हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 3 – धैर्यवान पीढ़ियाँ ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज पस्तुत है उनका अभिनव गीत  “धैर्यवान पीढ़ियाँ“ ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 3 – ।। अभिनव गीत ।।

☆ धैर्यवान पीढ़ियाँ ☆

 

इसी भाव भूमि को

सम्हालती

तेरे घर आले में

रख आयी सगनौती

लौटते हुये बसन्त मालती

 

धूप : उतरती सहमी बहू लगी

घेरदार सीढियाँ

छानी से झाँक रहे-

छारके : धैर्यवान पीढ़ियाँ

 

लिपीपुती बाखर के

सधे परावर्तन में

अगवारें बैठी,निहारे

मार पालथी

 

सरक चले छाया के

लुप्तप्राय चंचल से

जवा कुसुम टीले से

घाम के ज्यों पीले

प्रपात हुये गुमसुम

 

पुरइन के वंश में

उठी जैसे हूक कोई

लहर एक छाती में

गहरे तक सालती

 

जेठ की दोपहरी में

हल्दी के हाथ खूब छापे

और लिखा साँतिया

बाहर की देहरी पर अपनापे

 

रोप रही बाँहों के बीच

कोई सगुन वृक्ष

चौक पूर आहिस्ता

रंगोली डालती

 

© राघवेन्द्र तिवारी

28-04-2020

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ पत्रकारिता दिवस विशेष – पत्रकार का प्रेम – पत्र ☆ पंडित मनीष तिवारी

पंडित मनीष तिवारी

 

(प्रस्तुत है संस्कारधानी जबलपुर ही नहीं ,अपितु राष्ट्रीय  स्तर ख्यातिलब्ध साहित्यकार -कवि  पंडित मनीष तिवारीजी  की  पत्रकारिता दिवस के अवसर पर समस्त पत्रकारों को  हार्दिक शुभकामनाओं के साथ समर्पित एक विनोदात्मक कविता  “पत्रकार का प्रेम – पत्र”।  श्री मनीष तिवारी जी  की लेखनी को सादर नमन।  )

☆ पत्रकारिता दिवस विशेष – पत्रकार का प्रेम – पत्र ☆

 

एक पत्रकार ने

अपनी प्रेमिका को पत्र लिखा

पत्र का मज़मून

समाचार की तरह तैयार किया

 

प्रिये,

प्राप्त जानकारी के अनुसार

आजकल तुम छत पर

उदास अनमनी सी घूमती हो

गमले में लगे गुलाब को

हसरत भरी निग़ाहों से चूमती हो।

 

हमारा अपराध संवाददाता

ख़बर ला रहा है

मेरा प्रतिद्वंदी पत्रकार

तुम्हारे घर के

चक्कर लगा रहा है।

 

पर तुम बहकावे में मत आना

मैं उससे अपने ढंग से निपटूंगा

उससे कुछ भी नहीं बोलूंगा

आगामी अंक में

उसके पूरे खानदान की

जन्म कुण्डली खोलूंगा।

 

प्रत्यक्ष दर्शियों के अनुसार

तुम मेरी याद में

रात रात भर जागती हो

छत पर

तारे को तोड़ने के लिए

दौड़ती हो भागती हो

और  प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार

मोरनी की तरह नाचती हो।

 

पिछले पाँच सालों से हमारा प्यार

किसी धारावाहिक अंक की

तरह चल रहा है

इसमें,

क्रमशः शब्द मुझे

बहुत खल रहा है।

 

इंतज़ार में समय नहीं गवाना है

शीघ्र ही अंतिम किश्त लाना है।

 

अनेक प्रेम प्रूफ की गलतियां लिए

वर्गीकृत विज्ञापन की तरह

तुम्हारा पत्र आता है

बदले में मेरा जवाब

पूरे आठ कॉलम में जाता है।

 

तुम्हारे डैडी की बातें

मेरे समझ में नहीं आती हैं

अ कविता अ कहानी नवगीत की तरह

ऊपर से गुजर जाती हैं।

 

जानकार सूत्रों के अनुसार

तुमनें अपना दूत

मेरे पास पहुँचाया

परन्तु , प्राण बल्लभे

वह कलमुँहा तो

ग्रामीण क्षेत्रीय प्रतिनिधि की तरह

आज तक नहीं आया।

 

वैसे मैं खोटा नहीं हूँ

अक्ल से मोटा नहीं हूँ

यकीन मानिए

दैनिक अख़बार की तरह

एकदम निष्पक्ष और निर्भीक हूँ।

 

