हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ बाल कहानी संग्रह ‘जादुई बगीचा ‘ – सुश्री उषा सोमानी ☆ समीक्षा – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं।आज प्रस्तुत है सुश्री उषा सोमानी जी  के बाल कहानी संग्रह जादुई बगीचा” की पुस्तक समीक्षा।)

☆ पुस्तक चर्चा ☆ बाल कहानी संग्रह ‘जादुई बगीचा’ – सुश्री उषा सोमानी ☆ समीक्षा – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’’ ☆

पुस्तक- जादुई बगीचा (बालकहानी-संग्रह)

कहानीकार-  सुश्री उषा सोमानी

प्रकाशक- साहित्यकार, धामणी मार्केट की गली, चौड़ा रास्ता, जयपुर 

मोबाइल नंबर 93142 02010

पृष्ठ संख्या- 120

मूल्य- ₹200

समीक्षक ओमप्रकाश क्षत्रिय प्रकाश

☆ समीक्षा- जादुई बगीचे में फूलों से सजी कहानियां☆

आपको कहानी सुनाना आना चाहिए। लिखना अपने आप आ जाता है। कहानी, कहानी सुनाने में छुपी रहती है। कहानी कब मस्तिष्क में चढ़कर बोलने लगती है, कहा नहीं जा सकता हैं। जी हां। आपने ठीक समझा। एक ऐसी ही कहानीकारा है उषा सोमानी जी।

इन्होंने कहानी सुनाते-सुनाते कहानी लिखना शुरू किया। फिर लिखती ही चली गई। जिसकी परिणीति ‘जादुई बगीचा’- बालकहानी संग्रह के रूप में हुई। इस बालकहानी संग्रह में 23 कहानियों का गुलदस्ता सजाकर उन्होंने हमारे समक्ष प्रस्तुत किया है।

बहुत ही सुंदर आकर्षक कवर से सजे इस कहानी संग्रह की बढ़िया कहानी हैं- गुम हुए जुगनूओं की चमक। यह पर्यावरण का संदेश देती हुई बेहतरीन कहानी है। इसमें वर्णित दृश्यांकन का चित्रण बहुत ही बढ़िया किया गया है।

इस संग्रह की दूसरी बढिया कहानी है- फड़फड़ भूत। सरल, सहज और रोचक शब्दों में कही गई यह एक अच्छी कहानी है। इसमें जिज्ञासा है। प्रवाह है। सरलता है और कहानी कहने का बहुत ही रोचक ढंग है।

गिरगिट रेस जीत गया- कहानी में बच्चों की गप को आधार बनाकर एक बहुत ही बढ़िया कहानी लिखी है। इसमें रोचकता और प्रवाह अंत तक बना रहता है।

ओल्ड इज गोल्ड- इस कथानक पर डाइनिंग टेबल के बहाने आपने बहुतसी भावनात्मक यादों को बच्चों के समक्ष रखने में सफलता प्राप्त की है।

नारियल की गवाही-शीर्षक कहानी हमारे मन में पढ़ने के लिए उत्सुकता जगाती है। इस उत्सुकता में पाठक कहानी को अंत तक पढ़ जाता है। तब उसे मालूम होता है नारियल ने गवाही कैसे दी?

जहां चाह, वहां राह- एक आदिवासी बच्चे की मदद को प्रेरित करती हुई बढ़िया कहानी। बदलाव- कहानी में शरारती प्रवृत्ति को प्रमुखता से उठाया गया है। बच्चे अक्सर स्कूल में शरारत करते हैं। मगर शरारत का आप का प्रयोग अभिनव व नया है।

कुदरत का करिश्मा- में बच्चों की एक अनोखी प्रवृत्ति का उल्लेख किया गया है। आजकल बच्चे मुहावरे भूलते जा रहे हैं। उन्हें मुहावरे का अर्थ और मुहावरें याद नहीं रहते हैं। आपने -कुदरत का करिश्मा, कहानी में मुहावरा का अच्छा प्रयोग किया है।

सूझबूझ ने बचाई जान- कहानी में एक यादगार जानकारी अनोखे रूप से दी गई है। इस कारण वह जानकारी स्थाई रुप से दिमाग में बैठ जाती है। आपने इसी का उपयोग करके 108 एंबुलेंस की जानकारी को कहानी में पिरोया है। आपका यह प्रयास अति उत्तम है।

खिल गए रंग- किसी दूसरे के चेहरे पर खुशियों की मुस्कान लाने की शानदार कौशिश है। आज की भागमभाग युग में यह अब नहीं हो पा रहा है। इसी को सीख देती बेहतरीन कहानी के लिए हार्दिक बधाई।

