हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 24 ☆ वाग्देवी माँ मुझे स्वीकार लो ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। अब आप डॉ राकेश ‘चक्र’ जी का साहित्य प्रत्येक गुरुवार को  उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं  आपकी एक अतिसुन्दर प्रार्थना  “वाग्देवी माँ मुझे स्वीकार लो.)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 24 ☆

☆ वाग्देवी माँ मुझे स्वीकार लो ☆

 

वाग्देवी माँ मुझे

स्वीकार लो

भाव सुमनों -सा

सजा संसार दो

 

शब्द में भर दो मधुरता

अर्थ दो मुझको सुमति के

मैं न भटकूँ सत्य पथ से

माँ बचा लेना कुमति से

 

भारती माँ सब दुखों से

तार दो

वाग्देवी माँ मुझे

स्वीकार लो

भाव सुमनों -सा सजा

संसार दो

 

कोई छल से छल न पाए

शक्ति दो माँ तेज बल से

कामनाएँ हों नियंत्रित

सिद्धिदात्री कर्मफल से

 

बुद्धिदात्री ज्ञान का

भंडार दो

वाग्देवी माँ मुझे

स्वीकार लो

भाव सुमनों -सा सजा

संसार दो

 

भेद मन के सब मिटा दो

प्रेम की गंगा बहा दो

राग-द्वेषों को हटाकर

हर मनुज का सुख बढ़ा दो

 

शारदे माँ! दृष्टि को

आधार दो

वाग्देवी माँ मुझे

स्वीकार लो

भाव सुमनों-सा सजा

संसार दो

 

डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001

उ.प्र .  9456201857

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 44 – वर्तमान समय के 10 दोहे ☆ डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  उनके अतिसुन्दर  वर्तमान समय के 10 दोहे।)

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य  # 44 ☆

☆ वर्तमान समय के 10 दोहे  ☆  

 

बाहर  में  विचरण  करें, पशु – पक्षी  स्वच्छंद।

भीतर मानव हैं विकल, गतिविधियां सब मन्द।।

 

मेल जोल  छूना  मना, हाथों  पर  प्रतिबंध।

मूंह  नाक  पर  मुश्क  है, ठप्प  पड़े  संबंध।।

 

बारह दिवस पुनः शेष हैं, क्या फिर होगा बन्द।

रैन – दिवस  ये  चल  रहा, मन  में  अंतर्द्वन्द।।

 

समय कटे कटता नहीं, कल की चिंता आज।

खबरें पल-पल उड़ रही, बनकर  खूनी बाज।।

 

मन  बहलाने  को  यदि, टीवी. खोलें  आप।

इनमें  भी आता  नजर, कोरोना  का  श्राप।।

 

परिचर्चा  में  देख  सुन, टीवी. पर  हैरान।

बेशर्मी   से   टूटते,   मानवीय   प्रतिमान।।

 

सौ  शब्दों  की  भीड़ में, पल्ले  पड़े  न एक।

अपनी-अपनी डफलियां, खेलें फेकम-फेंक।।

 

हुआँ-हुआँ का शोर ज्यों, वन में करे सियार।

उदघोषक खुश  हो रहा, टीआर पी से  प्यार।।

 

उठते  बैठे  दिन   कटे, जगते   सोते   रात।

आओ हम मिल दें सभी, कोरोना को मात।।

 

बाहर  के  इस  मौन  में, अंदर  उतरें  आप।

बहुत जपा संसार को, अब अपने को जाप।।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश

मो. 989326601

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ चाहो तो ☆ श्री रामस्वरूप दीक्षित

श्री रामस्वरूप दीक्षित

(ई-अभिव्यक्ति में श्री रामस्वरूप दीक्षित जी  का हार्दिक स्वागत है।  मूल विधा गद्य व्यंग्य । इसके अतिरिक्त कविताएं  और लघुकथाएं भी लिखते है । धर्मयुग,सारिका ,हंस ,कथादेश  नवनीत,कादंबिनी ,साहित्य अमृत,वसुधा, व्यंग्ययात्रा, अट्टाहास एवं जनसत्ता ,हिंदुस्तान, नवभारत टाइम्स, राष्ट्रीय सहारा,दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, नईदुनिया,पंजाब केसरी, राजस्थान पत्रिका,सहित देश की सभी प्रमुख पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित । कुछ रचनाओं का पंजाबी, बुन्देली, गुजराती और कन्नड़ में अनुवाद। मध्यप्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन की टीकमगढ़ इकाई के अध्यक्ष

