हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 173 ☆ “ढ़ाढ़ी से बड़ी मूंछ” – व्यंग्यकार… श्री प्रियदर्शी खैरा ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हमप्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’  जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है आपके द्वारा श्री प्रियदर्शी खैरा जी द्वारा लिखित  “ढ़ाढ़ी से बड़ी मूंछपर चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 173 ☆

☆ “ढ़ाढ़ी से बड़ी मूंछ” – व्यंग्यकार… श्री प्रियदर्शी खैरा ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

पुस्तक चर्चा

व्यंग्य संग्रह …ढ़ाढ़ी से बड़ी मूंछ

व्यंग्यकार … श्री प्रियदर्शी खैरा

प्रकाशक भारतीय साहित्य संग्रह कानपुर

मूल्य ४०० रु, पृष्ठ १९२

“दाढ़ी से बड़ी मूँछ “ किताब का शीर्षक ही सहज ध्यानाकर्षक है। हरिशंकर परसाई जी ने शीर्षक के बारे में कई महत्वपूर्ण व्यंग्यात्मक बातें लिखी हैं। परसाई लिखते है कि “विषय पर निबंध का शीर्षक महत्वपूर्ण है क्योंकि यह पाठकों को सामग्री के बारे में पहले से ही सूचित करता है और उनमें उत्सुकता पैदा करता है। ” “शीर्षक निबंध, जिसके आधार पर पूरी पुस्तक का नामकरण किया गया है, आज के इस ज्वलन्त सत्य को उद्घाटित करता है कि सभी लोग किसी-न-किसी तरह शॉर्टकट के चक्कर में हैं”। प्रियदर्शी खैरा जी की कृति पर चर्चा करते हुये, परसाई जी को उधृत करने का आशय मात्र इतना है कि बढ़िया गेटअप, हास्य प्रमुदित करता, शीर्षक को परिभाषित करता आवरण चित्र और संग्रहित निबंधो को शार्टकट स्वरूप में ध्वनित करता शीर्षक “दाढ़ी से बड़ी मूँछ ” पाठक को यह समझाने के लिये पर्याप्त है कि भीतर के पृष्ठों पर उसे हास्य सम्मिश्रित व्यंग्य पढ़ने मिलेगा।

अनुक्रमणिका में  “गज़ब की सकारात्मकता”, भक्त से भगवान, ट्रेन टिकट और चुनाव टिकट, चन्द्रमा का पृथ्वी भ्रमण, नेता, अफसर और देश, एक एंकर की उदय कथा, चमत्कार को नमस्कार है, अथ आत्मकथा माहात्म्य, टोटका-माहात्म्य, अथ चरण पादुका माहात्म्य, सचिवालय-महिमा पुराण, खादी और सपने, सब जल्दी में हैं, छेदी काका बनाम सुक्खन भैया, आयकर, सेवाकर और प्रोफेसर, त्रिया भाग्यम्, पुरुषस्य चरित्रम्, योग, संयोग और दुर्योग, पी पी पी मोड में श्मशान घाट, जैसे शीर्षक पढ़ने के बाद कोई भी पाठक जो व्यंग्य में दिलचस्पी रखता है किताब में रुचि लेने से स्वयं को रोक नहीं पायेगा। इन शीर्षको से यह भी स्पष्ट होता है कि खैरा जी ने हिन्दी वांग्मय तथा साहित्य खूब पढ़ा है, और भीतर तक उससे प्रभावित हैं, तभी अनेक रचनाओ के शीर्षको में अथ कथा, महात्म्य, जैसे प्रयोग उन्होने किये हैं। ये रचनायें पढ़ने पर समझ आता है कि उन्होने विषय का पूरा निर्वाह सफलता से किया है।

पन्ने अलटते पलटते मेरी नजर “हींग लगे न फिटकरी, रंग भी चोखा होय”, एवरेस्ट पर ट्रैफिक जाम, गजब की सकारात्मकता पर ठहर गई। खैरा जी लिखते हैं …” हिंदुस्तानी गजब के सकारात्मक हैं। हम चर्चा क्रांति में विश्वास रखते हैं, फिर जो होता है उसे ईश्वर की इच्छा मानकर यथारूप में स्वीकार कर लेते हैं। अब यदि पुत्री ने जन्म लिया तो लक्ष्मी आ गई, और पुत्र हुआ तो कन्हैया आ गए। यदि संतान पढ़ लिखकर बाहर चली गई तो खानदान का नाम रोशन कर दिया, यदि घर पर रह गई तो अच्छा हुआ, नहीं तो घर कौन संभालता। ” आगे वे लिखते हैं .. हमारे गाँव में एक चिर कुंवारे थे, जहाँ खाना मिल जाता, वहीं खा लेते, नहीं मिलता तो व्रत रख लेते। पूछने वालों को व्रत के लाभ भी गिना देते, जैसे कि अच्छे स्वास्थ्य के लिए उपवास जरूरी है। हमारे मनीषियों ने सप्ताह के सात दिन के नाम किसी न किसी देवी देवता के नाम पर ऐसे ही नहीं रखे हैं, उसके पीछे दर्शन है, व्रत के साथ-साथ उनकी आराधना भी हो जाती है, इस लोक का समय कट जाता है और परलोक भी सुधर जाता है। अगर इसी बीच उन्हें भोजन मिल जाता तो ऊपर वाले की कृपा और आशीर्वाद मानकर ग्रहण भी कर लेते थे। मतलब हर बात में सकारात्मक।

  इसी तरह, कोरोना काल में लिखे गये किताब के शीर्षक व्यंग्य “दाढ़ी से बड़ी मूँछ ” से अंश देखिये … मैंने कुर्सी पर बैठते हुए मुस्कुराते हुए पूछा, “क्यों भई, बरसात तो है नहीं, पर तुम छत के नीचे बरसाती पहने क्यों बैठे हो? क्या छत में लीकेज है?””सर, आप नहीं समझोगे, कोरोना अभी गया नहीं, ये सब कोरोना से आप की सुरक्षा के लिए है। कोविड काल में सब शरीर की मरम्मत में लगे हैं, छत की मरम्मत अगले साल कराएँगे, धंधा मंदा है। ” उसने उत्तर देते हुए हजामत करना प्रारंभ कर दिया। तभी मेरी दृष्टि सामने टंगी दर सूची पर गई तो होश उड़ गए, मैंने पूछा, “भाई साहब, पहले हजामत के सौ रुपए लगते थे और अब तीन सौ !”सर, आप की सुरक्षा के लिए, हजामत के तो सौ रुपए ही हैं, दो सौ रुपए पीपीई किट के हैं। अस्पताल वाले हजार जोड़ते हैं, आप कुछ नहीं कहते, हमारे दो सौ भी आपको ज्यादा लगते हैं। ” उसने उत्तर दिया। मैं क्या करता अब उठ भी नहीं सकता था, आधी हजामत हो चुकी थी। हजामत करते करते उसने पूछा, “सर, आपके पिताजी हैं?” मैंने उत्तर दिया, “नहीं’। ” “फिर तो आप मुंडन करा लेते तो अच्छा रहता, छः माह के लिए फ्री, आपके भी पैसे बचते, और हम भी आपके उलझे हुए बालों में नहीं उलझते। ” वह मुस्कुराते हुए बोला।

इतना पढ़कर पाठक समझ रहे होंगे कि व्यंग्य में हास्य के संपुट मिलाना, रोजमर्रा की लोकभाषा में लेखन, सहज सरल वाक्य विन्यास होते हुये भी चमत्कृत करने वाली लेखन शैली, व्यंग्य लेखन के विषय का चयन तथा उसका अंत तक न्यायिक निर्वाह प्रियदर्शी खैरा जी की विशेषता है। वे स्तंभ लेखन कर चुके हैं। कविता, गजल, व्यंग्य विधाओ में सतत लिखते हैं, कई साहित्यिक संस्थाओ से संबद्ध हैं। अर्थात उनका अनुभव संसार व्यापक है। श्मशान को पी पी पी मोड पर चला कर उसका विकास करने जैसे व्यंग्यात्मक विचारों पर कलम चलाने का माद्दा उनमें है।

शब्द अमूल्य होते हैं यह सही है, किन्तु “ढ़ाढ़ी से बड़ी मूंछ” में मुझे पुस्तक के अपेक्षाकृत अधिक मूल्य के अतिरिक्त सब कुछ बहुत बढ़िया लगा। मैंने किताब को ई स्वरूप में पढ़ा है। मुझे भरोसा है कि इसे प्रिंट रूप में काउच में लेटे हुये चाय की चुस्की के साथ पढ़ने में ज्यादा मजा आयेगा। किताब अमेजन, फ्लिपकार्ट आदि पर सुलभ है तो देर किस बात की है, यदि इस पुस्तक चर्चा से आपकी उत्सुकता जागी है तो किताब बुलाईये और पढ़िये। आपकी व्यय की गई राशि से ज्यादा आनंद मिलेगा यह सुनिश्चित है।

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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मराठी साहित्य – पुस्तकांवर बोलू काही ☆ “गंध ओला मोगऱ्याचा” (गझलसंग्रह) – कवी : श्री. विनायक कुलकर्णी ☆ परिचय – श्री सुहास रघुनाथ पंडित ☆

श्री सुहास रघुनाथ पंडित

?पुस्तकावर बोलू काही?

