़ रहा अतीत है

लिख गए हैं शब्द- शब्द

जिंदगी की प्रीति है

 

गाँव छूटता गया

शाम तो ढली-ढली।

जीत-हार जिंदगी

खिल उठी कली-कली।।

 

बाँटता हूँ हर्ष मैं

कर रहा विमर्श मैं

जो मिला है ईश से

ले रहा सहर्ष मैं

 

शिशुओं की चिर हँसी

लग रही भली- भली।

जीत हार जिंदगी

खिल उठी कली- कली।।

 

पीढ़ियाँ बदल रहीं

सीढ़ियाँ मचल रहीं

नीतियाँ बदल रहीं

रीतियाँ फिसल रहीं

 

अब नदी में मैल है

भर गई तली-तली।

जीत-हार जिंदगी

खिल उठी कली-कली।।

 

कुछ यहाँ से जा रहे

कुछ यहाँ पर आ रहे

जो मिला है प्रेम से

आज हम लुटा रहे

 

श्वांस-श्वांस विष भरा

आग भी जली-जली।

जीत-हार जिंदगी

खिल उठी कली-कली।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 65 – घी निकालना है तो… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर भावप्रवण रचना घी निकालना है तो…। )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य  # 65 ☆

☆ घी निकालना है तो… ☆  

 

घी निकालना है तो प्यारे

उंगली टेढ़ी कर

या फिर श्री चरणों में उनके

अपना मस्तक धर।

 

नब्ज पकड़ कर इनकी

जमकर अपनी बात बता

चाहे तो पहले इसके

ले, जी भर इन्हें सता,

कुछ पिघलेगा, किंतु

दिखाएगा कुछ और असर

घी निकालना है तो …….।।

 

धूर्त चीन सी चालें

और चलेंगे ये बेशर्म

हमको भी ऊर्जस्वित हो

फिर हो जाना है गर्म

रखें पूँछ पर पांव, तभी

हलचल करते अजगर।

घी निकालना है तो……….।।

 

लंपट, धूर्त स्वार्थ में डूबे

इनका क्या है मोल

रहे बदलते सदा देश का

ये इतिहास भूगोल

दहन करें होली पर इनका

या की दशहरे पर।

घी निकालना है………..।।

 

सीधे-साधे लोगों की

क्या कीमत क्या है तोल

ऊपर से नीचे तक

नीचे से ऊपर तक पोल

किंतु जगा अब देश

ढहेंगे इनके छत्र-चँवर।

घी निकालना है तो प्यारे

उंगली टेढ़ी कर।।

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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