हिन्दी साहित्य – ☆ जीवनयात्रा ☆ मेरी सृजन-यात्रा – भाग – 2 ☆ श्री भगवान वैद्य ‘प्रखर’

श्री भगवान वैद्य प्रखर

(हम स्वयं से संवाद अथवा आत्मसंवाद अक्सर करते हैं किन्तु, ईमानदारी से आत्मसाक्षात्कार अत्यंत कठिन है। प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री भगवान् वैद्य “प्रखर” जी का आत्मसाक्षात्कार दो भागों में।)

☆ जीवनयात्रा ☆ मेरी सृजन-यात्रा  – भाग – 2 ☆ श्री भगवान वैद्य ‘प्रखर’☆

प्रश्न: पहली रचना किस विधा में प्रकाशित हुई?

उत्तर:  लेखन आरंभ हो चुका था। यहां-वहां रचनाएं प्रेषित की जाने लगी थीं। इन्हीं में से ‘रचना’ शीर्षक कविता ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ के 1 जुलाई 1973 के अंक में प्रकाशित हुई। यही थी प्रथम प्रकाशित रचना।

प्रश्न : विभिन्न विधाओं में आपकी एक हजार से अधिक रचनाएं स्थानीय से लेकर राष्ट्रीय-स्तर की पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। यह आपके लिए कैसे संभव हो पाया? क्या संपादकों के साथ व्यक्तिगत संपर्क, वरिष्ठ लेखकों की सिफारिश या किसी और माध्यम से? आपका उत्तर निश्चित ही नये लेखकों के लिए मार्गदर्शक साबित होगा।   

उत्तर: यह आपने अच्छा प्रश्न किया है। आपको बता दूं कि मैं रचना-प्रकाशन के संबंध में आजतक किसी भी संपादक से नहीं मिला।न ही मैंने कभी किसी को उसके लिए फोन किया। मैं लिखताहूँ। रचना किस पत्र-पत्रिका में प्रकाशन-योग्य है, यह विचार करता हूँ और डायरी में नोट करके रचना प्रेषित कर देता हूँ। अपेक्षित अवधि में अगर कोई सूचना नहीं मिली (पहले जवाबी पोस्ट-कार्ड लिखकर  जानने का चलन था। आजकल ‘मेल’ या फोन करता हूँ।) तो रचना अन्यत्र प्रेषित कर देता हूँ। मेरा मानना है, रचना में अगर दम है तो वह पत्र-पत्रिका में खुद अपनी जगह बना लेती है। हां, प्रत्येक पत्र-पत्रिका की अपनी विचारधारा होती है जिससे वाकिफ़ होना जरूरी होता है। इस कारण कभी कोई रचना सामान्य पत्रिका में अस्वीकृत हो जाती है जबकि वही रचना राष्ट्रीय- स्तर की पत्रिका में स्वीकृत हो जाती है। संक्षेप में, आप हिंदी-भाषी हैं, हिंदीतर-भाषी हैं, प्राध्यापक हैं, डॉक्टर हैं या यह सबकुछ नहीं है- यह कुछ माने नहीं रखता। आपकी रचना देखी जाती है और चुनी जाती है। धर्मयुग, साप्ता. हिन्दुस्तान, सारिका, कादम्बिनी से लेकर स्थानीय अखबार तक के बारेमें मेरा यही अनुभव रहा है।                                         

प्रश्न: आपकी रचना-प्रक्रिया कैसी होती है?

उत्तर:  कोई तामझाम नहीं। जब, जहां, जैसे बन पड़ा, लिख लेता हूँ। मन में जब कभी कोई बिम्ब उभरता है तब चलते-फिरते कहीं नोट करके रख लेता हूं।- लेखन के लिए अधिक समय मिलना चाहिए इस कारण भारतीय जीवन वीमा निगम के शाखा प्रबंधक पद से चार साल शेष थे तब सेवा-निवृत्ति ले ली थी। लेकिन लेखन को प्रथम प्राथमिकता कभी न दे सका। आज तक भी नहीं। पहले नौकरी प्रथम क्रमांक पर रही । अब परिवार है, गृहस्थी है, मित्र हैं,सामाजिक दायित्व है । इन सबके बाद समय मिले तब साहित्य-सृजन है। इस कारण लेखन का कोई निश्चित समय नहीं है। जब संभव हो, राइटिंग-पैड लेकर बैठ जाता हूँ। अब लैप-टॉप है। फिर कोई काम आया कि उठ जाताहूँ। मैं नियमित दिनचर्या में विश्वास रखता हूँ। देर तक जाग नहीं सकता। छात्र-जीवन में भी समय पर सो जाता था। जाहिर है, रचना कई-कई बैठकों में पूरी होती है।

प्रश्न: कोई रचना एक बार में लिख लेते हैं या बार-बार सुधार आवश्यक होता है?

उत्तर: रचना पूरी लिख लेने के बाद उसे कई बार पढ़ता हूँ। कम-अज-कम तीन -चार प्रारूप तो बनते ही हैं। उठते -बैठते मंथन जारी रहता है। सटीक और परिष्कृत शब्द की खोज की धुन अहर्निश सिर पर सवार रहती है। अंतिम प्रारूप के बाद विंडो-ड्रेसिंग। संदेहास्पद हिज्जों की जांच। यह सब होने के बाद कुछ दिनों के लिए ‘रचना’ को भूल जाताहूँ। (अगर कहीं प्रेषित करने की जल्दी न हो तो) एकाध सप्ताह बाद फिर रचना को पढ़ता हूँ लेकिन अबकी अपने नहीं अपितु पाठक /संपादक के नजरिये से। आवश्यकता महसूस हुई तो फिर कोई संशोधन। इसके उपरांत रचना अंतिम रूप से तैयार हो जाती है।बा-कायदा लिफाफा तैयार होता है। जांच-पड़ताल करके पता लिखा जाता है। स्वयं जाकर पोस्ट कर आता हूँ। इसलिए शायद ही कभी ऐसा हुआ हो कि मैंने रचना पोस्ट की और अपने पते पर नहीं पहुंची। आजकल एक सुविधा हो गयी है। लिफाफे की जगह वैट्‍स-अप अथवा ‘मेल’ ने ले ली है।       

प्रश्न: आपके अबतक 4 व्यंग्य -संग्रह, 3 कहानी-संग्रह, 2-2 लघुकथा और कविता-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। 35 कहानियों सहित मराठी की छह पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद किया है। अर्थात इन सभी विधाओं में आपका उल्लेखनीय योगदान है। इस कारण जानना चाहेंगे कि इन में से किस विधा के साथ अपने आप को सर्वाधिक सम्बद्ध पाते हैं अर्थात अपने आपको किस रूप में पहचाना जाना पसंद करेंगे? व्यंग्यकार, कहानीकार, कवि, लघुकथाकार, अनुवादक या कुछ और?

उत्तर: जो लिख चुका, वही सबकुछ नहीं है। इसलिए वह मेरी पहचान नहीं बन सकता। एक उपन्यास- लेखन की कल्पना मन में है। आत्मकथा की शुरुआत कर चुका हूं। कुछ रेखा-चित्र लिखने हैं। अनुवाद -कार्य अभी संपन्न नहीं हुआ है। इसलिए कह नहीं सकता कि कौन-सी विधा मेरी पहचान बनेगी। आरंभ में जरूर ‘व्यंग्यकार’ के रूप में जाना जाता था। इसलिए जब कोई ‘परिचय’ पूछता है तो ‘साहित्यकार’ या ‘लेखक’  बतलाता हूं।   

प्रश्न: आप विगत 48 वर्षों से लेखन-प्रकाशन से सम्बद्ध हैं। समय के साथ इस क्षेत्र में क्या बदलाव महसूस करते हैं?

उत्तर: वर्तमान समय में सुविधाएं बहुत हो गयी हैं। पहले हाथ से लिखते थे। सुधार के बाद  सिरे से ड्राफ्ट कॉपी करना पड़ता था। कार्बन रखकर प्रतियां निकालते थे। फिर टाईप- मशिनें आ गयीं । अब लैप-टॉप/ पी.सी. पर सब काम होता है। जो चाहे, जितनी बार चाहे, सुधार कर लो। एक क्लिक के साथ प्रिंट- आउट निकल आता है।

प्रश्न : यह तो हुआ लेखकीय- स्तर पर बदलाव। प्रकाशन -स्तर पर क्या बदलाव महसूस करते हैं?

उत्तर:  बदलाव महसूस हो रहा है, संवाद में। लेखक-संपादक अथवा लेखक -प्रकाशक में संवाद की कमी हो गयी है। जितने संवाद के साधन बढ़ गये उतना संवाद का अकाल पड गया। धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान , कादम्बिनी, सारिका समान पत्रिकाओं से भी एक रचना के संबंध में चार-चार बार संवाद हो जाता था। पहले स्वीकृति-पत्र, अगर रचना ‘विचारार्थ-स्वीकृत’ है तो पत्र, किस अंक में आ रही है उसकी बा-कायदा सूचना, छपने पर अंक, फिर पत्र के साथ चेक या मनी आर्डर । किसी कारण से रचना में सुधार वांछित हो तो टिप्पणी के साथ रचना वापिस । सुधार के साथ भेजने पर स्वीकृति -पत्र आ जाएगा। नवभारत- टाइम्स को प्रेषित कहानी की लंबाई अधिक थी। विश्वनाथ जी ने कौन-सा हिस्सा कम किया जा सकता है, इस सुझाव के साथ रचना वापिस की । सुधार करके भेजने पर तुरंत छप गयी। रमेश बतरा जी की दृष्टि में  लघुकथा उत्कृष्ट होने के बावजूद उसकी लंबाई किस प्रकार बाधा बनी हुई है, यह टिप्पणी लिखकर रचना वापिस की। ‘धर्मयुग’ में व्यंग्य स्वीकृत हुआ। बा-कायदा स्वीकृति पत्र आया। उसके बाद ‘क्यों लौटाना पड़ रहा है’ इस मजबूरी को व्यक्त करते पत्र के साथ रचना वापिस आयी। …संपादक बदलने के बाद नये संपादक का अपने लेखकों से जुड़ने के लिए रचना आमंत्रित करता हुआ पत्र। -यह गुजरे जमाने का पत्र-व्यवहार अब  ‘धरोहर’ बन कर फाइलों की शोभा बढ़ा रहा है।

आजकल ‘रचना के साथ ‘वापसी के लिए टिकट लगा लिफाफा’ भेजने का चलन लगभग बंद हो गया है। ‘डाक’ की बजाए ‘मेल’ या ‘वैट्स-अप’ का चलन बढ़ रहा है। बहुत कम पत्र-पत्रिकाएं स्वीकृति/ अस्वीकृति की सूचना देना जरूरी समझती हैं। रचना प्रकाशन हेतु संबंधित पत्र-पत्रिका की सदस्यता की अनिवार्यता का चलन बढ़ रहा है। पारिश्रमिक देनेवाली पत्रिकाएं वार्षिक शुल्क काटकर पारिश्रमिक दे रही हैं। -लेकिन इन सब बातों के अलावा इधर एक अच्छी बात देखने को मिल रही है। बीच में एक कालखण्ड ऐसा आया जब लघु -पत्रिकाओं का अस्तित्व खतरे में पड़ता नजर आ रहा था। लेकिन अब संख्या बढ़ रही है और लघु- पत्रिकाएं साहित्य-सृजन के क्षेत्र में बहुत अच्छी और महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं।              

प्रश्न: पुराने और नये लेखकों में क्या बदलाव महसूस करते हैं?

उत्तर:  पुराने लेखक सृजन में अधिक विश्वास करते थे। उनकी प्रतिबद्धता लेखन के प्रति होती थी। उत्कृष्ट लेखन किस प्रकार होगा, इसकी चिंता लगी रहती थी। उपलब्धि क्या होगी इस ओर ध्यान न था। नया लेखक व्यावहारिक है। लिखते समय सोचता है, इससे मुझे क्या उपलब्ध होगा? किस प्रकार लिखने से छपेगा? कहां छपने से पारिश्रमिक मिलेगा? पुस्तक छपी तो पुरस्कृत कैसे होगी? कभी-कभी लगता है, उनका इस प्रकार सोचना गलत नहीं है। पहले  ‘लेखक’ को समाज में प्रतिष्ठा थी । सम्मान था। सम्मानित व्यक्ति के शब्द को कीमत थी। अब धन सर्वोपरि हो गया हो गया है। समूची व्यवस्था ही बदल गयी है। सम्मान के, संबंधों के मानदण्ड बदल गये हैं। समाज का कोई घटक इससे अछूता न रहा। लेखक भी नहीं।   

प्रश्न: आपके लेखन को जो महत्व मिला या मिल रहा है, क्या आप उससे संतुष्ट हैं?

उत्तर: जी, सबसे पहले तो मैं यह स्पष्ट कर दूं कि मैं लेखन के प्रति प्रतिबद्ध हूं न कि पुरस्कार, सम्मान या और किसी और प्रकार के महत्व के प्रति। उसके बावजूद मैं यह कहना चाहता हूं कि मुझे जो कुछ  मिला और मिल रहा है उससे मैं पूरी तरह संतुष्ट हूं।  आप विचार कीजिये कि मैं हूं क्या? चलिये, एक वाकया बतलाता हूं। केंद्रीय हिंदी निदेशालय का हिंदीतर भाषी -हिंदी लेखकों के लिए एक पुरस्कार है, एक लाख रुपयों का। उसकी पुस्तक मूल्यांकन- समिति पर सदस्य के रूप में मेरा चयन हुआ था, वर्ष 2012 से 2014 के लिए। निदेशालय में बैठक आयोजित थी। दोपहर में भोजन के दौरान वहां के एक वरिष्ठ अधिकारी से यूं ही पूछ लिया, ‘सर, इससे पूर्व तीन मर्तबा बायो-डाटा मँगवाया गया लेकिन चयन नहीं हुआ था।क्या कारण रहा होगा, जान सकता हूं?’ उत्तर मजेदार था। कहने लगे, ‘प्रखर जी, आपका सरनेम है, वैद्य। निखालस महाराष्ट्रीयन। मातृभाषा, मराठी। निवास, महाराष्ट्र में। नाम के आगे न ‘डॉ.’ लगा हुआ है न प्रा. (डॉक्टर या प्राध्यापक) पढ़ाई देखो तो महज बी. ए.। अच्छा, नौकरी भी हिंदी-अध्यापक या प्रशिक्षक आदि नहीं। मतलब प्राइमा-फेसी ‘हिंदी के विद्वान या जानकार’ जैसा कुछ नहीं। अर्थात जब तक पूरा चार पेज का बायो-डाटा न पढ़ो तब तक पता ही नहीं चलता कि  आपका  हिंदी में क्या कुछ योगदान है? और यहां तो ‘प्रा.’ और ‘डॉ.’ की लाइन लगी रहती है?’ -ऐसी स्थिति में आप ही बतलाइए कि मुझे जो मिला वह क्या कम है? एक और रहस्य है। मैंने पाया कि मुझे जो,जब मिलना है, उसके लिए अपने- आप संयोग बन जाता है। मेरा  ‘कथादेश’ का वार्षिक-शुल्क कब का समाप्त हो चुका था फिर भी पता नहीं कैसे, अचानक डाक में एक अंक आ गया। उसमें ‘आर्य-स्मृति साहित्य सम्मान 2018’ का विज्ञापन था। मैंने रचनाएं भेजीं और पुरस्कार मिल गया।मैं आज भी सोचता हूं, ‘कथादेश’ का वह अंक मुझे कहां से और कैसे आ गया था?

प्रश्न: पाठकों की प्रतिक्रिया के बारे में आपकी क्या राय है?             