☆ “गंध ओला मोगऱ्याचा” (गझलसंग्रह) – कवी : श्री. विनायक कुलकर्णी ☆ परिचय – श्री सुहास रघुनाथ पंडित ☆

पुस्तक :  गंध ओला मोगऱ्याचा (गझलसंग्रह)

कवी : श्री. विनायक कुलकर्णी मो. 8600081092

प्रकाशक: न्यू अथर्व पब्लिकेशन, इचलकरंजी

मूल्य : रु. १४०/-

सांगली येथील गझलकार कवी श्री. विनायक कुलकर्णी यांचा ‘ गंध ओला मोग-याचा ‘ हा गझल संग्रह मोग-याच्या फुलाप्रमाणेच सर्वांगाने बहरून आला आहे. या संग्रहात एकूण अठ्ठावन गझला असून त्यात निसर्ग, प्रेम, नैराश्य, विरह अशा सर्व भावनांवरील गझला आहेत. पण गझल फक्त एवढ्या विषयांपुरतीच मर्यादित नसून तिने सामाजिक, राजकीय वास्तव देखील दुर्लक्षिलेले नाही हे दाखवून देणा-या गझला या संग्रहात वाचायला मिळतात. त्यामुळे गझल म्हणजे फक्त प्रेम आणि विरह नव्हे तर सामाजिक भान व्यक्त करण्याचेही माध्यम आहे हे श्री कुलकर्णी यांच्या संग्रहातून स्पष्ट होते. त्यामुळे सर्वच गझलांचा किंवा गझल काव्य प्रकाराविषयी लिहिण्यापेक्षा श्री. कुलकर्णी यांच्या सामाजिक, राजकीय परिस्थितीवर भाष्य करणारे काही शेर या ठिकाणी समजून घ्यावेसे वाटतात.

स्वार्थ कसा साधावा हे शिकवावे लागत नाही. पण स्वार्थ साधत असताना तो किती टोकाचा असावा याचा विचार मात्र व्हायलाच हवा. पण आजची परिस्थिती काय आहे ? कालची भूमिका आज नाही, कालचे विचार आज नाहीत, कालचा मित्र आज मित्र नसेल अशीच अवस्था समाजात सर्वत्र दिसते आहे. त्याचे नेमके रुप कविने या शेरातून केले आहे.

” पहात असतो अवतीभवती माणुसकीचे रंग नवे

स्वार्थासाठी कसे बदलती रोजरोजचे ढंग नवे “

काळाबरोबर बदलले पाहिजे. पण हा बदल स्विकारताना आपण सभ्य समाजात राहतो हे ही विसरता कामा नये. आधुनिकतेचा स्विकार करताना योग्य अयोग्य काय याचाही विचार व्हायला हवा. या शेरामध्ये कवीने पोषाखातील होत जाणा-या बदलाबद्दल सुनावले आहे. भोक पाडलेले कपडे ही फॅशन होऊ शकते का ? तंग कपडे आरोग्यासाठी तरी योग्य आहेत का ? आजच्या फॅशन व अंधानुकरणाच्या जमान्यात हे फारसे कुणाला पटणार नाही. पण स्वतःच्या मनाला जे पटत नाही ते बोलून दाखवणे हा कविचा बाणा आहे.

“झाकत होते देह आपले पुरुष असो वा ती नारी

पोषाखाची झाली चाळण आता कपडे तंग नवे “

स्वार्थ आणि फक्त व्यवहारवाद यामुळे आपली अशी समजूत झाली आहे की पैसा फेकला की काहीही विकत घेता येते. अगदी माणूससुद्धा! त्यामुळे कविला असा प्रश्न पडतो की स्वतःच्या मूल्यांशी प्रामाणिक राहून इमान राखणारा माणूस असेल तरी का ? म्हणजे बजबजपुरी एवढी माजली आहे की माणसाचा चांगुलपणावरचा विश्वासच उडायला लागला आहे. माणूस प्रामाणिक, तत्त्वनिष्ठ असू शकतो यावरचा विश्वास कमी होत चालला आहे.

“प्रसंग येतो पुढे आपल्या तसाच आपण विचार करतो

असतिल का हो अशी माणसे इमान ज्यांचे मळले नाही “

बदलत्या पिढीबरोबर विचारही बदलतात. विचारातील हा बदल माणसाच्या प्रगतीला पोषक असेल तर अवश्य स्वीकारावा. पण आज जुन्याकडे पाठ फिरवून फक्त ‘ नवे ते सोने ‘ ही वृत्ती वाढीस लागली आहे. त्यामुळे संस्कार करणे, करुन घेणे, झालेले संस्कार टिकवणे हे कालबाह्य वाटू लागले आहे. याचा परिणाम म्हणूनच नीतीमत्तेचा -हास होत चालला आहे. सुसंस्कृत नसलेल्याला माणूस तरी कसे म्हणावे. राक्षसाच्या मनातील वासना आणि वृत्ती आता माणसात दिसू लागली आहे.

” संस्कार आणि नीती गेली निघून आता

ओळीत राक्षसांच्या बसतात लोक सारे “

बदलत्या सामाजिक आणि राजकीय वस्तुस्थितीवर कवीचे बारीक लक्ष आहे. निवडणुकीच्या आधीची आणि नंतरची गटबाजी आता संसर्गजन्य झाली आहे असे त्याला वाटते. कारण ती एका गटापुरती मर्यादित राहिलेली नाही. घोडेबाजार हा नित्याचाच होऊन बसला आहे. सत्ता आणि संपत्तीच्या मोहापायी तत्वशून्य तडजोडींनी कमाल केली आहे.

” गटबाजीच्या संसर्गाने कमाल भलती केली

काही इकडे आले घोडे काही तिकडे गेले “

क्रियेवीण वाचाळता हा आजच्या काळचा मंत्रच होऊन बसला आहे. समाजासाठी काय करावे, देशासाठी काय करावे हे सांगणे फार सोपे असते. समाजाचे कल्याण करण्याच्या गप्पा या निवडणूक होण्यापुरत्याच असतात. कारण गोड बोलून, आश्वासनांचा पाऊस पाडून निवडून येणे एवढेच त्यांचे ध्येय असते. त्यामुळे

” कोणी देतो भाषण फुसके कल्याणाचे

त्याचा तुमच्या मतदानावर डल्ला आहे “

असे कविचे निरीक्षण आहे.

समाजाच्या हितासाठी केलेली चळवळ ही किती वरवरची व दिखाऊ असते याचा समाचारही कविने घेतला आहे. त्यासाठी कवी पाणीप्रश्नाकडे लक्ष वेधत आहे. पाण्याचे नियोजन न करता होणारा पाण्याचा वापर हा पाणीप्रश्न गंभीर होण्याचे मुख्य कारण आहे. पण त्याकडे लक्ष न देता पाण्याची उधळपट्टी चालुच आहे आणि दुसरीकडे पाणी वाचवा म्हणून चळवळही चालू आहे. हा विरोधाभास कविने दाखवून दिला आहे.

“खर्चुन गेले जल सारे या जमिनी मधले

भाषणबाजी मधून नकली चळवळ आहे “

परंतु या प्रश्नांकडे, समस्यांकडे, समाजातील दोषांकडे एक कवी म्हणून कविला दुर्लक्ष करता येत नाही. कारण समाजात सुधारणा होऊन त्याची प्रगती होण्यासाठी कुणालातरी लढावे लागेल हे त्याला माहित आहे. म्हणून कवी म्हणतो

” नाते माझे अखंड आहे संघर्षाशी 

धारिष्टाचे शस्त्र लढाया मीच बनवतो “

या सर्व गुणदोषांसकट कवी समाजावर प्रेम करतो. म्हणून तो म्हणतो

” झाली सकाळ आहे गाऊ नवीन गाणे

ती रात्र क्लेशदायी पुरती सरुन गेली. “

कविच्या इच्छेप्रमाणे लवकरच क्लेशदायी रात्र संपावी आणि नव्या युगाची गाणी गाण्यासाठी भाग्याची सकाळ उजाडावी एवढीच सदिच्छा !

पुस्तक परिचय – श्री सुहास रघुनाथ पंडित

सांगली (महाराष्ट्र)

मो – 9421225491

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 172 ☆ “राजघाट से राजपाट तक” – व्यंग्यकार… श्री अशोक व्यास ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हमप्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’  जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है आपके द्वारा श्री अशोक व्यास जी द्वारा लिखित  “राजघाट से राजपाट तकपर चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 172 ☆

☆ “राजघाट से राजपाट तक” – व्यंग्यकार… श्री अशोक व्यास ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

पुस्तक चर्चा

कृति …  राजघाट से राजपाट तक

व्यंग्यकार … अशोक व्यास

भावना प्रकाशन, दिल्ली

पृष्ठ १४४

मूल्य २५० रु पेपरबैक

राजपाट प्राप्त करना प्रत्येक छोटे बड़े नेता का अंतिम लक्ष्य होता है। इसके लिये महात्मा गांधी की समाधी राजघाट एक मजबूत सीढ़ी होती है। गांधी के आदर्शो की बातें करता नेता, दीवार पर गांधी की तस्वीर लगाकर सही या गलत तरीकों से येन केन प्रकारेण सत्ता प्राप्त करने में जुटा हुआ है। यह लोकतंत्र का यथार्थ है। गांधी की खादी के पर्दे हटाकर जनता इस यथार्थ को अच्छी तरह देख और समझ रही है। किन्तु वह बेबस है, वह वोट दे कर नेता चुन तो सकती है किन्तु फिर चुने हुये नेता पर उसका कोई नियंत्रण नहीं रह जाता। तब नेता जी को आइना दिखाने की जिम्मेदारी व्यंग्य पर आ पड़ती है। भावना प्रकाशन, दिल्ली से सद्यः प्रकाशित व्यंग्य संग्रह राजघाट से राजपाट तक पढ़कर भरोसा जागता है कि अशोक व्यास जैसे व्यंग्यकार यह जिम्मेदारी बखूबी संभाल रहे हैं।

विचारों का टैंकर अशोक व्यास जी का पहला व्यंग्य संग्रह था, जिसे साहित्य जगत ने हाथों हाथ लिया और उस कृति को अनेक संस्थाओ ने पुरस्कृत कर अशोक जी के लेखन को सम्मान दिया है। फिर “टिकाऊ चमचों की वापसी” प्रकाशित हुआ वह भी पाठको ने उसी गर्मजोशी से स्वीकार किया। उनके लेखन की खासियत है कि समाज की अव्यवस्थाओं, विसंगतियों, विकृतियों, बनावटी लोकाचार, कथनी करनी के अंतर, अनैतिक दुराचरण उनके पैने आब्जरवेशन से छिप नहीं सके हैं। वे निरंतर उन पर कटाक्ष पूर्ण लिख रहे हैं। अशोक व्यास किसी न किसी ऐसे विषय पर अपनी कलम से प्रहार करते दिखते हैं। “आत्म निवेदन के बहाने” शीर्षक से पुस्तक के प्रारंभिक पृष्ठों में उन्होने आत्मा से साक्षात्कार के जरिये बहुत रोचक शब्दों में अपनी प्रस्तावना रखी है।

