हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 2 – सृजनतंत्र का सुख ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आपने ई- अभिव्यक्ति के लिए “साप्ताहिक स्तम्भ -अभिनव गीत” प्रारम्भ करने का आग्रह स्वीकारा है, इसके लिए साधुवाद। आज पस्तुत है उनका अभिनव गीत  “सृजनतंत्र का सुख “ ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 2 – ।। अभिनव गीत ।।

☆ सृजनतंत्र का सुख ☆

गणित हो गई शुरू

वर्ष के पहले जाड़े की

गिनती में गुम हुई वेदना

आज पहाड़े की

 

लिपट गये हैं अंक

किताबों के खुद से खुद में

खोज रहे हैं अर्थ

परिस्थितियों के अंबुद में

 

रोज किया करते हैं कसरत

सम्बोधन चुप चुप

उलझ गई है दाव पेंच में

बुद्धि अखाड़े की

 

जोड़ लगाते थके

भूलते गये इकाई को

पता तब चला जब विरोध

में देखा भाई को

 

जिस हिसाब से गिरवी रक्खे

थे सारे गहने

वहीडुबो दी रकम रही जो

बेशक गाढ़े की

 

जितने अभिमंत्रित घटना के

आदिसूत्र घर थे

वे सारे के सारे थोथे

मूलमंत्र भर थे

 

उन पर अधिरोपित था अपने

सृजनतंत्र का सुख

बैसे यह है कथा पुरानी

इस रजवाड़े की

 

© राघवेन्द्र तिवारी

01-05-2020

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

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हिन्दी साहित्य ☆ कविता ☆ ईद के पहले ☆ डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’

डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ 

(डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ पूर्व प्रोफेसर (हिन्दी) क्वाङ्ग्तोंग वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय, चीन ।  वर्तमान में संरक्षक ‘दजेयोर्ग अंतर्राष्ट्रीय भाषा सं स्थान’, सूरत. अपने मस्तमौला  स्वभाव एवं बेबाक अभिव्यक्ति के लिए प्रसिद्ध। आज प्रस्तुत है डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर ‘ जी  की एक समसामयिक कविता  ”ईद के पहले “।  ईद – उल – फितर या मीठी ईद  कहा जाने वाला यह पर्व खासतौर पर भारतीय समाज के ताने-बाने और उसकी भाईचारे की सदियों पुरानी परंपरा का वाहक है।डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर ‘ जी  के इस सार्थक एवं समसामयिक  कविता के लिए उनकी लेखनी को सादर नमन।  ) 