उत्तर: भांति-भांति के पाठक मिले। हर वर्ग के, हर आयु के , हर क्षेत्र के। और विभिन्न भाषाओं के भीं। इन सब के इतने प्यारे अनुभव हैं कि बयान करने के लिए एक किताब ही लिखनी पड़ेगी। केवल दो-एक का ही उल्लेख करना चाहता हूं। एक दिन सुबह-सुबह लैण्ड-लाइन पर फोन आया। कहा गया, ‘मैं  न्यूजीलैण्ड के ऑकलैण्ड से मि. कोंडल बोल रहा हूं।’ मैं समझा, कोई मजाक कर रहा है। लेकिन बार-बार दोहराने पर मैंने कहा, ‘चलो, मान लेते हैं।आगे बोलिए।’ अब वे मेरे कहानी-संग्रह ‘चकरघिन्नी’ की कहानियों के नाम बतलाने लगे। जो कहानियां पढ़ ली थीं,उनके बारेमें बतलाने लगे। मैंने उनसे पूछा, आपको किताब कहां से मिली तो बतलाया गया कि वहां की स्टेट -लाइब्रेरी से। उसके बाद मि. और मिसेज कोण्डल दोनों कहानियां पढ़ते और फोन पर देर तक बतियाते रहते। यह सिलसिला कई दिनों तक चलता रहा। उनसे खासी मित्रता हो गयी। मैंने अपनी कुछ और पुस्तकें उनके पतेपर भेजीं। बाद में प्रकाशक से पता चला कि सरकारी खरीद में ‘चकरघिन्नी’ की कुछ प्रतियां विदेश भेजी गयी थीं उन्हीं में से एक न्यूजीलैण्ड पहुंच गयी थी।      

एक और वाकया सुनिये । मेरी एक कहानी है, ‘स्लेट पर उतरते रिश्ते।’ नागपुर के दैनिक ‘लोकमत समाचार’ के साहित्य परिशिष्ट में प्रकाशित हुई। अगले दिन एक प्रतिष्ठित प्राध्यापक हाथ में वह अखबार लेकर सुबह-सुबह घर पहुंच गये। गुस्से में भुनभुनाते हुए। कहने लगे, ‘आप यह बतलाइए कि मेरे घर की यह बात आप तक कैसे पहुंची? मैं हतप्रभ! कुछ समय तक बातचीत के बाद वे सामान्य हो गये और देर तक कहानी की प्रशंसा करते रहे।

‘जिज्ञासा’ कहानी में  एक दिव्यांग बालिका निन्नी अपनी दीदी से छतपर बने पानी के टाँके में तैरती सुनहरी मछली के क्रियापलाप के बारेमें सुनकर मछली देखने के लिए बेताब हो उठती है। उसकी तीव्र जिज्ञासा उसे अगले दिन अल्स्सुबह घर के भीतर बनी सीढ़ियां चढ़कर छतपर पहुंचा देती है। ‘क्या सचमुच वह अपने पोलिओग्रस्त पैरों से ऐसा कर पायी?’ वस्तुस्थिति जानने और निन्नी को देखने की इच्छा रखने वाले पाठकों के कितने फोन, कितने दिनों तक आते रहे, क्या बतलाऊं?

ऐसे हर कहानी, हर लघुकथा ने कितने ही पाठक जोड़े हैं। मैं अपनी कहानी के पात्रों के नाम भूल जाता हूं लेकिन पाठक याद दिला देते हैं तो कहानी का संसार जी उठता है और लेखन के लिए मिलती है नयी ऊर्जा।

प्रश्न:अच्छा हम लोग बातचीत आगे जारी रखेंगे लेकिन जरा यह बतला दीजिए कि कोई रचना इतनी प्रभावशाली कैसे बनती हैं?

उत्तर: इसका एक रहस्य है। रहस्य यह है कि रचना में कोई बात तो ऐसी हो जो ‘सच’ हो। चाहे कितनी भी छोटी, एक बिंदू ही क्यों न हो, पर पूरी तरह ‘सच’ हो। यह ‘सच’ जितना पुख्ता होगा, जितना मजबूत होगा उतनी रचना  प्रभावशाली बनेगी।  पत्रकारिता के बारेमें  कहा जाता है कि पूरी रिपोर्ट में अगर एक छोटा-सा तथ्य भी गलत हो जाये तो पूरी रिपोर्ट की विश्वसनीयता समाप्त हो जाती है। साहित्यिक रचना में अगर एक छोटी-सी बात भी सत्य है तो वह पूरी रचना को प्रभावशाली बना देती है। एक और बात । रचना में कोई घटना, कोई तत्व ऐसा होना चाहिये जिससे पाठक लेखक के साथ  एकाकार हो जाये।अगर यह हो गया तो समझिए आपका लेखन सार्थक हो गया।     

प्रश्न:  क्या आप अपने बारेमें ऐसा कुछ बतलाना चाहते हैं जो मैंने नहीं पूछा।

उत्तर: हां। मैं यह बतलाना चाहता हूँ कि मुझसे किसी की झूठी प्रशंसा नहीं होती। न ही मुझे किसी की झूठी प्रशंसा अच्छी लगती है। मैं क्या हूँ, एक व्यक्ति के रूप में, लेखक के रूप में- यह मैं भलीभांति जानता हूँ। उसी नाप का तमगा बर्दाश्त करता हूँ। उससे अधिक किसी ने पहनाने की कोशिश की तो मैं असहज हो जाता हूँ।

मेरी एक आदत है, जो जानता हूँ कि अच्छी नहीं है। मैं किसी को हद से ज्यादा बर्दाश्त करता हूँ। इतना कि मुझे पीड़ा होने लगती है। लेकिन उसके बाद  भी अगर उस व्यक्ति में बदलाव नहीं आया तो मैं उस व्यक्ति से हमेशा के लिए संबंध तोड़ देताहूँ। इस कदर कि वह व्यक्ति मेरे लिए संसार से ‘कम’ हो जाता है।

प्रश्न: नवोदितों के लिए कोई संदेश?

उत्तर: क्या संदेश दूं? इतने साल से लिख रहा हूं पर अब भी स्वयं को नवोदित ही मानता हूं। नयी पीढ़ी प्रतिभाशाली है, ऊर्जावान भी है। पर ‘जल्दी’ में है। उसके पास न पढ़ने के लिए समय है न सहिष्णुता। आठ – दस रचनाओं में उसे वह सब चाहिए जो प्राप्त करने के लिए बरसों लग जाते थे। मेरे एक मित्र म. रा. हिन्दी साहित्य अकादमी के सदस्य थे। उनसे एक नये लेखक का फोन पर वार्त्तालाप मैंने सुना। कह रहा था, ‘मैंने अपना एक कविता -संग्रह अकादमी को पुरस्कार के लिए प्रस्तुत कर दिया है। आप  कुछ कीजिए कि उसे पुरस्कार घोषित हो जाये।’ मित्र उसे कई प्रकार से समझाने की कोशिश कर रहे थे। आखिर में, लेखक ने यहां तक कह दिया कि अगर आप पुरस्कार न दिलवा सके तो फिर आपके अपने शहर से ‘अकादमी के सदस्य’ होने का क्या लाभ? -यह है मानसिकता! सब कुछ तुरंत चाहिए। नहीं मिला तो जैसे सारी दुनिया ने उन पर अन्याय कर दिया! नहीं छपा, तो संपादक जैसे ‘शत्रु’ हो गया। -इस प्रकार की मानसिकता ‘साहित्य-सृजन’ ही नहीं अपितु किसी भी कला-क्षेत्र के लिए उपयुक्त नहीं है । ध्यान रहे, लेखकीय-कर्म जिम्मेवारी भरा कार्य है। साहित्य अंधेरे में रोशनी की तरह काम करता है।  वह समाज को बनाता भी है और बिगाड़ता भी है। दूसरी बात । लेखन के रास्ते पर जैसे-जैसे आगे बढ़ते हैं, रास्ता बजाए प्रशस्त होने के, संकरा होता जाता है। लेखक को अपने ही वर्ग के लोगों से जूझते हुए आगे बढ़ना होता है। उस समय केवल ‘परिश्रम’ हमारा साथ देता है। परिश्रम कोई विकल्प नहीं है। और है तो वह है, ‘कठिन परिश्रम।’ शब्द-सामर्थ्य और सम्प्रेषण-शक्ति में वृद्धि के लिए पठन-पाठन  और अभ्यास आवश्यक है। अंतत: यही कहना चाहूंगा कि जितना पढ़ेंगे, उतना बढेंगे। अपनी कलम पर भरोसा रखें, सब का एक समय आता है। साधना पूरी हो जाएगी तो मंजिलें  पता पूछते हुए खुद चली आएंगीं।

❐❐❐

© श्री भगवान वैद्य ‘प्रखर’

संपर्क : 30 गुरुछाया कालोनी, साईंनगर, अमरावती-444607

मो. 9422856767, 8971063051  * E-mail[email protected] *  web-sitehttp://sites.google.com/view/bhagwan-vaidya

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – जीवन-यात्रा ☆ आत्मसंवाद – लेखक हा आधी वाचक असावा लागतो…. – भाग 4 ☆ श्री आनंदहरी

श्री आनंदहरी

? आत्मसंवाद ? 

☆ लेखक हा आधी वाचक असावा लागतो…. – भाग 4 ☆ श्री आनंदहरि  

मी :-  चांगल्या साहित्याचा मानदंड काय आहे किंवा असावा असे तुम्हांला वाटते ?

आनंदहरी :-  मला वाटते चांगल्या वगैरे न म्हणता साहित्याचा मानदंड असे म्हणावे. साहित्यिक हा स्वांतसुखाय लिहितो असे म्हणतात आणि ते खरेही आहे. पण एकदा स्वांतसुखाय लिहून झाले की ते वाचकांचे होते. साहित्य हे वाचकाला वाचावेसे वाटणे, त्याने साहित्याशी एकरूप होणे, तद्रूप होणे हा म्हणजे वाचनियता हा साहित्याचा एकमेव मानदंड आहे असे मला वाटतं.. साहित्य आणि मानवी जीवनाचा विचार मनात येतो तेंव्हा मला चक्रधर स्वामींच्या हत्ती आणि आंधळ्यांची गोष्ठ आठवते.. साहित्य, मानवी जीवन हे हत्तीसारखे असते आणि आपण असतो पाहणारे, त्याचा अनव्यार्थ लावू पाहणारे, शोधू पाहणारे, त्या गोष्टीतील अंधांसारखे;  कारण आपण जे जीवन पाहतो, साहित्य वाचतो, लिहितो ते हिमनगाचे केवळ टोक असते. आणि शाश्वत निसर्ग आणि अशाश्वत माणूस याचा विचार करता ते तसे असणारही आहे.

मी:- तुमची साहित्य लेखनामागची भूमिका काय आहे ?

आनंदहरी :- फक्त साहित्यिक, विचारवंतांचीच नव्हे तर बहुतांशु व्यक्तींची विचार-आचाराची व्यक्तीगत अशी भूमिका असते, जी त्या व्यक्तीच्या संस्कारातून, वाचन, चिंतन, मननातून आणि भवतालीच्या स्थिती-परिस्थितीमुळे, सभोवती घडणाऱ्या घटना-प्रसंगामुळे निर्माण झालेली असते. प्रत्येक साहित्यिकाने स्वतःची अशी स्पष्ट भूमिका घेतलीच पाहिजे असे म्हणले आणि मानले जाते. आणि ते खरेही आहे. पण मला वाटते आपली जी भूमिका असेल तिच्या केंद्रस्थानी माणूस असायला हवा.. आणि ती भूमिका काळाच्या कसोटीवर प्रत्येकवेळी घासून पाहिली पाहिजे. काल घेतलेली भूमिका आज जर निरर्थक ठरत असेल तर आपल्या भूमिकेवर आपल्या मनात विचारमंथन होऊन ती जर त्याज्य ठरत असेल तर हटवादीपणाने किंवा स्वयंअहंकाराने त्या भूमिकेला चिकटून न राहता ती भूमिका बदलणे उचित व न्याय्य असते.

मी :- साहित्य आणि जात, धर्म, पंथ याबद्दल तुमचे विचार काय आहेत ? साहित्यिक म्हणून तुमची जबाबदारी काय आहे असे तुम्हाला वाटते.

आनंदहरी :- जात, धर्म, पंथ हे सारे मानवनिर्मित आहेत. समाजव्यवस्थेचा एक भाग म्हणून या साऱ्याची निर्मिती झालेली असते. जी व्यवस्था समाज एकसंघ ठेवण्यासाठी निर्माण झालेली असेल, समाजजीवन व्यवस्थित राहावे म्हणून निर्माण झालेली असेल ती परिवर्तनीय आणि लवचिक हवी, असायलाच हवी. त्यामुळे समाज विघटित होत असेल, विभागला जात असेल, समाजात प्रेमाऐवजी द्वेष निर्माण होत असेल तर ती व्यवस्था निश्चितच बदलायला हवी किंवा त्यागायला हवी. असे मला वाटते त्यामुळे मी ते सारे मानत नाही आणि त्यामुळेच माझ्या साहित्यात त्यांचे अस्तित्व नसते..

या साऱ्याचा माणसाच्या आस्तिकतेशी, नास्तिकतेशी संबंध नाही. मला तर वाटते प्रत्येकजण हा आस्तिकच असतो कारण त्याची कशा ना कशावर, कुणा ना कुणावर भक्ती ही असतेच. श्रद्धा असतेच. देवत्व हे काही मूर्तीतच शोधायला हवे, मानायला हवे किंवा प्रार्थनगृहातच जाणायला हवे असे नाही.  लहानपणापासून माझ्यावर जे संस्कार झाले त्यामुळे आणि नंतरच्या आयुष्यातील चिंतन, मनन या साऱ्यांमुळे मी आस्तिक आहे पण ही आस्तिकता अंध नाही. माझी श्रद्धा ही डोळस श्रद्धा आहे. माझी माणसांवर भक्ती आहे, माणुसपणावर श्रद्धा आहे. माझा पांडुरंग हा मंदिरात,किंवा मूर्तीत नाही. तर तो,

कर कटावरी नाही

 त्याच्या हाती असे जोत 

असा दुसऱ्यासाठी, दुसऱ्याच्या हितासाठी कर्म करत राहणारा आहे.

मला तर वाटते कोणताही विचार किंवा विचारधारा ही काळ आणि परिस्थितीसापेक्ष असते. ती जर कालानुरूप बदलत असेल तरच मानवाला उपयुक्त ठरते. अन्यथा ती त्याज्य ठरते याची जाणीव आपल्या मनात असायलाच हवी.

चिरकाल, कालातीत असे काहीच नसते.निश्चित असेही काही नसते.. ही अनिश्चितता तर आपण गेल्या वर्षा-दीड वर्षात अनुभवत आहोत.. तरीही आपल्याला सारे काही कळूनही वळत मात्र काहीच नाही.. ही खरोखरच गांभीर्याने विचार करण्याची गोष्ठ आहे. आपल्याला निसर्ग खूप काही शिकवत असतो. फक्त आपण आपला अहंकार, आपल्यातील ‘मी’ पण  सोडून देऊन ते समजून घ्यायला हवे.. मी’ पणा सोडल्याशिवाय आपण माणूस होऊ शकत नाही असे मला वाटते आणि हे सारे आपल्या साहित्यातून समाजात रुजवण्याची, समाजाच्या ध्यानात आणून देण्याची जबाबदारी प्रत्येक साहित्यिकाची आहे असे मला वाटते.

आत्मसाक्षात्कारच्या निमित्ताने मला माझ्या अंतर्मनात डोकावून पाहण्याची, स्वतःला जाणून घेण्याची संधी मिळवून दिली त्याबद्दल मी ई-अभिव्यक्तीच्या संपादकांचा आभारी आहे.धन्यवाद!

