हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ विभाजन ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

आज  इसी अंक में प्रस्तुत है श्री संजय भरद्वाज जी की कविता  “ विभाजन “ का अंग्रेजी अनुवाद  Division” शीर्षक से ।  हम कैप्टन  प्रवीण रघुवंशी जी के ह्रदय से आभारी  हैं  जिन्होंने  इस कविता का अत्यंत सुन्दर भावानुवाद किया है। )

☆ संजय दृष्टि  ☆  विभाजन

लहरों को जन्म देता है प्रवाह

सृजन का आनंद मनाता है,

उछाल के विस्तार पर झूमता है

काल का पहिया घूमता है,

विकसित लहरें बाँट लेती हैं

अपने-अपने हिस्से का प्रवाह,

शिथिल तन और

खंडित मन लिए प्रवाह

अपनी ही लहरों को

विभक्त देख नहीं पाता है,

सुनो मनुज!

मर्त्यलोक में माता-पिता

और संतानों का

कुछ ऐसा ही नाता है!

# दो गज की दूरी, है बहुत ही ज़रूरी।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

( 8.35 बजे, 18 मई 2019)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 47 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  “भावना के दोहे। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 47 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

 

दूर-दूर तक देश में,हैं कितने अभियान।

दृढ़ता से संकल्प लो, तभी मिलेगा ज्ञान।।

 

रखें धैर्य साहस सदा,मन में हो विश्वास।

जीवन-यात्रा में कभी, टूट न जाए आस।।

 

आज विश्व में हो रही, जन्म-मरण की जंग।

संयम लाएगा सदा, जीवन में फिर रंग।।

 

मानव संकट से घिरा, सूझे नहीं निदान।

देना होगा कब तलक, अपनों का बलिदान।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 38 ☆ भाषा आँखों की अलग …. ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत है  श्री संतोष नेमा जी  का  एक भावप्रवण रचना “भाषा आँखों की अलग …. ”। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार  आत्मसात कर सकते हैं।) 

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 38 ☆

☆ भाषा आँखों की अलग .... ☆

आँखों से आँखें करें, आपस में तक़रीर

देखो मूरख लिख रहे,आँखों  की तक़दीर

 

आँखें ही तो खोलतीं,दिल के गहरे राज़

प्यार मुहब्बत इश्क़ का,करती हैं आगाज़

 

आँखों से ही उतरकर,दिल में बसता प्यार

दिल से उतरा आँख से,बरसाता जल धार

 

प्यासी आँखें खोजतीं,सदा नेह जल धार

जिन आँखों में जल नहीं,वो निष्ठुर बेकार

 

गहराई जब आँख की,देखे कोई और

आँखों में ही डूबता,रहे न कोई ठौर

 

आँखें ही तो पकड़तीं,सबकी झूठ जबान

दिल-जबान के भेद की,करतीं वे पहचान

 

भाषा आँखों की अलग,इनकी अलग जबान

आँख मिलाते समय अब,सजग रहें श्रीमान

 

आँखों को भाता सदा,कुदरत का नव रंग

सुंदरता मन मोहती,आँखों भरी उमंग

 

आँखों में सपने बसें,बसती हैं तसवीर

आँखों से ही झलकती, इन नैनों की पीर

 

आँखों से ही हो सदा,खुशियों की बरसात

भीगी आँखें रात-दिन,छलकातीं जज्बात

 

आँखें जग रोशन करें,आँखें रोशन दान

आँखों में संतोष है,सूरज ज्योतिर्मान।।

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मो 9300101799

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 28 ☆ माँ ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। अब आप डॉ राकेश ‘चक्र’ जी का साहित्य प्रत्येक गुरुवार को  उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं  आपकी एक  भावप्रवण कविता  “माँ .)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 28 ☆

☆ माँ ☆

माँ है शीतल चाँद

सूर्य की

वही चेतना धारा

अंधियारे में

दिशा दिखाती

माँ ही है ध्रुवतारा

 

असह्य ताप में

माँ लगती है

सजल -सजल पुरवाई

जब जब

रेगिस्तान मिला

उसने ममता बरसाई

 

धूप -धूल से

बचा बचा कर

उसने हमें संवारा

 

हमने ममतामय आँचल की

छांह इस तरह पाई

बर्फीले तूफान

पार कर

छू पाए ऊँचाई

 

हर उलझन में

वही रही है

हमको सबल सहारा

 

याद बहुत आती

मां की फटकार

और मुस्काना

गीले में सोकर

सूखे में

उसका हमें सुलाना

 

सबके लिए

दुलार प्यार का

वह अदभुत बंटवारा

 

डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001

उ.प्र .  9456201857

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 48 – फुर्सत में हो तो आओ  ….☆ डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  आपकी एक समसामयिक रचना फुर्सत में हो तो आओ  ….। )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य  # 48 ☆