राजघाट से राजपाट तक विभिन्न सामयिक विषयों पर चुनिंदा इकतालीस व्यंग्य लेखों का संग्रह है। शीर्षकों को रोचक बनाने के लिये कई रूपकों, लोकप्रिय मिथकों का अवलंबन लिया गया है, उदाहरण के लिये “मेरे दो अनमोल रतन आयेंगे”, “सुबह और शाम चाय का नाम”, ” तारीफ पे तारीफ “, ” मैं और मेरा मोबाइल अक्सर ये बातें करते है ” आदि लेखों का जिक्र किया जा सकता है।

शीर्षक व्यंग्य राजघाट से राजपाट में वे लिखते हैं ”  राजघाट ही वह स्थान है जो गंगाघाट के बाद सर्वाधिक उपयोग में आता है। जैसे गंगा घाट पर स्नान करके ऐसा लगता है कि इस शरीर ने जो भी उलटे सीधे धतकरम किये हैं वह सब साफ होकर डाइक्लीन किये हुए सूट की तरह पार्टी में पहनने लायक हो जाता है उसी प्रकार राजघाट तो गंगाघाट से भी पवित्र स्थान बनता जा रहा है। इस घाट पर आकर स्वयं साफ़ झक्कास तो हो जाते हैं, लगे हाथ क्षमा माँगने का भी चलन है। इस घाट पर देशी तो देशी-विदेशी संतों की भीड़ भी लगती रहती है। ” इस अंश को उधृत करने का आशय मात्र यह है कि अशोक व्यास की सहज प्रवाहमान भाषा, सरल शब्दावली और वाक्य विन्यास से पाठक रूबरू हो सकें। हिन्दी दिवस पर हि्दी की बातें में वे लिखते हैं “तुम हिन्दी वालों की एक ही खराबी है, दिमाग से ज्यादा दिल से सोचते हो ” भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन के वर्षो बाद भी देश में भाषाई विवाद सुलगता रहता है। राजनेता अपनी रोटी सेंकते रहते हैं। यह विडम्बना ही है। धारदार कटाक्ष, मुहावरों लोकोक्तियों का समुचित प्रयोग, कम शब्दों में बड़ी बात समेटने की कला अशोक व्यास का अभिव्यक्ति कौशल है। वे तत्सम शब्दों के मकड़जाल में उलझाये बगैर अपने पाठक से उसके बोलचाल के लहजे में अंग्रेजी की हिन्दी में आत्मसात शब्दावली का उपयोग करते हुये सीधा संवाद करते हैं। रचनाओ का लक्षित प्रहार करने में वे सफल हुये हैं। यूं तो सभी लेख अशोक जी ने चुनकर ही किताब में संजोये है किन्तु मुझे नंबरों वाला शहर, मिशन इलेक्शन, सरकार की नाक का बाल, हर समस्या का हल आज नहीं कल, चुनावी मौसम, आदि व्यंग्य बहुत प्रभावी लगे। रवीन्द्र नाथ त्यागी ने लिखा है “हमारे संविधान में हमारी सरकार को एक प्रजातान्त्रिाक सरकार’ कह कर पुकारा गया है पर सच्चाई यह है कि चुनाव सम्पन्न होते ही ‘प्रजा’ वाला भाग जो है वह लुप्त हो जाता है और ‘तन्त्र’ वाला जो भाग होता है वही, सबसे ज्यादा शक्तिशाली हो जाता है। ” अशोक व्यास उसी सत्य को स्वीकारते और अपने व्यंग्य कर्म में बढ़ाते व्यंग्य लेखक हैं, जो अपने लेखन से मेरी आपकी तरह ही चाहते हैं कि तंत्र लोक का बने। मैने बहुत कम अंतराल में आए उनके तीनों ही व्यंग्य संकलन   आद्योपांत पढ़े ही नहीं उन पर अपने पुस्तक चर्चा  स्तंभ में उन पर लिखा भी है  अतः मैं कह सकता हूं कि उनके व्यंग्य लेखन का कैनवास उत्तरोत्तर बढ़ा है। आप का कौतुहल उनकी लेखनी के प्रति जागा ही होगा, तो पुस्तक खरीदिये और पढ़िये। पैसा वसूल वैचारिक सामग्री मिलने की गारंटी है।

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆ संजय दृष्टि – अधरंगे ख़्वाब  — कवि- राजेंद्र शर्मा ☆ समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

? संजय दृष्टि –  समीक्षा का शुक्रवार # 26 ?

? अधरंगे ख़्वाब  — कवि- राजेंद्र शर्मा ?  समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ?

पुस्तक का नाम- अधरंगे ख़्वाब

विधा- कविता

कवि- राजेंद्र शर्मा

प्रकाशक- बोधि प्रकाशन, जयपुर 

? एक सिनेमेटोग्राफर की डायरी : अधरंगे ख़्वाब  श्री संजय भारद्वाज ?

सपना या ख़्वाब मनुष्य की जीवन यात्रा के अभिन्न अंग हैं। सुप्त इच्छाएँ, आकांक्षाएँ,  अव्यक्त विचार प्राय: ख़्वाब का आकार ग्रहण करते हैं। अधिकांशत: ख़्वाब चमकीले या रंग- बिरंगे होते हैं। कवि राजेंद्र शर्मा की ख़्वाबों की दुनिया उनके कविता संग्रह ‘अधरंगे ख़्वाब’ में उतरी है। अलबत्ता ये ख़्वाब कोरी कल्पना के धरातल से नहीं अपितु जीवन के कठोर यथार्थ एवं जगत की रुक्ष सच्चाइयों से उपजे हैं। यही कारण है कि कवि इन्हें अधरंगे ख़्वाब कहता है।

‘अधरंगे ख़्वाब’ की कविताओं में स्मृतियों की खट्टी-मीठी टीस है। राजनीति के विषैलेपन पर प्रहार है। लॉकडाउन के समय की भिन्न-भिन्न घटनाओं के माध्यम से तत्कालीन मनोदशा का वर्णन है। नगरवधुओं की पीड़ा के चित्र हैं। आचार-विचार  में निरंतर उतर रही कृत्रिमता पर चिंता है। राष्ट्रीयता पर चिंतन है। पर्यावरण के नाश की पीड़ा है। मनुष्य जीवन के विविध रंग हैं। भीतर ही भीतर बहती परिवर्तन की, बेहतरी की इच्छा है। सारी आशंकाओं के बीच संभावनाओं की पड़ताल है।

स्मृतियों का रंग कभी धुंधला नहीं पड़ता अपितु विस्मृति का हर प्रयास, स्मृति को गहरा कर देता है। निरंतर गहराती स्मृतियों की ये बानगियाँ  देखिए-

ये कैसा अमरत्व पा लिया है तूने

मेरे मस्तिष्क की गहराइयों में,

मान्यता प्राप्त किसी दैवीय शक्ति की तरह, अपरिवर्तित सौंदर्य, लावण्य, युवा अवस्था।

प्रेम की अनन्य मृग मरीचिका कुछ यूँ शब्दों में अभिव्यक्त होती है-

जिसे मैं ढूँढ़ रहा हूँ वो मुझमें ही बसती है,

बिन उसके कटता नहीं इक पल मेरा,

ऐसी उसकी हस्ती है।

राज करने की नीति अर्थात राजनीति। इस शब्द के आविर्भाव के समय संभवत: इससे राज्य- शासन के आदर्श नियम, उपनियम वांछित रहे हों पर कालांतर में येन केन प्रकारेण ‘फूट डालो और राज करो’  के इर्द-गिर्द ही राजनीति सिमट कर रह गई । कवि को यह विषबेल बुरी तरह से सालती है।

ये जानते हैं

ज्ञानी से मूर्ख को गरियाना,

ये जानते हैं

मूर्ख से ज्ञानी को लठियाना,

ये जानते हैं

मेरी कमज़ोरी,

ये जानते हैं

तेरी कमज़ोरी।

आम जनता में व्याप्त बिखराव की कमज़ोरी के दम पर सत्ता पिपासु अपनी-अपनी रोटी सेंकते हैं। उनकी आपसी सांठगांठ की पोल खोलती यह अभिव्यक्ति देखिए-

अनीति से नीति के इस हवन में

षड्यंत्र के नाम पर

आहुतियाँ यूँ ही पड़ती रहेंगी,

जय तुम्हारी भी होगी,

जय हमारी भी होगी,

कभी रोटियाँ तुम बेलो,

कभी रोटियाँ हम सेंकें,

कभी हम रोटियाँ बेलें,

कभी रोटियाँ तुम सेंको ,

यही तो समझदारी है,

हम हैं एक,

अलग-अलग कहाँ हैं..!

लॉकडाउन वर्तमान पीढ़ी द्वारा देखा गया अपने समय का सबसे भयावह सच है। अपने घरों में क़ैद हम क्या सोच रहे थे, इस सोच को विभिन्न घटनाओं पर टिप्पणियों के रूप में उपजी विविध कविताओं में कवि ने उतारा है।

समाज लोगों का समूह है। आधुनिकता ने हमें अकेला कर दिया है। इस लंबी नींद को तोड़ने का आह्वान कवि करता है-

अब मेरी आँखें खुल चुकी थीं,

मैंने उठकर अपने कमरे के

सारे रोशनदान,

सारी खिड़कियाँ,

दरवाज़े खोल दिए और

देखते ही देखते मेरा कमरा

एक सुनहरी रोशनी से भर गया।

भौतिक विकास के नाम पर पर्यावरण और सहजता का विनाश हो चुका। हमने इर्द-गिर्द और मन के भीतर काँक्रीट के जंगल उगा लिए हैं। प्राकृतिक जंगल हरियाली फैलाता है, काँक्रीट का जंगल अशेष को अवशेष कर देता है।

जहाँ स्वच्छ, स्वस्थ, प्राणवायु के नाम पर

बचे रह गए हैं कुछ एक पर्यटन स्थल,

निर्मल जल के नाम पर कुछ एक नदी तट,

और वे भी कब तक रहेंगे शेष?

