हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ हर वर्ष सा गुरुपर्व देखो फिर से आया है ☆ – डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव

गुरु पुर्णिमा विशेष 

डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव 

 

(डॉ. प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव जी की एक  भावप्रवण कविता।)

 

☆ हर वर्ष सा गुरुपर्व देखो फिर से आया है ☆

 

हर वर्ष सा गुरुपर्व देखो फिर से आया है,

गुरुओं की स्मृति जगाने मन में आया है।

मन में बहते गुरु प्रेम का ये सिंधु लाया है,

गुरुकृपा वात्सल्यता की सौगात लाया है।।

हर वर्ष  – – – – – – – – – – – आया है।

 

गुरूः बृह्मा गुरुः विष्णु गुरुः देवो महेश्वरः,

गुरूः साक्षात् परबृहम् का मंत्र लाया है।

गुरू सच्चा मिल जाए तो मिलता है ईश्वर,

जीवन में सफलता के वो सोपान लाया है।।

हर वर्ष – – – – – – – – – – – – आया है।

 

गुरू वशिष्ठ और विश्वामित्र की ही कृपा थी,

दोनों के सान्निध्य ने राम त्रेता में  बनाया है।

सांदीपनी ने द्वापर में कृष्ण बलराम लाया है,

द्रोणाचार्य की शस्त्र विद्या ने अर्जुन बनाया है।।

हर वर्ष  – – – – – – – – – – – – – – आया है।

 

परशुराम ने गंगापुत्र को अजेय भीष्म बनाया है,

चाणक्य ने चंद्रगुप्त से बृहद भारत कराया है।

रामदास की राष्ट्रीयता ने शिवा जी बनाया है,

नानक के अद्वैत ने सिखों को मार्ग दिखाया है।।

हर वर्ष – – – – – – – – – – – – – – – आया है।

 

गोरखनाथ ने मछंदर से नाथ संप्रदाय चलाया है,

रामानंद ने कबीर को गढ़ कबीर पंथ चलाया है।

रत्ना ने तुलसी को भक्त बना रामायण रचाया है,

रामकृष्ण ने नरेंद्र को गढ़ वैश्विक यश बढ़ाया है।।

हर वर्ष – – – – – – – – – – – – – – – आया है।

 

आज गुरूओं की दुर्दशा पर मन दुखी हो गया है,

आज गुरू कोचिंग संस्थानों का दास हो गया है।

आज गुरु राजनीति का शिकार क्यों हो गया है,

वो बिका उसका चारित्रिक पतन क्यों हो गया है।।

हर वर्ष  – – – – – – – – – – – – – – – आया है।

 

डा0.प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ गुरु वन्दना ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

गुरु पुर्णिमा विशेष 

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आज प्रस्तुत है आदरणीय श्री संतोष नेमा जी की  गुरु पुर्णिमा पर विशेष रचना “गुरु वंदना”  “गुरु वन्दना”)

 

गुरु वन्दना☆ 

बिन गुरु कृपा न हरि मिलें,बिनु सत्संग न विवेक

हरि सम्मुख जो कर सके,गुरू वही हैं नेक।

 

गुरु की है महिमा अंनत ,है ऊंचा गुरु मुकाम

पहले सुमरें गुरू को,फिर सुमिरें श्री राम।

 

गुरु को हिय में राखिये, गुरु चरणो में प्रेम

दिग्दर्शक नहीं गुरु सा,वही सिखाते नेम।

 

भय भ्रांति हरते गुरू,दिखा सत्य की राह

थामी जिसने गुरु शरण,मिलती कृपा अथाह।

 

गुरु कृपा से काम बनें,गुरू का पद महान

सेवा से ही सुखद फल,जानत सकल जहान।

 

गुरु का वंदन नित करें,गुरु का रखें ध्यान

प्रेरक न कोई गुरु सा,गुरु सृष्टि में महान।

 

गुरु में गुरुता वही गुरु,गुरु में न हो ग़ुरूर

ज्ञान सिखाता गुरु हमें,गुरु से रहें न दूर।

 

नीर क्षीर करते वही,करें शिष्य उपचार

तम हरके रोशन करें,सिखाते सदाचार।

 

गुरु भक्ति हम सदा करें,हर दिन हो गुरुवार

आता जो भी गुरु शरण,उसका हो उद्धार।

 

गुरु सागर हैं ज्ञान के,गुरू गुणों की खान

अंदर बाहर एक रहें,वही गुरु हैं महान।

 

