हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ क्या उस नर को परिणय का अधिकार है? ☆ – डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव

डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव 

 

☆ क्या उस नर को परिणय का अधिकार है? ☆

 

जो निज बल पर निज जीवन जी न पाए,

जो माता-पिता और  दूसरों पर बोझ रहे,

सामर्थ्यहीन, ज्ञानहीन, और मानहानि होए,

क्या उस नर को परिणय का अधिकार है?

 

जो स्वयं दहेज मांगे सौदागर बन जाए,

जो पत्नी पर हांथ उठाए पशु बन जाए,

जिसकी नजरों में पत्नी भोग्या बन जाए,

पत्नी की चिकित्सा हेतु पत्नी संग न जाए,

क्या उस – – – – – – – – – – – – – अधिकार है?

 

जो रात में देर से लौटे भोरे ही चला जाए,

ऐयासी, मदिरा, जुंए का व्यसनी हो जाए,

वस्तु समझ पत्नी का मन ही मारता जाए,

वाणी  मधुर हो पर ह्रदय विष से भर जाए,

क्या उस – – – – – – – – – – – – – अधिकार है?

 

दहेज की कार में यारों संग पर्यटन जाए,

फेसबुक में  गैरों संग ही घूमते देखा जाए,

जो गर्भपात का दोष पत्नी पर ही डाले,

निज त्रुटियां न देख पत्नी को बांझ बुलाए,

क्या उस – – – – – – – – – – – – अधिकार है?

 

जो पत्नी का नित अपमान ही करता जाए,

पत्नी के गुण न देखे अवगुण गिनता जाए,

पत्नी उसके ही भरोसे आई समझ न पाए,

पत्नी के माता-पिता की निंदा करता जाए,

क्या उस – – – – – – – – – – – – – अधिकार है?

 

© डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ नदी की मनोव्यथा ☆ – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

☆ईस्‍टर के शुभ पर्व पर श्री लंका में हुये विस्‍फोट पर ☆

(प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी द्वारा  रचित  एक भावप्रवण  कविता  “नदी की मनोव्यथा”।)

जो मीठा पावन जल देकर हमको सुस्वस्थ बनाती है
जिसकी घाटी और जलधारा हम सबके मन को भाती है
तीर्थ क्षेत्र जिसके तट पर हैं जिनकी होती है पूजा
वही नदी माँ दुखिया सी अपनी व्यथा सुनाती है
पूजा तो करते सब मेरी पर उच्छिष्ट बहाते हैं
कचरा पोलीथीन फेंक जाते हैं जो भी आते हैं
मैल मलिनता भरते मुझमें जो भी रोज नहाते हैं
गंदे परनाले नगरों के मुझमें ही डाले जाते हैं
जरा निहारो पड़ी गन्दगी मेरे तट और घाटों में
सैर सपाटे वाले यात्री ! खुश न रहो बस चाटों में
मन के श्रद्धा भाव तुम्हारे प्रकट नहीं व्यवहारों में
समाचार सब छपते रहते आये दिन अखबारों में
ऐसे इस वसुधा को पावन मैं कैसे कर पाउँगी ?
पापनाशिनी शक्ति गवाँकर विष से खुद मर जाउंगी
मेरी जो छबि बसी हुई है जन मानस के भावों में
धूमिल वह होती जाती अब दूर दूर तक गांवों में
प्रिय भारत में जहाँ कहीं भी दिखते साधक सन्यासी
वे मुझमें डुबकी , तर्पण ,पूजन ,आरति के हैं अभिलाषी
तुम सब मुझको माँ कहते , तो माँ को बेटों सा प्यार करो
घृणित मलिनता से उबार तुम  मेरे सब दुख दर्द हरो
सही धर्म का अर्थ समझ यदि सब हितकर व्यवहार करें
तो न किसी को कठिनाई हो , कहीं न जलचर जीव मरें
छुद्र स्वार्थ नासमझी से जब आपस में टकराते हैं
इस धरती पर तभी अचानक विकट बवण्डर आते हैं
प्रकृति आज है घायल , मानव की बढ़ती मनमानी से
लोग कर रहे अहित स्वतः का , अपनी ही नादानी से
ले निर्मल जल , निज क्षमता भर अगर न मैं बह पाउंगी
नगर गांव, कृषि वन , जन मन को क्या खुश रख पाउँगी ?
प्रकृति चक्र की समझ क्रियायें ,परिपोषक व्यवहार करो
बुरी आदतें बदलो अपनी , जननी का श्रंगार करो
बाँटो सबको प्यार , स्वच्छता रखो , प्रकृति उद्धार करो
जहाँ जहाँ भी विकृति बढ़ी है बढ़कर वहाँ सुधार करो
गंगा यमुना सब नदियों की मुझ सी राम कहानी है
इसीलिये हो रहा कठिन अब मिलना सबको पानी है
समझो जीवन की परिभाषा , छोड़ो मन की नादानी
सबके मन से हटे प्रदूषण , तो हों सुखी सभी प्राणी !!

