हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिव्यक्ति # 19 ☆ कविता – सेवानिवृत्ति  ☆ हेमन्त बावनकर

हेमन्त बावनकर

(स्वांतःसुखाय लेखन को नियमित स्वरूप देने के प्रयास में इस स्तम्भ के माध्यम से आपसे संवाद भी कर सकूँगा और रचनाएँ भी साझा करने का प्रयास कर सकूँगा।  आज प्रस्तुत है  एक कविता  “सेवानिवृत्ति ”।  अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दीजिये और पसंद आये तो मित्रों से शेयर भी कीजियेगा । अच्छा लगेगा ।)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अभिव्यक्ति # 19

☆  सेवानिवृत्ति  ☆

 

सेवा

और उससे निवृत्ति

असंभव है।

फिर

कैसी सेवानिवृत्ति?

 

कितना आसान है?

शुष्क जीवन चक्र का

परिभाषित होना

शुभ विवाह

बच्चे का जन्म

बच्चे का लालन पालन

बच्चे की शिक्षा दीक्षा

बच्चे की नौकरी

बच्चे का शुभ विवाह

फिर

बच्चे का जीवन चक्र

जीवन चक्र की पुनरावृत्ति

फिर

हमारी सेवानिवृत्ति।

 

एक कालखंड तक

बच्चे के जीवन चक्र के मूक दर्शक

फिर

सारी सेवाओं से निवृत्ति

महा-सेवानिवृत्ति ।

 

जैसे-जैसे

हम थामते हैं

पुत्र या पौत्र की उँगलियाँ

सिखाने उन्हें चलना

ऐसा लगता है कि

फिसलने लगती हैं

पिताजी की उँगलियों से

हमारी असहाय उँगलियाँ।

 

जब हमारे हाथ उठने लगते हैं

अगली पीढ़ी के सिर पर

देने आशीर्वाद

ऐसा लगता है कि

होने लगते हैं अदृश्य

हमारे सिर के ऊपर से

पिछली पीढ़ी के आशीर्वाद भरे हाथ।

 

इस सारे जीवन चक्र में

इस मशीनी जीवन चक्र में

कहाँ खो गई

वे संवेदनाएं

जो जोड़ कर रखती हैं

रिश्तों के तार ।

 

“हमारे जमाने में ऐसा होता था

हमारे जमाने में वैसा होता था”

 

ये शब्द हर पीढ़ी दोहराती है

और

हर बार अगली पीढ़ी

मन ही मन

इस सच को झुठलाती है।

 

कोई पीढ़ी

जीवन के इस कडवे सच को

कड़वे घूंट की तरह पीती है

तो

कोई पीढ़ी

उसी जीवन के कड़वे सच को

बड़े प्रेम से जीती है।

 

इस सारे जीवन चक्र में

कहीं खो जाती हैं

मानवीय संवेदनाएं

तृप्त या अतृप्त लालसाएं

जो छूट गईं हैं

जीवन की आपाधापी में कहीं।

 

अतः

यह सेवानिवृत्ति नहीं

एक अवसर है

पूर्ण करने

वे मानवीय संवेदनाएं

तृप्त या अतृप्त लालसाएं

कुछ भी ना छूट पाएँ।

 

कुछ भी ना छूट पाये

सारी जीवित-अजीवित पीढ़ियाँ

और

वह भी

जो बस गई है

आपकी हरेक सांस में

आपके सुख दुख की संगिनी

जिसके बिना दोनों का अस्तित्व

है अस्तित्वहीन।

 

सेवा

और उससे निवृत्ति

असंभव है।

फिर

कैसी सेवानिवृत्ति?

 

© हेमन्त बावनकर, पुणे 

 

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ नेह ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  ☆ नेह ☆

मन विदीर्ण हो जाता है

जब कोई

कह-बोल कर

औपचारिक रूप से

बताता-जताता है,

रिश्तों को शाब्दिक

लिबास पहनाता है,

जानता हूँ,

नेह की छटाओं में

होती नहीं एकरसता है

पर मेरी माँ ने कभी नहीं कहा

‘तू मेरे प्राणों में बसता है।’

# दो गज़ की दूरी, है बहुत ज़रूरी।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

(संध्या 7:35 बजे, शुक्रवार, 25.5.18)
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 
मोबाइल– 9890122603

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 49 – कविता – जीवन है अनमोल धरोहर …….☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी  एक अप्रतिम समसामयिक कविता  “ जीवन है अनमोल धरोहर ……..।  वास्तव में जीवन अनमोल धरोहर है और उसे संभाल कर रखने के लिए सतर्कता  की आवश्यकता है  जिस सन्देश के लिए कविता प्रेरणा स्रोत है।  इस सर्वोत्कृष्ट  रचना के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 49 ☆

☆ कविता  – जीवन है अनमोल धरोहर ……..

