हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – जिजीविषा ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – जिजीविषा ☆

संकट, कठिनाई,

अनिष्ट, पीड़ादायी,

आपदा, अवसाद,

विपदा, विषाद,

अरिष्ट, यातना,

पीड़ा, यंत्रणा,

टूटन, संताप,

घुटन, प्रलाप,

इन सबमें सामान्य क्या है?

क्या है जो हरेक में समाता है,

उत्कंठा ने प्रश्न किया..,

मुझे इन सबमें चुनौती

और जूझकर परास्त

करने का अवसर दिखता है,

जिजीविषा ने उत्तर दिया..!

घर में रहें। सकारात्मक रहें।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

दोपहर 3: 24 बजे, सोमवार 9 मार्च 2020

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ दुख की घड़ियां कटेंगी, मिलेगा जीवनदान ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

(प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा  रचित एक समसामयिक विशेष रचना ‘दुख की घड़ियां कटेंगी, मिलेगा जीवनदान। ) 

☆  दुख की घड़ियां कटेंगी, मिलेगा जीवनदान  ☆

करोना के कहर से कांप रहा संसार

हर चेहरा चिंतित दुखी देश और सरकार

रुकी है धड़कन विश्व की ठप्प है कारोबार

बंद सभी हैं घरों में बंद सकल व्यापार

 

सूनी सड़के बंद सब दफ्तर और स्कूल

स्थितियां सब बन गई जनजीवन प्रतिकूल

बच्चे  , बूढ़े कैद से है  हो रहे उदास

फिर भी कई एक मूर्ख हैं करने और विनाश

 

अपना खुद ही नासमझ करते सत्यानाश

शासन के आदेशों का करते जो उपहास

कैसे क्यों ? सहसा हुई बीमारी उत्पन्न

है दुनिया अनजान और वैज्ञानिक सब सन्न

 

शायद किया है मनुज ने कोई बड़ा अपराध

जिससे बढ़ती जा रही यह प्रतिदिन निर्बाध

आत्म निरीक्षण करें सब तथाकथित विद्वान

प्रकृति को छेड़ा है जिनने जैसे हों नादान

 

शायद मनुज की गलतियों का ही है परिणाम

जिसको देता रहा वह महाशक्ति का नाम

प्रेम भाव की हुई कमी बढा बैर विद्वेष

आपस के दुर्भाव को झेल रहा हर देश

 

बहुत जरूरी है बढ़े फिर ममता और प्रेम

अनुशासित हो कामना रीति नीति और नेम

यदि सचेत हो लोग सब तो न हो और बिगाड़

अनजानी कठिनाइयों के ना बढें पहाड़

 

यदि पनपे सद्भावना ना हो कोई निराश

क्रमशः बढ़ता जा सके आपस का विश्वास

धीरज से ही कटेगी यह अंधियारी रात

घना अंधेरा रात का देता नवल प्रभात

 

सब की गति मति एक हो तो मुश्किल आसान

कठिन तपस्या से सदा मिलते हैं भगवान

करो ना कुछ भी अटपटा तो ये करोना जाए

जीवन में संसार के फिर समृद्धि सुख आये

 

बढ़े न रोग ये इसका है एक ही सरल उपाय

स्वच्छ रहे , घर में रहे बाहर व्यर्थ न जाएं

दुख की घड़ियां कटेंगी मिलेगा जीवनदान

सबकी शुभ सदबुद्धि हो, विनय यही भगवान

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र # 22 ☆ आध्यात्मिक दोहे ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। अब आप डॉ राकेश ‘चक्र’ जी का साहित्य प्रत्येक गुरुवार को  उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं  आपके  अतिसुन्दर एवं सार्थक “आध्यात्मिक दोहे.)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 22 ☆

☆ आध्यात्मिक दोहे ☆

 

पत्ता टूटा पेड़ से, आया मेरे पास  ।

जीवन सबका इस तरह, मत हो मित्र उदास।।

 

ॐ मन्त्र ही श्रेष्ठ है, जप तप का आधार ।

चक्र सदा इसमें रमो, करता बेड़ा पार।।

 

माया के बहु रूप हैं,  माया दुख का सार।

माया ही करती रही ,चक्र सदा अपकार।।

 

समय अभी है चेत जा, चक्र लगा ले ध्यान।

शोर शराबा हर तरफ, दुष्ट करें अपमान।।

 

वेदों में हैं जो रमे, करते गीता पाठ।

ज्ञान बुद्धि सन्मति बढ़े, भ्रम, संशय हो काठ।।

 

दो ही मानव जातियाँ, असुर औ एक देव।

देव करें शुभ काम ही, असुर रखें मन भेद।।

 

काम, क्रोध, मद, लोभ ही; यही नरक के द्वार।

जो इनसे बच के रहें, हो उनका उद्धार।।

 