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य- कविता – ☆ कविता ☆ – श्री रमेश सैनी

श्री रमेश सैनी

☆  कविता ☆

(प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध वरिष्ठ  साहित्यकार  श्री रमेश सैनी जी  की  जी की सार्थक कविता “कविता ”।  कविता के सृजन की पृष्ठभूमि  पर सृजित एक कविता।) 

 

कविता को गढ़ना नहीं पड़ता

कविता रचती है अपने आपको

रचती है अपने समय को

तोड़ती है भ्रम

कवि होनें का

कविता बनाती है, अपना संसार

जिसमें बसती है,असंख्य रचनाये

 

मां ने देखा है

असहनीय दर्द के बाद

पहली बार नर्स की गोद में

अभी- अभी जन्में शिशु को

 

पहली बारिश में भीगते हुए

देखता है,  चुम्बकीय नजरों से

जवान होता हुआ लड़का

सोलह साल की लड़की को

 

जरा सी आहट होने पर

पकड़े जाने के भय से

छुपा लेती है किताब को

जवान लड़की, क़ि कोई

पढ़ न ले छुपा प्रेमपत्र

 

चिड़िया चहक उठती है

चूजे की पहली उड़ान पर

कुहुक उठती है कोयल

आम में जब आते है बौर

 

कविता फूटती है, जब

किसान करता है,  आत्महत्या

मौसम के बेईमान होने पर

 

लड़की मार दी जाती है

करती है,  जब किसी से प्रेम

 

नहीं रोक पाती है, जब कविता

जब रोका जाता है,  किसी को

पानी भरने से

गांव के एकमात्र कुएं से

 

पानी तो पानी,पर उसमें भी

खींच दी जाती है लकीर

पर कविता नहीं खींच पाती

अपने बीच कोई रेखा

 

कविता स्पर्श करना चाहती है

ऐसे क्षणों को

जिनमे प्यार हो,दुःख हो,सुख हो

और हो अपनापन।

 

© रमेश सैनी , जबलपुर 

मोबा . 8319856044

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ तुम पत्थर भी बन जाती हो..!! ☆ – सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

☆ तुम पत्थर भी बन जाती हो..!! ☆
(प्रस्तुत है सौ. सुजाता काळे जी  की  नारी पर एक भावप्रवण कविता । ) 

 

नारी तुम चलो तो,
नदिया सी बहती हो।
सब कुछ समेटे हुए,
आँचल में छिपाती हो।
मिट्टी, काँटे, कंकड़
पत्थर को तोड़ती हो।
अपनी गर्भ में अमूल्य
मोतियों को पालती हो।

नारी तुम रुकी तो,
पहाड़ सी बन जाती हो।
आँधी, तूफान या हो
ज्वालामुखी सहती हो।
अनगिनत बहते झरने
आँखों में बसाती हो।
भूस्सखन हो चाहे कितने
जड़ बन जाती हो।

हे नारी…!!
तुम मोम बन जाती हो,
और कभी मोम से
पत्थर भी बन जाती हो..!!