समाप्त

© श्री आनंदहरी

इस्लामपूर, जि. सांगली

भ्रमणध्वनी:-  8275178099

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – ☆ जीवनयात्रा ☆ मेरी सृजन-यात्रा – भाग – 1 ☆ श्री भगवान वैद्य ‘प्रखर’

श्री भगवान वैद्य प्रखर

(हम स्वयं से संवाद अथवा आत्मसंवाद अक्सर करते हैं किन्तु, ईमानदारी से आत्मसाक्षात्कार अत्यंत कठिन है। प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री भगवान् वैद्य “प्रखर” जी का आत्मसाक्षात्कार दो भागों में।)

☆ जीवनयात्रा ☆ मेरी सृजन-यात्रा  – भाग – 1 ☆ श्री भगवान वैद्य ‘प्रखर’☆

मैं कई बार, कई विषयों पर अपने-आप से अकेले में वार्त्तालाप  करता रहता हूँ। सलाह-मशविरा, जिरह करता हूँ, प्रश्न पूछता हूँ, खुद ही उत्तर देता  हूँ। पर यह कभी सोचा न था कि इस प्रकार की बातचीत में जो संवाद होता है, उसे कभी कागज पर उतारना पड़ेगा। सांगली की हमारी आत्मीय बहना, सुप्रसिद्ध मराठी लेखिका, यशस्वी अनुवादक सुश्री उज्ज्वला केळकर जी ने एक दिन दिलचस्पी दिखायी इस प्रकार की  ‘अपने-आप से बातचीत’ में और उसी का नतीजा है यह आत्म-साक्षात्कार:   

प्रश्न: ‘प्रखर’ जी, हाल ही में आपको हैदराबाद का ‘आनंदऋषि साहित्य निधि पुरस्कार’ घोषित हुआ है। सबसे पहले तो उसके लिए आप हार्दिक बधाई स्वीकार करें । साथही, जरा यह भी बतलाइए कि यह किस प्रकार का पुरस्कार है और उसका क्या स्वरूप है?

उत्तर: जी, धन्यवाद। हैदराबाद स्थित एक संस्था है, आचार्य आनंदऋषि साहित्य निधि संथा। यह संस्था  प्रतिवर्ष दक्षिण भारत के छह राज्य अर्थात महाराष्ट्र, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, केरल, कर्नाटक, तमिलनाडु, और गोवा तथा पुडुचेरी के हिंदीतर भाषी -हिंदी लेखकों में से किसी एक का चयन करके उन्हें उनके हिंदी साहिय-सृजन के लिए पुरस्कार देकर सम्मानित  करती है। आचार्य आनंदऋषि जी म.सा. की जयंती पर हैदराबाद में आयोजित समारोह में, इकतीस हजार की सम्मान राशि, दुशाला, मुक्ता-लड़ी, प्रशस्ति-पत्र प्रदान करके लेखक को समारोहपूर्वक गौरवान्वित किया जाता है। पुरस्कार के लिए संस्था द्वारा चुने गये विद्वानों से प्रस्ताव आमंत्रित किये जाते हैं जिनपर निर्णायकों की समिति द्वारा विचार-विमर्श करके निर्णय लिया जाता है। इसके पहले यह पुरस्कार 29 लेखकों को मिल चुका है जिनमें डॉ. बालशौरि रेड्डी, वसन्त देव, डॉ. शंकर पुणताम्बेकर, श्रीपाद जोशी, डॉ.सूर्यनारायण रणसुंभे, डॉ.दामोदर खड़से आदि शामिल हैं।

प्रश्न: आपको पुनश्च बधाई। प्रखर जी, आपको इससे पूर्व भी अनेक पुरस्कार मिले हैं जिनपर आगे बातचीत में चर्चा करेंगे ही पर पहले कुछ और विषयों पर चर्चा करते हैं।  

उत्तर: जी, अवश्य।

प्रश्न:  इधर कुछ दिनों से पत्र-पत्रिकाओं में आपकी लघुकथाएं लगातार छप रही हैं। दृष्टि, अविराम साहित्यिकी, कथादेश, हंस,लघुकथा डॉट कॉम, हिन्दी चेतना आदि में प्रकाशित आपकी लघुकथाएं खूब सराही गयी हैं। कुछ लघुकथाओं का मराठी में अनुवाद भी प्रकाशित हो चुका है। -तो सीधा प्रश्न यह है कि व्यंग्य, कहानी, कविता लिखते -लिखते आप अचानक लघुकथा में कैसे आ गये? 

उत्तर: ‘लघुकथा’ में मैं अचानक नहीं आया। आपको जानकर शायद आश्चर्य हो कि मेरी पहली लघुकथा ‘कवि(ता) और भविष्य’ दैनिक नवभारत, रायपुर के 20 दिसंबर 1973 के अंक में प्रकाशित हुई थी। मैं तबसे लघुकथाएं लिख रहा हूँ। सारिका(मार्च’1986), कादम्बिनी (अप्रैल’1986) में मेरी लघुकथाएं प्रकाशित हो चुकी थीं। -यही है कि लघुकथा मेरे लेखन की प्रमुख विधा न थी। इसी कारण 100 लघुकथाओं का पहला संग्रह ‘हजारों-हजार बीज’ दिशा प्रकाशन, दिल्ली से वर्ष 2002 में प्रकाशित हुआ। यानी उन्नीस वर्ष लग गये। उसके बाद दूसरा लघुकथा-संग्रह ‘बोनसाई’ वर्ष 2018 में किताब घर, दिल्ली से ‘आर्य-स्मृति साहित्य सम्मान’ का तमगा लेकर प्रकाशित हुआ। अर्थात अन्य विधाओं के साथ-साथ लघुकथा-लेखन जारी रहा। फर्क यही हुआ कि इन दिनों पूरा ध्यान लघुकथा-लेखन पर है।     

प्रश्न: इसका आप क्या कारण मानते हैं?

उत्तर: कारण यह है कि ‘आर्य-स्मृति साहित्य सम्मान’ प्रत्येक वर्ष किसी एक विधा की अखिल भारतीय -स्तर पर प्रविष्ठियां आमंत्रित करके चुनी गयी पुस्तक को दिया जानेवाला राष्ट्रीय सम्मान है। उसके लिए ‘बोनसाई’ के चुने जाने पर लघुकथा-जगत का ध्यान मेरी ओर आकर्षित हुआ।दिग्गज लघुकथा-लेखक, समीक्षक सम्पर्क में आएं। अनेक लघुकथा-संग्रह प्राप्त होने लगे। पूरी तरह लघुकथा के लिए समर्पित पत्रिकाएं डाक से घर आने लगीं। मेरी रचनाएं आमंत्रित की जाने लगीं। इस प्रकार अनायास मेरी पहचान लघुकथा -जगत से हो गयी।

प्रश्न: तो क्या अब आप अन्य विधाओं से विरत हो चुके हैं?

उत्तर: जी, ऐसा कहना उपयुक्त नहीं होगा। लेकिन यह मेरा स्वभाव रहा है कि किसी विधा में पूरे मन से जुड़ने के बाद मैं उसमें अपनी एक पहचान कायम करना चाहता हूँ।  व्यंग्य लिखने लगा तो लगभग 300 रचनाएं लिखीं। धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, रविवार, नवभारत टाइम्स, दैनिक हिन्दुस्तान समान राष्ट्रीय-स्तर की पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित हुईं। चार व्यंग्य-संग्रह प्रकाशित हुए।  नागपुर से प्रकाशित दैनिक ‘लोकमत समाचार’ में दो-वर्ष साप्ताहिक ‘व्यंग्य-कॉलम’ में योगदान दिया। व्यंग्य-संग्रह ‘बिना रीढ़ के लोग’ को भारत सरकार द्वारा राष्ट्रीय पुरस्कार देकर सम्मानित किया गया।- तीन कहानी-संग्रह प्रकाशित हुए हैं। हंस, कथादेश, शुक्रवार, जागरण सखि,भाषा, वर्तमान साहित्य ,साहित्य भारती, नवभारत टाइम्स, दै. हिन्दुस्तान आदि पत्र-पत्रिकाओं में कहानियां प्रकाशित हुईं। कहानी ‘ढोल बजाती शहनाइयां’ को  युद्धवीर फाउण्डेशन के तत्वावधान में, दैनिक मिलाप, हैदराबाद द्वारा आयोजित ‘अखिल भारतीय कहानी प्रतियोगिता’ में आंध्र-प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल, महामहिम डॉ. रंगनाथन जी के हस्ते प्रथम पुरस्कार (दि. 30.4.2002) प्राप्त हुआ। दो कहानी-संग्रह (1.सीढ़ियों के आसपास 2. चकरघिन्नी)को महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी द्वारा ‘मुंशी प्रेमचंद पुरस्कार’ प्रदान किया गया। – दो कविता-संग्रह हैं। उसमें से एक ‘अंतस का आदमी’ को म. रा. हिंदी साहित्य अकादमी द्वारा ‘संत नामदेव पुरस्कार’ से नवाजा गया।- मराठी की 6 (छह) पुस्तकों सहित 35 कहानियों का हिंदी में अनुवाद किया जो भारतीय ज्ञानपीठ, साहित्य अकादेमी, भारतीय भाषा परिषद, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, मध्य प्रदेश संस्कृति परिषद आदि प्रतिष्ठित संस्थाओं की पत्रिकाओं में प्रकाशित हुआ। अनूदित पुस्तक ‘धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे (प्रभात प्रकाशन से प्रकाशित)’ को म. रा. हिंदी साहित्य अकादमी द्वारा ‘मामा वरेरकर पुरस्कार’ प्रदान किया गया। – कहने  का मतलब इन विधाओं में मैंने अपना एक मक़ाम हासिल किया है।

प्रश्न : तो अब लघुकथा में आप क्या करना चाहते हैं? 

उत्तर: संक्षेप में कहूं तो कुछ लघुकथाएं ऐसी लिखना चाहताहूँ जिनसे इस विधा में मेरी अपनी अलग पहचान बनें।। ‘बोनसाई’ एक ‘मक़ाम’ जरूर है पर लगता है, अभी मेरी साधना अधूरी है। कुछ रचनाएं बनी हैं, बन रही हैं, प्रकाशित हो रही हैं, प्रशंसा भी पा रही हैं। लेकिन लगता है, अभी बहुत कुछ तराशना बाकी है।

प्रश्न:  इसके लिए आप क्या कर रहे हैं?’

उत्तर: इस विधा को समझने की कोशिश कर रहा हूँ। नयी-पुरानी अधिक से अधिक लघुकथाएं, समीक्षाएं पढ़ रहा हूँ। ‘दिशा प्रकाशन, दिल्ली’  द्वारा प्रकाशित लघुकथा के 25 खण्ड,डॉ. राम कुमार घोटड़ के विभिन्न संग्रह पढ़े। ख़लील जिब्रान, सआदत हसन मंटो, मुंशी प्रेमचंद, हरिशंकर परसाई, विष्णु प्रभाकर से लेकर वर्तमान स्थापित तथा नवोदित लघुकथाकारों की हजारों लघुकथाएं पढ़ीं और पढ़ रहा हूँ। सर्वश्री कमल किशोर गोयनका, शंकर पुणताम्बेकर, बलराम, बलराम अग्रवाल, अशोक भाटिया, सुकेश साहनी, सतीशराज पुष्करणा आदि के आलेख और समीक्षाएं पढ़ीं। एक और बात यहाँ बता दूं। मेरी साहित्य-यात्रा व्यंग्यकार के रूप में आरंभ हुई। चलते-चलते कहानी साथ हो ली। यदा-कदा कविता ने उंगली थामी। इन सबका साथ लेकर अब मैं लघुकथा को साधना चाहता हूँ और मुझे इसमें आशातीत सफलता मिल रही है।

प्रश्न: रचना के लिए विधा का चुनाव कैसे करते हैं?

उत्तर: रचना पहले एक बिम्ब के रूप में जेहन में उभरती है। उस पर अंतर्मन में चिंतन-मनन आरंभ होता है। आकार मिलने लगता है। इस बीच, उसके लिए कौन-सी विधा उपयुक्त होगी यह रचना खुद तय कर लेती है।

प्रश्न : लेकिन कविता बनेगी, लघुकथा लिखी जायेगी, कहानी लिखना चाहिये या व्यंग्य यह किस प्रकार तय होता है?

उत्तर: आपके पास कितनी जमीन है और उसकी कितनी उर्वरा-शक्ति है, इस पर यह निर्भर करता है कि आप कौन-सी फसल लेंगे। इसमें आपकी सृजन-क्षमता का महत्वपूर्ण ‘रोल’ होता है। किसी के हाथ काष्ठ का एक टुकड़ा पड़ जाए तो बैठे-बैठे उस पर किसी कील से लकीरें खींचकर स्वस्तिक बना देगा। वहीं कोई चित्रकार उस पर ‘युगल’ उकेर लेगा तो कोई ऐसा भी होगा जो उस पर पूरी वाटिका का चित्र बनाकर उसमें राम ,सीता का मिलन दर्शाएगा। इसी प्रकार किसी एक घटना पर कोई लेखक कविता या प्रभावशाली लघुकथा, दूसरा लेखक बढ़िया कहानी तो कोई और बृहद उपन्यास भी लिख सकता है।

प्रश्न: आपके मन में लेखन के लिए ये बिम्ब कैसे उभरते हैं?

उत्तर: आपने अच्छा प्रश्न किया है। बिम्ब हर चिंतनशील व्यक्ति के मन में उभरते हैं। लहरों की भांति। यही है कि जैसे हर लहर को किनारा नसीब नहीं होता उसी प्रकार प्रत्येक बिम्ब को आकार नहीं मिल पाता। अपनी बात कहूं तो, मेरा नाम है, भगवान वैद्य। मैं सांसारिक गतिविधियों में मगन एक सामान्य गृहस्थ हूँ। लेकिन मेरे भीतर एक और व्यक्ति है। उसका नाम है, भगवान वैद्य ‘प्रखर।’ यह अति संवेदनशील, चतुर्दिक आंखों वाला, औघड़ आदमी है। अपने-आप में मगन। उसे किसी से कुछ लेना-देना नहीं है। मुझसे भी नहीं। वह सोते-जागते अपना काम करता रहता है। यहां तक कि जब भगवान वैद्य ब्रश करते रहता है तब यह आदमी किसी अधूरी रचना के लिए बेहतर शीर्षक, पात्रों के बेहतर नाम या सटीक पर्यायी शब्द खोजता रहता है। मैं यानी भगवान वैद्य, जहां कहीं जाता हूँ, यह आदमी अदृष्य रूप में सदैव मेरे साथ रहता है और अपनी जमीन के लिए ‘बीज’ खोजता, बटोरता रहता है। बाद में, अकेले में मुझे सौंपता है। फिर हम दोनों एकाकार होकर अपनी चादर बुनते हैं। उसे आकार, रंग देते हैं।सजाते-संवारते हैं। एक और बात बतला देना चाहता हूँ। जब तक वह चादर पूरी नहीं होती तब तक यह आदमी ‘भगवान वैद्य’ को चैन से नहीं रहने देता, जीना हराम कर देता है।

प्रश्न: आपने ऊपर अनुवाद का जिक्र किया है। मौलिक साहित्य-सृजन करते-करते आप अनुवाद की ओर कैसे मुड़ गये?

उत्तर: यह एक रहस्य है। अंतर्मन में उपजी पीड़ा की सांत्वना का रहस्य। मैं मूलत: मराठी-भाषी हूँ। न केवल मेरी मातृभाषा मराठी है, मेरी मैट्रिक तक की शिक्षा का माध्यम भी मराठी ही रहा है। घर में मेरी भाषा मराठी (पत्नी के साथ हिंदी भी) है । नौकरी के लिए मुझे मध्य प्रदेश जाना पड़ा। वहां मराठी माध्यम में आगे पढ़ाई संभव न थी। दूसरा कारण यह था कि वहां के लोग मेरी हिंदी पर हँसते थे। इस कारण हिंदी सीखना जरूरी था। भोपाल बोर्ड से इंटरमीजिएट और जबलपुर विश्वविद्यालय से हिंदी माध्यम लेकर बी.ए. किया।  आस-पड़ोस, सहकर्मी, सब हिंदी भाषी थे। जब साहित्य- सृजन आरंभ  हुआ तो अहसास हुआ कि मैं अपनी भावनाओं को हिंदी में बेहतर सम्प्रेषित कर सकता हूँ। मातृभाषा में न लिख पाने का अफसोस था । कालांतर में, उसी की भरपाई करने के लिए विचार आया कि क्यों न मराठी का कुछ उत्कृष्ट साहित्य हिंदी में उपलब्ध कराया जाए!- इसी बात ने मुझे मराठी से हिंदी में अनुवाद-कार्य के लिए प्रवृत्त किया।

प्रश्न: साहित्य-सृजन के लिए कोई पारिवारिक पृष्ठभूमि न थी । भाषा अपनायी तो हिंदी अर्थात मातृभाषा से इतर। पढ़ाई मात्र स्नातक-स्तर तक। कार्य-क्षेत्र भी शिक्षा या साहित्य से जुड़ा हुआ नहीं । तब हिंदी में साहित्य -सृजन की प्रेरणा कहां से मिली?