जादुई बगीचा- बच्चे जादू को बहुत पसंद करते हैं। उन्हें खेलना, कूदना और रेस लगाना अच्छा लगता है। इसी भाव को पिरोते हुए आपने अच्छी कहानी कही है।

देख कर जी ललचाए- गिन्नी बिल्ली की यह शुद्ध मनोरंजन कहानी बहुत ही अच्छी बनी है। इससे बच्चों का अच्छा मनोरंजन होता है।

लौट के घर आई राजकुमारी- बच्चों को कल्पना की उड़ान कराती बहुत ही अच्छी कहानी कही है। इसमें परंपरागत रूप से जादू का बहुत ही अच्छा उपयोग किया है।

जलपरी से मुलाकात- इस कहानी में बच्चों में जलपरी से मुलाकात की जिज्ञासा को जागृत किया है। यह होती भी है या नहीं? बहुत कुछ जानने को उत्सुक जगाती कहानी है।

दोहरी फसल- धान की रोपाई के साथ दोस्ती की फसल। एक अनोखा संगम। बहुत बढ़िया कहानी हैं।

महंगी पड़ी शरारत- शरारत को दर्शाती यह कहानी जानदार और जानकारी पूर्ण है। कैटरपिलर और उसके काँटे के बारे में आपने बहुत खूब लिखा है।

हौसले की उड़ान- चिंकी के हौसले की उड़ान को आपने क्रिकेट की कहानी में बहुत ही खूबसूरती से पिरोया है।

पेड़ों का रसोईघर- प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया को बहुत ही सीधे, सरल सहज व सीधे ढंग में समझाया गया है। यह कहानी की एक बहुत ही बड़ी विशेषता है।

फूल फिर मुस्कराने लगे- परी के द्वारा बगीचे और फूलों को लेकर एक बहुत ही बढ़िया कथानक बुना गया है। इसमें फूलों की चिंता और उनके मनोरंजन को बहुत खूबसूरती से उल्लेख किया गया है।

मिस मुर्गी की दुकान- यह बहुत ही मनोरंजक और दिलचस्प कहानी है। ऐसी कहानियां बच्चे बहुत पसंद करते हैं। मित्र की पहचान- मुसीबत में ही सच्चे मित्र की पहचान होती है। इसी कथानक को लेकर बुनी गई आपकी यह कहानी बिल्कुल सरल, सहज व अच्छी है।

गधे का सपना- अपनी उपयोगिता सिद्ध करने को लेकर लिखी गई बहुत ही अच्छी कहानी। हरेक की अपनी उपयोगिता और सर्व श्रेष्ठता होती है। यही कहानी दर्शाती है। डॉ राधाकृष्णन- डॉक्टर राधाकृष्णन पर शिक्षक दिवस पर लिखी गई सार-संक्षिप्त और बढ़िया कहानी है।

उत्तम आवरण से सजे इस कहानी संग्रह में बीच-बीच में रेखा चित्र दिए गए हैं। उत्तम साजसज्जा एवं त्रुटिरहित छपाई ने कहानी संग्रह की पठनीयता में वृद्धि की है। इस संग्रह के लिए आपको हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

26-03-2023

मित्तल मोबाइल के पास, रतनगढ़,  जिला- नीमच (मध्य प्रदेश), पिनकोड-458226 

मोबाइल नंबर 7024047675, 8827985775

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆ “नासमझ मन – भज मन” – डॉ. मालती बसंत ☆ सुश्री मनोरमा पंत ☆

सुश्री मनोरमा पंत  

📖 पुस्तक चर्चा 📖

☆ “नासमझ मन – भज मन” – डॉ. मालती बसंत ☆ समीक्षक – सुश्री मनोरमा पंत ☆

पुस्तक चर्चा

पुस्तक – नासमझ मन – भज मन

लेखिका – डॉ. मालती बसंत

प्रकाशक आईसेक्ट पब्लिकेशन

मूल्य – रु 250  

डॉ. मालती बसंत

(एम.ए., एम.एड, पी.एच.डी, डी.सी.एच., एन.डी (योग एवं प्राकृतिक चिकित्सा) जैसी उपाधियों से विभूषित डॉ. मालती बसंत के दो कहानी-संग्रह, तीन लघुकथा-संग्रह, चौदह बाल कहानी संग्रह, तीन बाल उपन्यास, एक बाल नाटक संग्रह, एक कविता संग्रह, एक हास्य व्यंग्य संग्रह प्रकाशित हो चुका है।