गुरु पारस सम जानिये, स्वर्ण करें वो लोह

पूज्यनीय हैं गुरु सदा,करें न गुरु से द्रोह।

 

भय वश बोलें जबहिं गुरु,होता नहीं कल्याण

पद,प्रतिष्ठा,प्रभाव से,गुरु का घटता मान।

 

जिस घर में होता नहीं,सदगुरु का सत्कार

उस घर खुशियां ना रहें,रहता वो लाचार।

 

गुरु चरणों मे स्वर्ग है,गुरु ही चारों धाम

संकट में गुरु साधना,सदैव आती काम।

 

गुरु शरण “संतोष”सदा,गुरु से रखता प्रेम

चाहत गुरु आशीष की,है निश दिन नित नेम।

 

@ संतोष नेमा “संतोष”

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मोबा 9300101799

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य #5 – राजनीति के तीतर ☆ – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  पाँचवी  कड़ी में उनकी  एक सार्थक व्यंग्य कविता “राजनीति के तीतर”। अब आप प्रत्येक सोमवार उनकी साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।)

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य #5 ☆

 

☆ व्यंग्य कविता – राजनीति के तीतर ☆

तीतर के दो आगे तीतर,

तीतर के दो पीछे तीतर,

बढ़  ना पाये तीनों तीतर ।

 

कुंठित रह गये भीतर-भीतर,

बढ ना जाये अगला तीतर,

खींच रहा है पिछला तीतर।

 

बाहर खूब दिखावा करते,

कुढ़ते रहते भीतर-भीतर,

जहां खड़े थे पहले तीतर।

 

वही खड़े हैं अब भी तीतर,

तीतर के दो आगे तीतर,

तीतर के दो पीछे तीतर।

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

 

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ होम करते रहे हाथ जलते रहे.! ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आज प्रस्तुत हैं आपकी  एक भावप्रवण रचना   “होम करते रहे हाथ जलते रहे.!”)

 

☆ होम करते रहे हाथ जलते रहे.! ☆ 

 

होम करते रहे हाथ जलते रहे.!

हम मगर सत्य के साथ चलते रहे।

 

हर कदम पर दिया प्यार का इम्तिहां।

मुझको पागल समझता रहा ये जहां।।

नफरतों के कुटिल साँप पलते रहे

होम करते रहे हाथ जलते रहे..!

 

एक उम्मीद जलती रही रात-दिन।

बर्फ मन की पिघलती रही रात-दिन।

हर नजर में हमीं रोज खलते रहे।

होम करते रहे हाथ जलते रहे..!

 

ज्यादती कर रही बदनियति आजकल।

बदनुमा है मनुज की प्रकृति आजकल।

आचरण धर्म के हाथ मलते रहे।

होम करते रहे हाथ जलते रहे..!

 

आस-विश्वास का खुद हीआधार हूँ।

मुश्किलों का स्वयं मैं खरीदार हूँ ।

वक्त के साथ ही रोज ढलते रहे।

होम करते रहे हाथ जलते रहे..!

 

@ संतोष नेमा “संतोष”

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मोबा 9300101799

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हिन्दी साहित्य – कविता -☆ संस्कार और विरासत ☆ – श्री हेमन्त बावनकर

श्री हेमन्त बावनकर

 

(मेरी पुस्तक ‘शब्द …. और कविता’ से ली गई एक कविता – “संस्कार और विरासत”।) 

 

☆ संस्कार और विरासत ☆

 

आज

मैं याद करती हूँ

दादी माँ की कहानियाँ।

राजा रानी की

परियों की

और

पंचतंत्र की।

 

मुझे लगता है

कि-

वे धरोहर

मात्र कहानियाँ ही नहीं

अपितु,

मुझे दे गईं हैं

हमारी संस्कृति की अनमोल विरासत

जो ऋण है मुझपर।

 

जो देना है मुझे

अपनी अगली पीढ़ी को।

 

मुझे चमत्कृत करती हैं

हमारी संस्कृति

हमारे तीज-त्यौहार

उपवास

और

हमारी धरोहर।

 

किन्तु,

कभी कभी

क्यों विचलित करते हैं

कुछ अनुत्तरित प्रश्न ?

 

जैसे

अग्नि के वे सात फेरे

वह वरमाला

और

उससे बने सम्बंध

क्यों बदल देते हैं

सम्बंधों की केमिस्ट्री ?