 ☆ ईद के पहले  ☆

इधर कई सालों से

कटने लगा हूँ

अपने बचपन के दोस्त

आसिफ से

लोगों से बच बचाकर

जाता हूँ उसके घर

मुझे भी

वह अब उतना

अज़ीज़ नहीं लगता

उसकी ज़ालीदार टोपी

मुझे चिढाती -सी लगती है

मुझे उत्तेजना -सी

होने लगती है उससे

फनफना उठता है मन

इन दिनों

उस टोपी से ज़्यादा

उसमें दिखने लगे हैं छेद

वह बडा अफसर है

प्रगतिशील विचारक है

फिर क्यों ज़रूरी समझता है

चिकन के कुर्ते पाजामे पर पहनना

क्रोशिया की टोपी

ईद के दिन

कभी-कभी शुक्रवार को

जींस पर भी

पहन लेता है यह टोपी

और चला जाता है मस्ज़िद

न जाने क्यों

चुभता है मुझे

एक दिन के लिए भी

उसका इस तरह

मुसलमान हो जाना

उसे भी चुभता होगा

अल्हड़ जवानी के दिनों में

हर मंगलवार को

मेरा टीका लगाकर

मंदिर से सीधे उसके घर जाना

यानी हिंदू हो जाना

उन दिनों जिस चाव से

गपक लेता था मेरे लड्डू

अब नहीं खाता

शुगर का बहाना बनाके

दो-तीन बुंदियां भर

छुड़ा लेता है लड्डू से

हमारे भी गले में

अटक जाती हैं

उसके घर की

सुस्वादु सिवइयां

अब तो बस

अपने-अपने दर्द

अपने -अपने भीतर दबाए

बिना रस की

निभा रहे हैं दोस्ती

हम समझ नहीं पा रहे हैं कि

ईद के पहले

हमारा मन क्यों हो रहा है खट्टा

आखिर क्या है उसका रिश्ता

हमारे इस खट्टेपन से

उसे भी तो शायद यह पता नहीं

यह वातावरण

इतना विषाक्त क्यों है कि

होली और ईद पर

मिलते हुए गले वह गर्माहट

नहीं है

हम दोनों की सांसों में

बस छू भर लेते हैं सीने

नहीं तो

गले मिलते हुए

ऐसे छूटती थीं सांसें

जैसे साइकिल में भर रहे हों हवा

और,

भरते ही रहते थे

दोनों दिलों के

टायरों का मेढकों-से फूल जाने तक

हम आने वाली पीढियों तक

कैसे पहुंचा पाएंगे

मिठास

सिंवइयों,गुझियों और लड्डू-पेडों की

जो मरती जा रही है बेतरह

दिनोंदिन

कुछ तो गड़बड़ है जो

हमारे लाख प्रयासों के बावज़ूद कि

बनी रहे दोस्ती

उतनी ही सरस और विश्वसनीय

मरता जा रहा है विश्वास

सूखती जा रही है

हमारे भीतर के

अपनेपन की सरिता.

 

©  डॉ. गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’

सूरत, गुजरात

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ निधि की कलम से # 9 ☆ चाँद पाने का सफर ☆ डॉ निधि जैन

डॉ निधि जैन 

डॉ निधि जैन जी  भारती विद्यापीठ,अभियांत्रिकी महाविद्यालय, पुणे में सहायक प्रोफेसर हैं। आपने शिक्षण को अपना व्यवसाय चुना किन्तु, एक साहित्यकार बनना एक स्वप्न था। आपकी प्रथम पुस्तक कुछ लम्हे  आपकी इसी अभिरुचि की एक परिणीति है। आपका परिवार, व्यवसाय (अभियांत्रिक विज्ञान में शिक्षण) और साहित्य के मध्य संयोजन अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण कविता  “चाँद पाने का सफर ”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆निधि की कलम से # 9 ☆ 

☆ चाँद पाने का सफर  ☆

चांदी की कटोरी से माँ ने चाँद दिखाया था कभी,

चाँद छूने की आकांक्षा को जगाया था कभी।

 

उसे पाने को जी भी ललचाया था कभी,

गोल-गोल चाँद से जड़ा आकाश,

आकाश में तारों के बीच में अड़ा,

सुन्दर कोमल, माँ की कटोरी से शायद बड़ा,

चांदी की कटोरी से माँ ने चाँद दिखाया था कभी,

चाँद छूने की आकांक्षा को जगाया था कभी।

 

छत पर खड़ी करती रहती हूँ मैं कोशिश कभी,

कैद करना चाहती हूँ आकाश के ये सुन्दर पूत को कभी,

छू लेना चाहती हूँ उस मौन प्रतीक को कभी,

क्या ये कोशिश पूरी हो पायेगी कभी,

चांदी की कटोरी से माँ ने चाँद दिखाया था कभी,

चाँद छूने की आकांक्षा को जगाया था कभी।

 

©  डॉ निधि जैन, पुणे

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 9 ☆ मुक्तिका ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है  आपकी भावप्रवण  “ मुक्तिका”)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 9 ☆ 

☆ मुक्तिका ☆ 

 

शब्द पानी हो गए

हो कहानी खो गए

 

आपसे जिस पल मिले

रातरानी हो गए

 

अश्रु आ रूमाल में

प्रिय निशानी हो गए

 

लाल चूनर ओढ़कर

क्या भवानी हो गए?

