हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 13 ☆ माँ तुम याद बहुत आती हो ☆ – डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ  -साहित्य निकुंज”के  माध्यम से आप प्रत्येक शुक्रवार को डॉ भावना जी के साहित्य से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ. भावना शुक्ल जी की एक हृदयस्पर्शी कविता  “माँ तुम याद बहुत आती हो ”। 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – # 13  साहित्य निकुंज ☆

 

☆ माँ तुम याद बहुत आती हो

 

माँ तुम याद बहुत आती हो
बस सपने में दिख जाती हो.

 

पूछा है तुमसे, एक सवाल
छोड़ गई क्यों हमें इस हाल
जीवन हो गया अब वीराना
तेरे बिना सब है बेहाल
कुछ मन की तो कह जाती तुम
मन ही मन क्यों मुस्काती हो ?

 

माँ तुम याद बहुत आती हो
बस सपने में दिख जाती हो .

 

मुमुझमे बसती तेरी धड़कन
पढ़ लेती हो तुम अंतर्मन
तुमको खोकर सब है खोया
एक झलक तुम दिखला जाती .
जाने की इतनी क्यों थी जल्दी
हम सबसे क्यों नहीं कहती हो?

 

माँ तुम याद बहुत आती हो
हम सबको तुम तरसाती हो.

 

© डॉ भावना शुक्ल
सहसंपादक…प्राची

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 1 ☆ फूटी मेड़ें बही क्यारी ☆ – श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.  हम श्री संतोष नेमा जी के  ह्रदय से अभारी हैं जिन्होंने  हमारे आग्रह को स्वीकार कर  “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” के लिए रचनाएँ प्रेषित करना स्वीकार किया है.   हमें पूर्ण विश्वास है कि “इंद्रधनुष” को पाठकों का स्नेह /प्रतिसाद मिलेगा और उन्हें इस स्तम्भ में हिंदी के साथ ही बुंदेली रचनाओं को पढनें का इंद्रधनुषीय अवसर प्राप्त होगा. आज प्रस्तुत है वर्षा ऋतु पर एक सामयिक बुंदेली कविता “फूटी मेड़ें बही क्यारी “. अब आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार पढ़ सकेंगे . ) 

 

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष #1 ☆

 

☆  फूटी मेड़ें बही क्यारी ☆

 

फूटी मेड़ें बही क्यारी ।

जा साल भई बरखा भारी ।।

 

गरज गरज,बादर डरा रये ।

बिजली भी,अब कौंधा रये ।।

जा बरस की बरखा न्यारी ।

फूटी मेड़ें बही क्यारी  ।।

 

नाले नरवा भी इतरा रए ।

गांव कस्बा डूब में आ गए ।।

बहकी नदियां भरे खुमारी ।

फूटी मेड़ें बही क्यारी। ।।

 

नदी सीमाएं लांघ गई हैं  ।

छलक रए अब बांध कईं हैं ।।

परेशान है जनता सारी ।

फूटी मेड़ें बही क्यारी ।।

 

मंदिरों के शिखर डूब गये ।

हम सें भगवन भी रूठ गये ।।

अति वृष्टि सें दुनिया हारी ।

फूटी मेड़ें बही क्यारी ।।

 

हैरां हो रये ढोर बछेरु  ।

ठिया ढूंडे पंक्षी पखेरू ।।

अब “संतोष”करो तैयारी ।

फूटी मेड़ें बही क्यारी ।।

जा साल भईं बरखा भारी ।।

 

कछु अपनी भी जिम्मेदारी ।

जा साल भई बरखा भारी ।।

फूटी मेड़ें बही क्यारी। ।।

———————-

@संतोष नेमा “संतोष”

@ संतोष नेमा “संतोष”

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मोबा 9300101799

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ तन्मय साहित्य # 13 – बाल कविता-वरदायी चक्की और मेरी चाह ☆ – डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  बाल कविता  “वरदायी चक्की और मेरी चाह।  आदरणीय डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय ‘ जी ने बड़ी ही सादगी से बाल अभिलाषा को वरदायी चक्की के माध्यम से सफलतापूर्वक प्रस्तुत किया है । )

(अग्रज डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी की फेसबुक से साभार)

 

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – # 13 ☆

 

☆ बाल कविता – वरदायी चक्की और मेरी चाह ☆  

 

सोच रहा हूं अगर मुझे

मनचाही चीजे देने वाली

वह चक्की मिल जाती

तो जीवन में मेरे भी

ढेरों खुशियां आ जाती.

