(हमप्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के आभारी हैं जो साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं।
आज प्रस्तुत है आपके द्वारा सुश्री प्रगति गुप्ता जी द्वारा लिखित कथा संग्रह “कुछ यूं हुआ उस रात” पर चर्चा।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 176 ☆
☆ “कुछ यूं हुआ उस रात” – लेखिका … सुश्री प्रगति गुप्ता ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
पुस्तक चर्चा
कहानी संग्रह … “कुछ यूं हुआ उस रात”
लेखिका … सुश्री प्रगति गुप्ता
प्रभात प्रकाशन नई दिल्ली
पृष्ठ १३८
मूल्य २५० रु
आई एस बी एन ९७८९३५५२१८७२८
चर्चा … विवेक रंजन श्रीवास्तव, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी, भोपाल
“कुछ यूं हुआ उस रात” प्रतिष्ठित तथा अनेक स्तरों पर सम्मानित कथाकार प्रगति गुप्ता की १३ कहानियों का संग्रह है। आधुनिक समाज में मानवीय संबंधों की जटिलताओं को उजागर करती प्रतिनिधि कहानी “कुछ यूं हुआ उस रात” को पुस्तक का शीर्षक दिया गया है। “यह शीर्षक स्वयं में एक रहस्य और अनिश्चितता का संकेत देता है। यह कहानी तिलोत्तमा नामक पात्र के इर्द-गिर्द घूमती है, जो रात को फोन पर एक लड़की से बात करती है। यह बातचीत उसके लिए एक तरह का आधार बन जाती है, जो उसके अकेलेपन को कम करने में मदद करती है। हालांकि, एक दिन वह पाती है कि उस लड़की का फोन बंद है, और वह सोचने लगती है कि क्या वह लड़की वास्तविक थी या केवल उसकी कल्पना का हिस्सा थी। यह घटना तिलोत्तमा को भावनात्मक रूप से विचलित करती है। कहानीकार ने नायिका के मनोभावों को गहराई से चित्रित करने में सफलता अरजित की है। जिससे पाठक मन कहानी की विषयवस्तु सेजुड़ जाता है। अकेलेपन और संबंधों की तलाश से जूझता आज का महानगरीय मनुष्य तकनीक का उपयोग करके अपने अकेलेपन को कम करने की कोशिश करता दिखता है। हाल ही भुगतान के आधार पर मन पसंद वर्चुअल पार्टनर मोबाईल पर उपलब्ध करने के साफटवेयर विकसित किये गये हैं। यह थीम आज के डिजिटल युग में बहुत प्रासंगिक है। आधुनिकता की चकाचौंध में लोग इतने एकाकी हो गये हैं कि मनोरोगी बन रहे हैं। आत्मीयता की तलाश तथा सच्चे संबंधों तक तकनीक से तलाश रहे हैं। कहानी में फोन को एक ऐसे माध्यम के रूप में दिखाया गया है जो संबंध बनाने में मदद करता है, लेकिन उसे टिकाऊ बनाने में असमर्थ होता है। इसी थीम पर मैने एक कहानी रांग नम्बर पढ़ी थी।
तिलोत्तमा के चरित्र के माध्यम से लेखिका ने भावनात्मक संवेदनशीलता को बड़ी सूक्ष्मता से चित्रित किया है। उसका द्वंद्व और असमंजस पाठकों के मन में गहरा प्रभाव छोड़ता है, और कहानी को विचारोत्तेजक रचना बनाता है।
प्रगति गुप्ता की लेखन शैली सरल और प्रभावशाली है। उनकी भाषा में सहजता है जो पाठकों को कहानियों के कथानक से जोड़ने में मदद करती है। अभिव्यक्ति संवादात्मक और प्रवाहमय शैली में है। वे कहानियों में सकारात्मक प्रासंगिक थीम्स उठाती है और पाठकों को सोचने पर मजबूर करती है। यह कहानी संग्रह पिछली पीढ़ी के प्रेमचंद जैसे पारम्परिक ग्रामीण परिवेश के लेखकों की कहानियों से तुलना में अधिक आधुनिक और तकनीक-केंद्रित प्रतीत होता है। संग्रह में “कुछ यूं हुआ उस रात” केअतिरिक्त, अधूरी समाप्ति, कोई तो वजह होगी, खामोश हमसफर, चूक तो हुई थी, टूटते मोह, पटाक्षेप, फिर अपने लिये, भूलने में सुख मिले तो भूल जाना, वह तोड़ती रही पत्थर, सपोले, समर अभी शेष है, और कल का क्या पता शीर्षक से कहानियां संग्रहित हैं जो एक अंतराल पर रची गई हैं। कहानियों के शीर्षक ही कथावस्तु का एक आभास देते हैं। प्रगति गुप्ता मरीजों की काउंसलिंग का कार्य करती रही हैं, अतः उनका अनुभव परिवेश विशाल है। उनके पास सजग संवेदनशील मन है, अभिव्यक्ति की क्षमता है, भाषा है, समझ है अतः वे उच्च स्तरीय लिख लेती हैं। उन्हें वर्तमान कहानी फलक पर यत्र तत्र पढ़ने मिल जाता है। चूंकि वे अपनी कहानियों में पाठक को मानसिक रूप से स्पर्श करने में सफल होती हैं अतः उनका नाम पाठक को याद रहा आता है। उनके नये कहानी संग्रहों की हिन्दी कथा जगत को प्रतीक्षा रहेगी।
☆ पुस्तक चर्चा ☆ विश्व प्रसिद्ध गिरमिटिया साहित्यकार मारीशस निवासी रामदेव धुरंधर – लेखक – श्री पावन बख्शी ☆ श्री राजेश कुमार सिंह ‘श्रेयस’ ☆
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क्या बात है आपने तो गागर में सागर भर दिया। एक बड़े समुद्र को ऐसे समेटा कि साहित्यिक नजरे उसे नाप लें । वरना आम नजरों की क्या औकात जो समंदर को ढाँप ले। श्री रामदेव धुरंधर, मॉरीशस के प्रख्यात साहित्यकार, जिनकी कलम, न सिर्फ यथार्थ को बयाँ करती है, बल्कि ब्रह्मांड से भी यथार्थ भरी रचनाएं उतार लाती हैं।
मेरे सामने अब बारी थी कि उत्तर प्रदेश के बलरामपुर में जन्मे हिमाचल को सिरमौर मान चुके, वर्तमान में सिरमौर हि.प्र. में निवास कर रहे हिंदी साहित्य के श्रेष्ठ साहित्यकार श्री पवन बख्शी जी कृति “विश्व प्रसिद्ध गिरमिटिया साहित्यकार मारीशस निवासी रामदेव धुरंधर” पर अपने मानोभावों को प्रस्तुत करने की।
श्री पवन बख्शी जी ने अब तक इक्कहत्तर पुस्तक लिखी है। जिनमे ग्यारह ऐसी पुस्तक लिखी जो कि हिंदी साहित्य के विद्वान् एवं विशेष लेखकों पर आधारित हैं।
मूर्धन्य लेखकों पर लिखी जाने वाली श्रृंखला को नाम दिया है विद्वन्मुक्तामणिमालिका। आज जो पुस्तक प्राप्त हुई है वह है विद्वन्मुक्तामणिमालिका -11। श्रृंखला की इस पुस्तक का शीर्षक है “विश्व प्रसिद्ध गिरमिटिया साहित्यकार रामदेव धुरंधर”। अब यह पुस्तक मेरे हाथों में थी।
मुझे इस पुस्तक की समीक्षा लिखनी थी, जो कि अब मेरा मिशन था। ब्लू जे बुक्स प्रकाशन नई दिल्ली से प्रकाशित पुस्तक के आवरण पृष्ठ पर श्री धुरंधर जी का वही पुरानी शैली का चित्र था जिसे हम उनसे जुड़ी कई पुस्तकों में देखते हैं। यह चित्र धुरंधर जी के रुचिर साहित्य को व्याख्यायत करने वाला चित्र है।
पुस्तक के लेखक श्री पवन बख्शी जी के विचार पुस्तक के प्रथम पृष्ठ पर ही दिख जाते हैं, जब वह इस पुस्तक को श्री रामदेव धुरंधर के पूज्य पिताजी- माताजी एवं उनकी धर्मपत्नी स्वर्गीय देवरानी जी को समर्पित करते हुए लिखते हैं कि-
“उस माता-पिता को नमन जिन्होंने रामदेव धुरंधर को जन्म दिया। उस पत्नी को नमन, जिन्होंने रामदेव धुरंधर को दुनिया के रंजो गम से दूर रखकर उन्हें भरपूर लेखन में सहयोग किया।”
लेखक, सम्मानित साहित्यकार श्री धुरंधर के विषय में लिखते हैं कि- “आपके भीतर बैठे परमात्मा को मेरा प्रणाम”। श्री पवन बख्शी जी, श्री धुरंधर जी के प्रति गजब का आदर भाव व्यक्त करते हैं। धुरंधर जी की शान में एक पंक्ति और भी लिखते हैं कि “आपके बारे में कुछ भी लिखना सूर्य को दीपक दिखाने के समान है।”