आकाशवाणी भोपाल, इन्दौर, तथा छतरपुर से निरन्तर रचनाओं का प्रसारण होता रहा है ।

भारत सरकार के विभिन्न विभागों, म.प्र. साहित्य अकादमी द्वारा अनेको महत्वपूर्ण सम्मानों से विभूषित मालती जी को महामहिम राष्ट्रपति अब्दुल कलाम बाल साहित्यकार के रूप में चर्चा हेतु राष्ट्रपति भवन में आमंत्रित कर चुके हैं। इनके साहित्य पर शोधकार्य भी हो चुके हैं। मारीशस और लदंन की साहित्यिक यात्राएँ मालती जी के साहित्य के महत्व को पुष्ट करती हैं।)

☆ “नासमझ मन – भज मन” – डॉ. मालती बसंत ☆ समीक्षक – सुश्री मनोरमा पंत ☆

आज मेरे समक्ष प्रसिद्ध लघुकथाकार, कहानीकार, कवयित्री मालती बंसत का काव्य संग्रह “नासमझ मन-भज मन” है।

पुस्तक के पृष्ठ पलटते ही पढ़ा ”पचास वर्षो की साहित्यिक यात्रा में मिले सह यात्रियों को समर्पित।” किताब का साहित्यिक साथियों को सम्पर्ण मुझे अभिभूत कर गया। यह समर्पण उनके व्यक्तिगत औदार्य को उद्घाटित करता है। उनका आत्मकथ्य भी अर्न्तमन को उद्वेलित कर जाता है, जिसमें वे वेबाकी से लिखती हैं-

साहित्यकार की प्रथम रचना कविता ही होती है। स्वयं को इंगित करती हुई वे कहती है ”मन की पर्वत पीड़ा सी सघन क्षणों की भावों की अभिव्यक्ति कविता के रूप में झरनों से फूट पड़ती है। इस आत्म कथ्य को पढ़ते ही मैं समझ गई कि मालती जी की कविताएं पीड़ा, दुख के संवेदों से परिपूर्ण होगी । जिस प्रकार का वाष्प से घनी भूत बादल अन्ततः बरस ही जाते हैं, वैसे ही वर्षों से उनके मन की पीड़ा भोगे हुए दर्द के घनी भूत बादल अन्ततः इस काव्य संग्रह के रूप में बरस ही गये। इस संग्रह में उनके विगत पचास वर्षों के जीवन के अनुभव की अनुभूति है, निष्कर्ष है दुख-सुख दोनों के हैं। आईये उनकी कविताओं को समझे परखे-

कबीर दास जी ने मन के बारे में लिखा है —

“कबीर, यह तन खेत है, मन कर्म वचन किसान।

पाप पुण्य दो बीज है, क्या बोना है यह तू जान।।”

पाप पुण्य दो बीज है, क्या बोना है यह तो बोने वाला ही जाने। तो मालती जी ने अपने कविता संग्रह में बीज बोए कि उसकी पुण्य फसल से हम सब का जीवन सफल हो गया।

हम सब की जीवन यात्रा मन से ही बातें करती निकल जाती है। मालती जी अधिकांश कविताएं मन को केन्द्र बिन्दु बनाकर लिखी गई है जिसमें दर्द है, उदासी है, वैराग्य है, आध्यात्मिकता है पर दूसरी ओर उनकी कविताओं में बंसत भी छाया है। बंसत पर तो उनकी लगभग दस कविताएं है। बादाम का पेड़, कमलवत रहना, पावस ऋतु  और सखियाँ, धूप के रूप जैसी कविताएं उनके प्रकृति प्रेम को दर्शाती है।

प्रसिद्ध साहित्यकार राय. बेनेट ने कहा है – अपने मन का अनुकरण करो, अपने अंदर की आवाज सुनो और इस बात की परवाह छोड़ दो कि लोग क्या कहेंगे। मालती जी ने यही बात खुले मन और दिमाग से की और निष्कर्ष निकाला इन शब्दों में

      निराशा में रहता था मन

      काँटों में उलझा था मन

      माना अपनों को पराया

      ऐसा था ना समझ मन

      दुख ही तो जीवन का सुख था

      दर्द ही सावन का गीत था

      विरह तो पावन पर्व था।

      कहाँ समझ पाया बौराया मन

सब कुछ अच्छा करने के बाद भी अंत में कुछ नहीं मिलता तो पीड़ा घनी भूत होकर दर्द दर्दीले शब्दों में कह उठती है-

