हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – 3. दीपावली के तीन दिन और तीन शब्ददीप ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

गतवर्ष दीपावली के समय लिखे तीन संस्मरण आज से एक लघु शृंखला के रूप में साझा कर रहा हूँ। आशा है कि ये संस्मरण हम सबकी भावनाओं के  प्रतिनिधि सिद्ध होंगे।  – संजय भरद्वाज

☆ संजय दृष्टि  – दीपावली विशेष – दीपावली के तीन दिन और तीन शब्ददीप 

☆ आज तीसरा शब्ददीप ☆

आज भाईदूज है। प्रातःभ्रमण पर हूँ। हर तरफ सुनसान, हर तरफ सब कुछ चुप। दीपावली के बाद शहर अलसाया हुआ है। सोसायटी का चौकीदार भी जगह पर नहीं है। इतनी सुबह दुकानें अमूमन बंद रहती हैं पर अख़बार वालों, मंडी की ओर जाते सब्जीवालों, कुछ फलवालों, जल्दी नौकरी पर जाने वालों और स्कूल-कॉलेज के विद्यार्थियों से सड़क ठसाठस भरी रहती है। आज सार्वजनिक छुट्टी है। नौकरीपेशा, विद्यार्थी सब अपने-अपने घर पर हैं। सब्जी मंडी भी आज बंद है। अख़बारों को कल प्रतिपदा की छुट्टी थी। सो आज अख़बार विक्रेता भी नहीं हैं। वातावरण हलचल की दृष्टि से इतना शांत जैसे साइबेरिया में हिमपात के बाद का समय हो।

वातावरण का असर कुछ ऐसा कि लम्बे डग भरने वाला मैं भी कुछ सुस्ता गया हूँ। डग छोटे हो गये हैं और कदमों की गति कम। देह मंथर हो तो विचारों की गति तीव्र होती है। एकाएक इस सुनसान में एक स्थान पर भीड़ देखकर ठिठक जाता हूँ। यह एक प्रसिद्ध पैथालॉजी लैब का सैम्पल कलेक्शन सेंटर है। अलसुबह सैम्पल देने के लिए लोग कतार में खड़े हैं। उल्लेखनीय है कि इनमें वृद्धों के साथ-साथ मध्यम आयु के लोग काफी हैं। मुझे स्मरण हो आता है, ‘ शुभं करोति कल्याणं आरोग्यं धनसम्पदा।’

सबसे बड़ी सम्पदा स्वास्थ्य है। हम में से अधिकांश  अपनी जीवन शैली और लापरवाही के चलते प्रकृति प्रदत्त इस सम्पदा की भलीभाँति रक्षा नहीं कर पाते हैं। चंचल धन और पार्थिव अधिकार के मद ने आँखों पर ऐसी पट्टी बांध दी है कि हम त्योहार या उत्सव की मूल परम्परा ही भुला बैठे हैं। आद्य चिकित्सक धन्वंतरी की त्रयोदशी को हमने धन की तेरस तक सीमित कर लिया। रूप की चतुर्दशी, स्वरूप को समर्पित कर दी। दीपावली, प्रभु श्रीराम के अयोध्या लौटने, मूल्यों की विजय एवं अर्चना का प्रतीक न होकर केवल द्रव्यपूजन का साधन हो गई।

उत्सव और त्योहारों को उनमें अंतर्निहित उदात्तता के साथ मनाने का पुनर्स्मरण हमें कब होगा? कब हम अपने जीवन के अंधकार के विरुद्ध एक दीप प्रज्ज्वलित करेंगे?  अपनी सुविधा के अर्थ ग्रहण करने की अंधेरी मानसिकता के आगे जिस दिन एक भी दीपक सीना ठोंक कर खड़ा हो गया, यकीन मानिए, अमावस्या को दीपावली होने में समय नहीं लगेगा।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – सप्तम अध्याय (3) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

सप्तम अध्याय

ज्ञान विज्ञान योग

(विज्ञान सहित ज्ञान का विषय)

 

मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये ।

यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्वतः ।।3।।

 

लोग सहस्त्रों में कोई करता एक प्रयत्न

मुझे जानता तत्वतः कोई किंतु नर रत्न।।3।।

 

भावार्थ :  हजारों मनुष्यों में कोई एक मेरी प्राप्ति के लिए यत्न करता है और उन यत्न करने वाले योगियों में भी कोई एक मेरे परायण होकर मुझको तत्व से अर्थात यथार्थ रूप से जानता है।।3।।

 

Among thousands  of  men,  one  perchance  strives  for  perfection;  even  among  those successful strivers, only one perchance knows me in essence.।।3।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – दीपावली के तीन दिन और तीन शब्ददीप ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