 

सबसे पहली मांग

मेरी होती कि

वह मम्मी के सारे काम करे

और हमारी मम्मी जी

पूरे दिनभर आराम करे…

 

मांग दूसरी

पापा जी की सारी

चिंताओं को पल में दूर करे

और हमारे मां-पापाजी

प्यार हमें भरपूर करे…

 

मांग तीसरी

भारी भरकम बस्ता

स्कूल का ये हल्का हो जाए

जो भी पढ़ें, याद हो जाए

और प्रथम श्रेणी पाएं…

 

चारों ओर रहे हरियाली

फल फूलों से लदे पेड़

फसलें लहराए

चौथी मांग

सभी मिल पर्यावरण बचाएं…

 

मांग पांचवी

देश से भ्रष्टाचार

और आतंकवाद का नाश हो

आगे बढ़ें निडरता से

सबके मन में उल्लास हो…

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ काव्य कुञ्ज – # 4 – तेरी बद्दुआएँ ☆ – श्री मच्छिंद्र बापू भिसे

श्री मच्छिंद्र बापू भिसे

(श्री मच्छिंद्र बापू भिसे जी की अभिरुचिअध्ययन-अध्यापन के साथ-साथ साहित्य वाचन, लेखन एवं समकालीन साहित्यकारों से सुसंवाद करना- कराना है। यह निश्चित ही एक उत्कृष्ट  एवं सर्वप्रिय व्याख्याता तथा एक विशिष्ट साहित्यकार की छवि है। आप विभिन्न विधाओं जैसे कविता, हाइकु, गीत, क्षणिकाएँ, आलेख, एकांकी, कहानी, समीक्षा आदि के एक सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ प्रसिद्ध पत्र पत्रिकाओं एवं ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं।  आप महाराष्ट्र राज्य हिंदी शिक्षक महामंडल द्वारा प्रकाशित ‘हिंदी अध्यापक मित्र’ त्रैमासिक पत्रिका के सहसंपादक हैं। अब आप प्रत्येक बुधवार उनका साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य कुञ्ज पढ़ सकेंगे । आज प्रस्तुत है उनकी नवसृजित कविता “तेरी बद्दुआएँ”

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य कुञ्ज – # 4☆

 

☆ तेरी बद्दुआएँ 

 

(विधा:कविता)

कवि: मच्छिंद्र भिसे,

 

अरे सुन प्यारे पगले,

देख तेरी बद्दुआएँ काम कर गईं,

पटकना था जमीं पर हमें,

यूँ आसमाँ पर बिठा गईं।

 

तेरी रंग बदलती सूरत ने,

परेशान बारंबार किया,

यही रंगीन सूरत मुझे,

हर बार सावधान कर गई।

 

आप एहसास चाहा जब भी,

नफरत ही नफरत मिली,

न जाने कैसे तेरी यह नफरत,

खुद को सँजोये प्रीत बन गई।

 

छल-कपट की सौ बातें,

इर्द-गिर्द घूमती रहीं,

तेरा बदनसीब ही समझूँ,

जो उभरने का गीत बन गई।

 

तेरी हर एक बद्दुआ,

मेरी ताकत बनती गई,

देनी चाही पीड़ा हमें,

वह तो दर्द की दवा बन गई।

 

सुन, अभिशाप से काम न चला,

आशीर्वचन का चल एक दीप जला,

आएगा जीवन में एक नया विहान,

दीप की ज्योति बार-बार कह गई।

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 7 ☆ हिस्सा ☆ – सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा ☆

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

 

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एक्जिक्यूटिव डायरेक्टर (सिस्टम्स) महामेट्रो, पुणे हैं। आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  कविता “हिस्सा”। )

 

साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 7  

☆ हिस्सा  

 

तुमने

कर दिया है बंद मुझे

किसी सूने से लफ्ज़ की तरह

जो छुपा हुआ है

किसी ठहरी सी नज़्म में,

किसी किताब के मौन सफ्हे पर!

 

खामोश सी मैं

एक टक देख रही हूँ

तुम्हारी आँखों के चढ़ते-उड़ते रंगों को

और निहार रही हूँ

तुम्हारे होठों की रंगत को,

तुम्हारे माथे की चौड़ाई को

और तुम्हारे जुल्फों के घनेरेपन को!