      बहुत अकेला सा है मन

      लिखना चाहता है कहानी अपनी पर लिखे कहां, अब कोई कागज कोरा भी नहीं है।

‘मेरा मन बहुत हारा’ में कवियत्री अपनी घुटन अभिव्यक्त करते हुये कहती है।

      जाने कितने सपने महलों के देखें

      सच में केवल खण्डहर मिले

यही दुख और वेदना उनकी विरह कविताओं में परिलक्षित होती है ।

मालती जी की लगभग नौ कविताएं बिरह का दुःख इतने स्वाभाविक तरीके से बतलाती है कि पाठक स्वयं उस दर्दीले दुख से जुड़ जाता है। बोझ है मन में, वो नहीं आए, बहुत अकेला अकेला सा है मन है, प्रिय तुम्हारे न आने से जैसे कविताओं के शब्द दुख के कांटों के समान मन को विदीर्ण कर देते है।

मन में चुभती यह बात,भावुक मन रोता है, मन योगी हो जाए, जिन्दगी के हिसाब से खुद को ढूंढ रहा हूँ, फूल भी शूल से चुभते है, जैसी कविता के अंश इसके उदाहरण है।

जब उदासी, अवहेलना के बादल छँट जाते है तो कवयित्री बंसत का स्वागत करने जुट जाती है।

”बंसत तुम आना, प्रेम संदेशा लेकर आना तुम्हारा पथ बुहारूंगी।

बसंत खुलकर आओ धरा पर।

मेरे सतरंगी दिन में वे कहती है-

मैं जीना चाहती हूँ आएंगे मेरे दिन, जब मेरे लिये उगेगा सूर्य और चाँद

अपनी कविताओं में उन्होंने स्त्री की जिन्दगी की उठा पटक को दक्षता से दर्शाया है।

औरत के अंदर की छटपटाहट तथा विवशता को बताते हुए उनकी कलम लिखती है।

मैं कहना चाहती हूँ सब बातें।

पर कह नहीं पाती।

बोझ है मन पर कविता में उनका स्त्री मन विकल होकर कह उठता है

      दर्द में डूबा तन हूँ आँसू से भीगा मन है।

      राह चलते चलते थका थका सा है मन

      ठहरे कहाँ, रास्ते में कोई घर भी नहीं।

तस्लीमा नसरीन ने किताब लिखी है औरत का कोई देख नहीं पर मालती जी तो एक कदम आगे बढ़कर कहती है कि राह चलते-चलते थका-थका सा है मन, ठहरे कहां रास्ते में कोई घर भी नहीं?

      काठ की गुड़िया में उनकी मुखर वाणी प्रस्फुटित हो जाती है इस रूप में।

      मैं जननी हूँ कई रूप है मेरे

      फिर भी क्या रह गई।

      मैं क्यों अस्तित्वहीन

      बनकर एक काठ की गुड़िया

पर दूसरे ही क्षण ने आत्म विश्वास से भर कह उठती है-

      एक बौनी लड़की

      छूना चाहती है आकाश

      सारी धरा के शूल समेट

      बिखेर देना चाहती है फूल

वे जानती हैं समस्त पाबंदियों, दबाव, यंत्रणाओं के बावजूद एक औरत के अंदर एक और औरत रहती है। कौन है वह? जाने इन कविता -पंक्तियों में –

      “कविता लिखना बयान है बची है उसके अंदर की औरत

      जो अपनी संपूर्ण भावनाओं के साथ एक इन्द्रधनुष

      मन के क्षितिज पर खींचती है “

जिन्दगी के बारे में सब के अपने-अपने अनुभव होते है पर सभी इस बात में एकमत है कि जिन्दगी एक पहेली है।

मालती जी जिन्दगी के बारे में तराशे गये अलफ़ाजों में कहती है-

“जिन्दगी बड़ी अजब पहेली

सुलझाओ तो उलझ जाती

छोड़ दो तो सुलझ जाती,

आगे की इन पंक्तियों के बेबाकीपन से हर कोई हैरान रह जाता है।

जुड़ जाए तो हीरे मोती, बिखर जाए तो कंकड़ मिट्टी।

आध्यात्मिकता से सरोबार इन शब्दों से जिन्दगी की हकीकत का पता चला जाता है।

जिन्दगी एक सपना,

सपना तो सपना है

बार-बार टूटेगा

फिर इस झूठे सपने से क्या प्यार?

