हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ बाल उपन्यास ‘गोलू -भोलू और जंगल का रहस्य‘ – डॉ. शशि गोयल ☆ समीक्षा – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं।आज प्रस्तुत है डॉ. शशि गोयल जी  के बाल कहानी संग्रह “गोलू -भोलू और जंगल का रहस्य” की पुस्तक समीक्षा।)

☆ पुस्तक चर्चा ☆ बाल उपन्यास ‘गोलू -भोलू और जंगल का रहस्य‘ – डॉ. शशि गोयल ☆ समीक्षा – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’’  ☆

उपन्यासगोलूभोलू और जंगल का रहस्य 

उपन्यासकार डॉ. शशि गोयल 

प्रकाशक जीएस पब्लिशर्स डिस्ट्रीब्यूटर, एफ7, गली नंबर 1, पंचशील गार्डन एक्सटेंशन, नवीन शाहदरा, दिल्ली110032 मोबाइल नंबर 99717 33123

पृष्ठ संख्या52 

मूल्य₹195

समीक्षकओमप्रकाश क्षत्रिय प्रकाश

☆ समीक्षा- रहस्य से भरपूर उपन्यास है यह ☆

बच्चों के उपन्यास में रहस्य-रोमांच हो तो पढ़ने का मजा दुगुना हो जाता है। उसके साथ रोचक संवाद हो तो उपन्यास की पठनीयता में वृद्धि हो जाती है।

बाल उपन्यास में चंचल बालपात्र हो तो वह बच्चों को बहुत ज्यादा अच्छा लगता है। उसकी चंचलता और चपलता उपन्यास के आनंद का मजा बढ़ा देती है।

इस कला में उपन्यासकार डॉ. शशि गोयल को महारत हासिल है। इनका नवीनतम उपन्यास गोलू-भोलू और जंगल का रहस्य, इस कसौटी पर खरा उतरता है। उपन्यास के शीर्षक के अनुसार उपन्यास में जंगल का रहस्य और रोमांच भरा पड़ा है।

गोलू एक चंचल और चपल बाल पात्र है। वह शहर से गांव अपनी नानी के यहां आता है। यहां वह अपने साथी भोलू के साथ जंगल, नदी, गुफा, पहाड़ आदि की सैर करता है।

सैर-सपाटा के दौरान वह संदिग्ध गतिविधियों को पकड़ लेता है। उसी से दो-चार होता है। परिस्थितियां ऐसी निर्मित होती है कि वह उन सभी का रहस्योद्घाटन करता चला जाता है।

मगर अंत में जाकर वह एक घटना में उलझ जाता है। तब वह और उसके पिताजी एक नई तरकीब अपनाते हैं। इससे गोलू-भोलू के साथ अन्य पात्रों पर आई मुसीबत टल जाती है। इस तरह पूरा उपन्यास रहस्य रोमांच के साथ आगे बढ़ता है।

उपन्यास की भाषा सरल व सीधी है। इसी के साथ ठेठ ग्रामीण भाषा के उपयोग से उपन्यास में रोचकता का समावेश होता है। इसकी यह भाषा उपन्यास की रोचकता में वृद्धि करती है। पाठक पृष्ठ दर पृष्ठ उपन्यास को पढ़ता चला जाता है।

बाल सुलभ जिज्ञासा का असर पूरे उपन्यास में है। इसी जिज्ञासा की वजह से उपन्यास के पात्र निरंतर जोखिम उठाते हुए आगे बढ़ते हैं। फलस्वरुप उसके रहस्य को उजागर करते हुए एक नई मुसीबत का सामना करते हैं।

इस तरह उपन्यास के साथ-साथ मुख्य कथा के साथ उपन्यास उत्तरोत्तर आगे बढ़ता है। अंततः उसकी रोचकता का अंत उपन्यास के अंत के साथ हो जाता है।

उपन्यास का परिवेश ग्रामीण नदी के किनारे फैले हुए जंगल का है। इसी परिवेश में कुछ ऐसी परिस्थितियां निर्मित होती है उपन्यास के पात्रों के सामने नई-नई चुनौतियां आती जाती है।

चुनौतियों का सामना करने में मुक पशु-पक्षी का प्रयोग बखूबी किया गया है। पृष्ठ संख्या के हिसाब से दाम कुछ ज्यादा है। इस पर विचार किया जाना चाहिए। वैसे उपन्यास की साज-सज्जा व पृष्ठ सज्जा के साथ त्रुटि रहित छपाई ने उपन्यास की गुणवत्ता में श्री वृद्धि की है।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

16-04-2023

मित्तल मोबाइल के पास, रतनगढ़,  जिला- नीमच (मध्य प्रदेश), पिनकोड-458226 

मोबाइल नंबर 7024047675, 8827985775

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ ‘गहरे पानी पैठ’ – डॉ मुक्ता ☆ समीक्षा – सुश्री शकुंतला मित्तल ☆

सुश्री शकुंतला मित्तल 

☆ पुस्तक चर्चा ☆ ‘गहरे पानी पैठ’ – डॉ मुक्ता ☆ समीक्षा – सुश्री शकुंतला मित्तल ☆

पुस्तक- गहरे पानी पैठ

लेखिका – डॉ मुक्ता

प्रकाशक – SGSH Publications

समीक्षक – सुश्री शकुंतला मित्तल 

☆ समीक्षा – स्वस्थ समाज के निर्माण की आधारशिला “गहरे पानी पैठ” ☆

जीवन मेले की इस आपाधापी ,भागदौड़ और उपभोक्तावादी आत्मकेंद्रित जीवन शैली में साहित्य जगत् की सशक्त हस्ताक्षर ,शिक्षाविद्, माननीय राष्ट्रपति से पुरस्कृत , हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्वनिदेशक डॉ• मुक्ता द्वारा आज़ादी के अमृत महोत्सव वर्ष में “गहरे पानी पैठ” के रूप में 75 चिंतन व सुचिंतनपरक आलेखों का एक अनमोल वैचारिक संग्रह साहित्य जगत् और समाज को देना ऐसी महती उपलब्धि है, जो समाज की विचारधारा, मिज़ाज़, सोच, चिंतन शैली और घटते जीवन मूल्यों पर मात्र विचार ही नहीं व्यक्त करता, बल्कि हमें झिंझोड़कर “स्व” से बाहर निकल समाज के गर्त में झाँक कर जागने को बाध्य भी करता है। यह जीवन के अनुभवों का गहरा मंथन कर निकाले समाज हित के बहुमूल्य मोती हैं।

🌹 अभ्युदय अंतर्राष्ट्रीय संस्था द्वारा डॉ मुक्ता के गहरे पानी पैठ आलेख-संग्रह का हुआ लोकार्पण 🌹

गहरे पानी पैठ लेखिका के जीवनानुभवों की गहराई, विश्लेषक क्षमता, जीवन-दर्शन, वैचारिकता और समाज के सभी घटकों की चिंता को दर्शाता वह संजीवन अमृत-तत्व है, जिसे समझकर, ग्रहण कर, आत्मसात् कर समाज की जीवन पद्धति सुधर सकती है। उक्त आलेख-संग्रह दो भागों में विभक्त है। आरंभ के 37 आलेख चिंतनपरक आलेख हैं और 38 से 75 तक सुचिंतनपरक आलेख हैं। लेखिका का जीवन फलक बहुआयामी रहा है। उनके विभिन्न क्षेत्रों के अनुभव, समाज में घटित घटनाएँ, समाचार पत्र की सुर्खियों में छपे पीड़ित, शोषित, प्रताड़ित क़िरदार, पात्र, उनके दु:ख, पीड़ा, व्यथा ने लेखिका को समाज से प्रश्न करने के लिए बाध्य किया और डॉ• मुक्ता ने धारदार कलम से समाज के घटते जीवन-मूल्यों, अनास्था, अविश्वास, स्वार्थ से रिसते- पिसते रिश्तों, युवा पीढ़ी की संस्कारहीनता पर क्षोभ व्यक्त करते हुए अनेक सार्थक प्रश्न उठाए हैं और समाधान के रूप में भारतीय संस्कृति को अपनाने का आग्रह किया है।

सुचिन्तनपरक आलेख समाज के हर वर्ग की विक्षिप्त मानसिकता, संकीर्ण सोच व स्वार्थपरता का निदान ही नहीं करते ; संत्रस्त अंधेरे में प्रकाश की किरण बन प्रेरणा देते हैं, सहारा देते हैं और समाज की गतिशीलता को विकास की ओर अग्रसर करने में पूर्णतया सक्षम हैं।

“दिशाहीन समाज और घटते जीवन मूल्य” आलेख में लेखिका की कलम धन-संग्रह को एकमात्र लक्ष्य बना किसी के प्राण तक हर लेने में संकोच ना करने वाले समाज से अतीत में लौट चलने का आग्रह करते हुए कहती है, “आओ! लौट चलें अतीत की ओर, जब समाज में बहन-बेटी ही नहीं, हर महिला सुरक्षित थी। आधुनिक युग में युवा पीढ़ी के लिए सर्वाधिक कारग़र उपाय है–अपनी भावनाओं पर अंकुश लगाना, अपनी संस्कृति से जुड़ाव और स्वीकार्यता भाव से मानव मात्र में यथोचित बहन, बेटी, माँ के प्रतिरूप का दर्शन करने की भावना।”

अक्सर तो नारी को संधि पत्र लिखने तक का अवसर भी प्रदान नहीं किया जाता। उसे ज़िंदगी भर दर-दर की ठोकरें खाने के लिए छोड़ दिया जाता है और वह झोंक दी जाती है देह-व्यापार के धंधे में……नारी को मुस्कुराते हुए अपना पक्ष रखे बिना नेत्र मूंदकर संधि-पत्र पर हस्ताक्षर करने लाज़िमी हैं.”…..ये पंक्तियाँ हैं डॉ• मुक्ता के चिंतनपरक आलेख “जिंदगी की शर्त-संधि पत्र से।”

