हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अंतर ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – अंतर ☆

संग्रह दोनों ने किया,

उसका संग्रह

भीड़ जुटाकर भी

उसे अकेला करता गया,

मेरे संग्रह ने

एकाकीपन

पास फटकने न दिया,

अंतर तो रहा यारो!

उसने धनसंग्रह किया

मैंने जनसंग्रह किया।

# घर में रहें। सुरक्षित और स्वस्थ रहें।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

रविवार 16 अप्रैल 2017 प्रातः 8:16 बजे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 33 ☆ तू चल, चल लक्ष्य की ओर…..!! ☆ सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

(सौ. सुजाता काळे जी  मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं।  उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है  सौ. सुजाता काळे जी  द्वारा  प्रकृति के आँचल में लिखी हुई एक अतिसुन्दर भावप्रवण  कविता  “ तू चल, चल लक्ष्य की ओर…..!! ”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 33 ☆

तू चल, चल लक्ष्य की ओर…..!! ☆

 

तू कर प्रयास और पा सफलता

न मिले सफलता तो तू कर प्रयास

अर्जुन बन कर तू भेद चक्षु को

मत्स की ओर समर्पण कर जा

तू चल, चल लक्ष्य की ओर…..!!

 

तू भेद बाणों की वर्षा से

और खिंच प्रंत्यचा साहस से

एकलव्य बन तू भेद आकाश

जब तक लगे ना घाव वहाँ

कोई मिले ना गुरू यहाँ

तू चल, चल लक्ष्य की ओर…..!!

 

© सुजाता काले

पंचगनी, महाराष्ट्र, मोबाईल 9975577684

[email protected]

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – जादू ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – जादू ☆

(एक रचना पर एक पाठक की प्रतिक्रिया पर प्रतिक्रियास्वरूप उपजी कविता)

 

अनुभूति वयस्क तो हुई

पर कथन से लजाती रही,

आत्मसात तो किया

किंतु बाँचे जाने से

कागज़  मुकरता रहा,

मुझसे छूटते गये

पन्ने  कोरे के कोरे,

पढ़ने वालों की

आँख का जादू

मेरे नाम से

जाने क्या-क्या

पढ़ता रहा!

 

# कृपया घर में ही रहें। स्वस्थ रहें।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

प्रात: 9:19 बजे, 25.7.2018

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ बस्ती ☆ सुश्री प्रतिभा स बिळगी “प्रीति”

सुश्री प्रतिभा स बिळगी “प्रीति”

(ई- अभिव्यक्ति में सुश्री प्रतिभा स बिळगी “प्रीति”जी का हार्दिक स्वागत है। हिंदी एवं मराठी भाषा की विभिन्न विधाओं की सशक्त हस्ताक्षर सुश्री प्रतिभा स बिळगी  “प्रीति”वर्तमान में रामय्या इन्स्टिट्यूट ऑफ बिजनेस स्टडीज , डिग्री कालेज, बैंगलोर के हिंदी विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर के रूप में कार्यरत हैं । आपका प्रथम काव्य संकलन ‘जिंदगी  की दास्तान‘ 2008 में प्रकाशित। 15 से अधिक लेख राष्ट्रीय  एवं अंतरराष्ट्रीय सेमिनार में प्रस्तुत एवं प्रकाशित।  कई रचनाएँ हिन्दी एवं मराठी भाषाओं में  राष्ट्रीय  एवं अंतरराष्ट्रीय  पत्रिकाओं में प्रकाशित।  कई प्रादेशिक/राष्ट्रीय स्तर  के पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत जिनमें प्रमुख है ‘सहोदरी  हिन्दी सम्मान‘. आज प्रस्तुत है उनकी एक अत्यंत भावपूर्ण  एवं संवेदनशील कविता  ‘बस्ती’।)

☆ बस्ती ☆

आलिशान मकानों के बीच

मैली अंधेरी एक बस्ती

जहाँ एक ओर ऐशोआराम

वहीं दूसरी ओर तड़प भूख की

 

फटे सिले कपड़े धुलने के बाद

सूखाए जाते है लकड़ियों के ढेर पर

यहाँ ईटों का रंग उड़ा हुआ है

टपकती हैं बारिश में छत भी

 