मालिक का चमचा हूँ

इसलिए उनके बहुत नज़दीक हूँ

 

बतर्ज़ प्रधान संपादक

हमारे अख़बार में

किसी का खण्डन नहीं छपता है

इसलिए

तुम भी प्यार का

खण्डन नहीं करना

वरना

तुम्हारे घर के आगे धरूँगा धरना।

 

आज इतना ही

शेष आगामी अंक में फिर लिखेंगे

मुझे विश्वास

अख़बार के मुद्रक और प्रकाशक की तरह

प्रेम के स्वत्ताधिकार पर

हम दोनों के नाम दिखेंगे।

 

©  पंडित मनीष तिवारी, जबलपुर ,मध्य प्रदेश 

प्रान्तीय महामंत्री, राष्ट्रीय कवि संगम – मध्य प्रदेश

मो न 9424608040 / 9826188236

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विशाखा की नज़र से # 36 – धम्मम शरणम गच्छामि ☆ श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

(श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  हिंदी साहित्य  की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है  एक भावप्रवण रचना  ‘धम्मम शरणम गच्छामि । आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में  पढ़  सकते हैं । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 36 – विशाखा की नज़र से

☆  धम्मम शरणम गच्छामि  ☆

 

अगर यह कलयुग है तो

उसकी देहरी पर बैठी है मानवता

और यह है साँझ का वक्त

देहलीज के उस पार

धीरे – धीरे बढ़ रहा है अंधकार

हो न हो कलयुग का यही है मध्यकाल

अर्थ जिसका कि ,

अभी और गहराता जाएगा अंधकार

 

देहरी के इस ओर है धम्म का घर

जहां किशोरवय संततियां

एक – एक कक्ष में फैला रहीं है प्रकाश

अभी शेष है समय

चलो ! कलयुग को पीठ दिखा

हम लौट चले धर्म से धम्म की ओर

 

© विशाखा मुलमुले  

पुणे, महाराष्ट्र

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 9 ☆ गुमनाम साहित्यकारों की कालजयी रचनाओं का भावानुवाद ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

(हम कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी द्वारा ई-अभिव्यक्ति के साथ उनकी साहित्यिक और कला कृतियों को साझा करने के लिए उनके बेहद आभारी हैं। आईआईएम अहमदाबाद के पूर्व छात्र कैप्टन प्रवीण जी ने विभिन्न मोर्चों पर अंतरराष्ट्रीय स्तर एवं राष्ट्रीय स्तर पर देश की सेवा की है। वर्तमान में सी-डैक के आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और एचपीसी ग्रुप में वरिष्ठ सलाहकार के रूप में कार्यरत हैं साथ ही विभिन्न राष्ट्र स्तरीय परियोजनाओं में शामिल हैं।

स्मरणीय हो कि विगत 9-11 जनवरी  2020 को  आयोजित अंतरराष्ट्रीय  हिंदी सम्मलेन,नई दिल्ली  में  कैप्टन  प्रवीण रघुवंशी जी  को  “भाषा और अनुवाद पर केंद्रित सत्र “की अध्यक्षता  का अवसर भी प्राप्त हुआ। यह सम्मलेन इंद्रप्रस्थ महिला महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय द्वारा न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय, दक्षिण एशियाई भाषा कार्यक्रम तथा कोलंबिया विश्वविद्यालय, हिंदी उर्दू भाषा के कार्यक्रम के सहयोग से आयोजित  किया गया था। इस  सम्बन्ध में आप विस्तार से निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं :

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

☆ Anonymous Litterateur of Social Media # 9/सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 9 ☆ 

आज सोशल मीडिया गुमनाम साहित्यकारों के अतिसुन्दर साहित्य से भरा हुआ है। प्रतिदिन हमें अपने व्हाट्सप्प / फेसबुक / ट्विटर / यूअर कोट्स / इंस्टाग्राम आदि पर हमारे मित्र न जाने कितने गुमनाम साहित्यकारों के साहित्य की विभिन्न विधाओं की ख़ूबसूरत रचनाएँ साझा करते हैं। कई  रचनाओं के साथ मूल साहित्यकार का नाम होता है और अक्सर अधिकतर रचनाओं के साथ में उनके मूल साहित्यकार का नाम ही नहीं होता। कुछ साहित्यकार ऐसी रचनाओं को अपने नाम से प्रकाशित करते हैं जो कि उन साहित्यकारों के श्रम एवं कार्य के साथ अन्याय है। हम ऐसे साहित्यकारों  के श्रम एवं कार्य का सम्मान करते हैं और उनके कार्य को उनका नाम देना चाहते हैं।

