हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ मित्रता दिवस पर एक पत्र कविता ☆ – डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’’

मैत्री दिवस पर विशेष 

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  की   मित्रता पितृ पर दिवस पर विशेष  एक पत्र कविता

 

हम भले ही  मित्रता दिवस वर्ष में एक ही दिन मनाते और मित्रों का स्मरण करते हैं।  किन्तु, मित्रता सारे वर्ष निभाते हैं। अतः  मित्रता दिवस पर प्राप्त आलेखों एवं कविताओं का प्रकाशन सतत जारी है। कृपया पढ़ें, अपनी प्रतिक्रियाएँ दें तथा उन्हें आत्मसात करें।) 

 

☆ मित्रता दिवस पर एक पत्र कविता ☆

 

नमस्कार, प्रिय मित्र!

तुम्हारा पत्र मिला

पढ़कर जाने

सब हालचाल

और कुशल क्षेम

के समाचार,

मैं भी यहाँ मजे में

स्वस्थ, प्रसन्नचित्त हूँ

सह परिवार।।

 

मित्र! तुम्हारा पत्र

सुखद आश्चर्य लिए

कुछ चिंताओं का

मंगलमय हल

अपने संग लेकर

आया है,

संबंधों के घटाटोप

रिश्तों के रूखेपन

भौतिक आकर्षण में

यह बारिश की

पहली फुहार

माटी की सौंधी गंध

प्रेम का शीतल सा

झोंका लाया है।।

 

यूँ तो मोबाइल पर

अक्सर अपनी भी

होती है बातें

पर उन बातों में

तकनीकी मिश्रण

के चलते

अपनेपन वाली

मीठी प्रेम चासनी का

हम स्वाद कहाँ ले पाते।

 

अधुनातन मोबाईल

द्रुतगामी यंत्रो की

भीड़भाड़ में

भटक गए हैं,

कुछ पर्वों, त्योहारों पर

हम रटे रटाये,

बने बनाये शब्द

शायरी, संदेसों के

बटन दबा कर

बस इतने पर

अटक गए हैं।।

 

ऐसे में यह पत्र

तुम्हारा, पाकर

मैं, अपने में

हर्ष विभोर हुआ

संबंधों की पुष्पलता

के रस सिंचन को

लिए लेखनी हाथों में

अंतर्मन का

आकाश छुआ।।

 

लिख – लिख

मिटा रहा हूँ, अब

हर बार शब्द बंजारों को

व्यक्त नहीं कर पाता हूँ

अपने मन के

उद्गारों को

शब्द व्यर्थ हो गए

भाव अंतर में जागे,

मित्र! समझ लेना,

तुम ही, जो लिखना है

अब इसके आगे।।

 

समय समय पर

कुशलक्षेम के पत्र

सदा तुम लिखते रहना,

घर में

सभी बड़े, छोटों को

यथायोग्य

अभिवादन कहना।।

 

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

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हिन्दी साहित्य- कविता – ☆ दोस्ती लाइलाज मर्ज की दवा ☆ – श्री प्रह्लाद नारायण माथुर 

मैत्री दिवस विशेष

श्री प्रह्लाद नारायण माथुर 

(मित्रता दिवस पर मित्रों को समर्पित कविता  दोस्ती लाइलाज मर्ज की दवा”

 

हम भले ही  मित्रता दिवस वर्ष में एक ही दिन मनाते और मित्रों का स्मरण करते हैं।  किन्तु, मित्रता सारे वर्ष निभाते हैं। अतः  मित्रता दिवस पर प्राप्त आलेखों एवं कविताओं का प्रकाशन सतत जारी है। कृपया पढ़ें, अपनी प्रतिक्रियाएँ दें तथा उन्हें आत्मसात करें।))

 

दोस्ती लाइलाज मर्ज की दवा

 

दोस्त दुनिया के सारे लाइलाज मर्ज़ की अनमोल दवा है,

इनमें वो हुनर होता है जो बुढ़ापे में भी जवानी का अहसास करा देते हैं ||

 