गंदगी से भरा पानी का बहता नाला

मन को बेचैन करती गंध उसकी

दिनभर की थकान के बावजूद

बस्तीवालों पर अपना असर न छोड़ पाती

 

खूंटे से बंधे जानवर

आँगन में मिट्टी से खेलते बालक

कुत्ता भी जहाँ निश्चिंत सोता

और बंटता सब में निवाला बराबर

 

एक तरफ चेहरे की झुर्रियाँ

उनके हालातों को बयान करती

वहीं चैन और सुकून से भरी

नींद भी बड़े अच्छे से आती

 

रहते है यहाँ इन्सान ही मगर

क्या यह इन्सानों की बस्ती है कहलाती  ॽ

कैसा विपर्यास, यह न्यायशीलता कैसी

एक जैसी क्यों नहीं हम सबकी बस्ती  ॽ

 

© प्रतिभा “प्रीति”

ए -307, शशांक फ्लोरेंटो, संभ्रम कॉलेज के पास, अम्बा भवानी टेम्पल रोड, एम एस पाल्या 560097 (बैंगलोर), मोo- 8123100406

ईमेल :- [email protected]

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र # 23 ☆ हर कहानी है नई  ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। अब आप डॉ राकेश ‘चक्र’ जी का साहित्य प्रत्येक गुरुवार को  उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं  आपकी एक अतिसुन्दर एवं सार्थक कविता  “हर कहानी है नई .)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 23 ☆

☆ हर कहानी है नई  ☆

 

फूल बनकर मुस्कराती

हर कहानी है नई

चाँद-से मुखड़े बनाती

हर कहानी है नई

 

बह रहीं शीतल हवाएँ

कर रहीं जीवन अमर

पर्वतों की गोद से ही

झर रहे झरने सुघर

वाणियों में रस मिलाता

बोल करता है प्रखर

 

चाँदनी रातें लुटातीं

हर कहानी है नई

 

तेज बनकर सूर्य का

ऊष्मा बिखेरे हर दिवस में

शाक ,फल में स्वाद भरता

हर तरफ ऐश्वर्य यश में

सृष्टि का सम्पूर्ण स्वामी

हैं सभी आधीन वश में

 

नीरजा नदियाँ बहातीं

हर कहानी है नई ।

 

शाश्वत है शांति सुख है

और फैला है पवन में

सृष्टि का है वह नियामक

इंद्रियों-सा  जीव-तन में

जन्म देता वृद्धि करता

वह मिले हर सुमन कण में

 

बुलबुलों के गीत गाती

हर कहानी है नई

 

है धरा सिंगार पूरित

बस रही है हर कड़ी में

हीर,पन्ना मोतियों-सी

दिख रही पारस मणी में

टिमटिमाते हैं सितारे

सप्त ऋषियों की लड़ी में

 

पर्वतों-सी सिर उठाती

हर कहानी है नई

 

डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001

उ.प्र .  9456201857

[email protected]

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 43 – मन में थोड़ा धैर्य धरें….. ☆ डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  उनकी एक  अतिसुन्दर समसामयिक रचना मन में थोड़ा धैर्य धरें…..। आज यही जीवन  की आवश्यकता भी है। )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य  # 43 ☆

☆ मन में थोड़ा धैर्य धरें….. ☆  

 

मोहभंग हो रहा स्वयं से

खुद ही खुद  से डरे डरे

खुश फहमी है लगी टूटने

रिश्तों  में   संशय  गहरे।।

 

कितना जीवन, इतना जीवन

नहीं मानता फिर  भी ये  मन

खाली  समय  सोच की खेती

फसल कटे, पहले  का मंथन

खुशियों पर संक्रमण करे घन

अतिवृष्टि  कर घात करे।

मोह भंग हो रहा स्वयं से

खुद ही  खुद  से डरे  डरे।।

 

कल तक तो सब हरा भरा था

लगता  जीवन   खरा-खरा था

आयातित यह रक्त विषाणु

बना  शत्रु  है  वसुंधरा  का,

संवेदनिक  भावनाओं  को

समझेंगे  कब  ये   बहरे।

मोह भंग हो रहा स्वयं से

खुद ही खुद से डरे – डरे।।

 

