हिन्दी साहित्य- कविता – ☆ घर ☆ – सुश्री रक्षा गीता

सुश्री रक्षा गीता 

 

(सुश्री रक्षा गीता जी का e-abhivyakti में स्वागत है।  आपने हिन्दी विषय में स्नातकोत्तर किया है एवं वर्तमान में कालिंदी महाविद्यालय में तदर्थ प्रवक्ता हैं । आज  प्रस्तुत है उनकी कविता  “घर”।)

संक्षिप्त साहित्यिक परिचय 

  • एम फिल हिंदी- ‘कमलेश्वर के लघु उपन्यासों का शिल्प विधान
  • पीएचडी-‘धर्मवीर भारती के साहित्य में परिवेश बोध
  • धर्मवीर भारती का गद्य साहित्य’ नामक पुस्तक प्रकाशित

 

☆ घर

 

संबंधों में जब “किंतु-परंतु”

‘घर कर’ जाते हैं’

स्नेह के पंछी

कूच कर जाते हैं

छोड़ जाते हैं-

भद्दे निशान बीट के,

असहनीय दुर्गंध,

बिखरे तिनके।

उजड़े घौंसलों में

पंछी बसेरा बसाते नहीं ,

खंडहरों में “घर”

बसा करते नहीं,

विश्वास का मीठा फल

चखा भी ना गया जो पहले ,

सड़ चुका है आज ।

फेंकना ही लाजमी है ।

यादों के जख्म भरते हैं

समय के साथ हौले-हौले

काल-स्थान की दूरी ने

अचानक नहीं

पर नाप लिया ‘वो’ एहसास

जिसे संग रहकर

छूना भी संभव

जाने क्यों ना हो पाया

बहुत करीब से देखने पर

अक्सर चीजें स्पष्ट दिखती है उचित दूरी जरूरी होती है

‘स्पष्टता’ के लिए

दूर रहकर पढ़ सकते हैं

इक दूजे का मन

साफ- साफ

समय निकलने के बाद

व्यर्थ न जाए पढ़ना

कुछ कदम संग-संग बढ़े

कुछ हम बोले

कुछ तुम सुनो

कुछ तेरा हम सुने

समय रहते मिटा ले दूरियां

यही बेहतर है

दोनों के लिए ताकि

इक “घर” बने

 

© रक्षा गीता ✍️

दिल्ली

 

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ प्रिय आवाज दे तुमने मुझको बुलाया नहीं ☆ – डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव

डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव 

 

(डॉ. प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव जी की एक  शृंगारिक भावप्रवण कविता।)

 

☆ प्रिय आवाज दे तुमने मुझको बुलाया नहीं

 

प्रिय आवाज दे तुमने मुझको बुलाया नहीं,

क्यों अर्धांगना तुमने मुझको बनाया नहीं।

क्या जीवन साथी बनने योग्य समझा नहीं,

या मेरे प्यार ने तुम्हारा हृदय हर्षाया नहीं।।

प्रिय – – – – – – – – – – – – – – – -नहीं।

 

प्रिय धड़कनें निज उर की तुमने सुनाया नहीं,

थिरकती उंगलियों से मन वीणा बजाया नहीं।

क्यों प्यारा घरौंदा तुमने मेरे संग बनाया नहीं,

क्या मेरे प्रणयी हृदय ने तुमको तड़पाया नहीं।।

प्रिय – – – – – – – – – – – – – – – -नहीं।

 

प्रिय प्रेम की उष्मा से तुमने मुझे मदमाया नहीं,

मेरी धमनियों में नेह तुमने अपना बहाया नहीं।

लावा तुमने अपने अनुराग का पिघलाया नहीं,

क्या मेरी उर वीणा ने तेरा हृदय लुभाया नहीं।।

प्रिय – – – – – – – – – – – – – – – -नहीं।

 

हा प्रिये! प्रेम ज्योति तुमने निरंतर जलाया नहीं,

क्या मेरे प्रणय ने तेरी देह में आग सुलगाया नहीं।

तेरे प्रेम ने तुझे मुझ संग रमण हेतु तरसाया नहीं,

मेरे अभिसार को तन मन ने तुझको मनाया नहीं।।

प्रिय – – – – – – – – – – – – – – – -नहीं।

 

डा0.प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ जीवनदायी – जीवनदायिनी ☆– श्री माधव राव माण्डोले “दिनेश”

श्री माधव राव माण्डोले “दिनेश”

 

☆ जीवनदायी – जीवनदायिनी ☆ 

 

सुनो ऐ-हिन्दुस्तानियों,

पूरा जोर लगा के कहता हूँ,

शास्त्रों का हवाला देता हूँ।

 

वो …….?