☆ फुर्सत में हो तो आओ  …. ☆  

 

फुर्सत में हो तो आओ

अब तुक बंदियां करें

लाज शर्म संकोच छोड़ कर

हम भी शब्द चरें।

 

ऑनलैन के खेल चले हैं

इधर-उधर ई मेल चले हैं

कोरोना कलिकाल महात्मय

पानी में पूड़ीयां तले हैं,

शब्दों की धींगा मस्ती में

अर्थ हुए बहरे।

फुर्सत में हो तो आओ

अब तुकबंदियाँ करें।

 

कविता दोहे गद्य कहानी

सभी कर रहे हैं मनमानी

कोरोना के विषम काल में

कलम चले पी पीकर पानी,

अध्ययन चिंतन और मनन पर

लगे हुए पहरे।

फुर्सत में हो तो आओ

अब तुकबंदियाँ करें।

 

पहले तो, दो चार बार ही

महीने में होता सिर भारी

अब मोबाइल रखा हाथ में

चौबीस घंटे की लाचारी,

मुश्किल है अब वापस जाना

उतर गए गहरे।

फुर्सत में हो तो आओ

अब तुकबंदियाँ करें।

 

अलय बेसुरे गीत पढ़ें

सम्मानों से प्रीत बढे

जोड़ तोड़ ले देकर के

प्रगति के सोपान चढ़े,

अखबारी बुद्धि, चिंतक बन

बगुला ध्यान धरें।

फुर्सत में हो तो आओ

अब तुकबंदियाँ करें।

 

वाह-वाह की, दाद  मिली

सांच-झूठ की खाद मिली

कविताएं चल पड़ी सफर में

खिली ह्रदय की कली-कली,

आत्ममुग्धता का भ्रम मन से

टारे नहीं टरे।

फुर्सत में हो तो आओ

अब तुकबंदियाँ करें।

 

अच्छा है  ये मन बहलाना

और न कोई  ठौर ठिकाना

कोरोना के, इस  संकट से

बचने का भी, एक बहाना,

प्रीत के पनघट ताल तलैया

भरी रहे नहरें।

फुर्सत में हो तो आओ

अब तुकबंदियाँ करें।

 

सुरेश तन्मय

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश

मो. 989326601

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ चुप्पियाँ-8 ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

आज  इसी अंक में प्रस्तुत है श्री संजय भरद्वाज जी की कविता  “ चुप्पियाँ“ का अंग्रेजी अनुवाद  Silence” शीर्षक से ।  हम कैप्टन  प्रवीण रघुवंशी जी के ह्रदय से आभारी  हैं  जिन्होंने  इस कविता का अत्यंत सुन्दर भावानुवाद किया है। )

☆ संजय दृष्टि  ☆  चुप्पियाँ-8

क्या आजीवन

बनी रहेगी

तुम्हारी चुप्पी?

प्रश्न की

संकीर्णता पर

मैं हँस पड़ा,

चुप्पी तो

मृत्यु के बाद भी

मेरे साथ ही रहेगी!

 

# दो गज की दूरी, है बहुत ही ज़रूरी।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

( कविता-संग्रह *चुप्पियाँ* से।)

(प्रातः 9:01 बजे, 2.9.18)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 27 ☆ कटघरा  ☆ श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’  

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’ जी  एक आदर्श शिक्षिका के साथ ही साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे गीत, नवगीत, कहानी, कविता, बालगीत, बाल कहानियाँ, हायकू,  हास्य-व्यंग्य, बुन्देली गीत कविता, लोक गीत आदि की सशक्त हस्ताक्षर हैं। विभिन्न पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत एवं अलंकृत हैं तथा आपकी रचनाएँ आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित होती रहती हैं। आज प्रस्तुत है  एक समसामयिक कविता कटघरा 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 26 ☆

☆ कटघरा  ☆

 

संकट भीषण गहरा है

कदम-कदम पर खतरा है

 

दुनिया घिरी मुसीबत में

भय-सन्नाटा पसरा है

 

अपना-अपना घर-आँगन

लगता हमें कटघरा है

 

रामभरोसे साँसों का

एक-एक दिन गुजरा है।

 

सूनी सड़कों पर जैसे

यमदूतों का पहरा है

 

© श्रीमती कृष्णा राजपूत  ‘भूमि ‘

अग्रवाल कालोनी, गढ़ा रोड, जबलपुर -482002 मध्यप्रदेश

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ चुप्पियाँ-7 ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  ☆  चुप्पियाँ-7

चुप रहो…

…क्यों?

…देर तक

तुम्हारी चुप्पी

सुनना चाहता हूँ!