दोस्त तो चमन का वह फूल है जो मुरझाते शरीर में जान डाल देता है,

ये जिगर के वो टुकड़े है जो पुरानी यादों को चंद लम्हों में तरोताजा कर देते हैं ||

 

अगर कोई दिल के सबसे नजदीक होते हैं तो वे दोस्त ही होते हैं,

दिल के सारे राज के राजदार और जिंदगी के हमराज ये दोस्त ही तो होते हैं ||

 

जब दोस्त मिलते हैं तो सब एक दूसरे की पुरानी बातें चटकारे लेकर सुनाते हैं,

हसी मजाक करते हुए दोस्त यह भी भूल जाते हैं की सब अब बूढ़े हो चले हैं ||

 

अब सब के परिवार हो गए, समय के बदलाव के कारण दूर होते चले गए,

भूले बिसरे गीतों की तरह जब भी मिलते हैं तो एक झटके में सारी दूरियां खत्म कर देते हैं ||

 

जिंदगी के हर बीते लम्हों को रंगीन बनाकर सुनाने में माहिर होते हैं ये दोस्त,

बचपन की नादानियाँ और जवानी के किस्से ये दोस्त चटकारे ले लेकर सुनाते हैं ||

 

अब सब दोस्त बूढ़े हो चले, हर कोई किसी ना किसी परेशानी से गुजर रहा है,

मगर आज जब भी दोस्त मिलते हैं तो कुछ देर के लिए सब को जवान बना देते हैं ||

 

दोस्तों के साथ बिताये दिनों को याद करके कभी हंसी तो कभी रोना आता है,

सच है, ये दोस्त दुनिया की सारी लाइलाज बीमारियों की अनमोल दवा होते हैं ||

 

© प्रह्लाद नारायण माथुर

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ संजय उवाच – #8 – ब्लेक होल ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के कटु अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की  सातवीं कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 8 ☆

 

☆ ब्लेक होल ☆

 

कैसे ज़ब्त कर लेते हो

इतने दुख, इतने विषाद

अपने भीतर..?

विज्ञान कहता है

पदार्थ का विस्थापन

अधिक से कम

सघन से विरल

की ओर होता है,

ज़माने का दुख

आता है, समा जाता है,

मेरा भीतर इसका

अभ्यस्त हो चला है

सारा रिक्त शनैः-शनैः

‘ब्लैक होल’ हो चला है!

 

©  संजय भारद्वाज , पुणे

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – कविता – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – वह-4 ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के कटु अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

(इस सप्ताह हम आपसे श्री संजय भारद्वाज जी की “वह” शीर्षक से अब तक प्राप्त कवितायें साझा कर रहे हैं। मुझे पूर्ण विश्वास है कि आप इन कविताओं के एक एक शब्द और एक-एक पंक्ति आत्मसात करने का प्रयास करेंगे।)

 

☆ संजय दृष्टि  – वह – 4

 

माँ सरस्वती की अनुकम्पा से  *वह* शीर्षक से थोड़े-थोड़े अंतराल में अनेक रचनाएँ जन्मीं। इन रचनाओं को आप सबसे साझा कर रहा हूँ। विश्वास है कि ये लघु कहन अपनी भूमिका का निर्वहन करने में आपकी आशाओं पर खरी उतरेंगी। – संजय भारद्वाज 

 

बीस  

 

वह धोती है कपड़े

फटकारती है कपड़े

निचोड़ती है कपड़े,

ज्ञान के आदिसूत्र

उसकी ही देन हैं।

 

इक्कीस 

 

वह मथती है दही

नवनीत निकालती है,

समुद्र मंथन का विचार

समाहित था

उसकी मथानी में।

 

बाईस 

 

वह जानती है

उससे कुछ ही

बेहतर जियेगी

उसकी बेटी,

फिर भी बेटी

जनती है वह ,

सृष्टि को टिकाये रखने की

ज़िम्मेदारी नहीं भूलती वह!

 

तेईस 

 

वह जाना चाहती है

उसके कांधे

पर उससे आँच

नहीं लेती वह,

सदा अखंड ज्योति

बनी रहती है वह!