न जाने किस दिन चढ़ जाएँगे

विकास के नाम पर विनाश की भेंट..!

छमाछम बारिश में भीगना, अब असभ्यता हो चला है। खुद को ख़ुद में डूबते देखना तो कल्पनातीत ही है-

आज मैंने

फिर एक बार

काग़ज़ की नाव बनाई,

फिर एक बार

उसे घर के पास

नाली के तेज़ बहते पानी में उतारा,

फिर एक बार उसमें बैठ

अपने को

दूर तलक जाते देखा,

फिर एक बार

आज बरसों बरस बाद,

ख़ुद को ख़ुद में डूबते देखा।

कविता सपाटबयानी नहीं होती। कविता में मनुष्य का मार्गदर्शन करने का तत्व अंतर्भूत होता है। सूक्ति नहीं तो केवल उक्ति का क्या लाभ?

निर्णय वही सही होता है, जो

सही समय पर लिया गया हो

वक्त के बाद लिया गया सही निर्णय भी,

हानि के उपरांत

उसका प्रायश्चित तो हो सकता है,

उस क्षति की पूर्ति नहीं।

‘बंद कमरे-बौद्धिक चर्चाएँ’ कविता में रोज़ाना घटती ऐसी घटनाओं का उल्लेख है जो हमें विचलित कर देती हैं। तथापि हम समस्या पर मात्र दुख जताते हैं। उसके हल के लिए कोई सूत्र हमारे पास नहीं होता। कहा गया है, ‘य: क्रियावान स पंडित:।’ जिह्वालाप से नहीं, प्रत्यक्ष कार्यकलाप से हल होती हैं समस्याएँ।

परिवर्तन सृष्टि का एकमात्र नियम है जो कभी परिवर्तित नहीं होता। हर समय परिवर्तन घट रहा है। अत: हर समय परिवर्तन के साथ कदमताल आवश्यक है-

कभी मैं बहुत छोटा था,

धीरे-धीरे बड़ा हुआ

और अब

तेज़ी से बूढ़ा हो रहा हूँ

किसी भी देश की सेना की शक्ति अस्त्र-शस्त्र होती है। भारत के संदर्भ में मनोबल और बलिदान का भाव हमारी सेना को विशेष शक्तिशाली बनाता है। ‘लीला- रामकृष्ण’ एक सैनिक और उसकी मंगेतर की प्रेमकथा है। यह काव्यात्मक कथा दृश्य बुनती है, दृश्य से तारतम्य स्थापित होता है और पाठक कथा से समरस हो जाता है।

प्रकृति बहुरंगी है। प्रकृति में सब कुछ एक-सा हो तो एकरसता हो जाएगी। मनुष्य को सारे रंग चाहिएँ, मनुष्य को रंग-बिरंगी सर्कस चाहिए।

ये दुनिया एक सर्कस है

जिसमें कई रूप-रंग,

क़द-काठी वाले स्त्री-पुरुष,

जिसमें कई भिन्न जातियों-प्रजातियों,

नस्लों वाले जीव-जंतु,

जिसमें कई तरह के श्रृंगार, साज़-ओ-सामान, परिधानों से लदे-फदे कलाकार,

अलग-अलग भाषा शैली,

गीत-संगीत के समायोजन से,

हास्य, व्यंग्य, करुणा,

नव रसों का रसपान कराते हैं,

टुकड़े-टुकड़े दृश्यों से

एक सम्पूर्ण परिदृश्य को

परिलक्षित करते हैं,

यही बहुरूपता ख़ूबसूरती है इसकी,

जो जोड़ती है आपको, मुझको इसके साथ।

मनुष्य में अपार संभावनाएँ हैं।  ईश्वरीय तत्व तक पहुँचने यात्रा का अवसर है मनुष्य का जीवन। इस जीवन में हम सबको प्राय: अच्छे लोग मिलते हैं। ये लोग सद्भावना से अपना काम करते हैं, दूसरों के काम आते हैं। ये लोग किसी तरह का कोई एहसान नहीं जताते और काम होने के बाद दिखाई भी नहीं देते। जगत ऐसे ही लोगों से चल रहा है। वे ही जगत के आधार हैं, नींव हैं और नींव दिखाई थोड़े ही देती है।

वे लोग जो एक बार मिलकर

दोबारा फिर कभी नहीं मिलते हैं,

वे लोग जो पहली मुलाक़ात में

सीधे-मन में समा जाते हैं,

वे लोग कहाँ चले जाते हैं?

नव वर्ष पर नए संकल्प लेना और गत वर्ष लिए संकल्पों को भूल जाना आदमी की स्वभावगत निर्बलता है। यूँ देखे तो हर क्षण नया है, हर पल वर्ष नया है।

न वो कहीं गया था, न ही वो कहीं से आ रहा है, उसे तो हमने अपनी सुविधा के लिए बांट रखा है।

अति सदैव विनाशकारी होती है। स्वतंत्रता की अति है उच्छृंलता। लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर अनेक बार देश को ही कटघरे में खड़ा करने, येन केन प्रकारेण चर्चा में रहने की दुष्प्रवृत्ति के अनेक उदाहरण देखने को मिलते हैं। इन दुष्प्रवृत्तियों को कवि खरी- खरी सुनाता है-

ये देश है तो

ये धर्म, ये मज़हब, ये सम्प्रदाय,

ये जाति, ये प्रजाति,

ये गण, ये गोत्र,

ये क्षेत्र, ये प्रांत,

ये भाषा, ये बोली,

ये रुतबा, ये हैसियत,

ये पक्ष, ये विपक्ष,

ये स्वतंत्रता, ये आज़ादी,

सब हैं..,

अन्यथा

कुछ भी नहीं..!

जीवन संभावनाओं से लबालब भरा है। अनेक बार परिस्थितियों से घबराकर लोग संभावना को आशंका मान बैठते हैं और जीवन अवसर से अवसाद की दिशा में मुड़ने लगता है।

कभी-कभी जीवन में ऐसा समय आता है,

जब व्यक्ति स्वयं ही

ज्ञान के, सूचना के

सभी मार्गों को अवरुद्ध कर लेता है,

इस वक्त वह एक भ्रम की स्थिति में जीता है,

वह अपने सत्य को ही

अंतिम सत्य मान बैठता है।

मनुष्य संवेदनशील प्राणी है। राजेंद्र शर्मा की रचनाओं में संवेदनशीलता उभर कर सामने आती है। ‘पापा याद है ना’ ऐसे ही एक मार्मिक रचना है। ‘नगरवधु’ विषय पर तीन कविताएँ हैं। पुरुष का स्त्री बनाकर लिखना लिंग पूर्वाग्रह या जेंडर बायस से मुक्ति की यात्रा है। यह अच्छी बात है।

इस संग्रह की अधिकांश रचनाएँ कथात्मक हैं। बल्कि यूँ कहें कि कथाएँ, घटनाएँ, अपने विवरण के साथ कविता में उतरी हैं तो अधिक तर्कसंगत होगा। शीर्षक कविता ‘अधरंगे ख़्वाब’  एक सार्वजनिक व्यक्तित्व के जीवन के उतार-चढ़ाव की लंबी कविता है। वर्तमान में न्यायालय के विचाराधीन इस प्रकरण में महत्वाकांक्षा के चलते प्रकाश से अंधकार की यात्रा पर कवि कुछ इस तरह टिप्पणी करता है-

महत्वाकांक्षी होना तो सुन्दर बात है

पर अति महत्वकांक्षी होना

बिलकुल सुन्दर बात नहीं ।

राजेंद्र शर्मा की रचनाओं की भाषा मिश्रित है शिल्प की तुलना में भाव मुखर है। कोई आग्रह नहीं है। जो देखा, समझा, जाना, काग़ज़ पर उतरा। पाठक उसे अपनी तरह से ग्रहण कर सकता है। यह इन रचनाओं की शक्ति भी है।

कवि सिनेमेटोग्राफर हैं। इन कविताओं में सिनेमेटोग्राफर की मन की आँख के लेंस से दिखते दृश्य उतरे हैं। जो कुछ सिनेमेटोग्राफर देखता गया, संवेदना की स्याही में डुबोकर उसे कथात्मक, घटनात्मक या विवरणात्मक रूप से लिखता गया। अतः ‘अधरंगे ख़्वाब’ में संग्रहित कविताओं को मैं ‘एक सिनेमेटोग्राफर की डायरी’ कहना चाहूँगा।

राजेंद्र शर्मा इसी तरह डायरी लिखते रहें। शुभं अस्तु।

© संजय भारद्वाज  

नाटककार-निर्देशक

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ तुमसे क्या छुपाना 2025 ☆ आत्मकथ्य – श्री राजेश सिंह ‘श्रेयस’ ☆

श्री राजेश सिंह ‘श्रेयस’

 ☆ पुस्तक चर्चा ☆ 

☆ तुमसे क्या छुपाना 2025 ☆ आत्मकथ्य – श्री राजेश सिंह ‘श्रेयस’ ☆

(‘क्षय मुक्त भारत’ की संकल्पना पर आधारित सामाजिक उपन्यास)