क्षण भंगुर स्वप्नवत जिन्दगी की असलियत समझ वे बोल उठती है।

आओ जिन्दगी सँवारे

भूले दुःख दर्द सारे

कड़वाहट को बुहारे

सुखी रहने का मंत्र बताते हुए वे कहती है –‘रहो निसर्ग के साथ ‘

जिन्दगी का निचोड़ उनसे लिख जाता है – जीवन में एक अभाव दे गया कई भाव ।

अब बात करते है पुस्तक के दूसरे भाग की

मेरा ऐसा मानना है कि काव्य संग्रह का दूसरा भाग ‘भजमन’ प्रथम भाग नासमझ मन का ही निष्कर्ष है। जीवन भर के खट्टे मीठे अनुभवों के पश्चात ही मनुष्य को समझ आता है कि सच में मन नासमझ ही रहा। मालती जी के शब्दों में-

      दुःख ही तो जीवन का सुख था।

      दर्द ही सावन का गीत था।

      कहाँ समझ पाया बौराया मन

      बस अब एकमात्र रास्ता बचा है ईश भक्ति।

वे कहती हैं –

      प्रभु तू सच्चा पथ प्रदर्शक है।

      प्रभु तू ही सही माने में परमात्मा है, परम गुरू है।

आध्यात्मिकता का पुट लिये कविताएं “तुम और मैं ” “प्रभु का उपकार” “श्रीराम कृपा”, “जग को बनाने वाले “मन को ईश भक्ति से सरोबार कर देती है। ईश्वर ही बस एक है तमाम कविताएं बताती है कि ईश्वर सत्य है बाकी सब झूठ है आध्यात्मिक चिंतन, वैराग्य को समेटे जीवन दर्शन का प्राकट्य करती सभी कविताएं मनुष्य की पथ प्रदर्शिका का महती कार्य करती है।

मालती जी सभी कविताएं भाषा शैली के अलंकरण से हीन सीधी सादी भाषा वाली तथा भावमयी एवं संवेदनाओं से ओतप्रोत है, आशा करती हूँ कि वे अवश्य पाठकों को आकर्षित करेगी। चित्ताकर्षक आवरण वाले इस काव्य संग्रह हेतु उन्हें मैं दिल से बधाई देती हॅू।

समीक्षक – सुश्री मनोरमा पंत, भोपाल (मध्यप्रदेश) 

 ≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 133 – “तूफानों से घिरी जिंदगी” – श्री हरि जोशी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है श्री हरि जोशी जी की आत्मकथा “तूफानों से घिरी जिंदगी” पर पुस्तक चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 133 ☆

“तूफानों से घिरी जिंदगी” – श्री हरि जोशी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

तूफानों से घिरी जिंदगी, आत्म कथा

हरि जोशी

प्रकाशक इंडिया नेट बुक्स, नोएडा दिल्ली

पृष्ठ २१८, मूल्य ४०० रु

चर्चा… विवेक रंजन श्रीवास्तव, भोपाल

मेरी समझ में हम सब की जिंदगी एक उपन्यास ही होती है. आत्मकथा खुद का लिखा वही उपन्यास होता है. वे लोग जो बड़े ओहदों से रिटायर होते हैं उनके सेवाकाल में अनेक ऐसी घटनायें होती हैं जिनका ऐतिहासिक महत्व होता है, उनके लिये गये तात्कालिक निर्णय पदेन गोपनीयता की शपथ के चलते भले ही तब उजागर न किये गये हों किंतु जब भी वे सारी बातें आत्मकथाओ में बाहर आती हैं देश की राजनीति प्रभावित होती है. ये संदर्भ बार बार कोट किये जाते हैं. बहु पठित साहित्यकारों, लोकप्रिय कलाकारों की जिंदगी भी सार्वजनिक रुचि का केंद्र होती है. पाठक इन लोगों की आत्मकथाओ से प्रेरणा लेते हैं. युवा इन्हें अपना अनुकरणीय पाथेय बनाते हैं.

हिन्दी साहित्य में पहली आत्मकथा के रूप में बनारसी दास जैन की सन १६४१ में रचित पद्य में लिखी गई ” अर्ध कथानक ” को स्वीकार किया गया है. यह ब्रज भाषा में है. बच्चन जी की आत्मकथा क्या भूलूं क्या याद करूं, नीड़ का निर्माण फिर, बसेरे से दूर और दशद्वार से सोपान तक ४ खण्डों में है. कमलेश्वर ने भी ३ किताबों के रूप में आत्मकथा लिखी है. महात्मा गांधी की आत्मकथा सत्य के प्रयोग,बहुचर्चित है.  हिन्दी व्यंग्यकारों में भारतेंदु हरीशचंद्र की कुछ आप बीती कुछ जगबीती, परसाई जी ने हम इक उम्र से वाकिफ हैं, तो रवीन्द्र त्यागी की आत्मकथा वसंत से पतझड़ तक पठनीय पुस्तकें हैं. ये आत्मकथायें लेखकों के संघर्ष की दास्तान भी हैं और जिंदगी का निचोड़ भी.

