हिन्दी साहित्य – कविता ☆ क्यों लिखता हूँ मैं….? ☆– श्री माधव राव माण्डोले “दिनेश”

श्री माधव राव माण्डोले “दिनेश”

 

☆ क्यों लिखता हूँ मैं….? ☆ 

 

क्यों लिखता हूँ मैं….?

किसके लिए लिखता हूँ मैं….?

क्या समाज के बारे में लिखता हूँ मैं….?

क्या समाज अच्छा या खराब है इसलिए लिखता हूँ मैं….?

क्या समाज सुधार के लिए लिखता हूँ मैं….?

क्या सिर्फ समाज की कमियाँ ही लिखता हूँ मैं….?

क्या देश के लिए लिखता हूँ मैं….?

क्या मेरा देश महान है, इसलिए लिखता हूँ मैं….?

क्या देश कि वास्तविकता दिखाने के लिए लिखता हूँ मैं….?

क्या किसी की महानता के लिए लिखता हूँ मैं….?

क्या मुझे किसी से प्रेम है….इसलिए लिखता हूँ मैं….?

क्या सिर्फ प्रेम का श्रृंगार के लिए लिखता हूँ मैं….?

क्या प्रेम वियोग में लिखता हूँ मैं….?

क्या  प्रेम ईश्वर की देन है…इसलिए लिखता हूँ मैं….?

क्या ईश्वर की आराधना के लिए लिखता हूँ मैं….?

क्या किसी पुरस्कार की चाह में लिखता हूँ मैं….?

क्या लोग मुझे याद रखें, इसलिए लिखता हूँ मैं….?

क्या सामान्य से अलग हूँ इसलिए लिखता हूँ मैं….?

क्या वजह है….क्यों लिखता हूँ मैं….?

शायद कवि हूँ मैं….?

इसलिए सिर्फ मन की बात लिखता हूँ मैं….

 

© माधव राव माण्डोले “दिनेश”, भोपाल 

(श्री माधव राव माण्डोले “दिनेश”, दि न्यू इंडिया एश्योरंस कंपनी, भोपाल में सहायक प्रबन्धक हैं।)

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हिन्दी साहित्य – श्री गणेश चतुर्थी विशेष – कविता – ☆ सिध्दिदायक गजवदन ☆ – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्री गणेश चतुर्थी विशेष

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

 

((आज )प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा  श्री गणेश चतुर्थी पर्व पर रचित कविता सिध्दिदायक गजवदन । ) 

 

☆ सिध्दिदायक गजवदन ☆

 

जय गणेश गणाधिपति प्रभु, सिध्दिदायक, गजवदन

विघ्ननाशक कष्टहारी हे परम आनन्दधन ।।

 

दुखो से संतप्त अतिशय त्रस्त यह संसार है

धरा पर नित बढ़ रहा दुखदायियो का भार है ।

हर हृदय में वेदना, आतंक का अंधियार है

उठ गया दुनिया से जैसे मन का ममता प्यार है ।।

दीजिये सदबुद्धि का वरदान हे करूणा अयन ।।१।।

 

प्रकृति ने करके कृपा जो दिये सबको दान थे

आदमी ने नष्ट कर ड़ाले हैं वे अज्ञान से।

प्रगति तो की बहुत अब तक विश्व में विज्ञान से

प्रदूषित जल थल गगन पर हो गए अभियान से ।।

फंस गया है उलझनो के बीच मन हे सुख सदन ।।२।।

 

प्रेरणा देते हृदय को प्रभु तुमही सद्भाव की

दूर करके भ्रांतियां सब व्यर्थ के टकराव की।

बढ़ रही जो सब तरफ हैं वृत्तियां अपराध की

रौंद डाली है उन्होंने फसल सात्विक साध की ।।

चेतना दो प्रभु की उन्माद से उधरे नयन ।।३।।

 

