सुश्री कमला सिंह जीनत
(सुश्री कमला सिंह ज़ीनत जी का e-abhivyakti में स्वागत है। आप एक श्रेष्ठ ग़ज़लकार है और आपकी गजलों की कई पुस्तकें आ चुकी हैं। आज प्रस्तुत है उनकी एक गजल)
सुश्री कमला सिंह जीनत
(सुश्री कमला सिंह ज़ीनत जी का e-abhivyakti में स्वागत है। आप एक श्रेष्ठ ग़ज़लकार है और आपकी गजलों की कई पुस्तकें आ चुकी हैं। आज प्रस्तुत है उनकी एक गजल)
श्री जय प्रकाश पाण्डेय
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की चौथी कड़ी में उनकी एक सार्थक व्यंग्य कविता “ये दुनिया अगर…”। अब आप प्रत्येक सोमवार उनकी साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।)
☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य #4 ☆
☆ व्यंग्य कविता – ये दुनिया अगर… ☆
इन दिनों दुनिया,
हम पर हावी हो रही है।
आज की आपाधापी में,
चालक समय भाग रहा है।
समय को कैद करने की,
साजिश चल तो रही है।
लोग बेवजह समय से,
डर के कतरा से रहे हैं।
लोग समय बचाने,
अपने समय से खेल रहे हैं।
बेहद आत्मीय क्षणों में,
समय की रफ्तार देख रहे हैं।
अब पेड़ से बातें करने को,
हम टाइमवेस्ट कहने लगे हैं ।
और फूल की चाह को,
निर्जीव प्लास्टिक में देखते हैं।
अपनी इच्छा अपनापन,
समय के बाजार में बेच रहे हैं।
क्योंकि इन दिनों दुनिया,
समय के बाजार में खड़ी है।
© जय प्रकाश पाण्डेय
श्री आशीष कुमार
(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे उनके स्थायी स्तम्भ “स्मृतियाँ/Memories”में उनकी स्मृतियाँ । आज के साप्ताहिक स्तम्भ में प्रस्तुत है एक काव्यात्मक अभिव्यक्ति “सच्चाई”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ स्मृतियाँ/MEMORIES – #7 ☆
☆ सच्चाई ☆
मै तो उड़ने लगा था झूठे दिखावे की हवा मे
सुना है वो अभी भी सच्चाई की पतंग उड़ाता है ||
जवान हो गयी होगी एक और बेटी, इसीलिए आया होगा
वरना कहीं पैसे वाला भी कभी गरीब के घर जाता है ||
वो परदेश गया तो बस एक थाली लेकर, जिसमें माँ परोसती थी
बहुत पैसे वाला हो गया है, पर सुना है अभी भी उसी थाली मे खाता है ||
सुनते थे वक्त भर देता है, हर इक जख्म को
जो जख्म खुद वक्त दे, भला वो भी कभी भर पाता है ?
© आशीष कुमार
डॉ. मुक्ता
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से आप प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी कविता “सीता ”।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 6 ☆
☆ सीता ☆
सीता! तुम भूमिजा
धरती की पुत्री
जनक के प्रांगण में
राजकुमारी सम पली-बढ़ी
अनगिनत स्वप्न संजोए
विवाहोपरांत राम संग विदा हुई
परन्तु माता कैकेयी के कहने पर
तुमने पति का साथ निभाने हेतु
चौदह वर्ष के लिए वन गमन किया
नंगे पांव कंटकों पर चली
और नारी जगत् का आदर्श बनी
परन्तु रावण ने
छल से किया तुम्हारा अपहरण
अशोक वाटिका में रही बंदिनी सम
अपनी अस्मत की रक्षा हित
तुम हर दिन जूझती रही
तुम्हारे तेज और पतिव्रत निर्वहन
के सम्मुख रावण हुआ पस्त
नहीं छू पाया तुम्हें
क्योंकि तुम थी राम की धरोहर
सुरक्षित रही वहां निशि-बासर
अंत में खुशी का दिन आया
राम ने रावण का वध कर
तुम्हें उसके चंगुल से छुड़ाया
अयोध्या लौटने पर दीपोत्सव मनाया
परन्तु एक धोबी के कहने पर
राम ने तुम्हें राजमहल से
निष्कासित करने का फरमॉन सुनाया
लक्ष्मण तुम्हें धोखे से वन में छोड़ आया
तुम प्रसूता थी,निरपराधिनी थी
राम ने यह कैसा राजधर्म निभाया…
वाहवाही लूटने या आदर्शवादी
मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाने के निमित्त
भुला दिया पत्नी के प्रति
अपना दायित्व
सीता! जिसने राजसी सुख त्याग
पति के साथ किया वन-गमन
कैसे हो गया वह
हृदयहीन व संवेदनविहीन
नहीं ली उसने कभी तुम्हारी सुध
कहां हो,किस हाल में हो?