उत्तर:  मध्य प्रदेश के पी.डब्लू.डी. विभाग का सब-डिविजन ऑफिस था, सौंसर(जिला-छिंडवाड़ा) में। वहां पहली नौकरी लगी। ऑफिस में ‘घरेलू लाइब्रेरी योजना’ के अंतर्गत हर माह ‘हिंद पॉकेट बुक्स’ की दस पुस्तकें आती थीं। लाइब्रेरी मेरे जिम्मे थी। धीरे-धीरे मैं हिंदी पुस्तकें पढ़ने लगा । रवीन्द्रनाथ टैगोर, शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय, बंकिमचंद्र, प्रेमचंद, आचार्य चतुरसेन,शिवानी आदि की पुस्तकों के पॉकेट-बुक्स संस्करण पढ़े। किताबें पढ़ने का चसका लग गया। 1965 में मैं जबलपुर चला गया, डाक-तार विभाग में। वहां पांच साल रहा। मेरे एक सहकर्मी साहित्यकार थे। उनसे मित्रता हो गयी। वे कहानियां लिखते थे। उनकी दृष्टि में, मेरे अक्षर अच्छे थे। वे मुझे अपनी कहानियां कॉपी करने के लिए दिया करते। (उन दिनों आज की तरह कम्प्यूटर आदि की सुविधा न थी और टाइप कराना महंगा पड़ता था।)  कुछ समय बाद मैं उनसे उनकी कहानियों पर चर्चा करने लगा। मुझे लगने लगा कि फलां कहानी कुछ और तरीके से भी लिखी जा सकती है। इस प्रकार सृजन का बीज अंकुरित होने लगा। इस बीच मैंने सुबह के कॉलेज में दाखिला लेकर बी. ए. कर लिया। जबलपुर में उन दिनों जबर्दस्त साहित्यिक माहौल था।सेठ गोविंद दास, नर्मदाप्रसाद खरे, ज्ञानरंजन, व्यंग्य-सम्राट परसाई जी आदि दिग्गजों की तूती बोलती थी। हिंदी के श्रेष्ठतम कवि काव्य -पाठ करने जबलपुर आया करते। मुझे भी लगने लगा कि कुछ लिखूं। लेकिन समय न था। सुबह कॉलेज, दिन भर ऑफिस।उसके बाद ओवर-टाइम। आधी तनख्वाह घर भेजना अपरिहार्य था। इस कारण ओवर-टाइम करना जरूरी था। अप्रैल 1971 में डाक-तार विभाग छोड़कर भारतीय जीवन बीमा निगम ज्वाइन कर लिया। पोस्टिंग मिली, भिलाई में। वहां मुझे पढ़ने-लिखने के लिए समय मिलने लगा।

लाइब्रेरी ज्वाइन कर ली। धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, सारिका, कादम्बिनी, कहानी, कहानीकार, निहारिका, दिनमान, माधुरी जैसी पत्रिकाएं घर में बैठकर इत्मीनान से पढ़ने लगा। नवभारत, देशबन्धु, नवभारत टाइम्स, युगधर्म आदि अखबारों के साहित्य-परिशिष्ट देखने लगा।। कुछ ही दिनों में,  इन्हीं में लिखने लगा।

क्रमशः …..

© श्री भगवान वैद्य ‘प्रखर’

संपर्क : 30 गुरुछाया कालोनी, साईंनगर, अमरावती-444607

मो. 9422856767, 8971063051  * E-mail[email protected] *  web-sitehttp://sites.google.com/view/bhagwan-vaidya

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – जीवन-यात्रा ☆ आत्मसंवाद – लेखक हा आधी वाचक असावा लागतो…. – भाग 3 ☆ श्री आनंदहरी

श्री आनंदहरी

? आत्मसंवाद ? 

☆ लेखक हा आधी वाचक असावा लागतो…. – भाग 3 ☆ श्री आनंदहरि  

मी :- तुम्ही कथा, कविता, कादंबऱ्या लिहिल्या आहेत.. आणखी काही लिहिले आहे का ? आणि ते कुठे कुठे प्रसिद्ध झाले आहे ?

आणि  तुम्ही यापैकी नेमक्या कोणत्या साहित्यप्रकारात जास्त रमता किंवा तुम्हाला स्वतःला कोणत्या साहित्यप्रकारात लिहायला जास्त आवडते ?

आनंदहरी :- खरे तर मी शब्दांत आणि माणसांत जास्त रमतो. मला वाटते वेगवेगळे साहित्यप्रकार ही फक्त वेगवेगळी रूपे आहेत याचा आत्मा एकच आहे. आपण व्यक्त होत असतो तेव्हा ते शब्दच स्वतःचे रूप घेऊन येत असतात असे मला वाटते. कथा, कविता, कादंबरी बरोबरच मी एकांकिका लिहिण्याचाही प्रयत्न केला.  मराठी- मालवणी बोलीत एक बाल एकांकिका लिहिली होती. ती मार्च २००७ च्या ‘किशोर ‘ मासिकात प्रसिद्ध झाली . ती एकांकिका सिंधुदुर्ग व रत्नागिरी जिल्ह्यातील काही शाळांमध्ये बसवण्यातही आली होती. अनेक मासिके, नियतकालिके अनियतकालिके, दीपावली अंक यामधून  तसेच काही वृत्तपत्रांच्या साप्ताहिक पुरवण्यांमधून साहित्य प्रसिद्ध झाले आहे. तसे मी फारसे काही लिहिले आहे असे मला वाटत नाही. पाऊलखुणा, वादळ आणि बुमरँग या तीन कादंबऱ्या, ‘ती’ची गोष्ट, राकाण हे दोन कथासंग्रह आणि तू.., कोरडा भवताल व काळीज झुला हे तीन कवितासंग्रह प्रसिद्ध झाले आहेत. स्वामी स्वरूपानंदाच्या ‘ श्रीमत् संजीवनी गाथा ‘ वरील लेखमाला, व अन्य साहित्य अद्यापि पुस्तकरूपात प्रसिद्ध झालेले नाही.

मी :- तुमचे साहित्य हे नकारात्मक, दुःखांत असते असे म्हणले जाते,त्याबद्दल काय सांगाल?

आनंदहरी :-  समाजाला वास्तवाची जाणीव करून देणे, भान देणे हे साहित्यिक, विचारवंत यांचे काम असते असे मला वाटते. वास्तव हे कधीच सकारात्मक किंवा नकारात्मक नसते तर ते फक्त वास्तव असते. पारतंत्र्यातील अन्याय, अत्याचार हे दुःखद होते ते वास्तव समजले नसते तर स्वातंत्र्याचा लढाच उभारू शकला नसता. वास्तव हे सुखद असो वा दुःखद असो ते तसेच मांडले गेले पाहिजे.. वास्तवाच्या यथार्थ जाणिवेतच क्रांतीची बीजे रुजतात असे मला वाटते.  साहित्यात कधी समस्या आणि समाधान ही मांडले पाहिजे हे ही खरे आहे पण समाजाला स्वयंविचारी बनवण्यासाठी वास्तवाची परखड जाणीवही करून दिली पाहिजे असे मला वाटते. माणसाच्या जीवनाला विविध रंग असतात, विभ्रम असतात. ते तसे साहित्यात यायला हवेत. माझ्या साहित्यात वास्तव लिहिताना कधी दुःखांत लिहिलं गेलं .. पण दुःखांत म्हणजे नकारात्मक नव्हे.. रात्रीच्या अंधारानंतर जसे उजाडते, विश्व प्रकाशित होते, तसेच दुःखानंतर सुख असते.. ‘ सुख-दुःख समे कृत्वा ‘ असे म्हणलं जातं.. पण आपण सामान्य माणसे त्यामुळे आपल्याला ते समान कसे भासेल? साहित्य हे जीवनस्पर्शी आणि जीवनदर्शी असते त्यामुळे साहित्यात सुख-दुःख येणार तसेच माणसाच्या मनातील सर्व भावभावना, षड्रिपु यांचा समावेश साहित्यात असणारच.. त्यामुळे माझ्या साहित्यात मन व्यथित करणाऱ्या  दुःखांत कथा आहेत तशाच हलक्या फुलक्या, मनाला आनंद देणाऱ्या, ताणमुक्त करणाऱ्या मिस्कील कथाही आहेत. 

मी :-  तुमच्या साहित्यकृतींना काही पुरस्कार मिळाले आहेत त्याबद्दल काय सांगाल?

आनंदहरी :-  पुरस्कार किंवा स्पर्धा या लेखनासाठी प्रेरणा देणाऱ्या असतात. आरंभीच्या काळात त्यांची आवश्यकता असते. माझ्या  कादंबऱ्यांना, कोकण मराठी साहित्य परिषदेचा कै. वि. वा. हडप कादंबरी पुरस्कार, नवांकुर पुरस्कार , चिं. त्र्यं.खानोलकर कादंबरी पुरस्कार, कवी अनंत फंदी पुरस्कार यांसारखे अनेक पुरस्कार मिळाले. त्यामुळे आनंद झाला, लिहीत राहण्याची प्रेरणा मिळाली. आरंभीच्या काळात प्रेरणा मिळण्यासाठी पुरस्कार हे मिळालेले चांगलेच पण पुरस्कार मिळाले तरच ते साहित्य चांगले असते असे मला वाटत नाही. वाचकांचे अभिप्राय, पोचपावती हा मोठा पुरस्कार असतो असे मला वाटते.

मी :- कोणते साहित्य हे चांगले,दर्जेदार साहित्य आहे असे तुम्हांला वाटते?

आनंदहरी :- अमुक एक साहित्य चांगले, दर्जेदार, अमुक हलके असे मी मानत नाही. कारण साहित्य हे समाजाचा, त्यातील व्यक्तींच्या जगण्याचा, त्यांच्या अनुभवाचा,अनुभूतीचा आणि त्यांच्या कल्पनाविश्वाचा आरसा असतो..आणि जीवन काही साचेबंद असत नाही.. ते इतकं वैविध्यपूर्ण आहे की, ते शब्दबद्ध करता येणं काहीसं अवघड आहे. जीवनाचे अनेक पैलू आहेत, असतात. भय हे माणसाच्या मनात, कल्पनेत असतेच मग भय, रहस्यमयता, गूढता हीसुद्धा मानवीजीवनाची अविभाज्य अंगे आहेत मग त्याचा अंतर्भाव असणारे साहित्य हे साहित्य नव्हे काय ? बाबुराव अर्नाळकर यांच्या रहस्य कथांनी, साहित्याने अनेक पिढ्यांना वाचनाची गोडी लावली, ओढ लावली, सवय लावली त्यांना साहित्यिक मानले जात नाही. जगदीश खेबुडकर यांसारख्या दिग्गज गीतकार, कवीला साहित्यिक मानले जात नव्हते ( नाही ) असे जेव्हा ऐकायला,वाचायला मिळाले तेंव्हा खेद वाटला.. जीवनाच्या विशाल, विविधांगी पटाला शब्दबद्ध करणाऱ्या  साहित्याला आपण संकुचित तर करत नाही ना ? असे वाटत राहते.

मी :- तुम्ही वाचण्यासाठी पुस्तकांची निवड कशी करता..? निवडक साहित्य वाचता की… ?

आनंदहरी :-  निवडक साहित्य वाचतो असे काही जण म्हणतात. निवडक म्हणजे नेमके काय ? ते कोण ठरवते. खूप प्रसिद्धी लाभलेले,चर्चेत आलेले साहित्य म्हणजे निवडक की कुणी शिफारस केलेले साहित्य म्हणजे निवडक ? हे नव्या लिहिणाऱ्यांवर अन्याय करण्यासारखे नाही काय ? निवडकच्या नावाखाली असे नवीन लिहिणाऱ्यांचे साहित्य वाचलं न जाणे संयुक्तिक आहे काय ? न्याय्य आहे काय ? जे उपलब्ध होईल ते निदान वाचून पाहिले पाहिजे.. नाहीच बरे वाटले तर बाजूला ठेवणे हे योग्य आहे. एक इंग्रजी वाक्य आहे, Never judge the book by it’s cover.. मला वाटते हे वाक्य प्रत्येक वाचकाने हे ध्यानात ठेवले पाहिजे.  हे खरे आहे की, वाचकाचे मन ज्या प्रकारच्या साहित्यात रमते त्या प्रकारचे साहित्य तो वाचतो, वाचणार कारण ते त्याला वाचनानंद देणारे असते पण त्याचबरोबर इत्तर प्रकारचे, इतर लेखकांचे साहित्य वाचून पाहायला हवे.. किमान पुस्तक चाळले तरी नेमकं काय लिहिलंय, कसे लिहिलंय हे समजू शकते. मी स्वतः सर्व प्रकारची पुस्तके वाचतो.  सर्व विषयावरील पुस्तके वाचत असतो. 

क्रमशः ….

© श्री आनंदहरी

इस्लामपूर, जि. सांगली

भ्रमणध्वनी:-  8275178099

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – जीवन-यात्रा ☆ आत्मसंवाद – लेखक हा आधी वाचक असावा लागतो…. – भाग 2 ☆ श्री आनंदहरी

श्री आनंदहरी

? आत्मसंवाद ? 

☆ लेखक हा आधी वाचक असावा लागतो…. – भाग 2 ☆ श्री आनंदहरि  

मी :- पहिली कथा किंवा कविता कधी आणि कुठे प्रसिद्ध झाली.

आनंदहरी :-  नोकरीच्या व्यापातून लिहिणे आणि प्रसिद्धीला पाठवणे तसे जमलेच नाही. त्यात स्वभाव भिडस्त त्यामुळे पुढे होऊन स्वतःबद्दल बोलणे, सांगणे, स्वतःला प्रमोट करणे जमायचे नाही, अजूनही जमत नाही. प्रारंभीच्या काळात एक दोन मासिकांना कथा आणि कविता पाठवल्या होत्या पण त्या प्रसिद्ध झाल्या नाहीत. त्यामुळे आपले लेखन अजून प्रसिद्धीयोग्य नाही असे वाटयाचे. नंतरही लिहीत होतो पण ते सारे वहीत असायचे. १९९५ ला सिंधुदुर्ग विभागात बदली झाली. लहान विभाग असल्याने कामाचा ताण कमी होता. वाचन आणि लेखन होऊ लागले. विभागीय मुख्यालय कणकवली येथे असल्याने तेथील आप्पासाहेब पटवर्धन नगरवाचनालयात साहित्यिक कार्यक्रम होत असत त्याला उपस्थित राहू लागलो. त्या दरम्यानच दै. पुढारीची सिंधुदुर्ग आवृत्ती सुरू झाली. शशी सावंत हे आवृत्तीप्रमुख होते. माझे कार्यालयीन सहकारी कवी सुरेश बिले यांच्यामुळे त्यांचा परिचय झाला होता. मी काहीतरी लिहितो हे त्यांना समजले होते. त्यांनी पुढारी आवृत्ती सुरू करतानाच ‘नवांकुर ‘ही साहित्यिक पुरवणी सुरू केली होती. त्यासाठी माझ्या कथा, कविता मागितल्या. ‘ नवांकुर ‘या साहित्यिक पुरवणीतून माझे साहित्य नियमित प्रसिद्ध होऊ लागले. सिंधुदुर्ग येथील साहित्य वर्तुळात नाव परिचित होऊ लागले. लिहिण्याचा उत्साह वाढला. मी नवांकुरमध्ये ‘प्रतिबिंब’ नावाचे सदर लिहीत होतो. ते अनेकांना आवडल्याचे अभिप्राय पुढारीकडे येत होते. गंमतीची गोष्ट म्हणजे नाव परिचित झाले असले तरी मी या नावाने लिहितो हे मोजका मित्रपरिवार वगळता कुणालाच ठाऊक नव्हते. त्यामुळे मला व्यक्तिशः कुणी ओळखत नव्हते.

