श्री संजय भारद्वाज
(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के कटु अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। )
(इस सप्ताह हम आपसे श्री संजय भारद्वाज जी की “वह” शीर्षक से अब तक प्राप्त कवितायें साझा कर रहे हैं। मुझे पूर्ण विश्वास है कि आप इन कविताओं के एक एक शब्द और एक-एक पंक्ति आत्मसात करने का प्रयास करेंगे।)
☆ संजय दृष्टि – वह – 4 ☆
माँ सरस्वती की अनुकम्पा से *वह* शीर्षक से थोड़े-थोड़े अंतराल में अनेक रचनाएँ जन्मीं। इन रचनाओं को आप सबसे साझा कर रहा हूँ। विश्वास है कि ये लघु कहन अपनी भूमिका का निर्वहन करने में आपकी आशाओं पर खरी उतरेंगी। – संजय भारद्वाज
बीस
वह धोती है कपड़े
फटकारती है कपड़े
निचोड़ती है कपड़े,
ज्ञान के आदिसूत्र
उसकी ही देन हैं।
इक्कीस
वह मथती है दही
नवनीत निकालती है,
समुद्र मंथन का विचार
समाहित था
उसकी मथानी में।
बाईस
वह जानती है
उससे कुछ ही
बेहतर जियेगी
उसकी बेटी,
फिर भी बेटी
जनती है वह ,
सृष्टि को टिकाये रखने की
ज़िम्मेदारी नहीं भूलती वह!
तेईस
वह जाना चाहती है
उसके कांधे
पर उससे आँच
नहीं लेती वह,
सदा अखंड ज्योति
बनी रहती है वह!
चौबीस
वह माँ, वह बेटी,
वह प्रेयसी, वह पत्नी,
वह दादी-नानी,
वह बुआ-मौसी,
चाची-मामी वह..,
शिक्षिका, श्रमिक,
अधिकारी, राजनेता,
पायलट, ड्राइवर,
डॉक्टर, इंजीनियर,
सैनिक, शांतिदूत,
क्या नहीं है वह..,
योगेश्वर के
विराट रूप की
जननी है वह!
आज का दिन चिंतन को दिशा दे।
© संजय भारद्वाज , पुणे
9890122603