 

नाम के नाते सभी

अब जबानी हो गए

 

गाँव खुद बेमौत मर

राजधानी हो गए

 

हुए जुमले, वायदे

पानी पानी हो गए

 

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विशाखा की नज़र से # 35 – जरूरत और आदत ☆ श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

(श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  हिंदी साहित्य  की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है  एक भावप्रवण रचना  ‘जरूरत और आदत  । आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में  पढ़  सकते हैं । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 35 – विशाखा की नज़र से

☆  जरूरत और आदत  ☆

 

हम हरे नही

फिर भी प्रकाशपुंज हमारी जरूरत

एक दूजे की आँखों की चमक

थी हमारी आदत …

 

हम प्यासे तो पानी हमारी जरूरत

पर प्यार में प्यासा बने रहना

थी हमारी आदत ….

 

हम चाहे उलझे , बिखरें , टूटे

हवाओं की सरसरी हमारी जरूरत

संग प्राणों का आयाम साधना

थी हमारी आदत …

 

जलता रहा लोभ , ईर्ष्या , जलन

का अग्निकुंड चहुँओर

जिसकी तपिश की नहीं हमें जरूरत

हम में अहम को भस्म करना

थी हमारी आदत …

 

जरूरतें व्योम सी

थक जाती हैं आँखें तक – तक

समेटे अपने पंखों को

घोसलें में बसर करना

थी हमारी आदत ….

 

© विशाखा मुलमुले  

पुणे, महाराष्ट्र

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 8 ☆ गुमनाम साहित्यकारों की कालजयी रचनाओं का भावानुवाद ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

(हम कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी द्वारा ई-अभिव्यक्ति के साथ उनकी साहित्यिक और कला कृतियों को साझा करने के लिए उनके बेहद आभारी हैं। आईआईएम अहमदाबाद के पूर्व छात्र कैप्टन प्रवीण जी ने विभिन्न मोर्चों पर अंतरराष्ट्रीय स्तर एवं राष्ट्रीय स्तर पर देश की सेवा की है। वर्तमान में सी-डैक के आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और एचपीसी ग्रुप में वरिष्ठ सलाहकार के रूप में कार्यरत हैं साथ ही विभिन्न राष्ट्र स्तरीय परियोजनाओं में शामिल हैं।

स्मरणीय हो कि विगत 9-11 जनवरी  2020 को  आयोजित अंतरराष्ट्रीय  हिंदी सम्मलेन,नई दिल्ली  में  कैप्टन  प्रवीण रघुवंशी जी  को  “भाषा और अनुवाद पर केंद्रित सत्र “की अध्यक्षता  का अवसर भी प्राप्त हुआ। यह सम्मलेन इंद्रप्रस्थ महिला महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय द्वारा न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय, दक्षिण एशियाई भाषा कार्यक्रम तथा कोलंबिया विश्वविद्यालय, हिंदी उर्दू भाषा के कार्यक्रम के सहयोग से आयोजित  किया गया था। इस  सम्बन्ध में आप विस्तार से निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं :

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

☆ Anonymous Litterateur of Social Media # 8/सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 8 ☆ 

आज सोशल मीडिया गुमनाम साहित्यकारों के अतिसुन्दर साहित्य से भरा हुआ है। प्रतिदिन हमें अपने व्हाट्सप्प / फेसबुक / ट्विटर / यूअर कोट्स / इंस्टाग्राम आदि पर हमारे मित्र न जाने कितने गुमनाम साहित्यकारों के साहित्य की विभिन्न विधाओं की ख़ूबसूरत रचनाएँ साझा करते हैं। कई  रचनाओं के साथ मूल साहित्यकार का नाम होता है और अक्सर अधिकतर रचनाओं के साथ में उनके मूल साहित्यकार का नाम ही नहीं होता। कुछ साहित्यकार ऐसी रचनाओं को अपने नाम से प्रकाशित करते हैं जो कि उन साहित्यकारों के श्रम एवं कार्य के साथ अन्याय है। हम ऐसे साहित्यकारों  के श्रम एवं कार्य का सम्मान करते हैं और उनके कार्य को उनका नाम देना चाहते हैं।