नारी को मानसिक यंत्रणा देने वाले समाज पर कटाक्ष करने, सोचने पर विवश करने के साथ ही लेखिका “नारी अस्मिता प्रश्नों के दायरे में क्यों” आलेख के माध्यम से नारी को मर्यादित जीवन जीने का परामर्श देते हुए पाश्चात्य संस्कृति के अंधानुकरण, लिव-इन को मान्यता देने, विवाहेतर संबंधों की स्वीकार्यता पर भी प्रश्नचिन्ह लगाते हुए कहती हैं, “विदेशी हमारे रीति रिवाज, धार्मिक मान्यताओं व ईश्वर में अटूट आस्था-विश्वास की संस्कृति को स्वीकारने लगे हैं, परंतु हम उन द्वारा परोसी गई “लिव-इन” और “ओल्ड होम” की जूठन को स्वीकार करने में अपनी शान समझते हैं । “

सभी आलेखों के शीर्षक भी जिज्ञासा उत्पन्न करते हैं। “ट्यूशन और तलाक़” आलेख में मायके के लोगों द्वारा मोहग्रस्त होकर ग़लत सीख देने को ट्यूशन नाम दिया है, जो उन्हें उच्छृंखलता की ओर अग्रसर कर तलाक़ की ओर ले जाती है। ‘बाल यौन-उत्पीड़न समस्या व समाधान’ और ‘मज़दूरी इनकी मज़बूरी’ में देश के भविष्य बच्चों की दयनीय स्थिति से हमें परिचित कराते हैं । लेखिका की विहंगम दृष्टि समाज में सिर उठाती हर नवीन जीवन-पद्धति पर है और यदि उसका कोई भी बिंदु लेखिका को जीवन में उज्ज्वल रंग भरता दिखाई देता है, तो वह अपनी संस्कृति से उसका तालमेल बिठाता पक्ष रख उसकी वकालत भी करती दिखाई देती हैं।

‘सेलोगैमी’ अथवा ‘सैल्फ मैरिज’ आलेख की ये पंक्तियां दृष्टव्य हैं- “देखिए, ऊंट किस करवट बैठता है? यदि हम अतीत की ओर दृष्टिपात करें तो यह एक स्वस्थ परंपरा है । हमारे ऋषि-मुनि भी वर्षों तक अपनी संगति में अर्थात् एकांत में सहर्ष तप किया करते थे। उन्हें आत्मावलोकन का अवसर प्राप्त होता था, जो उन्हें मुक्ति की राह की ओर अग्रसर करता था।” सलोगैमी का ऋषि-मुनियों की एकांत अवस्था से साम्य स्थापित कर उसका विवेचन लेखिका की अद्भुत वैचारिक क्षमता को व्यक्त करता है। “चलते फिरते पुतले” रिश्तों में पनपते अजनबीपन के एहसास, संवादहीनता, संवेदनशून्यता और संयुक्त परिवार के टूटने की कसक को अभिव्यक्ति देता है। “कानून शिक्षा और संस्कार” आलेख में लेखिका अंधे कानून और संस्कारविहीन पुस्तकीय शिक्षा पर क्षोभ व्यक्त करते हुए संस्कारों को सर्वाधिक महत्व देते हुए संस्कारहीन व्यवस्था को पंगु, मूल्यहीन व निष्फल बता युवा पीढ़ी को सुसंस्कारित करने पर बल देती है।

डॉ. मुक्ता – माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

लेखिका समाज की हर घटना, विसंगतियों व हादसों पर दृष्टि टिकाए है। “मातृहंता युवा” आलेख में अभिभावकों द्वारा की जाने वाली रोक-टोक पर युवा द्वारा माता-पिता की हत्या पर लेखिका का हृदय चीत्कार कर उठता है और वह समाज को झिंझोड़ कर, बच्चों को सुसंस्कृत कर दायित्व निर्वहन करने का आग्रह करती है। “यह कैसा राम राज्य” में सड़क पर लहूलुहान व्यक्ति को अनदेखा कर समाज में स्त्री को उपभोग की वस्तु बनती देख, कूड़े के ढेर पर बच्चों का झूठन खाने के लिए मारपीट व सड़क किनारे श्रम करती औरत की दयनीय दशा देख लेखिका का हृदय उद्वेलित हो उठता है।

“संवेदनहीन समाज” में लेखिका क्षणिक शारीरिक सुख भोग के लिए दुष्कर्म में प्रवृत्त युवा को अपना भविष्य अंधकार में झोंकने के मूल में उस पारिवारिक वातावरण को कारण मानती है, जहांँ बच्चों को एकांत की त्रासदी का दंश झेलना पड़ता है। वहांँ बच्चे टीवी और मोबाइल की वेबसाइटों को खंगाल जुर्म की दलदल में कदम रख अपना अनमोल जीवन नष्ट कर लेते हैं। “अपने-अपने खेमे” साहित्यिक क्षेत्र में बढ़ती राजनीति, दूषित वातावरण और सम्मानों की खरीद-फरोख्त को उजागर करते हुए राष्ट्रीय सम्मान को इनसे अछूता देख संतोष भी व्यक्त करती है।

आज समाज का हर व्यक्ति चिंतन के स्थान पर चिंता में लीन है, जो केवल मनुष्य के जीवन को निराशा के गर्त में ले जाती है। अनेक उदाहरणों, काव्य सूक्तियों, कबीर की पंक्तियों से लेखिका ‘मोहे चिंता न होय’ आलेख में संदेश देते हुए कहती हैं,” चिंता किसी रोग का निदान नहीं है। इसलिए चिंता करना व्यर्थ है। परमात्मा हमारे हित के बारे में हम से बेहतर जानते हैं, तो हम चिंता क्यों करें? सो! हमें उस सृष्टि- नियंता पर अटूट विश्वास करना चाहिए, क्योंकि वह हमारे हक़ में हमसे बेहतर निर्णय लेगा।”

शब्दों को तोलकर व सोच-विचार कर बोलने की आवश्यकता पर बल देते हुए लेखिका “शब्द-शब्द साधना” आलेख में शब्द को ब्रह्म की संज्ञा देती है। परशुराम द्वारा क्रोध में आकर माता का वध करना, ऋषि गौतम का अहिल्या को शाप देना उदाहरणों से लेखिका सोचकर बोलने का महत्व दर्शाती है। सीधी, सरल, स्पष्ट और उदाहरण शैली आलेख को प्रभावशाली बना उसके महत्व को द्विगुणित करती है।

‘खुद को पढ़ें और ज़िंदगी के मक़सद को जानें’ अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण रखें और बेवजह ख्वाहिशों को मन में विकसित न होने दें ।…..जो मिला है, उसे प्रभु कृपा समझ कर प्रसन्नता से स्वीकार करें और ग़िला-शिक़वा कभी मत करें। कल अर्थात् भविष्य अनिश्चित है, कभी आएगा नहीं। सो! उसकी चिंता में वर्तमान को नष्ट मत करें ….. यही ज़िंदगी है और यही है लम्हों की सौग़ात” यह पंक्तियां “ज़िंदगी लम्हों की किताब” आलेख से उद्धृत है, जो हमें चिंता, त्याग व संतोष का भाव भरने की प्रेरणा देती है।
इसी तरह के अनेक विचारात्मक और प्रेरणास्पद आलेख हैं, जो अपनी सरलता, स्पष्टता और उदाहरण शैली के कारण बहुत प्रभावशाली बन पड़े हैं।

संस्कृति और संस्कारों से जुड़े ये आलेख केवल मात्र उपदेश नहीं देते; मनोमस्तिष्क दोनों को अपनी कथन शैली से सोचने व चिंतन-मनन करने को बाध्य करते हैं। भाषायी गरिमा और गहराई इन आलेखों की विशेषता है। इनके शीर्षक यथा “अंतर्मन की शांति”, “अपेक्षा व उपेक्षा”, ‘ख़ामोशियों की ज़ुबाँ’ “अहम बनाम अहमियत”, “आईना झूठ नहीं बोलता” मानव में जिज्ञासा भाव ही उत्पन्न नहीं करते; पढ़ने की ललक से हृदय को आप्लावित कर देते हैं।

डॉ• मुक्ता के जीवन का सफ़र प्राध्यापिका व प्राचार्य के रूप में जिन अनुभवों को अर्जित करते हुए परिपक्व और उदात्त बना है और पाँच वर्ष तक अकादमी निदेशक के रूप में दायित्व-वहन करते हुए वे जिस दौर से गुज़री हैं; उसकी झलक हमें इन आलेखों में मिलती है। डॉ• मुक्ता युवा पीढ़ी के मन को सकारात्मक ऊर्जा प्रदान कर, उन्हें निराशा के गह्वर में गिर कर अपनी जीवन-लीला समाप्त करने से बचाने के अपने दायित्व-बोध से भलीभांति परिचित हैं और उन्हें तनाव, संत्रास, छटपटाहट, झूठे अहं, पाश्चात्य चकाचौंध से बचाने को आतुर दिखाई देती हैं, वही आकुलता, विकलता और कर्तव्यनिष्ठा इन आलेखों की पृष्ठभूमि का आधार भी है और केंद्र भी। मेरे मतानुसार प्रत्येक विद्यालय, महाविद्यालय और सामाजिक संस्थानों के पुस्तकालय में अत्युत्तम आलेखों की इस संग्रह को अवश्य स्थान प्राप्त होना चाहिए, ताकि हम अपनी युवा पीढ़ी को सही दिशा और दशा प्रदान कर सकें।

यह संकलन व्यापक सामाजिक जीवन दृष्टि, आधुनिकता बोध तथा सामाजिक सन्दर्भों की विविधता को अनेक स्तरों पर समेटे जिस पूरे परिदृश्य का एहसास कराता है, वह युवाओं में जीवन-मूल्यों के विकास और सामाजिक दायित्व -बोध को उत्पन्न करने का सूचक है। लेखिका ने परम्परा से हटकर एक नये मार्ग का अनुसरण करके सभी लेखों को एक नया आयाम देने का प्रयास किया है। सर्वथा नवीन प्रासंगिकता के साथ यह आलेख-संग्रह एक ऐसा दस्तावेज़ है, जो विचारों की धरोहर होने के कारण संग्रहणीय भी है। कुल मिलाकर प्रतिपाद्य, भाषा, शैली, कथ्य और उद्देश्य –सभी दृष्टियों से ये निबन्ध श्लाघनीय व प्रशंसनीय हैं। इनकी प्रस्तुति सर्वथा अभिनंदनीय है।