मी :- मराठी साहित्यात टोपणनाव घेऊन विशिष्ठ साहित्यप्रकार लिहिण्याची एक समृद्ध परंपरा आहे अगदी उदाहरणच द्यायचे झाले तर गोविंदाग्रज, केशवकुमार, कुसुमाग्रज, ठणठणपाळ . तुम्ही टोपणनाव का घेतलेत ?

आनंदहरी :- हे सारे दिग्गज प्रातः स्मरणीय, वंदनीय आहेत. माझ्या सुरवातीच्या काही कथा,कविता या नावाने प्रसिद्ध झाल्या होत्या पण त्यादरम्यान नोकरीतील वरिष्ठानी नाराजी दर्शवत नियमावर बोट ठेवत व्यवस्थापकीय संचालकांची पूर्व परवानगी न घेतल्याचा मुद्दा उपस्थित केला. त्यांचा मुद्दा चुकीचा नव्हता. त्या दरम्यान पावस येथील स्वामी स्वरूपानंद यांच्या ‘श्रीमत् संजीवनी गाथा ‘ यावर मी प्रदीर्घ लेखमाला लिहावी असे शशी सावंत यांना वाटत होते. त्यांना अडचण सांगितल्यावर, त्यांनी सुचवल्यानुसार टोपण नावाने सर्व लेखन करायचे ठरवले आणि पुढील सर्व लेखन याच नावाने प्रसिद्ध झाले.

सांगण्यासारखी गमतीची गोष्ट म्हणजे नंतर एका कार्यक्रमात तत्कालीन जिल्हाधिकारीं भूषण गगराणी यांनी ‘प्रतिबिंब ‘ या सदरलेखनाचे आणि ज्येष्ठ साहित्यिक कै. प्रा. विद्याधर भागवत यांनी साहित्यलेखनाचे कौतुक केले होते. ते समजताच त्याच वरिष्ठ अधिकाऱ्यांनी स्वतःच्या कक्षात सर्व अधिकाऱ्यांच्या उपस्थितीत कौटुंबिक सत्कारही केला.

मी :- तुमच्या नोकरीचा तुम्हांला साहित्यलेखनाच्या दृष्टीने काही उपयोग झाला का ?

आनंदहरी :- निश्चितच झाला. आपला भोवताल हाच आपला प्रेरणास्रोत असतो आणि तोच आपल्या साहित्यात येत असतो. क्षणाक्षणाला आपण अनेक नवनवीन अनुभवांनी आणि अनुभूतीनी संपन्न होत असतो.. तेच आपल्या साहित्यलेखनात  उतरत असते. मला नोकरीत वेगवेगळी व्यक्तिमत्वे जवळून पाहता, अनुभवता आली त्यांचा प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष उपयोग झालाच. प्रामुख्याने माझे आयुष्य हे ग्रामीण आणि अर्धनागर भागात गेल्याने तेच भवताल जास्त प्रमाणात साहित्यात आलेले आहे आणि मला वाटते प्रत्येक साहित्यिकाबाबत असेच असते.

मी :- तुम्ही साहित्यलेखनाबरोबर साहित्यिक चळवळीत सक्रिय असता त्यामागे नेमका कोणता विचार आहे ?

आनंदहरी :-  खरेतर आपण कुणाचे तरी बोट धरून या अंगणात चालायला सुरुवात केलेली असते, चालायला शिकलेलो असतो. आपणही नंतर कुणाचे तरी बोट धरून त्याला इथे चालायला शिकवणे, चालताना सोबत करणे हे आपले कर्तव्य आहे असे मला वाटते. ‘जे जे आपणांसी ठावे, ते सकलांशी सांगावे..’

खरे सांगायचे तर मी साहित्यिकांपेक्षा साहित्य-समाज चळवळीतील एक साधा, छोटा कार्यकर्ता आहे असे मला वाटते. साहित्यिक हा समाजाचे मानसिक, वैचारिक नेतृत्व करीत असतो आणि त्याने ते तसे करणे अपेक्षित आहे असे माझे मत आहे. एकटे पुढे जाऊन काय साध्य होणार ?  साहित्यिकाने आपल्यासोबत इतरांनाही सोबत घेऊन जायला हवे.  ‘ काफिला बनता गया’ अशी स्थिती होण्याची वाट न पाहता ‘ काफ़िला ‘ बनवून त्यासोबतच पुढे जायला हवे असे मला वाटते. मी सिंधुदुर्ग जिल्ह्यात खूप वर्षे काढली त्यावेळी कोकण मराठी साहित्य परिषदेच्या एक कार्यकर्ता म्हणून आवडीने कार्यरत होतो.. नंतरही आणि त्याआधीही  छोटासा कार्यकर्ता म्हणून साहित्यिक, सांगीतिक कार्यक्रमात असायचो, आहे. सध्या पेठ जि.सांगली येथील तिळगंगा साहित्यरंग परिवारामध्ये आणि सामाजिक कार्यात स्वयंसेवक म्हणून कार्यरत असतो. खरंतर यासाठी सर्वस्व त्यागून काम करण्याची आवश्यकता नसते. जेव्हा आपल्याला थोडाफार वेळ मिळतो त्यावेळी स्वयंप्रेरणेने, स्वेच्छेने आणि निरपेक्ष भावाने जे शक्य असेल ते करावे असे मला वाटते. आपण या समाजाचे, या मातीचे देणे लागत असतो याची जाणीव मनात ठेवायलाच हवी. त्याची उतराई होणे शक्यच नसते पण आपण या प्रकारे कार्यरत राहून त्यांचे ऋण मान्य करू शकतो.

क्रमशः ….

© श्री आनंदहरी

इस्लामपूर, जि. सांगली

भ्रमणध्वनी:-  8275178099

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – जीवन-यात्रा ☆ आत्मसंवाद – लेखक हा आधी वाचक असावा लागतो…. – भाग 1 ☆ श्री आनंदहरी

श्री आनंदहरी

? आत्मसंवाद ? 

☆ लेखक हा आधी वाचक असावा लागतो…. – भाग 1 ☆ श्री आनंदहरी

ज्येष्ठ साहित्यिका, संपादिका  सौ. उज्वलाताई केळकर यांनी ई अभिव्यक्ती आत्मसाक्षात्कार साठी स्वतःच स्वतःची मुलाखत घेण्याबाबत सांगितलं तेंव्हा पहिल्यादा नाही म्हणलं तरी दडपण आले कारण ज्येष्ठतम साहित्यिका तारा भवाळकर यांचा आत्मसाक्षात्कार वाचला होता..त्यानंतरही काही मान्यवरांनी स्वतःच घेतलेली स्वतःची मुलाखत वाचली होती. आणि खरेतर  मुलाखत घेणं आणि देणं याचा फारसा काही अनुभव नसताना ही मुलाखत घ्यायची होती. उज्वलाताईंचा आदेश ..

मग मीच माझे आयुष्य त्रयस्थपणे पाहण्याचा , स्वतःच्याच अंतरंगाशी , वर्तमानासह भूतकाळाशी जोडून घेण्याचा प्रयत्न करू लागलो. तेंव्हा एकच प्रश्न पडला…

‘नाहीतरी, ‘ मी पणा’ वगळून, स्वतःत त्रयस्थभाव आणून आपण स्वतःशी असा कितीसा संवाद करत असतो ? ‘  ‘मी’ ला टाळता येत नसलं तरी ‘मी पणाला’ टाळण्याचा प्रयत्न करीत आत्मसंवाद साधण्याचा केलेला छोटासा प्रयत्न म्हणजे हा आत्मसाक्षात्कार..

मी :- नमस्कार!

आनंदहरी :- नमस्कार !

मी :-  प्रत्येकालाच स्वतःचा जीवनप्रवास हा काहीसा वेगळा आहे असे वाटत असते. तुमचा आजवरचा जीवन प्रवास कसा झाला ?

आनंदहरी :-   आपण जेव्हा मागे वळून पाहतो तेंव्हा वर्तमानाच्या पार्श्वभूमीवर भूतकाळ पाहत असतो. आणि म्हणून प्रत्येक पिढीच्या तोंडी ‘आमच्यावेळी असे होते.. तसे नव्हते ‘ असे शब्द असतातच. बदलत जाणाऱ्या काळाबरोबर सुखाच्या, संपन्नतेच्या व्याख्या, परिभाषा बदलत जातात ही जाणीव आपल्याला भूतकाळ आठवताना नसते असे मला वाटते. त्यामुळे भूतकाळ पाहताना त्या काळाचा, स्थिती-परिस्थितीचा आणि भवतालाचे विचार असणे अत्यंत महत्वाचे आहे. आपण स्वतःला इतरांहून कुणीतरी वेगळे मानत असतो म्हणून आपला भूतकाळ वेगळा आहे, कष्टप्रद आहे असे वाटत असते. खरेतर अपवाद वगळता समाजजीवन हे तसेच असते. त्यात ‘आपले ‘ म्हणून फारसे वेगळेपण असतेच असे नाही.

माझा जन्म आणि बालपण पेठ सारख्या छोट्या गावात गेले. वडील न्यू इंग्लिश स्कुल, पेठ जि. सांगली या माध्यमिक शाळेत मुख्याध्यापक होते. स्वातंत्र्योत्तर काळात शिक्षणाची गंगा खेडोपाडी वहायला सुरवात झाली होती. तो, तो काळ होता. आजूबाजूच्या दशक्रोशीतील खेड्यातील मुले चालत शाळेत येत होती. विद्यार्थ्यांकडे (आणि शिक्षकांकडेही ) सायकल असणे ही अपवादात्मक बाब होती. त्याकाळात आजच्यासारखी वैज्ञानिक प्रगती नव्हती. माणसाच्या गरजा कमी होत्या. साधी राहणी हा विचार मनामनात रुजलेला होता. बालपणापासूनचा जीवनाचा काळ हा सर्वार्थाने सुखद आणि संपन्नतेत गेला. नोकरी हीच उपजीविकेचे साधन असल्यामुळे नंतर विद्युत अभियांत्रिकीतील पदविका मिळवली. महाराष्ट्र राज्य परिवहन महामंडळात विद्युत अभियंता म्हणून नोकरी करून, कौटुंबिक जबाबदाऱ्या फारशा उरल्या नाहीत, पेन्शन नसली तरी मिळणाऱ्या उपदानातून आपण उर्वरित आयुष्य आत्तासारखेच साधेपणाने, सुखाने जगू शकतो असा विचार मनात येताच वयाच्या पंचावन्नाव्या वर्षी स्वेच्छानिवृत्ती घेतली. असे कोणत्याही वळणवाटा न येता आजवरचे संपूर्ण आयुष्य हे सरळ रेषेसारखे व्यतीत झाले आहे.

मी :-  तुम्ही साधेपणाचा उल्लेख केला आहे.. साधेपणा म्हणजे तुम्हांला नेमके काय म्हणायचंय ?

आनंदहरी :- सुख, संपन्नता या गोष्टी त्या काळी पैशाशी जोडल्या गेलेल्या नव्हत्या, खरे तर आजही त्या तशा जोडल्या गेलेल्या नाहीत पण अनेकांना तसे वाटते हे मात्र खरे आहे. माणसाच्या गरजा मर्यादित होत्या.  स्वतःबरोबरच इतरांचा विचार जास्त केला जायचा. सुख आणि संपन्नता ही मनाची स्थिती आहे असे मला वाटते. माणूस जे आहे त्यात सुखी होता. माणूस माणसाशी आंतरिक भावाने जोडला गेलेला होता असा तो काळ होता. माणसाच्या अपेक्षा कमी होत्या. संत तुकाराम महाराज म्हणतात त्याप्रमाणे ‘ पोटापूरते देई देवा…’ हाच भाव बहुतेकांच्या मनात असायचा. अडी-नडीला माणूस माणसासाठी उभा असायचा. पैशापाठी पळणे नव्हते. बोरकरांच्या शब्दात सांगायचे तर सारे ‘सुशेगात’ होते. कालौघात जीवन आणि जीवनधारणा बदलत गेलीय आणि जात राहणारच तो निसर्ग नियमच आहे.

मी :- तुम्हांला साहित्य लेखनाची आवड  कशी निर्माण झाली ?

आनंदहरी :- गायक हा आधी उत्तम श्रोता असावा लागतो तद्वत लेखक हा आधी वाचक असावा लागतो असे मला वाटते. लहानपणी गोष्टी ऐकण्याची आवड निर्माण झाली ती आईमुळे. त्याकाळी चातुर्मासात घरात आणि घराजवळ असणाऱ्या सिद्धस्वामी मठात ग्रंथवाचन चालायचं. श्रावणात ‘ खुलभर दुधाची कहाणी ‘ सारख्या अनेक गोष्टी आई वाचायची त्यामुळे गोष्टी ऐकण्याची आवड निर्माण झाली होती. वडील काही कामानिमित्त इस्लामपूर, सांगली, कोल्हापूरला गेले की आवर्जून गोष्टीची पुस्तके आणत  त्यामुळे शाळेत जायला लागण्याआधीपासूनच चांदोबा, छान छान गोष्टी., बिरबलाच्या गोष्टी यासारखी गोष्टीची पुस्तके घरात होती. ती वाचण्यासाठी आम्हा बहीण भावात भांडणेही लागत. नंतरच्या कालखंडात या पुस्तकांबरोबरच बाबुराव अर्नाळकर, एस.एम काशीकर, गुरुनाथ नाईक यांच्या रहस्यकथा वाचण्याचा छंदच लागला. दिवाळीची सुट्टी म्हणजे दीपावली अंक वाचण्याची दिवाळीच असायचीव अजूनही आहे. उन्हाळी सुट्टी म्हणजेही वाचनाचीच दिवाळी. तेंव्हापासून वाचनाची आवड निर्माण झाली. माध्यमिक शालेय जीवनात शाळेच्या समृद्ध ग्रंथालयातून ययाती, अमृतवेल, मृत्युंजय, स्वामी सारखी अनेक पुस्तके वाचायला मिळाली.

नंतर वयोपरत्वे वाचन बदलत गेले. गुलशन नंदा सारख्या लेखकांच्या पुस्तकांसह जे जे हाती पडेल ते ते वाचायची सवय जडली. वृत्तपत्र नियमित घरी येत असे त्यामुळे ते नियमित वाचायची सवय लहानपणापासूनच लागली.

वाचायला सुरुवात केली तसे व्यक्त व्हायलाही सुरवात झाली होती, कविता, गीते ऐकायची आवडही निर्माण झाली होती. त्यामुळे बालपणातच तत्कालीन भावविश्वाच्या कविता.. यमक साधून लिहिलेल्या / रचलेल्या ओळी म्हणूया फारतर .. लिहायची सवय लागली. आठवीत असताना रहस्यकथा लिहिली होती. शालेय नियतकालिकातही लेख, कविता, कथा लिहिल्या होत्या. त्यावेळी कदाचित या नादात माझे अभ्यासाकडे दुर्लक्ष होतंय हे जाणवून एकदा वडिलांनी सांगितले होते, ‘ मराठीत साहित्य लेखन हे चरितार्थाचे साधन होऊ शकत नाही. उपजीविकेसाठी नोकरी आणि नोकरीसाठी शिक्षण महत्वाचे आहे. साहित्यादी कला या छंद, आवड म्हणूनच ठीक आहेत. ते मनाच्या, विचारांच्या समृद्ध पोषणासाठी हवेतच पण पोट भरणे हेही महत्वाचे आहे.’ मग मात्र शिक्षण पूर्ण होऊन नोकरीत स्थिरसावर होईपर्यंत अभ्यासाकडे लक्ष राहिले. वाचन चालू राहिले तरी लेखन तसे कमीच झाले. नाही म्हणायला कविता,  क्वचित कथा लिहीत होतो.. मित्रपरिवारात त्या वाचल्या जात होत्या पण प्रसिद्धीला कुठं पाठवल्या नाहीत.जेव्हा जमेल तेंव्हा एखाद्या साहित्यिक कार्यक्रमात श्रोता म्हणून उपस्थित रहात होतो.

क्रमशः ….