सी-डैक के आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और एचपीसी ग्रुप में वरिष्ठ सलाहकार तथा हिंदी, संस्कृत, उर्दू एवं अंग्रेजी भाषाओँ में प्रवीण  कैप्टन  प्रवीण रघुवंशी जी ने  ऐसे अनाम साहित्यकारों की  असंख्य रचनाओं  का कठिन परिश्रम कर अंग्रेजी भावानुवाद  किया है। यह एक विशद शोध कार्य है  जिसमें उन्होंने अपनी पूरी ऊर्जा लगा दी है। 

इन्हें हम अपने पाठकों से साझा करने का प्रयास कर रहे हैं । उन्होंने पाठकों एवं उन अनाम साहित्यकारों से अनुरोध किया है कि कृपया सामने आएं और ऐसे अनाम रचनाकारों की रचनाओं को उनका अपना नाम दें। 

कैप्टन  प्रवीण रघुवंशी जी ने भगीरथ परिश्रम किया है और इसके लिए उन्हें साधुवाद। वे इस अनुष्ठान का श्रेय  वे अपने फौजी मित्रों को दे रहे हैं।  जहाँ नौसेना मैडल से सम्मानित कैप्टन प्रवीण रघुवंशी सूत्रधार हैं, वहीं कर्नल हर्ष वर्धन शर्मा, कर्नल अखिल साह, कर्नल दिलीप शर्मा और कर्नल जयंत खड़लीकर के योगदान से यह अनुष्ठान अंकुरित व पल्लवित हो रहा है। ये सभी हमारे देश के तीनों सेनाध्यक्षों के कोर्स मेट हैं। जो ना सिर्फ देश के प्रति समर्पित हैं अपितु स्वयं में उच्च कोटि के लेखक व कवि भी हैं। वे स्वान्तः सुखाय लेखन तो करते ही हैं और साथ में रचनायें भी साझा करते हैं।

☆ गुमनाम साहित्यकार की कालजयी  रचनाओं का अंग्रेजी भावानुवाद ☆

(अनाम साहित्यकारों  के शेर / शायरियां / मुक्तकों का अंग्रेजी भावानुवाद)

 

कौन कहता है कि

दिल सिर्फ सीने में होता है…

तुमको लिखूँ तो

मेरी उँगलियाँ भी धड़कती हैं…

 

 Who says that

 Heart is in chest only

 My fingers also throb

 When I write to you…!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

 

गर यूँही घर में बैठा रहा

मार डालेगी तनहाइयाँ…

चल चलें मैखाने में जरा

ये फ़ना दिल बहल जायेगा…

 

If I keep staying at home like this

The aloofness is going to  kill me

O’ dear  let’s  just  go to the bar…

This dying heart will come alive!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

 

इक किस्सा अधूरे इश्क़ का

आज भी है दरम्यान तेरे मेरे…

हैं मौजूद साहिलों की रेत पे

पैरों के कुछ निशान तेरे मेरे…

 

A tale of inconclusive love still

exists between us, even today…

Few of our footprints are still

Present on the sand of shores…

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

 

मरता तो कोई नही

किसी के प्यार में…

बस यादें कत्ल करती

रहती है किश्तों-किश्तों में…

 

Nobody ever dies in

someone’s  love…

In installments just the

Memories  keep killing you…

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

 

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य –  अन्नदाता किसान ☆ – श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज आपके “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण रचना  –  अन्नदाता किसान 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य –  अन्नदाता किसान ☆

 

मै‌ किसान ‌अन्नदाता हूं,  देश का भाग्यविधाता हूं।

अपने कठिन परिश्रम से,  मै सबकी भूख मिटाता हूं

 