जय गणेश गणाधिपति प्रभु, सिध्दिदायक, गजवदन

विघ्ननाशक कष्टहारी हे परम आनन्दधन ।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 11 – बेचारा प्यारा बिझूका ☆ – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की   ग्यारहवीं कड़ी में उनकी कविता  “बेचारा प्यारा बिझूका” । आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।)

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 11 ☆

 

☆ बेचारा प्यारा बिझूका ☆ 

 

बेचारा प्यारा बिझूका

मुफ्त में ड्यूटी करता

करता कारनामे गजब

फटे शर्ट में मुस्कराता

चिलचिली धूप में नाचता

पूस की रातों में कुकरता

कुत्ते जैसा कूं कूं करता

खेत मे फुल मस्त दिखता

मुफ्त का चौकीदार बनता

हरदम अविश्वास करता

न खुद खाता न खाने देता

क्यों मोती की माला गिनता

 

……………….

 

बेचारा हमारा बिझूका

हितैषी कहता किसान का

देशहित में हरदम बात करता।

वोट मांगता और झटके देता

पशु पक्षियों को झूठ में डराता

और हर दम हाथ भी मटकाता

 

…………………..

 

बेचारा उनका बिझूका

सिनेमा में बंदूक चलाता

व्यंग्य में चौकीदारी करता

कविता में बेवजह घुस जाता

और

भूत की अपवाह फैलाता

योगी और किसान को डराता

रात को मोती माला जपता

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – कविता – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – मनुष्य जाति में ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

??? मनुष्य जाति में ???

 

होता है एकल प्रसव,
कभी-कभार जुड़वाँ
और दुर्लभ से दुर्लभतम
तीन या चार,
डरता हूँ
ये निरंतर
प्रसूत होती लेखनी
और जन्मती रचनाएँ
कोई अनहोनी न करा दें,
मुझे जाति बहिष्कृत न करा दें।

 

हर दिन निर्भीक जियें।

 

(प्रकाशनाधीन कविता संग्रह से )

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – श्रीकृष्ण जन्माष्टमी विशेष – लघुकथा – ☆ आज का कान्हा ☆ – श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी“

श्रीकृष्ण जन्माष्टमी विशेष

श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

 

(सुप्रसिद्ध, ओजस्वी,वरिष्ठ साहित्यकार श्रीमती हेमलता मिश्रा “मानवी”  जी  विगत ३७ वर्षों से साहित्य सेवायेँ प्रदान कर रहीं हैं एवं मंच संचालन, काव्य/नाट्य लेखन तथा आकाशवाणी  एवं दूरदर्शन में  सक्रिय हैं। आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय स्तर पर पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित, कविता कहानी संग्रह निबंध संग्रह नाटक संग्रह प्रकाशित, तीन पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद, दो पुस्तकों और एक ग्रंथ का संशोधन कार्य चल रहा है।आज प्रस्तुत है  श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के अवसर पर एक लघुकथा   “आज का कान्हा”। 

 

☆ आज का कान्हा ☆

 

चल भाग बड़ा आया मेरे बेड पर मेरे साथ सोने। जा अपनी दादी के साथ सो।

माँ की झिड़की से सहम गया शिवम। मगर ढीठ बना वहीं खड़ा रहा। आहत स्वाभिमान आँखों की राह बह निकला परंतु आँखों में आशा की ज्योत जलती रही। भले ही उसकी माँ उसे जन्म देते ही गुजर गई हो मगर कल कन्हैया के बारे में कहानी सुनाते वक्त दादी ने कहा था कि यशोदा मैया भी कान्हा की सगी माँ नहीं थी। वे भी तो उन्हें ऊखल से बांध दिया करती थी। माखन मिश्री खाने से रोकती थी।

फिर भी तो कान्हा उन्हीं के बेटे कहलाते हैं— यशोदानंदन ही कहते हैं कान्हा को। फिर संध्या माँ भी तो मेरी यशोदा मैया हैं। सोचते सोचते आज का वह नन्हा कान्हा वहीं माँ के बेड पर सिकुड़ कर एक कोने में सो गया–माँ के सपनों में खो गया।