© सुजाता काळे
पंचगनी, महाराष्ट्रा।
9975577684

 

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता -☆ मोलकी ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

☆ मोलकी ☆

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। डॉ मुक्ता जी के ये शब्द  “अनजान बालिका, दुल्हन नहीं ’मोलकी’ ” कहलाती है। निःशब्द हूँ । बेहतर है आप स्वयं यह कविता पढ़ कर टिप्पणी दें।) 

 

औरत का वजूद ना कभी था

ना होगा कभी

उसे समझा जाता है कठपुतली

मात्र उपयोगी वस्तु

उपभोग का उपादान

जिस पर पति का एकाधिकार

मनचाहा उपयोग करने के पश्चात्

वह फेंक सकता है बीच राह

और घर से बेदखल कर

उस मासूम की

अस्मत का सौदा

किसी भी पल अकारण

नि:संकोच कर सकता है

 

आजकल

भ्रूण-हत्या के प्रचलन

और घटते लिंगानुपात के कारण

लड़कियों की खरीदारी का

सिलसिला बेखौफ़ जारी है

 

चंद सिक्कों में

खरीद कर लायी गयी

रिश्तों के व्याकरण से

अनजान बालिका

दुल्हन नहीं ’मोलकी’ कहलाती

और वह उसकी जीवन-संगिनी नहीं

सबकी सम्पत्ति समझी जाती

जिसे बंधुआ-मज़दूर समझ

किया जाता

गुलामों से भी

बदतर व्यवहार

 

भूमंडलीकरण के दौर में

‘यूज़ एंड थ्रो’

और‘तू नहीं और सही’

का प्रचलन सदियों से

बदस्तूर जारी है

और यह है रईसज़ादों का शौक

जिसमें ‘लिव-इन’ व ‘मी-टू’ ने सेंध लगा

लील लीं परिवार की

अनन्त,असीम खुशियां

और पर-स्त्री संबंधों की आज़ादी

कलंक है भारतीय संस्कृति पर

जाने कब होगा इन बुराईयों का

समाज से अंत ‘औ’ उन्मूलन

शायद! यह लाइलाज हैं

नहीं कोई इनका समाधान

 

© डा. मुक्ता

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

 

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – हिन्दी कविता – ? टूट गया बंजारा मन ? – डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’

डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ 

? टूट गया बंजारा मन ?

(प्रस्तुत  है जीवन की कटु सच्चाई  एवं रिश्तों के ताने बाने को उजागर करती कविता।  डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ पूर्व प्रोफेसर (हिन्दी) क्वाङ्ग्तोंग वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय, चीन ।)

 

माना रिश्ता जिनसे दिल का

दे बैठा मैं तिनका-तिनका

दिल के दर्द,कथाएँ सारी

रहा सुनाता बारी-बारी

सुनते थे ज्यों गूँगे-बहरे

कुछ उथले कुछ काफी गहरे

 

मतलब सधा,चलाया घन.

टूट गया बंजारा मन.

 

भाषा मधुर शहद में घोली

जिनकी थी अमृतमय बोली

दाएँ में ले तीर-कमान

बाएँ हाथ से खींचे कान

बदल गए आचार-विचार

दुश्मन-सा सारा व्यवहार

उजड़ा देख के मानस-वन.

टूट गया बंजारा मन.

 

जिस दुनिया से यारी की

उसने ही गद्दारी की

लगा कि गलती भारी की

फिर सोचा खुद्दारी की

धृतराष्ट्र की बाँहों में

शेष बची कुछ आहों में

किसने लूटा अपनापन.

टूट गया बंजारा मन.

 

कैसे अपना गैर हो गया

क्योंकर इतना बैर हो गया

क्या सचमुच वो अपना था

या फिर कोई सपना था

अपनापन गंगा-जल है

जहाँ न कोई छल-बल है

ईर्ष्या से कलुषित जीवन.

टूट गया बंजारा मन.

 

वे रिश्तों के कच्चे धागे

आसानी से तोड़ के भागे

मेरे जीवन-पल अनमोल

वे कंचों से रहे हैं तोल

छूट रहे जो पीछे-आगे

जोड़ रहा मैं टूटे धागे

उधड़ न जाए फिर सीवन.

टूट रहा बंजारा मन.

 

बाहर भरे शिकारी जाने

लाख मनाऊँ पर ना माने

अनुभव हीन, चपल चितवन

उछल रहा है वन-उपवन

‘नाद रीझ’ दे देगा जीवन

 

यह मृगछौना मेरा मन

विष-बुझे तीर की है कसकन.

टूट गया बंजारा मन.