सफल व्यक्तियों की जिंदगी की सफलता के राज समझना मेरी अभिरुचि रही है. उनकी जिंदगी के टर्निंग पाइंट खोजने की मेरी प्रवृति मुझे रुचि लेकर आत्मकथायें पढ़ने को प्रेरित करती है. इसी क्रम में मेरे वरिष्ठ हरि जोशी जी की सद्यः प्रकाशित आत्मकथा तूफानों से घिरी जिंदगी,पढ़ने का सुयोग बना तो मैं उस पर लिखे बिना रह न सका. मेरी ही तरह हरि जोशी जी भी  इंजीनियर हैं, उन्होंने मेरी किताब “कौआ कान ले गया” की भूमिका लिखी थी. फोन पर ही सही पर उनसे जब तब व्यंग्य जगत के परिदृश्य पर आत्मीय चर्चा भी हो जाती हैं.

यह आत्मकथा तूफानों से घिरी जिंदगी  दादा पोता संवाद के रूप में अमेरिका में बनी है. हरि जोशी जी का बेटा अमेरिका में है, वे जब भी अमेरिका जाते हैं छह महिनो के लम्बे प्रवास पर वहां रहते हैं. जब उनसे ६५ वर्ष छोटे उनके पोते सिद्धांत ने उनसे उनकी जिंदगी के विषय में जानना चाहा तो उसके सहज प्रश्नो के सच्चे उत्तर पूरी ईमानदारी से वे देते चले गये और कुछ दिनो तक चला यह संवाद उनकी जिंदगी की दास्तान बन गया. एक अमेरिका में जन्मा वहां के परिवेश में पला पढ़ा बढ़ा किशोर उनके माध्यम से भारत को, अपने परिवार पूर्वजों को, और अपने लेखक व्यंग्यकार दादा को जिस तरह समझना चाहता था वैसे कौतुहल भरे सवालों के जबाब जोशी जी ने देकर सिद्धांत की कितनी उत्सुकता शांत की और उसे कितने साहित्यिक संस्कार संप्रेषित कर सके यह तो वही बता सकता है, पर जिन चैप्टर्स में यह चर्चा समाहित की गई है वे कुछ इस तरह हैं, आत्मकथा का प्रारंभ खंड हरि जोशी जी का जन्म ठेठ जंगल के बीच बसे आदिवासी बहुल गांव खूदिया, जिला हरदा में हुआ था, शिशुपन की कुछ और स्मृतियाँ सुनो, कीचड़ के खेल बहुत खेले,  हरदा,  भोपाल, दुष्यंत जी की प्रथम पुण्यतिथि पर धर्मयुग में जोशी जी की ग़ज़ल का प्रकाशन,  इंदौर,  उज्जैन, दिल्ली  जहां जहां वे रहे वहां के अनुभवों पर प्रश्नोत्तरों को उसी शहर के नाम पर समाहित किया गया है. रचनात्मक योगदान और लेखक व्यंग्यकार हरि जोशी को समझने के लिये हिंदी लेखक खंड, सहित्यकारों से भेंट, विश्व हिंदी सम्मेलन में मध्यप्रदेश का प्रतिनिधित्व, गोपाल चतुर्वेदी जी के व्यंग्य में नैरन्तर्य और उत्कृष्टता, मुम्बइया बोली के प्रथम लेखक यज्ञ शर्मा, अज्ञेय जी की वह अविस्मरणीय मुद्रा, वृद्धावस्था और गिरता हुआ स्वास्थ्य, बाबूजी मोजे ठंड दूर नहीं करते, ठिठुराते भी हैं, कोरोना काल “मेरी प्रतिनिधि रचनायें”, वृद्धावस्था के निकट, परिजन संगीत और साहित्य, लंदन, अमेरिका, पिछले दिनों फिर एक तूफानी समस्या,और अंत में  अमेरिका में मृत्यु पर ऐसा रोना धोना नहीं होता जैसे चैप्टर्स अपने नाम से ही कंटेंट का किंचित परिचय देते हैं. इस बातचीत में साफगोई, ईमानदारी और सरलता से जीवन की यथावत प्रस्तुति परिलक्षित होती है.

