हिन्दी साहित्य – कविता ☆ माँ ☆ कर्नल अखिल साह

कर्नल अखिल साह 

(ई- अभिव्यक्ति से हाल ही में जुड़े  कर्नल अखिल साह जी  एक सम्मानित सेवानिवृत्त थल सेना अधिकारी हैं। आप  1978 में सम्मिलित रक्षा सेवा प्रवेश परीक्षा में प्रथम स्थान के साथ चयनित हुए। भारतीय सैन्य अकादमी, देहरादून में प्रशिक्षण के पश्चात आपने  इन्फेंट्री की असम रेजीमेंट में जून 1980 में कमिशन प्राप्त किया। सेवा के दौरान कश्मीर, पूर्वोत्तर क्षेत्र, श्रीलंका समेत अनेक स्थानों  में तैनात रहे। 2017 को सेवानिवृत्त हो गये। सैन्य सेवा में रहते हुए विधि में स्नातक व राजनीति शास्त्र में स्नाकोत्तर उपाधि विश्वविद्यालय में प्रथम स्थान के साथ प्राप्त किया । कर्नल साह एक लंबे समय से साहित्य की उच्च स्तरीय सेवा कर रहे हैं। यह हमारे सैन्य सेवाओं में सेवारत वीर सैनिकों के जीवन का दूसरा पहलू है। ऐसे वरिष्ठ सैन्य अधिकारी एवं साहित्यकार से परिचय कराने के लिए हम हिंदी, संस्कृत, उर्दू एवं अंग्रेजी  में प्रवीण  कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी का हार्दिक आभार।  हमारा प्रयास रहेगा कि उनकी रचनाओं और अनुवाद कार्यों को आपसे अनवरत साझा करते रहें। आज प्रस्तुत है कर्नल अखिल साह जी की  एक भावप्रवण उनकी कविता ‘माँ ‘

संयोगवश आज के ही अंक में डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘ गुणशेखर ‘ जी की कविता  “माँ ” प्रकाशित हुई है। ऐसे प्रयोग हम निरंतर करते रहने का प्रयास करेंगे। 
मेरा विनम्र अनुरोध है कि  कृपया कविताओं की तुलना न करें अपितु उनमें निहित भावनाओं को आत्मसात करें एवं उनका सम्मान करें। 
☆ माँ 

छोटा सा शब्द है यह

पर अर्थ इतना विशाल,

*माँ* में ही समा जातें हैं

हम सबके तीनों काल।

 

कोख में सींचती हमको

अपने ही वह रक्त से

पोषित हों हम जूझने को

आने वाले वक्त से ।

 

आँचल के छाँव में उसके

बचपन हमारा बीतता है,

प्रेम ममता वात्सल्य में

कौन उससे जीतता है …

 

यौवन के पथ पर जब

लगने लगे हम चल

माँ की सचेत निगाहें हमपर

रखतीं नज़र हर पल।

 

बच्चे हों या हों जवान

चाहें हो जायें कितने सयाने

हमारी सलामती के लिये माँ

रहती सदा ईश्वर को मनाने।

 

तो आओ कृतज्ञ ह्रदय से

चढ़ाके श्रद्धा सुमन…

*माँ* के श्री चरणों को

कर लें शत शत नमन….

 

© कर्नल अखिल साह

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 36 ☆ कविता – सूरज और तुम …… ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  उनकी एक अतिसुन्दर कविता  “सूरज और तुम ……”। आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 36

☆ कविता  – सूरज और तुम …… ☆ 

 

डूबते हुए

सूरज ने कहा

कल फिर

वहां से छुपकर

आऊंगा तुम्हारे पास

नाहक परेशान

तुम ढ़ूढते हो

बार बार हर बार

जीवन उधर भी

सलामत रहे

इस चिन्ता में

डूबकर जाना

प्रकाश फैलाना

आर पार से झांकना

हर बार वादा निभाना

जब तुम अपने में डूबोगे

तभी तुम मुझे ढ़ूंढ़ पाओगे

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य- कविता / दोहे ☆ आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे #6 ☆ प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट

आचार्य सत्य नारायण गोयनका

(हम इस आलेख के लिए श्री जगत सिंह बिष्ट जी, योगाचार्य एवं प्रेरक वक्ता योग साधना / LifeSkills  इंदौर के ह्रदय से आभारी हैं, जिन्होंने हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए ध्यान विधि विपश्यना के महान साधक – आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के महान कार्यों से अवगत करने में  सहायता की है। आप  आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के कार्यों के बारे में निम्न लिंक पर सविस्तार पढ़ सकते हैं।)

आलेख का  लिंक  ->>>>>>  ध्यान विधि विपश्यना के महान साधक – आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी 

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

☆  कविता / दोहे ☆ आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे #6 ☆ प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट ☆ 

(हम  प्रतिदिन आचार्य सत्य नारायण गोयनका  जी के एक दोहे को अपने प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करने का प्रयास करेंगे, ताकि आप उस दोहे के गूढ़ अर्थ को गंभीरता पूर्वक आत्मसात कर सकें। )

आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे बुद्ध वाणी को सरल, सुबोध भाषा में प्रस्तुत करते है. प्रत्येक दोहा एक अनमोल रत्न की भांति है जो धर्म के किसी गूढ़ तथ्य को प्रकाशित करता है. विपश्यना शिविर के दौरान, साधक इन दोहों को सुनते हैं. विश्वास है, हिंदी भाषा में धर्म की अनमोल वाणी केवल साधकों को ही नहीं, सभी पाठकों को समानरूप से रुचिकर एवं प्रेरणास्पद प्रतीत होगी. आप गोयनका जी के इन दोहों को आत्मसात कर सकते हैं :

प्रलयंकारी बाढ़ में, धर्म सदृश न द्वीप । 

काल अँधेरी रात में, धर्म सदृश न दीप ।। 

– आचार्य सत्यनारायण गोयनका

#विपश्यना

साभार प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट

A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.

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Jagat Singh Bisht : Founder: LifeSkills

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Past: Corporate Trainer with a Fortune 500 company & Laughter Professor at the Laughter Yoga University.
Areas of specialization: Behavioural Science, Positive Psychology, Meditation, Five Tibetans, Yoga Nidra, Spirituality, and Laughter Yoga.

Radhika Bisht ; Founder : LifeSkills  
Yoga Teacher; Laughter Yoga Master Trainer

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English Literature – Poetry (भावानुवाद) ☆ देश कागज पर बना नक्शा नहीं होता/Nation is not a map on the paper ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

(हम कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी द्वारा ई-अभिव्यक्ति के साथ उनकी साहित्यिक और कला कृतियों को साझा करने के लिए उनके बेहद आभारी हैं। आईआईएम अहमदाबाद के पूर्व छात्र कैप्टन प्रवीण जी ने विभिन्न मोर्चों पर अंतरराष्ट्रीय स्तर एवं राष्ट्रीय स्तर पर देश की सेवा की है। वर्तमान में सी-डैक के आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और एचपीसी ग्रुप में वरिष्ठ सलाहकार के रूप में कार्यरत हैं साथ ही विभिन्न राष्ट्र स्तरीय परियोजनाओं में शामिल हैं।)

कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी  द्वारा सुप्रसिद्ध कवि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जी की कालजयी कविता “देश  कागज पर बना नक्शा नहीं होता ”  का अंग्रेजी भावानुवाद  “Nation is not a map on the paper” ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों तक पहुँचाने का अवसर एक संयोग है।

भावनुवादों में ऐसे  प्रयोगों के लिए हम हिंदी, संस्कृत, उर्दू एवं अंग्रेजी भाषाओँ में प्रवीण  कैप्टन  प्रवीण रघुवंशी जी के ह्रदय से आभारी हैं। 

आइए…हम लोग भी इस कविता के मूल हिंदी  रचना के साथ-साथ अंग्रेजी में भी आत्मसात करें और अपनी प्रतिक्रियाओं से कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी  को परिचित कराएँ.। 

☆ सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जी की मूल कालजयी  रचना – देश कागज पर बना नक्शा नहीं होता ☆

 

यदि तुम्हारे घर के

एक कमरे में आग लगी हो

तो क्या तुम

दूसरे कमरे में सो सकते हो?