 

© डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ 

 

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ बेटियां शची रति दुर्गा लक्ष्मी और सरस्वती बनें ☆ – डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव

डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव 

☆ बेटियां शची रति दुर्गा लक्ष्मी और सरस्वती बनें ☆

 

बेटियां जब आतीं घर आंगन महकातीं,

जब वह चिड़ियों सा चहकतीं गुनगुनाती।

मन के घर आंगन में निज प्यार बिखेरतीं,

अपना होने का निरंतर अहसास दिलातीं।।

 

पैदा होते ही वो जनक की जानकी बनतीं,

राम की सीता कृष्ण की राधा  बन जातीं।

प्रतीक होतीं मां बाप के आन बान शान की,

फिर किसी और के घर की शान बन जातीं।।

 

बेटियां तो पिता की आंखों का तारा,

मां के हृदय में ही सदा रहा करतीं।

देर जब हो जाए उनके आने में घर,

मां बाप की चिंता भी बना करतीं।।

 

इस सृष्टि की भी वही तो सृष्टा होतीं,

आंचल में दूध आंखों में पानी रखतीं।

ससुराल जा कर भी बाबुल की होतीं,

मां बाप का गौरव बन सम्मान बढ़ातीं।।

 

बेटियां कभी श्रुति तो कभी सृष्टि होतीं,

तन से ससुराल पर मन से मायके होतीं।

तन से कठोर पर मन से कोमल बनतीं,

पर छुप छुप कर बाबुल के लिए रोतीं।।

 

ससुराल में जब बेटियां दु:खी रहतीं,

मा बाप के हृदय में शूल चुभता रहता।

जब बेटियां ससुराल में सुखी रहतीं,

मां बाप का हृदय सदा खिला रहता।।

 

बेटियां दुर्गा लक्ष्मी सरस्वती बनतीं,

तो मां बाप  निश्चिंत हुआ करते हैं।

जब बेटियां अबला बन जातीं हैं तो,

मां बाप सदा चिंतित रहा करते हैं।।

 

दहेज, शोषण, घरेलू हिंसा न होंगे नियंत्रित,

यदि बेटियां अपने पैरों पर खड़ी नहीं होंगी।

लालची जुआरी चरित्रहीन करेंगी नियंत्रित,

जब बेटियां सशक्त और आत्म निर्भर होंगी।।

 

बेटियां शची रति दुर्गा लक्ष्मी सरस्वती बने,

निज मां बाप की आन बान और शान बने।

उन्हें अबला बन कर जीते तो ज़माना बीता,

अब वे सबल बन राष्ट्र का अभिमान बनें।।

 

© डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव

 

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य- कथा-कहानी – लघुकथा – ☆ दरार ☆ – डॉ. कुंवर प्रेमिल

डॉ कुंवर प्रेमिल

☆ जगह ☆

(प्रस्तुत है डॉ कुंवर प्रेमिल जी  की एक बेहतरीन एवं विचारणीय लघुकथा। आखिर सारा खेल जगह का  ही तो है । ) 

 

उसके पास कुल जमा ढाई कमरे ही तो  है। एक कमरे में बहू बेटा सोते हैं तो दूसरे में वे बूढा – बूढी। उनके हिस्से में एक  पोती भी है जो पूरे पलंग पर लोटती  है।  बाकी बचे आधे कमरे में उनकी रसोई और उसी में उनका गृहस्थी का आधा  अधूरा सामान ठुसा पड़ा है।

कहीं दूसरा बच्चा आ गया तो…..पलंग  पर दादी अपनी पोती को खिसका -खिसका कर दूसरे बच्चे के लिए जगह बनाकर देखती है।

बच्ची के फैल – पसर कर सोने से हममें से एक ☝ जागता एक सोता है। दूसरे बच्चे  के आने पर हम दोनों को ही रात ? भर जागरण करना पड़ेगा……बूढा  कहता।

तब तो हमारे लिए  इस पलंग पर कोई जगह ही नहीं रहेगी।

तीसरी पीढ़ी जब जगह बनाती है तो पहली पीढ़ी अपनी जगह गँवाती है। सारा खेल इस जगह का ही तो है। देखा नहीं एक -एक इंच जगह के लिए कैसी हाय तौबा मची रहती है। दादी सोच रही थी।