हाय!उसे तो अपनी संतान का
ख्याल भी कभी नहीं आया
क्या कहेंगे आप उसे
शक्की स्वभाव का प्राणी
या दायित्व-विमुख कमज़ोर इंसान
जिसने अग्नि-परीक्षा लेने के बाद भी
नहीं रखा प्रजा के समक्ष
तुम्हारा पक्ष
और अपने जीवन से तुम्हें
दूध से मक्खी की मानिंद
निकाल किया बाहर
क्या गुज़री होगा तुम पर?
उपेक्षित व तिरस्कृत नारी सम
तुमने पल-पल
खून के आंसू बहाये होंगे
नासूर सम रिसते ज़ख्मों की
असहनीय पीड़ा को
सीने में दफ़न कर
कैसे सहलाया होगा?
कैसे सुसंस्कारित किया होगा
तुमने अपने बच्चों को…
शालीन और वीर योद्धा बनाया होगा
अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा पकड़ने पर
झल्लायी होगी तुम लव कुश पर
और उनके ज़िद करने पर
पिता-पुत्र के मध्य
युद्ध की संभावना से आशंकित
तुमने बच्चों का
पिता से परिचय कराया होगा
‘यह पिता है तुम्हारे’
कैसे सामना किया होगा तुमने
राम का उस पल?
बच्चों का सबके सम्मुख
रामायण का गान करना
माता की वंदना करना
और अयोध्या जाने से मना करना
देता है अनगिनत प्रश्नों को जन्म
क्या वास्तव में राम
मर्यादा पुरुषोत्तम
सूर्यवंशी आदर्श राजा थे
या प्रजा के आदेश को
स्वीकारने वाले मात्र संवाहक
निर्णय लेने में असमर्थ
कठपुतली सम नाचने वाले
जिस में था
आत्मविश्वास का अभाव
वैसे अग्नि-परीक्षा के पश्चात्
सीता का निष्कासन
समझ से बाहर है
गर्भावस्था में पत्नी को
धोखे से वन भेजना…
और उसकी सुध न लेना
क्या क्षम्य अपराध है?
राम का राजमहल में रहते हुए
सुख-सुविधाओं का त्याग करना
क्या सीता पर होने वाले
ज़ुल्मों व अन्याय की
क्षतिपूर्ति करने में समर्थ है
अपनी भार्या के प्रति
अमानवीय कटु व्यवहार
क्या राम को कटघरे में
खड़ा नहीं करता
प्रश्न उठता है…
आखिर सीता ने क्यों किया
यह सब सहन?