गतवर्ष दीपावली के समय लिखे तीन संस्मरण आज से एक लघु शृंखला के रूप में साझा कर रहा हूँ। आशा है कि ये संस्मरण हम सबकी भावनाओं के  प्रतिनिधि सिद्ध होंगे।  – संजय भरद्वाज 

☆ संजय दृष्टि  – दीपावली विशेष – दीपावली के तीन दिन और तीन शब्ददीप

☆ पहला दीप ☆
दीपावली की शाम.., बाज़ार से लक्ष्मीपूजन के भोग के लिए मिठाई लेकर लौट रहा हूँ। अत्यधिक भीड़ होने के कारण सड़क पर जगह-जगह बैरिकेड लगे हैं। मन में प्रश्न उठता है कि बैरिकेड भीड़ रोकते हैं या भीड़ बढ़ाते हैं?
प्रश्न को निरुत्तर छोड़ भीड़ से बचने के लिए गलियों का रास्ता लेता हूँ। गलियों को पहचान देने वाले मोहल्ले अब अट्टालिकाओं में बदल चुके। तीन-चार गलियाँ अब एक चौड़ी-सी गली में खुल रही हैं। इस चौड़ी गली के तीन ओर शॉपिंग कॉम्पलेक्स के पिछवाड़े हैं। एक बेकरी है, गणेश मंदिर है, अंदर की ओर खुली कुछ दुकानें हैं और दो बिल्डिंगों के बीच टीन की छप्पर वाले छोटे-छोटे 18-20 मकान। इन पुराने मकानों को लोग-बाग ‘बैठा घर’ भी कहते हैं।
इन बैठे घरों के दरवाज़े एक-दूसरे की कुशल क्षेम पूछते आमने-सामने खड़े हैं। बीच की दूरी केवल इतनी कि आगे के मकानों में रहने वाले इनके बीच से जा सकें। गली के इन मकानों के बीच की गली स्वच्छता से जगमगा रही है। तंग होने के बावजूद हर दरवाज़े के आगे रंगोली, रंग बिखेर रही है।
रंगों की छटा देखने में मग्न हूँ कि सात-आठ साल का एक लड़का दिखा। एक थाली में कुछ सामान लिए, उसे लाल कपड़े से ढके। थाली में संभवतः दीपावली पर घर में बने गुझिया या करंजी, चकली, बेसन-सूजी के लड्डू हों….! मन संसार का सबसे तेज़ भागने वाला यान है। उल्टा दौड़ा और क्षणांश में 45-48 साल पीछे पहुँच गया।
सेना की कॉलोनी में हवादार बड़े मकान। आगे-पीछे  खुली जगह। हर घर सामान्यतः आगे बगीचा लगाता, पीछे सब्जियाँ उगाता। स्वतंत्र अस्तित्व के साथ हर घर का साझा अस्तित्व भी। हिंदीभाषी परिवार का दाहिना पड़ोसी उड़िया, बायाँ मलयाली, सामने पहाड़ी, पीछे हरियाणवी और नैऋत्य में मराठी।  हर चार घर बाद बहुतायत से अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराते पंजाबी। सबसे ख़ूबसूरत पहलू यह कि राज्य या भाषा कोई भी हो, सबको एकसाथ जोड़ती, पिरोती, एक सूत्र में बांधती हिंदी।
कॉलोनी की स्त्रियाँ शाम को एक साथ बैठतीं। खूब बातें होतीं। अपने-अपने  के प्रांत के व्यंजन बताती और आपस में सीखतीं। सारे काम समूह में होते। दीपावली पर तो बहुत पहले से करंजी बनाने की समय सारणी बन जाती। सारणी के अनुसार निश्चित दिन उस महिला के घर उसकी सब परिचित पहुँचती। सैकड़ों की संख्या में करंजी बनतीं। माँ तो 700 से अधिक करंजी बनाती। हम भाई भी मदद करते। बाद में बड़ा होने पर बहनों ने मोर्चा संभाल लिया।
दीपावली के दिन तरह-तरह के पकवानों से भर कर थाल सजाये जाते। फिर लाल या गहरे कपड़े से ढककर मोहल्ले के घरों में पहुँचाने का काम हम बच्चे करते। अन्य घरों से ऐसे ही थाल हमारे यहाँ भी आते।
पैसे के मामले में सबका हाथ तंग था पर मन का आकार, मापने की सीमा के परे था। डाकिया, ग्वाला, महरी, जमादारिन, अखबार डालने वाला, भाजी वाली, यहाँ तक कि जिससे कभी-कभार खरीदारी होती उस पाव-ब्रेडवाला, झाड़ू बेचने वाली, पुराने कपड़ों के बदले बरतन देनेवाली और बरतनों पर कलई करने वाला, हरेक को दीपावली की मिठाई दी जाती।
अब कलई उतरने का दौर है। लाल रंग परम्परा में सुहाग का माना जाता है। हमारी सुहागिन परम्पराएँ तार-तार हो गई हैं। विसंगति यह कि अब पैसा अपार है पर मन की लघुता के आगे आदमी लाचार है।
पीछे से किसी गाड़ी का हॉर्न तंद्रा तोड़ता है, वर्तमान में लौटता हूँ। बच्चा आँखों से ओझल हो चुका। जो ओझल हो जाये, वही तो अतीत कहलाता है।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

