डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’
(अग्रज एवं वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं। आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ “तन्मय साहित्य ” में प्रस्तुत है एक विचारणीय कविता होती पूर्ण कहाँ कविता है। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य # 54 ☆
☆ होती पूर्ण कहाँ कविता है ☆
होती पूर्ण कहाँ कब कविता
जितने शब्द भरें हम इसमें
फिर भी घट रीता का रीता।
धरती लिखा, किंतु
कब इस पर किया गौर है
शुरू कहां से हुई
आखिरी कहां छोर है,
किसने नापा है
हाथों में लेकर फीता।।
जब आकाश लिखा,
सोचा ये भी अनन्त है
सूर्य-चांद, तारे ग्रह
फैले, दिग्दिगन्त है,
स्वर्ग-नर्क के तर्कों में
क्या विश्वसनीयता।।
लिखा भूख, तो
रोज पेट खाली का खाली
प्यासा मन कब भरी
एषणाओं की प्याली,
अनगिन व्याप्त
वासनाओं से कौन है जीता।।
अलग-अलग हिस्सों में
बंटी हुई, कविताएं
जैसे बंटा आदमी
ले, छिटपुट चिंताएं
पढ़ा, सुना है, पूर्ण
एक वह सृष्टि रचियता।।
होती पूर्ण कहां कब कविता
जितने शब्द भरें हम इसमें
फिर भी घट रीता का रीता।।
© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’
जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश
मो. 9893266014