क्या आदर्शवादी.पतिव्रता
अथवा समस्त महिलाओं की
प्रेरणा-स्रोत बनने के निमित्त
आज भी प्रत्येक व्यक्ति
चाहता है
सीता जैसी पत्नी
जो बिना प्रतिरोध व जिरह के
पति के वचनों को सत्य स्वीकार
गांधारी सम आंख मूंदकर
उसके आदेशों की अनुपालना करे
आजीवन प्रताड़ना
व तिरस्कार सहन कर
आशुतोष सम विषपान करे
पति व समाज की
खुशी के लिये
कर्तव्य-परायणता का
अहसास दिलाने हेतु
हंसते-हंसते अपने अरमानों का
गला घोंट प्राणोत्सर्ग करे
और पतिव्रता नारी के
प्रतीक रूप में प्रतिष्ठित हो पाए।
© डा. मुक्ता
पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी, #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com
डॉ भावना शुक्ल
(डॉ भावना शुक्ल जी को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। उनके “साप्ताहिक स्तम्भ -साहित्य निकुंज”के माध्यम से अब आप प्रत्येक शुक्रवार को डॉ भावना जी के साहित्य से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ. भावना शुक्ल जी की शिक्षाप्रद लघुकथा “शब्द तुम मीत मेरे”। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – #4 साहित्य निकुंज ☆
☆ शब्द तुम मीत मेरे ☆
शब्द तुम मीत मेरे
शब्द में
छुपे अर्थ सारे
मैं कहती जाऊं
तुम सुनते जाना
शब्द मेरे तुम सो न जाना
नहीं कहूंगी कुछ भी व्यर्थ
तुम खोना न शब्द अपने अर्थ
शब्द बढ़ते ही जाएंगे
सागर नदिया पार लगाएंगे।
आएंगे शब्द
इतिहास ग्रंथों से
वे आएंगे तरह तरह के रूप में
बदलेंगे अपना वेश
जाना चाहेंगे देश-देश
पहनेंगे अपनत्व का जामा
बढ़ाएंगे दोस्ती का हाथ
जब उन्हें मिल जाएंगे
अपने शब्दों के अर्थ
तब वे तुम्हें पहचानेंगे नहीं
रख देंगे कुचलकर
तुम्हें बता दिया जाएगा
देश और समाज का दुश्मन
होशियार हो जाओ
शब्द तुम …..
चारों ओर घेरा है गिद्ध का
उपदेश सही है बुद्ध का
शब्दों को सही चुनों
बोलने से पहले गुनों
शब्द तुम…….
© डॉ भावना शुक्ल
श्री जय प्रकाश पाण्डेय
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की तीसरी कड़ी में उनकी एक सार्थक व्यंग्य कविता “तमाशा”। अब आप प्रत्येक सोमवार उनकी साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।)
☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य #1 ☆
☆ व्यंग्य कविता – तमाशा ☆
इस बार भी
गजब तमाशा हुआ
ईमान खरीदने वो गया।
दुकानदार ने मिलावटी
और महँगा दे दिया।
और
बर्फ की बाट से
तौल तौलकर दिया ।
फिर
एक और तमाशा हुआ
एक अच्छे दिन
विकास की दुकान में
एक बिझूका खड़ा मिला।
जोकर बनके हँसता रहा
चुटकी बजा के ठगता रहा।
© जय प्रकाश पाण्डेय
डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’
(डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ पूर्व प्रोफेसर (हिन्दी) क्वाङ्ग्तोंग वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय, चीन । आज प्रस्तुत है डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ जी की दो कवितायें “ऐनवक्त की कविता” और “हमारे गाँव में खुशहाली”।
दो कवितायें
एक
☆ ऐनवक्त की कविता ☆
जब-जब कान में घुसे
कीड़े -सी
कविता कुलबुलाती है
और
ऐनवक्त पर
बच्चे के लिए
पाव भर दूध या आटा लाने के लिए
खोपड़ी पर खड़ी होकर
बीबी झौंझियाती है
यकीनन उसकी झौं -झौं
मेरी कविता से
बड़ी हो जाती है।
-@गुणशेखर
दो
☆ हमारे गांव में खुशहाली ☆
हमारे गांव में
खुशहाली
जब भी आती है
बिजली की तरह
आती है
और
गरीब के पेट का
ट्रांसफार्मर दाग कर
चली जाती है।
© डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’
सुश्री सुषमा भंडारी
(सुश्री सुषमा भंडारी जी साहित्यिक संस्था हिंदी साहित्य मंथन की महासचिव एवं प्रणेता साहित्य संस्थान की अध्यक्षा हैं । प्रस्तुत है आपकी भावपूर्ण कविता आगे-आगे क्यूं तू भागे? आपकी विभिन्न विधाओं की रचनाओं का सदैव स्वागत है। )
आगे-आगे क्यूं तू भागे ?