(पुस्तक समीक्षक श्री राम राज भारती जी के अनुसार “उपन्यास लेखन में श्रेयस जी पर मुंशी प्रेमचंद एवं रामदेव धुरंधर का सम्यक प्रभाव पड़ा है ।” यह पंक्ति अपने आप में श्री श्रेयस जी के संवेदनशील लेखन को साहित्यिक जगत का प्रतिसाद है। सुप्रसिद्ध प्रवासी भारतीय वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी द्वारा लिखित भूमिका ने उपन्यास को निश्चित ही पारस स्पर्श दिया है। श्री राजेश सिंह ‘श्रेयस’ जी को हार्दिक बधाई, शुभकामनाएं और अभिनंदन।)

पुस्तक – तुमसे क्या छुपाना 2025

लेखक – श्री राजेश कुमार सिंह ‘श्रेयस’

प्रकाशक – युगधारा फ़ाउंडेशन एवं प्रकाशन, लखनऊ उत्तरप्रदेश्ज

पृष्ठ संख्या – 288

मूल्य – ₹380

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“तुमसे क्या छुपाना” क्षय मुक्त भारत की संकल्पना पर आधारित यह उपन्यास क्षय उन्मूलन कार्यक्रम और उससे जुड़े हुए “सौ दिवसीय समग्र टीबी अभियान” की समग्रता को स्वयं में सजोये एक ऐसा कथात्मक दस्तावेज है, जिसमें क्षय रोग के कारण, निवारण एवं जन जागरण जैसे समस्त पक्ष मार्मिकता सामाजिकता और संवेदनशीलता से सजे कथानकों के साथ सुसज्जित ढंग से सजोए गए हैं। उपन्यासकार ने जो कि स्वयं क्षय उन्मूलन कार्यक्रम से लगभग एक दशकों से दिल से जुड़ा है, उसने अपने पल-पल के अनुभव को इस साहित्यिक दस्तावेज में सजोने का प्रयास किया है। उपन्यास में जिन पक्षो को रखा है वे कुछ इस प्रकार है –

  • ‌उपन्यास की नायिका एवं उसके माता-पिता अभाव भरी जिंदगी और गरीबी में जीते हैं। अशिक्षा और अज्ञानता बस नायिका की माँ टीबी रोग का शिकार बन जाती है। पिता इलाज के लिए शहर ले जाते हैं लेकिन वह बच नहीं पाती है। पिता को इस बात का तब एहसास होता है कि यदि मैंने आशा बहू का कहना मान लिया होता, और पहले टीबी की जांच के लिए तैयार हो जाता तो मेरी सुखवंती मेरे पास होती।
  • नायिका देवनंती संघर्षशील युवती है। क्षय उन्मूलन कार्यक्रम से सामाजिक तौर पर जुड़ती है, जिसमें उसका सह नायक शशांक मुख्य भूमिका में आता है। सह नायक का मित्र भावेश क्षय रोग उन्मूलन कार्यक्रम का समर्पित कार्यकर्ता है।
  • सह नायक कोविड जैसे कठिन समय में किस प्रकार क्षय रोगीयों को ढूंढ निकालता है और उसकी इलाज कराता है, यह स्वयं में बेमिसाल है।
  • क्षय उन्मूलन कार्यक्रम का कार्यकर्ता भावेश कॉविड जैसे कठिन काल में उत्तर प्रदेश में किस प्रकार से दूसरे राज्यों से आए हुए क्षय रोगियों को जांच और दवा को  उपलब्ध कराने में उनका मदद करता है, इसका सच्चा और जीवंत उदाहरण प्रस्तुत करता है।राज्य स्तर से किया गया यह प्रयास सराहनीय है।
  • क्षय उन्मूलन कार्यक्रम में आशा बहू का कितना महत्वपूर्ण रोल है, उपन्यास बताने में सफल होता है। आशा किस प्रकार कार्य करती है, और किस प्रकार से क्षय रोगियों की ढूंढने में मदद करती है इसका चित्रण उपन्यास में है।
  • क्षय उन्मूलन कार्यक्रम का कार्यकर्ता किस तरह से सामजिक सामाजिक भागीदारी करते हुए क्षय रोगियों को ढूंढने से लेकर उनको इलाज पर लाने, पोषण भत्ता, निक्षय पोषण दिलवाने एवं उनको स्वस्थ होने तक लगा रहता है।
  • जन भागीदारी एवं निक्षेप पोषण योजना का जीवंत दृश्य इस उपन्यास में समाहित है।
  • गांव के मुखिया से लेकर विधायक, मंत्री तक किस तरह से इस कार्यक्रम में जुड़कर भागीदारी करते हैं।
  • टीबी चैंपियन और टीबी वॉरियर्स की भागीदारी और उनके मध्य का भावपूर्ण संवाद भी इस उपन्यास को सुखद बनाता है।
  • उपन्यास का अंतिम भाग क्षय मुक्त भारत की संकल्पना को साकार करता हुआ प्रतीत होता है।
  • उपन्यास सुखान्त है।
  • उपन्यास की नायिका जो स्वयं टीबी चैंपियन है वह अंत में उपन्यास के सह नायक के साथ परिणय सूत्र में बधती है। जहां शादी के जयमाल आदि नृत्य गाने -धूम धड़ाम के बीच होते हैं वहीं यह मिलन क्षय उन्मूलन कार्यकर्ताओं सामाजिक क्षेत्र के लोगों तथा क्षय उन्मूलन से जुड़े एक कार्यक्रम में एक रहस्योद्घाटन के रूप में होता है, यह इस उपन्यास के अंतिम भाग को अतीव मार्मिक एवं संदेश प्रद बना देता है।
  • उपन्यासकार आवरण पृष्ठ जिस पर “तुमसे क्या छुपाना” 2025 लिखा है, यह क्षय उन्मूलन वर्ष को इंगित करता हुआ, अपने उद्देश्य में सफल होता है।
  • उपन्यास क्षय उन्मूलन कार्यक्रम के साथ-साथ एक सामाजिक, मार्मिक प्रेम कथा पर आधारित आत्ममुग्ध करने वाले कथानक पर आधारित उपन्यास है।
  • प्रदेश के समस्त जनपदों के लगभग समस्त क्षय उन्मूलन कार्यक्रम से जुड़े हुए क्षय कार्यकर्ताओ तक पहुंच चुका है।
  • उपन्यास, राज्य कर्मचारी साहित्य संस्थान, उप्र द्वारा वर्ष 2024 में श्याम सुंदर दास पुरस्कार (₹ 1,00, 000/-) द्वारा सम्मानित है।
  • क्षय उन्मूलन वर्ष 2025 में यह उपन्यास अपने मूल उद्देश्य के साथ क्षय उन्मूलन अभियान में अग्रणी भूमिका निभाएगा तथा और अधिक सम्मान पाकर स्वयं को साहित्य के उच्च पायदान पर स्थापित करने में सफल होगा, ऐसा मेरा विश्वास है।

© श्री राजेश कुमार सिंह “श्रेयस”

कवि, लेखक, समीक्षक

लखनऊ, उप्र, (भारत )

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ सुमित्र संस्मरण ☆ आत्मकथ्य – श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

 ☆ पुस्तक चर्चा ☆ 

☆ सुमित्र संस्मरण ☆ आत्मकथ्य – श्री संतोष नेमा ‘संतोष’ ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में सतत प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. ई-अभिव्यक्ति पर आप  श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार को ‘साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष’ के अंतर्गत आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है स्मृतिशेष डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ जी के जीवन से संबन्धित विद्वतजनों के आत्मीय संस्मरणों पर आधारित आपकी पुस्तक सुमित्र संस्मरण पर आपका आत्मकथ्य।)

कौन कहता है कि सुमित्र जी हमारे बीच में नहीं रहे वह सदियों तक हम सभी के दिलों में जीवंत रहेंगे उनकी सहजता, सरलता, मिलन सारिता, प्रेम सहयोगात्मक रवैया एवं साहित्य एवं पत्रकारिता के प्रति उनका अनुराग और समर्पण स्मरणीय है. उन्होंने, रूस आदि देशों में जाकर संस्कारधानी का नाम साहित्य जगत में अंतर्राष्ट्रीय क्षितिज पर गौरवान्वित, एवं रोशन किया है सुमित्र जी के साथ आचार्य भगवत दुबे जी एवं स्वर्गीय गार्गी शंकर मिश्रा हर कार्यक्रम में साथ-साथ रहे हैं. उनकी यह त्रिमूर्ति साहित्य जगत में अपनी एक विशिष्ट उत्कृष्ट पहचान रखती है. पाथेय साहित्य अकादमी का गठन आपने किया, जिसके गठनोंपरांत सैकड़ो कृतियां पाथेय प्रकाशन से प्रकाशित हो चुकी हैं. आपसे जो भी मिला आप का होकर रह गया. हम जैसे नवोदित साहित्यकारों के लिए तो संजीवनी का काम करते थे और हमेशा समुचित मार्गदर्शन, आशीर्वाद और सानिध्य प्राप्त होता रहा है. मेरी प्रकाशित कृतियों में उनकी भूमिका एवं मार्गदर्शन मुझे प्राप्त होता रहा है.

साहित्य के गंभीर अध्येता, अद्भुत रचनात्मकता, माधुर्य व्यवहार के चलते उनके हजारों चाहने वाले हैं जिनके दिलों में राजकुमार की तरह राज करते हैं. इस बात से अंदाजा लगाया जा सकता है कि उनकी श्रद्धांजलि सभा में भीड़ में उपस्थित हर एक आदमी अपनी भावांजलि देने के लिए आतुर था. जब मैंने यह देखा तब उसी क्षण मेरे मन में यह विचार आया की क्यों ना एक सुमित्र संस्मरण का प्रकाशन किया जाए जिसमें उनके प्रति सभी साहित्यकारों के संस्मरण एवं भाव समाहित किए जा सकें. क्योंकि श्रद्धांजलि सभा में सभी को अपनी भाव अभिव्यक्ति का अवसर देना संभव नहीं होता है. तब हमने श्री सुमित्र जी से जुड़े सभी साहित्यकारों से अपने-अपने संस्मरण आमंत्रित किए. आज उन्हीं के आशीर्वाद से यह सुमित्र संस्मरण का प्रकाशन आपके सामने है.