ऐसी अनुपम स्तुत्य कृति के लिए मैं डॉ• मुक्ता को हृदय की गहराइयों से बधाई एवं अशेष शुभकामनाएंँ देती हूंँ। आप यथावत् स्वस्थ समाज को गढ़ने व निर्मित करने के लिए निरंतर साहित्य साधना-रत रहें। आपके “गहरे पानी पैठ” आलेख-संग्रह को जो भी पढ़ेगा, वह अपने बच्चों के जीवन में सही दिशा-निर्देशन व क्रांतिकारी परिवर्तन हेतू चिंतन- मनन अवश्य करेगा।

©  सुश्री शकुंतला मित्तल

शिक्षाविद् एवं साहित्यकार, गुरुग्राम

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ ‘गजल की संरचना और नेपाल की हिंदी गज़लें’ – श्री लक्ष्मण यादव ‘लक्ष्मण’ ☆ समीक्षा – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं।आज प्रस्तुत है श्री लक्ष्मण यादव ‘लक्ष्मण’ जी  की पुस्तक  गजल की संरचना और नेपाल की हिंदी गज़लें की समीक्षा।)

☆ पुस्तक चर्चा ☆ ‘गजल की संरचना और नेपाल की हिंदी गज़लें’ – श्री लक्ष्मण यादव ‘लक्ष्मण’ ☆ समीक्षा – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’’ ☆

पुस्तक- गजल की संरचना और नेपाल की हिंदी गज़लें

रचनाकार- लक्ष्मण यादव ‘लक्ष्मण’

प्रकाशक- सुमन पुस्तक भंडार, सुखीपुर-5, लड़कन्हाँ, सिरहा नेपाल

पृष्ठ संख्या-152

मूल्य-₹250

समीक्षक ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

☆ समीक्षा – गजल संरचना की बेहतरीन पुस्तक ☆

गजल का अपना मिजाज होता है। इसी मिजाज के चलते इसके नियम दृढ़ होते हैं। जिसके परिपालन से गजल में वजन बढ़ जाता है। तभी जाकर बेहतरीन गजल का प्रत्येक शेर अपने आप में संपूर्ण होता है। इसे सुनने के बाद श्रोता आह और वाह कर उठते हैं।

इसी वजह से गजल लिखना, आरंभ में बहुत कठिन कार्य होता है। जब आप इसकी रग-रग से वाकिफ हो जाते हैं तब इससे सरल काव्य रचना कोई नहीं होती है। यही कारण है कि जो एक बार ग़ज़ल लिखना शुरु कर देता है तब वह दूसरी काव्य विधा की ओर नहीं जाता है।

यही वजह है कि प्रत्येक काव्य रचयिता अपने जीवन में एक ना एक बार गजल लिखने की कोशिश करता है। यदि वह इसमें कामयाब हो जाता है तो ग़ज़ल का होकर रह जाता है। यदि इस दौरान अन्य काव्य-रचना लिखता है तो उसमें भी वजन बढ़ जाता है।

इसी कारण से हरेक देश में गजल और उसकी संरचना पर अनेक पुस्तकें लिखी गई है। इसी तारतम्य में हमारे समक्ष नेपाल की एक पुस्तक- गजल की संरचना और नेपाल की हिंदी गज़लें, समीक्षार्थ रूप से रखी हुई है। इस पुस्तक को नेपाल की ग़ज़लकार लक्ष्मण यादव ‘लक्ष्मण’ ने लिखा है।

पुस्तक में नेपाल की हर छोटे-बड़े रचनाकार, हिंदी के समर्थक, कवि, कहानीकार आदि ने अपने पत्रों से इस पुस्तक को आशीर्वाद प्रदान किया है। जो इसके आरंभिक पृष्ठों पर प्रकाशित हैं। यह पुस्तक सात अध्याय और उसके पांच से अधिक उपाध्याय में विभक्त है।

नेपाल में हिंदी की पृष्ठभूमि कैसी है? वहां पर गजल का विकास क्रम किस प्रकार का हुआ है? इस प्रथम अध्याय में गजल, अर्थ, परिभाषा, अरबी, फारसी, उर्दू, हिंदी गजलों के बारे में जानकारी दी गई है।

गजल की बात हो और उसके प्रकार का उल्लेख न किया जाए, यह नहीं हो सकता है। दूसरा अध्याय इसी पर केंद्रित है। जहां पर भाव, तुकान्त, राग-विराग आदि अनेक आधारों पर ग़ज़ल के अंतर को बारीकी से समझाया गया है।

गजल की संरचना का उल्लेख किए बिना ग़ज़ल की पुस्तक अधूरी होती है। जब संरचना की बात हो तो उसकी विशेषता, आंतरिक और बाहरी संरचना का उल्लेख होना बहुत जरूरी होता है। इसे के द्वारा गजल के अंग- मतला, रदीफ काफिया, मिशरा, तखुल्लुम, शेर, मकता और गजल की जमीन को समझा जा सकता है।

गजल की अपनी भाषा है। यह भाषा गजल की संरचना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इसमें किन शब्दों का कब और कहां उपयोग किया जाता है, यह भी महत्वपूर्ण होता है। इसका भी बारीकी से उल्लेख किया गया है।

गजल का संविधान अलग होता है। इसमें हिंदी काव्य की तरह मात्रा की गणना करने का अपना विधान है। कब और कहां मात्रा को गिराया जाता है? वह किस बहर पर रची जाएगी और उसके बहर के प्रकार क्या है? यह एक ग़ज़लकार ही बता सकता है।

इन्हीं प्रवृत्तियों का प्रस्तुतीकरण इस पुस्तक में किया गया है। साथ ही नेपाल के प्रसिद्ध गजलकारों और उनकी गज़लों को भी इस पुस्तक में शामिल किया गया है। चूंकि इस पुस्तक का लेखक नेपाल का निवासी है इस कारण इस पुस्तक में नेपाल के कुछ विशिष्ट शब्दों का समावेश हो गया है। इसके कारण वे पढ़ते समय हमारे दिमाग में खटकने लगते हैं। क्योंकि वह हमारे लिए नए होते हैं। इसके बावजूद गजल की संरचना समझने व सीखने के लिए यह बेहतरीन पुस्तक है। इसमें दो राय नहीं है।

इस बेहतरीन ग़ज़ल संरचना की पुस्तक लिखने के लिए रचनाकार लक्ष्मण यादव बधाई के पात्र हैं। उन्हें हमारी ओर से हार्दिक साधुवाद।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

03-04-2023

मित्तल मोबाइल के पास, रतनगढ़,  जिला- नीमच (मध्य प्रदेश), पिनकोड-458226 

मोबाइल नंबर 7024047675, 8827985775

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 134 – “अंततः” – श्री राजा सिंह ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है श्री राजा सिंह जी के उपन्यास “अंततः” पर पुस्तक चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 134 ☆

☆ “अंततः” – श्री राजा सिंह ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

पुस्तक चर्चा

अंततः  (उपन्यास)

लेखक – राजा सिंह

पृष्ठ – १४४, मूल्य – ४५० रु

प्रकाशक – राष्ट्रीय पुस्तक सदन, दिल्ली ३२

अंततः उपन्यास की बेबाक समीक्षा स्वयं लेखक राजा सिंह ने पुस्तक के प्रारंभ में अपने दो शब्द के अंतर्गत कर रखी है. राजा सिंह एक उम्दा समकालीन कहानीकार हैं. यह उपन्यास उनकी छठविं कृति है. इससे पहले वर्ष २०१५ में अवशेष प्रणय, २०१८ में पचास के पार, २०२० में बिना मतलब और २०२१ में पलायन नाम से उनकी कहानियां पुस्तकाकार प्रकाशित हुई और सराही गई हैं. २०२१ में पहला उपन्यास बनियों की विलायत आया था. अंततः दूसरा उपन्यास है, यह वर्ष २०२२ में प्रकाशित हुआ है. राजा सिंह निरंतर लेकन कर रहे हैं, सभी उत्कृष्ट पतरिकाओ में समय समय पर उन्हें पढ़ने के अवसर मिलते रहते हैं. वे अपने परिवेश से चरित्रों को ढ़ूंढ़कर कहानी में उतार देने की कला में माहिर हैं. प्रस्तुत ७पन्यास के लेककीय व्यक्त्व्य में वे लिखते हैं कि उपन्यास की उनकी नायिका यथार्थ है. जिसकी जिजीविषा की कहानी ही अंततः है. एक महत्वाकांक्षी लडकी की यंत्रणा को अनुभव कर संवेदनशील शब्दों में अभिव्यक्ति  दे पाना लेखकीय सफलता है. देहात और औसत शहरी वातावरण के कथानक के अनुरूप भाषा, और उपन्यास के पात्रों का नामकरण राजा सिंह के लेखन की विशेषता है. इस उपन्यास में उन्होंने रघु और सीता के इर्द गिर्द कहानी बुनी है.

“उन सबन की बराबरी जिन करा, हमरे पास कौनव खंती न गड़ी है, कहाँ से पढ़ाई करवाते ? घर मा खाना लत्ता तो मुश्किल से जुड़त है शाहबजादी को पढ़ाई कहाँ से करवाते ? माँ बिसुरने लगी ” बातचीत शैली में कही गई, सीता के संघर्ष की कहानी है अंततः. यद्यपि बेहतर होता कि भले ही वास्तविक जिंदगी में नायिका को सफलता न भी मिली हो पर उपन्यास में सफल सुखान्त किया जा सकता था. राजा सिंह की वर्णन शैली में चित्रात्मक अभिव्यक्ति की क्षमता है.