☆ कविता – चाहो तो ☆

चाहो तो

सोच सकते हो तुम भी

उन हालातों के बारे में

जो बना दिये गए हैं

तुम्हारे आसपास

और उन्हें बनाने वालों के बारे में भी

कि अगर ये हालात न बनाये  गए होते

तो तुम्हारी ये हालत न होती

तुंम भी

महसूस कर सकते थे

फूलों की महक

दूधिया चांदनी में

झरता हुआ प्रेम

अपने बालों को सहलाती

किसी की उंगलियों की छुअन

किसी के घर की तरफ से आने वाली हवाओं में

सूंघ सकते थे

उनकी देह की गंध

किसी की याद में सुधबुध खोकर

कंकड़ फेंकते रह सकते थे

किसी बहती हुई नदी की धार में

पर

अब तो

कुछ भी सोचना सम्भव नहीं तुम्हारे लिए

एक अदृश्य बाघ की

धारीदार पीठ

और पैने नाखून

तैर जाते हैं आंखों में

कुछ भी सोचने से पहले

 

© रामस्वरूप दीक्षित

सिद्ध बाबा कॉलोनी, टीकमगढ़ 472001  मो. 9981411097

ईमेल –[email protected]

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ चांदनी ☆ डॉ मौसमी परिहार

डॉ मौसमी परिहार

(संस्कारधानी जबलपुर में  जन्मी  डॉ मौसमी जी ने “डॉ हरिवंशराय बच्चन की काव्य भाषा का अध्ययन” विषय पर  पी एच डी अर्जित। आपकी रचनाओं का प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में नियमित प्रकाशन तथा आकाशवाणी और दूरदर्शन से नियमित प्रसारण। आकाशवाणी के लोकप्रिय कार्यक्रम ‘युगवाणी’ तथा दूरदर्शन के ‘कृषि दर्शन’ का संचालन। रंगकर्म में विशेष रुचि के चलते सुप्रसिद्ध एवं वरिष्ठ पटकथा लेखक और निर्देशक अशोक मिश्रा के निर्देशन में मंचित नाटक में महत्वपूर्ण भूमिका अभिनीत। कई सम्मानों से सम्मानित, जिनमें प्रमुख हैं वुमन आवाज सम्मान, अटल सागर सम्मान, महादेवी सम्मान हैं।  हम भविष्य में आपकी चुनिंदा रचनाओं को ई- अभिव्यक्ति में साझा करने की अपेक्षा करते हैं। आज प्रस्तुत है उनकी एक अतिसुन्दर कविता  ‘चांदनी’ )   

 ☆ कविता  – चांदनी ☆

 

आज अचानक देखा,

ठूँठ पर ,फिर निकल पडी

सफेद चांदनी के फूल की

नई कोपलें,,,,

 

और कुछ नई  कलियां भी,

तीखी धूप में, सफेद श्रृंगार

मानो  ललचा रही है धूप को,

 

हमने तो रात की  चांदनी

ही सुनी थी ,चांद वाली

अब देखो, ये चांदनी भी

बिखेर रही है ,,,,चांदनी धूप के साथ !!

 

© डॉ मौसमी परिहार

21/04/20

संप्रति – रवीन्द्रनाथ टैगोर  महाविद्यालय, भोपाल मध्य प्रदेश  में सहायक प्राध्यापक।

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 22 ☆ कविता – कठपुतली ☆ श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि‘

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’  

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’ जी  एक आदर्श शिक्षिका के साथ ही साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे गीत, नवगीत, कहानी, कविता, बालगीत, बाल कहानियाँ, हायकू,  हास्य-व्यंग्य, बुन्देली गीत कविता, लोक गीत आदि की सशक्त हस्ताक्षर हैं। विभिन्न पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत एवं अलंकृत हैं तथा आपकी रचनाएँ आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित होती रहती हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी एक अतिसुन्दर और  मौलिक कविता  कठपुतली।  श्रीमती कृष्णा जी ने  कठपुतली के खेल के माध्यम से काफी कुछ  बड़ी ही सहजता से कह दिया है।  वास्तव में जब हम बच्चे थे ,तो कठपुतली का नाच देखने की उत्सुकता रहती थी । अब तो मीडिया ने इस कला को काफी पीछे धकेल दिया  है किन्तु, अब भी कुछ कलाकार इसे जीवित रखे हुए हैं।  इस अतिसुन्दर रचना के लिए श्रीमती कृष्णा जी बधाई की पात्र हैं।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 22 ☆

☆ कविता  – कठपुतली ☆

एक बार की बात बताऊँ

कठपुतली का नाच दिखाऊँ

कहा बापू ने हमसे…

हम सभी छोटे बड़े

निकले कठपुतली को देखने

मैने कहा माँ तू चलना

वह बोली- नहीं मै घर की

कठपुतली हूँ.