सुख -दुख में है साथ प्रिय, तुझसे पावन प्यार।

पवन गगन सर्वत्र है, तुझमें है संसार।।

 

लघुता में रहकर जिया, मन में सुक्ख अपार।

जीवन ही देता रहा, मौन सुखी संसार।।

 

लाभ हानि सुख छोड़कर ,गुरु देता है ज्ञान।

गुरुवर के सानिध्य से,सबका हो कल्याण।।

 

‘चक्र’ कबीरा बाबरा,  हँसे अकेला रोज।

मायावी संसार में, करे स्वयं की खोज।।

 

कृपण कभी देता नहीं, प्यार और सत्कार।

चाहे भर लूँ मुट्ठियाँ, भर लूँ सब संसार।।

 

संशय , शक जो जन करें, वही भाग्य के हीन।

कर ले शुभ- शुभ बाबरे, श्वाश मिलीं दो तीन।।

 

योग,परिश्रम नित करू, सोचूँ शुभ -शुभ काम।

सभी समर्पित ईश को, मुझे कहाँ  विश्राम।।

 

 

डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001

उ.प्र .  9456201857

[email protected]

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हिन्दी साहित्य- कविता / दोहे ☆ आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे # 42☆ प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट

आचार्य सत्य नारायण गोयनका

(हम इस आलेख के लिए श्री जगत सिंह बिष्ट जी, योगाचार्य एवं प्रेरक वक्ता योग साधना / LifeSkills  इंदौर के हृदय से आभारी हैं, जिन्होंने हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए ध्यान विधि विपश्यना के महान साधक – आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के महान कार्यों से अवगत करने में  सहायता की है। आप  आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के कार्यों के बारे में निम्न लिंक पर सविस्तार पढ़ सकते हैं।)  

आलेख का  लिंक  ->>>>>>  ध्यान विधि विपश्यना के महान साधक – आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी 

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

☆  कविता / दोहे ☆ आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे # 42 ☆ प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट ☆ 

(हम  प्रतिदिन आचार्य सत्य नारायण गोयनका  जी के एक दोहे को अपने प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करने का प्रयास करेंगे, ताकि आप उस दोहे के गूढ़ अर्थ को गंभीरता पूर्वक आत्मसात कर सकें। )

आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे बुद्ध वाणी को सरल, सुबोध भाषा में प्रस्तुत करते है. प्रत्येक दोहा एक अनमोल रत्न की भांति है जो धर्म के किसी गूढ़ तथ्य को प्रकाशित करता है. विपश्यना शिविर के दौरान, साधक इन दोहों को सुनते हैं. विश्वास है, हिंदी भाषा में धर्म की अनमोल वाणी केवल साधकों को ही नहीं, सभी पाठकों को समानरूप से रुचिकर एवं प्रेरणास्पद प्रतीत होगी. आप गोयनका जी के इन दोहों को आत्मसात कर सकते हैं :

दसों दिशाओं के सभी, प्राणी सुखिया होंय ।

निर्भय हों निरवैर हों, सभी निरामय होंय ।।

– आचार्य सत्यनारायण गोयनका

#विपश्यना

साभार प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट

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Jagat Singh Bisht : Founder: LifeSkills

Master Teacher: Happiness & Well-Being; Laughter Yoga Master Trainer
Past: Corporate Trainer with a Fortune 500 company & Laughter Professor at the Laughter Yoga University.
Areas of specialization: Behavioural Science, Positive Psychology, Meditation, Five Tibetans, Yoga Nidra, Spirituality, and Laughter Yoga.

Radhika Bisht ; Founder : LifeSkills  
Yoga Teacher; Laughter Yoga Master Trainer

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 42 – किनको, किन-‘को-रोना’ रे ☆ डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  उनकी एक  अतिसुन्दर समसामयिक रचना किनको, किन-‘को-रोना’ रे। आज यही जीवन का कटु सत्य भी है। )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य  # 42 ☆

☆ किनको, किन-‘को-रोना’ रे☆  

 

कौन कहां के बापू माई

कौन, कहां मृगछौना रे,

अपनी-अपनी मगज पचाई

किनको, किन-को-रोना रे ।।

 

प्रीत लगाई बाहर से

बाहर वाले ही भाये

ये अनुयाई हैं उनके जो

अपनों को ठुकराए,

 

ठौर ठिकाना अलग सोच का

इनका अलग बिछौना रे।

अपनी-अपनी मगज पचाई

किनको, किन-को-रोना रे ।।

 

जो भीषण संकट में भी

अपना ही ज्ञान बघारे

हित चिंतक का करें मखौल

भ्रष्ट बुद्धि मिल सारे,

 