उपन्यास का यह अंश पढ़िये…

… “मैं जानती थी तुम्हारी नजर कहाँ धरी है? मुझे क्या पड़ी है? बच्चों के लिए रख छोड़ा था बच्चों को भूख से बेहाल नहीं देखा जाता है. इस कारण रख छोड़ा था। वह बड़बड़ाती जा रही थी और कोठरी में खटर-पटर भी करती जा रही थी।

  वह असहायता और निरूपता से ग्रस्त इंतजार कर रहा था। थोड़े विराम के बाद कमला कोठरी से बाहर आयी। वह अशांत, क्लेशरहित, दीन भाव से युक्त थी। उसने एकदम सहज तरीके से कड़े रामदीन को सौंप दिए। वह अच्छी तरह से जानती थी कि इस स्थिति के लिए उसका पति किसी तरह से भी दोषी नहीं है। यह सिर्फ दैवयोग ही है।

रामदीन ने जुताई की रकम अदा की और पिछला उधार चुकता करके फिर उधार किया। उसने खाद बीज के लिए भी यही व्यवस्था अपनाई। पिछला उधार चुकता किया और नया उधार किया। सबसे ज्वलंत समस्या मुंह बाये खड़ी थी, घर का खाना खर्चा का क्या होगा? समझ से परे था यह इन्तजाम.? बैंकों का कर्ज पहले से ही था उसे पिछले तीन सालों से चुका नहीं पाया था। नोटिस पे नोटिस आ रहे थे। ब्याज पर ब्याज लगकर खाता अलाभकारी हो चुका था। बैंक के कोई दया ममता तो होती नहीं है परन्तु  अब क्या करें? सेठ साहूकार उनका ब्याज मूल से ज्यादा हो चुका है। एक बार खेत का एक टुकड़ा बेचकर उनके मोटे पेट को भोजन करा चुके हैं। मगर उनके अलावा कोई चारा तो नहीं है।

ससुरी खेती कब दगा दे जाये क्या पता….? चलते हैं, चिरौरी करते हैं, वे मानुष हैं, उनके दया ममता आ सकती है। अबकी बार खेत का एक टुकड़ा नहीं सारा का सारा खेत बेच कर ताँता ही समाप्त कर देंगे और सारा उधार निपटाकर शहर जाकर बस जायेंगे मेहनत-मजूरी करके दो वक्त की रोटी तो पा ही जायेंगे। कहते हैं कि शहर में कोई भूखा नहीं मरता । अच्छी लागत और भरपूर मेहनत ने रंग दिखाना शुरू कर दिया था। फसलें अच्छी तरह पनप और विकसित हो रही थी। निराशाएँ और हताशाएँ बहुत पीछे छूट गयी थीं। उम्मीदों पर, पर लग गए थे। उत्पादन-विक्रय के बाद होने वाली आमदनी का हिसाब काफी अच्छा बैठ रहा था। भावी आमदनी से आवश्यकताओं और अभिलाषाओं के पूर्ण होने की उम्मीद बेहतर होती जा रही थी। बिके हुए गाय-बैल वापस आने कि उम्मीद बंध रही थी।…

लोकभाषा का प्रयोग, समकालिक परिस्थितियों और घटनाओ का वर्णन है, इसलिये उपन्यास पाठक को बांधे रखता है, पठनीय है. उपन्यास की कहानी कोई बड़ा संदेश तो नहीं देती पर वर्तमान सामाजिक परिवेश का यथार्थ चित्रण करती है. मेरी आशा है कि यह उपन्यास स्त्री विमर्श की मुखर कृति के रूप में स्थान बनाने में सफल होगा.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ बाल कहानी संग्रह ‘जादुई बगीचा ‘ – सुश्री उषा सोमानी ☆ समीक्षा – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं।आज प्रस्तुत है सुश्री उषा सोमानी जी  के बाल कहानी संग्रह जादुई बगीचा” की पुस्तक समीक्षा।)

☆ पुस्तक चर्चा ☆ बाल कहानी संग्रह ‘जादुई बगीचा’ – सुश्री उषा सोमानी ☆ समीक्षा – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’’ ☆

पुस्तक- जादुई बगीचा (बालकहानी-संग्रह)

कहानीकार-  सुश्री उषा सोमानी

प्रकाशक- साहित्यकार, धामणी मार्केट की गली, चौड़ा रास्ता, जयपुर 

मोबाइल नंबर 93142 02010

पृष्ठ संख्या- 120

मूल्य- ₹200

समीक्षक ओमप्रकाश क्षत्रिय प्रकाश

☆ समीक्षा- जादुई बगीचे में फूलों से सजी कहानियां☆

आपको कहानी सुनाना आना चाहिए। लिखना अपने आप आ जाता है। कहानी, कहानी सुनाने में छुपी रहती है। कहानी कब मस्तिष्क में चढ़कर बोलने लगती है, कहा नहीं जा सकता हैं। जी हां। आपने ठीक समझा। एक ऐसी ही कहानीकारा है उषा सोमानी जी।

इन्होंने कहानी सुनाते-सुनाते कहानी लिखना शुरू किया। फिर लिखती ही चली गई। जिसकी परिणीति ‘जादुई बगीचा’- बालकहानी संग्रह के रूप में हुई। इस बालकहानी संग्रह में 23 कहानियों का गुलदस्ता सजाकर उन्होंने हमारे समक्ष प्रस्तुत किया है।

बहुत ही सुंदर आकर्षक कवर से सजे इस कहानी संग्रह की बढ़िया कहानी हैं- गुम हुए जुगनूओं की चमक। यह पर्यावरण का संदेश देती हुई बेहतरीन कहानी है। इसमें वर्णित दृश्यांकन का चित्रण बहुत ही बढ़िया किया गया है।

इस संग्रह की दूसरी बढिया कहानी है- फड़फड़ भूत। सरल, सहज और रोचक शब्दों में कही गई यह एक अच्छी कहानी है। इसमें जिज्ञासा है। प्रवाह है। सरलता है और कहानी कहने का बहुत ही रोचक ढंग है।

गिरगिट रेस जीत गया- कहानी में बच्चों की गप को आधार बनाकर एक बहुत ही बढ़िया कहानी लिखी है। इसमें रोचकता और प्रवाह अंत तक बना रहता है।

ओल्ड इज गोल्ड- इस कथानक पर डाइनिंग टेबल के बहाने आपने बहुतसी भावनात्मक यादों को बच्चों के समक्ष रखने में सफलता प्राप्त की है।

नारियल की गवाही-शीर्षक कहानी हमारे मन में पढ़ने के लिए उत्सुकता जगाती है। इस उत्सुकता में पाठक कहानी को अंत तक पढ़ जाता है। तब उसे मालूम होता है नारियल ने गवाही कैसे दी?

जहां चाह, वहां राह- एक आदिवासी बच्चे की मदद को प्रेरित करती हुई बढ़िया कहानी। बदलाव- कहानी में शरारती प्रवृत्ति को प्रमुखता से उठाया गया है। बच्चे अक्सर स्कूल में शरारत करते हैं। मगर शरारत का आप का प्रयोग अभिनव व नया है।

कुदरत का करिश्मा- में बच्चों की एक अनोखी प्रवृत्ति का उल्लेख किया गया है। आजकल बच्चे मुहावरे भूलते जा रहे हैं। उन्हें मुहावरे का अर्थ और मुहावरें याद नहीं रहते हैं। आपने -कुदरत का करिश्मा, कहानी में मुहावरा का अच्छा प्रयोग किया है।

सूझबूझ ने बचाई जान- कहानी में एक यादगार जानकारी अनोखे रूप से दी गई है। इस कारण वह जानकारी स्थाई रुप से दिमाग में बैठ जाती है। आपने इसी का उपयोग करके 108 एंबुलेंस की जानकारी को कहानी में पिरोया है। आपका यह प्रयास अति उत्तम है।

खिल गए रंग- किसी दूसरे के चेहरे पर खुशियों की मुस्कान लाने की शानदार कौशिश है। आज की भागमभाग युग में यह अब नहीं हो पा रहा है। इसी को सीख देती बेहतरीन कहानी के लिए हार्दिक बधाई।

जादुई बगीचा- बच्चे जादू को बहुत पसंद करते हैं। उन्हें खेलना, कूदना और रेस लगाना अच्छा लगता है। इसी भाव को पिरोते हुए आपने अच्छी कहानी कही है।

देख कर जी ललचाए- गिन्नी बिल्ली की यह शुद्ध मनोरंजन कहानी बहुत ही अच्छी बनी है। इससे बच्चों का अच्छा मनोरंजन होता है।

लौट के घर आई राजकुमारी- बच्चों को कल्पना की उड़ान कराती बहुत ही अच्छी कहानी कही है। इसमें परंपरागत रूप से जादू का बहुत ही अच्छा उपयोग किया है।

जलपरी से मुलाकात- इस कहानी में बच्चों में जलपरी से मुलाकात की जिज्ञासा को जागृत किया है। यह होती भी है या नहीं? बहुत कुछ जानने को उत्सुक जगाती कहानी है।

दोहरी फसल- धान की रोपाई के साथ दोस्ती की फसल। एक अनोखा संगम। बहुत बढ़िया कहानी हैं।

महंगी पड़ी शरारत- शरारत को दर्शाती यह कहानी जानदार और जानकारी पूर्ण है। कैटरपिलर और उसके काँटे के बारे में आपने बहुत खूब लिखा है।

हौसले की उड़ान- चिंकी के हौसले की उड़ान को आपने क्रिकेट की कहानी में बहुत ही खूबसूरती से पिरोया है।

पेड़ों का रसोईघर- प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया को बहुत ही सीधे, सरल सहज व सीधे ढंग में समझाया गया है। यह कहानी की एक बहुत ही बड़ी विशेषता है।

फूल फिर मुस्कराने लगे- परी के द्वारा बगीचे और फूलों को लेकर एक बहुत ही बढ़िया कथानक बुना गया है। इसमें फूलों की चिंता और उनके मनोरंजन को बहुत खूबसूरती से उल्लेख किया गया है।

मिस मुर्गी की दुकान- यह बहुत ही मनोरंजक और दिलचस्प कहानी है। ऐसी कहानियां बच्चे बहुत पसंद करते हैं। मित्र की पहचान- मुसीबत में ही सच्चे मित्र की पहचान होती है। इसी कथानक को लेकर बुनी गई आपकी यह कहानी बिल्कुल सरल, सहज व अच्छी है।