 

जीवन है अनमोल धरोहर

इसे संभाले रहना

 

महामारी सा फैल गया

दुष्ट रक्त बीज कोरोना

जीवन है अनमोल धरोहर

इसे संभाले रहना

 

जड़ से इसे मिटाना है अब

भय से नहीं घबराना

स्वछता से रहना घर पर

स्वत नष्ट होगा कोरोना

 

जीवन है अनमोल धरोहर

इसे संभाले रहना

 

सात्विक भोजन बने घर पर

सब उसे प्रेम से खाना

भाव भक्ति में समय बिता

ज्ञान की किताबें पढ़ना

 

जीवन है अनमोल धरोहर

इसे संभाले रहना

 

सुबह-शाम दीपक उजियारा

धूप दीप सुगंधी लगाना

स्व स्वधा के पाठ से

निरोगी होगा भारत अपना

 

जीवन है अनमोल धरोहर

इसे संभाले रहना

 

बच्चे बूढ़ों का ध्यान रखें

प्यार से उनको समझाना

कुछ दिनों की बात है ये

सभी का होगा पूरा सपना

 

जीवन है अनमोल धरोहर

इसे संभाले रहना

 

लगेगी फिर बागों में रौनक

शहनाई बजेगी अंगना

सावन की बूंदे लाएंगी

सुख-शांति का गहना

 

जीवन है अनमोल धरोहर

इसे संभाले रहना।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ आत्मनिर्भरता – मेरा सफर ☆ श्री मनीष खरे “शायर अवधी”

श्री मनीष खरे “शायर अवधी”

(ई-अभिव्यक्ति में श्री मनीष खरे “शायर अवधी”जी का हार्दिक स्वागत है। श्री मनीष जी का परिचय उनके ही शब्दों में – “मैंने 300 से अधिक शायरी, गजल, कविताएं लिखीं किन्तु, कभी इस तरह से प्रकाशित करने की कोशिश नहीं की। इस लॉकडाउन में मैंने महसूस किया कि मुझे अपनी इस सोच नुमा चौकोर कमरे से बाहर आना चाहिए और अपनी “अभिव्यक्ति” को अपनी डायरी से बाहर डिजिटल मीडिया में ले जाना चाहिए। मैं ऑटोमोबाइल क्षेत्र के एक प्रसिद्ध संस्थान में मानव संसाधन टीम का सदस्य हूँ। अपने समग्र कैरियर के दौरान  मैं ऐसे कई लोगों से मिला हूँ, जिन्होंने मेरे मस्तिष्क में विभिन्न  संवेदनाओं को जगाने का प्रयास किया है और उनके साथ उनकी भावनाओं को जिया है। मेरी सभी रचनाएँ उन सभी को समर्पित हैं जिन्होंने अब तक मेरे जीवन के विभिन्न पहलुओं को स्पर्श किया है।”  आज प्रस्तुत है आपकी एक  भावप्रवण समसामयिक रचना  “आत्मनिर्भरता – मेरा सफर”।)

☆ कविता  – आत्मनिर्भरता – मेरा सफर 

 

यूँ गरीबी की चटाई मैं उठाये चल पड़ा हूँ

अपने काँधे पे बिठाये मासूमियत मैं चल पड़ा हूँ

जानता ना मानता मैं सुख की अभिलाषा को रत्ती भर

जीतने खुद से खुद की लड़ाई मैं चल पड़ा हूँ

यूँ गरीबी की चटाई ………

तपतपाती धूप में मखमल समझ इस राह को

गर्म करती ये धधकती हवायें इस सिसकती आह को

बन गया मैं आत्मनिर्भर ये समझ ले आसमां

चल पड़ा हूँ मैं बदलने किस्मत बनी उस स्याह को

मीलों की ये कश्मकश अब पंजो से उधेड़ने चल पड़ा हूँ

अपने काँधे पे बिठाये…….