 

चौबीस 

 

वह माँ, वह बेटी,

वह प्रेयसी, वह पत्नी,

वह दादी-नानी,

वह बुआ-मौसी,

चाची-मामी वह..,

शिक्षिका, श्रमिक,

अधिकारी, राजनेता,

पायलट, ड्राइवर,

डॉक्टर, इंजीनियर,

सैनिक, शांतिदूत,

क्या नहीं है वह..,

योगेश्वर के

विराट रूप की

जननी है वह!

 

आज का दिन चिंतन को दिशा दे।

 

©  संजय भारद्वाज , पुणे

9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 1 ☆ बह गई तोड़ के बंधन ☆ – सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

(सौ. सुजाता काळे जी के हम आभारी हैं जिन्होने हमारे आग्रह को स्वीकार कर  “साप्ताहिक स्तम्भ – कोहरे के आँचल से ” शीर्षक प्रारम्भ करना  स्वीकार किया। सौ. सुजाता जी मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य  विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं ।  वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं।  उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है सौ. सुजाता काळे जी की  ऐसी ही एक प्राकृतिक आपदा पर आधारित भावप्रवण कविता  ‘बह गई तोड़ के बंधन ’।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 1 ☆

☆ बह गई तोड़ के बंधन

सालों जो बँधी हुई थी
दो पाटल के धारों में
आज बह गई तोड़ के बंधन
गाँवों में गलियारों में।

 

हाहाकार मचाया उसने
राहों में चौराहों में,
उद्दंड़ बनकर बह गई माता
गोद लिए खलियानों में।

 

हुआ अनर्थ, अनर्थ यह भारी

देख दृश्य यह आँखों ने।
आज बह गई तोड़ के बंधन
गाँवों  में गलियारों में।

 

धूम मचाई घर नगर में उसने
संसार सभी के ध्वस्त किए।
कहीं गिरि को भेदती निकली
कहीं  सागर से गले मिले।

 

जो जो मिला राह में उसको
सब आँचल में छुपा लिया।
चल अचल को ध्वंस करती
हिलोरें लेकर बहा दिया।

 

स्नेहाशीष का आँचल क्यों
फिर सरकाया है माँ ने,
आज बह गई तोड़ के बंधन
गाँवों में गलियारों में।

 

© सुजाता काळे ✍

पंचगनी, महाराष्ट्र।

9975577684

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 10 ☆ नाथ! चले आओ ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है  उनका एक गीत  “नाथ! चले आओ”।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 10 ☆

 

☆ नाथ! चले आओ ☆

 

जीवन संध्या होने को है, अब तो नाथ चले आओ

नैनो की ज्योति बोझिल, आके दरस दिखा जाओ

जीवन संध्या…

 

मन व्याकुल है, नेत्र विकल, अधरों पर उमड़ी है प्यास

स्नेह सुधा बरसाओ आकर, मेरे मन को हर्षा जाओ

जीवन संध्या…

 

सांसो की सरगम मध्यम हुई, जीवन से आशा बिछुड़ी बाधित हैं

स्वर मेरे उर के, आकर प्यास जगा जाओ

जीवन संध्या…

 

सहमे-सहमे अंधकार में, मार्ग बताने वाला कोई नहीं

ऐसे में बनकर  रहबर तुम,  सही कहा दिखला जाओ

जीवन संध्या…

 

जीवन नैया  डोल  रही,  मझधारों के बीच प्रभु

तुम तारणहार जगत् के, मुझको पार लगा जाओ

जीवन संध्या…

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – कविता – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – वह-3 ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के कटु अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

(इस सप्ताह हम आपसे श्री संजय भारद्वाज जी की “वह” शीर्षक से अब तक प्राप्त कवितायें साझा कर रहे हैं। मुझे पूर्ण विश्वास है कि आप इन कविताओं के एक एक शब्द और एक-एक पंक्ति आत्मसात करने का प्रयास करेंगे।)

 

☆ संजय दृष्टि  – वह – 3 

 

माँ सरस्वती की अनुकम्पा से  *वह* शीर्षक से थोड़े-थोड़े अंतराल में अनेक रचनाएँ जन्मीं। इन रचनाओं को आप सबसे साझा कर रहा हूँ। विश्वास है कि ये लघु कहन अपनी भूमिका का निर्वहन करने में आपकी आशाओं पर खरी उतरेंगी। – संजय भारद्वाज 