इनके कद के सम्मुख लगे

आदमी बिल्कुल बौना रे।

अपनी-अपनी मगज पचाई

किनको, किन-को-रोना’ रे।।

 

ये ही हैं उनके पोषक

जो घर को तोड़े फोड़े

आतंकी है इनके प्रिय

उनसे ये नाता जोड़ें,

 

अपना मरे, सिले मुँह इनके

उन पर रोना धोना रे।

अपनी-अपनी मगज पचाई

किनको, किन-को-रोना रे ।।

 

“सर्वे भवन्तु सुखिनः”का

ये मूल मंत्र अपनाएं

अच्छे बुरे पराए अपने

सबको गले लगाएं,

 

मिलजुल कर सब रहें

हृदय में प्रेम बीज को बोना रे ।

कौन कहां के बापू माई

कौन कहां मृगछौना रे,

अपनी-अपनी मगज पचाई

किनको, किन-को-रोना रे ।।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश

मो. 989326601

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ हनुमान जयंती विशेष – हनुमान स्तुति ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

हनुमान जयंती विशेष 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

(प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा  आज हनुमान  जयंती पर विशेष रचना ‘हनुमान स्तुति ‘। ) 

 

☆ हनुमान जयंती विशेष – हनुमान स्तुति ☆

 

संकट मोचन दुख भंजन हनुमान तुम्हारी जय होवे

बल बुद्धि शक्ति साहस श्रम के अभिमान तुम्हारी जय होवे

 

दुनिया के माया मोह जाल में फंसे सिसकते प्राणों को

मिलती तुमसे नई  चेतनता और गति निश्छल पाषाण को

 

दुख में डूबे जग से ऊबे हम शरण तुम्हारी हैं भगवन

संकट में तुमसे संरक्षण पाने को आतुर है यह मन

 

तुम दुखहर्ता नित सुखकर्ता अभिराम तुम्हारी जय होवे

हे करुणा के आगार सतत निष्काम तुम्हारी जय होवे

 

सर्वत्र गम्य,  सर्वज्ञ , सर्वसाधक प्रभु अंतर्यामी तुम

जिस ने जब मन से याद किया आए उसके बन स्वामी तुम

 

देता सबको आनंद नवल निज  नाथ तुम्हारा संकीर्तन

होता इससे ही ग्राम नगर हर घर में तव वंदन अर्चन

 

संकट कट जाते लेते ही तव नाम तुम्हारी जय होवे

तव चरणों में मिलता मन को विश्राम तुम्हारी जय होवे

 

संतप्त वेदनाओ से मन उलझन में सुलझी आस लिए

गीले नैनों में स्वप्न लिए ,  अंतर में गहरी प्यास लिए

 

आतुर है दृढ़ विश्वास लिए , हे नाथ कृपा हम पर कीजे

इस जग की भूल भुलैया में पथ खोज सकें यह वर दीजे

 

हम संसारी तुम दुख हारी भगवान तुम्हारी जय होवे

राम भक्त शिव अवतारी हनुमान तुम्हारी जय होवे

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – कस्तूरी मृग  ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – कस्तूरी मृग  ☆

 

अपने ही पसीने से

नम हुआ बिस्तर

ठंडा हो जाता है,

अनिद्रा का मारा

उफनते पारे में भी

गहरा सो जाता है,

चिंतन की भूमि पर

विवेचन उगता है

कानों में कहता है,

एक कस्तूरी मृग

हर आदमी के

भीतर रहता है।

कामना है कि अपनी कस्तूरी के स्रोत तक हर व्यक्ति पहुँचे।

घर में रहें। सुरक्षित रहें।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

(प्रातः 5.20 बजे, 30.3.19)

 

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 34 ☆ बौनापन ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  कविता “बौनापन”। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 34☆

☆  बौनापन ☆

 

ए ख़ुदा!

कितना विशाल है

तेरा जिगर

और कितनी छोटी है मेरी हस्ती!

 

जब भी अपने आप को

नापने लग जाती हूँ,

तो एक मिटटी का कण भी

मुझसे बड़ा ही लगता है,

सच, नहीं हूँ मैं,

एक कतरा भी!

 

ए ख़ुदा!

अक्सर सीली सी शामों में

सोचती हूँ कि

कैसे तू ख़याल रखता है

अपने इतने सारे चाहने वालों का?

कैसे तू निभाता जाता है साथ

हर अलग-अलग दिशा में उड़ते हुए

इन तिनकों का?

कैसे बटोरता है तू

इनके एहसास?

कैसे कर लेता है तू

हर किसी से इतनी मुहब्बत?

और कैसे इन्हें आभास दिलाता है

अपनेपन का?