गधे का सपना- अपनी उपयोगिता सिद्ध करने को लेकर लिखी गई बहुत ही अच्छी कहानी। हरेक की अपनी उपयोगिता और सर्व श्रेष्ठता होती है। यही कहानी दर्शाती है। डॉ राधाकृष्णन- डॉक्टर राधाकृष्णन पर शिक्षक दिवस पर लिखी गई सार-संक्षिप्त और बढ़िया कहानी है।

उत्तम आवरण से सजे इस कहानी संग्रह में बीच-बीच में रेखा चित्र दिए गए हैं। उत्तम साजसज्जा एवं त्रुटिरहित छपाई ने कहानी संग्रह की पठनीयता में वृद्धि की है। इस संग्रह के लिए आपको हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

26-03-2023

मित्तल मोबाइल के पास, रतनगढ़,  जिला- नीमच (मध्य प्रदेश), पिनकोड-458226 

मोबाइल नंबर 7024047675, 8827985775

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆ “नासमझ मन – भज मन” – डॉ. मालती बसंत ☆ सुश्री मनोरमा पंत ☆

सुश्री मनोरमा पंत  

📖 पुस्तक चर्चा 📖

☆ “नासमझ मन – भज मन” – डॉ. मालती बसंत ☆ समीक्षक – सुश्री मनोरमा पंत ☆

पुस्तक चर्चा

पुस्तक – नासमझ मन – भज मन

लेखिका – डॉ. मालती बसंत

प्रकाशक आईसेक्ट पब्लिकेशन

मूल्य – रु 250  

डॉ. मालती बसंत

(एम.ए., एम.एड, पी.एच.डी, डी.सी.एच., एन.डी (योग एवं प्राकृतिक चिकित्सा) जैसी उपाधियों से विभूषित डॉ. मालती बसंत के दो कहानी-संग्रह, तीन लघुकथा-संग्रह, चौदह बाल कहानी संग्रह, तीन बाल उपन्यास, एक बाल नाटक संग्रह, एक कविता संग्रह, एक हास्य व्यंग्य संग्रह प्रकाशित हो चुका है।

आकाशवाणी भोपाल, इन्दौर, तथा छतरपुर से निरन्तर रचनाओं का प्रसारण होता रहा है ।

भारत सरकार के विभिन्न विभागों, म.प्र. साहित्य अकादमी द्वारा अनेको महत्वपूर्ण सम्मानों से विभूषित मालती जी को महामहिम राष्ट्रपति अब्दुल कलाम बाल साहित्यकार के रूप में चर्चा हेतु राष्ट्रपति भवन में आमंत्रित कर चुके हैं। इनके साहित्य पर शोधकार्य भी हो चुके हैं। मारीशस और लदंन की साहित्यिक यात्राएँ मालती जी के साहित्य के महत्व को पुष्ट करती हैं।)

☆ “नासमझ मन – भज मन” – डॉ. मालती बसंत ☆ समीक्षक – सुश्री मनोरमा पंत ☆

आज मेरे समक्ष प्रसिद्ध लघुकथाकार, कहानीकार, कवयित्री मालती बंसत का काव्य संग्रह “नासमझ मन-भज मन” है।

पुस्तक के पृष्ठ पलटते ही पढ़ा ”पचास वर्षो की साहित्यिक यात्रा में मिले सह यात्रियों को समर्पित।” किताब का साहित्यिक साथियों को सम्पर्ण मुझे अभिभूत कर गया। यह समर्पण उनके व्यक्तिगत औदार्य को उद्घाटित करता है। उनका आत्मकथ्य भी अर्न्तमन को उद्वेलित कर जाता है, जिसमें वे वेबाकी से लिखती हैं-

साहित्यकार की प्रथम रचना कविता ही होती है। स्वयं को इंगित करती हुई वे कहती है ”मन की पर्वत पीड़ा सी सघन क्षणों की भावों की अभिव्यक्ति कविता के रूप में झरनों से फूट पड़ती है। इस आत्म कथ्य को पढ़ते ही मैं समझ गई कि मालती जी की कविताएं पीड़ा, दुख के संवेदों से परिपूर्ण होगी । जिस प्रकार का वाष्प से घनी भूत बादल अन्ततः बरस ही जाते हैं, वैसे ही वर्षों से उनके मन की पीड़ा भोगे हुए दर्द के घनी भूत बादल अन्ततः इस काव्य संग्रह के रूप में बरस ही गये। इस संग्रह में उनके विगत पचास वर्षों के जीवन के अनुभव की अनुभूति है, निष्कर्ष है दुख-सुख दोनों के हैं। आईये उनकी कविताओं को समझे परखे-

कबीर दास जी ने मन के बारे में लिखा है —

“कबीर, यह तन खेत है, मन कर्म वचन किसान।

पाप पुण्य दो बीज है, क्या बोना है यह तू जान।।”

पाप पुण्य दो बीज है, क्या बोना है यह तो बोने वाला ही जाने। तो मालती जी ने अपने कविता संग्रह में बीज बोए कि उसकी पुण्य फसल से हम सब का जीवन सफल हो गया।

हम सब की जीवन यात्रा मन से ही बातें करती निकल जाती है। मालती जी अधिकांश कविताएं मन को केन्द्र बिन्दु बनाकर लिखी गई है जिसमें दर्द है, उदासी है, वैराग्य है, आध्यात्मिकता है पर दूसरी ओर उनकी कविताओं में बंसत भी छाया है। बंसत पर तो उनकी लगभग दस कविताएं है। बादाम का पेड़, कमलवत रहना, पावस ऋतु  और सखियाँ, धूप के रूप जैसी कविताएं उनके प्रकृति प्रेम को दर्शाती है।

प्रसिद्ध साहित्यकार राय. बेनेट ने कहा है – अपने मन का अनुकरण करो, अपने अंदर की आवाज सुनो और इस बात की परवाह छोड़ दो कि लोग क्या कहेंगे। मालती जी ने यही बात खुले मन और दिमाग से की और निष्कर्ष निकाला इन शब्दों में

      निराशा में रहता था मन

      काँटों में उलझा था मन

      माना अपनों को पराया

      ऐसा था ना समझ मन

      दुख ही तो जीवन का सुख था

      दर्द ही सावन का गीत था

      विरह तो पावन पर्व था।

      कहाँ समझ पाया बौराया मन

सब कुछ अच्छा करने के बाद भी अंत में कुछ नहीं मिलता तो पीड़ा घनी भूत होकर दर्द दर्दीले शब्दों में कह उठती है-

      बहुत अकेला सा है मन

      लिखना चाहता है कहानी अपनी पर लिखे कहां, अब कोई कागज कोरा भी नहीं है।

‘मेरा मन बहुत हारा’ में कवियत्री अपनी घुटन अभिव्यक्त करते हुये कहती है।

      जाने कितने सपने महलों के देखें

      सच में केवल खण्डहर मिले

यही दुख और वेदना उनकी विरह कविताओं में परिलक्षित होती है ।

मालती जी की लगभग नौ कविताएं बिरह का दुःख इतने स्वाभाविक तरीके से बतलाती है कि पाठक स्वयं उस दर्दीले दुख से जुड़ जाता है। बोझ है मन में, वो नहीं आए, बहुत अकेला अकेला सा है मन है, प्रिय तुम्हारे न आने से जैसे कविताओं के शब्द दुख के कांटों के समान मन को विदीर्ण कर देते है।

मन में चुभती यह बात,भावुक मन रोता है, मन योगी हो जाए, जिन्दगी के हिसाब से खुद को ढूंढ रहा हूँ, फूल भी शूल से चुभते है, जैसी कविता के अंश इसके उदाहरण है।

जब उदासी, अवहेलना के बादल छँट जाते है तो कवयित्री बंसत का स्वागत करने जुट जाती है।

”बंसत तुम आना, प्रेम संदेशा लेकर आना तुम्हारा पथ बुहारूंगी।

बसंत खुलकर आओ धरा पर।

मेरे सतरंगी दिन में वे कहती है-

मैं जीना चाहती हूँ आएंगे मेरे दिन, जब मेरे लिये उगेगा सूर्य और चाँद

अपनी कविताओं में उन्होंने स्त्री की जिन्दगी की उठा पटक को दक्षता से दर्शाया है।

औरत के अंदर की छटपटाहट तथा विवशता को बताते हुए उनकी कलम लिखती है।

मैं कहना चाहती हूँ सब बातें।

पर कह नहीं पाती।

बोझ है मन पर कविता में उनका स्त्री मन विकल होकर कह उठता है

      दर्द में डूबा तन हूँ आँसू से भीगा मन है।

      राह चलते चलते थका थका सा है मन

      ठहरे कहाँ, रास्ते में कोई घर भी नहीं।

तस्लीमा नसरीन ने किताब लिखी है औरत का कोई देख नहीं पर मालती जी तो एक कदम आगे बढ़कर कहती है कि राह चलते-चलते थका-थका सा है मन, ठहरे कहां रास्ते में कोई घर भी नहीं?

      काठ की गुड़िया में उनकी मुखर वाणी प्रस्फुटित हो जाती है इस रूप में।

      मैं जननी हूँ कई रूप है मेरे

      फिर भी क्या रह गई।

      मैं क्यों अस्तित्वहीन

      बनकर एक काठ की गुड़िया

पर दूसरे ही क्षण ने आत्म विश्वास से भर कह उठती है-

      एक बौनी लड़की

      छूना चाहती है आकाश

      सारी धरा के शूल समेट

      बिखेर देना चाहती है फूल

वे जानती हैं समस्त पाबंदियों, दबाव, यंत्रणाओं के बावजूद एक औरत के अंदर एक और औरत रहती है। कौन है वह? जाने इन कविता -पंक्तियों में –

      “कविता लिखना बयान है बची है उसके अंदर की औरत

      जो अपनी संपूर्ण भावनाओं के साथ एक इन्द्रधनुष

      मन के क्षितिज पर खींचती है “

जिन्दगी के बारे में सब के अपने-अपने अनुभव होते है पर सभी इस बात में एकमत है कि जिन्दगी एक पहेली है।

मालती जी जिन्दगी के बारे में तराशे गये अलफ़ाजों में कहती है-

“जिन्दगी बड़ी अजब पहेली

सुलझाओ तो उलझ जाती

छोड़ दो तो सुलझ जाती,

आगे की इन पंक्तियों के बेबाकीपन से हर कोई हैरान रह जाता है।

जुड़ जाए तो हीरे मोती, बिखर जाए तो कंकड़ मिट्टी।

आध्यात्मिकता से सरोबार इन शब्दों से जिन्दगी की हकीकत का पता चला जाता है।

जिन्दगी एक सपना,

सपना तो सपना है

बार-बार टूटेगा

फिर इस झूठे सपने से क्या प्यार?