फैली  दुनिया  में   लाचारी

ये सिलसिला  रहेगा  जारी

स्वविवेक का हाथ न थामा

रहे  यदि  हम  स्वेच्छाचारी,

कीमत  बड़ी चुकानी होगी

नहीं आज  यदि हम सुधरे।

मोहभंग  हो  रहा  स्वयं से

खुद  ही  खुद से  डरे – डरे।।

 

अकथ,अकल्पित हुई हवाएं

बेमौसम   मेंढक   टर्राये

तर्क – वितर्कों के मेले में

उम्मीदों के  दीप जलाएं,

खिले फूल महकेगा आंगन

मन  में  थोड़ा  धैर्य  धरें।

मोहभंग हो रहा स्वयं से

खुद ही खुद से डरे  डरे।।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश

मो. 989326601

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – भूमिकाएँ ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

भारतीय संविधान की मसौदा समिति के अध्यक्ष और द्रष्टा व्यक्तित्व डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर जी  की जयंती निमित्त उन्हें नमन। सभी मित्रों से अनुरोध है कि उनकी लिखी पुस्तकों में से कोई एक पढ़ना शुरू करें। लॉकडाउन में उनकी जयंती मनाने का यही श्रेष्ठ मार्ग भी होगा।

…संजय भारद्वाज।

≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡

☆ संजय दृष्टि  – भूमिकाएँ ☆

 

उसने याद रखे काँटे

पुष्प देते समय

अनायास जो

मुझसे, उसे चुभे थे,

मेरे नथुनों में

बसी रही

फूलों की गंध सदा

जो सायास

मुझे काँटे

चुभोते समय

उससे लिपट कर

चली आई थी,

फूल और काँटे का संग

आजीवन है

अपनी-अपनी भूमिका पर

दोनों कायम हैं।

# घर में रहें। स्वस्थ रहें।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

16 सितम्बर 2018

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ कोरोना की हार हो ☆ श्री मच्छिंद्र बापू भिसे

श्री मच्छिंद्र बापू भिसे

(श्री मच्छिंद्र बापू भिसे जी की अभिरुचिअध्ययन-अध्यापन के साथ-साथ साहित्य वाचन, लेखन एवं समकालीन साहित्यकारों से सुसंवाद करना- कराना है। यह निश्चित ही एक उत्कृष्ट  एवं सर्वप्रिय व्याख्याता तथा एक विशिष्ट साहित्यकार की छवि है। आप विभिन्न विधाओं जैसे कविता, हाइकु, गीत, क्षणिकाएँ, आलेख, एकांकी, कहानी, समीक्षा आदि के एक सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ प्रसिद्ध पत्र पत्रिकाओं एवं ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं।  आप महाराष्ट्र राज्य हिंदी शिक्षक महामंडल द्वारा प्रकाशित ‘हिंदी अध्यापक मित्र’ त्रैमासिक पत्रिका के सहसंपादक हैं। आज प्रस्तुत है उनकी  कविता “ कोरोना की हार हो।)

☆  कोरोना की हार हो ☆

आज गतिहीन देश को

शांति से गति दो

संबल मिलेगा पुन: पुन:

खुद को घर में रहने दो।

यह शांति और

मानवता का इम्तिहान है

जीतना होगा इसे हमें

एकता के दर्शन दो।

दुश्मन दर पे है खड़ा

रहेगा कुछ दिनों तक अड़ा

मिटाने को इसे यहाँ से

सब्र की ढाल दो।

कुछ पल अपनों से दूरी

है सबकी मजबूरी

इस मजबूरी के अस्त्र से

शत्रु पर मात दो।

दुश्मन बड़ा दक्ष है

हमपर गढ़े अक्ष है

इसे नजर न आए

इसे तड़प के मरने दो।

खुद को संभालो

औरों को बचालो

अपने से न फैले कोरोना

इसे ही दूर खड़ा कर दो।

खाना जब न मिले बैठकर

जवानों को याद करो

दो निवाले तो अपने मुख में

शासन को न ताना दो।

पुलिस, डाक्टर, नर्स  औ’ कर्मचारी

निभा रहे अपनी जिम्मेदारी

अब अपनी है बारी

अपने जज्बातों को विराम दो।

जीत हमारी पक्की है

अनुशासन का साथ दो

कोरोना मिट जाएगा

देश की अपने जीत हो।

 

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 35 ☆ दरवाज़े ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  कविता “दरवाज़े”। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 35☆

☆  दरवाज़े ☆

कौन जाने

कितने दरवाज़े हैं

ज़िंदगी के इन रास्तों पर?

