हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #237 – बाल कविता – कंप्यूटर मोबाइल के खेल… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एबाल कविता – “कंप्यूटर मोबाइल के खेल…)

☆ तन्मय साहित्य  #237 ☆

☆ बाल कविता – कंप्यूटर मोबाइल के खेल ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

कंप्यूटर मोबाइल ने ये

क्या-क्या खेल निकाले।

हम  बच्चों के बने  खिलौने,

जो चाहें सो पा लें।।

*

बिल्ली एक नहाती है

शावर स्वयं चलाती है

बदन पोंछ कर फिर अपना,

होले से मुस्काती है

आँख मूँद फिर ध्यान लगा

चूहों पर डोरे डाले।

कंप्यूटर मोबाइल ने……

*

एक  कार  रफ्तार से

चली जा रही प्यार से

पीछे दूजी कार लगी

दोनों को  डर हार से,

भाग दौड़ में टकरा जाए

किसको कौन सँभाले।

कंप्यूटर मोबाइल ने…….

*

मछली की निगरानी में

भैंस  तैरती पानी में

कछुए ने ली टाँग पकड़

मेंढक  है  हैरानी  में

मगरमच्छ बीमार हुआ

पड़ गए दवा के लाले।

कंप्यूटर मोबाइल ने…….

*

संसारी या जोगी है

मोबाइल के रोगी हैं

मम्मी पापा के सँग अपनी

ये पैसेंजर बोगी है,

बिना रिजर्वेशन के इनकी

सिंपल टिकट कटा लें।

कंप्यूटर मोबाइल ने ये

क्या-क्या खेल निकाले।।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 61 ☆ बरसात… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “बरसात…” ।

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 61 ☆ बरसात… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

टपकती है बूँद

होंठों पर छुअन सी

यादों में लिपटी हुई बरसात।

 

बाँह पकड़े

कल तलक जो

चल रही थी नाव

लहर चंचल

कूदती है

भुलाकर सब घाव

 

आँख बैठा मूँद

माझी तन जलन की

मन के आँगन में घिरी बरसात।

 

ढीठ नाला

छू रहा है

पाँव देहरी के

पाँव भारी

हो गये हैं

घर की महरी के

 

हो रहा है मेल

धरती गगन खनकी

चूड़ियों में बज रही बरसात।

 

फुदकती है

बूँद चिड़िया

खेत पकड़े हाथ

आँजती है

झील काजल

बादलों के साथ

 

नदिया का आँचल

हुआ मैला है जो

बाढ़ लाकर धो रही बरसात।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 65 ☆ परिंदों की चहक शीतल पवन  पूरब दिशा स्वर्णिम… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “परिंदों की चहक शीतल पवन  पूरब दिशा स्वर्णिम“)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 65 ☆

✍ परिंदों की चहक शीतल पवन  पूरब दिशा स्वर्णिम… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

मदद को मुफ़लिसों की हाथों को उठते नहीं देखा

किसी भी शख़्स को इंसान अब बनते नहीं देखा

हवेली को लगी है आह जाने किन गरीबों की

खड़ी वीरान है इंसां कोई  रहते नहीं देखा

 *

हमारे रहनुमा की हैसियत आवाम  में क्या है

कभी किरदार मैंने इतना भी गिरते नहीं देखा

 *

किसी की आह लेकर ज़र जमीं कब्ज़े में मत लेना

गलत दौलत से मैंने घर कोई हँसते नहीं देखा

 *

परिंदों की चहक शीतल पवन  पूरब दिशा स्वर्णिम

वो क्या जानें जिन्होंने सूर्य को उगते नहीं देखा

 *

तो फिर किस बात पर हंगामा आरायी जहां भर में

इबादतगाह जब तुमने कोई ढहते नहीं देखा

 *

जहां में जो भी आया है हों चाहे ईश पैग़ंबर

समय की मार से उनको यहाँ बचते नहीं देखा

 *

बनेगा वो कभी क्या अश्वरोही एक नम्बर का

जिसे गिरकर दुबारा अस्प पे चढ़ते नहीं देखा

 *

पड़ेगें कीड़े पड़ जाते है जैसे गंदे पानी में

विचारों को अगर पानी सा जो बहते नहीं देखा

 *

बड़े बरगद की  छाया से अरुण कर लो किनारा तुम

कि इसके नीचे रहने वाले को बढ़ते नहीं देखा

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ रिश्ता ☆ डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’ ☆

डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’

(डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’ जी  बेंगलुरु के नोबल कॉलेज में प्राध्यापिका के पद पर कार्यरत हैं एवं  साहित्य की विभिन्न विधाओं की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में मन्नू भंडारी के कथा साहित्य में मनोवैज्ञानिकता, दो कविता संग्रह, पाँच कहानी संग्रह,  एक उपन्यास (फिर एक नयी सुबह) विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इसके अतिरिक्त आपकी एक लम्बी कविता को इंडियन बुक ऑफ़ रिकार्ड्स 2020 में स्थान दिया गया है। आपका उपन्यास “औरत तेरी यही कहानी” शीघ्र प्रकाश्य। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता रिश्ता।)  

☆ कविता ☆ रिश्ता ☆ डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’ ☆

रिश्ता होता है कच्चा धागा,

टूट्ते ही चटखाए,

मत टूटने देना धागे को,

यह धागा है प्रेम संबंध का,

ध्यानकेंद्रित कर मानव,

संजोए रखना है इसे,

एक रिश्ता है प्रभु के साथ भी,

मत भूलना कभी भी…

कर्मो का लेखा कर भेजता है,

मत डर चैतन्य प्रभु से,

डरना है सही अर्थों में…

अपने बुरे कर्मों से,

हर बात का है लेखा-जोखा,

अंतर्यामी है प्रभु,

ज्ञात है हर अंतःस्थ की बात,

एक अटूट रिश्ता बना उससे,

एक पूजा का रिश्ता,

नहीं उम्मीद उसे पूजा की भी

बस मात्र दिल से पुकार,

रिश्ता दो तरह का है होता,

दिल और खून का…

स्वयं में परिपूर्ण होकर,

निभाना है हर रिश्ता,

रिश्ता होता है अनंत,

बना एक गहरा रिश्ता,

मत उलझ रिश्तों के ताने-बाने में,

काँटों का होना है स्वाभाविक,

फूल की कोमलता का,

पता कैसे चलता?

हम कठपुतली है

खेल रहा मात्र ईश्वर,

प्रभु को पुकार,

नहीं छोड़ेगा साथ कभी

साथ देगा वह निरंतर

बुरे या अच्छे कर्मों को

निभाता है वह मात्र वह

कीचड़ में कमल की…

तरह रहना है मानव !

एक दृढ़ रिश्ता बनाना,

परवरदीगार से…

रखवाली करता हर इन्सान की,

धानी का रंग भर देता,

जिंदगी में भरोसा कर,

प्रेम ईश्वर से कर,

कभी स्वयं न दूर करेगा,

हर मुश्किल में थामेगा हाथ,

आगे बढ़ मत सोच,

इतना किसी भी…

रिश्ते के बारे में,

मत पूछ क्या कहलाता है,

यह रिश्ता….

बस निभाता चला जा राही,

न तेरा न मेरा हम सबका,

रिश्ता है अनमोल।

© डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’

संपर्क: प्राध्यापिका, लेखिका व कवयित्री, हिन्दी विभाग, नोबल कॉलेज, जेपी नगर, बेंगलूरू।

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 62 – चातक व्रत का वरण किया है… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – चातक व्रत का वरण किया है।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 62 – चातक व्रत का वरण किया है… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

शायद तुमने स्मरण किया है 

रातों को जागरण किया है

*

कुशगुन के करील क्यों आये 

जब शुभ हस्तांतरण किया है

*

था सुखान्त सम्पूर्ण कथानक 

क्यों दुखान्त संस्करण किया है

*

यह वक्रोक्ति समझ ना आये 

कठिन, प्रणय व्याकरण किया है

*

परकीयक आरोप मढ़ो मत 

चातक व्रत का वरण किया है

*

पल में, पिघल जाएगा, जो यह 

पत्थर अंतःकरण किया है

*

मैं रूठा, तो पछताओगे 

अब तक तो संवरण किया है

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 136 – मनोज के दोहे ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता “मनोज के दोहे। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 136 – मनोज के दोहे ☆

ओजस्वी नेता अटल, वक्ता थे अनमोल।

श्रोता सुनकर कह उठें, अदभुत है हर बोल।।

जब आए संज्ञान में, गलत काम को छोड़।

सही राह पर चल पड़ो, जीवन का रुख मोड़।।

 *

प्रभु का यही विधान है,करिए सदा सुकर्म ।

फल मिलता अनुरूप है, गीता का यह मर्म।।

 *

सोच सकारात्मक रखें, जिससे मिलती राह।

हार न मिलती है कभी, जग में होती वाह।।

 *

करते अध्यवसाय जब, मिले सफलता नेक।

जीवन का यह सत्य है, उन्नति सीढ़ी एक ।।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – चुप्पी – 25 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि –  चुप्पी – 25 ? ?