क्षण भंगुर स्वप्नवत जिन्दगी की असलियत समझ वे बोल उठती है।

आओ जिन्दगी सँवारे

भूले दुःख दर्द सारे

कड़वाहट को बुहारे

सुखी रहने का मंत्र बताते हुए वे कहती है –‘रहो निसर्ग के साथ ‘

जिन्दगी का निचोड़ उनसे लिख जाता है – जीवन में एक अभाव दे गया कई भाव ।

अब बात करते है पुस्तक के दूसरे भाग की

मेरा ऐसा मानना है कि काव्य संग्रह का दूसरा भाग ‘भजमन’ प्रथम भाग नासमझ मन का ही निष्कर्ष है। जीवन भर के खट्टे मीठे अनुभवों के पश्चात ही मनुष्य को समझ आता है कि सच में मन नासमझ ही रहा। मालती जी के शब्दों में-

      दुःख ही तो जीवन का सुख था।

      दर्द ही सावन का गीत था।

      कहाँ समझ पाया बौराया मन

      बस अब एकमात्र रास्ता बचा है ईश भक्ति।

वे कहती हैं –

      प्रभु तू सच्चा पथ प्रदर्शक है।

      प्रभु तू ही सही माने में परमात्मा है, परम गुरू है।

आध्यात्मिकता का पुट लिये कविताएं “तुम और मैं ” “प्रभु का उपकार” “श्रीराम कृपा”, “जग को बनाने वाले “मन को ईश भक्ति से सरोबार कर देती है। ईश्वर ही बस एक है तमाम कविताएं बताती है कि ईश्वर सत्य है बाकी सब झूठ है आध्यात्मिक चिंतन, वैराग्य को समेटे जीवन दर्शन का प्राकट्य करती सभी कविताएं मनुष्य की पथ प्रदर्शिका का महती कार्य करती है।

मालती जी सभी कविताएं भाषा शैली के अलंकरण से हीन सीधी सादी भाषा वाली तथा भावमयी एवं संवेदनाओं से ओतप्रोत है, आशा करती हूँ कि वे अवश्य पाठकों को आकर्षित करेगी। चित्ताकर्षक आवरण वाले इस काव्य संग्रह हेतु उन्हें मैं दिल से बधाई देती हॅू।

समीक्षक – सुश्री मनोरमा पंत, भोपाल (मध्यप्रदेश) 

 ≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 133 – “तूफानों से घिरी जिंदगी” – श्री हरि जोशी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है श्री हरि जोशी जी की आत्मकथा “तूफानों से घिरी जिंदगी” पर पुस्तक चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 133 ☆

“तूफानों से घिरी जिंदगी” – श्री हरि जोशी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

तूफानों से घिरी जिंदगी, आत्म कथा

हरि जोशी

प्रकाशक इंडिया नेट बुक्स, नोएडा दिल्ली

पृष्ठ २१८, मूल्य ४०० रु

चर्चा… विवेक रंजन श्रीवास्तव, भोपाल

मेरी समझ में हम सब की जिंदगी एक उपन्यास ही होती है. आत्मकथा खुद का लिखा वही उपन्यास होता है. वे लोग जो बड़े ओहदों से रिटायर होते हैं उनके सेवाकाल में अनेक ऐसी घटनायें होती हैं जिनका ऐतिहासिक महत्व होता है, उनके लिये गये तात्कालिक निर्णय पदेन गोपनीयता की शपथ के चलते भले ही तब उजागर न किये गये हों किंतु जब भी वे सारी बातें आत्मकथाओ में बाहर आती हैं देश की राजनीति प्रभावित होती है. ये संदर्भ बार बार कोट किये जाते हैं. बहु पठित साहित्यकारों, लोकप्रिय कलाकारों की जिंदगी भी सार्वजनिक रुचि का केंद्र होती है. पाठक इन लोगों की आत्मकथाओ से प्रेरणा लेते हैं. युवा इन्हें अपना अनुकरणीय पाथेय बनाते हैं.

हिन्दी साहित्य में पहली आत्मकथा के रूप में बनारसी दास जैन की सन १६४१ में रचित पद्य में लिखी गई ” अर्ध कथानक ” को स्वीकार किया गया है. यह ब्रज भाषा में है. बच्चन जी की आत्मकथा क्या भूलूं क्या याद करूं, नीड़ का निर्माण फिर, बसेरे से दूर और दशद्वार से सोपान तक ४ खण्डों में है. कमलेश्वर ने भी ३ किताबों के रूप में आत्मकथा लिखी है. महात्मा गांधी की आत्मकथा सत्य के प्रयोग,बहुचर्चित है.  हिन्दी व्यंग्यकारों में भारतेंदु हरीशचंद्र की कुछ आप बीती कुछ जगबीती, परसाई जी ने हम इक उम्र से वाकिफ हैं, तो रवीन्द्र त्यागी की आत्मकथा वसंत से पतझड़ तक पठनीय पुस्तकें हैं. ये आत्मकथायें लेखकों के संघर्ष की दास्तान भी हैं और जिंदगी का निचोड़ भी.

सफल व्यक्तियों की जिंदगी की सफलता के राज समझना मेरी अभिरुचि रही है. उनकी जिंदगी के टर्निंग पाइंट खोजने की मेरी प्रवृति मुझे रुचि लेकर आत्मकथायें पढ़ने को प्रेरित करती है. इसी क्रम में मेरे वरिष्ठ हरि जोशी जी की सद्यः प्रकाशित आत्मकथा तूफानों से घिरी जिंदगी,पढ़ने का सुयोग बना तो मैं उस पर लिखे बिना रह न सका. मेरी ही तरह हरि जोशी जी भी  इंजीनियर हैं, उन्होंने मेरी किताब “कौआ कान ले गया” की भूमिका लिखी थी. फोन पर ही सही पर उनसे जब तब व्यंग्य जगत के परिदृश्य पर आत्मीय चर्चा भी हो जाती हैं.

यह आत्मकथा तूफानों से घिरी जिंदगी  दादा पोता संवाद के रूप में अमेरिका में बनी है. हरि जोशी जी का बेटा अमेरिका में है, वे जब भी अमेरिका जाते हैं छह महिनो के लम्बे प्रवास पर वहां रहते हैं. जब उनसे ६५ वर्ष छोटे उनके पोते सिद्धांत ने उनसे उनकी जिंदगी के विषय में जानना चाहा तो उसके सहज प्रश्नो के सच्चे उत्तर पूरी ईमानदारी से वे देते चले गये और कुछ दिनो तक चला यह संवाद उनकी जिंदगी की दास्तान बन गया. एक अमेरिका में जन्मा वहां के परिवेश में पला पढ़ा बढ़ा किशोर उनके माध्यम से भारत को, अपने परिवार पूर्वजों को, और अपने लेखक व्यंग्यकार दादा को जिस तरह समझना चाहता था वैसे कौतुहल भरे सवालों के जबाब जोशी जी ने देकर सिद्धांत की कितनी उत्सुकता शांत की और उसे कितने साहित्यिक संस्कार संप्रेषित कर सके यह तो वही बता सकता है, पर जिन चैप्टर्स में यह चर्चा समाहित की गई है वे कुछ इस तरह हैं, आत्मकथा का प्रारंभ खंड हरि जोशी जी का जन्म ठेठ जंगल के बीच बसे आदिवासी बहुल गांव खूदिया, जिला हरदा में हुआ था, शिशुपन की कुछ और स्मृतियाँ सुनो, कीचड़ के खेल बहुत खेले,  हरदा,  भोपाल, दुष्यंत जी की प्रथम पुण्यतिथि पर धर्मयुग में जोशी जी की ग़ज़ल का प्रकाशन,  इंदौर,  उज्जैन, दिल्ली  जहां जहां वे रहे वहां के अनुभवों पर प्रश्नोत्तरों को उसी शहर के नाम पर समाहित किया गया है. रचनात्मक योगदान और लेखक व्यंग्यकार हरि जोशी को समझने के लिये हिंदी लेखक खंड, सहित्यकारों से भेंट, विश्व हिंदी सम्मेलन में मध्यप्रदेश का प्रतिनिधित्व, गोपाल चतुर्वेदी जी के व्यंग्य में नैरन्तर्य और उत्कृष्टता, मुम्बइया बोली के प्रथम लेखक यज्ञ शर्मा, अज्ञेय जी की वह अविस्मरणीय मुद्रा, वृद्धावस्था और गिरता हुआ स्वास्थ्य, बाबूजी मोजे ठंड दूर नहीं करते, ठिठुराते भी हैं, कोरोना काल “मेरी प्रतिनिधि रचनायें”, वृद्धावस्था के निकट, परिजन संगीत और साहित्य, लंदन, अमेरिका, पिछले दिनों फिर एक तूफानी समस्या,और अंत में  अमेरिका में मृत्यु पर ऐसा रोना धोना नहीं होता जैसे चैप्टर्स अपने नाम से ही कंटेंट का किंचित परिचय देते हैं. इस बातचीत में साफगोई, ईमानदारी और सरलता से जीवन की यथावत प्रस्तुति परिलक्षित होती है.