यूँ गरीबी की चटाई………

क्या था जो जीत मैं ले जा रहा था पिंड को

ख्वाहिशे थी ये मेरी जो आ गया इस राह मैं

बन गया था आशियाना ये शहर सपनो का मेरे

देखता हूँ जब भी मैं मासूम उन निगाहों को

बिखरते सपने ये मेरे बूंदो के भाव में

देखी थी ज़िन्दगी मैंने अपनों को लेकर भविष्य की

हैं खड़े जो संग मेरे हर ख़ुशी हर चाह में

लौट वतन अपने मैं मेरे पिंड में कुछ जमाऊंगा

आत्मनिर्भरता का प्रत्यक्ष प्रमाण सबको दिखलाऊंगा

बिखरते सपनो को फिर से संजोने उठ खड़ा हूँ

यूँ गरीबी की चटाई…..

 

© श्री मनीष खरे “शायर अवधी”

पुणे, महाराष्ट्र

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ उत्सव कवितेचा # 7 – झाडांच्या देशात/पेड़ों के देश में (भावानुवाद) ☆ श्रीमति उज्ज्वला केळकर

श्रीमति उज्ज्वला केळकर

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्रीमति उज्ज्वला केळकर जी  मराठी साहित्य की विभिन्न विधाओं की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपके कई साहित्य का हिन्दी अनुवाद भी हुआ है। इसके अतिरिक्त आपने कुछ हिंदी साहित्य का मराठी अनुवाद भी किया है। आप कई पुरस्कारों/अलंकारणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपकी अब तक दस पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं एवं 6 उपन्यास, 6 लघुकथा संग्रह 14 कथा संग्रह एवं 6 तत्वज्ञान पर प्रकाशित हो चुकी हैं।  हम श्रीमति उज्ज्वला केळकर जी के हृदय से आभारी हैं कि उन्होने साप्ताहिक स्तम्भ – उत्सव कवितेचा के माध्यम से अपनी रचनाएँ साझा करने की सहमति प्रदान की है। आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता  ‘झाडांच्या देशातएवं इस मूल कविता का आपके ही द्वारा हिंदी अनुवाद  ‘पेड़ों के देश में’। आप प्रत्येक मंगलवार को श्रीमति उज्ज्वला केळकर जी की रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।)

यह कविता हायकू सदृश्य है। किन्तु, इसे हायकू नहीं कह सकते। यहाँ 3 पंक्तियों की रचना है किन्तु, मात्रा का विचार नहीं किया है। इसे त्रिवेणी या  कणिका कहा जा सकता है। 

–  श्रीमति उज्ज्वला केळकर

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – उत्सव कवितेचा – # 7 ☆ 

☆ झाडांच्या देशात  

(काही हायकू)

झाडांच्या देशात

ऊन पाहुणे आले.

फुलांच्या भेटी देउन गेले.

 

झाडांच्या देशात

पाऊस पाहुणा आला.

भुइच्या घरात जाऊन दडला.

 

झाडांच्या देशात

शिशिर पाहुणा आला.

पाने ओरबाडून पळून गेला.

 

झाडांच्या देशात

पक्षी पाहुणे आले.

वहिवाटीच्या हक्कावरून भांडत सुटले.

 

झाडांच्या देशात

चंद्र पाहुणा आला.

सावल्यांचा खेळ खेळत राहिला.

 

☆ पेड़ों के देश में  

(श्रीमती उज्ज्वला केळकर द्वारा उनकी उपरोक्त कविता का हिंदी भावानुवाद)

 

पेड़ों के देश में

धूप मेहमान आयी

फूलों की भेंट चढ़ाकर चली गई।

 

पेड़ों के देश में

बारिश मेहमान आयी

भूमि के घर जा छिप गयी

 

पेड़ों के देश में

शिशिर मेहमान आया

पत्तों को झिंझोड़ कर भाग गया।

 

पेड़ों के देश में

पंछी मेहमान आये

आवास के अधिकार के लिए झगड़ते रहे।

 

पेड़ों के देश में

चन्द्र मेहमान आया

परछाइयों से खेल खेलता रहा।

 