सी-डैक के आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और एचपीसी ग्रुप में वरिष्ठ सलाहकार तथा हिंदी, संस्कृत, उर्दू एवं अंग्रेजी भाषाओँ में प्रवीण  कैप्टन  प्रवीण रघुवंशी जी ने  ऐसे अनाम साहित्यकारों की  असंख्य रचनाओं  का कठिन परिश्रम कर अंग्रेजी भावानुवाद  किया है। यह एक विशद शोध कार्य है  जिसमें उन्होंने अपनी पूरी ऊर्जा लगा दी है। 

इन्हें हम अपने पाठकों से साझा करने का प्रयास कर रहे हैं । उन्होंने पाठकों एवं उन अनाम साहित्यकारों से अनुरोध किया है कि कृपया सामने आएं और ऐसे अनाम रचनाकारों की रचनाओं को उनका अपना नाम दें। 

कैप्टन  प्रवीण रघुवंशी जी ने भगीरथ परिश्रम किया है और इसके लिए उन्हें साधुवाद। वे इस अनुष्ठान का श्रेय  वे अपने फौजी मित्रों को दे रहे हैं।  जहाँ नौसेना मैडल से सम्मानित कैप्टन प्रवीण रघुवंशी सूत्रधार हैं, वहीं कर्नल हर्ष वर्धन शर्मा, कर्नल अखिल साह, कर्नल दिलीप शर्मा और कर्नल जयंत खड़लीकर के योगदान से यह अनुष्ठान अंकुरित व पल्लवित हो रहा है। ये सभी हमारे देश के तीनों सेनाध्यक्षों के कोर्स मेट हैं। जो ना सिर्फ देश के प्रति समर्पित हैं अपितु स्वयं में उच्च कोटि के लेखक व कवि भी हैं। वे स्वान्तः सुखाय लेखन तो करते ही हैं और साथ में रचनायें भी साझा करते हैं।

☆ गुमनाम साहित्यकार की कालजयी  रचनाओं का अंग्रेजी भावानुवाद ☆

(अनाम साहित्यकारों  के शेर / शायरियां / मुक्तकों का अंग्रेजी भावानुवाद)

 

दीदार की तलब हो तो

नज़रें जमाये रखिये,

क्योंकि नक़ाब हो या नसीब, 

सरकता  तो  जरूर है…

 

If urge of her glimpse is there

Then keep an eye on it patiently

Coz whether it’s the  mask or

luck , it moves for sure…

 

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

 

चलो अब ख़ामोशियों 

की गिरफ़्त में चलते हैं…

बातें गर ज़्यादा हुईं तो 

जज़्बात खुल जायेंगे..!!

  

Let’s get arrested now in

the regime of silence …

If we kept talking anymore

Emotions may get revealed…!!

 

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

 

बादलों का गुनाह नहीं कि 

वो  बेमौसम  बरस  गए!! 

दिल  हलका  करने का 

हक  तो  सबको हैं ना!!

 

 It’s not the crime of clouds

If they rained unseasonably!

After all everyone is entitled 

To lighten burdened sorrows

 

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

 

काश नासमझी में ही

 बीत जाए ये ज़िन्दगी

समझदारी ने तो हमसे बहुत कुछ छीन लिया…

 

Wish  life could pass 

In  imprudence only

Wiseness alone 

did snatch a lot…

 

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

 

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 10 ☆ दोहा सलिला ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपके दोहा सलिला

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 10 ☆ 

☆ दोहा सलिला ☆ 

कर अव्यक्त को व्यक्त हम, रचते नव ‘साहित्य’

भगवद-मूल्यों का भजन, बने भाव-आदित्य

.

मन से मन सेतु बन, ‘भाषा’ गहती भाव

कहे कहानी ज़िंदगी, रचकर नये रचाव

.

भाव-सुमन शत गूँथते, पात्र शब्द कर डोर

पाठक पढ़-सुन रो-हँसे, मन में भाव अँजोर

.

किस सा कौन कहाँ-कहाँ, ‘किस्सा’-किस्सागोई

कहती-सुनती पीढ़ियाँ, फसल मूल्य की बोई

.

कहने-सुनने योग्य ही, कहे ‘कहानी’ बात

गुनने लायक कुछ कहीं, कह होती विख्यात

.