 

पन्द्रह 

 

वह जलाती है

चूल्हा..,

आग में तपकर

कुंदन होती है।

 

सोलह 

 

वह परिभाषित

नहीं करती यौवन को

यौवन उससे

परिभाषित होता है,

वह परिभाषा को

यौवन प्रदान करती है।

 

सत्रह 

 

वह जानती है

बोलते  ही ‘देह’

हर आँख में उभरता है

उसका ही आकार,

आकार को मनुष्य

बनाने के मिशन में

सदियों से जुटी है वह!

 

अठारह 

 

वह मांजती है बरतन

चमकाती है बरतन,

धरती को

महापुरुषों की चमक

उसी के बूते मिली है।

 

उन्नीस 

 

वह बुहारती है झाड़ू

सारा कचरा

घर से निकालती है,

मन की शुचिता के सूत्र

अध्यात्म को

उसी ने दिये हैं।

 

©  संजय भारद्वाज , पुणे

9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – बाल कविता – ☆ सम्बन्धों का मोल ☆ – श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

(श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी की कवितायें हमें मानवीय संवेदनाओं का आभास कराती हैं। प्रत्येक कविता के नेपथ्य में कोई न कोई  कहानी होती है। मैं कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी का हृदय से आभारी हूँ जिन्होने इस कविता के सम्पादन में सहयोग दिया। आज प्रस्तुत है एक शिक्षाप्रद बाल-कविता “सम्बन्धों का मोल ”। श्री सूबेदार पाण्डेय जी ने अपनी कविता के माध्यम से सम्बन्धों के मोल को बड़े ही सहज शब्दों में समझाने की चेष्टा की है। यह कविता बच्चों के लिए जितनी महत्वपूर्ण है उतनी ही महत्वपूर्ण बड़ों के लिए भी है।  )

 

 ☆ बाल कविता – संबंधो का मोल ☆

 

एक समय में, किसी गाँव में,

रहते थे दो जुड़वाँ भाई

आपस मे न था तनिक प्रेम,

खूब दूरियाँ, दिल में खांई

 

अलगाव हुआ उन दोनों में,

आपस में किया बटवारा

सोने की एक अंगूठी बनी  कारण,

हुआ उनमें विवाद करारा

 

अपना झगड़ा लेके पहुंचे,

दोनों एक संत के पास

सुनी समस्या, रख अंगूठी

दिया दिलासा, ढेरों आस

 

बोले सन्त, अब घर जाओ,

कल सबेरे तुम सब आना

फिर यहाँ से, तुम मेरे से

अपनी अंगूठी ले जाना

 

उन के जाने पर संत ने,

तुरन्त एक सुनार बुलवाया

वैसी ही एक दूसरी अंगूठी,

उन्होंने जल्दी से बनवाया

 

क्यों मोल चुकाया अंगूठी का

भेद गूढ़ कोई समझ न पाया

जब आये सुबह दोनों भाई,

उनको अलग-अलग बुलवाया

 

अपनी अंगूठी पा कर,

दोनों खूब हुए खूब सन्तुष्ट

गिले-शिकवे दूर कर  अपने

दोनों भाई हुए प्रसन्न यथेष्ट

 

इक दिन बातों-बातों मे,

खुल गया रहस्य यूँही वैसे

अंगूठी तो एक ही  थी,

फिर मिली दोनो को  कैसे

 

करी भीषण माथापच्ची

पर सच का  हुआ न ज्ञान

पहुंचे  दोनों कुटिया में

किया संन्त का मान-सम्मान

 

बातें उनकी सुन मुस्कुराए,

तब बाबा ने उनको समझाया

संम्बधो  के मोल को समझो,

कभी न करो अपना पराया

 

सोना तो है तुक्ष चीज,

संम्बधों का, है नही मोल

भातृ-प्रेम है सोने से बढ़ कर,

याद रखो सदा ये वचन अनमोल

 