© श्रीमति उज्ज्वला केळकर

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ याद के संदर्भ में दोहे ☆डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। अपनी  कालजयी रचना याद के संदर्भ में दोहे  को ई- अभिव्यक्ति  के पाठकों के साथ साझा करने के लिए आपका  हृदय से आभार।)

 ✍  याद के संदर्भ में दोहे  ✍

 

याद हमारी आ गई, या कुछ किया प्रयास।

अपना तो यह हाल है, यादें बने लिबास।।

 

फूल तुम्हारी याद के, जीवन का एहसास।

वरना है यह जिंदगी, जंगल का रहवास।।

 

यादों की कंदील ने, इतना दिया उजास।

भूलों के भूगोल ने, बांच लिया इतिहास ।।

 

बादल आकर ले गए, उजली उजली धूप ।

अंधियारे में कौंधते, यादों वाले स्तूप।।

 

सांसो की सरगम बजे, किया किसी ने याद।

शब्दों का है मौन व्रत, कौन करे संवाद ।।

 

यादों के आकाश में, फूले खूब बबूल ।

सांसों की सर फूंद भी, अधर रही है झूल ।।

 

सांसों का संकीर्तन, मिलन क्षणों की याद।

मन-ही-मन से कर रहा, एकाकी संवाद।।

 

© डॉ. राजकुमार सुमित्र

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

9300121702

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 4 – डालियों पर लिखी …. ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज पस्तुत है उनका अभिनव गीत  “डालियों पर लिखी ….“ ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 4 – ।। अभिनव गीत ।।

☆ डालियों पर लिखी …. ☆

 

इधर बाहों में कहीं

जैसे सिमट

आपकी यह

आगमनआहट

 

लता को बिछुये

पिन्हाती है

हवा को पछुआ;

बनाती है

 

भागती ही

मिली है सरपट

 

पेड़ जैसे सिर

खुजाते हैं

फूल खुद में

ही लजाते हैं

 

डालियों पर

खिलखिला झटपट

 

खुशबुओं के

बीच में छिपकर

शर्म से कहती

जरा चुप कर

 

लाज से दोहरी

हुई नटखट

 

मुस्कुराकर

शाम से कहती

क्यों नहीं आराम

है करती

 

क्या किसी से

हो गई खटपट

 

डालियों पर

लिखी छन्दो सी

पत्तियों में

ज्यों परिन्दों सी

 

वहीं ठहरी है

जहाँ तलछट

 

बाँसुरी के संग

कन्हाई की

बाँह पकड़े

हुये भाई की

 

छोड़ आई क्यों

दुखी पनघट

 

© राघवेन्द्र तिवारी

23-04-2020

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ निधि की कलम से # 11 ☆ लम्हों की किताब ☆ डॉ निधि जैन

डॉ निधि जैन 

डॉ निधि जैन जी  भारती विद्यापीठ,अभियांत्रिकी महाविद्यालय, पुणे में सहायक प्रोफेसर हैं। आपने शिक्षण को अपना व्यवसाय चुना किन्तु, एक साहित्यकार बनना एक स्वप्न था। आपकी प्रथम पुस्तक कुछ लम्हे  आपकी इसी अभिरुचि की एक परिणीति है। आपका परिवार, व्यवसाय (अभियांत्रिक विज्ञान में शिक्षण) और साहित्य के मध्य संयोजन अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण कविता  “लम्हों की किताब ”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆निधि की कलम से # 11 ☆ 

☆ लम्हों की किताब  ☆

 

लम्हों की किताब में यादों को शब्दों में पिरोकर, कुछ बात मैंने कही हैं,

माँ छूटी मायका छूटा कई रिश्ते जुड़े, एक मजबूत रिश्ता तुम्हारा भी है,

शहर बदले रास्ते बदले दोस्त बदले, कई रास्ते बदलने के बाद,

नये साथ के साथ एक साथ तुम्हारा भी था,

लम्हों की किताब में यादों को शब्दों में पिरोकर, कुछ बात मैंने कही हैं।

 