 

क्या…? मै बोली

वह बोली

बड़ी होगी तो समझेगी

जा अभी तू जा.

 

आओ..आओ नाच देखलो

छम्मक छम्मक नाचे है

काम बड़ा कर जाये है

देखो …अभी सासुरे जायेगी

फिर सासु की डांट खायेगी

 

और फिर पानी भरने घाट …

बड़े बड़े मटको मे जायेगी.

घर मे जनावर को भूसा चोकर डाले…

 

हरी घाँस चरने को देगी

अब घर में  सबको भोजन परसेगी

घर के सारे काम निपटा समेट कर

पति के पैर दबा फिर सोयेगी

भोर होते ही फिर पिछली

दिनचर्या दुहरायेगी.

 

समाप्त हुआ कठपुतली का खेल

मैने देखा जो जो काम करे थी

अम्मा कठपुतली भी वही..करे

बापू से पूछा मैने यही सभी तो

अम्मा घर मे दिनभर करे है

तो बापू अम्मा को कठपुतली कहें…..

 

बेटी की बाते सुनकर वे बोले

नहीं सुनो अगले घर जाने की

तैयारी मे हमने यह कठपुतली का

नाच दिखाया अनजाने में ही

लाडो सब कुछ तूने ज्ञान है पाया

बस अगले बरस कर दूंगा ब्याह तेरा..

तू भी जिम्मेदारी सासुरे की निभा

 

बेटी छटपटाहट की मारी

कभी माँ और कभी कठपुतली को देखे है

 

अंतर क्या कोई बतलाये

इन दोनों की तासीर एक है

यहाँ भी पुरूष चलावे

वहाँ भी वही तमाशा करवावे है.

 

© श्रीमती कृष्णा राजपूत  ‘भूमि ‘

अग्रवाल कालोनी, गढ़ा रोड, जबलपुर -482002 मध्यप्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 36 ☆ टुकड़े शाम के☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  कविता “टुकड़े शाम के ”। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 36☆

☆ टुकड़े शाम के ☆

 

हवाएं ज़ोरों से सायें-सायें करती हुई आयीं

और चली गयीं शाम के टुकड़े करती हुई –

उनके जाने के बाद हर तरफ फिर से

ऐसी शान्ति छा गयी जैसे कुछ हुआ ही न हो!

 

नहीं देखे गए मेरी भावुक नज़रों से

शाम के वो अनगिनत टुकड़े

और बीनने लगी मैं उन्हें

अपनी छोटी और नाज़ुक उँगलियों से-

पर वो टुकड़े तो किसी पैने कांच के टुकड़ों की तरह थे,

बहने लगी मेरी उँगलियों से रक्त की धारा अविरल

और मैं भी हताश होकर बैठ गयी…

 

जब दर्द की पीड़ा से निकलकर

मेरा मन कुछ और सोचने के काबिल हुआ

तब कहीं जाकर यह विचार कौंधा,

“क्या पहले नहीं हुए कभी

शाम के इस कदर टुकड़े?

माना कि यह ज़्यादा पैने थे,

पर ऐसे टुकड़ों को जोड़कर

अगली शाम हरदम फिर आई थी ख़ुशी का पैग़ाम लिए…

 

अगली सुबह के इंतज़ार में

बहते रक्त के बावजूद, मैं हौले से मुस्कुरा उठी-

मुझे पूरा भरोसा था

कि इतनी जुस्तजू भर दूँगी मैं

आफताब के सीने में

कि अगली शाम जब आएगी

तो वो होगी खुशनुमा और मुकम्मल!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अभिव्यक्ति # 15 ☆ डायरी के पन्ने ☆ हेमन्त बावनकर

हेमन्त बावनकर

(स्वांतःसुखाय लेखन को नियमित स्वरूप देने के प्रयास में इस स्तम्भ के माध्यम से आपसे संवाद भी कर सकूँगा और रचनाएँ भी साझा करने का प्रयास कर सकूँगा। अब आप प्रत्येक मंगलवार को मेरी रचनाएँ पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है मेरी आज ही लिखी एक रचना  “डायरी के पन्ने”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अभिव्यक्ति # 15

☆ डायरी के पन्ने ☆

बचपन से लिखी

डायरी के अपरिपक्व पन्ने अब

बेमानी हो गए।

 

कुछ पन्नों को पढ़

भूली बिसरी यादों को याद कर

कुछ शर्माए कुछ मुस्कराये

और थोड़ा सा

रोमानी हो गए।

 

पीले होते पन्नों पर

जो उतारे थे

एक एक लफ्ज

वक्त के आंसुओं से भीगकर वो

आसमानी हो गए।

 

बड़ी शोहरत मिली थी

पन्नों के झूठे किस्सों पर,

अपने तुम्हारे

सच्चे किस्से क्या लिख दिये

नादानी हो गए।

 

एक डायरी ऐसी भी है

क्यों दिखाई ही नहीं देती ताउम्र

कौन लिख रहा है उसे ?