नही रुकेगा पास तुम्हारे,

जिसका न करोगे तुम सम्मान,

जरूरत पड़ने पर भी।

 

वो ……..?

न होगा साथ तुम्हारे,

जानो महत्व उसका।

 

वो…….?

है पारदर्शी जीवन दायी,

अब भी न संभले भाई,

समझो मृत्यु तुम्हें है आई।

 

वो…….?

दिखता,

कल-कल कर चलता,

अब, कम गिरता,

जीवन उसके लिए है तरसता।

रोक सको तो रोक लो,

संभव है जितना

कम से कम

उतना ही भर लो।

 

न समझे अब भी,

न फिर संभलोगे कभी,

सुन लो ऐ हिन्दुस्तानी

छोटी सी पानी की है यह कहानी……..

न संभले तो न रहेगी तुम्हारी निशानी…….

 

© माधव राव माण्डोले “दिनेश”, भोपाल 

(श्री माधव राव माण्डोले “दिनेश”, दि न्यू इंडिया एश्योरंस कंपनी, भोपाल में सहायक प्रबन्धक हैं।)

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य #2 – कहाँ गया बचपन ☆ – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । उन्होने यह साप्ताहिक स्तम्भ “जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य” प्रारम्भ करने का आग्रह स्वीकार किए इसके लिए हम हृदय से आभारी हैं। प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की प्रथम कड़ी में उनकी एक कविता  “तुम्हें सलाम”। अब आप प्रत्येक सोमवार उनकी साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।)

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य #1 ☆

 

☆ कहां गया बचपन ☆

 

खबरदार होशियार

खुशनसीब बचपन।

ये जहर उगलते

मीडिया में बचपन।

 

ऊंगलियों में कैद

हो गया है बचपन।

हताशा और निराशा

में लिपटा है बचपन।

 

गिल्ली न डण्डा

न कन्चे का बचपन।

फेसबुक की आंधी

में डूबा है बचपन।

 

वाटसअप ने उल्लू

बनाया रे बचपन।

चीन के मंजे से

घायल है बचपन।

 

खांसी और सरदी

का हो गया बचपन।

कबड्डी खोखो को

भूल गया बचपन।

 

सुनो तो  कहीं से

बुला दो वो बचपन।

मिले तो आनलाइन

भेज दो वो बचपन।

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #4 ☆ समानाधिकार ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी कविता  “समानाधिकार”। 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 4 ☆

 

☆ समानाधिकार ☆

 

सड़क के किनारे

झूठे पत्तलों को चाटते देख

अनगिनत प्रश्न मन में कौंधते

कैसी तुम्हारी दुनिया

कैसा यह जग-व्यवहार

 

तुम कहलाते सृष्टि-नियंता

करुणा-सागर

महिमा तुम्हारी अपरंपार

तुम अजर,अमर,अविनाशी

घट-घट वासी

सृष्टि के कण-कण में

पाता मानव तुम्हारा अहसास

 

परन्तु,अच्छा है…

निराकार हो,अदृश्य व शून्य हो

यदि तुम दिखलाई पड़ जाते

हो जाता तुम्हारा भी बंटाधार

 

कैसे बच पाते तुम

प्रश्नों के चक्रव्यूह से

कैसे सुरक्षित रख पाते

निज देह,निज ग़ेह

 

अब भी समय है

होश में आओ

ऐसी सृष्टि की रचना करो

जहां सब को मिलें

समानावसर

व समानाधिकार

तभी हो पाएगी

इस जहान में सर्वदा

तुम्हारी जय जयकार

 

© डा. मुक्ता

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #2 आस ☆ – डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ  -साहित्य निकुंज”के  माध्यम से अब आप प्रत्येक शुक्रवार को डॉ भावना जी के साहित्य से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ. भावना शुक्ल जी की कविता “आस”

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – #2  साहित्य निकुंज ☆

 

☆ आस ☆

 

बेटियां अब बड़ी हो गई है

उम्र की

कमसिन दहलीज पर

अब खड़ी हो गई हैं.