 

कहाँ खुलते हैं

यह तिस्लिमी दरवाज़े?

क्या यह किसी टूटे हुए किले की

दफनाई हुई दास्तानों को छुपाये बैठे हैं?

या फिर यह

किसी सुकून के रास्तों पर

ले जाने वाले खुशनुमा रास्ते हैं?

या फिर यह दरवाज़े

एक से दूसरे तक पहुंचाते हुए

बस उलझाकर रख देते हैं वक़्त को?

 

मन तो बहुत करता है

कि रुक जाऊँ पल दो पल को

और खोजूं इन रास्तों का मुकाम,

पर मैं इतना उलझ के रह जाती हूँ

सीढ़ियों पर ही

कि तह खोल ही नहीं पाती!

 

शायद तुम कभी आओ

और थामकर मेरी बाहें

ले चलो मुझे किसी एक दरवाज़े के भीतर

तो ए खुदा!

मैं पा लूंगी हर ख़ुशी!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – ग़ज़ल ☆ कोरोना कर्मों का फल है ☆ आचार्य भगवत दुबे

मानवीय एवं राष्ट्रीय हित में रचित रचना

आचार्य भगवत दुबे

(आज प्रस्तुत है हिदी साहित्य जगत के पितामह  गुरुवार परम आदरणीय आचार्य भगवत दुबे जी की एक समसामयिक, प्रेरक एवं शिक्षाप्रद ग़ज़ल  ” कोरोना कर्मों का फल है“। आप आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर विस्तृत आलेख निम्न लिंक पर पढ़ सकते हैं :

हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆ – हेमन्त बावनकर

यहाँ यह उल्लेखनीय है कि आपके व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर तीन पी एच डी ( चौथी पी एच डी पर कार्य चल रहा है) तथा दो एम फिल  किए गए हैं। डॉ राज कुमार तिवारी ‘सुमित्र’ जी के साथ रुस यात्रा के दौरान आपकी अध्यक्षता में एक पुस्तकालय का लोकार्पण एवं आपके कर कमलों द्वारा कई अंतरराष्ट्रीय सम्मान प्रदान किए गए। आपकी पर्यावरण विषय पर कविता ‘कर लो पर्यावरण सुधार’ को तमिलनाडू के शिक्षा पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है। प्राथमिक कक्षा की मधुर हिन्दी पाठमाला में प्रकाशित आचार्य जी की कविता में छात्रों को सीखने-समझने के लिए शब्दार्थ दिए गए हैं।

☆ कोरोना कर्मों का फल है ☆

 

मानव खुद विनाशकारी  है,  कोरोना कर्मों  का  फल है

पर्वत फोड़, उजाड़े जंगल, लगा दहकने अब मरुथल है।

 

केमिकल  परमाणु   बमों  की  फैली  है  दुर्गंध धरा पर

मानव ने पावन नदियों को बना दिया दूषित दलदल है।

 

फैलाया     विज्ञानविदों   ने   यह   विनाशकारी   कोरोना

महाशक्ति के अहंकार का आज स्वयं ढह रहा महल है।

 

लगभग एक करोड़ संक्रमित, मृतकों को दफनाना मुश्किल

इटली, चीन, रूस, अमरीका, पस्त हुआ इनका धन बल है।

 

वीरानी छाई सड़कों पर  आज  चतुर्दिक  भय  सन्नाटा

आपस में मिलने से डरते, छाया शंका का बादल है ।

 

मास्क   लगाएँ ,  रहें  घरों   में,  धोते रहें  हाथ  साबुन  से

केवल सामाजिक दूरी ही विकट समस्या का इक हल है।

 

इक मीटर की दूरी रखकर,  करें  लॉक  डाउन का पालन

घर में ही सीमित, बच्चों की रखना मिलकरचहल पहल है।

 

भगवत रखो भरोसा, इक दिन अंधकार यह छंट जाएगा

उत्साही साहस  वालों  को  मिला  धैर्य का मीठा फल है।

 

आचार्य भगवत दुबे 

शिवार्थ रेसिडेंसी, जसूजा सिटी, पो गढ़ा, जबलपुर ( म प्र) –  482003

मो 9691784464

Please share your Post !

Shares
image_print