आदरणीय धुरंधर जी भी श्री पवन बख्शी जी के लिए लिखने से कहां चूकते हैं। वे अपने शुभकामना संदेश “पुस्तक : विश्व प्रसिद्ध गिरमिटिया साहित्यकार मारीशस निवासी रामदेव धुरंधर” में लिखते हैं – “इस शीर्षक से मेरा मानना है कि पवन बख्शी जी ने मुझे इस तरह प्रेरित किया कि इस कृति के लिए सहयोग करता जाऊं। तब तो निश्चित ही दो नाम एक दूसरे के पूरक जाएंगे, वे नाम है पवन बख्शी एवं रामदेव धुरंधर।”
अंत में श्री धुरंधर जी जी लिखते हैं – पवन बख्शी ने एक नए अंदाज में मुझ पर आधारित इस कृति का प्रणयन किया है।”
अपने इस शुभकामना आलेख में – श्री धुरंधर जी, श्री पवन बख्शी जी के अतिरिक्त डॉ राम बहादुर मिश्रा जी, श्री राजेश कुमार सिंह श्रेयस (मेरी) की चर्चा करते हैं। इसके अलावा श्री रामदेव धुरंधर जी डॉक्टर दीपक पाण्डेय और डॉ नूतन पाण्डेय जी का जिक्र बड़े ही स्नेह और सम्मान भाव से करते हैं, साथ ही साथ उनके द्वारा सम्पादित ऐतिहासिक कृति रामदेव धुरंधर की रचनाधार्मिता का हवाला भी देते हैं।
इन नामो के अतिरिक्त श्री राम किशोर उपाध्याय जी, डॉ. हरेराम पाठक जी, डॉ जयप्रकाश कर्दम जी, की भी चर्चा करते हैं। श्री रामदेव धुरंधर जी का ऐतिहासिक उपन्यास पथरीला सोना भी इस लेख के केंद्र में है।
श्री राजेश कुमार सिंह श्रेयस (स्वयं) की खुशी यह है कि- “मैं इस पुस्तक का सारथी बना” शीर्षक से छपा मेरा यह लेख मेरे चित्र के साथ है। यह लेखक एवं साहित्यकार जिनके विषय में पुस्तक लिखी गयी है, दोनों की ही भावना को दर्शाता है। श्री श्रेयस (मै) बक्शी जी के विषय में लिखते हैं – जिस स्वभाव या प्रकृति का व्यक्ति होता है ईश्वर उसकी मिलन वैसे ही स्वभाव के व्यक्तियों से कर देता है।
“ऐसे ही मेरी मुलाकात स्वच्छ एवं साहित्यिक हृदय के साहित्यकार श्री बख्शी जी के साथ होनी थी”।
लेखक ने अपनी इस पुस्तक के पांच पृष्ठों में धुरंधर जी के लेखकीय कृतित्व और उनके सम्मानों की खूब चर्चा करते है। यह पृष्ठ शोधार्थियों के लिए अति उपयोगी होंगी, ऐसा मेरा मानना है।
अपने स्वयं के आलेख “खुशी के वो क्षण जब सपना साकार हुआ” में श्री बक्शी जी, भारत के प्रसिद्ध वैज्ञानिक एवं महामहिम पूर्व राष्ट्रपति डॉक्टर एपीजे कलाम जी के साथ अपने चित्र को साझा करते हैं, जिसमें वह उनकी किसी एक कृति का विमोचन करते हैं।
इसी आलेख में लेखक जब एक पुस्तक किसी विदेशी लेखक के कृतित्व व्यक्तित्व पर लिखना चाहता है तो फिर नाम आता है रामदेव धुरंधर जी का इसका जिक्र बड़े ही सुन्दर ढंग से किया गया हैं।
श्री धुरंधर जी पर लिखने की प्रेरणा के लिए वे मेरा और डॉ. राम बहादुर मिश्रा जी का नाम प्रोत्साहन कर्ता के रूप देते हैं। यह तो सिर्फ उनकी उदारता हुई वरना, ऐसे बड़े साहित्यकार के लिए यह सामान्य सी बात है।
पुस्तक का पृष्ठ 19, 20, 21 और 22 श्री धुरंधर जी के जन्म से लेकर उनके लेखन की दुनिया की कहानी कुछ ही पन्नों में समेट देती है।
लेखक ने श्री रामदेव धुरंधर अन्य मित्रों से संपर्क भी किया और फिर धुरंधर जी के विषय में जो गूढ़तम और कुछ ऐसी बातें जो कि आम लोगों तक अभी तक नहीं पहुंची है उसको भी खोज निकाला, जो कि इस पुस्तक का एक बहुत ही महत्वपूर्ण एवं मजबूत पक्ष है।
प्रख्यात समीक्षक एवं भुवनेश्वर में रहकर रचनाकर्म कर रहे विजय कुमार तिवारी जी का आलेख रामदेव जी की दिनचर्या और उनकी रचनाशीलता पर आधारित है।
किसी साहित्यकार के संस्मरण उस साहित्यकार के मन के भाव एवं उसके लेखकीय शैली को स्पष्ट रूप से व्यक्त करते हैं।
लेखक ने कुछ पुस्तकों से, कुछ विद्वान् साहित्यकारों से बात कर के और ज्यादा से ज्यादा सीधे-सीधे श्री धुरंधर जी से संपर्क कर संस्मरण जुटाये है। यह श्री पवन बक्शी जी की इस पुस्तक को लाने के प्रति गहरी रुचि को दर्शाता है।
श्री रामदेव धुरंधर ने “मौत नामा”, “भुवन चाचा के बारे में”, “डॉ हजारी प्रसाद द्विवेदी और डॉक्टर शिवमंगल सिंह सुमन से संबद्ध एक भावभीना संस्मरण “एवं तुम्हें नमन मेरे पिता” जैसे संस्मरण देकर, इस पुस्तक की गरुता को बढ़ाया है।
श्री राम बहादुर मिश्रा जी ने श्री पवन बक्शी जी से कहा आप श्री राजेश कुमार सिंह ‘श्रेयस’ जी से मिले रामदेव धुरंधर जी से जुडी बहुत सारी जानकारियां आपके पुस्तक के लिए मिल जाएगी। श्रेयस (मैने) भी इसे गुरबचन मान लिया। राजेश श्रेयस डॉ राम बहादुर मिश्र को अपना गुरु मानते हैं। अतः इस आदेश को उन्होंने माथे पर ओढ़ लिया। फिर क्या दो संस्मरण (मेरे लेखन का भगवान, एवं जब स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेई जी ने मोटर रुकवा कर मुझे अपने साथ गाड़ी में बैठा लिया, जो श्री राजेश कुमार सिंह श्रेयस के शब्दों में है, इस पुस्तक के अंश बन जाते हैं।
श्री राजेश कुमार सिंह श्रेयस (मै) जो अक्सर उनसे संवाद करते रहते हैं उनके संवादों को सीधे सीधे शब्दों में पिरो कर साहित्य का स्वरूप दे देते हैं तो एक शीर्षक निकलकर आता है “हमारा साहित्य, भाषा, बोली और संस्कृति”।
श्री धुरंधर जी के साथ वार्ता के दौरान भोजपुरी की एक पंक्ति का जिक्र भी श्रेयस ने किया है कि – बात की बात में श्री धुरंधर जी मॉरीशस में अपने गांव की किसी घटना का जिक्र करते हुए कहते हैं कि “फलनवा बड़ा अगरात रहल”।
श्री धुरंधर जी के मुंह से भोजपुरी शब्द अगराना सुनकर श्रेयस आश्चर्य चकित होते है। श्री राजेश जी (स्वयं) का यह लेख बताता है कि श्री धुरंधर जी भाषायी रूप से किस प्रकार भारत से जुड़े है।
श्री रामदेव धुरंधर जी के अभिन्न मित्रों में एक नाम आता है श्री राम किशोर उपाध्याय जी का। श्री उपाध्याय जी श्री रामदेव धुरंधर जी के विषय में लिखते हुए अपने आलेख का शीर्षक देते हैं – “रामदेव धुरंधर की रचना के विषय और शिल्प दोनों के प्रति सतर्क है” अपने इस आलेख के माध्यम से श्री उपाध्याय जी ने श्री धुरंधर जी के रचना संसार के हर पक्ष को स्पर्श किया है।
भारत के श्रेष्ठ समीक्षकों में से एक श्री विजय कुमार तिवारी जी का आलेख “दुनिया में एक ही है रामदेव धुरंधर” के माध्यम से तिवारी जी श्री धुरंधर जी के ही शब्दों को उतारते हुए लिख देते हैं कि- अपने जीवन व लेखन के बारे में उन्होंने कहा कि “साधारण ग्राम्य अंचल में जन्म पाकर में यही उम्र की सीढ़ियां चढ़ता गया। “
मैंने अपने इस ग्रामीण मां की गोद में बैठकर अपने जीवन की धूप छांव को जाना है। श्री रामदेव धुरंधर के ये शब्द उनके गांव के प्रति प्रेम को दर्शाते हैं।