है बेटियों के बहुत अरमान

देने हैं उन्हें अब इम्तिहान

अब वे

पुरातन छवि से परे

गढ़ रही है नए विचार

बदल दी है सौंदर्य की परिभाषा

जगती मन में है एक आशा

बदले हैं कमनीयता पुराने के रंग

बदल गया है रहन-सहन का ढंग

रच डाली है एक नई छवि

तोड़ डाले हैं यौवनता के सब बंधन

तुम हो समर्थ

तुम्हें आशाओं के पंख लगा कर

उड़ना है

अपने हौसले को बुलंद

करना है

अब पुरातन बंधन नहीं है

नहीं है किसी चीज का निषेध

छूना है आसमान यही है शेष

परंपराओं की तोड़नी है दीवार

करना है

सभी से प्यार

रखना है नारी की गरिमा मान

होगा तभी सम्मान

रचना है तुम्हें एक इतिहास

बस

इस माँ की है यही आस.

 

© डॉ भावना शुक्ल

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ आओ हम सब मिल नित योग करें ☆ – डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव

अंतरराष्ट्रीय योग दिवस पर विशेष 

डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव 

 

(डॉ. प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव जी की  अंतरराष्ट्रीय योग दिवस पर विशेष कविता।)

 

☆ आओ हम सब मिल नित योग करें

 

आओ हम सब मिल नित योग करें,

हम सब भारत माता की संतान हैं।

निरोग रहें हम एवं सब शक्ति से भरें,

देश की हम आन बान और शान हैं।।

आओ – – – – – – – – – – – – – – – – -करें।

 

आओ हम सब मिल कर संकल्प करें,

योग ज्ञान से सकल जगत अंजान है।

स्वस्थ रहने का सबमें हम विकल्प भरें,

जगद्गुरु बनने का अब स्वप्न  संधान है।।

आओ – – – – – – – – – – – — —— – करें।

 

निज सभ्यता संस्कृति का हम मान करें,

देख रहा सारा जग हमें इसका भान है।

भू नभ जल वायु अग्नि का सम्मान करें,

पर्यावरण संरक्षण अब हमारी आन है।।

आऔ – – – – – – – – – – – – – – – – – -करें।

 

जैव विविधता संरक्षण का संधान करें,

जीव जंतु वनस्पतियां हमारी शान हैं।

क्रोध लोभ मोह अहं हिंसा मर्दन करें,

वसुधैव कुटुम्बकम मंत्र हमारी शान है।।

आऔ——————————शान हैँ।।

 

डा0.प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव

9412939877

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ प्रिय क्या तुझको यह अहसास है? ☆ – डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव

डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव 

 

(डॉ. प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव जी की एक भावप्रवण कविता।)

 

☆ प्रिय क्या तुझको यह अहसास है?

 

प्रिय क्या तुझको यह अहसास है,

तू उर में अब भी रहती मेरे पास है।

प्रिय क्या तुझको यह आभास है,

पूर्ववत तू अब भी मेरी सांस है ।।

प्रिय – – – – – – – – – – – – – -पास हो।

 

उर वीणा की वही मादक झंकार है,

बंधा हुआ अब भी तेरा नेह पाश है।

अब भी बज रहा नित प्रणय राग है,

खिल रहा मन में नेह का पलाश है।।

प्रिय – – – – – – – – – – – – – —- पास हो।

 

आई कालचक्र की निर्दयी हुंकार है,

प्रिय टूट गई हमारे प्रणय की सांस है।

अनगिनत बंधनों की क्रूरतम पुकार है,

फिर भी मन में ज्वलित कोई आस है।।

प्रिय – – – – – – – – – – – – —– – पास हो।

 

क्यों बस रहा फिर वो मोही संसार है,

पल रहा मन में अनचाहा संत्रास है।

मृगतृष्णा का निरंतर बढ़ता अंबार है,

चुभती उर में कोई अनचाही फांस है।।

प्रिय – – – – – – – – – – – – – – – – पास है।

 

डा0.प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव

 

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हिन्दी साहित्य- कविता – ☆ दीमक बनकर चाट रहा है, स्वांग यह भाईचारे का ☆ – सुश्री मालती मिश्रा ‘मयंती’

सुश्री मालती मिश्रा ‘मयंती’

 

(प्रस्तुत है सुश्री मालती मिश्रा  जी  की  एक भावप्रवण कविता।)

 

दीमक बनकर चाट रहा है, स्वांग यह भाईचारे का 

 

बेटियाँ बचाने का नारा,

सुन कर माँ हर्षायी थी।

तब लेके बिटिया की बलाएँ,

वह ममता बरसायी थी।।

 

नहीं जानती थी वह माता,

यहाँ दरिंदे रहते हैं।

दरिंदगी की हदें पार कर,

खुद को मानव कहते हैं।।

 