कभी कभी लगता है कि आम आदमी के हित चिंतन का बहाना करते राजनेता जो जनता के वोट से ही नेता चुने जाते हैं, पर किसी पद पर पहुंचते ही कितने स्वार्थी और बौने हो जाते हैं, जोशी जी ने 1982 में अपने निलंबन का वृतांत लिखते हुए तत्कालीन मुख्य मंत्री जी का नाम उजागर करते हुए लिखा है कि तब उन्हे सरकारी आवास आवंटित था, उस आवास पर एक विधायक कब्जा चाहते थे, इसलिए जोशी जी की रचना “रिहर्सल जारी है” को आधार बनाकर उन्होंने मुख्य मंत्री जी से उनका स्थानांतरण करवाना चाहा, उस रचना में किसी का कोई नाम नहीं था, और पूर्व आधार पर जोशी जी के पास कोर्ट का स्थगन था फिर भी विधायक जी पीछे लगे रहे, और अंततोगत्वा जोशी जी का निलंबन मुख्य मंत्री जी ने कर दिया । पुनः उनकी रचना दांव पर लगी रोटी छपी, विधान सभा में जोशी जी के प्रकरण पर स्थगन प्रस्ताव आया  ।

1997 में जब जबलपुर में भूकंप आया तो उनकी रचना नव भारत टाइम्स के दिल्ली, मुंबई संस्करण में छपी ” श्मशान और हाउसिंग बोर्ड का मकान ” इसपर तत्कालीन  राज्य मंत्री जी ने शासन की ओर से उनके विरुद्ध मानहानि का  दावा शुरू कर दिया था ।

वे बेबाक व्यंग्य लेखन के खतरे झेलने वाले रचनाकार हैं। अस्तु, अंततोगत्वा जोशी जी की कलम जीती, आज वे सुखी सेवानिवृत जीवन जी रहे हैं। पर उनकी जिंदगी सचमुच बार बार तूफानों से घिरी रही । आत्मकथा के संदर्भ में

 लिखना चाहता हूं कि यदि इसमें  शहरों, देश,  स्थानों के नाम से चैप्टर्स के विभाजन की अपेक्षा बेहतर साहित्यिक शीर्षक दिये जाते तो आत्मकथा के साहित्यिक स्वरूप में श्रीवृद्धि ही होती. आज के ग्लोबल विलेज युग में हरदा के एक छोटे से गांव से निकले हरि जोशी अपनी  प्रतिभा के बल पर इंजीनियर बने, जीवन में साहित्य लेखन को अपना प्रयोजन बनाया, व्यंग्य के कारण ही उनहें जिंदगी में तूफानों, झंझावातों, थपेड़ों से जूझना पड़ा पर वे बिना हारे अकेले ईमानदारी के बल पर आगे बढ़ते रहे, तीन कविता संग्रह, सोलह व्यंग्य संग्रह, तेरह उपन्यास आज उनके नाम पर हैं ।

उन्हें व्यंग्य लेखन के कारण जो समस्याएं आईं वे व्यंग्यकार की परीक्षा होती हैं, स्वयं मुझे नौकरी में तो व्यंग्य इतना बाधक नहीं बन सका क्योंकि मैंने कार्यालय और लेखन को हमेशा बिलकुल पृथक रखने का यत्न किया, जब प्रारंभ में कुछ पत्राचार मेरे अधिकारियों ने किया तो मैंने अभिव्यक्ति की आजादी के संवैधानिक प्रावधान तथा फंडामेंटल सर्विस रूल्स में लिटररी वर्क संबंधी नियम बताकर कानूनी जानकारी अपने जबाब में दे दी। पर अनेक संगठनों समय समय पर मेरे लेखन से आहत होते रहे और मैं इसे अपनी लेखकीय सफलता मान और अधिक प्रहार कारी लेखन करता रहा । इससे मेरी अपनी कार्यप्रणाली स्पष्ट और नियमानुसार कार्य करने की बनी तथा मेरी छबि स्वच्छ बनती गई,  मैने कभी अपने पास किसी फाइल को  लटकाया नही । लोग मुझसे अव्यक्त रूप से डरने भी लगे कि कहीं उन पर कुछ लिख न दूं । खैर ।

 हिन्दी व्यंग्य जगत की ओर से मेरी मंगलभावना है कि जोशी जी की किताबो की  यह सूची अनवरत बढ़ती रहे. इन दिनों वे मजे में अपनी सुबहें धार्मिक गीत संगीत से प्रारंभ करते हैं. मैं अक्सर कहा करता हूं कि यदि प्रत्येक दम्पति सुसभ्य संवेदनशील बच्चे ही समाज को दे सके तो यह उसका बड़ा योगदान होता है,हरि जोशी जी ने सुसंस्कारित सिद्धांत सी तीसरी नई पीढ़ी और अपना ढ़ेर सारा पठनीय साहित्य समाज को  दिया है, वे अनवरत लिखते रहें यही शुभ कामना है. यह आत्मकथा अंतरराष्ट्रीय संदर्भ बने.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ बाल उपन्यास ‘धरोहर’ – सुश्री सुकीर्ति भटनागर ☆ समीक्षा – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं।आज प्रस्तुत है सुश्री सुकीर्ति भटनागर जी  के बाल उपन्यास “धरोहर” की पुस्तक समीक्षा।)

☆ पुस्तक चर्चा ☆ बाल उपन्यास ‘धरोहर सुश्री सुकीर्ति भटनागर ☆ समीक्षा – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

उपन्यास- धरोहर 

उपन्यासकार- सुकीर्ति भटनागर 

प्रकाशक- साहित्यकार, धमाणी मार्केट की गली, चौड़ा रास्ता, जयपुर (राजस्थान) 302003 मोबाइल नंबर 93142 02010

पृष्ठ संख्या- 114 

मूल्य- ₹250

समीक्षक ओमप्रकाश क्षत्रिय प्रकाश‘, 

☆ समीक्षा- धरोहर के महत्व को रेखांकित करता उपन्यास ☆

उपन्यास का लेखन सबसे सरलतम विधा है। मगर उसके कथानक की बनावट और उपकथाओं का सृजन अपेक्षाकृत कठिन कार्य है। यदि इसका सृजन सरलता, सहजता व प्रवाह के साथ कर लिया जाए तो उपन्यास की रचना पूरी हो जाती है। तभी उपन्यास की गल्प रचना मुकम्मल और उत्कृष्ठ होती है।

उपन्यासकार को उपन्यास के कथानक में लिखने यानी विचार व्यक्त करने की संपूर्ण आजादी मिली होती है। वह अपने भावों, अपने विचारों और मनोरथ को अपनी मर्जी से उपन्यास की कथावस्तु में पिरो सकता है। उसका जो मन्तव्य हो उससे उपन्यास में डाल सकता है। इसी मन्तव्य से उपन्यास की सार्थकता सिद्ध होती है।

यदि बड़ों के लिए उपन्यास लिखा जाए तो उसमें संपूर्ण लेखकीय आजादी से कार्य किया जा सकता है। मगर यदि उपन्यास लेखन बालकों के लिए किया जाना है तो वह सबसे दुरुह यानी कठिन कार्य होता है। बच्चों के लिए लिखने में लेखक को बच्चा बनना पड़ता है। तब बच्चों के लिए लेखन किया जा सकता है।

बच्चों के लिखे लिए लिखे जाने वाले गल्फ के लिए उसकी कथा बहुत स्पष्ट होनी चाहिए। वह बच्चों को स्पष्ट रुप में समझ में आ जाए। उसमें कोई कहानी हो। वह उसे अपनी-सी लगे। तभी बच्चा उपन्यास पढ़ने को लालयित होता है।

बच्चों के उपन्यास का आरंभ रोचक कथावस्तु के साथ होना चाहिए। उसे पढ़ते ही बच्चे में उत्सुकता जागृत हो जाए। वह आरंभ पढ़ते ही पूरा उपन्यास पढ़ने को लालयित हो। उस भाग के आरंभ के साथ एक जिज्ञासा का आरंभ और अंत में समाधान हो जाए। दूसरे भाग में दूसरी जिज्ञासा का आरंभ हो जाए। यह सिलसिला हरेक भाग में चले, तभी उपन्यास सार्थक होता है।

उपन्यास की भाषा शैली सरस, सहज हो। उसमें रस की प्रधानता हो। वाक्य छोटे-छोटे हो। इस दृष्टि से प्रस्तुत उपन्यास धरोहर की समीक्षा करते हैं। जिसको लिखा है प्रसिद्ध उपन्यासकार सुकीर्ति भटनागर जी ने। उपन्यास को इस कसौटी पर करते हैं तब हम देखते हैं कि धरोहर उपन्यास की अपनी एक स्पष्ट कथावस्तु है। यह आरंभ से ही इसकी कथा में उत्सुकता जगाए रखती है।

उपन्यास का कथानक स्पष्ट है। एक गांव में कुछ अनिष्ट और अनैतिक रूप से घटित घटना होती है। जिसका समाधान धरोहर उपन्यास का बालपात्र अपने हिसाब व तरीके से करता है। इसी कथानक पर पूरे उपन्यास की कथावस्तु को बुना गया है।

उपन्यास के बाल पात्र अपनी समझ के अनुरूप समस्या का निरूपण करते हैं। उसी समस्या के द्वारा इसके सहायक पात्र उस समस्या का समाधान तक पहुँचते हैं। इस बीच अनेक उतार-चढ़ाव व समस्याएं आती हैं। उनका समाधान भी होता चला जाता हैं।

मसलन- उपन्यास की हरेक भाग में एक समस्या आती है। उसका समाधान अंत में हो जाता है। तत्पश्चात दूसरे भाग में दूसरी समस्या उत्पन्न होती है। उसका समाधान के साथ एक अन्य नई समस्या उत्पन्न हो जाती है।

इस तरह पूरा उपन्यास सरल, सहज व प्रवाहमई गति से जिज्ञासा जगाते हो आगे बढ़ता है।

उपन्यास की भाषा सरल व सहज है। कहीं-कहीं मुहावरेदार भाषा का प्रयोग किया गया है। जहां आवश्यक हुआ है वर्णन के साथ-साथ उपयुक्त संवाद का प्रयोग किया गया है।