भारत में श्री रामदेव धुरंधर के साहित्य पर लिखा ऐतिहासिक ग्रंथ “रामदेव धुरंधर की रचना धर्मिता” सहित सर्वाधिक (पांच) साहित्यिक कृतियाँ देने वाले, एवं श्री रामदेव धुरंधर जी के अतिशय प्रिय साहित्यकार दम्पति डॉ. दीपक पाण्डेय एवं डॉ. नूतन पाण्डेय जी (सहायक निदेशक केंद्रीय हिंदी निदेशालय नई दिल्ली) ने इस पुस्तक के लिए अपना सर्वाधिक लोकप्रिय आलेख “लघु कथाएं- रामदेव धुरंधर की लघुकथाओं का वैशिष्टय को इस पुस्तक में समाहित करने की सहमति देकर इस पुस्तक की गरिमा को बढ़ा दिया है।
भोपाल मे रहकर साहित्य सृजन करने वाले विद्वान साहित्यकार श्री गोवर्धन यादव का श्री धुरंधर जी के साथ लिया गया साक्षात्कार, श्री रामदेव धुरंधर जी का व्यक्तित्व और कृतित्व धुरंधर जी के साहित्यिक एवं व्यक्ति का जीवन से जुड़े लगभग हर पक्ष को बेबाकी से रखने का सामर्थ्य रखता है।
श्री धुरंधर जी का ऐतिहासिक उपन्यास पथरीला सोना इस पुस्तक के अधिकांश हिस्सों में रमण करते हुए कहता है कि भारत से मॉरीशस पहुंचे भारतीयों की दास्तान साहित्यिक दृष्टि से दोनों देशों के साहित्यकारों के लिए कितना महत्व रखती है।
श्री रामदेव धुरंधर जी का यह सप्त खंडीय उपन्यास अतीत को वर्तमान से जोड़ने वाला, मारिशस में भारतीय संस्कृति और संस्कारों को संरक्षित रखने वाला सफलतम ऐतिहासिक और लोकप्रिय उपन्यास है।
अपनी इस पुस्तक में लेखक ने धुरंधर जी के दो लोकप्रिय कहानियों को यात्रा कराया है, जैसे -छोटी उम्र का सफर, ऐसे भी मांगे वैसे भी मांगे, किसी से मत कहना। इसके अतिरिक्त कई कहानी संग्रह के आवरण चित्र इस पुस्तक की शोभा बढ़ा रहे है, जैसे – विषमंथन, जन्म की एक भूल, अंतर मन, रामदेव धुरंधर संकलित कहानियां, अंतर्धारा, अपने-अपने भाग्य दूर भी पास भी, उजाले का अक्स।
श्री रामदेव धुरंधर की लघु कथाओं का संग्रह और उसके आवरण पृष्ठ के चित्र (प्रकाशन वर्ष के साथ) इस पुस्तक को और भी सजाते हैं, जैसे -चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आसमान, आते जाते लोग, मैं और मेरी लघु कथाएं।
इस पुस्तक में लेखक ने रामदेव धुरंधर की कुछ लघु कथाओं को भी सीधे सीधे डाला है। जैसे – कल्पित सत्य, कुछ पल के साथ ही, अपना ही भंजक, सोने का पिंजरा, चोर दरवाजा अनदेखा सत्य, आत्म मंथन, खामोश तूफान, महात्मा, जगमग अंधेरा।
श्री रामदेव धुरंधर सुधी व्यंग्यकार भी है। लेखक ने उनके लोकप्रिय व्यंग आलेख “अकेली दुकेली चिरैया को” इस साहित्यिक कृति के डाल पर बैठा कर इस कमी को पूर्ण किया है। श्री रामदेव धुरंधर के व्यंग कृतियों के कुछ आवरण चित्र भी इस पुस्तक में डाले गए हैं जिसमें – कलयुगी करम धरम, बंदे आगे भी देख, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, कपड़ा उतरता है।
श्री रामदेव धुरंधर के नाटक संग्रह प्रवर्तन और जहां भी आदमी का आवरण चित्र यह बताने के लिए काफी है कि धुरंधर जी ने नाट्यसाहित्य में भी अपनी बेजोड़ कलम चलाई है।
श्री रामदेव धुरंधर को गद्य क्षणिका का अन्वेषक माना जाता है।
आपकी गद्य क्षणिकाएं इतनी लोकप्रिय हुई, साहित्यकार मन की जुबान बन गयीं। श्री पवन बक्शी जी ने कुछ एक क्षणिकाओ को भी इस पुस्तक में उद्धरित किया है। कुछ गद्य क्षणिकाओ के संग्रह के आवरण पृष्ठ के चित्र जैसे – गद्य क्षणिका एक प्रयोग, छोटे-छोटे समंदर, तारों का जमघट को पुस्तक में डाले हैं।
श्री धुरंधर जी का गद्य क्षणिकाओ को लेकर एक और प्रयोग किया है, जिसमें 80 से कम शब्दों का प्रयोग किया गया है। लेखक ने इस पुस्तक में कुछ ऐसी क्षणिकाएं भी डाली हैं।
श्री पवन बख्शी जी ने रामदेव धुरंधर के पुरस्कार सम्मानो को नाम एवं वर्ष के अनुरूप न सिर्फ क्रमबद्ध तरीके से पुस्तक में छापा है बल्कि उन पुरस्कार और सम्मानों के चित्र भी प्रदर्शित किए हैं। ऐसा करके श्री पवन बख्शी जी ने साहित्यिक अभिरुचि रखने वाले शोधार्थियों एवं साहित्यकारों के लिए श्री धुरंधर जी के साहित्य को समझने के लिए और भी आसानी प्रदान की है।
श्री धुरंधर जी की क्षणिकाएं अक्सर रामदेव धुरंधर जी के फेसबुक पेज पर आती है, तो उनके नियमित पाठक भी उस पर अपनी प्रतिक्रिया देने से नहीं चूकते हैं।
“पुस्तक में सृजन के सेतु मित्रों के स्वर” शीर्षक से कुछ पाठकों की टिप्पणियों को भी स्थान दिया गया है जिसमे कुछ नियमित पाठकों में श्री राजनाथ तिवारी, श्री राम किशोर उपाध्याय, श्री महथा रामकृष्ण मुरारी, श्री राजेश सिंह, श्री वल्लभ विजय वर्गीय, श्री रामसनेही विश्वकर्मा, कुमार संजय सुमन श्री उपाध्याय, इंद्रजीत दीक्षित, दिलीप कुमार पाठक, सनत साहित्यकार, सौरभ दुबे, संजय पवार की टिप्पणीयाँ शामिल है।
श्री पवन बख्शी जी ने अपनी इस पुस्तक में श्री रामदेव धुरंधर जी को देश विदेश के बड़े बड़े साहित्यकारों के साथ चित्रों को भी दर्शाया है। इसकी अतिरिक्त श्री धुरंधर जी के पारिवारिक चित्रों को भी इस पुस्तक में खूब स्थान दिया गया है।
श्री धुरंधर जी अपनी पत्नी देवरानी जी को बहुत ही मान देते रहे हैं। उनसे जुड़े हुए संस्मरण पर आधारित लेख रामदेव की जुबानी रामदेव की देवरानी इस पुस्तक का अंश बनी हुई है।
भारत यात्रा के दौरान ताजमहल के सामने खड़े होकर श्री धुरंधर दंपति का चित्र भी इस पुस्तक को पूर्णता प्रदान कर रहा है।
साहित्यिक जीवन के सत्तर से अधिक सालों बाद का एक ऐसा शुभ संयोग जब मुझे रामदेव धुरंधर जी द्वारा साझा किया हुआ वह डाटा प्राप्त हुआ जिसमें उनके परदादा भारत के कोलकाता बंदरगाह से मॉरीशस आए थे। इस दस्तावेज के अनुसार धुरंधर जी के पूर्वजों की जन्मस्थली तात्कालिक जनपद गाजीपुर परगना बलिया जो वर्तमान जनपद बलिया, के गांव गंगोली में है का पता चलता है। राजेश श्रेयस (मेरे) द्वारा तैयार किए गए इस आलेख को “मॉरीशस साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर के पुर्वजों का गांव गंगोली बलिया उत्तर प्रदेश (भारत) राजेश सिंह की एक खोज” शीर्षक से इस पुस्तक में छापकर श्री पवन बख्शी ने इस बड़ी उपलब्धि को स्थायी मुकाम प्रदान कर दिया है।
पुस्तक के अंतिम चरण में डॉ जितेंद्र कुमार सिंह ‘संजय’ (लेखक एवं प्रकाशक ) ने श्री पवन बक्शी जी का बृहद परिचय कराया है। साथ ही साथ उनकी इक्कहत्तर कृतियों को आम पाठकों के सामने लाकर रख दिया है।
इस कृति के लेखन के बाद श्रेष्ठ साहित्यकार आदरणीय पवन बख्शी जी कहते हैं। अब जब कोई मुझसे मारीशस के साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी के बारे में पूछना या जानना चाहेगा, तो मैं कहूंगा कि लीजिए श्रीमान! 222 पृष्ठों की यह पुस्तक आपको सब कुछ बता देगी।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी पुस्तक चर्चा – “व्यंग्य का एपिसेंटर…“।)
अभी अभी # 652 ⇒ पुस्तक चर्चा – व्यंग्य का एपिसेंटर श्री प्रदीप शर्मा
यह शीर्षक मेरा नहीं !