जब हम सुमित्र जी की बात करते हैं तो भाई हर्ष की भी बात करना बहुत जरूरी है। आज के इस दौर में उनके जैसा पुत्र बमुश्किल देखने में नजर आता है। भाई हर्ष ने अपनी मातोश्री के साथ पिताजी की स्मृतियों को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए गायत्री एवं सुमित्र सम्मान बड़े ही गौरव गरिमा के साथ स्वयं बाहर लोगों के स्वागत के लिए खड़े होकर संयोजित करना प्रणम्य एवं प्रसंसनीय है. साथ ही इस अवसर पर विभिन्न क्षेत्रों में ख्याति लब्ध हस्तियों को उनके द्वारा सम्मानित भी किया जाता है.

सुमित्र जी का एक दोहा मुझे बहुत ही प्रिय लगता है –

बांच सको तो बच लो आँखों का अखबार

प्रथम पृष्ठ से अंत तक, लिखा प्यार ही प्यार

इस एक दोहे से उनके व्यक्तित्व का स्पष्ट दर्शन होता है उनके दिल में सभी के लिए प्यार था.! हमने भी उनके जन्मोत्सव पर कुछ एक दोहे लिखे थे जो …

राज करें हर दिलों में, राजकुमार सुमित्र

सबको अपने ही लगें, ऐसा मधुर चरित्र

*

यथा नाम गुण के धनी, सबके हैं वो मित्र

मिले सदा स्नेह हमें, जीवन बने पवित्र

*

मित्रों के भी मित्र हैँ, राजकुमार सुमित्र

मिलते सबसे प्रेम से, उनका हृदय पवित्र

*

ज्ञान सुबुद्धि विवेक ही, होते सच्चे मित्र

संकट में जो साथ दें, होते वही सुमित्र

*

जिनकी आभा से हमें, मिलता सदा प्रकाश

लेखन में गति शीलता, उनका दे आभास

सुमित्र जी का आकस्मिक निधन समूचे साहित्य जगत के लिए एक अपूरणीय क्षति है. उनके प्रति हम अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि भावांजलि प्रस्तुत करते हैं. डॉ हर्ष तिवारी, डॉक्टर भावना शुक्ला, श्रीमती कामना कौस्तुभ, चाचा श्री आनंद तिवारी एवं समूचे परिवार के प्रति उनके द्वारा प्रकाशन में दिए गए भावनात्मक सहयोग के लिए हम अत्यंत आत्मीयता के साथ आभार एवं कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं.

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

संस्थापक मंथनश्री

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 70003619839300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ छूटी सिगरेट भी कम्बख़्त” – लेखक : श्री रवींद्र कालिया ☆ साभार – श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ पुस्तक चर्चा ☆ “छूटी सिगरेट भी कम्बख़्त” – लेखक : श्री रवींद्र कालिया ☆ साभार – श्री कमलेश भारतीय ☆

पुस्तक : छूटी सिगरेट भी कम्बख़्त

लेखक : रवीन्द्र कालिया

प्रकाशक : सेतु प्रकाशन, नोएडा

मूल्य : 275 रुपये

☆ “पीढ़ियों के आरपार साफगोई से लिखे संस्मरण” – कमलेश भारतीय ☆

जब एक माह पहले नोएडा सम्मान लेने गया तब समय तय कर प्रसिद्ध लेखिका ममता कालिया से मिलने गाजियाबाद भी गया । बहुत कम समय में बहुत प्यारी रही यह मुलाकात ! जालंधर मेरा पुराना जिला है पंजाब में और इस नाते वे हमारी भाभी ! उन्होंने सबसे अमूल्य उपहार दिया रवींद्र कालिया की तीन किताबें देकर ! इनमें सबसे ताज़ा किताब है -छूटी सिगरेट भी कम्बख्त ! गालिब छुटी शराब तो बहुचर्चित है लेकिन यह संस्मरणात्मक पुस्तक भी धीमे धीमे चर्चित होती जा रही है, इसमें पंद्रह संस्मरण शामिल हैं जिनमें इलाहाबाद, मुम्बई, दिल्ली में बिताये समय व जिन लोगों से मुलाकातें होती रहीं, उन पर बहुत ही दिल से और दिल खोलकर लिखा गया है बल्कि कहू़ं कि संसमरण लिखने का रवीन्द्र कालिया का खिलंदड़ा सा अंदाज सीखने का मन है !

इस पुस्तक में कृष्णा सोबती, राजेंद्र यादव, उपेंद्रनाथ अश्क, कमलेश्वर, खुशवंत सिंह, जगजीत सिंह, टी हाउस, ओबी, अमरकांत, आलोक जैन पर इतने गहरे पैठ कर लिखा है कि ईर्ष्या होने लगती है कि काश ! मैं ऐसा इस जन्म में लिख पाता ! सच में ममता कालिया ने मुझे बेशकीमती उपहार दे दिया जो नोएडा में मिले सम्मान से पहले ही सम्मान से कम नहीं ! कोई इतनी कड़वी सच्चाई नहीं लिख सकता कि कुमार विकल ने टी हाउस के बाहर रवीन्द्र कालिया को थप्पड़ मार दिया क्योंकि उन्हें यह शक था कि नौ साल छोटी पत्नी उनकी शादी को लेकर लिखी गयी है और वे लुधियाना से गुस्सा निकालने दिल्ली के टी हाउस तक पहुंच गये ! इसी तरह मोहन राकेश पर चाकू से हमले का जिक्र भी है । रवीन्द्र कालिया मोहन राकेश के जालंधर के डी ए वी काॅलेज में छात्र भी रहे थे और हिसार के दयानंद काॅलेज में हिंदी प्राध्यापक भी रहे थे । कमलेश्वर जिस रिक्शेवाले को इलाहाबाद में रवीन्द्र कालिया के घर के बाहर खड़ा रहने को बोलकर आये थे, वह राशन‌ और दवाइयों समेत भाग निकला ! कैसे कमलेश्वर ने नयी कहानियां पत्रिका में नयी पीढ़ी को खड़ा किया और कैसे इलाहाबाद ने धर्मवीर भारती, कमलेश्वर और रवीन्द्र कालिया को कितनी ऊंचाइयों तक स्पूतनिक की तरह उड़ान दी, ऊंचाइयां दीं ! कैसे खुशवंत सिंह जितने ऊपर से अव्यवस्थित दिखते हैं, वैसे वे हैं नहीं !

कितना खुलकर कहते हैं कि अपनी प्रेमिकाओं को याद कर रहा हूं। ऐसे अनेक प्यारे संस्करणों के लिए यह पुस्तक बार बार पढ़ी जा सकती है! ममता कालिया जी ! इस अनमोल उपहार के लिए मेरे पास कहने को शब्द नहीं !

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ संवेदना (शताधिक काव्य रचनाएँ) – कवि : श्री सुरेश पटवा ☆ साभार – डॉ. साधना बलवटे ☆

☆ पुस्तक चर्चा ☆ “संवेदना (शताधिक काव्य रचनाएँ)” – कवि : श्री सुरेश पटवा ☆ साभार – डॉ साधना बलवटे ☆

पुस्तक : संवेदना (शताधिक काव्य रचनाएँ)

लेखक : श्री सुरेश पटवा 

प्रकाशक : समदर्शी प्रकाशन 

पृष्ठ संख्या : 206 

मूल्य : 320 रुपये

☆ “सम+वेदना की कविताएँ” – डॉ साधना बलवटे ☆

संवेदन से अनुभूति होती है या अनुभूति के कारण संवेदना जन्म लेती है यह प्रश्न बड़ा जटिल है। यदि हमारा मन संवेदनशील है तो वह अनुभूति कराता है किंतु कई बार किसी की पीड़ा या हर्ष  की अनुभूति करने के बाद संवेदना जन्म लेती है।  दोनों ही स्थितियों में संवेदना का अनुभूति से गहरा संबंध है। संवेदना अर्थात सम्+वेदना!  किसी की वेदना को समान रूप से अनुभव करना है संवेदना है। साधारण तौर पर वेदना का अर्थ केवल पीड़ा से लिया जाता है। किसी के ह्रदय में  उठे हर्ष, विषाद ,पीड़ा, आनंद, करुणा, उल्लास को देखकर आपके ह्रदय में जो सामान भाव उठते हैं वह सभी  वेदना है।  किसी पराए के मन में उठे भावों की अनुभूति आपके हृदय में समान रूप से होती है,  इसीलिए वह सम्वेदना कहलाती हैं।

डॉ साधना बलवटे

आचार्य रामचंद्र शुक्ल अपनी पुस्तक “हिंदी साहित्य का इतिहास” के पृष्ठ 407 पर जयशंकर प्रसाद के कामायनी के “आशा सर्ग” के चिंता उपसर्ग संदर्भ में लिखते हैं कि

*

मनु का मन था विकल हो उठा,

संवेदन से खाकर चोट। 

संवेदन जीवन जगती को,

जो कटुता से देता घोट।

*

आह कल्पना का सुंदर यह,

जगत मधुर कितना होता।

सुख-स्वप्नों का दल छाया में,

पुलकित हो जगता-सोता।

*

संवेदन का और हृदय का,

यह संघर्ष न हो सकता।

फिर अभाव असफलताओं की,

गाथा कौन कहाँ बकता।

*

इन पंक्तियों में संवेदन बोध वृत्ति के अर्थ में व्यवहृत जान पड़ता है। बोध के एकदेशीय अर्थ में भी यदि संवेदन को लें तो उसे भावभूमि से ख़ारिज नहीं कर सकते। आगे चलकर संवेदन शब्द अपने वास्तविक या अवास्तविक दुख पर कष्ट अनुभव के रूप में आया है –