 

सुनो,

मैं तुम्हारी मुहब्बत का

एक छोटा सा हिस्सा हूँ,

तुम ही हो मुझे बनाने वाले

और मेरी पहचान भी तभी तक है

जब तक तुम मुझे चाहो;

वरना मिटाने में तो

बस एक लम्हा लगता है!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – रोज़ रात ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

☆ रोज रात ☆

रोज रात
सो जाता हूँ
इस विश्वास से कि
सुबह उठ जाऊँगा,
दर्शन कहता है
साँसें बाकी हैं
सो उठ पाता हूँ,
मैं सोचता हूँ
विश्वास बाकी है
सो उठ जाता हूँ..।

विश्वास बना रहे।

(आगामी कविता संग्रह से।)

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

 

 

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – कालचक्र ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

☆ कालचक्र ☆

 

उम्र की दहलीज पर
सिकुड़ी बैठी वह देह
निरंतर बुदबुदाती रहती है,
दहलीज की परिधि के भीतर
बसे लोग अनपढ़ हैं,
बड़बड़ाहट और बुदबुदाहट में
फर्क नहीं समझते!
मोतियाबिंद और ग्लूकोमा के
चश्मे लगाये बुदबुदाती आँखें
पढ़ नहीं पातीं वर्तमान
फलत: दोहराती रहती हैं अतीत!
मानस में बसे पुराने चित्र
रोक देते हैं आँखों को
वहीं का वहीं,
परिधि के भीतर के लोग
सिकुड़ी देह को धकिया कर
खुद को घोषित
कर देते हैं वर्तमान,
अनुभवी अतीत
खिसियानी हँसी हँसता है,
भविष्य, बिल्ली-सा पंजों को साधे
धीरे-2 वर्तमान को निगलता है,
मेरी आँखें ‘संजय’ हो जाती हैं…..,
देखती हैं चित्र दहलीज किनारे
बैठे हुओं को परिधि पार कर
बाहर जाते और
स्वयंभू वर्तमान को शनै:-शनै:
दहलीज के करीब आते,
मेरी आँखें ‘संजय’ हो जाती हैं…..!

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – कविता -☆ आयलान ☆ – श्री हेमन्त बावनकर

श्री हेमन्त बावनकर

 

(यह कविता समर्पित है तीन वर्षीय सीरियन बालक आयलान को जो उन समस्त बच्चों का प्रतिनिधित्व करता है जो विश्व में युद्ध की विभीषिका में इस संसार को छोड़ कर चले गए। सितंबर 2015 की एक सुबह आयलान का मृत शरीर तुर्की के समुद्र तट पर लावारिस हालात में मिला। उसे भले ही विश्व भूल गया हो किन्तु वह जो प्रश्न अपने पीछे छोड़ गया हैं उन्हें कोई नहीं भूल सकता। इस कविता का  मेरे द्वारा किया गया अंग्रेजी अनुवाद आज के अंक में प्रकाशित हुआ है। इस कविता का जर्मन अनुवाद भी  उपलब्ध है । )

 

☆ आयलान  ☆

 

धीर गंभीर

समुद्र तट

और उस पर

औंधा लेटा,

नहीं-नहीं

समुद्री लहरों द्वारा

जबरन लिटाया गया

एक निश्चल-निर्मल-मासूम

‘आयलान’!

वह नहीं जानता

कैसे पहुँच गया

इस निर्जन तट पर।

कैसे छूट गई उँगलियाँ

भाई-माँ-पिता की

दुनिया की

सबको बिलखता छोड़।

 

वह तो निकला था

बड़ा सज-धज कर

देखने

एक नई दुनिया

सुनहरी दुनिया

माँ बाप के साये में

खेलने

नए देश में

नए परिवेश में

नए दोस्तों के साथ

बड़े भाई के साथ

जहां

सुनाई न दे

गोलियों की आवाज

किसी के चीखने की आवाज।

 

सिर्फ और सिर्फ

सुनाई दे

चिड़ियों की चहचाहट

बच्चों की किलकारियाँ।

बच्चे

चाहे वे किसी भी रंग के हों

चाहे वे किसी भी मजहब के हों

क्योंकि

वह नहीं जानता

और जानना भी नहीं चाहता

कि

देश क्या होता है?

देश की सीमाएं क्या होती हैं?

देश का नागरिक क्या होता है?

देश की नागरिकता क्या होती है?

शरण क्या होती है?

शरणार्थी क्या होता है?

आतंक क्या होता है?

आतंकवादी क्या होता है?