कुल मिलाकर देश की धरोहर की अनमौलता और उसकी उपयुक्तता को सहेजने के रूप में लिखा गया उपन्यास पाठकीय दृष्टि से बेहतर बन पड़ा है। 114 पृष्ठ के उपन्यास का मूल्य ₹250 बालकों के हिसाब से ज्यादा है।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

19-02-2023

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 132 – “इदम् न मम्” – डा संजीव कुमार ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है डा संजीव कुमार जी की पुस्तक इदम् न मम्पर पुस्तक चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 132 ☆

☆ “इदम् न मम्” – डा संजीव कुमार ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

इदम् न मम्

हिंदी साहित्यकारों से मानक साक्षात्कार

संपादक संजीव कुमार

प्रकाशक इंडिया नेटबुक्स

पृष्ठ 348, मूल्य 475रु

चर्चा… विवेक रंजन श्रीवास्तव, भोपाल

हिंदी साहित्य में शोध, इतिहास, आलोचना में साक्षात्कार, पत्र, संस्मरण का महत्व निर्विवाद है । शोधार्थी इसके आधार पर अपने निष्कर्ष और  मंतव्य प्रतिपादित करते आए हैं।  भिन्न-भिन्न प्रश्नों के माध्यम से अलग अलग साहित्यकारों से किये गए अनेक साक्षात्कार चर्चित रहे हैं ।

डा संजीव कुमार न केवल एक अच्छे लेखक और कवि हैं वे एक मिलनसार साहित्यिक पत्रकार भी हैं ।  उनके ढेरों साहित्यकारों से आत्मीय संबंध हैं । उन्होंने प्रस्तुत किताब में अनूठा प्रयोग किया । एक शोधार्थी की तरह उन्होंने रचनाकारों के जीवन, लेखन, अभिव्यक्ति को लेकर एक प्रश्नावली बनाई,और उसी प्रश्नावली से वीडियो तथा लिखित साक्षात्कार शताधिक समकालीन साहित्य में सक्रिय भागीदारी कर रहे लोगों से लिए हैं । इन साक्षात्कारों को यू ट्यूब पर भी सुना देखा जा सकता है । प्रस्तुत किताब में ये 102 साहित्यिक साक्षात्कार संकलित हैं।  रचनाकारों के तुलनात्मक अध्ययन और शोध हेतु ये  पुस्तक महत्वपूर्ण बन गई है ।

पाठक अपने सुपरिचित  साहित्यकार के बारे में और उनकी विचारधारा के बारे में इस किताब के जरिए जान सकते हैं।

इस अध्ययन में जो मानक प्रश्नावली बनाई गई उसके कुछ सवाल इस तरह हैं,  साहित्य सृजन में आपकी रुचि कैसे उत्पन्न हुई? किस साहित्यकार से आपको लिखने की प्रेरणा मिली? आपकी पहली रचना क्या थी और कब प्रकाशित हुई थी?  साहित्य की किस किस विधा में आपने काम किया है? और किस विधा में आपकी रुचि सर्वाधिक है? आपने कविता या कहानी में चुनाव कैसे किया? आदि आदि

जिन रचनाकारों से साक्षात्कार इस किताब में शामिल हैं उनमें दिविक रमेश,  माधव सक्सेना, हरीश कुमार सिंह ,किशोर दिवसे, लता तेजेश्वर रेणुका, प्रभात गोस्वामी,  रमाकांत शर्मां, संदीप तोमर, सीमा असीम, कमलेश भारतीय, सी. कोमलावा, स्नेहलता पाठक, हरिसुमन विष्ट, रंगनाथ द्विवेदी, सरस दरबारी, श्यामसखा श्याम, विवेक रंजन श्रीवास्तव,सुरेश कुमार मिश्रा, रमाकांत ताम्रकार,अनिता कपूर चन्द्रकांता, अजय शर्मा, गीतू गर्ग,किशोर श्रीवास्तव,मनोज ठाकुर, समीक्षा तेलांग, सविता चड्डा,सुनील जैन राही, प्रो राजेश कुमार, प्रबोध कुमार गोविल, धर्मपाल महेंद्र जैन, नीरज दईया, अरविंद तिवारी, ममता कालिया जैसे कई नाम हैं ।आशा है यह अनूठा संकलन साहित्य के अध्येताओं को पसंद आएगा और बहु उपयोगी होगा ।

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 131 – “कोणार्क” – डा संजीव कुमार ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है डा संजीव कुमार जी की पुस्तक “कोणार्क ” पर पुस्तक चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 131 ☆

☆ “कोणार्क” – डा संजीव कुमार ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

कोणार्क

डा संजीव कुमार

इंडिया नेट बुक्स,नोयडा

मूल्य १७५ रु, पृष्ठ ११६

चर्चा… विवेक रंजन श्रीवास्तव, भोपाल

कोणार्क पर हिन्दी साहित्य में बहुत कुछ लिखा गया है. कोणार्क मंदिर के इतिहास पर परिचयात्मक किताबें हैं. प्रतिभा राय का उपन्यास कोणार्क मैंने पढ़ा है. जगदीश चंद्र माथुर का नाटक “कोणार्क” भी है. स्फुट लेख और अनेक कवियों ने कोणार्क पर केंद्रित कवितायें लिखी हैं. इसी क्रम में साहित्य सेवी डा संजीव कुमार ने कोणार्क नाम से हाल में ही मुक्त छंद में कविता संग्रह या बेहतर होगा कि कहें कि उन्होने खण्ड काव्य लिखा है.

पुरी और भुवनेश्वर मंदिरों की नगरियां है. कोणार्क सूर्य मंदिर ओडिशा के पुरी में आज से लगभग ९०० वर्षो पूर्व बनवाया गया था. पुरातत्वविदों के अनुसार यह कलिंग शैली में बना मंदिर है. यह स्वयं में अनूठा है, क्योंकि मंदिर  रथ की आकृति में हैं.  12 जोड़ी भव्य विशाल पहियों की आकृतियां  हैं, 7 घोड़े रथ को खींच रहे हैं. इस दृष्टि से सूर्य देव के रथ की आध्यात्मिक भारतीय कल्पना को मूर्त रूप दिया गया है. समुद्र तट पर मंदिर इस तरह निर्मित है कि सूरज की पहली किरण मंदिर के प्रवेश द्वार पर पड़ती है. समय की आध्यात्मिकता दर्शाते कोणार्क की कहानी रोचक है. इस मंदिर को वर्ष 1984 में यूनेस्को ने विश्व धरोहर स्थल घोषित किया था. इस महत्व के दृष्तिगत कोणार्क पर लिखा जाना सर्वथा प्रासंगिक है. मैने पर्यटन के उद्देश्य से कोणार्क की सपरिवार यात्रा की है. वहां मोमेंटो की दूकानो पर कोणार्क पर लिखी किताबें भी देखी थीं, उनमें एक श्रीवृद्धि डा संजीव कुमार की किताब से और हो गई है.

कोणार्क का मंदिर तो बना पर,आज तक वहां कभी विधिवत पूजा नहीं हुई. इसी तरह  भोपाल के निकट भोजपुर में भी एक विशालतम शिवलिंग की स्थापना की गई थी पर वहां भी  आज तक  कभी विधिवत पूजा नहीं हुई. कोणार्क को  लेकर किवदंतियां हमेशा से ही लोगों के बीच चर्चित रही हैं. ये ही कथानक संजीव जी की कविताओ की विषय वस्तु हैं. खजुराहो की ही तरह मंदिर की बाहरी दीवारों पर रति रत मूर्तियां हैं, जो  संदेश देती हैं कि परमात्मा का सानिध्य पाना है तो भीतर झांको किन्तु वासना को बाहर छोडकर आना होगा.

संजीव जी मंदिर के महा शिल्पी को इंगित करते हुये लिखते हैं

समेटे अपने आँचल में

खड़ा है आज भी

एक कालखंड

जिसमें निहित थी

कल्पना की उड़ान

नभ पर उड़ते सूर्य को

अपनी धरती पर उतार लाने का स्वप्न

जो अपनी अभिनवता में

भर लाया होगा।

उत्साह का पारावार और कल्पना के उत्कर्ष

उकेर गया होगा

उन पत्थरों पर

जो हो उठा जीवंत

कला की प्राचुर्यता के साथ विभिन्न मुद्राओं में

जीवन की भंगिमाओं में

मैने स्व अंबिका प्रसाद दिव्य का उपन्यास खजुराहो की अतिरूपा पढ़ा था. उसमें वे कल्पना करते हैं कि शिल्पी ने अतिरूपा को विभिन्न काम मुद्राओ में सामने कर उन जीवंत मूर्तियों को देह के प्रेम की  व्याख्या हेतु तराशा रहा होगा.

कवि डा संजीव कुमार भी लिखते हैं

संगिका थी वह

 मेरे बचपन की

 जिसे पाया था मैंने

 बाल हठ से

 कितने ही वर्षों के बाद

 और आज

 हमारी देहों का

 कण कण

 महकता था

 हमारे प्रेम का साक्षी बनकर

 हमने खेले थे

 बचपन के खेल भी

 और तरूणाई की केलि भी

 पर यौवन हो गया

 समर्पित

 किसी राजहठ को

 और बस

 एक असंभव को

 संभव बनाने में

विभिन्न कविताओ से गुजरते हुये कोणार्क के महाशिल्पी उसके पुत्र की कथा चित्रमय होकर पाठक के सम्मुख उभरती है. 

मंदिर की वर्तमान भग्नावस्था को देख वे लिखते हैं…

 काश! उग सकता

 वह स्वप्न आज भी

 इन भग्नावशेषों के बीच

 जहाँ उतरता

 किरणों भरा रथ

 दिवाकर का

 और जाज्वल्यमान

 हो उठता

 भारत का कण क

 बरस जाती चेतनता विहस पड़ता

 नव जीवन

 उसी कोणार्क के उच्च शिखरों से

 भुवन भर में

 और नवचेतना

 संगीत लहरियों में बसकर

 हवा में बहती.

कोणार्क पर काव्य रूप में लिखी गई पुस्तकों में यह एक बेहतरीन कृति है, जिसके लिये डा संजीव कुमार बधाई के सुपात्र हैं.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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