आगे-आगे क्यूं तू भागे
होड़ मची है जीवन में
ठहर जरा ओ मूर्ख प्राणी
देख जरा तू दर्पण में
वर्षा कितना बोझ उठाती
बादल बनकर रह्ती है
तेरी प्यास बुझाने को वो
बूंद- बूंद बन बहती है
तू केवल अपनी ही सोचे
रहता फिर भी उलझन में
आगे-आगे क्यूँ तू—-
वीरों से कुछ सीख ले बन्दे
वतन की खातिर जीता है
वतन की मिट्टी वतन के सपने
जग की उधडन सीता है
सर्दी -गर्मी सब सीमा पर
सीमा पर ही सावन में
आगे-आगे क्यूँ तू—–
जीवन मूल्य टूट रहे सब
आओ इन्हें बचाएँ हम
संस्कार के गहने पहनें
सुर- संगीत सजायें हम
मात-पिता ही सच्चे तीर्थ
सुख है इनके दामन में
आगे-आगे क्यूँ तू—-
चलना है तो सीख नदी से
चलती शीतल जल देती
लेकिन मानव तेरी प्रवृति
बस केवल बस छल देती
सूरज किरणें फैला देता
सब प्राची के प्रांगण में
आगे-आगे क्यूँ तू—
© सुषमा भंडारी
फ्लैट नम्बर-317, प्लैटिनम हाईटस, सेक्टर-18 बी द्वारका, नई दिल्ली-110078
मोबाइल-9810152263
डॉ. मुक्ता
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से आप प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी कविता “औरत! ”।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 5 ☆
☆ औरत! ☆
तुझे इन्सान किसी ने माना नहीं
तू जीती रही औरों के लिये
तूने आज तक स्वयं को पहचाना नहीं।
नारी!
तू नारायणी
भूल गयी,शक्ति तुझमें
दुर्गा और काली की
तु़झ में ही औदार्य और तेज
लक्ष्मी,सरस्वती-सा
तूने उसे पहचाना नहीं।
तुझमें असीम शक्ति
दुश्मनों का सामना करने की
पराजित कर उन्हें शांति का
साम्राज्य स्थापित करने की
तूने आज तक उसे जाना नहीं।
तुझमें ही है!
कुशाग्र बुद्धि
गार्गी और मैत्रेयी जैसी
निरूत्तर कर सकती है
अपने प्रश्नों से
जनक को भी
तूने आज तक यह जाना नहीं।
तुझमें गहराई सागर की
थाह पाने की
साहस लहरों से टकराने का
सामर्थ्य आकाश को भेदने की
क्षमता चांद पर पहुंचने की
तूने अपने अस्तित्व को पहचाना नहीं।
तू पुरूष सहभागिनी!
दासी बन जीती रही
कभी तंदूर,कभी अग्नि
कभी तेजाब की भेंट चढती रही
तुझमें सामर्थ्य संघर्ष करने का
तूने स्वयं को आज तक पहचाना नहीं।
© डा. मुक्ता
पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी, #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com
सुश्री रक्षा गीता
(सुश्री रक्षा गीता जी का e-abhivyakti में स्वागत है। आपने हिन्दी विषय में स्नातकोत्तर किया है एवं वर्तमान में कालिंदी महाविद्यालय में तदर्थ प्रवक्ता हैं । आज प्रस्तुत है उनकी कविता “घर”।)
संक्षिप्त साहित्यिक परिचय
☆ घर☆
संबंधों में जब “किंतु-परंतु”
‘घर कर’ जाते हैं’
स्नेह के पंछी
कूच कर जाते हैं
छोड़ जाते हैं-
भद्दे निशान बीट के,
असहनीय दुर्गंध,
बिखरे तिनके।
उजड़े घौंसलों में
पंछी बसेरा बसाते नहीं ,
खंडहरों में “घर”
बसा करते नहीं,
विश्वास का मीठा फल
चखा भी ना गया जो पहले ,
सड़ चुका है आज ।
फेंकना ही लाजमी है ।
यादों के जख्म भरते हैं
समय के साथ हौले-हौले
काल-स्थान की दूरी ने
अचानक नहीं
पर नाप लिया ‘वो’ एहसास
जिसे संग रहकर
छूना भी संभव
जाने क्यों ना हो पाया
बहुत करीब से देखने पर
अक्सर चीजें स्पष्ट दिखती है उचित दूरी जरूरी होती है
‘स्पष्टता’ के लिए
दूर रहकर पढ़ सकते हैं
इक दूजे का मन
साफ- साफ
समय निकलने के बाद
व्यर्थ न जाए पढ़ना
कुछ कदम संग-संग बढ़े
कुछ हम बोले
कुछ तुम सुनो
कुछ तेरा हम सुने
समय रहते मिटा ले दूरियां
यही बेहतर है
दोनों के लिए ताकि
इक “घर” बने
© रक्षा गीता