वह तो सिर्फ यह जानता है

कि

धरती एक होती है

सूरज एक होता है

और

चाँद भी एक होता है

और

ये सब मिलकर सबके होते हैं।

साथ ही

इंसान बहुत होते हैं।

इंसानियत सबकी एक होती है।

 

फिर

पता नहीं

पिताजी उसे क्यों ले जा रहे थे

दूसरी दुनिया में

अंधेरे में

समुद्र के पार

शायद

वहाँ गोलियों की आवाज नहीं आती हो

किसी के चीखने की आवाज नहीं आती हो

किन्तु, शायद

समुद्र को यह अच्छा नहीं लगा।

समुद्र नाराज हो गया

और उन्हें उछालने लगा

ज़ोर ज़ोर से

ऊंचे

बहुत ऊंचे

अंधेरे में

उसे ऐसे पानी से बहुत डर लगता है

और

अंधेरे में कुछ भी नहीं दिख रहा है

उसे तो उसका घर भी नहीं दिख रहा था

माँ भी नहीं

भाई भी नहीं

पिताजी भी नहीं

 

फिर

क्योंकि वह सबसे छोटा था न

और

सबसे हल्का भी

शायद

इसलिए

समुद्र की ऊंची-ऊंची लहरों नें

उसे चुपचाप सुला दिया होगा

इस समुद्र तट पर

बस

अब पिताजी आते ही होंगे ………. !

 

© हेमन्त  बावनकर,  पुणे 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 5 ☆ दूब… ☆ – सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

(सौ. सुजाता काळे जी  मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य  विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं ।  वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं।  उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है सौ. सुजाता काळे जी की  ऐसी ही एक संवेदनात्मक भावप्रवण हिंदी कविता  ‘दूब…’।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 5 ☆

दूब…

दूब तुम भी सुंदर हो,

धरती पर आँचल ओढा देती हो,

रेशम-सा जाल बिछा देती हो,

हरितिमा से सजाकर निखारती हो,

दूब तुम भी सुंदर हो।

दिन-भर बिछ जाती हो,

पाँव तले कुचली जाती हो,

रातभर ओस को ओढ़ लेती हो,

और फिर से हरितिमा बन जाती हो,

दूब तुम भी सुंदर हो।

© सुजाता काळे ✍

पंचगनी, महाराष्ट्र।

9975577684

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ बेटी हूँ ☆ – श्री कुमार जितेन्द्र

श्री कुमार जितेन्द्र

 

(युवा साहित्यकार श्री कुमार जितेंद्र जी का e-abhivyakti.  श्री कुमार जीतेन्द्र कवि, लेखक, विश्लेषक एवं वरिष्ठ अध्यापक (गणित) हैं.)

 

? बेटी हूँ ?

हे! माँ

मैं आपकी बेटी हूँ,

हे! माँ

में खुश हूँ,

ईश्वर से दुआ करती हूँ

आप भी खुश रहें,

ख़बर सुनी है

मेरे कन्या होने की,

आप सब मुझे

अजन्मी को,

जन्म लेने से

रोकने वाले हो,

मुझे तो एक पल

विश्वास भी नहीं हुआ,

भला मेरी माँ,

ऎसा कैसे कर सकती है?

हे! माँ

 

 

बोलो ना

बोलो ना,

माँ – माँ

मैंने सुना

सब झूठ है,

ऎसा सुनकर मैं

घबरा गई हूँ,

मेरे हाथ भी

इतने नाजुक हैं,

कि तुम्हें रोक

नहीं सकती,

हे! माँ

कैसे रोकूँ तुम्हें,

दवाखाने जाने से,

मेरे पग

इतने छोटे,

कि धरा पर

बैठ कर

जिद करूँ,

हे! माँ

मुझे बाहर

आने की बड़ी

ललक है,

हे! माँ

मुझे आपके आँगन को,

नन्हें पैरो से

गूंज उठाना है,

हे! माँ

में आपका

खर्चा नहीं बढ़ाऊँगी,

हे! माँ

में बड़ी दीदी की,

छोटी पड़ी पायजेब

पहन लूंगी,

बेटा होता

तो पाल लेती तुम,

फिर मुझमे

क्या बुराई है,

नहीं देना

दहेज,

मत डरना

दुनिया से,

बस मुझे

जन्म दे दो,

देखना माँ

मेरे हाथों,

मेहंदी सजेंगी,

मुझे मत मारिए,

खिलने दो,

फूल बन के,

हे! माँ,

में आपकी बेटी हूँ,

 

✍?कुमार जितेन्द्र

साईं निवास – मोकलसर, तहसील – सिवाना, जिला – बाड़मेर (राजस्थान)

मोबाइल न. 9784853785

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