 

© हेमलता मिश्र “मानवी ” ✍

नागपुर, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य – श्रीकृष्ण जन्माष्टमी विशेष – कविता – ☆ दो गीत/भजन ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आज प्रस्तुत है श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के शुभ अवसर पर आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  द्वारा रचित दो गीत/भजन  “आज जन्मे कृष्ण कन्हाई” तथा “मोरे मन में बस गए श्याम”)

 

☆ गीत/भजन – “आज जन्मे कृष्ण कन्हाई” तथा “मोरे मन में बस गए श्याम”☆ 

एक

☆ आज जन्मे कृष्ण कन्हाई☆

 

आज जन्मे कृष्ण कन्हाई

नंदबाबा के बजत बधैया,घर घर खुशियां छाई

नगर नगर में धूम मची है,देते सभी बधाई

यमुना गद गद पांव पखारे,शेषनाग परछाई

धन्य धन्य ब्रज भूमि सारी,गायें देत दुहाई

नंद भी नाचे,नाचीं मैया,खूबै धूम मचाई

संग संग “संतोष” भी नाचे,मन में हर्ष समाई

 

 

दो

मोरे मन में बस गए श्याम

 

मोरे मन में बस गए श्याम

सबसे पावन नाम तिहारो,तेरे चरण सब धाम

तू ही बिगड़े काज संवारे,दुनिया से क्या काम

पीर द्रोपदी पल में हर ली,बनाये बिगड़े काम

मोर मुकुट मुरलीधर मोहन,मधुसूदन घनश्याम

भव सागर से पार लगाते,हरें सब पाप तमाम

“संतोष” भजे नाम तिहारा,रोज ही सुबहो शाम

© संतोष नेमा “संतोष” ✍

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मोबा 9300101799

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हिन्दी साहित्य – श्रीकृष्ण जन्माष्टमी विशेष – कविता – ☆ कान्हा ! एक दिन तु्मको आना ही होगा ☆ – डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव

श्रीकृष्ण जन्माष्टमी विशेष 

डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव 

 

(डॉ. प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव जी की एक  भावप्रवण कविता।)

 

☆ कान्हा ! एक दिन तु्मको आना ही होगा ☆

 

कान्हा ! एक दिन तु्मको आना ही होगा,

अनंत प्रतीक्षा राधा की अंत करना होगा।

नियति का चक्र भी तुम्हे बदलना होगा,

तन मन प्राणों की पीड़ा हरना ही होगा।।

कान्हा ! एक दिन तुमको आना ही होगा।

 

कोटि-कोटि सावन बीते, कलियुग बीते,

मधु यौवन बीते, विरह ताप हरना होगा।

विरहणी मृगनयनी के चछु रो रोकर रीते,

प्रीति घट हुए रीते, प्रेम रस भरना होगा।।

कान्हा ! एक दिन तुमको आना ही होगा।

 

कान्हा ! निज प्रथम प्रेम कैसे तुम भूल गए,

गोकुल वृंदावन भूले, मधुवन हर्षाना होगा।

नियति कोई हो, प्रेमांजलि चख के चले गए !!

राधेय यौवन लौटा, मदन रस वर्षाना होगा।।

कान्हा ! एक दिन तुमको आना ही होगा।

 

अगर नहीं आओगे, गीता का मान घटाओगे,

नियंता तुम ही जग के अब दिखलाना होगा।

प्रथम प्रेम भुलाओगे, नारी सम्मान मिटाओगे,

मान दिला हर्षाओगे, प्रेम अमर कर जाओगे।।

कान्हा ! एक दिन तुमको आना ही होगा,

 

अनंत प्रतीक्षा राधा की अंत करना होगा।

नियति का चक्र भी तुम्हे बदलना होगा,

तन मन प्राणों की पीड़ा हरना ही होगा।।

कान्हा ! एक दिन तुमको आना ही होगा।

 