वर्षा, सर्दी,‌ गर्मी सहकर, सब्जी फल फूल उगाता हूं।

पर लूट‌खसोट के‌ चलते,  मैं भूखा ही‌ सो‌ जाता हूं ।

 

कभी आपदा के चलते, हम सब के सपने चूर  हुए।

कर्जे महंगाई के चलते,  हम मरने पर मजबूर हुए।

 

मेरी मेहनत  का फल , हर समय बिचौलिया खाता है ।

सरकारी ‌राहत का ‌धन, घपलेबाज की जेब में जाता है।

 

बेटी की‌ शादी पढ़ाई की चिंता, हम को खाये जाती‌ है।

रातें आंखों में ही कटती है, नींद न हमको आ पाती है।

 

अपने छप्पर में मैं बैठा, खाली कोठारों को तकता हूं ।

हाथों की लकीरें देख देख, अपनी क़िस्मत पढता‌ हूं ।

 

अंधेरी काली रातों में उठ ,खाली बर्तन टटोलता मैं।

कर्जे खर्चे के पन्ने,  बार बार खोलता पढ़ता हूं मैं।

 

आशा और निराशा ‌से, जब दिल मेरा घबराता है ।

भूतकाल भविष्य बन‌कर, मुझको रोज डराता है।

 

उम्मीदों के दामन में, बस रंगीन नजारे दिखते हैं ।

इन अंधियारी रातों में, बस चांद सितारे दिखते हैं ।

अब सूनी-सूनी आंखों से, उम्मीद की राहें तकता हूं।

खेत की मेढ़ पर बैठा हूं, पगला दीवाना दिखता हूं।

 

मैं नील‌कंठ बन बैठ गया, पीकर‌ के‌ विष का प्याला ।

अपनी व्यथा‌ कहें किससे, है कौन उसे सुनने वाला ।

 

© सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

मोबा—6387407266

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हिन्दी साहित्य ☆ प्रसंग/कविता ☆ प्रसंग- संकट सब पर है / कविता – बेहद उदास रहती है गिलहरी ☆ डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’

डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ 

(डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ पूर्व प्रोफेसर (हिन्दी) क्वाङ्ग्तोंग वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय, चीन ।  वर्तमान में संरक्षक ‘दजेयोर्ग अंतर्राष्ट्रीय भाषा सं स्थान’, सूरत. अपने मस्तमौला  स्वभाव एवं बेबाक अभिव्यक्ति के लिए प्रसिद्ध। आज प्रस्तुत है डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर ‘ जी  की एक विचारणीय प्रसंग “संकट सब पर है एवं कविता  ”बेहद उदास रहती है गिलहरी “।  डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर ‘ जी  के इस सार्थक एवं समसामयिक  प्रसंग एवं  कविता के लिए उनकी लेखनी को सादर नमन।  ) 

 ☆ संकट सब पर है ☆

पता नहीं क्यों मैं उन महापुरुषों से सहमत नहीं हो पा रहा हूँ जो इस संकट में बहुत कुछ पॉजिटिव खोज ले रहे हैं। वे इससे बहुत खुश हैं कि कोई सड़क हादसा नहीं हुआ।गंगा निर्मल हो गई। काशी के अस्सी घाट पर कोई अंतिम संस्कार नहीं हुआ। हार्ट अटैक कम हो गए और भी बहुत कुछ। जब कोई घर से ही नहीं निकल पा रहा तो अस्पताल कहाँ से और कैसे पहुँचेगा। ज़िंदा कहीं नहीं निकल पा रहा तो मुर्दा कैसे काशी यात्रा पर जाएगा। गंगा जी तो बिना कोरोना के भी निर्मल हो सकती थीं।

कल एक गाय अपने चिल्लाते हुए बछड़े को छोड़ नहीं पा रही थी। कुछ दूर जाकर लौट-लौट कर आकर बार-बार उसे चाट रही थी। यह दृश्य मैं और मेरी धर्मपत्नी अपनी बोलकनी से देख रहे थे।