© श्री आनंदहरी

इस्लामपूर, जि. सांगली

भ्रमणध्वनी:-  8275178099

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – जीवन-यात्रा ☆ आत्मसंवाद – लेखकाची लेखणीच त्याचे एक मन असते…. – भाग 3 ☆ श्रीमती अनुराधा फाटक

श्रीमती अनुराधा फाटक

☆ आत्मसंवाद – प्रत्येकाच्या मनात एक लेखक लपलेला असतो – भाग 3 ☆ श्रीमती अनुराधा फाटक 

आकाशातील असंख्य चांदण्या  काही ठळक असतात तर काही अस्पष्ट! कथाबीजांचे तसेच आहे. आपल्या अवती भवती अनेक घटना घडत असतात. त्यातील काही प्रत्यक्ष आपल्या जीवनाशी निगडीत असतात तर काही ऐकलेल्या लेखकाला त्यातूनच कथा बीज मिळते आणि तो ते आपल्या प्रतिभा सामर्थ्याने फुलवत असतो अस्वस्थ करणारी कथाबीजे स्वस्थ बसू देत नाहीत.

लेखणी- मी गप्प बसू देणार नाही.

जवळच असलेली लेखणी मला पटकन म्हणाली तसं मी तिच्याकडं पाहिलं

लेखणी- अगं मी म्हणजे तुझा कम्प्युटर गं

मी पटकन जवळची लेखणी कौतुकाने हातात घेतली.

मी- की बोर्ड जवळ तुलाही ठेवीन बरं

कधी लेखणी तर कधी कम्प्युटर यांच्या मदतीने माझे कथालेखन होत होते.

आपोआप हातात येते माझ्या माझे बरेचसे कथालेखन दिवाळी अंकांच्या निमित्ताने झाले. त्यातूनच कथासंग्रह तयार झाले. अंतरीच्या गूढगर्भी,दर्भाचा कावळा, धुक्यातली सावली,ऋणानुबंध, सांजवात,वैदेही, शिळेतील अहल्या,क्षितिज, बाहुली, ब्रह्मकमळ,जीवनगाणं,सार्थक, दोन ज्योती असे माझे प्रकाशित कथासंग्रह असून ब्रह्मकमळ हा पर्यावरण कथांच्या संग्रह आहे.लेखकाच्या लेखनाचा प्रारंभ हा बहुतेक कवितेने झालेला दिसतो.जे न देखे रवी ते देखे कवी अशी सुरु झालेली काव्यरचना अनुभवाने प्रगल्भ होते

लेखणी- कम्प्युटर असतानाही तुझ्या सगळ्या कवितांचे लेखन तू माझ्या मदतीने केलेस याचा मला अभिमान वाटतो

मी- कविता पटकन लिहून होते.तेवढ्यासाठी कम्प्युटरचा सोपस्कार नको वाटतो त्यामुळे तू हातात येतेस’ असे माझे लेखन! आतापर्यंत वादळझेलताना, अंतर्नाद, मनपैंजण, गोंदण असे माझे लहान काव्यसंग्रह असून त्यापैकी ‘अंतर्नाद’ या काव्य संग्रहाला अखिल भारतीय कवियत्री संमेलनाचा सरोजिनी नायडू पुरस्कार मिळाला शिक्षिकेची नोकरी असल्याने मुलांना शिकवितानाच बालसाहित्याची बीजे मनात पेरली गेली आणि मुलांवर चांगले संस्कार व्हावेत या उद्देशाने बालसाहित्य लिहिले गेले.

लेखणी- कधी कधी शाळेतही तू बालसाहित्य लिहायचीस

मी- ते तुझ्याच मदतीने.

माझ्या बालसाहित्याची सुरवात बडबडगीतांनी झाली. नंतर वेताळाच्या पर्यावरण कथा,गोष्टी निसर्गाशी,बालबोध कथा,साहसी ढब्बू ,खरा शिल्पकार, खरा मित्र,साधू आणि रामू,परीराणीचा फ्रॉक,कष्टाची भाकरी,चार आण्याची चादर,प्रामाणिक छन्नू,लालू आणि सोनपरी,राजाची शाळा , जंगलपुत्र आणि इतर कथा हे कथासंग्रह, गंमतफूल, क्षमा,प्रेरणा या किशोर कादंबऱ्या आणि भारतीय रेल्वेची कहाणी हे माहितीपर पुस्तक हे बालसाहित्य असून गोष्टी निसर्गाशी या पुस्तकाला अखिल भारतीय बाल संमेलन पुणे,बाल साहित्य सभा कोल्हापूर असे तर भारतीय रेल्वेची कहाणी पुस्तकाला राज्य पुरस्कार मिळाला.

माझ्या नातीने बालसाहित्य लिहायला सुरवात केली

लेखणी- तिचे लेखन मीच करते.

मी- हो, ती तुझ्या बरोबर मोबाईलचाही वापर करते.

नातीचे बालसाहित्य सुरु झाले तसे मी बालसाहित्य लेखन बंद केले

माझा साहित्य प्रवास उलगडण्याची संधी दिल्याबद्दल  धन्यवाद!

© श्रीमती अनुराधा फाटक

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – जीवन-यात्रा ☆ आत्मसंवाद – लेखकाची लेखणीच त्याचे एक मन असते…. – भाग 2 ☆ श्रीमती अनुराधा फाटक

श्रीमती अनुराधा फाटक

☆ आत्मसंवाद – प्रत्येकाच्या मनात एक लेखक लपलेला असतो – भाग 2 ☆ श्रीमती अनुराधा फाटक 

लेखणी- माझ्याशी अशी खेळत कां बसलीस?

मी- खेळत नाही.विचार करतेयं

लेखणी- कसला विचार?

मी- एवढी मोठी युगंधर कादंबरी वाचली त्यात कृष्णाच्या जीवनातील स्त्री मला आढळली नाही. मला फार राग आला आहे.

मी लेखणीशी बोलत असतानाच मोबाईल वाजला. श्री.कुंदपसरांचा फोन होता. ते काही बोलण्यापूर्वीच त्यांना मी वाचलेल्या युगंधर कादंबरी बद्दल माझे मत सांगितले , ‘ सर, मला कृष्णाच्या जीवनातील स्त्रियांबद्दल लिहावेसे वाटते’ लेखणीकडं बघत मी बोलले ‘तुम्ही लिहा.. मी प्रस्तावना देतो. ‘ कामाबद्दल बोलून त्यांनी फोन ठेवला.

लेखणी- झालं कां समाधान, गेला कां राग.आता लिही तुला काय हवं ते.मी तयारच आहे.

माझे विचार आणि लेखणीचा झपाटा एकत्र आले. ऋणवेध कादंबरीचा जन्म झाला. दोन पुरस्कार घेतलेल्या या कादंबरीचे वाचन,इंग्रजी अनुवादित ऑडिओ बुक प्रसिध्द झाले. एकदा मस्तानी बद्दल संशोधनात्मक वाचले. मला मस्तानी खूपच चांगली वाटली. तिला न्याय मिळावा असे वाटू लागले.

लेखणी- झाला ना विचार, आता  घे मला हातात आणि काम सुरु कर. लेखणीने राऊप्रिया कादंबरी  स्वीकारली. कादंबरी लेखन चालू असताना एक  दिवस मिरजेच्या ज्युबेली कन्याशाळेतील जोशीबाई माझ्याकडे आल्या.

‘ काय लिहिता?’

‘मस्तानीवर कादंबरी!’

मस्तानीवर लिहिण्यापेक्षा  मिरजेतील दुर्लक्षित वेणाबाईवर लिहा’

‘आधी मस्तानीला न्याय देते मग वेणाबाई हातात घेते’ असे मी त्यांना सांगितले.

लेखनाचा विषय डोक्यात घुसवून जोशीबाई गेल्या.

लेखणी- आता काय?

मी- काही नाही. आधी मस्तानीच!

लेखणी- बरोबर आहे. तुला जे आवडते ते आधी. मी तयार आहे.

गंमत म्हणजे राऊप्रिया कादंबरीला मिरजेचाच पुरस्कार मिळाला.

वेणाबाईंची माहिती घेण्यासाठी मी मिरजेतील वेणाबाईंच्या मठात गेले पण निराश होऊन परतले.        

लेखणी- मिळाली कां माहिती?

मी- काहीही मिळाले नाही

लेखणी- आता वेणाबाई?

मी- वेणाबाईंची इच्छा असेल तर होईल कादंबरी!

खरोखर तसेच झाले. मला माझ्या सासऱ्यांकडून अचानक दासायन हे  समर्थ शिष्यांची माहिती असलेले पुस्तक मिळाले.जुन्या पुस्तक बाजारात त्याना ते मिळाले होते. वेणाबाईची माहिती त्यात होती.बुडत्याला काडीचा आधार ! माझे कादंबरी लेखन सुरु झाले.माझ्या लेखणीने बंधमुक्त कादंबरी लिहून घेतली.तिला संत साहित्याचा पुरस्कार मिळाला. अशीच प्रेरणा मुक्ताबाईच्या लेखनाला मिळाली लेखन झाले आणि अमृत संजीवनी’ या मुक्ताबाई च्या कादंबरीनेही  पुरस्कार घेतला.पाठोपाठ आवलीचा विचार करा म्हणणारे भेटले ‘गुण गाईन आवडी ‘ आवलीच्या जीवनावरची पुरस्कार घेणारी कादंबरी तयार झाली

लेखणी- काय गं  तुझा अभ्यासाचा, विचारांचा झपाटा!

मी-  लिहून कंटाळलीस ना?

लेखणी-  माझं राहू दे.अगं तुझे हात दुखत नाहीत कां?

मी- मुलाने मला कम्प्युटर घेऊन दिला आहे आता तुझे काम कम्प्युटरचा की बोर्ड करेल.

लेखणी- कम्प्युटर असला तरी कधी ना कधी तुला माझी गरज लागेल बरं

मी- नक्कीच, तुला कशी विसरेन?

त्यानंतर खरोखरच कम्प्युटर माझी लेखणी झाला. लेखनाला वेग आला. वरदा, पूर्तता, अनुपमेय, जीवदान, आवर्त, महायोगिनी, शेवटचे घर, कालिंदी या कादंबऱ्या मी कम्प्युटरच्या मदतीने लिहिल्या आता ‘ संत सखू’वर लेखन चालू आहे.

© श्रीमती अनुराधा फाटक

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – जीवन-यात्रा ☆ आत्मसंवाद – लेखकाची लेखणीच त्याचे एक मन असते…. – भाग 1 ☆ श्रीमती अनुराधा फाटक 

श्रीमती अनुराधा फाटक

☆ आत्मसंवाद – प्रत्येकाच्या मनात एक लेखक लपलेला असतो – भाग 1 ☆ श्रीमती अनुराधा फाटक 

प्रत्येकाच्या मनात एक लेखक लपलेला असतो. योग्य वेळ येताच त्याची लेखणी त्याला स्वस्थ बसू देत नाही जणू लेखकाची लेखणीच त्याचे एक मन असते. माणसाचे सहावे इंद्रिय हे त्याचे मन असते अशी दोन मने लेखकाला लेखन प्रवृत्त करत असतात.

उगार या कर्नाटक महाराष्ट्र सीमेवरील गावी माझी नोकरी सुरु झाली आणि शाळेत मुलांना मराठी शिकवताना माझी ही दोन्ही मने सावध झाली.  कानडी भाषेचा प्रभाव येथील मराठीवर असल्याचे मुलांना मराठी समजावून सांगताना जाणवले तशी माझी दोन्ही मने मला गप्प बसू देईनात.

मी- भाषा सुधारेल असं मुलांसाठी काहीतरी करायला हवं.

लेखणी- अगं मी आहे ना तुझ्या हातात मग गप्प कां बसलीस

मी- तू मला थोडीच गप्प बसू देशील?

लेखणी- मग घे ना कागद..

मी- आणि खरोखरच मी शब्दांचे अनेक अर्थ, वाक्प्रचार यांचा वापर करून दैनंदिन जीवनातले शब्द लिहिले.’शब्द लहरी ‘ हे माझे पहिले पुस्तक तयार झाले.शिक्षक, विद्यार्थी, पालक सर्वासाठी ते उपयुक्त ठरलेल्या या पुस्तकाला भारतीय शिक्षण मंडळाचा पुरस्कार मिळाला.

कुणीतरी सुचवावं, मी विचार करावा आणि लेखणीने कागदावर उतरवावे अशी माझी साहित्य निर्मिती!

 एकदा शाळेत शिक्षकांची शेतकरी जीवनावर चर्चा झाली आणि माझ्या मनात शेतकरी आणि शिक्षक यांची तुलना सुरु झाली.

लेखणी- आज काय आहे डोक्यात?

मी- शेतकरी आणि शिक्षक यांची तुलना

लेखणी-  मी आहेच लिहायला

मी- तेच करणार आहे शिक्षक आणि शेतकरी यांच्यात साम्य दाखविणाऱ्या ‘जडणघडण’ पुस्तकाची निर्मिती झाली.त्यालाही भारतीय शिक्षण मंडळाचा पुरस्कार मिळाला. इतिहास शिकवताना रामायणाचा उल्लेख आला तेव्हा विष्णूच्या अवताराबद्दल मुलांना विचारले असताना त्याना काही माहिती नसल्याचे लक्षात आले मुलांसाठी ‘दशावतार’ लिहिले त्याला संत, साहित्याचा पुरस्कार मिळाला.त्यानंतर श्रीमती लीला दीक्षित यांच्या सांगण्यावरून बालमन आणि बालसाहित्य ‘असे लेखन केले. समर्थांच्या शिष्यपरंपरेबद्दल लिहा  असे काही जणांनी सुचविले तेव्हा ‘समर्थांची प्रभावळ’ पुस्तक लिहिले.

‘भारुडातून नाथदर्शन ‘ या पुस्तकातून भारुडांचा अर्थ उलगडण्याचा प्रयत्न केला. औषधाशिवाय आजीजवळ बरेच असते ते  ‘आजीचा बटवा’ मधून व्यक्त झाले. माझे प्राध्यापक श्री कुंदत सर यांच्या सांगण्यावरून लिहिलेले ‘महानुभाव साहित्यातील बालजीवन’ हे पुस्तक महानुभाव संप्रदायाचे संदर्भ ग्रंथ ठरले.आपण वर्षानुवर्षे हदग्याची गाणी म्हणतो पण अर्थ माहीत नसतो त्या गाण्यांचा अर्थ लावण्याचा प्रयत्न ‘ हदगा ते महाहदगा’ मध्ये केला.’विणतो कबीर शेले’ हे कबीरावर वेगळे लेखन केले. रावा प्रकाशकांच्या सांगण्यावरून ‘ दत्त संप्रदायातील त्रिमूर्ती आणि समर्थशिष्य कल्याण ही पुस्तके लिहिली. अशी माझी वैचारिक साहित्य सेवा!

© श्रीमती अनुराधा फाटक

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – जीवन यात्रा ☆ श्री संजय भारद्वाज, हिंदी आंदोलन परिवार, पुणे ☆

 ☆ जीवन यात्रा – श्री संजय भारद्वाज, हिंदी आंदोलन परिवार, पुणे ☆

(प्रसिद्ध साहित्यिक-सामाजिक-सांस्कृतिक संस्था हिंदी आंदोलन परिवार, पुणे  ने  कल अपने सफल  27वें वर्ष में प्रवेश कर लिया है। ई-अभिव्यक्ति  की ओर से इस सफल यात्रा के लिए हार्दिक शुभकामनाएं। इस अवसर पर पुनर्पाठ  के अंतर्गत  30 सितम्बर 2019 (रजत जयंती वर्ष ) को संस्था के संस्थापक अध्यक्ष  श्री संजय भारद्वाज  जी से  सुश्री वीनु जमुआर जी की बातचीत)

वीनु जमुआर- सर्वप्रथम हिंदी आंदोलन परिवार के रजत जयंती वर्ष में कदम रखने के उपलक्ष्य में अशेष बधाइयाँ और अभिनंदन। अब तक की अनवरत यात्रा से  देश भर में चर्चित नाम बन चुका है हिंआप। हिंआप की स्थापना की पृष्ठभूमि पर प्रकाश डालिए। इसकी स्थापना का बीज कब और कैसे बोया गया?