कथ्य प्रधान ‘कथा’ कहें, ज्ञानी-पंडित नित्य

किन्तु आचरण में नहीं, दीखते हैं सदकृत्य

 

व्यथा-कथाओं ने किया, निश-दिन ही आगाह

सावधान रहना ‘सलिल’, मत हो लापरवाह

 

‘गल्प’ गप्प मन को रुचे, प्रचुर कल्पना रम्य

मन-रंजन कर सफल हो, मन से मन तक गम्य

 

जब हो देना-पावना, नातों की सौगात

ताने-बाने तब बनें, मानव के ज़ज़्बात

 

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – प्यारी‌ कविता ☆ – श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज आपके “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है आपकी एक अत्यंत भावप्रवण एवं परिकल्पनाओं से परिपूर्ण रचना  –  प्यारी‌ कविता।  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य –  प्यारी‌ कविता ☆

 

मृगनयनी ‌से‌ नयनां कजरारे,

तेरी ‌मदभरी आंखों की‌‌ चितवन ।

तेरी ‌पायल की‌ रूनक झुनक,

अब मोह रही है मेरा‌ मन।

तेरे अधरो की‌ हल्की‌ लाली,

चिटकी गुलाब की कलियों ‌सी।

तेरी जुल्फों का‌ रंग देख,

भ्रम‌ होता काली ‌रातों की।

तेरा  मरमरी बदन  छूकर ,

मदमस्त हवा में होती है।

जिन राहों ‌से‌ गुजरती हो तुम,

अब वे राहें महका करती हैं।

तुम जिस महफ़िल‌ से गुजरती हो,

सबको दीवाना करती हों

पर तुम तो प्यारी कविता हो,

बस‌ प्यार‌  मुझी से करती‌ हो ।।1।।

तुम मेरे ‌सपनों की शहजादी,

मेरी‌ कल्पना से ‌सुंदर‌ हो ।

ना तुमको देख‌ सके‌ कोइ,

तुम मेरी स्मृतियों के ‌भीतर हो ।

मैंने तुमको इतना चाहा,

मजनूं फरहाद से  भी बढ़कर।

तुम मेरी जुबां से बोल पड़ी,

मेरे दिल की‌‌ चाहत बन कर।

तुम कल्पना मेरे मन की‌‌ हो ,

एहसास मेरे जीवन की‌ हो।

तुम ‌संगीतों का गीत‌ भी‌ हो ,

तुम‌ मेरे मन का मीत भी हो

तुम मेरी अभिलाषा हो,

मेरी जीवन परिभाषा हो ।

अब‌ मेरा अरमान हो तुम ,

मेरी पूजा और ध्यान हो तुम।

मैं शरीर तुम आत्मा हो ,

मेरे ख्यालों का दर्पण हो।

अब तो मैंने संकल्प लिया,

ये जीवन धन तुमको अर्पण हो

जब कभी भी तुमको याद किया,

तुम पास मेरे आ जाती हो ।

मेरे ‌सूने निराश मन को,

जीवन संगीत सुनाती हो

मैं राहें तकता रहता हूं,

अपने आंखों के ‌झरोखों से ।

तुम हिय में ‌मेरे‌ समाती हो,

शब्दों संग हौले हौले ‌से

जब याद तुम्हारी आती है,

कल्पना लोक में खोता हू

शब्दों  भावों के गहनों से,

मै  तेरा बदन पिरोता  हूं।

तुम जब‌ जब आती हो ख्यालों में,

तब मन में मेरे मचलती हो ।

शब्दों का प्यारा‌ रूप पकड़,

लेखनी से मेरी निकलती हो,

चलो आज  बता दें दुनिया को,

तुम मेरी प्यारी कविता हो मेरी प्यारी कविता हो।।

 

© सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

मोबा—6387407266

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ चलो ननिहाल  चलें ☆ श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी“

श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

(सुप्रसिद्ध, ओजस्वी,वरिष्ठ साहित्यकार श्रीमती हेमलता मिश्रा “मानवी” जी  विगत ३७ वर्षों से साहित्य सेवायेँ प्रदान कर रहीं हैं एवं मंच संचालन, काव्य/नाट्य लेखन तथा आकाशवाणी  एवं दूरदर्शन में  सक्रिय हैं। आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय स्तर पर पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित, कविता कहानी संग्रह निबंध संग्रह नाटक संग्रह प्रकाशित, तीन पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद, दो पुस्तकों और एक ग्रंथ का संशोधन कार्य चल रहा है। आज प्रस्तुत है श्रीमती  हेमलता मिश्रा जी  की  एक भावप्रवण कविता  चलो ननिहाल  चलें ।इस अतिसुन्दर रचना के लिए आदरणीया श्रीमती हेमलता जी की लेखनी को नमन। )

☆ चलो ननिहाल  चलें ☆ 

(ननिहाली दोहे)

दुखती रग पर रख दिया,

फिर से तुमने बान!