हरेक के जहन में हर पल

ज़िंदगी के हर पल

शीशे के दोनों ओर पाक साफ

जानता हूँ तुम यही कहोगे कि

रूहानी हो गए।

 

© हेमन्त बावनकर, पुणे 

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ विश्व धरोहर दिवस विशेष – एक धरोहर जगत की ☆ श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

(सुप्रसिद्ध, ओजस्वी,वरिष्ठ साहित्यकार श्रीमती हेमलता मिश्रा “मानवी” जी  विगत ३७ वर्षों से साहित्य सेवायेँ प्रदान कर रहीं हैं एवं मंच संचालन, काव्य/नाट्य लेखन तथा आकाशवाणी  एवं दूरदर्शन में  सक्रिय हैं। आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय स्तर पर पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित, कविता कहानी संग्रह निबंध संग्रह नाटक संग्रह प्रकाशित, तीन पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद, दो पुस्तकों और एक ग्रंथ का संशोधन कार्य चल रहा है। आज प्रस्तुत है श्रीमती  हेमलता मिश्रा जी  की एक सामायिक कविता  एक धरोहर जगत की। इस अतिसुन्दर रचना के लिए आदरणीया श्रीमती हेमलता जी की लेखनी को नमन। )

विश्व धरोहर दिवस अथवा विश्व विरासत दिवस (World Heritage Day) प्रतिवर्ष 18 अप्रैल को मनाया  जाता है।  इस दिवस को मनाने का मुख्य उद्देश्य  हैपूरे विश्व में मानव सभ्यता से जुड़े ऐतिहासिक और सांस्कृतिक स्थलों के संरक्षण के प्रति जागरूकता लायी जा सके। अप्रत्याशित कारणों से 18 अप्रैल को हम ई- अभिव्यक्ति का अंक प्रकाशित न कर सके इसलिए इस कविता के विलम्ब से प्रकाशन के लिए हमें खेद है।

 ☆  विश्व धरोहर दिवस विशेष – एक धरोहर जगत की  ☆

 

विश्व धरोहर दिवस पर

बूढ़ा बरगद रोय

बोन्साई में ढल रहा

थाती सबकी होय

 

देवालय सजने लगे,

बड़ी दूर हैं देव

एक धरोहर जगत की

मानवता की ठेव!!

 

मानव के निर्माण हैं,

सात अजूबे देख!

ईश्वर के निर्माण की,

चित्रगुप्त रचे रेख!!

 

समय धार में बह गए,

राजा रंक फकीर!!

मीनारों ने कब लिखी,

अलग अलग तकरीर!!

 

तलवारों की तिश्नगी,

या तोपों की प्यास!

किले धराशायी हुए,

झूठ धरोहर आस!!

 

© हेमलता मिश्र “मानवी ” 

नागपुर, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अजर ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – अजर  ☆

कौन कहता है

निर्जीव वस्तुएँ

अजर होती हैं,

घर की कलह से

घर की दीवारें

जर्जर होती हैं।

# घर में रहें। स्वस्थ रहें।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

20.9.2018 11.15 बजे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विशाखा की नज़र से # 30 – इस सदी में भी  ☆ श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

(श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  हिंदी साहित्य  की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है  स्त्री जीवन के कटु सत्य को उजागर कराती एक सार्थक रचना ‘इस सदी में भी । आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में  पढ़  सकते हैं । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 30– विशाखा की नज़र से

☆ इस सदी में भी  ☆

 

चहकती हो मुंडेर पर

लगाती हो आवाज़

दाना लेकर आऊँ तो

उड़ जाती क्यों बिन बात

 

ओ ! चिरैया

तुम स्त्रियों की भांति कितनी

डरी , सहमी हो

शायद ! तुम भी भूली नहीं हो

पिंजरा और अपना इतिहास

 

© विशाखा मुलमुले  

पुणे, महाराष्ट्र

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