यदि तुम्हारे घर के एक कमरे में

लाशें सड़ रहीं हों

तो क्या तुम

दूसरे कमरे में प्रार्थना कर सकते हो?

यदि हाँ

तो मुझे तुम से

कुछ नहीं कहना है।

 

देश कागज पर बना

नक्शा नहीं होता

कि एक हिस्से के फट जाने पर

बाकी हिस्से उसी तरह साबुत बने रहें

और नदियां, पर्वत, शहर, गांव

वैसे ही अपनी-अपनी जगह दिखें

अनमने रहें।

यदि तुम यह नहीं मानते

तो मुझे तुम्हारे साथ

नहीं रहना है।

 

इस दुनिया में आदमी की जान से बड़ा

कुछ भी नहीं है

न ईश्वर

न ज्ञान

न चुनाव

कागज पर लिखी कोई भी इबारत

फाड़ी जा सकती है

और जमीन की सात परतों के भीतर

गाड़ी जा सकती है।

जो विवेक

खड़ा हो लाशों को टेक

वह अंधा है

जो शासन

चल रहा हो बंदूक की नली से

हत्यारों का धंधा है

यदि तुम यह नहीं मानते

तो मुझे

अब एक क्षण भी

तुम्हें नहीं सहना है।

 

याद रखो

एक बच्चे की हत्या

एक औरत की मौत

एक आदमी का

गोलियों से चिथड़ा तन

किसी शासन का ही नहीं

सम्पूर्ण राष्ट्र का है पतन।

ऐसा खून बहकर

धरती में जज्ब नहीं होता

आकाश में फहराते झंडों को

काला करता है।

जिस धरती पर

फौजी बूटों के निशान हों

और उन पर

लाशें गिर रही हों

वह धरती

यदि तुम्हारे खून में

आग बन कर नहीं दौड़ती

तो समझ लो

तुम बंजर हो गये हो-

तुम्हें यहां सांस लेने तक का नहीं है अधिकार

तुम्हारे लिए नहीं रहा अब यह संसार।

 

आखिरी बात

बिल्कुल साफ

किसी हत्यारे को

कभी मत करो माफ

चाहे हो वह तुम्हारा यार

धर्म का ठेकेदार,

चाहे लोकतंत्र का

स्वनामधन्य पहरेदार

 

☆  English Version  of  Classical Poem of  Sarveshwar Dayal Saxena ☆ 

☆  Nation is not a map  made on paper” – by Captain Pravin  Raghuwanshi

 

If a room in your

house is on fire

Then, can you sleep

in another room?

If, a room of your house

is rotting with corpses,

Then, can you pray

in another room?

If yes, then,

I’ve got nothing

more to say to you…

 

Nation is not a map

made on paper of which,

when a part is torn

Then, the rest of it

will remain intact;

And rivers, mountains,

town, villages

will appear in their

own places,

and remain unaffected…

If you don’t believe it

Then, I do not have

to stay with you…

 

There’s nothing

greater than  the

man’s own life

in this world

Neither the God

Nor the knowledge

Nor the election

Anything written

on the paper

Can be torn and

buried deep in the

layers of the ground…

 

If the conscience

is supported

by the corpses,

Then, it sure is blind

If the rule of the land

is running through

the barrel of  gun

Then, it is nothing but a

‘Business of killers’

If you don’t believe it

Then, I don’t have to

tolerate you even

for a moment…

 

Always remember-

Killing a child

Murdering a woman

Bullet ridden body

of a man

Is not the fall

of a government

but the decay

of the entire nation…

Such a blood is not

accepted by the earth,

it only does blacken

the flags

fluttering high in the sky…

 

The land, which is

trampled by its

dictatorial boots, and

Corpses keep falling on it

If, that land, doesn’t run

in your blood like a fire

Then you must understand

That you have become

starkly barren-

You do not even have

the right to breathe here

This world is no longer for you…!