न जाने कैसी हवा चली है कि आजकल बहुएं,  बच्चों को अपने पास सुलाने का नाम ही नहीं  लेती। यदि वे अपनी बच्चों को अपने पास सुला लेती तो थोड़ी बहुत जगह हम बूढा बूढी को भी नसीब  हो जाती।

 

© डॉ कुँवर प्रेमिल 
एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मोबाइल 9301822782

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य- कविता – ☆ अब मुझे सपने नहीं आते ☆ – श्री रमेश सैनी

श्री रमेश सैनी

☆  अब मुझे सपने नहीं आते ☆

(प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध  साहित्यकार  श्री रमेश सैनी जी  की  सार्थक, सटीक एवं  सामयिक कविता  “अब मुझे सपने नहीं आते”।)

 

अब मुझे सपने नहीं आते

उन्होंने आना कर दिया है बंद

उनका नहीं

दोष मेरा ही है

वे तो आना चाहते है

अपने नए-नए रंग में

पर मैने ही मना कर दिया है

मत आया करो मेरे द्वार

फिर भला कौन आएगा

अपमानित होंने के लिए

 

अब मुझे नींद भी नहीं आती

जब नींद नहीं आती तो

भला सपनों क्या काम

 

समय के थपेड़ों ने कर दिया है

गहरे तक मजबूत

आदत सी पड़ गयी है

सपनों के बिना जीने की

 

कभी -कभी आ जाती है

झपकी या नींद

तब संभाल लेता हूँ

चिकोटी काट कर

कहीं सपने बस न जाएँ

मेरी आँखों में, क्योंकि

पहले ही बसा लिया था

गरीबी हटाओ और

अच्छे दिन आने वाले है

इन सुबह आने वाले सपनों को

विश्वास करता था, इस अंधविश्वास पर

होते हैं सच, सुबह वाले सपने

 

पर अब आ गया है समझ

अपनी आँखों को

रखता हूँ खुली

और सपनों को

आँखों से दूर

*

© रमेश सैनी , जबलपुर 

मोबा . 8319856044

 

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ कविता ☆ – सुश्री सुषमा सिंह

सुश्री सुषमा सिंह 

☆ कविता ☆

(प्रस्तुत है सुश्री सुषमा सिंह जी की भावप्रवण कविता “कविता” ।  सुश्री सुषमा सिंह जी की कविता काव्यात्मक परिभाषा के लिए मैं निःशब्द हूँ। कविता छंदयुक्त हो या छंदमुक्त हो यदि कविता में संवेदना ही नहीं तो फिर कैसी कविता? )

 

प्राणों को नवजीवन दे, जड़ में भी स्पंदन भर दे

दर्द, चुभन, शूल हर ले, मन को रंगोली के रंग दे

उसको कहते हैं कविता

 

हर नर को जो राम कर दे, शबरी के बेरों में रस भर दे

जो हर राधा को कान्हा दे, हर-मन को जो मीरा कर दे

उसको कहते हैं कविता

 

तम जीवन में ज्योति भर दे, मूकता को भी कंपन दे

भावनाओं को जो मंथन दे, प्रियतम को मौन निमंत्रण दे

उसको कहते हैं कविता

 

संबंधों को जो बंधन दे, संस्कृति संस्कार समर्पण दे

भटकन को नई मंज़िल दे, जीवन संकल्पों से भर दे

उसको कहते हैं कविता

 

डगमग पैरों को थिरकन दे, सिखर धूप फागुन कर दे

मन में नई उमंग भर दे, सुंदर सपनों को सच कर दे

उसको कहते हैं कविता

 

यह भावों की निर्झरिणी है,जिस पथ  यह बहती जाती है

मरुथल को यह मधुबन कर दे, इसको कहते हैं कविता

 

आखर  आखर हों भाव भरे, हर-मन बस ऐसा हो जाए

तो चलो  रचें ऐसी कविता, हर मानव मानव हो जाए।

 

© सुषमा सिंह

बी-2/20, फार्मा अपार्टमेंट, 88, इंद्रप्रस्थ विस्तार, पटपड़गंज डिपो, दिल्ली 110 092

 

Please share your Post !

Shares
image_print