अब कैसा ननिहाल औ

कैसी रैन विहान!!

 

वो चौपाल चबूतरा

वो इमली अमराई!

अब भी मन भीतर बसी

नदिया की गहराई!!

 

जंगल में वो टिटहरी

टिहु टिहु ढूंढे गोह!

कबसे पुरानी बात हुईं

गुइयां सखी बिछोह!!

 

अब नाना नानी नहीं

ना मामा के  बोल!

रिश्ते राग अनुराग के

तोल मोल संग झोल!!

 

अनचीन्हीं सी अब लगें

वो गलियां वो शाम!

ना आल्हा उदल कहीं

ना अब सीताराम!!

 

अँसुवन धुंधली आंख हुईं

ले ननिहाल की प्यास!

अब इस जनम में ना मिले

अगले जन्म की आस!!

 

बिटिया ना जायी सखी

फिर फिर आए ख्याल!

बेटी जन्म लेती अंगन

मेरा घर ननिहाल!!

 

नातिन के प्रिय बोलों में

मैं हो जाती निहाल

उसकी मधुर अठखेलियाँ

घर बनता ननिहाल!!

 

© हेमलता मिश्र “मानवी ” 

नागपुर, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ बाज़ार ☆ डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’

डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’

डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’ जी  बेंगलुरु के जैन महाविद्यालय में सह प्राध्यापिका के पद पर कार्यरत हैं एवं  साहित्य की विभिन्न विधाओं की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में मन्नू भंडारी के कथा साहित्य में मनोवैज्ञानिकता, स्वर्ण मुक्तावली- कविता संग्रह, स्पर्श – कहानी संग्रह, कशिश-कहानी संग्रह विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इसके अतिरिक्त आपकी एक लम्बी कविता को इंडियन बुक ऑफ़ रिकार्ड्स 2020 में स्थान दिया गया है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आज ससम्मान  प्रस्तुत है आपकी एक बेबाक कविता  बाज़ार।  इस बेबाक कविता के लिए डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’ जी की लेखनी को सादर नमन।)  

☆ कविता – बाज़ार ☆ 

 

बिका हर इन्सान

बचा न सका स्वयं को

मर गई आत्मा उसकी

न मुडा पीछे वह

आगे बढने की चाह में

किए अनेक गलत काम

संवेदनहीन हुआ आदमी

बाज़ार के चकाचौंध में

गलियारों में खो गया वह

पूरा विश्व बना बाज़ार

बदले जीवन मूल्य

आत्मीय संबंधों को भी बेचा बेटे ने

आत्मीय संबंधों का भी किया कत्ल

किए झगड़े संपत्ति की खातिर

भाई-भाई के बीच हुई होड़

बहिन को भी न बचाया

किया व्यापार पत्नी का भी

आत्मीय संबंधों की हत्या कर

क्या पाना चाहता था वह?

 