कभी कभी लगता है कि आम आदमी के हित चिंतन का बहाना करते राजनेता जो जनता के वोट से ही नेता चुने जाते हैं, पर किसी पद पर पहुंचते ही कितने स्वार्थी और बौने हो जाते हैं, जोशी जी ने 1982 में अपने निलंबन का वृतांत लिखते हुए तत्कालीन मुख्य मंत्री जी का नाम उजागर करते हुए लिखा है कि तब उन्हे सरकारी आवास आवंटित था, उस आवास पर एक विधायक कब्जा चाहते थे, इसलिए जोशी जी की रचना “रिहर्सल जारी है” को आधार बनाकर उन्होंने मुख्य मंत्री जी से उनका स्थानांतरण करवाना चाहा, उस रचना में किसी का कोई नाम नहीं था, और पूर्व आधार पर जोशी जी के पास कोर्ट का स्थगन था फिर भी विधायक जी पीछे लगे रहे, और अंततोगत्वा जोशी जी का निलंबन मुख्य मंत्री जी ने कर दिया । पुनः उनकी रचना दांव पर लगी रोटी छपी, विधान सभा में जोशी जी के प्रकरण पर स्थगन प्रस्ताव आया  ।

1997 में जब जबलपुर में भूकंप आया तो उनकी रचना नव भारत टाइम्स के दिल्ली, मुंबई संस्करण में छपी ” श्मशान और हाउसिंग बोर्ड का मकान ” इसपर तत्कालीन  राज्य मंत्री जी ने शासन की ओर से उनके विरुद्ध मानहानि का  दावा शुरू कर दिया था ।

वे बेबाक व्यंग्य लेखन के खतरे झेलने वाले रचनाकार हैं। अस्तु, अंततोगत्वा जोशी जी की कलम जीती, आज वे सुखी सेवानिवृत जीवन जी रहे हैं। पर उनकी जिंदगी सचमुच बार बार तूफानों से घिरी रही । आत्मकथा के संदर्भ में

 लिखना चाहता हूं कि यदि इसमें  शहरों, देश,  स्थानों के नाम से चैप्टर्स के विभाजन की अपेक्षा बेहतर साहित्यिक शीर्षक दिये जाते तो आत्मकथा के साहित्यिक स्वरूप में श्रीवृद्धि ही होती. आज के ग्लोबल विलेज युग में हरदा के एक छोटे से गांव से निकले हरि जोशी अपनी  प्रतिभा के बल पर इंजीनियर बने, जीवन में साहित्य लेखन को अपना प्रयोजन बनाया, व्यंग्य के कारण ही उनहें जिंदगी में तूफानों, झंझावातों, थपेड़ों से जूझना पड़ा पर वे बिना हारे अकेले ईमानदारी के बल पर आगे बढ़ते रहे, तीन कविता संग्रह, सोलह व्यंग्य संग्रह, तेरह उपन्यास आज उनके नाम पर हैं ।

उन्हें व्यंग्य लेखन के कारण जो समस्याएं आईं वे व्यंग्यकार की परीक्षा होती हैं, स्वयं मुझे नौकरी में तो व्यंग्य इतना बाधक नहीं बन सका क्योंकि मैंने कार्यालय और लेखन को हमेशा बिलकुल पृथक रखने का यत्न किया, जब प्रारंभ में कुछ पत्राचार मेरे अधिकारियों ने किया तो मैंने अभिव्यक्ति की आजादी के संवैधानिक प्रावधान तथा फंडामेंटल सर्विस रूल्स में लिटररी वर्क संबंधी नियम बताकर कानूनी जानकारी अपने जबाब में दे दी। पर अनेक संगठनों समय समय पर मेरे लेखन से आहत होते रहे और मैं इसे अपनी लेखकीय सफलता मान और अधिक प्रहार कारी लेखन करता रहा । इससे मेरी अपनी कार्यप्रणाली स्पष्ट और नियमानुसार कार्य करने की बनी तथा मेरी छबि स्वच्छ बनती गई,  मैने कभी अपने पास किसी फाइल को  लटकाया नही । लोग मुझसे अव्यक्त रूप से डरने भी लगे कि कहीं उन पर कुछ लिख न दूं । खैर ।

 हिन्दी व्यंग्य जगत की ओर से मेरी मंगलभावना है कि जोशी जी की किताबो की  यह सूची अनवरत बढ़ती रहे. इन दिनों वे मजे में अपनी सुबहें धार्मिक गीत संगीत से प्रारंभ करते हैं. मैं अक्सर कहा करता हूं कि यदि प्रत्येक दम्पति सुसभ्य संवेदनशील बच्चे ही समाज को दे सके तो यह उसका बड़ा योगदान होता है,हरि जोशी जी ने सुसंस्कारित सिद्धांत सी तीसरी नई पीढ़ी और अपना ढ़ेर सारा पठनीय साहित्य समाज को  दिया है, वे अनवरत लिखते रहें यही शुभ कामना है. यह आत्मकथा अंतरराष्ट्रीय संदर्भ बने.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ बाल उपन्यास ‘धरोहर’ – सुश्री सुकीर्ति भटनागर ☆ समीक्षा – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं।आज प्रस्तुत है सुश्री सुकीर्ति भटनागर जी  के बाल उपन्यास “धरोहर” की पुस्तक समीक्षा।)

