हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 37 ☆ बुंदेली गीत – बड़ो कठिन है बुजर्गों को समझावो …. ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत है  श्री संतोष नेमा जी  का  “बुंदेली गीत – बड़ो कठिन है बुजर्गों को समझावो …. ”। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार  आत्मसात कर सकते हैं।) 

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 37 ☆

☆ बुंदेली गीत – बड़ो कठिन है बुजर्गों को समझावो .... ☆

 

कोरोना खों समझ ने पा रए का हुई है

परे परे कछु भव बतिया रए का हुई है

 

सरकार कहत रखो दो गज दूरी

गइया से जबरन रंभा रए का हुई है

 

निकर निकर खें घर सें बाहर झाँखे

हाथ धोउन में शरमा रए का हुई है

 

बऊ खुदई लगीं दद्दा खों समझावें

दद्दा बऊ को आँख दिखा रए का हुई है

 

हमने कही सोशल डिस्टेंस बनाओ

सुनतई सें हम खों गरया रए का हुई है

 

बतियाबे खों अब कौनउ नइयाँ

पूछत हैं सब कहाँ हिरा गए का हुई है

 

बड़ो कठिन है बुजर्गों को समझावो

सांची हम”संतोष” बता रए का हुई है

 

जीवन में गर चाहिए, सुख समृद्धि “संतोष”

माटी से नाता रखें,  माटी जीवन कोष

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मो 9300101799

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हिन्दी साहित्य – कविता / गीत ☆ अभिनव गीत ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत है। पत्रकारिता, जनसंचार, दूर शिक्षा एवं मानवाधिकार में शिक्षित एवं दीक्षित यह रचनाकार 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक “अभिनव गीत”।)

 || अभिनवगीत ||

विरहाकुल कनखियाँ

ढूँड रहीं अपनापन और में

कुंतल के कानन से,

दिखतीं कुमकुम रेखें

पहली ही गौर में

 

दहक रहे होंठों के

किंचित नम हैं पलाश

काली इन भौहों में

गुम सा गया प्रकाश

 

कमतर कुछ भी नहीं

चेहरे के मानचित्र

कोयल छिप जाती ज्यों

आमों के बौर में

 

बदली भरे जल को

उमड़ती घुमड़ती सी

साँसों में अटकी है

आह एक उड़ती सी

 

बहती है नर्मदा

सतपुड़ा की बाहों से

कुंठित सारे मुमुक्षु

सूखे के दौर में

 

आधी है ओट और

आधे में है पहाड़

फूले वैसाख- जेठ

रोके जबरन अषाढ़

 

वाट में पपीहे की

सूख रही टिटहरी

जैसे छोटी बहू

नई -नई पौर में

 

© राघवेन्द्र तिवारी

08-05-2020

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-112, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

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