 

Last thing

Very straightforward-

Never forgive

An assassin

-Whether it’s your friend

or reverend preacher

of your religion,

-Whether he is the

Self-appointed sentinel

of the democracy…!

 

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विशाखा की नज़र से # 24 – प्रेमालाप ☆ श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

(श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  हिंदी साहित्य  की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है  एक अतिसुन्दर भावप्रवण रचना ‘प्रेमालाप । आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में  पढ़ सकेंगे. )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 24  – विशाखा की नज़र से

☆ प्रेमालाप  ☆

 

प्रेम तू मुझे दोपहर की तपिश देना

भोर का चला जब तू अपने चरम पर होगा

पलटकर नई यात्रा पर आतुर होगा

इनके मध्य का तू क्षण देना

प्रेम तू मुझे अपनी दोपहर देना

 

प्रेम तू खिलना पुष्प की तरह मेरे भीतर

बीज, पौध, कली के सफ़र से

जब तू प्रफुल्ल हो पुष्प बनेगा

तब खिलकर बिखरने के मध्य का क्षण देना

प्रेम तू  अपना सम्पूर्ण देना

 

प्रेम तू तरंगित होना सस्वर मुझमें

सप्तसुरों से कई राग छेड़ना

बस सा से सा के बीच आलाप  में

तू पंचम  का स्वर बने रहना

प्रेम तू पावस  – पूरित – पुकार  देना

 

प्रेम, अबकी जब पूस की रात में

हल्कू संग जबरा ठंड में कातर

घुटना छाती से चिपकाये डटे होंगे

तब मैं दोपहर की तपिश बन

पंचम स्वर से जाडा साधुगी

खड़ी फसल का गीत गाऊँगी

समर्पित हो जाऊँगी

प्रेम, तब भी तू होना मेरे संग

 

© विशाखा मुलमुले  

पुणे, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य- कविता / दोहे ☆ आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे #5 ☆ प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट

आचार्य सत्य नारायण गोयनका

(हम इस आलेख के लिए श्री जगत सिंह बिष्ट जी, योगाचार्य एवं प्रेरक वक्ता योग साधना / LifeSkills  इंदौर के ह्रदय से आभारी हैं, जिन्होंने हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए ध्यान विधि विपश्यना के महान साधक – आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के महान कार्यों से अवगत करने में  सहायता की है। आप  आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के कार्यों के बारे में निम्न लिंक पर सविस्तार पढ़ सकते हैं।)

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Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

☆  कविता / दोहे ☆ आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे #5 ☆ प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट ☆ 

(हम  प्रतिदिन आचार्य सत्य नारायण गोयनका  जी के एक दोहे को अपने प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करने का प्रयास करेंगे, ताकि आप उस दोहे के गूढ़ अर्थ को गंभीरता पूर्वक आत्मसात कर सकें। )

आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे बुद्ध वाणी को सरल, सुबोध भाषा में प्रस्तुत करते है. प्रत्येक दोहा एक अनमोल रत्न की भांति है जो धर्म के किसी गूढ़ तथ्य को प्रकाशित करता है. विपश्यना शिविर के दौरान, साधक इन दोहों को सुनते हैं. विश्वास है, हिंदी भाषा में धर्म की अनमोल वाणी केवल साधकों को ही नहीं, सभी पाठकों को समानरूप से रुचिकर एवं प्रेरणास्पद प्रतीत होगी. आप गोयनका जी के इन दोहों को आत्मसात कर सकते हैं :

अपना भी होवे भला, भला जगत का होय ।

जिससे सबका हो भला, शुद्ध धरम है सोय ।।

– आचार्य सत्यनारायण गोयनका

#विपश्यना

साभार प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ सौंदर्य और प्रेम ☆ श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