संजय भारद्वाज- हिंआप का बीज इसकी स्थापना के लगभग सोलह वर्ष पूर्व 1979 के आसपास ही बोया गया था। हुआ यूँ कि मैं नौवीं कक्षा में पढ़ता था। बाल कटाने के लिए एक दुकान पर अपनी बारी आने की प्रतीक्षा कर रहा था। प्रतीक्षारत ग्राहकों के लिए कुछ पत्रिकाएँ रखी थीं जिनमें अँग्रेजी की पत्रिका, शायद ‘दी इलस्ट्रेटेड वीकली’ भी थी। अँग्रेजी थोड़ी बहुत समझ भर लेता था। पत्रिका में बिहार की जेलों में बरसों से बंद कच्चे महिला कैदियों की दशा पर एक लेख था। इस लेख में अदालती कार्रवाई पर एक महिला की टिप्पणी उद्वेलित कर गई। रोमन में लिखी इस टिप्पणी का लब्बोलुआब यह था कि ‘साहब, अदालत की कार्रवाई कुछ पता नहीं चलती क्योंकि अदालत में जिस भाषा में काम होता है, वह भाषा हमको नहीं आती।’ यह टिप्पणी किशोरावस्था में ही खंज़र की तरह भीतर उतर गई। लगा लोकतंत्र में लोक की भाषा में तंत्र संचालित न हो तो लोक का, लोक द्वारा, लोक के लिए जैसी परिभाषा बेईमानी है। इसी खंज़र का घाव, हिंआप का बीज बना।

(साक्षात्कार लेतीं सुश्री वीनू जमुआर )

वीनु जमुआर- किशोर अवस्था में पनपा यह बीज संस्थापक की युवावस्था में प्रस्फुटित हुआ। इस काल की मुख्य घटनाएँ कौनसी थीं जो इसके अंकुरण में सहायक बनीं?

संजय भारद्वाज- संस्थापक की किशोर अवस्था थी तो बीज भी गर्भावस्था में ही था। बचपन से ही हिंदी रंगमंच से जुड़ा। महाविद्यालयीन जीवन में प्रथम वर्ष में मैंने हिंदी मंडल की स्थापना की। बारहवीं के बाद पहला रेडियो रूपक लिखा और फिर चर्चित एकांकी, ‘दलदल’ का लेखन हुआ। आप कह सकती हैं कि बीज ने धरा के भीतर से सतह की यात्रा आरम्भ कर दी। स्नातक होने के बाद प्रारब्ध ने अकस्मात व्यापार में खड़ा कर दिया। नाटकों के मंचन के लिए समय देने के लिए स्थितियाँ अनुकूल नहीं थीं। 1995 में पीलिया हुआ। पारिवारिक डॉक्टर साहब ने आत्मीयता के चलते एक तरह से अस्पताल में नज़रबंद कर दिया। पुणे में दीपावली पर प्रकाशित होनेवाले साहित्यिक विशेषांकों की परंपरा है। बिस्तर पर पड़े-पड़े हिंदी में शहर के पहले साहित्यांक ‘अक्षर’ का विचार जन्मा और दो महीने बाद साकार भी हुआ। साहित्यकारों से परिचय तो था पर साहित्यांक के निमित्त वर्ष में केवल एक बार मिलना अटपटा लग रहा था। इस पीड़ा ने धीरे-धीरे  बेचैन करना शुरू किया, बीज धरा तक आ पहुँचा और जन्मा हिंदी आंदोलन परिवार।

वीनु जमुआर- युवावस्था में जब युवा अपने भविष्य की चिंता करता है, आपने भाषा एवं साहित्य के भविष्य की चिंता की। क्या आप रोजी-रोटी को लेकर भयभीत नहीं हुए?

संजय भारद्वाज- हिंदी मेरे लिए मेरी माँ है क्योंकि इसने मुझे अभिव्यक्ति दी। हिंदी मेरे लिए पिता भी है क्योंकि इसने मुझे स्वाभिमान से सिर उठाना सिखाया। अपने भविष्य की चिंता करनेवाले किसी युवा को क्या अपने माता-पिता की चिंता नहीं करनी चाहिए? रही बात आर्थिक भविष्य की तो विनम्रता से कहना चाहूँगा कि जीवन में कोई भी काम भागनेवाली या भयभीत होनेवाली मनोवृत्ति से नहीं किया। सदा डटने और मुकाबला करने का भाव रहा। रोजाना के लगभग चौदह घंटे व्यापार को देने के बाद हिंआप को एक से डेढ़ घंटा नियमित रूप से देना शुरू किया। यह नियम आज तक चल रहा है।

वीनु जमुआर- आपकी धर्मपत्नी सुधा जी और अन्य सदस्य साहित्य सेवा के आपके इस यज्ञ में हाथ बँटाने को कितना तैयार थे?

संजय भारद्वाज- पारिवारिक साथ के बिना कोई भी यात्रा मिशन में नहीं बदलती। परिवार में खुला वातावरण था। पिता जी, स्वयं साहित्य, दर्शन और विशेषकर ज्योतिषशास्त्र के प्रकांड विद्वान थे। परिवार में वे हरेक के इच्छित को मान देते थे। सो यात्रा में कोई अड़चन नहीं थी। जहाँ तक सुधा जी का प्रश्न है, वे सही मायने में सहयात्री सिद्ध हुईं। हिंआप को दिया जानेवाला समय, उनके हिस्से के समय से ही लिया गया था। उन्होंने इस पर प्रश्न तो उठाया ही नहीं बल्कि मेरा आनंद देखकर स्वयं भी सम्पूर्ण समर्पण से इसीमें जुट गईं। यही कारण है कि हिंआप को हमारी संतान-सा पोषण मिला।

(हिंदी साहित्य और भाषा के क्षेत्र में योगदान के लिए ‘विश्व वागीश्वरी पुरस्कार’ श्री-श्री रविशंकर जी की उपस्थिति में पूर्व राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभादेवी पाटील द्वारा प्रदत्त)

वीनु जमुआर-  मराठी का ’माहेरघर’ (पीहर) कहे जानेवाले पुणे में हिंआप की स्थापना कितना कठिन काम थी?

संजय भारद्वाज- महाराष्ट्र में हिंदी के प्रति प्रेम और सम्मान की एक परंपरा रही है। अनेक संतों ने मराठी के साथ हिंदी में भी सृजन किया। हिंदी पत्रकारिता के पुरोधा महाराष्ट्र से थेे। देश को आद्य हिंदी प्रचारक महाराष्ट्र विशेषकर पुणे ने दिये। संभाषण के स्तर पर धाराप्रवाह हिंदी न आनेे के बावजूद स्थानीय नागरिकों ने हिंआप को साथ दिया। हाँ संख्या में हम कम थे। किसी हिंदी प्रदेश में एक किलोमीटर चलने पर एक किलोमीटर की दूरी तय होती। यहाँ चूँकि प्राथमिक स्तर से सब करना था, अत: पाँच किलोमीटर चलने के बाद एक किलोमीटर अंकित हुआ। इसे मैं प्रारब्ध और चुनौती का भाग मानता हूँ। अनायास यह यात्रा होती तो इसमें चुनौती का संतोष कहाँ होता?

वीनु जमुआर- हिंआप की यात्रा में संस्था की अखंड मासिक  गोष्ठियों का बहुत बड़ा हाथ है। इन पर थोड़ा प्रकाश डालिए।

संजय भारद्वाज- बहुभाषी मासिक  साहित्यिक गोष्ठियाँ हिंआप की प्राणवायु हैं। संस्था के आरंभ से ही इन गोष्ठियों की निरंतरता बनी हुई है। हमने हिंदी की प्रधानता के साथ मराठी और उर्दू के साहित्यकारों को भी हिंआप की गोष्ठियों से जोड़ा। यों भी हिंदी अलग-थलग करने में नहीं में नहीं अपितु सबको साथ लेकर चलने में विश्वास रखती है। इन तीन भाषाओं के अतिरिक्त सिंधी के रचनाकार अच्छी तादाद में संस्था से जुड़े। राजस्थानी, गुजराती, कोंकणी, बंगाली, उड़िया और सामान्य रूप से समझ में आनेवाली विभिन्न भाषाओं/ बोलियों के रचनाकार भी हिंआप की गोष्ठी में आते रहे हैं। अनुवाद के साथ काश्मीरी और कन्नड़ की रचनाएँ भी पढ़ी गई हैं। एक सुखद पहलू है कि प्राय: हर गोष्ठी में एक नया रचनाकार जुड़ता है। साहित्य के साथ-साथ इन गोष्ठियों का सामाजिक पहलू भी है। महानगर में लोग महीने में एक बार मिल लेते हैं, यह भी बड़ी उपलब्धि है। हमारी मासिक गोष्ठियाँँ अनेक मायनों में जीवन की पाठशाला सिद्ध हुई हैं। संस्था के लिए गर्व की बात है कि गोष्ठियों की अखंड परंपरा के चलते हिंआप की अब तक 238 मासिक गोष्ठियाँ हो चुकी हैं।

वीनु जमुआर- किसी संस्था को जन्म देना तुलनात्मक रूप से सरल है पर उसे निरंतर चलाते रहने में अनेक अड़चनें आती हैं। हिंआप की यात्रा में आई अड़चनों का खुलासा कीजिए।

संजय भारद्वाज- संभावना की यात्रा में आशंका भी सहयात्री होती है। स्वाभाविक है कि आशंकाएँ हर बार निर्मूल सिद्ध नहीं हुईं। हमारे देश की साहित्यिक संस्थाओं की संगठनात्मक स्थिति कमज़ोर है। दो ही विकल्प हैं कि या तो आप इसे ढीले-ढाले तरीके से चलाते रहें अन्यथा इसे संगठनात्मक रूप दें। जैसे ही इसे संगठनात्मक रूप देंगे, अनुशासन आयेगा। एक अनुशासित संस्थान जिसमें कोई वित्तीय प्रलोभन न हो, चलाना हमेशा एक चुनौती होती है। अनेक बार अपितु अधिकांश बार अपने ही घात करते हैं। साथी कोई दस कदम साथ चला कोई बीस, कोई सौ, कोई चार सौ। यद्यपि उन साथियों से कोई शिकायत नहीं। उनकी सोच के केंद्र में उनका अपना आप था, हमारी सोच के केंद्र में हिंआप था।….व्यक्ति हो या संस्था दोनों को अलग समय अलग समस्याओं  से दो हाथ करने पड़ते हैं। आरम्भिक समय में यक्ष प्रश्न होता था कार्यक्रम के लिए जगह उपलब्ध करा सकने का। गोष्ठियों का व्यय भी एक समस्या हो सकता था, जिसे हम लोगों ने समस्या बनने नहीं दिया। विनम्र भाव से कहना चाहता हूँ कि कोई व्यसन के लिए घर फूँकता है, हमने ‘पैेशन’ के लिए फूँका। साथ ही यह भी सच है कि जब-जब हमने घर फूँका, ईश्वर ने नया घर खड़ा कर दिया। उसके बाद तो हाथ जुड़ते गये, साथी बढ़ते गये। आज संस्था के हर छोटे-बड़े आयोजन का सारा खर्च हिंआप के सदस्य-मित्र मिलकर उठाते हैं। …..समयबद्धता का अभाव भी बड़ी समस्या है। साहित्यिक कार्यक्रमों में समय पर न आना एक बड़ी समस्या है। चार बजे का समय दिया गया है तो पौने पाँच, पाँच तो निश्चित बजेगा। कल्पना कीजिए कि 130 करोड़ के देश में रोजाना पचास गोष्ठियाँ भी होती हों, औसत दस आदमी एक घंटा देर से पहुँचते हैं तो पाँच सौ लोगों के चलते 500 मैन ऑवर्स बर्बाद होते हैं। यह मात्रा महीने में पंद्रह हज़ार और एक वर्ष में एक लाख अस्सी हज़ार घंटे की बर्बादी का है। एक लाख अस्सी हज़ार घंटे की ऊर्जा का क्षय राष्ट्र का बड़ा क्षय है। इसे बचाना चाहिए। हिंआप में हमने इसे बहुत हद तक नियंत्रित किया है।

(श्रीमती सुधा संजय भारद्वाज) 

वीनु जमुआर- उन दिनों सोशल मीडिया नहीं था। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया भी बहुत उन्नत नहीं था। ऐसे में लोगों को सूचनाएँ पहुँचाने का क्या माध्यम था?

संजय भारद्वाज- मासिक गोष्ठियों की सूचना देना उन दिनों अधिक समय लेनेवाला और अधिक श्रमसाध्य था। तब हर व्यक्ति के घर में फोन नहीं था। हमने लोगों के पते कीएक सूची बनाई। सुबह जल्दी घर छोड़ने के बाद रात को लौटने में देर होती थी। हम पति-पत्नी रात को बैठकर पोस्टकार्ड लिखते। सुबह व्यापार के लिए निकलते समय मैं उन्हें पोस्ट करता। अधिकांश समय ये पोस्टकार्ड लिखने की जिम्मेदारी सुधा जी ने उठाई। लोगों का पता बदलने पर सूची में संशोधन होता रहता। फिर अधिकांश सूचनाएँ लैंडलाइन पर दी जाने लगीं। इससे सूचना देने का समय तो बढ़ा, साथ ही फोन का बिल भी ज़बरदस्त आने लगा। मैं 1997-98 में लैंडलाइन का मासिक बिल औसत रुपये 1500/- भरता था। फिर मोबाइल आए। आरंभ में मोेबाइल लक्ज़री थे और इनकमिंग के लिए भी शुल्क लगता था। शनै:-शनै: मोबाइल का चलन बढ़ा। फिर लोगों को एस.एम.एस. द्वारा सूचनाएँ देने लगे। फिर चुनिंदा लोगों को ईमेल जाने लगे। वॉट्सएप क्राँति के बाद तो संस्था का पटल बन गया और एक क्लिक पर हर सूचना जाने लगी।

वीनु जमुआर- हिंआप की गोष्ठियों की एक विशेषता है कि महिलाएँ बहुतायत से उपस्थित रहती हैं। स्त्रियों की दृष्टि से देखें तो गोष्ठियों का वातावरण बेहद ऊर्जावान, सुंदर, पारिवारिक और उत्साहवर्धक होता है। अपनीे तरह की इस विशिष्ट उपलब्धि पर कैसा अनुभव करते हैं आप?

संजय भारद्वाज- महिलाएँ मनुष्य जीवन की धुरी हैं। स्त्री है तो सृष्टि है। स्त्री अपने आप में एक सृष्टि है। भारतीय परिवेश में पुरुष का करिअर, उसका व्यक्तित्व, विवाह के पहले जहाँ तक पहुँचा होता है, उसे अपने  विवाह के बाद वह वहीं से आगे बढ़ाता है। स्त्रियों के साथ उल्टा होता है। खानपान, पहरावे से लेकर हर क्षेत्र में उनके जीवन में आमूल परिवर्तन हो जाता है। अधिकांश को अपने व्यक्तित्व, अपनी रुचियों का कत्ल करना पड़ता है और परिवार की सारी ज़िम्मेदारियाँ उठानी पड़ती हैं। हमारे साथ ऐसी महिलाएँ जुड़ीं जो विवाह से पहले लिखती-छपती थीं। विवाह के बाद उनकी प्रतिभा सामाजिक सोच के संदूक में घरेलू ज़िम्मेदारियों का ताला लगाकर बंद कर दी गई थीं। हिंआप से जुड़ने के बाद उन्हें मानसिक विरेचन का मंच मिला। मेलजोल, हँसी-मज़ाक, प्रतिभा प्रदर्शन और व्यक्तित्व विकास के अवसर मिले। हिंआप में उनकी प्रतिभा को प्रशंसा मिली और मिले परिजनों जैसे मित्र। कुल मिलाकर सारी महिला सदस्यों को मानो ‘मायका’ मिला। आपने स्वयं देखा और अनुभव किया होगा। वैसे भी स्त्री के लिए मायके से अधिक आनंददायी और क्या होगा! वे आनंदित हैं तो सृष्टि आनंदित है। हिंआप के बैनर तले सृष्टि को आनंदित देखकर हिंआप के प्रमुख के नाते सृष्टि के एक जीव याने मुझे तो हर्ष होगा ही न। अपने जैविक मायके से परे महिलाओं को एक आत्मिक मायका उपलब्ध करा पाना मैं हिंआप की बहुत बड़ी उपलब्धि मानता हूँ।

वीनु जमुआर- साहित्यिक क्षेत्र में हिंआप की  चर्चा प्राय: होती है। आपकी  गोष्ठियाँ अब पुणे से बाहर मुंबई और अन्य शहरों में भी होने लगी हैं। इस विस्तार को कैसे देखते हैं आप?