हम संवेदन शील हो चले,  यही मिला सुख,

कष्ट समझने लगे बनाकर निज कृत्रिम दुख।

श्री सुरेश पटवा जी का काव्य संग्रह “संवेदना” इसी प्रवृत्ति की परिणति है। समाज के प्रत्येक दुख, अभाव और आनंद उनके हृदय में वेदना पैदा करते हैं। अनुभूति की गहराइयां उन्हें प्रत्येक स्थिति में कलम चलाने को विवश करती है, इसीलिए उनका यह काव्य संग्रह विषय वैविध्य से परिपूर्ण है। गीत ग़ज़ल जैसी अनुशासित विधा पर लेखनी चलाने वाले सुरेश पटवा जी मुक्त छंद में भी उसी सहजता के साथ अभिव्यक्त होते हैं। सहजता और सरलता उनकी कविता की विशेषता है। सरल शब्दों में व्यक्त की गई भावनाएं पाठकों तक सरलता से पहुंच जाती हैं। सरल होना एक कठिन कार्य है, जबकि कठिन होना सरल। सरल होने का कठिन कार्य पटवा जी ने किया है। एक ओर  वे जीव विज्ञान की विस्तृत समझ रखते हैं, वहीं दूसरी ओर अध्यात्म से भी उनका गहरा नाता है।

वे जीवन के जटिल विषयों पर लेखन करते हैं, नर्मदा यात्रा जैसे महत्वपूर्ण विषय पर भी लेखन करते हैं। कुल मिलाकर सभी विषयों पर समान अधिकार रखते हैं। विषय वैविध्य, विचार वैविध्य, विधा वैविध्य को अपने ज्ञान वैविध्य से साधते हैं। संग्रह की कविताएं समाज का मुखपत्र हैं। एक संवेदनशील मन जो अपना सामाजिक दायित्व निर्वहन करते हुए मुखरता से जो कुछ कहना चाहिए वह सब अपनी कविताओं में कहते हैं, किंतु इस कहन की विशेषता यह है कि उसे कहते हुए  वह अपनी करुणा या दुख का प्रदर्शन नहीं करते, उनकी कविताएं रोती चीखती चिल्लाती नहीं है, वरन दृढ़ता के साथ शिकायती लहजे में अपनी बात कहती है। ये शिकायती कविताएं जिम्मेदारों पर तंज भी करती है उलहाने भी देती है और चेतावनी देने के साथ सावधान भी करती हैं। कविता का यही धर्म है और सुरेश पटवा जी का ये काव्य संग्रह उस धर्म का बखूबी पालन करता है एक अच्छे संग्रह के लिए हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं।

© डॉ साधना बलवटे

निदेशक, निराला सृजन पीठ, राष्ट्रीय मंत्री, अखिल भारतीय साहित्य परिषद

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ पुस्तक चर्चा ☆ “रवि कथा” – लेखिका : सुश्री ममता कालिया ☆ साभार – श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ पुस्तक चर्चा ☆ “रवि कथा” – लेखिका : सुश्री ममता कालिया ☆ समीक्षक – श्री कमलेश भारतीय ☆

पुस्तक -रवि कथा 

रचनाकार – ममता कालिया 

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली

मूल्य : 299 रुपये

पृष्ठ : 196

☆ “रवींद्र कालिया : जाने और लौटकर आने के बीच की कथा : रवि कथा” – कमलेश भारतीय ☆

रवींद्र कालिया हमारे जालंधर के थे, जो हमारा जिला था, नवांशहर का । हालांकि उनसे कोई मुलाकात नहीं लेकिन अपनी मिट्टी से जुड़े होने से अपने से लगते रहे, लगते हैं अब तक । जिन दिनों हरियाणा ग्रंथ अकादमी के उपाध्यक्ष के नाते कथा समय पत्रिका का संपादन किया, उन दिनों रवींद्र कालिया से फोन पर कहानी प्रकाशित करने की अनुमति मांगी जो सहर्ष मिल गयी और फिर ममता कालिया की कहानी भी प्रकाशित की, यह मिट्टी का कर्ज़ और फर्ज़ चुकाने जैसा भाव था । मेरे दोस्त फूलचंद मानव ने कहा कि अब तो तेरे लिए नया ज्ञानोदय के रास्ते खुले हैं ! मैंने जवाब दिया कि ऐसा कभी नहीं होगा क्योंकि रवींद्र कालिया के संपादक होते मैं कहानी भेजूंगा ही नहीं और‌ न ही भेजी क्योंकि स़पादन आदान प्रदान नहीं होता । रवींद्र कालिया ने जालंधर के उन दिनों लोकप्रिय दैनिक हिंदी मिलाप में उप संपादक के रूप में  शुरूआत की और फिर भाषा, धर्मयुग, ज्ञानोदय, गंगा जमुना और नया ज्ञानोदय के बीच वर्तमान साहित्य के कहानी को केंद्र में रखते हुए दो महा विशेषांकों का संपादन किया लेकिन कृष्णा सोबती की ऐ लड़की पर पहले ही लिखवाये तीन पत्रों से निर्मल वर्मा इतने नाराज़ हुए कि रवींद्र कालिया को खत लिखा कि मुझे तुम्हें कहानी भेजनी ही नहीं चाहिए थी । मेरी बहुत बड़ी भूल थी यह ! हालांकि जिस कृष्णा सोबती के मुरीद थे रवींद्र कालिया, उसी कृष्णा सोबती ने तद्भव में प्रकाशित अपने ऊपर लिखे रवींद्र कालिया के संस्मरण पर नाराजगी जताते हुए उन्हें छह फुटिया एडीटर कहकर अपमान किया और रवींद्र कालिया को बहुत दुख हुआ पर ऐसे हादसों के कालिया जीवन भर आदी रहे । ममता कालिया लिखती हैं कि इतने उदास रवि अपने माता पिता के निधन पर नहीं देखे थे, जितने कृष्णा सोबती के ऐसे व्यवहार पर ! बाद में दोस्ती करने के लिए पत्र भी लिखा, जिसके साथ रवि कथा समाप्त होती है।

ये बातें रवींद्र कालिया पर उनकी पत्नी से ज्यादा प्रेमिका व हिंदी की सशक्त और वरिष्ठ रचनाकार ममता कालिया ने रवि कथा मे लिखी हैं और यह भी कहा कि वे दोनों प्रेमी प्रेमिका ज्यादा थे, पति पत्नी कम यानी साहित्यिक लैला मजनूं से किसी भी तरह कम नहीं थी यह जोड़ी और अद्भुत जोड़ी-अलग संस्कृति, अलग भाषा, अलग स्वभाव लेकिन निभी तो खूब निभी दोनों ने ! जैसे अनिता राकेश ने मोहन राकेश के बाद चंद सतरें और लिखी और चर्चित रही, वैसे ही ममता कालिया ने रवि कथा लिखी, जो बहुचर्चित हो रही है, इतनी कि अट्ठाइस दिन में ही इसके दो संस्करण बिक गये । कारण यह कि इसमें रवींद्र कालिया के बहाने सिर्फ प्रेमकथा नहीं लिखी गयी बल्कि यह कहानी की कम से कम तीन पीढ़ियों की कथा है, यह लेखकों के छोटे बड़े किस्सों, चालाकियों, संपादकों की छोटी छोटी लड़ाइयों के किस्से हैं और हम जैसी पीढ़ी के लिए बहुत सारे खज़ाने हैं इसमें ! कितने सारे सबक भी लिये जा सकते हैं रवींद्र कालिया के अनुभवों से और वे पूरी तरह लापरवाही से ज़िंदगी गुजार गये ! बच्चों से प्यार इतना कि बंदरों से बचाने के लिए खुद बेटे के ऊपर लेट गये, छत से कूद कर आये और सोये बेटे को नहीं जगाया, चोट खा गये ! ममता कालिया को इतना प्यार दिया कि जब जब मुम्बई या इलाहाबाद में नौकरी छूटी, हमेशा कहा कि अच्छे हुआ ! मां का सम्मान और भाई बहनों से अथाह प्यार पर अंग्रेजियत से बुरी तरह चिढ़ ! ममता कालिया के पिता जितना बेटियों को कुछ बड़ा देखना चाहते थे,  बेटियों ने प्रेम विवाह किये और ममता कालिया के मन में था कि जीजू से लम्बा पति चाहिए और मिला रवींद्र कालिया के रूप में !

यह रवि कथा जीवन, साहित्य, संपादन और दोस्तियों का इलाहाबादी महासंगम कहा जा सकता है । मैं फिर कह रहा हूं कि बीस सितम्बर की छोटी सी मुलाकात में ममता कालिया ने मुझे तीन किताबें देकर बहुत बड़ा अमूल्य उपहार दिया और मैं भी हिसार आते ही पढ़ने में डूब गया । अब सिर्फ गालिब छुटी शराब ही बच रही है, जिसे ब्रेक के बाद जल्द शुरू करूंगा पर मन में एक मलाल भी लगातार यह कि हाय ! जीवन में रवींद्र कालिया से मुलाकात क्यों‌ न हुई ! हां, अंतिम पन्नों पर बहुत खूबसूरत फोटोज देखकर लगा कि रवींद्र कालिया मेरे भी सामने हैं !

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆ संजय दृष्टि – दस्तक देती आँधियाँ — कवयित्री – डॉ. कांतिदेवी लोधी ☆ समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

? संजय दृष्टि –  समीक्षा का शुक्रवार # 25 ?

?दस्तक देती आँधियाँ — कवयित्री – डॉ. कांतिदेवी लोधी ?  समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ?

पुस्तक का नाम- दस्तक देती आँधियाँ

विधा- कविता

कवयित्री- डॉ. कांतिदेवी लोधी

प्रकाशन- क्षितिज प्रकाशन, पुणे

? भीतर तक प्रवेश करती आँधियाँ  श्री संजय भारद्वाज ?