छप्पन भोग की तरह जहां छप्पन व्यंग्य एक जगह एकत्रित हो जाएं, वह वैसे भी व्यंग्य का एपिसेंटर बन जाता है। मेरे शहर में कई बाज़ार हैं, कई चौराहे हैं और कई सेंटर ! कपड़ों की दुनिया में जहां कटपीस सेंटर से लगाकर महालक्ष्मी वस्त्र भंडार तक मौजूद है। औषधि हेतु अगर भरा पूरा दवा बाजार है तो हर शॉपिंग मॉल में एक अदद बिग बाजार और ट्रेड सेंटर का तो मानो यत्र तत्र सर्वत्र साम्राज्य ही है।
पुस्तक और पाठक के बीच, लेखक ही वह मध्यस्थ है, जो दोनों को आपस में मिलाता है। बहुत कम ऐसा होता है कि पुस्तक तो पढ़ ली जाए और लेखक को भुला दिया जाए। कुछ कुछ पुस्तकें तो इतनी प्रभावशाली होती हैं कि जोर जबरदस्ती के बावजूद ( तीन चार वाक्य अगर अतिशयोक्ति न हो तो) और मन मारकर भी तीन चार पृष्ठों से आगे नहीं पढ़ी जाती। और हां, ऐसे लेखक हमेशा याद रहते हैं। ऐसे श्री कर्नल रंजीत को दूर से ही प्रणाम है। ।
रोटी, कपड़ा और मकान की ही तरह होता है, लेखक, प्रकाशक और पाठक। अगर लेखन प्रकाशित नहीं हुआ, तो पाठक तक कैसे पहुंचेगा। अतः जो छपता है, वही लेखक है। पहले समर्थ लेखक अखबार और पत्र पत्रिकाओं में छपता है, पाठक उसे पसंद करते हैं, जब उसकी पहचान बन जाती है तो एक पुस्तक का जन्म होता है। महाकाव्य, उपन्यास और गंभीर किस्म का लेखन वर्षों की मेहनत, लगन, और साधना के बाद ही एक पुस्तक का रूप धारण कर पाता है।
तुम्हें जिन्दगी के उजाले मुबारक, विसंगतियां मुझे रास आ गई हैं। करें, जिनको संतन की संगत करना हो, यहां तो संगत, विसंगति की कर ले।।
सुश्री समीक्षा तेलंग
एक अच्छे लेखक को उसकी कृति ही महान बनाती है। एक वक्त था, जब पाठक केवल एक पाठक था, गंभीर अथवा साधारण ! लेखक से उसका आत्मिक और भावनात्मक संबंध तो होता था, लेकिन संवाद और साक्षात्कार संयोग और विशेष प्रयास से ही संभव हो पाता था। सोशल मीडिया और विशेषकर फेसबुक से वह सृजन संसार के और अधिक निकट आ पाया है, जहां अपने प्रिय लेखक से न केवल संवाद संभव हो सका है, अपितु दोनों परस्पर परिचय और मित्रता की राह पर ही चल पड़े हैं। मैं एक अच्छे लेखक को कभी दूर के ढोल सुहाने समझता था, अब तो मन करता है, जुगलबंदी हो जाए।
मेरे जैसे एक नाचीज़ औसत पाठक को जब फेसबुक ने कोरा कागज दिया, एक सजा सजाया की बोर्ड के रूप में मनमाफिक फॉन्ट उपलब्ध कराया और एक शुभचिंतक की तरह अनुग्रह किया, यहां कुछ लिखें, Write something here, तो एक अच्छे आज्ञाकारी बच्चे की तरह मैं भी कुछ लिखने लगा। मेरी भी कलम चलने लगी। फेसबुक पर कलम चलेगी तो दूर तलक जाएगी और मेरे हाथों अभी अभी का जन्म हो गया।।
फेसबुक एक बहती ज्ञान गंगा है। मैने इस बहती गंगा में ना केवल हाथ धोया है, बल्कि कई बार डुबकी भी लगाई है। गंभीर चिंतन मनन, अध्यात्म, कला, संगीत और साहित्य के साथ साथ सहज हास्य विनोद और व्यंग्य के एपिसेंटर तक पहुंचने का सुयोग मुझे समीक्षा तेलंग के सौजन्य से प्राप्त हुआ है।
एक समर्थ व्यंग्यकार की जीभ भले ही अनशन पर हो, लेकिन उसकी लेखनी कभी कबूतर का कैटवॉक करती नज़र आती है तो कभी समाज के सम सामयिक विषयों पर वक्र दृष्टि डालने से भी नहीं चूकती। साहित्यिक गुटबाजी और महिला विमर्श जैसे लिजलिजे प्रलोभनों और प्रपंचों से कोसों दूर, केवल सृजन धर्म को ही अपना एकमात्र लक्ष्य मान, प्रचार और प्रसिद्धि से दूर, अनासक्त और असम्पृक्त रहना इतना आसान भी नहीं होता। ।
समीक्षा जी को पढ़ने के बाद कुछ भी समीक्षा लायक नहीं रह जाता। बस मन करता है, पढ़ते ही जाएं, एक एक व्यंग्य को एक बार नहीं, कई कई बार ! साहित्य में कई नामवर आलोचक हुए, राजनीति में जो आलोचना का हथियार विपक्ष के पास था, भले ही आज उसे सत्ता पक्ष ने हथिया लिया हो, लेकिन
व्यंग्य की आज भी आलोचना नहीं हो सकती, सिर्फ समीक्षा हो सकती है। और जब समीक्षा जी खुद जहां मौजूद हों, वहां समीक्षा भी नहीं, सिर्फ तारीफ, बधाई और साधुवाद..!!
(हमप्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के आभारी हैं जो साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं।
आज प्रस्तुत है आपके द्वारा श्री प्रभाशंकर उपाध्याय जी द्वारा लिखित “इनविजिबल इडियट” पर चर्चा।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 175 ☆
☆ “इनविजिबल इडियट” – व्यंग्यकार… श्री प्रभाशंकर उपाध्याय☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
पुस्तक चर्चा
चर्चित व्यंग्य संग्रह.. इनविजिबल इडियट
व्यंग्यकार .. श्री प्रभाशंकर उपाध्याय
भावना प्रकाशन, दिल्ली
मूल्य 300रुपए, पृष्ठ 164
चर्चाकार .. विवेक रंजन श्रीवास्तव, भोपाल
श्री प्रभाशंकर उपाध्याय
चर्चित कृति इनविजिबल इडियट, सामयिक, सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों को व्यंग्य के तीखे तेवर के साथ प्रस्तुत करती है। लेखक ने समाज में व्याप्त विसंगतियों, राजनीतिक पाखंड, साहित्यिक अवसरवादिता और मानवीय दुर्बलताओं को बेबाकी से उजागर किया है।
विषयवस्तु और व्यंग्य की प्रकृति
किताब में शामिल किए गए व्यंग्य लेखों से झलकता है कि इस कृति में अपनी पुरानी व्यंग्य पुस्तकों के क्रम में ही प्रभा शंकर उपाध्याय जी ने समकालीन सामाजिक और राजनीतिक संदर्भों पर चोट की है। “सरकार इतने कदम उठाती है मगर, रखती कहाँ है?” और “गुमशुदा सरकार” जैसे लेखों में व्यंग्यकार ने प्रशासनिक और राजनीतिक ढांचे की विसंगतियों को तीखे कटाक्ष के साथ उठाया है। वहीं “कोई लौटा दे मेरे बालों वाले दिन” और “पके पपीते की तरह आदमी का टूटना” जैसे शीर्षक मानवीय भावनाओं और जीवन की नश्वरता को हास्य और व्यंग्य के मेल से प्रस्तुत करते हैं।
भाषा और शिल्प
व्यंग्य-लेखन में भाषा की धार सबसे महत्वपूर्ण होती है, और यहां व्यंग्यकार ने सहज, प्रवाहमयी और चुटीली भाषा का प्रयोग किया है। “भेड़ की लात”, “घुटनों तक, …. और गिड़गिड़ा”, “जुबां और जूता दोनों ही सितमगर” जैसे शीर्षक ही भाषा में रोचकता और पैनेपन की झलक देते हैं।
हास्य और विडंबना का संतुलन
एक अच्छा व्यंग्यकार केवल कटाक्ष नहीं करता, बल्कि हास्य और विडंबना पर कटाक्ष का संतुलित उपयोग करके पाठक को सोचने पर मजबूर कर देता है। “फूल हँसी भीग गई, धार-धार पानी में”, “तीन दिवस का रामराज”, “लिट्रेचर फेस्ट में एक दिन” जैसे लेख संकेत करते हैं कि किताब में व्यंग्य के माध्यम से समाज के गंभीर पहलुओं को हास्य के साथ जोड़ा गया है।
समकालीनता और प्रासंगिक लेखन
लेखों के शीर्षकों से स्पष्ट है कि इसमें समकालीन राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक मुद्दों पर तीखी टिप्पणियाँ हैं। “डेंगू सुंदरीः एडीस एजिप्टी”, “भ्रष्टाचार को देखकर होता क्यों हैरान?” और “अंगद के पांव” आदि व्यंग्य लेख आज के दौर की ज्वलंत समस्याओं को हास्य-व्यंग्य के जरिये प्रस्तुत करते है।
व्यंग्य के मूल्यों की पड़ताल
पुस्तक केवल समाज और राजनीति पर ही कटाक्ष नहीं करती, बल्कि साहित्यिक हलकों की भी पड़ताल करती है। “साहित्य का आधुनिक गुरु”, “ताबड़तोड़ साहित्यकार”, “साहित्य-त्रिदेवों का स्तुति वंदन” जैसे शीर्षक यह दर्शाते हैं कि इसमें साहित्यिक दुनिया के भीतर की राजनीति और दिखावे पर भी व्यंग्य किया गया है।
यह किताब व्यंग्य-साहित्य के मानकों पर खरी उतरती है। इसमें हास्य, विडंबना, कटाक्ष और सामाजिक जागरूकता का अद्भुत मिश्रण दिखाई देता है। भाषा प्रवाहमयी और चुटीली है, लेखों में पंच वाक्य भरपूर हैं। विषयवस्तु समकालीन मुद्दों से गहराई से जुड़ी हुई है। अगर लेखों का शिल्प और कथ्य शीर्षकों की रोचकता के अनुरूप है। मैने यह पुस्तक व्यंग्य की एक प्रभावशाली कृति के रूप में पाई है।
☆ सुमित्र जी द्वारा रचित देवी गीत – “अम्बे कहूँ, जगदम्बे कहूँ” ☆ चर्चा – श्री यशोवर्धन पाठक ☆