 

आज

जब मेरे आवारा से कदम

फिर तौलने लगे खुद को

तो उन्हें एक बार फिर

हवाएँ एहसास दिला गयीं

मेरे बौनेपन का!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – चौकन्ना ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – चौकन्ना ☆

सीने की

ठक-ठक

के बीच

कभी-कभार

सुनता हूँ

मृत्यु की

खट-खट भी,

ठक-ठक..

खट-खट..,

कान अब

चौकन्ना हुए हैं

अन्यथा ये

ठक-ठक और

खट-खट तो

जन्म से ही

चल रही हैं साथ

और अनवरत..,

आदमी यदि

निरंतर

सुनता रहे

ठक-ठक के साथ

खट-खट भी,

बहुत संभव है

उसकी सोच

निखर जाए,

खट-खट तक

पहुँचने से पहले

ठक-ठक

सँवर जाए..!

 

घर में रहें, सुरक्षित रहें। 

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अभिव्यक्ति # 14 ☆ अंधविश्वास के ताले ☆ हेमन्त बावनकर

हेमन्त बावनकर

(स्वांतःसुखाय लेखन को नियमित स्वरूप देने के प्रयास में इस स्तम्भ के माध्यम से आपसे संवाद भी कर सकूँगा और रचनाएँ भी साझा करने का प्रयास कर सकूँगा। अब आप प्रत्येक मंगलवार को मेरी रचनाएँ पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है मेरी एक प्रिय कविता कविता “अंधविश्वास के ताले ”

इस कविता के सन्दर्भ  में मेरे जीवन के अनमोल क्षण जुड़े हुए हैं। इस कविता को 2014 की यूरोप यात्रा के दौरान लिखा है किन्तु  इसका सन्दर्भ इससे भी पूर्व 2012 की यूरोप यात्रा से जुड़ा है। कविता के साथ लगा चित्र इटली के वेरोना शहर का है जिसमें सपत्नीक जूलियट की प्रतिमा के साथ हूँ।  जूलियट की प्रतिमा के पीछे बाड़ में प्रेमियों के अनगिनत ताले लगे हैं। हमने भी एक ताला जोड़ा था  यह सोचकर कि- पता नहीं कब दोबारा आना होगा और हमारा प्रेम भी वैसा ही बना रहे जैसा सब सोचते हैं। आज वह सब स्वप्न सा लगता है। मैं नहीं जानता वे अनगिनत जोड़े कहाँ हैं जिन्होंने इन प्रेमी स्मारकों पर ताले लगाए थे ।

आज इटली के सन्दर्भ में अनायास ही यह कविता स्मृति से निकल कर  बाहर आ गई ।  मेरी पुस्तक ” शब्द और कविता “ से  यह कविता उद्धृत कर रहा हूँ।  ईश्वर इटली और सारे विश्व  में महामारी पीड़ितों  के परिवारों को सम्बल प्रदान करे  तथा  दिवंगतों को विनम्र श्रद्धांजलि । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अभिव्यक्ति # 14

☆ अंधविश्वास के ताले ☆

वेरोना

जूलियट की बालकनी

बालकनी के नीचे

जूलियट की प्रतिमा

और

प्रतिमा के पीछे

जंगले में टंगे

अनगिनत ताले।

पेरिस

सीयेन  नदी के ऊपर

लवर्स ब्रिज पर

पुल की बाड़ के तारों पर टंगे

अनगिनत ताले।

 

बेम्बर्ग का पुराना शहर

शहर के बीचों बीच

रेनिट्ज़ नदी का पुल

और

पुल की बाड़ के तारों पर टंगे

अनगिनत ताले।

 

पुल के नीचे

शांत रेनिट्ज़ नदी की सतह पर

अठखेलियाँ करती

बदक की जोड़ियाँ

अनजान हैं

आधुनिक पश्चिमी संस्कृति के

अंधविश्वास से।

 

उन्हें भ्रम है

कि बन्द टंगे तालों की तरह

उनकी जोड़ियाँ

हो जाएंगी

‘अटूट’ और ‘अमर’।

 

मैंने सुना है कि –

अक्सर

ताले टंगे रहते हैं।

जोड़े टूट जाते हैं।

जूलियट वही रहती है

और

रोमियो बदल जाते हैं।

 

थोड़े बहुत अंधविश्वासी तो

हम भी हैं ।

हम भी जाते हैं

गाहे बगाहे

मंदिर – मस्जिद में

चर्च – गुरुद्वारे में

पीर – पैगंबर कि मजार पर।

 

जाने अनजाने

बाँध आते हैं धागे ।

अपनी औलादों की

सलामती के लिए

माँग आते हैं दुआ।

 

इस आस के साथ

कि – यदि

औलाद नेक

और

सलामत रहे

तो जोड़े ही क्या

भला

घर भी कैसे टूट सकते हैं ?

 

© हेमन्त बावनकर, पुणे 

बेम्बर्ग 28 मई 2014

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