संजय भारद्वाज- मेरी मान्यता है कि सफलता का कोई छोटा रास्ता या शॉर्टकट नहीं होता। आप बिना रुके, बिना ठहरे, आलोचना-प्रशंसा के चक्रव्यूह में उलझे बिना निरंतर अपना काम करते रहिए। यात्रा तो चलने से ही होगी। ठहरा हुआ व्यक्ति चर्चाएँँ कितनी ही कर ले, यात्रा नहीं कर सकता। कहा भी गया है, ‘य: क्रियावान स: पंडित:।’ क्रियावान ही विद्वान है। हिंदी आंदोलन क्रियावान है। क्रियाशीलता की चर्चा समाज में होना प्राकृतिक प्रक्रिया है। जहाँ तक शहर से बाहर गोष्ठियों का प्रश्न है, यह हिंआप के प्रति साहित्यकार मित्रों के विश्वास और नेह का प्रतीक है। भविष्य में हम अन्य नगरों में भी हिंआप की गोष्ठियाँ आरंभ करने का प्रयास करेंगे। दुआ कीजिए कि अधिकाधिक शहरों में हिंआप पहुँचे।

वीनु जमुआर- अनुशासित साहित्यिक संस्था के रूप में हिंआप की विशिष्ट पहचान है। इस अनुशासन और प्रबंधन के लिए आप मज़बूत दूसरी और तीसरी पंक्ति की आवश्यकता पर सदा बल देते हैं। इस सोच को कृपया विस्तार से बताएँ।

संजय भारद्वाज- किसी भी संस्था का विकास और विस्तार उसके कार्यकर्ताओं की निष्ठा, उनके परिश्रम और लक्ष्यबेधी यात्रा से होता है। कार्यकर्ताओं की प्रतिभा को पहचान कर अवसर देने से बनता है संगठन। हिंआप में हमने प्रतिभाओं को निरंतर अवसर दिया। इससे हमारी दूसरी और तीसरी पंक्ति भी दृढ़ता से खड़ी हो गई। उदाहरण के लिए आरम्भ में मैं गोष्ठियों का संचालन करता रहा। कुछ स्थिर हो जाने के बाद संचालन के लिए गोष्ठियों में अनेक लोगों को अवसर दिया गया। हमने वार्षिक उत्सव का संचालन हर बार अलग व्यक्ति को दिया। संचालन महत्वपूर्ण कला है। आज हिंआप में आपको कई सधे हुए संचालक हैं। प्रक्रिया यहाँ ठहरी नहीं अपितु निरंतर है। वार्षिक उत्सव में संस्था का पक्ष, गतिविधियाँ और अन्य जानकारी अधिकांशत: कार्यकारिणी के सदस्य रखते हैं। इससे उनका वक्तृत्व कौशल विकसित हुआ। सक्रिय सदस्यता या दायित्व को 75 वर्ष तक सीमित रखने का काम आज सरकार और सत्तारूढ़ दल के स्तर पर किया जा रहा है। बहुत छोटा मुँह और बहुत बड़ी बात यह है कि किसी साहित्यिक या ऐच्छिक किस्म की गैर लाभदायक संस्था, स्थूल रूप से किसी भी गैरसरकारी संस्था के स्तर पर  देश में इस नियम को आरम्भ करने का  श्रेय हिंआप को है। हमने वर्ष 2012 से ही 75 की आयु में सेवा से निवृत्ति को हमारी नियमावली में स्थान दिया। नये लोग आयेंगे तो नये विचार आयेंगे। नई तकनीक आयेगी। यदि यह विचार नहीं होता तो आज तक हम पोस्टकार्ड ही लिख रहे होते। विभिन्न तरह के कार्यक्रम करते हुए अनेक बार अनेक तरह की स्थितियाँ आती हैं। इनकी बदौलत आप एक टीम की तरह काम करना सीखते हैं। टीम में काम करते हुए अनुभव समृद्ध होता है और आवश्यकता पड़ने पर कब दूसरी और तीसरी पंक्ति एक सोपान आगे आ जायेंगी, पता भी नहीं चलेगा। इससे संस्था के सामने शून्य कभी नहीं आयेगा।

वीनु जमुआर- हिंआप के सदस्य अभिवादन के लिए ‘उबूंटू’ का प्रयोग करते हैं। यह ‘उबूंटू’ क्या है?

संजय भारद्वाज- ‘उबूंटू’ को समझने के लिए एक घटना समझनी होगी। एक यूरोपियन मनोविज्ञानी अफ्रीका के आदिवासियों के एक टोले में गया। बच्चों में प्रतिद्वंदिता बढ़ाने के भाव से उसने एक टोकरी में मिठाइयाँ भरकर पेड़ के नीचे रख दीं। उसने टोले के बच्चों के बीच दौड़ का आयोजन किया और घोषणा की कि जो बच्चा सबसे दौड़कर सबसे पहले टोकरी तक जायेगा, सारी मिठाई उसकी होगी। जैसे ही मनोविज्ञानी ने दौड़ आरम्भ करने की घोषणा की, बच्चों ने एक-दूसरे का हाथ पकड़ा, एक साथ टोकरी के पास पहुँचे और सबने मिठाइयाँ आपस में समान रूप से वितरित कर लीं। आश्चर्यचकित मनोविज्ञानी ने जानना चाहा कि यह क्या है तो बच्चों ने उत्तर दिया, ‘उबूंटू।’ उसे बताया गया कि ‘उबूंटू का अर्थ है, ‘हम हैं, इसलिए मैं हूँ। सामूहिकता का यह अनन्य दर्शन ही हिंआप का दर्शन है।

वीनु जमुआर- वाचन संस्कृति के ह्रास आज सबकी चिंता का विषय है। हिंआप की गोष्ठियों में वाचन को बढ़ावा देने के लिए आपने एक सूत्र दिया है। क्या है वह सूत्र?

संजय भारद्वाज- डॉ. हरिवंशराय बच्चन ने कहा था, “सौ पृष्ठ पढ़ो, तब एक पंक्ति लिखो।” समस्या है कि हममें से अधिकांश का वाचन बहुत कम है। अत: एक सूत्र देने का विचार मन में उठा। विचार केवल उठा ही नहीं बल्कि उसने वाचन और सृजन के अंतर्सम्बंध को भी परिभाषित किया। सूत्र यों है-‘जो बाँचेगा, वही रचेगा, जो रचेगा, वही बचेगा।’ हम हमारी गोष्ठियों में रचनाकारों से कहते हैं कि आपने जो नया रचा, वह तो सुना जायेगा ही पर उससे पहले बतायें कि नया क्या पढ़ा?

वीनु जमुआर- ढाई दशक की लम्बी यात्रा में ‘क्या खोया, क्या पाया’ का आकलन कैसे करते हैं आप?

संजय भारद्वाज- पाने के स्तर पर कहूँ तो हिंआप से पाया ही पाया है। अनेक बार देश के विभिन्न हिस्सों में रहनेवाले अपरिचित लोगों से बात होती है। …“आप संजय भारद्वाज बोल रहे हैं? …हिंदी आंदोलन वाले संजय भारद्वाज.?”  इसके बाद आगे संवाद होता है। इससे अधिक क्या पाया जा सकता है कि व्यक्ति की पहचान संस्था के नाम से होती है। ‘उबूंटू’ का यह सजीव उदाहरण हैं। खोने के स्तर पर सोचूँ तो हिंआप ने दिया बहुत कुछ,  साथ ही हिंआप ने लिया सब कुछ। संग आने से संघ बनता है, संघ से संगठन। इकाई के तौर पर मेरे निजी सम्बंधों का अनेक लोगों के साथ विकास और विस्तार हुआ। इन निजी सम्बंधों को संगठन से जोड़ा। संगठन के विस्तार से कुछ लोगों की व्यक्तिगत आकांक्षाएँ बलवती हुईं। निर्णय लिए तो मित्र खोये। ये दुख सदा रहेगा पर संस्था व्यक्तिगत आकांक्षा के लिए नहीं अपितु सामूहिक महत्वाकांक्षा के लिए होती है। संस्था के विकास के लिए अध्यक्ष कोे समुचित निर्णय लेने होते हैं। अध्यक्ष होने के नाते  निर्णय लेना अनिवार्य होता है तो मित्र के नाते सम्बंधों की टूटन की वेदना भोगना भी अनिवार्य होता है। मैं दोनों भूमिकाओं का ईमानदारी से वहन करने का प्रयास करता हूँ।

(गांधी जी की सहयोगी रहीं डॉ. शोभना रानाडे और भारत को परम कंप्यूटर देने वाले डॉ विजय भटकर, साहित्यकार डॉ दामोदर खडसे द्वारा हिंदी आंदोलन परिवार के वार्षिक अंक ‘हम लोग’ का विमोचन. इस पत्रिका में प्रतिवर्ष १०० से अधिक रचनाकारों को स्थान दिया जाता है.)

वीनु जमुआर- नये प्रतिमान स्थापित करना हिंदी आदोलन परिवार की विशेषता है। यह विशेषता संस्था की वार्षिक पत्रिका ‘हम लोग’ और ‘हिंदीभूषण और हिंदीश्री सम्मान’ में भी उभरकर सामने आती है। इसकी भी थोड़ी जानकारी दीजिए।

संजय भारद्वाज- हिंआप की वार्षिक पत्रिका ‘हम लोग’ संभवत: पहली पत्रिका है जिसमें प्रतिवर्ष औसत 101 रचनाकारों को स्थान दिया जाता है। इसमें लब्ध प्रतिष्ठित और नवोदित दोनों रचनाकार होते हैं। इस वर्ष से पत्रिका का ई-संस्करण आने की संभावना है। जहाँ तक पुरस्कारों का प्रश्न है, विसंगति यह है कि हर योग्य पुरस्कृत नहीं होता और हर पुरस्कृत योग्य नहीं होता। हमने इसे सुसंगत करने का प्रयास किया। हिंआप द्वारा दिये जानेवाले सम्मानों के माध्यम से हमने योग्यता और पुरस्कार के बीच प्रत्यक्ष अनुपात का सम्बंध पुनर्स्थापित करने का प्रयास किया है।

वीनु जमुआर- हिंआप ने सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्र को भी साहित्य के अंग के रूप में स्वीकार किया है। इस पर रोशनी डालिए।

संजय भारद्वाज- मैं मानता हूँ कि साहित्य अर्थात ‘स’ हित। समाज का हित ही साहित्य है। सामाजिक-सांस्कृतिक प्रकल्पों द्वारा हम समाज के वंचित वर्ग के साथ जुड़ते हैं। अनुभव का विस्तार होता है। एक घटना साझा करता हूँ। हमने दिव्यांग बच्चों का एक कार्यक्रम रखा। इसमें दृष्टि, मति और वाचा दिव्यांग बच्चे थे। दृष्टि दिव्यांग (नेत्रहीन) बच्चे जब नृत्य प्रस्तुत कर रहे थे तो हमने लोगों से निरंतर तालियाँ बजाने को कहा क्योंकि वे तालियों की आवाज़ सुनकर ही उनको मिल रहे समर्थन का अनुमान लगा सकते हैं। जब वाचा दिव्यांग ( मूक-बधिर) बच्चे आए तो तालियों के बजाय दोनों हाथ ऊपर उठाकर समर्थन का आह्वान किया क्योंकि ये बच्चे देख सकते थे पर सुन नहीं सकते थे। कितना बड़ा अनुभव! हरेक के रोंगटे खड़े हो गये, हर आँख में पानी आ गया।…हिंआप के सदस्य रिमांड होम के बच्चों के बीच हों या वेश्याओं के बच्चों के साथ, फुटपाथ पर समय से पहले वयस्क होते मासूमों से मिलते हों या चोर का लेबल चस्पा कर दिये गये प्लेटफॉर्म पर रहनेवाले बच्चों से, महिलाश्रम में निवासियों से कुशल-मंगल पूछी हो या वृद्धाश्रम में बुजुर्गों को सिर नवाया हो, कैदियों को अभिव्यक्ति के लिए  मंच प्रदान कर रहे हों या भूकम्प पीड़ितों के लिए राहत कोष में यथासंभव सहयोग कर रहे हों, वसंत पंचमी पर पीतवस्त्रों में माँ सरस्वती का पूजन कर रहे हों या भारतमाता के संरक्षण के लिए दिन-रात सेवा देनेवाले सैनिकों के लिए आयोजन कर रहे हों, पैदल तीर्थयात्रा करनेवालों की सेवा में रत हों या श्रीरामचरितमानस के अखंड पाठ द्वारा वाचन संस्कृति के प्रसार में व्यस्त, हर बार एक नया अनुभव ग्रहण करते हैं, हर बार जीवन की संवेदना से रूबरू होते हैं। साहित्यकार धरती से जुड़ेगा तभी उसका लेखन हरा रहेगा।

वीनु जमुआर- हिंआप के भविष्य की योजनाओं पर प्रकाश डालिए।

संजय भारद्वाज- भविष्य की आँख से तत्कालीन वर्तमान देखने के लिए समकालीन वर्तमान दृढ़ करना होगा। वर्तमान में पश्चिमी शिक्षा के आयातित मॉडेल के चलते हिंदी और भारतीय भाषाओं के साहित्य में रुचि रखनेवाले युवा तुलनात्मक रूप से कम हैं। हम हिंआप मेें युवाओं को विशेष प्रधानता देना चाहते हैं। हम वर्ष में एक आयोजन नवोदितों के लिए करते आये हैं। इसकी संख्या बढ़ाने और कुछ अन्य युवा उपयोगी साहित्यिक गतिविधियों का विचार है। गत पाँच वर्ष से हम हमारे पटल पर ई-गोष्ठी कर रहे हैं। अब तक 38 ई-गोष्ठियाँ हो चुकीं। हम स्काइप आधारित गोष्ठियों का भी विचार रखते हैं। पुस्तकालय और वाचनालय का प्रकल्प तो है ही। हम दानदाता की तलाश में हैं जो हिंदी पुस्तकों के पुस्तकालय और वाचनालय के लिए स्थान उपलब्ध करा दे।

वीनु जमुआर- अंत में एक व्यक्तिगत प्रश्न। हिंदी आंदोलन के संस्थापक-अध्यक्ष की पहचान  कवि, कहानीकार, लेखक, संपादक, समीक्षक, पत्रकार, सूत्र-संचालक, नाटककार, अभिनेता, निर्देशक और समाजसेवी के रूप में भी है। इस बहुआयामी व्यक्तित्व के निर्वहन में आपको अपना कौनसा रूप सबसे प्रिय है?

संजय भारद्वाज- मैं सृजनधर्मी हूँ। उपरोक्त सभी विधाएँ या ललितकलाएँ  प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सृजन से जु़ड़ी हैं। ये सब अभिव्यक्ति के भिन्न-भिन्न आयाम हैं। मैं योजना बनाकर इनमें से किसी क्षेत्र में विशेषकर सृजन में प्रवेश नहीं कर सकता। अनुभूति अपनी विधा स्वयं चुनती है। वह जब जिस विधा में अभिव्यक्त होना चाहती है, हो लेती है और मेरी कलम उसका माध्यम बन जाती है। हाँ यह कह सकता हूँ कि मेरे लिए मेरा लेखन दंतकथाओं के उस तोते की तरह है जिसमें जादूगर के प्राण बसते थे। इसीलिए मेरा सीधा, सरल परिचय है, ‘लिखता हूँ, सो जीता हूँ।’

 

सम्पर्क- संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मो 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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