डा0.प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव

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हिन्दी साहित्य – श्रीकृष्ण जन्माष्टमी विशेष – कविता ☆ गोपाला-गोपाला ☆ – श्री मच्छिंद्र बापू भिसे

श्रीकृष्ण जन्माष्टमी विशेष

श्री मच्छिंद्र बापू भिसे

(श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के विशेष पर्व पर प्रस्तुत है  श्री मच्छिंद्र बापू भिसे जी की कविता  “गोपाला – गोपाला“। 

 

एकता का जश्न हो,
मानवता ही श्रीकृष्ण हो,
नाम भले अनेक हो,
हम सब भारतीय बनेंगे,
हृदय हम सबका एक हो.

 

? गोपाला-गोपाला  ?

देवकी का लाल भी तू,
यशोदा का गोपाल भी तू,
वासुदेव का प्यारा भी तू,
नंद का दुलारा भी तू,
गोपियों का मतवाला तू,
सृष्टी का रखवाला,
गोपाला, गोपाला,
सबके प्यारे-प्यारे गोपाला.

कंस का भाँजा भी तू,
बना उसका काल भी तू,
बलराम का भ्राता भी तू,
सबका बना दाता भी तू,
द्रौपदी की लाज भी तू,
अर्जुन का सरताज भी तू,
रामायण का राम भी तू,
महाभारत का कृष्ण भी तू,
सबमें तू और तुझमें है सब,
कैसा यह खेल  निराला?
गोपाला, गोपाला,
सबके प्यारे-प्यारे गोपाला.

आज….
राम का रामचंद्र भी तू,
रहीम का रहमान भी तू,
मंदिर का भजन भी तू,
मस्जिद की अजान भी तू,
गीता का वचन भी तू,
पाक कुरान का कहन भी तू,
गुरूग्रंथ का नानकदेव भी तू,
बाइबिल का ईसा-मसीह भी तू,
न तेरा धर्म कोई,
न किसी को माना है निराला,
गोपाला, गोपाला,
सबके प्यारे-प्यारे गोपाला.

 

© मच्छिंद्र बापू भिसे

भिराडाचीवाडी, डाक भुईंज, तहसील वाई, जिला सातारा – ४१५ ५१५ (महाराष्ट्र)

मोबाईल नं.:9730491952 / 9545840063

ई-मेल[email protected] , [email protected]

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हिन्दी साहित्य – श्रीकृष्ण जन्माष्टमी विशेष – कविता – ☆ दो कवितायें ☆ – श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीकृष्ण जन्माष्टमी विशेष

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

 

 

(श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  का  e-abhivyakti में हार्दिक स्वागत है।  आप कविताएँ, गीत, लघुकथाएं लिखती हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो रही हैं। आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। हम आशा करते हैं कि हम भविष्य में उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के शुभ अवसर पर दो कवितायें  निरागस जिज्ञासा तथा एकात्मकता )

संक्षिप्त परिचय 

  • कविताओं को कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में स्थान मिला है जैसे अहा! जिंदगी, दुनिया इन दिनों, समहुत, कृति ओर, व्यंजना (काव्य केंद्रित पत्रिका) सर्वोत्तम मासिक, प्रतिमान, काव्यकुण्ड, साहित्य सृजन आदि।
  • आपकी रचनाओं को कई ई-पत्रिकाओं/ई-संस्करणों में भी स्थान मिला है जैसे सुबह सवेरे (भोपाल), युवा प्रवर्तक, स्टोरी मिरर (होली विशेषांक ई पत्रिका), पोषम पा, हिन्दीनामा आदि।
  • राजधानी समाचार भोपाल के ई न्यूज पेपर में ‘विशाखा की कलम से’ खंड में अनेक कविताओं का प्रकाशन
  • कनाडा से प्रकाशित होने वाली पत्रिका ‘पंजाब टुडे’ में भाषांतर के अंतर्गत एक कविता अमरजीत कुंके जी ने पंजाबी में अनुदित
  • आपकी कविता का ‘सर्वोत्तम मासिक’ एवं ‘काव्यकुण्ड’ पत्रिका के लिए वरिष्ठ कवयित्री अलकनंदा साने जी द्वारा मराठी में अनुवाद व आशीष
  • कई कवितायें तीन साझा काव्य संकलनों में प्रकाशित

 

☆ दो कवितायें – निरागस जिज्ञासा तथा एकात्मकता  ☆

1.