दी अंगूठियाँ तुमको मैंने,

बतलाने को जीवन-तत्व

सदा सर्वदा समझो अपने

संबंधों का सतत महत्व…

 

सुन बाबा से तत्व-ज्ञान

हुए दोनों अति तुष्ट

सदा सुखी रहने का मंत्र,

समझ गये दोनों हो संतुष्ट…

 

-सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

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हिन्दी साहित्य – कविता – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – वह-2 ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के कटु अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

(इस सप्ताह हम आपसे श्री संजय भारद्वाज जी की “वह” शीर्षक से अब तक प्राप्त कवितायें साझा कर रहे हैं। मुझे पूर्ण विश्वास है कि आप इन कविताओं के एक एक शब्द और एक-एक पंक्ति आत्मसात करने का प्रयास करेंगे।)

 

☆ संजय दृष्टि  – वह – 2

 

माँ सरस्वती की अनुकम्पा से  *वह* शीर्षक से थोड़े-थोड़े अंतराल में अनेक रचनाएँ जन्मीं। इन रचनाओं को आप सबसे साझा कर रहा हूँ। विश्वास है कि ये लघु कहन अपनी भूमिका का निर्वहन करने में आपकी आशाओं पर खरी उतरेंगी। – संजय भारद्वाज 

 

सात 

 

वह नाचती है

आग सी,

यह आग

धौंकनी सी

काटती जाती है

सारी बेड़ियाँ।

 

आठ 

 

वह गुनगुनाती है

झरने सी,

यह झरना

झर डालता है

सारा थोपा हुआ

और बहता है

पहाड़ से

मिट्टी की ओर।

 

नौ 

 

वह करती है श्रृंगार

इस श्रृंगार से

उभरता है

व्यक्तित्व,

उमड़ता है

अस्तित्व।

 

दस 

 

वह लजाती है,

इस लाज से

ढकी-छुपी रहती हैं

समाज की कुंठाएँ।

 

ग्यारह 

 

वह खीझती है,

इस खीझ में

होती है तपिश

सर्द पड़ते रिश्तों को

गरमाने की।

 

बारह 

 

वह उत्तर नहीं देती,

प्रश्न जानते हैं

उत्तर आत्मसात

रखने की उसकी क्षमता,

प्रश्न निरुत्तर हो जाते हैं।

 

तेरह 

 

वह सींचती है

तुलसी चौरा,

जानती है

शालिग्राम को

बंधक बनाने की कला।

 

चौदह 

 

वह बनाती है रसोई,

देह में समाकर

देह को अस्तित्व देकर

देह को सिंचित-पोषित कर

वह गढ़ती है अगली पीढ़ी।

 

©  संजय भारद्वाज , पुणे

9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ तन्मय साहित्य – # 8 – कितना बचेंगे …… ☆ – डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है एक गीत  “कितना बचेंगे….. । )

 

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – # 8 ☆

 

☆ कितना बचेंगे …..    ☆  

 

काल की है अनगिनत

परछाईयाँ

कितना बचेंगे।

 

टोह लेता है, घड़ी पल-छिन दिवस का

शून्य से सम्पूर्ण तक के  झूठ – सच का

मखमली है पैर या कि

बिवाईयां है

चलेंगे विपरीत, सुनिश्चित है

थकेंगे  ।  काल की…….

 

कष्ट भी झेले, सुखद सब खेल खेले

गंध  चंदन  की, भुजंग मिले  विषैले

खाईयां है या कि फिर

ऊंचाईयां है

बेवजह तकरार पर निश्चित

डसेंगे  । काल की………….।

 

विविध चिंताएं, बने चिंतक सुदर्शन

वेश धर कर  दे रहे हैं, दिव्य प्रवचन

यश, प्रशस्तिगान संग

शहनाईयां है

छद्म अक्षर, संस्मरण कितने

रचेंगे  । काल की…………..।

 

लालसाएं लोभ अतिशय चाह में सब

जब कभी ठोकर  लगेगी, राह में तब

छोर अंतिम पर खड़ी

सच्चाइयां है

चित्र खुद के देख कर खुद ही

हंसेंगे  ।

काल की है अनगिनत परछाईयाँ

कितना बचेंगे।।

 

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

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