 

क्यों काम करती है

टेलीपेथी

जब हम रहते हैं

मीलों दूर भी ?

 

क्यों हम करते हैं व्रत?

करवा चौथ

काजल तीज

और

वट सावित्री का ?

 

मैं नहीं जानती कि –

आज

‘सत्यवान’ कितना ‘सत्यवान’ है?

और

‘सावित्री’ कितनी ‘सती’?

 

यमराज में है

कितनी शक्ति?

और

कहाँ जा रही है संस्कृति?

 

फिर भी

मैं दूंगी

विरासत में

दादी माँ की धरोहर

उनकी अनमोल कहानियाँ।

 

उनके संस्कार,

अपनी पीढ़ी को

अपनी अगली पीढ़ी को

विरासत में।

 

© हेमन्त  बावनकर,  पुणे 

18 जून 2008

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ स्मृतियाँ/MEMORIES – #8 – पगली गलियाँ ☆ – श्री आशीष कुमार

 

श्री आशीष कुमार

 

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “स्मृतियाँ/Memories”में  उनकी स्मृतियाँ । आज के  साप्ताहिक स्तम्भ  में प्रस्तुत है एक काव्यात्मक अभिव्यक्ति  पगली गलियाँ।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ स्मृतियाँ/MEMORIES – #8 ☆

 

पगली गलियाँ

 

बचपन गुजर भी गया तो क्या हुआ ?
याद वो पगली गलियाँ अब भी आती हैं।

 

क्यों ना हो जाये फिर से वही पुराना धमाल
वही मौसम है, उत्साह है और वही साथी हैं।

 

कल जो काटा था पेड़ कारखाना बनाने के लिए
देखते हैं बेघर हुई चिड़िया अब कहाँ घर बनाती है|

 

गरीब जिसने एक टुकड़ा भी बाँट कर खाया
ईमानदारी उस के घर भूखे पेट सो जाती है |

 

बरसों से रोशन है शहीदों की चिता पर
सुना है इस जलते दिये में वो ही बाती है |

 

© आशीष कुमार  

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 7 ☆ अबला नहीं सबला ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी कविता  “अबला नहीं सबला  ”। 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 7 ☆

 

☆ अबला नहीं सबला ☆

 

मैं अबला नहीं

सबला हूँ

पर्वतों से टकराने

सागर की

गहराइयों को मापने

आकाश की

बुलंदियों को छूने

चक्रव्यूह को भेदने

शत्रुओं से लोहा मनवाने

सपनों को हक़ीक़त में

बदलने का

माद्दा रखती हूँ  मैं।

 

क्योंकि, पहचान चुकी हूँ

मैं अंतर्मन में छिपी

आलौकिक शक्तियों को

और वाकिफ़ हूँ मैं

जीवन में आने वाले

तूफ़ानों से

जान चुकी हूँ मैं

सशक्त, सक्षम, समर्थ हूं

अदम्य साहस है मुझमें

रेतीली, कंटीली

पथरीली राहों पर

अकेले बढ़ सकती हूँ  मैं।

 

अब मुझे मत समझना

अबला ‘औ ‘पराश्रिता

जानती हूं मैं

अपनी अस्मिता की

रक्षा करना

समानाधिकार

न मिलने पर

उन्हें छीनने का

दम भरना

सो! अब मुझे कमज़ोर

समझने की भूल

कदापि मत करना।

 

© डा. मुक्ता

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

 

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ गजल ☆ – सुश्री कमला सिंह जीनत

सुश्री कमला सिंह जीनत

 

(सुश्री कमला सिंह ज़ीनत जी एक श्रेष्ठ ग़ज़लकार है और आपकी गजलों की कई पुस्तकें आ चुकी हैं।  आज प्रस्तुत है एक गजल । सुश्री कमला सिंह ज़ीनत जी और उनकी कलम को इस बेहतरीन अमन के पैगाम के लिए सलाम। )

 

☆ गजल ☆

 

इसी सूरत  से मैं नफरत के ये शौले बुझाती हूँ

मुहब्बत और ममता से भरी दुनिया बसाती हूँ।

 

इबादत कर के  वो उठता है  मुझ पर फूंक  देता है

मैं  पूजा  करके  आती  हूँ  उसे  टीका  लगाती हूँ।

 

किसी के मज़हबी रंगों से मुझ को कुछ नहीं लेना

कबूतर शांति के अपनी छत से मैं उड़ाती हूँ।

 