11.49 बजे,  9.11.2018

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – सप्तम अध्याय (1) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

सप्तम अध्याय

ज्ञान विज्ञान योग

(विज्ञान सहित ज्ञान का विषय)

 

श्रीभगवानुवाच

मय्यासक्तमनाः पार्थ योगं युञ्जन्मदाश्रयः ।

असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु ।।1।।

 

श्री कृष्ण ने कहा-

मुझ में अपना मन रमा,मेरे आश्रय आन

पार्थ! मुझे पहचानने का सुन पूरा ज्ञान।।1।।

 

भावार्थ :  श्री भगवान बोले- हे पार्थ! अनन्य प्रेम से मुझमें आसक्त चित तथा अनन्य भाव से मेरे परायण होकर योग में लगा हुआ तू जिस प्रकार से सम्पूर्ण विभूति, बल, ऐश्वर्यादि गुणों से युक्त, सबके आत्मरूप मुझको संशयरहित जानेगा, उसको सुन॥1॥

 

O Arjuna, hear how you shall without doubt know Me fully, with the mind intent on me, practicing Yoga and taking refuge in Me!।।1।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – षष्ठम अध्याय (47) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

षष्ठम अध्याय

( योगभ्रष्ट पुरुष की गति का विषय और ध्यानयोगी की महिमा )

 

योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना ।

श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः ।।47।।

 

सभी योगियों में रमे,जिनके मुझमे प्राण

मेरे मत से श्रेष्ठ वह जो है श्रद्धावान।।47।।

 

भावार्थ :  सम्पूर्ण योगियों में भी जो श्रद्धावान योगी मुझमें लगे हुए अन्तरात्मा से मुझको निरन्तर भजता है, वह योगी मुझे परम श्रेष्ठ मान्य है।।47।।

 

And among all the Yogis, he who, full of faith and with his inner self merged in Me, worships Me, he is deemed by Me to be the most devout.।।47।।

 

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे आत्मसंयमयोगो नाम षष्ठोऽध्यायः ॥6॥

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – दीपावली विशेष – रूप चतुर्दशी ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

प्रबुद्ध पाठकों के लिए आज दीपावली पर्व पर संजय दृष्टि के दूसरा सामयिक अंक भी आपके आत्मसात करने हेतु प्रस्तुत हैं।

 

☆ संजय दृष्टि  – दीपावली विशेष – रूप चतुर्दशी

 

मेरे भीतर

फुफकारता है

काला एक नाग,

चोरी-छिपे जिसे

रोज दूध पिलाता हूँ,

ओढ़कर चोला

राजहंस का, फिर मैं

सार्वजनिक हो जाता हूँ।

हर व्यक्ति मन के सौंदर्य से सम्पन्न हो। रूप चतुर्दशी की बधाई एवं शुभकामनाएँ।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

( कविता संग्रह ‘योंही’ )

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – षष्ठम अध्याय (46) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

षष्ठम अध्याय

( योगभ्रष्ट पुरुष की गति का विषय और ध्यानयोगी की महिमा )

 

तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः ।

कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन ।।46।।

 

योगी तपसी से बड़ा ज्ञानियों से भी महान

योगी हो अर्जुन ! जो है कर्मीयों से विद्धान।।46।।

 

भावार्थ :  योगी तपस्वियों से श्रेष्ठ है, शास्त्रज्ञानियों से भी श्रेष्ठ माना गया है और सकाम कर्म करने वालों से भी योगी श्रेष्ठ है। इससे हे अर्जुन! तू योगी हो।।46।।

 

The Yogi is thought to be superior to the ascetics and even superior to men of knowledge (obtained through the study of scriptures); he is also superior to men of action; therefore, be thou a Yogi, O Arjuna! ।।46।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – दीपावली विशेष – धनतेरस ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

प्रबुद्ध पाठकों के लिए आज दीपावली पर्व पर संजय दृष्टि के दूसरा सामयिक अंक भी आपके आत्मसात करने हेतु प्रस्तुत हैं।

 

☆ संजय दृष्टि  – दीपावली विशेष – धनतेरस

 