मैं तो वहाँ से हट गया पर श्रीमती गायत्री शर्मा जी वहीं डटी रहीं। एक माँ का दर्द माँ ही जान सकती है।

उस गाय का बार-बार आना-जाना वह ऐसे देख रही थी कि बहुत संभव है उसे उसके कदम तक याद हो गए हों।

अंतत: बछड़ा खड़ा हो गया और वे दोनों वहाँ से चले गए। लेकिन हम दोनों बहुत देर तक उदास रहे । कुछ मुखर तो बहुत कुछ मौन भाषा में प्राणि जगत पर छाए संकट पर विमर्श करते रहे।

संकट सिर्फ़ मानव पर ही नहीं सब पर है।

इसी प्रसंग में प्रस्तुत है अपनी एक कविता-

 ☆  बेहद उदास रहती है गिलहरी  

बचपन में

तैरने के लिए

लबालब भरा

एक बड़ा -सा तलाव रहता था

हमारे गाँव में

सीप,घोंघे,केकड़े

सिंघाड़े-सा

मुँह निकाले कछुए

मोतियों की आँखें लिए

लपालप उछलती

मछलियाँ भरी रहती थीं

उस तलाव में

गिलहरियाँ ही गिलहरियाँ

थीं हमारी बगिया में

मोरों के केका

कोयलों की कूक से

आबाद थी बगिया

पेड़ कटे तो

गायब हो गईं गिलहरियाँ

न जाने कहाँ उड़ गए

मोर,कोयलें,सुग्गे,कौए,कठफोरवा,नीलकंठ

और,

न जाने कितनी और भी

नाम- बेनाम चिड़ियाँ

एक गिलहरी का जोड़ा बचा था

पिछवाड़े के अमरूद पर

कच्चे अमरूदों,डालियों और पत्तियों तक से

गाढ़ी दोस्ती थी उनकी

तलाव सूखा

साथ में अमरूद

और एक गिलहरी भी

(पता नहीं

इसी गम में

या गिर कर मरी हो वह)

झर कर गिर गई

सूखे पत्ते की मानिंद

बची हुई भी

बस बची भर है

इन दिनों

अमरूद पर

अनुलोम-विलोम नहीं करती

न ही पिछले पैरों पर खड़ी होकर

जायजा लेती है

मुँह नहीं चलाती

मूँछों पर ताव नहीं देती

बमुश्किल दीवारों पर

थकी-थकी-सी

चढ़ती-उतरती

चारों तरफ़ घुंघची-सी आँखों से

कुछ खोजती हुई

बेहद उदास रहती है गिलहरी।

 

©  डॉ. गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’

सूरत, गुजरात

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 38 ☆ अमलतास  ☆ सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

(सौ. सुजाता काळे जी  मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं।  उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है  सौ. सुजाता काळे जी  द्वारा  प्रकृति के आँचल में लिखी हुई एक अतिसुन्दर भावप्रवण  कविता  “अमलतास ”। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 38 ☆

  ☆ अमलतास 

 

पीतांबर है या

पहनी अंशुमालाएँ?

या किरणों का

उत्सर्ग हुआ ।

 

गदराया है,

सोना पेड़ पर

या मौसम ही

सोने सा हुआ।

 

कोई कहे

जादु हुआ है,

या कोई कहे

यह गजब हुआ ।

 

© सुजाता काळे

पंचगनी, महाराष्ट्र, मोबाईल 9975577684

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ चुप्पियाँ- 9 ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  ☆  चुप्पियाँ- 9

मेरी चुप्पी का

जवाब पूछने

आया था वह,

मेरी चुप्पी का

एन्सायक्लोपीडिया

देखकर

चुप हो गया वह!

# दो गज की दूरी, है बहुत ही ज़रूरी।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

( प्रात: 9:45, 2.9.2018)

(कवितासंग्रह *चुप्पियाँ* से)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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