डॉ. श्रीमती कांतिदेवी लोधी का यह  काव्यपुष्प उनके पूर्ववर्ती संग्रह ‘भावों के पदचिह्न’ का विस्तार है। पूर्ववर्ती संग्रह में उभरती प्रतिमाएँ यहाँ पूर्ण आकृति ग्रहण कर सृजन को प्रसूत करती हैं। विभिन्न भावों से विभूषित संवेदनाओं के इस नीड़ का नामकरण कवयित्री ने ‘दस्तक देती आँधियाँ’ किया है।

इस संग्रह में डॉ. लोधी ने अनुभूति और भाव साम्य की दृष्टि से कविताओं को क्रम दिया है। यह क्रम रचनाकार के विभिन्न भावों को कुशलता से चित्रित करने के सामर्थ्य को उभारता है तो कहीं-कहीं भावाभिव्यक्ति और लेखन शैली की सीमाओं को भी चित्रित करता है। समान भावों को एक साथ पिरोते समय यह होना स्वाभाविक है। इस स्वाभाविकता से समझौता किये बिना उसे रेखांकित होने देना कवयित्री की सहजता एवं साहस का परिचायक है।

रचनाएँ, रचनाकार का सर्वश्रेष्ठ परिचय होती हैं। उन्हें पढ़ते समय आप रचनाकार को भी पढ़ सकते हैं। डॉ. लोधी की रचनाओं से एक ऐसी आकृति उभरती है जो उन्हें प्रयोगधर्मी सर्जक के रूप में स्थापित करती है। कवयित्री कहीं-कहीं सीधे लोकभाषा में संवाद करती हैं तो कहीं अंग्रेजी का एक ही शब्द प्रयोग कर काव्य को वर्तमान धारा और पाठक से सीधे जोड़ देती हैं। वे कहीं साहित्य के शुद्ध भाषा सौंदर्य के साथ बतियाती हैं तो कहीं परिधियों को लांघकर हिन्दी-उर्दू की मिली जुली ज़बान में अपनी बात प्रकट करती हैं। इतने विविध रूपों में एक बात समानता से दिखती है कि कवयित्री हर वर्ग के साथ संवाद स्थापित करने में सफल होती हैं। यही रचना का सामर्थ्य है, यही रचनाकार की विशेषता है। फलत: उनकी आकृति मानसपटल पर अधिक गहरी हो जाती है।

कवयित्री डॉ. लोधी के इस संग्रह में उनकी तीन दशकों की अनुभूतियाँ अभिव्यक्त हुई हैं । इन अभिव्यक्तियों के पड़ाव, उनकी भाषा, प्रवाह और भाव कुछ स्थानों पर देखते ही बनते हैं। उनकी रचनाओं में आध्यात्मिकता की अनुगूँज है। अधिकाश स्थानों पर यह अनुगूँज प्रकृति की विभिन्न छटाओं के साथ प्रतिध्वनित हुई है। इसका चित्रण करते समय वह नाटककार या कथाकार की-सी कुशलता से एक चित्र का वर्णन करते हुए दूसरे को अवचेतन में इतना प्रभावी कर देती हैं कि वह चेतन पर भी हावी हो जाए, फिर हौले से चेतन और अवचेतन का एकाकार कर देती हैं। एकाकार का उदाहरण देखिए-

प्रकृति का अनुपम शृंगार,

हमें मिला अद्भुत उपहार,

कण-कण रोमांचित करती हुई,

बरबस उस कलाकार की याद दिला रही है।

ईश्वर में आस्था और आध्यात्मिकता के स्वर उनकी कई रचनाओं में सुनने को मिलते हैं।

डॉ. लोधी की रचनाओं में प्रकृति के सौंदर्य और शृंगार का चित्रण गहराई से हुआ है। प्रकृति का मानवीकरण बेहद सुंदर दृश्य उपस्थित करता है। उनकी उपमाएँ शब्दों को जीवित कर देती हैं। बादलों का वर्णन करते हुए वे लिखती है –

मानो कोई नटखट बालक,

मौसी का हाथ छुड़ा, माँ की ओर भाग रहा हो।

इसी भाव की कविताओं में चाय के बागानों को हरे मखमली दुशाले ओढ़े धरती की बेटियाँ कहना या बांस के वृक्षों से आच्छादित द्वीपों को, ‘रात में अनेक दैत्य घुटनों तक पानी में खड़े होकर षड्यंत्र रच रहे हों’ की दृष्टि से देखना उनके काव्य लेखन का सशक्ततम बिंदु है। ये उपमाएँ एक निष्पाप, मासूम-सी अभिव्यक्ति लगती हैं जिनके साथ पाठक लौह-चुंबक सा जुड़ जाता है। प्रकृति के साथ लिखने की यह प्रवृत्ति उन्हें कहीं बादलों से जोडती है, कहीं सागर से, कभी सूर्य से तो कभी नदियों और झरनों से भी ।

कवयित्री की रचनाओं में प्रकृति के विनाश विशेषकर वृक्षों की कटाई को लेकर मार्मिक टिप्पणियाँ हैं। विकास के नाम पर होने वाले इस विनाश का प्रबल विरोधी होने के कारण संभवतः मुझे इन रचनाओं ने अधिक प्रभावित किया है। पर यह भी सत्य है कि वृक्षों के विनाश का दृश्य अपने एक परिजन को खोने की अनुभूति उपस्थित कर देता है-

जिसकी पूजा करती थी सुहागिनें,

अक्षत सौभाग्यदायी वटवृक्ष,

आज क्षत-विक्षत असहाय पड़ा था,

वहाँ आज बहुत बड़ा गड्ढा हो गया है।

शहर में मई महीने में गर्मी के पूछकर आने का अतीत और अब मार्च से ही पाँव पसार कर सो जाने का वर्तमान हृदय में शूल चुभो देता है। सड़क चौड़ी करने के अभियान में घर के बगीचे को काटने के निर्णय से घर को मिली ‘मौत और काले पानी की एक साथ सज़ा,’ ‘वसंत का भ्रम मात्र होना ‘जैसी पंक्तियाँ, उनकी संवेदनाओं को पाठकों के मानसपटल पर सीधे उतार देती हैं।

संवेदना, प्रेम की माता है। रचनाकार का संवेदनशील होना आवश्यक होता है……और संवेदनशील रचनाकार प्रेम पर, फिर वो चाहे जीवन के जिस पड़ाव और जिस स्वरूप का हो,  न लिखे, यह हो नहीं सकता । प्रेम को कवयित्री यूँ स्वर देती हैं-

अलक्षित अहिल्या थी मैं, पथ के किनारे और तुम राम हो, मेरे लिए ।

प्रेम के बल पर विभिन्न पड़ावों और कठिनाइयों के बीच सहचर के साथ की सहयात्रा को कांति जी बड़ी मंत्रमुग्ध शैली में ‘हम साथ चलते रहे’ कविता में उकेरती हैं। वानप्रस्थ की बेला में घोसले की परिधियों को पार कर गगन में उड़ानें भरते अपने ही पंछियों को देखकर वे पुलकित हैं तो एकाकी होना उन्हें म्लान भी करता है। पर यहाँ भी उम्र की गठरी बांधे अपने सहचर की अंगुली थामे अंत में वह पूछती हैं, ‘कहाँ है हमारा घर ?’ ‘मैं’ से ‘हम’ होने की प्रक्रिया उनकी प्रेमाभिव्यक्ति को विशाल आयाम प्रदान करती है।

कवयित्री वर्तमान की त्रासदियों और भविष्य की चिंताओं से भी साक्षात्कार करती हैं। ‘मानवीय क्लोन होने की प्रवृत्ति’ में वह भविष्य की भयावहता को अधोरेखित करती हैं। समाज में निरंतर घटते जीवनमूल्यों पर ‘कर्तव्य आज का’ कविता में सीधे प्रश्न करती हैं। ‘दृश्य आज का’ राजनीति के मुखौटों के पीछे दबी कालिख व कटु सच्चाइयों का दर्पण है। ‘हवाएँ ज़हरीली हो गई हैं ‘में आतंकवाद और हिंसा से दुखी आम आदमी स्वर पाता है। ‘मीलों तक कोहरा है’ में अपने समय की सक्रिय खूँख़्वार प्रवृत्तियों और निष्क्रिय प्रतिक्रियाओं पर गहरे शब्द सामर्थ्य का वह परिचय देती हैं।

कवयित्री की रचनाओं में ‘माटी आंगन’ में जहाँ लोकभाषा उभरी है, वहीं कई रचनाएँ उर्दू के शब्द प्रयोग से युक्त हैं। काव्य की विभिन्न धाराओं और मनोभावों के बीच रचनाकार का जो पक्ष मजबूती से उभरता है, वह है उनके भीतर के प्रबल आशावाद का । मनुष्य के भीतर के बौने आदमी से सकारात्मक स्वर सुनने की आशा लिये वे खंडित होते-होते अखंडित रहने का मंत्र फूँकती हैं। आशा के प्रति ये आस्था जीवन और काल की सीमाओं को भी लांघती है। यथा-

प्रतीक्षा है आहट की, जब चाहे चल दूँगी, आस्था-विश्वास भरी, अक्षय डोरी थामे।

डॉ. श्रीमती कांतिदेवी लोधी की रचनाओं का यह संग्रह ‘दस्तक देती आँधियाँ’ स्तरीय है। उन्होने अभिव्यक्ति के सागर में शब्दों को अनमोल मोती लिखा है। शब्द और बह्म को वह समान ऊँचाई पर रखती हैं। शब्दों के माध्यम से वह रचना का पाठक से एकाकार करा देती हैं। अपनी शब्दयात्रा के बीच एक नन्ही आकांक्षा को भी शब्द देती हैं, कहती हैं –

ज़िंदगी की क़िताब में मेरा नाम दर्ज हो,

फूलों की जगह ।

शब्दों की स्वामिनी, भावनाओं की कुशल चितेरी डॉ. कांतिदेवी लोधी की रचनाएँ  साहित्य की फुलवारी में गुलाब के पुष्प-सी प्रतिष्ठित हों, यह आशा करता हूँ। भविष्य की शब्द यात्रा के लिए उन्हें हार्दिक शुभकामनाएँ।

© संजय भारद्वाज  

नाटककार-निर्देशक

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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