स्मृतिशेष डा. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’
सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रद्धेय डा. राजकुमार तिवारी जी सुमित्र ने साहित्यिक, सामाजिक और आध्यात्मिक विषयों पर काफी पठनीय और प्रभावी सृजन किया है जो कि सराहनीय भी है और स्मरणीय भी। इसी दिशा में सुमित्र जी ने धार्मिक आध्यात्मिक क्षेत्र के अन्तर्गत अनेक पुस्तकों और पुस्तिकाओं की रचना की जिसमें देवी देवताओं की आराधना में ऐसे श्रेष्ठ गीतों का भी सृजन किया है जिसका कि मधुर और मनमोहक ढंग से गायन किया जा सकता है।
देवी आराधना में सुमित्र जी की ऐसी ही एक लघु कृति है अम्बे कहूँ, जगदम्बे कहूँ, जो कि देवी भक्तों के मध्य काफी चर्चित हुई और इस कृति में शामिल गीतों को धार्मिक क्षेत्र में न केवल लोगों ने पसंद किया है बल्कि धार्मिक आयोजनों में मधुरता के साथ गाया भी गया।
सुमित्र जी के इस देवी गीत संग्रह में 29 देवी भक्ति गीत शामिल हैं जिनमें अम्बे कहूँ, जगदम्बे कहूँ, घंटा बोले, ओ मैहर वाली माँ, ओ माँ, दर्शन से सब कुछ मिलता है, भरे नयन में नीर, माता है सबकी हितकारी, माँ तू थोड़ा प्यार दे, जग वंदित तेरे चरण, मातृ वंदना, विश्व देवि नमामि, सर्व समर्थ माँ जैसे मीठे गीतों से संग्रह बहुत अच्छा बन पड़ा है।
पाथेय प्रकाशन से प्रकाशित इस लघु पुस्तिका के संयोजक श्री राजेश पाठक प्रवीण कहते हैं कि श्री सुमित्र जी का भक्ति भाव प्रेरक और प्रणम्य है।
आज सुमित्र जी हमारे बीच नहीं है लेकिन उनके द्वारा रचित यह देवी गीत संग्रह हम सबको भक्ति भाव के लिए सदा प्रेरित करता रहेगा।
चर्चाकार… श्री यशोवर्धन पाठक
मो – ९४०७०५९७५२
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈
(हमप्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के आभारी हैं जो साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं।
आज प्रस्तुत है आपके द्वारा डॉ. हंसा दीप जी द्वारा लिखित कहानी संग्रह “मेरी पसंदीदा कहानियाँ” पर चर्चा।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 174 ☆
☆ “मेरी पसंदीदा कहानियाँ” – कहानीकार – डॉ. हंसा दीप☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
पुस्तक चर्चा
कहानीकार – डॉ. हंसा दीप, टोरंटो
कहानी संग्रह – मेरी पसंदीदा कहानियाँ
किताब गंज प्रकाशन,
मूल्य 350रु
कथा साहित्य के मानकों पर खरी कहानियां
चर्चा … विवेक रंजन श्रीवास्तव,
डॉ. हंसा दीप हिंदी साहित्य की एक विशिष्ट कहानीकार हैं, जिनकी रचनाएँ प्रवासी जीवन की संवेदनाओं, मानवीय संबंधों की जटिलताओं और सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक चित्रण के लिए जानी जाती हैं। उनका कहानी संग्रह “मेरी पसंदीदा कहानियाँ” (किताबगंज प्रकाशन) उनकी लेखन शैली की परिपक्वता और कथ्य की गहराई का प्रमाण है। हिंदी कथा साहित्य के मानकों—जैसे कथानक की मौलिकता, चरित्र-चित्रण की गहनता, भाषा की समृद्धि और सामाजिक संदर्भों का समावेश—के आधार पर इस संग्रह की कहानियां खरी उतरती हैं।
हिंदी कथा साहित्य में कथानक की मौलिकता लेखक की सृजनात्मकता का आधार होती है। डॉ. हंसा दीप की कहानियाँ साधारण जीवन की घटनाओं को असाधारण संवेदनशीलता के साथ प्रस्तुत करती हैं। “टूक-टूक कलेजा” में एक नायिका अपने पुराने घर को छोड़ने की भावनात्मक यात्रा को जीती है। “सामान का आखिरी कनस्तर ट्रक में जा चुका था। बच्चों को अपने सामान से भरे ट्रक के साथ निकलने की जल्दी थी। वे अपनी गाड़ी में बैठकर, बगैर हाथ हिलाए चले गए थे और मैं वहीं कुछ पलों तक खाली सड़क को ताकती, हाथ हिलाती खड़ी रह गयी थी। ” यह अंश विस्थापन की पीड़ा और पारिवारिक संबंधों में बढ़ती दूरी को सूक्ष्मता से उजागर करता है। यह कथानक प्रेमचंद और जैनेन्द्र की परंपरा को आगे बढ़ाता है, जहाँ रोज़मर्रा की घटनाएँ गहरे मानवीय सत्य को प्रकट करती हैं।
वहीं, “दो और दो बाईस” में एक पैकेज की डिलीवरी के इर्द-गिर्द बुना गया कथानक प्रवासी जीवन की अनिश्चितता और अपेक्षाओं के टकराव को दर्शाता है। “पड़ोस में आयी पुलिस की गाड़ी ने मुझे सावधान कर दिया। उनके जाते ही बरबस वे पल जेहन में तैर गए जब मेरा पुलिस से सामना हुआ था। ” यहाँ सस्पेंस और मनोवैज्ञानिक तनाव का संयोजन कहानी को रोचक बनाता है।
उनकी कहानियाँ व्यक्तिगत अनुभवों को सार्वभौमिक संदर्भों से जोड़ने में सक्षम हैं।
कहानी में पात्रों का जीवंत चित्रण कथा की आत्मा होता है। डॉ. हंसा दीप के पात्र बहुआयामी और संवेदनशील हैं। “टूक-टूक कलेजा” की नायिका अपने घर के प्रति गहरे लगाव और उससे बिछड़ने की पीड़ा को इस तरह व्यक्त करती है कि वह पाठक के मन में एक सशक्त छवि बनाती है। “मैंने उस आशियाने पर बहुत प्यार लुटाया था और बदले में उसने भी मुझे बहुत कुछ दिया था। वहाँ रहते हुए मैंने नाम, पैसा और शोहरत सब कुछ कमाया। ” यहाँ उसका आत्मनिर्भर और भावुक व्यक्तित्व उभरकर सामने आता है। यह चरित्र-चित्रण हिंदी साहित्य में नारी के पारंपरिक चित्रण से आगे बढ़कर उसे एक स्वतंत्र और जटिल व्यक्तित्व के रूप में स्थापित करता है।
“दो और दो बाईस” में नायिका की बेसब्री और आत्म-चिंतन—”अवांछित तनाव को मैं आमंत्रण देती हूँ”—उसके मनोवैज्ञानिक गहराई को दर्शाते हैं। उनकी कहानी “छोड़ आए वो गलियाँ” में भी एक प्रवासी स्त्री का अपने मूल से कटने का दर्द इसी संवेदनशीलता के साथ चित्रित हुआ है। उनकी इस अभिव्यक्ति क्षमता की प्रशंसा की ही जानी चाहिए। वे अपने पात्रों को सामान्य जीवन की असामान्य परिस्थितियों में रखकर उनकी आंतरिक शक्ति को उजागर करती हैं।
भाषा का लालित्य और शिल्प की कुशलता लेखक की पहचान होती है। डॉ. हंसा दीप की भाषा सहज, भावप्रवण और काव्यात्मक है। “टूक-टूक कलेजा” में “उसी खामोशी ने मुझे झिंझोड़ दिया जिसे अपने पुराने वाले घर को छोड़ते हुए मैंने अपने भीतर कैद की थी” जैसे वाक्य भाषा की गहराई और भावनात्मक तीव्रता को प्रकट करते हैं। इसी तरह, “आँखों की छेदती नजर ने जिस तरह सुशीम को देखा, उन्होंने चुप रहने में ही अपनी भलाई समझी” जैसे वाक्य संवाद और वर्णन के बीच संतुलन बनाते हैं। उनकी शैली में एक प्रवाह है, जो पाठक को कथा के साथ रखता है।
उनकी शैली में लोक साहित्य की छाप भी दिखती है।
हंसा दीप की कहानियाँ प्रवासी जीवन के अनुभवों को हिंदी साहित्य में एक सामाजिक आयाम देती हैं।
वे अपने मूल से कटने की भावना को रेखांकित करती हैं। उनकी कहानी “शून्य के भीतर” भी आत्मनिर्वासन और पहचान के संकट को प्रभावी ढंग से प्रस्तुत करती है। वैश्वीकरण के दौर में भारतीय डायस्पोरा की भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक यात्रा को चित्रित करने में वे सिद्धहस्त हैं। उनकी कहानियाँ न केवल व्यक्तिगत अनुभवों को उकेरती हैं, बल्कि सामाजिक परिवर्तनों पर भी टिप्पणी करती हैं। यह हिंदी साहित्य की उस परंपरा को आगे बढ़ाता है, जिसमें कहानी सामाजिक चेतना का दर्पण बनती हैं। पुरस्कार और मान्यता के संदर्भ में
डॉ. हंसा दीप की लेखन प्रतिभा को कई प्रतिष्ठित पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है, जैसे कमलेश्वर उत्तम कथा पुरस्कार (2018), विश्व हिंदी सचिवालय मॉरीशस की अंतरराष्ट्रीय कहानी प्रतियोगिता (2019), और शत प्रतिशत कहानी संग्रह के लिए शांति-गया सम्मान (2021) । ये पुरस्कार उनकी कहानियों की गुणवत्ता और हिंदी साहित्य में उनके योगदान को प्रमाणित करते हैं।
इस पुस्तक में दोरंगी लेन, हरा पत्ता, पीला पत्ता, टूक-टूक कलेजा, फालतू कोना, शून्य के भीतर, सोविनियर, शत प्रतिशत, इलायची, कुलाँचे भरते मृग, अक्स, छोड आए वो गलियाँ, पूर्णविराम के पहले, फौजी, पापा की मुक्ति, नेपथ्य से, ऊँचाइयाँ, दो और दो बाईस, पुराना चावल, चेहरों पर टँगी तख्तियाँ शीर्षकों से कहानियां संग्रहित हैं।