तिनका तिनका जोड़ा बूंद-बूंद को समेटा,

घर के द्वार खिड़की जोड़ी, मेरे कन्धों के साथ एक कन्धा तुम्हारा भी था,

ख्वाब टूटे, फिर टूटे, नए सपने टूटे फिर जुड़े,

रात में घबरा कर जब उठे, तो एक तकिया तुम्हारा भी था,

लम्हों की किताब में यादों को शब्दों में पिरोकर, कुछ बात मैंने कही हैं।

 

मौसम बदले काले बादल आए,

आँसू झरे डर गई, गमों में डूब गई एक आँसू तुम्हारा भी था,

बेटा आया, फूलों सी मुस्कान लाया,

आँखों में नए ख्वाब नई रोशनी आई, उसमे एक मुस्कान तुम्हारी भी थी,

लम्हों की किताब में यादों को शब्दों में पिरोकर, कुछ बात मैंने कही हैं।

 

बात पुरानी हो गई, किताबों के पन्ने मैले हो गए,

काई पतझड़ सावन आ कर चले गए, जीवन ने समय के साथ मौसम बदले,

फिर भी हम साथ चलते-चलते, लम्हों की किताब बन गई,

 

हर लम्हें का एक-एक पन्ना खुलता गया, उम्र कटती जा रही है,

लम्हों की किताब में यादों को शब्दों में पिरोकर, कुछ बात मैंने कही हैं।

 

©  डॉ निधि जैन, पुणे

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 11 ☆ मुक्तिका/हिंदी ग़ज़ल ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी मुक्तिका/हिंदी ग़ज़ल

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 11 ☆ 

☆ मुक्तिका/हिंदी ग़ज़ल☆ 

 

किस सा किस्सा?, कहे कहानी

गल्प- गप्प हँस कर मनमानी

 

कथ्य कथा है जी भर बाँचो

सुन, कह, समझे बुद्धि सयानी

 

बोध करा दे सत्य-असत का

बोध-कथा जो कहती नानी

 

देते पर उपदेश, न करते

आप आचरण पंडित-ज्ञानी

 

लाल बुझक्कड़ बूझ, न बूझें

कभी पहेली, पर ज़िद ठानी

 

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ पर्यावरण दिवस विशेष – धरती प्यारी मां ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। पर्यावरण दिवस के अवसर पर आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की एक रचना  धरती प्यारी मां।  यह डॉ मुक्ता जी के  पर्यावरण के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण कविता के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )     

☆ पर्यावरण दिवस विशेष – धरती प्यारी मां

 

धरती हमारी स्वर्ग से सुंदर

नव-निधियों की खान मां

सहनशीलता का पाठ पढ़ाती

मिलजुल कर रहना सिखाती मां

अपरिमित सौंदर्य का सागर

अन्नपूर्णा, हमारी प्यारी मां

जन्मदात्री,सबका बोझ उठाती

पल-पल दुलराती,सहलाती मां

विपत्ति की घड़ी में धैर्य बंधाती

प्यार से सीने से लगाती मां

कैसे बयान करूं उसकी महिमा

शब्दों का मैं अभाव पाती मां

मानव की बढ़ती लिप्सा देख

रात भर वह आंसू बहाती मां

सरेआम शील-हरण के हादसे

उसके अंतर्मन को कचोटते मां

अपहरण, फ़िरौती के किस्से

मर्म को भेदते,आहत करते मां

पाप,अनाचार बढ़ रहा बेतहाशा

विद्रोह करना चाहती घायल मां

मत लो उस के धैर्य की परीक्षा

सृष्टि को हिलाकर रख देगी मां

 

आओ! वृक्ष लगा कर धरा को

स्वच्छ बनाएं,हरित-क्रांति लाएं

प्लास्टिक का हम त्याग करें

स्वदेशी को जीवन में अपनाएं

जल बिन नहीं जीवन संभव

बूंद-बूंद बचाने की मुहिम चलाएं

वायु-प्रदूषण बना सांसों का दुश्मन

नदियों का जल भी विषैला हुआ

प्रकृति का आराधन-पूजन करें

सर्वेभवंतु सुखीनाम् के गीत गाएं

 

पर्यावरण की रक्षा हित हम सब

मानसिक प्रदूषण को भगाएं मां

दुष्प्रवृत्तियां स्वत: मिट जाएंगी

ज़िंदगी को उत्सव-सम मनाएं मां

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

22.4.20….4.30 p.m

Please share your Post !

Shares