निरागस जिज्ञासा

 

मुझे तो तेरे मुकुट पर फूल गोकर्ण का

मोरपंख सा लगता है,

कृष्ण बता, तुझे ये कैसा लगता है?

 

मुझे तो तेरी मुरली की धुन

अब भी सुनाई देती है,

कृष्ण बता अब भी तू क्या

ग्वाला बन के फिरता है?

 

तुझे तो मैं कई सदियों से

माखन मिश्री खिलाती हूँ,

कृष्ण बता अब भी तू क्या

माखनचोरी करता है?

 

मुझे तो अब भी यमुना में

अक्स तेरा दिखता है,

कृष्ण बता अब भी तू क्या

कालियामर्दन करता है?

 

मुझे तो हर एक माँ

यशोदा सी लगती है,

कृष्ण बता अब भी तू क्या

जन्म धरा पर लेता है?

 

2. 

एकात्मता 

तू मुझे प्यार करे या मैं तुझे प्यार करूँ

बात एक है ना, प्यार है ना!

तू मेरे साथ चले या मैं तेरे साथ चलूँ,

बात एक है ना ,साथ है ना!

 

कि दोनों  ही ऊर्जा बड़ी सकारात्मक है,

“प्यार” संग “साथ “हो तो पंथ ही दूजा है

 

वो आत्मा हो जाती है कृष्णपंथी

फिर मुरली हो या पाँचजन्य, बात एक है ना!

 

कि कृष्ण कहाँ सबके साथ था,

सबमे उनकी अनंत ऊर्जा का निवास था

फिर वो राधा हो या मीरा,

देवकी हो या यशोदा,

बात एक ही है ना!

 

© विशाखा मुलमुले  ✍

पुणे, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य – परसाई स्मृति अंक – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 11 ☆ अनुरागी ☆ – डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ  -साहित्य निकुंज”के  माध्यम से आप प्रत्येक शुक्रवार को डॉ भावना जी के साहित्य से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ. भावना शुक्ल जी की  एक भावप्रवण कविता   “अनुरागी ”। 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – # 11  साहित्य निकुंज ☆

 

☆ अनुरागी

 

प्रीत की रीत  है न्यारी

देख उसे वो लगती प्यारी

कैसे कहूं इच्छा मन की

है बरसों जीवन की

अब तो

हो गए हम विरागी

वाणी हो गई तपस्वी

भाव जगते तेजस्वी

हो गये भक्ति में लीन

साथ लिए फिरते सारंगी बीन।

देख तुझे मन तरसे

झर-झर नैना बरसे

अब नजरे है फेरी

मन की इच्छा है घनेरी

मन तो हुआ उदासी

लौट पड़ा वनवासी।

देख तेरी ये कंचन काया

कितना रस इसमें है समाया

अधरों की  लाली है फूटे

दृष्टि मेरी ये देख न हटे

बार -बार मन को समझाया

जीवन की हर इच्छा त्यागी

हो गए हम विरागी

भाव प्रेम के बने पुजारी

शब्द न उपजते श्रृंगारी

पर

मन तो है अविकारी

कैसे कहूं इच्छा मन की

मन तो है बड़भागी

हुआ अनुरागी।

छूट गया विरागी

जीत गया प्रेमानुरागी

प्रीत की रीत है न्यारी…

 

© डॉ भावना शुक्ल
सहसंपादक…प्राची

 

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