संस्कृति भी बिक गई

सभ्यता के बाज़ार में

अर्थ कमाने की खातिर

किए अनेक कुकर्म

दान, दया औ’ धर्म छोडकर

मात्र मांग रहा अर्थ स्वयं

नहीं चाहिए उसे राशनकार्ड

आज तो मात्र क्रेडिट कार्ड

अपनी पैनी दृष्टि डाली उसने

तो खड़ा विश्व बाज़ार में स्वयं

आगे की राह ताक रहा,

विश्व बाज़ार में देखे

सुनहरे सपने स्त्री ने भी

केश कटवाकर…

छोटे कपडे पहनकर

नग्न नृत्य प्रस्तुत कर

कर रही स्वयं का विज्ञापन

पुरुष के साथ समानता

रहा मात्र उसका ध्येय

न पता चला उसे

यह तो विश्व बाज़ार है

जहाँ वह खड़ी है

नहीं खड़ी रह सकती

वह पुरुष के साथ

मात्र बात करती रह गई

हर जगह प्रताड़ित हुई

शोषित किया गया उसे

कभी विज्ञापन में तो कभी सिनेमा

अत्याचार होते रहे उसके साथ

देखनेवालों को लगा खुश है वह

अंदर ही अंदर टूटती चली गई

न बता पाई खुलकर अपना दर्द

मुस्कुराती रही  हमेशा

समाज में खुले रुप से

नग्न होती चली गई

जब अहसास हुआ तब

वह बन चुकी थी सर्वभोग्या

कुछ गणिका के तो घर होते है

लेकिन इस स्त्री का

कोई ठिकाना नहीं था

कोई देश नहीं था

आज भी विज्ञापनों में

नहीं दिखाये जाते पुरुष  अर्धनग्न

नहीं दिखाये जाते सिनेमा में भी

बेआबरु होती है मात्र स्त्री

लोगों को नज़र आता है

देह उसका सबसे सुंदर,

यह वैश्वीकरण है कहते हुए

महत्वांकांक्षा की आड़ में

बिन आग जल रही स्त्री

नाम की चाहत में हुई बर्बाद स्त्री

खत्म हुआ वजूद उसका

विश्वबाज़ार में खुद भी बिक गई

लिए अनेक स्त्री के उदाहरण

किया स्वयं को सही साबित

सही अर्थों में मध्यमवर्ग

नहीं रहा कहीं का भी

स्त्री की बढती इच्छा

सपनों को साकार करने

निकल पडी स्वयं बाज़ार में

एक ओर बहुराष्ट्रीय कंपनी

तो दूसरी ओर स्त्री स्वयं

देश बढ रहा है या देह व्यापार

अनजान है, अनभिज्ञ है स्त्री

घुट घुट कर मर जायेगी स्त्री।

 

किन्तु,

अब भी हैं

असंख्य स्त्री- पुरुष अपवाद

जो जी रहे हैं निर्विवाद

वसुधैव कुटुम्बकम की मशाल लिए

वैश्विक ग्राम के बाज़ार में।

 

संपर्क:

डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’

लेखिका, सहप्राध्यापिका, हिन्दी विभाग, जैन कॉलेज-सीजीएस, वीवी पुरम्‌, वासवी मंदिर रास्ता, बेंगलूरु।

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 48 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं प्रदत्त शब्दों पर   “भावना के दोहे। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 48 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

 

दस्यु

कोरोना ने ले लिया, क्रूर दस्यु का रुप।

दहशत पूरे विश्व में, फैली काल- स्व्रूप।

 

भूकंप

उस भीषण भूकंप से, सहमा है गुजरात।

भयाक्रांत है आज भी, जब चलती है बात।।

 

कुटिया

सब कुटिया में बंद हैं, नहीं चैन- आराम।

रोजी-रोटी छिन गई, हर पल-छिन संग्राम।

 

चौपाल

गाँवों की चौपाल का, रहा अनूठा रंग।

हिलमिल गाते झूमते, जन-गण-मन रसरंग।।

 

नवतपा

आग उगलता नवतपा,  लू ने लिया लपेट।

कोरोना को अब यही, देगा मृत्यु-चपेट।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 39 ☆ वापिस अपने घर चले…. ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत है  श्री संतोष नेमा जी  का  एक भावप्रवण रचना “वापिस अपने घर चले…. ”। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार  आत्मसात कर सकते हैं।) 

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 39 ☆

☆ वापिस अपने घर चले .... ☆

मजदूरों पर दे रहे, नेता रोज बयान

सुनते सुनते पक गए, मजदूरों के कान

 

पाँवों में छाले पड़े, गया हाथ से काम

वापिस अपने घर चले, लेकर दर्द तमाम

 

रोटी छूटी हाथ से, छूटा सकल जहान

भूख गरीबी चीख कर, चल दी देकर जान

 

मजदूरों की आत्मा, करती आज सवाल

किया किसी ने कुछ नहीं, उनके जीवन काल

 

कहते आह गरीब की, छोड़े बहुत प्रभाव

संभव हो तो कीजिये, उनका दूर अभाव

 

खाने के लाले पड़े, जीना हुआ मुहाल

रोजी रोटी भी गई, हुए तंग बदहाल

 

संकट नहीं दरिद्र सा, नहीं दरिद्र सी पीर

आखिर कोई कहाँ तक, मन में रक्खे धीर

 

श्रमजीवी लाचार हैं,  बेबस  हैं मजदूर

उनके हित कुछ कीजिये, साहिब आज जरूर

 

देखे अब जाते नहीं, इनके यह हालात

करना गर कुछ कीजिये, छोड़ हवाई बात

 

ऐसीं  नीति बनाइये, मिले  हाथ को काम

सब के हिय “संतोष”हो, कहीं न हों बे-काम

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मो 9300101799

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