 कृपया घर में रहें, सुरक्षित रहें।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

( कविता-संग्रह *चुप्पियाँ* से।)
( 2.9.18, प्रातः 6:59 बजे )

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 1 – मन के शब्दार्थ ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आपने ई- अभिव्यक्ति के लिए “साप्ताहिक स्तम्भ -अभिनव गीत” प्रारम्भ करने का आग्रह स्वीकारा है, इसके लिए साधुवाद। आज पस्तुत है उनका अभिनव गीत  “मन  के शब्दार्थ “ ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 1 – ।। अभिनव गीत ।।

☆ मन के शब्दार्थ  ☆

छूट गये साथी सब

पेंचदार गैल के

बीत गये दिन जैसे

शापित अप्रैल के

 

चिन्तातुर आँगन को

झाँकते पुकारते

मन के शब्दार्थ को

यों अक्षरशः बाँचते

भीतर तक गहरे

अवसाद मे समाये से

शब्दों की तह को

न ढाँपते उघाड़ते

 

देर तलक छाया मे

छिछलते रहे ऐसे

छाछ बचे अधुनातन

छप्पन के छैल के

 

माथे पर चाँद की

तलाश के विचार से

बीत गई रात बहुत

रोशनी, प्रचार से

शंकायें तैर रहीं

आँखों की कोरो में

व्याकुल तारामंडल

अपने घर वार से

 

खोजती चली आई

वह निशीथ की कन्या-

चाँदनी, झाँक गई

घर में खपरैल के

 

नम्र हुआ जाता है

शापित वह पुष्पराग

जिस पर आ सिमटा है

मुस्कानों का प्रभाग

मन्द मन्द खुशबू के

बिखरे हुये केशों

में जाकर सुलगी है

बरसों को दबी आग

 

हवा की किताबों से

देखो छनकर निकले

आखिर वे प्रेमपत्र

किंचित विगड़ैल के

 

© राघवेन्द्र तिवारी

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ World on the edge / विश्व किनारे पर # 8 ☆ मन ☆ डॉ निधि जैन

डॉ निधि जैन 

डॉ निधि जैन जी  भारती विद्यापीठ,अभियांत्रिकी महाविद्यालय, पुणे में सहायक प्रोफेसर हैं। आपने शिक्षण को अपना व्यवसाय चुना किन्तु, एक साहित्यकार बनना एक स्वप्न था। आपकी प्रथम पुस्तक कुछ लम्हे  आपकी इसी अभिरुचि की एक परिणीति है। आपने हमारे आग्रह पर हिंदी / अंग्रेजी भाषा में  साप्ताहिक स्तम्भ – World on the edge / विश्व किनारे पर  प्रारम्भ करना स्वीकार किया इसके लिए हार्दिक आभार।  स्तम्भ का शीर्षक संभवतः  World on the edge सुप्रसिद्ध पर्यावरणविद एवं लेखक लेस्टर आर ब्राउन की पुस्तक से प्रेरित है। आज विश्व कई मायनों में किनारे पर है, जैसे पर्यावरण, मानवता, प्राकृतिक/ मानवीय त्रासदी आदि। आपका परिवार, व्यवसाय (अभियांत्रिक विज्ञान में शिक्षण) और साहित्य के मध्य संयोजन अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण कविता  “मन ”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ World on the edge / विश्व किनारे पर # 8 ☆

☆  मन  ☆

भावों की सरिता में मेरा मन, इन्द्रधनुष सा मेरा मन।

 

घर के एक एक कोने में मेरा मन,

न जाने कहाँ कहाँ भटकता मेरा मन,

इस मन को पकड़ लेना चाहती हूँ, मन ही मन में,

कभी रोकती हूँ, कभी टोकती हूँ, ना जाए इधर उधर मेरा मन,

कभी पतंग सा  उड़ता मेरा मन,

भावों की सरिता में मेरा मन, इन्द्रधनुष सा मेरा मन।

 

कभी घूमने निकलूँ तो, चाट के ठेले पे ललचाता मेरा मन,

कभी रंगीन कपड़ों की दुकानों पर, रुक जाता मेरा मन,

कभी पार्क में बैठूँ तो, पता नहीं कहाँ खो जाता मेरा मन,

कभी पुरानी  यादों में मेरा मन,

भावों की सरिता में मेरा मन, इन्द्रधनुष सा मेरा मन।

 

दीपावली के फटाकों से उत्साहित मेरा मन,

होली के रंगों से रंगा हुआ मेरा मन,

बैसाखी मे नाचता हुआ मेरा मन,

हर त्यौहार में आनन्दित मेरा मन,

भावों की सरिता में मेरा मन, इन्द्रधनुष सा मेरा मन।

 

हर दुख में रोता चीखता मेरा मन,

किसी सहारे, किसी कंधे को ढूँढता मेरा मन,

हर उम्र में ढूँढता, माँ की गोद को मेरा मन,

क्योंकि आकाश की अन्तहीन सीमा में मेरा मन,

भावों की सरिता में मेरा मन, इन्द्रधनुष सा मेरा मन।

©  डॉ निधि जैन, पुणे

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