बढ़ी है उम्र लेकिन आज भी बच्चे हैं हम दोनों

बहलता वो है गुब्बारों से, मैं फिरकी नचाती हूँ।

 

मैं जिस के दिल में रहती हूं धड़कता है वो सीने में

वो ज़मज़म पीके आता है ,मैं गंगा में नहाती हूँ।

 

बताये कैसे ये “जी़नत” फक़त इतना समझ लीजे

अकीदत से वो झुकता है मैं माथा चूम आती हूँ।

 

© कमला सिंह ज़ीनत

 

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ कृष्ण के पद ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी का e-abhivyakti में स्वागत है। आपको धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं। आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है। 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं।  आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आज प्रस्तुत हैं आपकी  कृष्ण भक्ति में  लीन भक्तिभाव पूर्ण  रचना   “कृष्ण के पद”)

संक्षिप्त परिचय

जन्म –  15 जुलाई 1961 (सिवनी, म. प्र.)
सम्मान/अलंकरण –
2015 – गुंजन काला सदन द्वारा ‘काव्य प्रकाश’
2017 – जागरण द्वारा ‘साहित्य सुधाकर’
2018 – गूंज द्वारा ‘साहित्यरत्न’
2018 – गूंज कला सदन ‘सन्त श्री’
2018 – राष्ट्रीय साहित्यायन साहित्यकार सम्मेलन, ग्वालियर ‘दिव्यतूलिका साहित्यायन सम्मान’
प्रतिष्ठित संस्थाओं वर्तिका, अखिल भारतीय बुन्देली परिषद, नेमा दर्पण, नेमा काव्य मंच आदि द्वारा समय-समय पर सम्मानित
भजनों की रिकॉर्डिंग – आपके द्वारा रचित भजनों की रिकॉर्डिंग श्री मिठाइलाल चक्रवर्ती की सुमधुर आवाज में की गई है जो यूट्यूब में  भी उपलब्ध है

 

☆ कृष्ण के पद ☆

 

मैं तो राधे राधे गें हों

प्रेम भरा जिसने जीवन में, गुरु पद उन खों दें हों

राधे राधे जपा कृष्ण ने, मैं भी अब जप लें हों

जाकी शरण सबहिं जन चाहें, शरण तिहारी जें हों

पूजा पाठ भजन न जानू, प्रेमहिं मन भर लें हों

जब भी मिल हैं श्याम सलोने, देखत ही हरषे हों

भटक रहा है मन माया में, ओखों अब समझें हों

“संतोष” मिले तभी अब हमको, दर्शन जब कर लें हों

 

रसना भजले कृष्ण कन्हाई

मीरा भज कर हुई बावरी, सुध बुध सबहिं गवाई

माया के फेर में हमने, सीखी सिर्फ कमाई

अंतर्मन से प्रीत न जोड़ी, कीन्हि कबहुँ न भलाई

विरह वेदना वो क्या जानें, जिनहिं न प्रीत लगाई

राधा सा नहीं बड़भागी, समझीं जो प्रभुताई

बिनु हरि भजन “संतोष” कहां, समझें यह सच्चाई

 

कब सुध लै हो कृष्ण मुरारी

अंत समय की आई बेला, पकड़ो बांह हमारी

मुझ दीन को दे दो सहारा, तुम ही हो हितकारी

चरणों के सेवक हम तुम्हरे, हम ही तुम्हरे पुजारी

तेरी दया सभी पर बरसे, हम भी हैं अधिकारी

भव सागर अब पार लगा दो, गिरधर कृष्ण मुरारी

है “संतोष” दरश का प्यासा, सुन लो हे बनवारी

 

@ संतोष नेमा “संतोष”

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मोबा 9300101799

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ तन्मय साहित्य – # – मृत्युपूर्व शवयात्रा की तैयारी……. ☆ – डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में प्रस्तुत है एक व्यंग्य कविता  दूरदर्शी दिव्य सोच – बनाम – मृत्युपूर्व शवयात्रा की तैयारी…….। 

डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी ने बिना किसी लाग -लपेट के जो कहना था कह दिया और जो लिखना था लिख दिया।  अब इस व्यंग्य कविता का जिसे जैसा अर्थ निकालना हो निकलता रहे।  सभी साहित्यकारों के लिए विचारणीय व्यंग्य कविता।  फिर आपके लिए कविता के अंत में लाइक और कमेन्ट बॉक्स तो है ही। हाँ, शेयर करना मत भूलिएगा।