इस बार भी धनतेरस पर चाँदी का सिक्का खरीदने से अधिक का बजट नहीं बचा था उसके पास। ट्रैफिक के चलते सिटी बस ने उसके घर से बाजार की 20 मिनट की दूरी 45 मिनट में पूरी की। बाजार में भीड़ ऐसी कि पैर रखने को जगह नहीं। भारतीय समाज की विशेषता यही है कि पैर रखने की जगह न बची होने पर भी हरेक को पैर टिकाना मयस्सर हो जाता है।

भीड़ की रेलमपेल ऐसी कि दुकान, सड़क और फुटपाथ में कोई अंतर नहीं बचा था। चौपहिया, दुपहिया, दोपाये, चौपाये सभी भीड़ का हिस्सा। साधक, अध्यात्म में वर्णित आरंभ और अंत का प्रत्यक्ष सम्मिलन यहाँ देख सकते थे।

….उसके विचार और व्यवहार का सम्मिलन कब होगा? हर वर्ष सोचता कुछ और…और खरीदता वही चाँदी का सिक्का। कब बदलेगा समय? विचारों में मग्न चला जा रहा था कि सामने फुटपाथ की रेलिंग को सटकर बैठी भिखारिन और उसके दो बच्चों की कातर आँखों ने रोक लिया। …खाना खिलाय दो बाबूजी। बच्चन भूखे हैं।….गौर से देखा तो उसका पति भी पास ही हाथ से खींचे जानेवाली एक पटरे को साथ लिए पड़ा था। पैर नहीं थे उसके। माज़रा समझ में आ गया। भिखारिन अपने आदमी को पटरे पर बैठाकर उसे खींचते हुए दर-दर रोटी जुटाती होगी। आज भीड़ में फँसी पड़ी है। अपना चलना ही मुश्किल है तो पटरे के लिए जगह कैसे बनती?

…खाना खिलाय दो बाबूजी। बच्चन भूखे हैं।…स्वर की कातरता बढ़ गई थी।..पर उसके पास तो केवल सिक्का खरीदने भर का पैसा है। धनतेरस जैसा त्योहार सूना थोड़े ही छोड़ा जा सकता है।…वह चल पड़ा। दो-चार कदम ही उठा पाया क्योंकि भिखारिन की दुर्दशा, बच्चों की टकटकी लगी उम्मीद और स्वर में समाई याचना ने उसके पैरों में लोहे की मोटी सांकल बाँध दी थी। आदमी दुनिया से लोहा ले लेता है पर खुदका प्रतिरोध नहीं कर पाता।

पास के होटल से उसने चार लोगों के लिए  भोजन पैक कराया और ले जाकर पैकेट भिखारिन के आगे धर दिया।

अब जेब खाली था। चाँदी का सिक्का लिए बिना घर लौटा। अगली सुबह पत्नी ने बताया कि बीती रात सपने में उसे चाँदी की लक्ष्मी जी दिखीं।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

प्रात: 4:56 बजे, 25.10.2019 (धनतेरस)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – मानदंड ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

We present an English Version of this poem with the title  ☆ Criterion ☆ published today. We extend our heartiest thanks to Captain Pravin Raghuvanshi Ji for this beautiful translation.)

 

☆ संजय दृष्टि  – मानदंड

 

सफेद कैनवास पर

बिखर जाते हैं रंग

कैनवास रंगमिति से

उर्वरा हो जाता है,

सृजन की बधाई देने

समूह पहुँचता है…..

सफेद साड़ी पर

भूल से छितर जाती है

रंग की एकाध बूँद,

आँचल तनिक फहराता है

हाहाकार मच जाता है,

घुटते रहने की हिदायत देने

समूह पहुँचता है…..

कलमकार देखता है स्वप्न,

काश फ्रेम पर तान देता

सफेद साड़ी और

औरत को ओढ़ा पाता कैनवास!

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

रात्रि 2:17 बजे, 30.8.2019

 

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – षष्ठम अध्याय (45) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

षष्ठम अध्याय

( योगभ्रष्ट पुरुष की गति का विषय और ध्यानयोगी की महिमा )

 

प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संशुद्धकिल्बिषः ।

अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो यात परां गतिम्‌।।45।।

 

और यत्न करता हुआ हो पवित्र परिशुद्ध

पाता सदगति सफलता होता है संबुद्ध।।45।।

 

भावार्थ :  परन्तु प्रयत्नपूर्वक अभ्यास करने वाला योगी तो पिछले अनेक जन्मों के संस्कारबल से इसी जन्म में संसिद्ध होकर सम्पूर्ण पापों से रहित हो फिर तत्काल ही परमगति को प्राप्त हो जाता है॥45॥

 

But, the  Yogi  who  strives  with  assiduity,  purified  of  sins  and  perfected  gradually through many births, reaches the highest goal. ।।45।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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