(सुप्रसिद्ध, ओजस्वी,वरिष्ठ साहित्यकार श्रीमती हेमलता मिश्रा “मानवी”  जी  विगत ३७ वर्षों से साहित्य सेवायेँ प्रदान कर रहीं हैं एवं मंच संचालन, काव्य/नाट्य लेखन तथा आकाशवाणी  एवं दूरदर्शन में  सक्रिय हैं। आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय स्तर पर पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित, कविता कहानी संग्रह निबंध संग्रह नाटक संग्रह प्रकाशित, तीन पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद, दो पुस्तकों और एक ग्रंथ का संशोधन कार्य चल रहा है। आज प्रस्तुत है श्रीमती  हेमलता मिश्रा जी की  एक अतिसुन्दर भावप्रवण कविता  सौंदर्य और प्रेम)

सौंदर्य और प्रेम  

सौंदर्यबोध

मन के प्रेम का चित्रण अबोध

आंखों के कैनवास पर

मन की तूलिका उकेरती

प्रीति की रीति, स्नेह की नीति

और वात्सल्य की पाती।।

सौंदर्य परिभाषा

उभरती प्रेम की भाषा

आंखों और मन की सँवरती पुतलियों में!!

मां की आंखों में

काला कलूटा बेटा

कान्हा श्यामसुंदर है

और बालक के मन में शूर्पणखा

सी मां

जग से न्यारी है सबसे प्यारी है – – –

सौंदर्य और प्रेम और कुछ नहीं

मन और आंखों का आशीष है–

दिल में बसा ईश है और प्रेम हर एक के हदय में बसा प्रेम मंदिर है।।

 

© हेमलता मिश्र “मानवी ” 

नागपुर, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – विचार -2 ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – विचार – 2

तुम सहमत मत होना

मेरे विचार से,

यदि हो भी जाओ

तो मत करना समर्पण,

बचा रखना

झीनी-सी अंतररेखा..,

अंतररेखा के

इस पार मैं

उस पार तुम,

चिंतन करना

मनन करना

मंथन करना,

मेरे-तुम्हारे

विचारों की बिलोई

उत्पन्न करेगी नया आविष्कार..,

आविष्कार उस आग का

जो चकमक के

आपसी घर्षण से

जन्मती है और सचमुच

गलानेे लगती है दाल,

सेंकने लगती है रोटियाँ;

उन अर्थों में नहीं

जिन्हें मुहावरों के आवरण में

बदनाम कर रखा है शब्दकोशों ने,

आग से सचमुच

भरता है भूख का कुआँ

बुझती है पेट की आग..,

इस आग को

सदैव जलाये और

जिलाए रखना मित्रो!

 

©  संजय भारद्वाज

(गुरुवार दि. 14 जुलाई 2017, प्रातः 9 बजे)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य 0अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य☆ साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 27 ☆ वक्त ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत है  श्री संतोष नेमा जी की एक भावपूर्ण कविता  “ वक्त ”. आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार पढ़  सकते हैं . ) 

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 27 ☆

☆ वक्त  ☆

चलने लगी पुरवाइयाँ हैं

खलने लगी तनहाइयाँ हैं

 

झूठ जब भी आया सामने

उड़ने लगी हवाईयां हैं

 

वक्त कुछ ऐसा भी आया

साथ न अब परछाइयाँ हैं

 

दर्द से हम गुजरे इस तरह

अब चुभती शहनाइयाँ हैं

 

अब संभल चलो ज़माने से

हरतरफ अब रुसवाईयाँ हैं

 

हम दिल को समझायें कैसे

“संतोष”बड़ी परेशानियाँ हैं

 

© संतोष नेमा “संतोष”

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मोबा 9300101799

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हिन्दी साहित्य- कविता / दोहे ☆ आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे #4 ☆ प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट

आचार्य सत्य नारायण गोयनका

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☆  कविता / दोहे ☆ आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे #4 ☆ प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट ☆ 

(हम  प्रतिदिन आचार्य सत्य नारायण गोयनका  जी के एक दोहे को अपने प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करने का प्रयास करेंगे, ताकि आप उस दोहे के गूढ़ अर्थ को गंभीरता पूर्वक आत्मसात कर सकें। )

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अपने अपने कर्म के, हम ही तो करतार । 

अपने सुख के दु:ख के, हम ही जिम्मेदार ।। 

– आचार्य सत्यनारायण गोयनका

#विपश्यना

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