नन्हीं कलियाँ नहीं सुरक्षित,

अपने ही गलियारों में।

जीना उनका दुष्कर हो गया,

घर बाहर चौबारों में।।

 

कब तक माँ आँचल में रखकर,

कैसे उसे सुरक्षा दे।

बंद कोठरी में बिटिया को,

रखकर कैसे शिक्षा दे।।

 

दीमक बनकर चाट रहा है,

स्वांग यह भाईचारे का ।

घर-घर में अब पतन हो रहा,

नैतिकता के नारे का।।

 

©मालती मिश्रा मयंती✍️

दिल्ली
मो. नं०- 9891616087

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हिन्दी साहित्य – कविता -☆ निःशेष ☆ – श्री हेमन्त बावनकर

श्री हेमन्त बावनकर

 

(कल पितृ दिवस पर स्वर्गीय पिताजी की स्मृति में लिखी कविता प्रकाशित करने का साहस न कर पाया जिसे आज प्रस्तुत कर रहा हूँ। यह एक कल्पना है कि अस्पताल के आई सी यू में वेंटिलेटर पर  पिताजी के मस्तिष्क में  मृत्युपूर्व क्या चल रहा होगा?)

 

☆  निःशेष ☆

 

हे! ईश्वर!

इतनी बड़ी सजा?

मेरे परिजनों का प्रयास तो था कि –

सांस चलती रहे।

मौत की घड़ी टलती रहे।

 

कुछ समझ पाता

या कि

कुछ संभल पाता

इसके पूर्व

मेरी समस्त इन्द्रियां

जकड़ दी गईं।

समस्त नसें भेद दी गईं।

श्वसन तंत्र भी

और तो और

मेरी आवाज भी।

 

हे प्रभु!

कम से कम

आवाज तो छोड़ देते।

मैं

पड़ा रहा

कितना असहाय।

 

देख सकता हूँ

अश्रुपूर्ण नेत्र

परिजनों के

अपने चारों ओर।

साथ ही

अपनी ओर आते

मौत के कदम

चुपचाप।

 

सारी उम्र

कभी चुप न रहने वाले

मुख को जड़वत कर दिया।

श्वसन तंत्र को

मशीनी सांसों से (वेन्टिलेटर)

भर दिया गया।

 

लगता है कि अब

कुछ भी नहीं है मेरा

मशीनों-दवाओं का

कब्जा है मुझपर।

 

ये साँसे भी मेरी नहीं हैं।

किन्तु,

मेरे विचार

सिर्फ मेरे हैं

जीवन-मृत्यु की लडाई

से भी परे हैं।

मैं

देख सकता हूँ

अपना अतीत

किन्तु,

मेरी घड़ी की सुई

नहीं बढ पा रही है

वर्तमान से आगे।

एक

पूर्णविराम की तरह।

 

यह शाश्वत सत्य ही है

किसी को समझने के लिये

पूरा जीवन लग जाता है

और

स्वयं को समझने के लिये

कई जीवन भी कम हैं।

 

चेष्टा करता हूँ ।

अतीत में झाँकने की

एक अबोध बालक

कंधों पर बस्ता लिये

चल पड़ता है

नंगे पांव

गांव-गांव

शहर-शहर

और

पहुंचा देता है

अपने अंश विदेशों  तक।

 

इस दौड़ का

कोई नहीं है अन्त

सब कुछ है अनन्त।

 

शायद!

इस वट वृक्ष की

जड़ें गहरी हैं

टहनियाँ-पत्तियाँ

भी हरी-भरी हैं।

 

शायद!

गाहे-बगाहे

जाने-अनजाने

कभी कुछ कम

कभी कुछ ज्यादा

बोल दिया हो।

कभी कुछ भला

कभी कुछ बुरा

बोल दिया हो।

तो

जीवन का हिसाब समझ

भूल-चूक

लेनी-देनी समझ

माफ कर देना

मन-मस्तिष्क से सब कुछ

साफ कर देना।

 

क्योंकि,

मैं नहीं जानता कि

क्या है?

शून्य के आगे

और

शून्य के पीछे।

 

क्षमता भी नहीं रही

कुछ जानने की।

क्षीण होता शरीर

क्षीण होती साँसे

बस

एक ही गम है

सांस आस से कम है

और

मेरे ही बोल

मेरे लिये अनमोल है।

 

6 दिसम्बर 2010

 

(स्वर्गीय पिताश्री के देहावसान पर उनको समर्पित)

 

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