आप आगे पढ़ें उसके पहले मुझे मेरी दो पंक्तियाँ तो कहने दीजिये:

अब तक का सफर तय किया इक तयशुदा राहगीर की मानिंद।

आगे का सफर पहेली है इसका एहसास न तुम्हें है न मुझको ।

  • हेमन्त बावनकर )

 

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – #6 ☆

 

☆  दूरदर्शी दिव्य सोच 

बनाम———————

मृत्युपूर्व शवयात्रा की तैयारी……. ☆  

 

आत्ममुखी एकाकी,  80 वर्षीय वरिष्ठ साहित्यकार  के नगर में होने वाले सभी आयोजनों में उनके एकाएक सदाबहार, मुखर उपस्थिति का कारण पूछने पर उन्होंने जो बताया, सुनकर सुखद आश्चर्य से अचम्भित हुए बिना न रह सका——

“स्मृति स्मारक निर्माण, गली-मुहल्ले, चौराहे पर स्वमूर्ति स्थापना, मरणोपरांत राष्ट्रीय अलंकरण के अवसर आदि के सुंदर ख्वाब सजाए आगे की तैयारियों के तहत जीवन की सांध्यबेला में ये चहल-पहल कर भव्य शवयात्रा के अपने गुप्त एजेंडे का ज्ञान कराया उन्होंने” ।

अमरत्व प्राप्ति के उनके इस दिव्य प्रखर सूत्र से प्रभावित हो एक कविता का सृजन हुआ।

आप भी पढ़ें और अपने लिए भी कुछ सोचें :-

 

मृत्यु पूर्व, खुद की

शवयात्रा पर करना तैयारी है

बाद मरण के भी तो

भीड़ जुटाना जिम्मेदारी है।

 

जीवन भर एकाकी रह कर

क्या पाया क्या खोया है

हमें पता है, कलुषित मन से

हमने क्या क्या बोया है,

अंतिम बेला के पहले

करना कुछ कारगुजारी है।

मृत्युपूर्व खुद की शवयात्रा

पर करना………

 

तब, तन-मन में खूब अकड़ थी

पकड़  रसूखदारों  में  थी

बुद्धि,  ज्ञान, साहित्य  सृजन

प्रवचन, भाषण नारों में थी,

शिथिल हुआ तन, मन बोझिल

इन्द्रियाँ स्वयं से हारी है।

मृत्युपूर्व…….

 

होता नाम निमंत्रण पत्रक में

“विशिष्ट”,  तब जाते थे

नव सिखिए, छोटे-मोटे तो

पास फटक नहीं पाते थे,

रौबदाब तेवर थे तब

अब बची हुई लाचारी है।

मृत्युपूर्व……

 

अब मौखिक सी मिले सूचना

या अखबारों में पढ़ कर

आयोजन कोई न छोड़ते

रहें उपस्थित बढ़-चढ़ कर,

कब क्या हो जाये जीवन में

हमने बात विचारी है।

मृत्युपूर्व…….

 

हंसते-मुस्काते विनम्र हो

अब, सब से बतियाते हैं

मन – बेमन से, छोटे-बड़े

सभी को गले लगाते हैं,

हमें पता है, भीड़ जुटाने में

अपनी अय्यारी है।

मृत्युपूर्व…….

 

मालाएं पहनाओ हमको

चारण, वंदन गान करो

शाल और श्रीफल से मेरा

मिलकर तुम सम्मान करो,

कीमत ले लेना इनकी

चुपचाप हमीं से सारी है।

मृत्युपूर्व…….

 

हुआ हमें विश्वास कि

अच्छी-खासी भीड़  रहेगी तब

मिशन सफल हो गया,खुशी है

रामनाम सत होगा जब,

जनसैलाब देखना, इतना

मर कर भी सुखकारी है। मृत्युपूर्व…….

 

हम न रहेंगे, तब भी

शवयात्रा में अनुगामी सारे

राम नाम है सत्य,

साथ, गूंजेंगे अपने भी नारे,

मरकर भी उस सुखद दृश्य की

हम पर चढ़ी खुमारी है

मृत्युपूर्व……………

 

शव शैया से देख हुजुम

तब मन हर्षित होगा भारी

पद्म सिरी सम्मान, प्राप्ति की

कर ली, पूरी तैयारी,

कहो-सुनो कुछ भी, पर यही

भावना सुखद हमारी है।।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

 

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