डॉ. हंसा दीप का कहानी संग्रह “मेरी पसंदीदा कहानियाँ” हिंदी कथा साहित्य के सभी प्रमुख मानकों—कथानक की मौलिकता, चरित्र-चित्रण की गहराई, भाषा की समृद्धि और सामाजिक प्रासंगिकता—पर खरा उतरता है। संग्रह न केवल उनके व्यक्तिगत अनुभवों को सार्वभौमिक बनाता है, बल्कि प्रवासी चेतना को हिंदी साहित्य में स्थापित करने में भी योगदान देता है। डॉ. हंसा दीप की यह कृति हिंदी साहित्य के समकालीन परिदृश्य में एक मूल्यवान जोड़ है और उनकी लेखन यात्रा का एक सशक्त प्रमाण है। कृति पठनीय है।
कहानीकार – डॉ. हंसा दीप
22 Farrell Avenue, North York, Toronto, ON – M2R1C8 – Canada
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है सुश्रीउषा सोमानीजी के बाल उपन्यास – “फूलों वाली घाटी का रहस्य” की समीक्षा।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 206 ☆
☆ बाल उपन्यास – ‘फूलों वाली घाटी का रहस्य‘ – सुश्री उषा सोमानी ☆ समीक्षा – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’’ ☆
बाल उपन्यास- फूलों वाली घाटी का रहस्य
उपन्यासकार- उषा सोमानी
पृष्ठ संख्या- 82
मूल्य- ₹100
प्रकाशक- ज्ञानमुद्रा पब्लिकेशन, B-209, गीत स्काई वैली, मित्तल कॉलेज रोड, नवी बाग, भोपाल, मध्यप्रदेश- 462038
समीक्षक- श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 9424079675
☆ समीक्षा- रहस्य परिपूर्ण है फूल वाली घाटी – ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆
आज के जमाने में उपन्यास लिखना वैसे भी बहुत कठिन कार्य है। क्योंकि आज के समय में कोई उपन्यास पढ़ना नहीं चाहता। उसके पास इतना समय नहीं है कि वह इतने ज्यादा पृष्ठों के उपन्यास को पढ़कर अपना समझ जाया करें। इस कारण उपन्यासकार भी उपन्यास लिखकर अपना समझ जाया नहीं करना चाहते हैं।
बालकहानी की तुलना में उपन्यास लिखना श्रमसाध्य और दूरुह कार्य है। कहानी लिखने में एक घटनाक्रम और उसके आसपास कहानी का तानाबाना बुना जाता है। जबकि उपन्यास लिखने में संपूर्ण घटनाक्रम के साथ कई पूरक घटनाएं भी उसमें डालनी पड़ती है। ताकि उपन्यास को रहस्यपूर्ण और जिज्ञासा से भरपूर बनाया जा सके।
बालक उसी चीज को पढ़ते हैं जिसमें उसे आनंद के साथ-साथ भरपूर मनोरंजन मिले। उसे लगे कि इसमें कुछ बात है जिसे जानना चाहिए। तभी वह जिज्ञासा की वशीभूत उसे चीज को पढ़ पाते हैं। इसलिए बालकों के लिए उपन्यास लिखते समय कई बातों को ध्यान में रखना बहुत जरूरी है। वाक्य छोटे होने के साथ-साथ उसके पैराग्राफ छोटे और रहस्य-रोमांच से भरपूर हो।
इन सब बातों की कसौटी पर समीक्ष्य उपन्यास- फूलों वाली घाटी का रहस्य, को हम इस कसौटी पर कस कर देखते हैं। प्रथम दृष्टि जब हम उपन्यास के कवर को देखते हैं वह प्रथम दृष्टि हमें आकर्षित करता है। कारण, उस पर आकर्षक और रहस्यपूर्ण चित्र बना हुआ है जो बच्चों बच्चों के साथ बड़ों को लूभता है। कवर के पिछले पृष्ठ भाग पर ‘गोटी चलाओ और रहस्य ढूंढो’, नामक एक खेल बना हुआ है। जिसे बच्चे स्वयं खेल सकते हैं।
संपूर्ण उपन्यास को 14 भागों में विभाजित किया गया है। हरेक भाग का अपना एक अलग शीर्षक दिया गया है। जो उपन्यास पढ़ने की जिज्ञासा को और बढ़ा देता है। इसी के साथ उपन्यास का हरेक भाग बहुत छोटा दिया गया है। जिससे बाल पाठकों के बोर होने की संभावना नगण्य है।
उपन्यास की कथानक पर दृष्टि डाले तो कथानक बस इतना ही की उत्कृर्ष अपनी छुट्टियां मनाने के लिए अपने दादाजी के घर आता है। यहां वह गत छुट्टी की तरह ही मौजमस्ती करना और पहाड़ों पर घूमना चाहता है। मगर गांव में आते ही उसे कमरे में कैद हो जाना पड़ता है। जब वह घर से बाहर निकालने की कोशिश करता है तो उसके दादाजी, चाचाजी और अन्य सदस्य उसे बाहर जाने पर रोक लगा देते हैं। वह समझ नहीं पता कि ऐसा क्यों हो रहा है। तभी धीरे-धीरे रहस्य दर रहस्य उसके सामने यह परत खुलती जाती है कि उसे घर से बाहर क्यों नहीं निकलने दिया जा रहा है? उसका कारण क्या है?
तब वह अपना जासूसी दिमाग लगता है। ताकि इस रहस्य को सुलझा सके। धीरे-धीरे एक-एक करके रहस्य की परते खुलती जाती है। उसे पता चल जाता है कि इन सब के पीछे किसका हाथ था? वह रहस्य क्यों बना हुआ था? बाल सुलभ जिज्ञासा के वशीभूत इस रहस्य को उत्कर्ष कैसे सुलझाता है? यह तो उपन्यास पढ़ने के बाद ही पता चलेगा।
मगर कुल मिलाकर कथानक की दृष्टि से उपन्यास बेहतर बन पड़ा है। उपन्यास के हर पृष्ठ में रहस्य को बरकरार रखा गया है। जिज्ञासा पृष्ठ दर पृष्ठ बढ़ती चली जाती है। उपन्यास की भाषा सरल, सहज और रोचक है। संवाद शैली द्वारा उपन्यास को रोचकता प्रदान की गई है। जहां कहीं भी आवश्यकता हुई वर्णनात्मक शैली का उपयोग किया गया है। वर्तमान देशकाल व परिस्थितियों का भरपूर उपयोग किया गया है। साथ ही उपन्यास का उद्देश्य स्पष्ट है। जो इसे पढ़ने के बाद परिलक्षित होता है।
उपन्यास की रचनाकार उषा सोमानी एक जानीमानी बाल कहानीकार है। उनकी कहानियां रोचक और रहस्य से परिपूर्ण होने के साथ मनोरंजक भी होती है। इसी का उपयोग उन्होंने अपने इस नवीनतम उपन्यास को लिखने में किया है। इसका प्रकाशन व मुद्रण ज्ञानमुद्रा पब्लिकेशन भोपाल द्वारा किया गया है जो साफ सुथरा और त्रूटिहीन है। रोचकता और पठनीयता की दृष्टि से उपन्यास बहुत ही बढ़िया बन पड़ा है। इस कारण यह बच्चे और बड़ों दोनों को बहुत ही अच्छा लगेगा। ऐसा इस समीक्षक को विश्वास है। पृष्ठ संख्या के हिसाब से मूल्य ₹100 वाजिब है।
(हमप्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के आभारी हैं जो साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं।
आज प्रस्तुत है आपके द्वारा श्री प्रियदर्शी खैरा जी द्वारा लिखित “ढ़ाढ़ी से बड़ी मूंछ” पर चर्चा।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 173 ☆
☆ “ढ़ाढ़ी से बड़ी मूंछ” – व्यंग्यकार… श्री प्रियदर्शी खैरा☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
पुस्तक चर्चा
व्यंग्य संग्रह …ढ़ाढ़ी से बड़ी मूंछ
व्यंग्यकार … श्री प्रियदर्शी खैरा
प्रकाशक भारतीय साहित्य संग्रह कानपुर
मूल्य ४०० रु, पृष्ठ १९२
“दाढ़ी से बड़ी मूँछ “ किताब का शीर्षक ही सहज ध्यानाकर्षक है। हरिशंकर परसाई जी ने शीर्षक के बारे में कई महत्वपूर्ण व्यंग्यात्मक बातें लिखी हैं। परसाई लिखते है कि “विषय पर निबंध का शीर्षक महत्वपूर्ण है क्योंकि यह पाठकों को सामग्री के बारे में पहले से ही सूचित करता है और उनमें उत्सुकता पैदा करता है। ” “शीर्षक निबंध, जिसके आधार पर पूरी पुस्तक का नामकरण किया गया है, आज के इस ज्वलन्त सत्य को उद्घाटित करता है कि सभी लोग किसी-न-किसी तरह शॉर्टकट के चक्कर में हैं”। प्रियदर्शी खैरा जी की कृति पर चर्चा करते हुये, परसाई जी को उधृत करने का आशय मात्र इतना है कि बढ़िया गेटअप, हास्य प्रमुदित करता, शीर्षक को परिभाषित करता आवरण चित्र और संग्रहित निबंधो को शार्टकट स्वरूप में ध्वनित करता शीर्षक “दाढ़ी से बड़ी मूँछ ” पाठक को यह समझाने के लिये पर्याप्त है कि भीतर के पृष्ठों पर उसे हास्य सम्मिश्रित व्यंग्य पढ़ने मिलेगा।
अनुक्रमणिका में “गज़ब की सकारात्मकता”, भक्त से भगवान, ट्रेन टिकट और चुनाव टिकट, चन्द्रमा का पृथ्वी भ्रमण, नेता, अफसर और देश, एक एंकर की उदय कथा, चमत्कार को नमस्कार है, अथ आत्मकथा माहात्म्य, टोटका-माहात्म्य, अथ चरण पादुका माहात्म्य, सचिवालय-महिमा पुराण, खादी और सपने, सब जल्दी में हैं, छेदी काका बनाम सुक्खन भैया, आयकर, सेवाकर और प्रोफेसर, त्रिया भाग्यम्, पुरुषस्य चरित्रम्, योग, संयोग और दुर्योग, पी पी पी मोड में श्मशान घाट, जैसे शीर्षक पढ़ने के बाद कोई भी पाठक जो व्यंग्य में दिलचस्पी रखता है किताब में रुचि लेने से स्वयं को रोक नहीं पायेगा। इन शीर्षको से यह भी स्पष्ट होता है कि खैरा जी ने हिन्दी वांग्मय तथा साहित्य खूब पढ़ा है, और भीतर तक उससे प्रभावित हैं, तभी अनेक रचनाओ के शीर्षको में अथ कथा, महात्म्य, जैसे प्रयोग उन्होने किये हैं। ये रचनायें पढ़ने पर समझ आता है कि उन्होने विषय का पूरा निर्वाह सफलता से किया है।
पन्ने अलटते पलटते मेरी नजर “हींग लगे न फिटकरी, रंग भी चोखा होय”, एवरेस्ट पर ट्रैफिक जाम, गजब की सकारात्मकता पर ठहर गई। खैरा जी लिखते हैं …” हिंदुस्तानी गजब के सकारात्मक हैं। हम चर्चा क्रांति में विश्वास रखते हैं, फिर जो होता है उसे ईश्वर की इच्छा मानकर यथारूप में स्वीकार कर लेते हैं। अब यदि पुत्री ने जन्म लिया तो लक्ष्मी आ गई, और पुत्र हुआ तो कन्हैया आ गए। यदि संतान पढ़ लिखकर बाहर चली गई तो खानदान का नाम रोशन कर दिया, यदि घर पर रह गई तो अच्छा हुआ, नहीं तो घर कौन संभालता। ” आगे वे लिखते हैं .. हमारे गाँव में एक चिर कुंवारे थे, जहाँ खाना मिल जाता, वहीं खा लेते, नहीं मिलता तो व्रत रख लेते। पूछने वालों को व्रत के लाभ भी गिना देते, जैसे कि अच्छे स्वास्थ्य के लिए उपवास जरूरी है। हमारे मनीषियों ने सप्ताह के सात दिन के नाम किसी न किसी देवी देवता के नाम पर ऐसे ही नहीं रखे हैं, उसके पीछे दर्शन है, व्रत के साथ-साथ उनकी आराधना भी हो जाती है, इस लोक का समय कट जाता है और परलोक भी सुधर जाता है। अगर इसी बीच उन्हें भोजन मिल जाता तो ऊपर वाले की कृपा और आशीर्वाद मानकर ग्रहण भी कर लेते थे। मतलब हर बात में सकारात्मक।
इसी तरह, कोरोना काल में लिखे गये किताब के शीर्षक व्यंग्य “दाढ़ी से बड़ी मूँछ ” से अंश देखिये … मैंने कुर्सी पर बैठते हुए मुस्कुराते हुए पूछा, “क्यों भई, बरसात तो है नहीं, पर तुम छत के नीचे बरसाती पहने क्यों बैठे हो? क्या छत में लीकेज है?””सर, आप नहीं समझोगे, कोरोना अभी गया नहीं, ये सब कोरोना से आप की सुरक्षा के लिए है। कोविड काल में सब शरीर की मरम्मत में लगे हैं, छत की मरम्मत अगले साल कराएँगे, धंधा मंदा है। ” उसने उत्तर देते हुए हजामत करना प्रारंभ कर दिया। तभी मेरी दृष्टि सामने टंगी दर सूची पर गई तो होश उड़ गए, मैंने पूछा, “भाई साहब, पहले हजामत के सौ रुपए लगते थे और अब तीन सौ !”सर, आप की सुरक्षा के लिए, हजामत के तो सौ रुपए ही हैं, दो सौ रुपए पीपीई किट के हैं। अस्पताल वाले हजार जोड़ते हैं, आप कुछ नहीं कहते, हमारे दो सौ भी आपको ज्यादा लगते हैं। ” उसने उत्तर दिया। मैं क्या करता अब उठ भी नहीं सकता था, आधी हजामत हो चुकी थी। हजामत करते करते उसने पूछा, “सर, आपके पिताजी हैं?” मैंने उत्तर दिया, “नहीं’। ” “फिर तो आप मुंडन करा लेते तो अच्छा रहता, छः माह के लिए फ्री, आपके भी पैसे बचते, और हम भी आपके उलझे हुए बालों में नहीं उलझते। ” वह मुस्कुराते हुए बोला।
इतना पढ़कर पाठक समझ रहे होंगे कि व्यंग्य में हास्य के संपुट मिलाना, रोजमर्रा की लोकभाषा में लेखन, सहज सरल वाक्य विन्यास होते हुये भी चमत्कृत करने वाली लेखन शैली, व्यंग्य लेखन के विषय का चयन तथा उसका अंत तक न्यायिक निर्वाह प्रियदर्शी खैरा जी की विशेषता है। वे स्तंभ लेखन कर चुके हैं। कविता, गजल, व्यंग्य विधाओ में सतत लिखते हैं, कई साहित्यिक संस्थाओ से संबद्ध हैं। अर्थात उनका अनुभव संसार व्यापक है। श्मशान को पी पी पी मोड पर चला कर उसका विकास करने जैसे व्यंग्यात्मक विचारों पर कलम चलाने का माद्दा उनमें है।
शब्द अमूल्य होते हैं यह सही है, किन्तु “ढ़ाढ़ी से बड़ी मूंछ” में मुझे पुस्तक के अपेक्षाकृत अधिक मूल्य के अतिरिक्त सब कुछ बहुत बढ़िया लगा। मैंने किताब को ई स्वरूप में पढ़ा है। मुझे भरोसा है कि इसे प्रिंट रूप में काउच में लेटे हुये चाय की चुस्की के साथ पढ़ने में ज्यादा मजा आयेगा। किताब अमेजन, फ्लिपकार्ट आदि पर सुलभ है तो देर किस बात की है, यदि इस पुस्तक चर्चा से आपकी उत्सुकता जागी है तो किताब बुलाईये और पढ़िये। आपकी व्यय की गई राशि से ज्यादा आनंद मिलेगा यह सुनिश्चित है।
☆ “गंध ओला मोगऱ्याचा” (गझलसंग्रह) – कवी : श्री. विनायक कुलकर्णी ☆ परिचय – श्री सुहास रघुनाथ पंडित ☆
पुस्तक : गंध ओला मोगऱ्याचा (गझलसंग्रह)
कवी : श्री. विनायक कुलकर्णी मो. 8600081092
प्रकाशक: न्यू अथर्व पब्लिकेशन, इचलकरंजी
मूल्य : रु. १४०/-
सांगली येथील गझलकार कवी श्री. विनायक कुलकर्णी यांचा ‘ गंध ओला मोग-याचा ‘ हा गझल संग्रह मोग-याच्या फुलाप्रमाणेच सर्वांगाने बहरून आला आहे. या संग्रहात एकूण अठ्ठावन गझला असून त्यात निसर्ग, प्रेम, नैराश्य, विरह अशा सर्व भावनांवरील गझला आहेत. पण गझल फक्त एवढ्या विषयांपुरतीच मर्यादित नसून तिने सामाजिक, राजकीय वास्तव देखील दुर्लक्षिलेले नाही हे दाखवून देणा-या गझला या संग्रहात वाचायला मिळतात. त्यामुळे गझल म्हणजे फक्त प्रेम आणि विरह नव्हे तर सामाजिक भान व्यक्त करण्याचेही माध्यम आहे हे श्री कुलकर्णी यांच्या संग्रहातून स्पष्ट होते. त्यामुळे सर्वच गझलांचा किंवा गझल काव्य प्रकाराविषयी लिहिण्यापेक्षा श्री. कुलकर्णी यांच्या सामाजिक, राजकीय परिस्थितीवर भाष्य करणारे काही शेर या ठिकाणी समजून घ्यावेसे वाटतात.
स्वार्थ कसा साधावा हे शिकवावे लागत नाही. पण स्वार्थ साधत असताना तो किती टोकाचा असावा याचा विचार मात्र व्हायलाच हवा. पण आजची परिस्थिती काय आहे ? कालची भूमिका आज नाही, कालचे विचार आज नाहीत, कालचा मित्र आज मित्र नसेल अशीच अवस्था समाजात सर्वत्र दिसते आहे. त्याचे नेमके रुप कविने या शेरातून केले आहे.
” पहात असतो अवतीभवती माणुसकीचे रंग नवे
स्वार्थासाठी कसे बदलती रोजरोजचे ढंग नवे “
काळाबरोबर बदलले पाहिजे. पण हा बदल स्विकारताना आपण सभ्य समाजात राहतो हे ही विसरता कामा नये. आधुनिकतेचा स्विकार करताना योग्य अयोग्य काय याचाही विचार व्हायला हवा. या शेरामध्ये कवीने पोषाखातील होत जाणा-या बदलाबद्दल सुनावले आहे. भोक पाडलेले कपडे ही फॅशन होऊ शकते का ? तंग कपडे आरोग्यासाठी तरी योग्य आहेत का ? आजच्या फॅशन व अंधानुकरणाच्या जमान्यात हे फारसे कुणाला पटणार नाही. पण स्वतःच्या मनाला जे पटत नाही ते बोलून दाखवणे हा कविचा बाणा आहे.
“झाकत होते देह आपले पुरुष असो वा ती नारी
पोषाखाची झाली चाळण आता कपडे तंग नवे “
स्वार्थ आणि फक्त व्यवहारवाद यामुळे आपली अशी समजूत झाली आहे की पैसा फेकला की काहीही विकत घेता येते. अगदी माणूससुद्धा! त्यामुळे कविला असा प्रश्न पडतो की स्वतःच्या मूल्यांशी प्रामाणिक राहून इमान राखणारा माणूस असेल तरी का ? म्हणजे बजबजपुरी एवढी माजली आहे की माणसाचा चांगुलपणावरचा विश्वासच उडायला लागला आहे. माणूस प्रामाणिक, तत्त्वनिष्ठ असू शकतो यावरचा विश्वास कमी होत चालला आहे.
“प्रसंग येतो पुढे आपल्या तसाच आपण विचार करतो
असतिल का हो अशी माणसे इमान ज्यांचे मळले नाही “
बदलत्या पिढीबरोबर विचारही बदलतात. विचारातील हा बदल माणसाच्या प्रगतीला पोषक असेल तर अवश्य स्वीकारावा. पण आज जुन्याकडे पाठ फिरवून फक्त ‘ नवे ते सोने ‘ ही वृत्ती वाढीस लागली आहे. त्यामुळे संस्कार करणे, करुन घेणे, झालेले संस्कार टिकवणे हे कालबाह्य वाटू लागले आहे. याचा परिणाम म्हणूनच नीतीमत्तेचा -हास होत चालला आहे. सुसंस्कृत नसलेल्याला माणूस तरी कसे म्हणावे. राक्षसाच्या मनातील वासना आणि वृत्ती आता माणसात दिसू लागली आहे.
” संस्कार आणि नीती गेली निघून आता
ओळीत राक्षसांच्या बसतात लोक सारे “
बदलत्या सामाजिक आणि राजकीय वस्तुस्थितीवर कवीचे बारीक लक्ष आहे. निवडणुकीच्या आधीची आणि नंतरची गटबाजी आता संसर्गजन्य झाली आहे असे त्याला वाटते. कारण ती एका गटापुरती मर्यादित राहिलेली नाही. घोडेबाजार हा नित्याचाच होऊन बसला आहे. सत्ता आणि संपत्तीच्या मोहापायी तत्वशून्य तडजोडींनी कमाल केली आहे.
” गटबाजीच्या संसर्गाने कमाल भलती केली
काही इकडे आले घोडे काही तिकडे गेले “
क्रियेवीण वाचाळता हा आजच्या काळचा मंत्रच होऊन बसला आहे. समाजासाठी काय करावे, देशासाठी काय करावे हे सांगणे फार सोपे असते. समाजाचे कल्याण करण्याच्या गप्पा या निवडणूक होण्यापुरत्याच असतात. कारण गोड बोलून, आश्वासनांचा पाऊस पाडून निवडून येणे एवढेच त्यांचे ध्येय असते. त्यामुळे
” कोणी देतो भाषण फुसके कल्याणाचे
त्याचा तुमच्या मतदानावर डल्ला आहे “
असे कविचे निरीक्षण आहे.
समाजाच्या हितासाठी केलेली चळवळ ही किती वरवरची व दिखाऊ असते याचा समाचारही कविने घेतला आहे. त्यासाठी कवी पाणीप्रश्नाकडे लक्ष वेधत आहे. पाण्याचे नियोजन न करता होणारा पाण्याचा वापर हा पाणीप्रश्न गंभीर होण्याचे मुख्य कारण आहे. पण त्याकडे लक्ष न देता पाण्याची उधळपट्टी चालुच आहे आणि दुसरीकडे पाणी वाचवा म्हणून चळवळही चालू आहे. हा विरोधाभास कविने दाखवून दिला आहे.
“खर्चुन गेले जल सारे या जमिनी मधले
भाषणबाजी मधून नकली चळवळ आहे “
परंतु या प्रश्नांकडे, समस्यांकडे, समाजातील दोषांकडे एक कवी म्हणून कविला दुर्लक्ष करता येत नाही. कारण समाजात सुधारणा होऊन त्याची प्रगती होण्यासाठी कुणालातरी लढावे लागेल हे त्याला माहित आहे. म्हणून कवी म्हणतो
” नाते माझे अखंड आहे संघर्षाशी
धारिष्टाचे शस्त्र लढाया मीच बनवतो “
या सर्व गुणदोषांसकट कवी समाजावर प्रेम करतो. म्हणून तो म्हणतो
” झाली सकाळ आहे गाऊ नवीन गाणे
ती रात्र क्लेशदायी पुरती सरुन गेली. “
कविच्या इच्छेप्रमाणे लवकरच क्लेशदायी रात्र संपावी आणि नव्या युगाची गाणी गाण्यासाठी भाग्याची सकाळ उजाडावी एवढीच सदिच्छा !
पुस्तक परिचय – श्री सुहास रघुनाथ पंडित
सांगली (महाराष्ट्र)
मो – 9421225491
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈
(हमप्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के आभारी हैं जो साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं।
आज प्रस्तुत है आपके द्वारा श्री अशोक व्यास जी द्वारा लिखित “राजघाट से राजपाट तक” पर चर्चा।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 172 ☆
☆ “राजघाट से राजपाट तक” – व्यंग्यकार… श्री अशोक व्यास☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
पुस्तक चर्चा
कृति … राजघाट से राजपाट तक
व्यंग्यकार … अशोक व्यास
भावना प्रकाशन, दिल्ली
पृष्ठ १४४
मूल्य २५० रु पेपरबैक
राजपाट प्राप्त करना प्रत्येक छोटे बड़े नेता का अंतिम लक्ष्य होता है। इसके लिये महात्मा गांधी की समाधी राजघाट एक मजबूत सीढ़ी होती है। गांधी के आदर्शो की बातें करता नेता, दीवार पर गांधी की तस्वीर लगाकर सही या गलत तरीकों से येन केन प्रकारेण सत्ता प्राप्त करने में जुटा हुआ है। यह लोकतंत्र का यथार्थ है। गांधी की खादी के पर्दे हटाकर जनता इस यथार्थ को अच्छी तरह देख और समझ रही है। किन्तु वह बेबस है, वह वोट दे कर नेता चुन तो सकती है किन्तु फिर चुने हुये नेता पर उसका कोई नियंत्रण नहीं रह जाता। तब नेता जी को आइना दिखाने की जिम्मेदारी व्यंग्य पर आ पड़ती है। भावना प्रकाशन, दिल्ली से सद्यः प्रकाशित व्यंग्य संग्रह राजघाट से राजपाट तक पढ़कर भरोसा जागता है कि अशोक व्यास जैसे व्यंग्यकार यह जिम्मेदारी बखूबी संभाल रहे हैं।
विचारों का टैंकर अशोक व्यास जी का पहला व्यंग्य संग्रह था, जिसे साहित्य जगत ने हाथों हाथ लिया और उस कृति को अनेक संस्थाओ ने पुरस्कृत कर अशोक जी के लेखन को सम्मान दिया है। फिर “टिकाऊ चमचों की वापसी” प्रकाशित हुआ वह भी पाठको ने उसी गर्मजोशी से स्वीकार किया। उनके लेखन की खासियत है कि समाज की अव्यवस्थाओं, विसंगतियों, विकृतियों, बनावटी लोकाचार, कथनी करनी के अंतर, अनैतिक दुराचरण उनके पैने आब्जरवेशन से छिप नहीं सके हैं। वे निरंतर उन पर कटाक्ष पूर्ण लिख रहे हैं। अशोक व्यास किसी न किसी ऐसे विषय पर अपनी कलम से प्रहार करते दिखते हैं। “आत्म निवेदन के बहाने” शीर्षक से पुस्तक के प्रारंभिक पृष्ठों में उन्होने आत्मा से साक्षात्कार के जरिये बहुत रोचक शब्दों में अपनी प्रस्तावना रखी है।
राजघाट से राजपाट तक विभिन्न सामयिक विषयों पर चुनिंदा इकतालीस व्यंग्य लेखों का संग्रह है। शीर्षकों को रोचक बनाने के लिये कई रूपकों, लोकप्रिय मिथकों का अवलंबन लिया गया है, उदाहरण के लिये “मेरे दो अनमोल रतन आयेंगे”, “सुबह और शाम चाय का नाम”, ” तारीफ पे तारीफ “, ” मैं और मेरा मोबाइल अक्सर ये बातें करते है ” आदि लेखों का जिक्र किया जा सकता है।
शीर्षक व्यंग्य राजघाट से राजपाट में वे लिखते हैं ” राजघाट ही वह स्थान है जो गंगाघाट के बाद सर्वाधिक उपयोग में आता है। जैसे गंगा घाट पर स्नान करके ऐसा लगता है कि इस शरीर ने जो भी उलटे सीधे धतकरम किये हैं वह सब साफ होकर डाइक्लीन किये हुए सूट की तरह पार्टी में पहनने लायक हो जाता है उसी प्रकार राजघाट तो गंगाघाट से भी पवित्र स्थान बनता जा रहा है। इस घाट पर आकर स्वयं साफ़ झक्कास तो हो जाते हैं, लगे हाथ क्षमा माँगने का भी चलन है। इस घाट पर देशी तो देशी-विदेशी संतों की भीड़ भी लगती रहती है। ” इस अंश को उधृत करने का आशय मात्र यह है कि अशोक व्यास की सहज प्रवाहमान भाषा, सरल शब्दावली और वाक्य विन्यास से पाठक रूबरू हो सकें। हिन्दी दिवस पर हि्दी की बातें में वे लिखते हैं “तुम हिन्दी वालों की एक ही खराबी है, दिमाग से ज्यादा दिल से सोचते हो ” भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन के वर्षो बाद भी देश में भाषाई विवाद सुलगता रहता है। राजनेता अपनी रोटी सेंकते रहते हैं। यह विडम्बना ही है। धारदार कटाक्ष, मुहावरों लोकोक्तियों का समुचित प्रयोग, कम शब्दों में बड़ी बात समेटने की कला अशोक व्यास का अभिव्यक्ति कौशल है। वे तत्सम शब्दों के मकड़जाल में उलझाये बगैर अपने पाठक से उसके बोलचाल के लहजे में अंग्रेजी की हिन्दी में आत्मसात शब्दावली का उपयोग करते हुये सीधा संवाद करते हैं। रचनाओ का लक्षित प्रहार करने में वे सफल हुये हैं। यूं तो सभी लेख अशोक जी ने चुनकर ही किताब में संजोये है किन्तु मुझे नंबरों वाला शहर, मिशन इलेक्शन, सरकार की नाक का बाल, हर समस्या का हल आज नहीं कल, चुनावी मौसम, आदि व्यंग्य बहुत प्रभावी लगे। रवीन्द्र नाथ त्यागी ने लिखा है “हमारे संविधान में हमारी सरकार को एक प्रजातान्त्रिाक सरकार’ कह कर पुकारा गया है पर सच्चाई यह है कि चुनाव सम्पन्न होते ही ‘प्रजा’ वाला भाग जो है वह लुप्त हो जाता है और ‘तन्त्र’ वाला जो भाग होता है वही, सबसे ज्यादा शक्तिशाली हो जाता है। ” अशोक व्यास उसी सत्य को स्वीकारते और अपने व्यंग्य कर्म में बढ़ाते व्यंग्य लेखक हैं, जो अपने लेखन से मेरी आपकी तरह ही चाहते हैं कि तंत्र लोक का बने। मैने बहुत कम अंतराल में आए उनके तीनों ही व्यंग्य संकलन आद्योपांत पढ़े ही नहीं उन पर अपने पुस्तक चर्चा स्तंभ में उन पर लिखा भी है अतः मैं कह सकता हूं कि उनके व्यंग्य लेखन का कैनवास उत्तरोत्तर बढ़ा है। आप का कौतुहल उनकी लेखनी के प्रति जागा ही होगा, तो पुस्तक खरीदिये और पढ़िये। पैसा वसूल वैचारिक सामग्री मिलने की गारंटी है।