(लघु कविता संग्रह – चुप्पियाँ से)

तुम्हारा चुप

मेरे चुप से

अलग है,

मुझे लगा

वह रक्त की लालिमा

और जल की प्रवहनीयता पर

प्रश्न उठा रहा है।

© संजय भारद्वाज  

प्रातः 10:03 बजे

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ आषाढ़ मास साधना ज्येष्ठ पूर्णिमा तदनुसार 21 जून से आरम्भ होकर गुरु पूर्णिमा तदनुसार 21 जुलाई तक चलेगी 🕉️

🕉️ इस साधना में  – 💥ॐ नमो भगवते वासुदेवाय। 💥 मंत्र का जप करना है। साधना के अंतिम सप्ताह में गुरुमंत्र भी जोड़ेंगे 🕉️

💥 ध्यानसाधना एवं आत्म-परिष्कार साधना भी साथ चलेंगी 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 198 – नया शब्द संदर्भ… ☆ स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपका भावप्रवण कविता – नया शब्द संदर्भ।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 198 – नया शब्द संदर्भ… ✍

(काव्य-संग्रह ‘संभावना की फसल’ से)

शायद, शब्दावलियों को

पीलिया हो गया है।

शब्दों का वर्चस्व

जाने कहाँ खो गया है!

 

लगता है

बुरे माहौल ने

शब्दों की आदत बिगड़ दी है –

अब अच्छे नहीं हैं उनके लच्छन।

अब नहीं बना पाएंगे

शब्दों के महल

मैं, भवानी मिश्र या कि बच्चन।

 

हाय !

कैसा हो गया है

इस दुनिया का चलन,

वो चल ही नहीं पाता

कि जो नहीं है बदचलन ।

 

सुना है –

दक्षिण अफ्रीका और वियतनाम में

फरिश्तों के स्कूल खुल गए हैं

सुना है –

पड़ोसी देशों के कुछ आदमी (?)

शब्दावलियों का सतीत्व भंग करने पर

तुल गए हैं।

© डॉ राजकुमार “सुमित्र” 

साभार : डॉ भावना शुक्ल 

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – चुप्पी – 24 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि –  चुप्पी – 24 ? ?

(लघु कविता संग्रह – चुप्पियाँ से)

आज फैसला

हो ही जाए,

चलो

अदल-बदल लें

अपनी चुप्पी,

पर असीम को

सीमाबद्ध कैसे करेंगे?

© संजय भारद्वाज  

प्रातः 10:01 बजे

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ आषाढ़ मास साधना ज्येष्ठ पूर्णिमा तदनुसार 21 जून से आरम्भ होकर गुरु पूर्णिमा तदनुसार 21 जुलाई तक चलेगी 🕉️

🕉️ इस साधना में  – 💥ॐ नमो भगवते वासुदेवाय। 💥 मंत्र का जप करना है। साधना के अंतिम सप्ताह में गुरुमंत्र भी जोड़ेंगे 🕉️

💥 ध्यानसाधना एवं आत्म-परिष्कार साधना भी साथ चलेंगी 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 198 – “जो झुके नहीं किंचित…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत जो झुके नहीं किंचित...)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 198 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

☆ “जो झुके नहीं किंचित...” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी 

यादें सिर्फ नहीं है यादें

साँसे होती हैं

और जिन्दगी के

परिचय की आसें होती हैं

 

जहाँ एकजुट होकर

शंकायें थमती जाती

जितना जितना सुलझाओ

उतना ही उलझाती

 

मनके तेज दौड़ते

घोड़ों को वश में करने

खींचो सदा नियंत्रण को

जो रासें होती हैं

 

देख रहे हो गति के

भूगोलों की दुर्घटना

कभी लुम्बनी मे या

राँची में या फिर पटना

 

कभी बहुत धीमें से

हाथों चुभी हुई होतीं

साला करती जो रह रह

कर फाँसें होती हैं

 

बड़े बड़े शूरमा यहाँ

आये और चले गये

रौंद गये सभ्यता संस्कृति

हम सब छले गये

 

फिर भी कुचले जाने पर

जो झुके नहीं किंचित

वही दूब की वंशज

हरियल घासें होती हैं

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

04-07-2024

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares