श्री संजय भारद्वाज
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
संजय दृष्टि – समीक्षा का शुक्रवार # 22
विश्वविभूति महात्मा गांधी — लेखक – डॉ. रमेश गुप्त ‘मिलन’ समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज
पुस्तक का नाम- विश्वविभूति महात्मा गांधी
विधा- जीवनी
लेखक- डॉ. रमेश गुप्त ‘मिलन’
मूर्ति से बाहर के महात्मा गांधी ☆ श्री संजय भारद्वाज
महात्मा गांधी का व्यक्तित्व वैश्विक रहा है। अल्बर्ट आइंस्टाइन का कथन ‘आनेवाली पीढ़ियाँ आश्चर्य करेंगी कि हाड़-माँस का चलता-फिरता ऐसा कोई आदमी इस धरती पर हुआ था’ गांधीजी के व्यक्तित्व के चुंबकीय प्रभाव को दर्शाता है। यही कारण है कि लंबे समय से विश्व के चिंतकों, राजनेताओं तथा आंदोलनकारियों को गांधीजी की बहुमुखी प्रतिभा के विभिन्न आयाम आकर्षित करते रहे हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि महात्मा गांधी के प्रति चिर आकर्षण और भारतीय मानस में बसी श्रद्धा ने डॉ. रमेश गुप्त ‘मिलन’ को उन पर पुस्तक लिखने को प्रेरित किया।
डॉ. गुप्त द्वारा लिखी गई पुस्तक ‘विश्वविभूति महात्मा गांधी’ राष्ट्रपिता पर लिखी गई एक और पुस्तक मात्र कतई नहीं है। 248 पृष्ठों की यह पुस्तक एक लघु शोध ग्रंथ की तरह पाठकों के सामने आती है। महात्मा गांधी के व्यक्तित्व और कृतित्व विशेषकर उनके जीवन के अंतरंग और अनछुए पहलुओं को लेखक ने पाठकों के सामने रखा है। विषय पर कलम चलाते समय लेखक ने विश्वविभूति के जीवन के विभिन्न पहलुओं की पड़ताल करते हुए ऐतिहासिक तथ्यों को ज्यों का त्यों ईमानदारी से वर्णित किया है। यह साफ़गोई पुस्तक को लीक से अलग करती है।
वस्तुतः लोकतंत्र केवल शासन व्यवस्था भर नहीं अपितु जीवन शैली होता है। इसकी सार्वभौमिकता लेखन पर भी लागू होती है। प्रस्तुत पुस्तक इस सार्वभौमिकता का उत्तम उदाहरण है। सामान्यतः अपनी विचारधारा के आग्रह में अनेक बार लेखक यह भूल जाता है कि शब्दों का एक छोर लेखक के पास है तो दूसरा पाठक के हाथ है। बाँचे जाने के बाद ही स्थूल रूप से शब्द की यात्रा संपन्न होती है। डॉ. गुप्त ने घटनाओं का वर्णन किया है पर विश्लेषण पाठक की नीर-क्षीर विवेक बुद्धि पर छोड़ दिया है। पुस्तक को इस रूप में भी विशिष्ट माना जाएगा कि शैली और प्रवाह इतने सहज हैं कि वर्णित प्रसंग हर वर्ग के पाठक को बाँधे रखते हैं। अधिक महत्वपूर्ण है कि सभी 40 अध्याय एक चिंतन बिंदु देते हैं। यह चिंतन असंदिग्ध रूप से पाठक की चेतना को झकझोरता है।
गांधी के जीवन पर चर्चा करते हुए लेखक ने उन रसायनों की ओर संकेत किया है जिनके चलते गांंधी ने जीवन को प्रयोगशाला माना। ‘श्रीमद्भागवत गीता’ और रस्किन की पुस्तक ‘ अन टू दिस लास्ट’ का उनके जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ा। ‘न मानुषात् श्रेष्ठतरं हि किंचित’अर्थात मनुष्य से श्रेष्ठ कोई नहीं।’ तेरहवीं शती का यूरोपिअन रेनेसाँ मनुष्य की इसी श्रेष्ठता का तत्कालीन संस्करण था। रेनेसाँ का शब्दिक अर्थ है-‘अपना राज या स्वराज’। यहाँ स्वराज का अर्थ शासन व्यवस्था पर नहीं अपितु मनुष्य का अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण है। ‘सर्वे भवंतु सुखिनः’ की सनातन भारतीय अवधारणा कोे रस्किन ने ‘समाज के अंतिम आदमी तक पहुँचना’ निरूपित किया। ‘अंत्योदय’ या ‘ अन टू दिस लास्ट’ का विस्तार कर गांधीजी ने इसका नामकरण ‘सर्वोदय’ किया। उनके सर्वोदय का उद्देश्य था-सर्व का उदय, अधिक से अधिक का नहीं और मात्र आख़िरी व्यक्ति का भी नहीं।
सर्वोदय की अवधारणा को स्वतंत्र भारत के साथ जोड़ते हुए ‘हरिजन’ पत्रिका में उन्होंने लिखा,‘ भारत की ऐसी तस्वीर मेरे मन में है जो प्रगति के रास्ते पर अपनी प्रतिभा के अनुकूल दिशा पकड़कर लगातार आगे बढ़े। भारत की तस्वीर बिलकुल ऐसी नहीं है कि वह पश्चिमी देशों की मरणासन्न सभ्यता के तीसरे दर्ज़े की नकल जान पड़े। अगर मेरा सपना पूरा होता है तो भारत के सात लाख गाँवों में से हर गाँव में एक जीवंत गणतंत्र होगा। एक ऐसा गाँव जहाँ कोई भी अनपढ़ नहीं होगा, जहाँ कोई भी काम के अभाव में खाली हाथ नहीं बैठेगा, जहाँ सबके पास रोज़ की सेहतमंद रोटी, हवादार मकान और तन ढकने के लिए ज़रूरतभर कपड़ा होगा।’
रमेश गुप्त ने गांधी दर्शन के सूक्ष्म तंतुओं को छुआ है। भारतीय समाज को गांधीजी की वास्तविक देन का एक उल्लेख कुछ यों है,‘ गांधीजी धर्मांधता, धन-शक्ति और बाज़ारवाद को समाप्त करना चाहते थे। कहा जाता था कि गांधीजी ने तीन ‘ध’ समाप्त किए- धर्म, धंधा और धन। इनके बदले तीन ‘झ’ दिए- झंडा, झाड़ू और झोली।’
आत्मविश्लेषण और सत्य का स्वीकार गांधीजी के निजी जीवन की विशेषता रही। इस विशेषता ने गांधी को मानव से महामानव बनाया। यों भी कोई महामानव के रूप में कोख में नहीं आता। इसके लिए रत्नाकर से वाल्मीकि होना एक अनिवार्य प्रक्रिया है। गांधीजी ने अपनी आत्मकथा ‘सत्य के प्रयोग’ में अपने जीवन की अधिकांश गलतियाँ स्वीकार की हैं। जॉन एस. होइलैंड से चर्चा करते हुए उन्होंने कहा,‘ पत्नी को अपनी इच्छा के आगे झुकाने की कोशिश में मैंने उनसे अहिंसा का पहला सबक सीखा। एक ओर तो वह मेरे विवेकहीन आदेशों का दृढ़ता से विरोध करतीं, दूसरी ओर मेरे अविचार से जो तकलीफ़ होती उसे चुपचाप सह लेती थीं। इस तरह अहिंसा की शिक्षा देनेवाली वे मेरी पहली गुरु बनीं।’ आरंभिक समय में कस्तूरबा पर शासन करने की इच्छा रखनेवाले गांधी जीवन के उत्तरार्द्ध में उनसे कैसे डरने लगे थे, इसका भी वर्णन लेखक ने एक मनोरंजक प्रसंग में किया है।
जैसाकि संदर्भ आ चुका है, गांधीजी गीता को जीवन के तत्वज्ञान को समझने के लिए सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ मानते थे। गीता के दूसरे अध्याय के अंतिम श्लोकों ‘ध्यायतो विषयान्यंसः संगस्तेषूपजायते/संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते/क्रोधाद् भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः/स्मृतिभ्रंशाद बुद्धिनाशो बुद्धिनाशत्प्रणश्यति’ में उन्होंने अपने जीवन का सबसे बड़ा पाठ पढ़ा। श्लोकों का भावार्थ है कि विषयों का चिंतन करनेवाले पुरुष को उनमें आसक्ति उपजती है, आसक्ति से कामना होती है और कामना से क्रोध उपजता है, क्रोध से मूढ़ता उत्पन्न होती है, मूढ़ता से स्मृति भ्रांत हो जाती है, स्मृति भ्रांत हो जाने से ज्ञान का नाश हो जाता है और जिसका ज्ञान नष्ट हो गया, वह मृतक तुल्य है।
डॉ. गुप्त लिखते हैं कि इस भावार्थ ने मोहनदास के जीवन में क्राँतिकारी परिवर्तन ला दिया। उनकी यात्रा मृत्यु से जीवन की ओर मुड़ गई। परिणाम यह हुआ कि अंग्रेजों की खर्चीली जीवनशैली से प्रभावित व्यक्तित्व मितव्ययी बन गया। वह अपने कपड़े खुद धोने लगा। अपने बाल मशीन से खुद काटने लगा। माँसाहार की ओर आकृष्ट होनेवाले ने शाकाहार क्लब बनाया। वकालत में जिन मुकदमों को लड़ते रहने से मोटी रकम मिल सकती थी, उनमें भी दोनों पक्षों के बीच सुलह करवाई। पत्नी को भोग की वस्तुभर माननेवाले ने दाई बनकर अपनी पत्नी का प्रसव भी खुद कराया। असंयमित जीवन जीनेवाला मोहनदास मन, वचन, काया से इंद्रियों पर संयम कर पूर्ण ब्रह्मचर्य का जीवन जीने लगा। चर्चिल के शब्दों में वह ‘नंगा फकीर’ हो गया।
लेखक ने गांधीजी के जीवन के ‘ग्रे शेडस्’ पर कलम चलाते समय भाषाई संयम, संतुलन और मानुषी सजगता को बनाए रखा है। इतिहास साक्षी है कि गांधीजी जैसा राजनीतिक चक्रवर्ती अपने घर की देहरी पर परास्त हो गया। अन्यान्य कारणों से बच्चों को उच्च शिक्षा ना दिला पाना, बड़े बेटे हरिलाल का पिता से विद्रोह कर धर्म परिवर्तन कर लेना, शराबी होकर दर-दर भटकना और गुमनाम मौत मरना, राष्ट्रपिता की पिता के रूप में असफलता को रेखांकित करता है।
विरोधाभास देखिए कि अपने घर का असफल स्रष्टा सार्वजनिक जीवन में उन ऊँचाइयों पर पहुँचा कि युगस्रष्टा कहलाया। इंग्लैंड में बैरिस्टरी, द. अफ्रीका की यात्रा में हुआ अपमान, भारत में वकालत में मिली असफलता, पुनः अफ्रीका यात्रा, वहाँ सशक्त राजनीतिक आंदोलन खड़ा करने जैसे प्रसंगों की पुस्तक में समुचित चर्चा की गई है। दक्षिण अफ्रीका में आंदोलन को आरंभ में उन्होंने ‘पैसिव रेजिस्टेंस’ (निष्क्रिय प्रतिरोध) कहा। यही रेजिस्टेंस आगे चलकर सक्रिय होता गया और सदाग्रह, शुभाग्रह से होता हुआ सत्याग्रह के महामंत्र के रूप में सामने आया।
सत्याग्रह की इस शक्ति ने उनके शत्रुओं को भी बिना युद्ध के अपनी हार मानने के लिए विवश कर दिया। दक्षिण अफ्रीका में उन्हें जेल में डालने का आदेश देनेवाले जन. स्मट्स को गांधीजी ने अपने हाथों से चप्पलों की एक जोड़ी बनाकर भेंट की। वर्षों बाद गांधीजी के 70 वें जन्मदिन पर मित्रता के प्रतीक रूप में वही जोड़ी उन्हें लौटाते हुए जन. स्मट्स ने लिखा, ‘बहुत-सी गर्मियों में ये चप्पलें मैंने पहनी, हालांकि मैं महसूस करता हूँ कि मैं ऐसे महापुरुषों के जूतों में खड़े होने के योग्य भी नहीं हूँ।’
गांधी दर्शन की सबसे बड़ी शक्ति मनुष्य को इकाई के रूप में पहचानना और हर इकाई को परिष्कृत कर परिपूर्ण बनाने का प्रयास करना है। लोकतंत्र पर अपनी बात रखते हुए उन्होंने कहा, ‘लोकतंत्र वह अवस्था नहीं है जिसमें लोग भीड़ की तरह व्यवहार करें।’ उन्होंने इस बात का ख़ास ध्यान रखा कि गांधी के नेतृत्व में आंदोलन करनेवाला हर व्यक्ति गांधी हो। यही कारण था कि गांधी बनने की पाठशाला साबरमती आश्रम में एकादश व्रत- सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, अस्वाद, अस्तेय, अपरिग्रह, अभय, अस्पृश्यता निवारण, शरीर श्रम, सर्वधर्म समभाव और स्वदेशी अनिवार्य थे।
सत्य को किसीका डर नहीं होता। हज़ारों की भीड़ में भी वह सीना चौड़ा करके चलता है। सत्य के पुजारी की अंतिम यात्रा में बेटे देवदास के आग्रह पर उनका सीना उघड़ा ही रखा गया। सत्य के सिपाही के सीने पर लगी गोलियों के निशान बता रहे थे कि गांधी की हत्या हो गई है किंतु शवयात्रा में सहभागी लाखों गांधी साक्षी दे रहे थे कि गांधी अमर है।
गांधी की अमरता ने ही उन्हें ‘महात्मा’ की पदवी दी और विश्वविभूति बनाया। विश्वविभूति गांधी को मानवेतर मान लेना, मानव के रूप में उनकी मानव सेवा को कम आँकना होगा। इस सत्य को अपनी भूमिका में अधोरेखित करते हुए लेखक ने राष्ट्रपिता की पौत्री सुमित्रा कुलकर्णी के कथन को उद्धृत किया है। बकौल सुमित्रा कुलकर्णी, “जिस क्षण हम गांधी को महज मूर्ति मान लेते हैं, उसी क्षण हम उन्हें पत्थर का बनाकर भूल जाते हैं। जब हम उन्हें सिर्फ मानव मानेंगे तो उन्हें पत्थर की मूर्ति में सिमटकर नहीं रहना पड़ेगा।” प्रस्तुत पुस्तक गांधी को पत्थर की मूर्ति से बाहर लाकर मनुष्य के रूप में देखने-पढ़ने और समझने के लिए प्रेरित करती है।
लेखक को अनंत शुभकामनाएँ।
© संजय भारद्वाज
नाटककार-निर्देशक
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
संजयउवाच@डाटामेल.भारत
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