☆ पुस्तक चर्चा ☆ बाल उपन्यास ‘धरोहर सुश्री सुकीर्ति भटनागर ☆ समीक्षा – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

उपन्यास- धरोहर 

उपन्यासकार- सुकीर्ति भटनागर 

प्रकाशक- साहित्यकार, धमाणी मार्केट की गली, चौड़ा रास्ता, जयपुर (राजस्थान) 302003 मोबाइल नंबर 93142 02010

पृष्ठ संख्या- 114 

मूल्य- ₹250

समीक्षक ओमप्रकाश क्षत्रिय प्रकाश‘, 

☆ समीक्षा- धरोहर के महत्व को रेखांकित करता उपन्यास ☆

उपन्यास का लेखन सबसे सरलतम विधा है। मगर उसके कथानक की बनावट और उपकथाओं का सृजन अपेक्षाकृत कठिन कार्य है। यदि इसका सृजन सरलता, सहजता व प्रवाह के साथ कर लिया जाए तो उपन्यास की रचना पूरी हो जाती है। तभी उपन्यास की गल्प रचना मुकम्मल और उत्कृष्ठ होती है।

उपन्यासकार को उपन्यास के कथानक में लिखने यानी विचार व्यक्त करने की संपूर्ण आजादी मिली होती है। वह अपने भावों, अपने विचारों और मनोरथ को अपनी मर्जी से उपन्यास की कथावस्तु में पिरो सकता है। उसका जो मन्तव्य हो उससे उपन्यास में डाल सकता है। इसी मन्तव्य से उपन्यास की सार्थकता सिद्ध होती है।

यदि बड़ों के लिए उपन्यास लिखा जाए तो उसमें संपूर्ण लेखकीय आजादी से कार्य किया जा सकता है। मगर यदि उपन्यास लेखन बालकों के लिए किया जाना है तो वह सबसे दुरुह यानी कठिन कार्य होता है। बच्चों के लिए लिखने में लेखक को बच्चा बनना पड़ता है। तब बच्चों के लिए लेखन किया जा सकता है।

बच्चों के लिखे लिए लिखे जाने वाले गल्फ के लिए उसकी कथा बहुत स्पष्ट होनी चाहिए। वह बच्चों को स्पष्ट रुप में समझ में आ जाए। उसमें कोई कहानी हो। वह उसे अपनी-सी लगे। तभी बच्चा उपन्यास पढ़ने को लालयित होता है।

बच्चों के उपन्यास का आरंभ रोचक कथावस्तु के साथ होना चाहिए। उसे पढ़ते ही बच्चे में उत्सुकता जागृत हो जाए। वह आरंभ पढ़ते ही पूरा उपन्यास पढ़ने को लालयित हो। उस भाग के आरंभ के साथ एक जिज्ञासा का आरंभ और अंत में समाधान हो जाए। दूसरे भाग में दूसरी जिज्ञासा का आरंभ हो जाए। यह सिलसिला हरेक भाग में चले, तभी उपन्यास सार्थक होता है।

उपन्यास की भाषा शैली सरस, सहज हो। उसमें रस की प्रधानता हो। वाक्य छोटे-छोटे हो। इस दृष्टि से प्रस्तुत उपन्यास धरोहर की समीक्षा करते हैं। जिसको लिखा है प्रसिद्ध उपन्यासकार सुकीर्ति भटनागर जी ने। उपन्यास को इस कसौटी पर करते हैं तब हम देखते हैं कि धरोहर उपन्यास की अपनी एक स्पष्ट कथावस्तु है। यह आरंभ से ही इसकी कथा में उत्सुकता जगाए रखती है।

उपन्यास का कथानक स्पष्ट है। एक गांव में कुछ अनिष्ट और अनैतिक रूप से घटित घटना होती है। जिसका समाधान धरोहर उपन्यास का बालपात्र अपने हिसाब व तरीके से करता है। इसी कथानक पर पूरे उपन्यास की कथावस्तु को बुना गया है।

उपन्यास के बाल पात्र अपनी समझ के अनुरूप समस्या का निरूपण करते हैं। उसी समस्या के द्वारा इसके सहायक पात्र उस समस्या का समाधान तक पहुँचते हैं। इस बीच अनेक उतार-चढ़ाव व समस्याएं आती हैं। उनका समाधान भी होता चला जाता हैं।

मसलन- उपन्यास की हरेक भाग में एक समस्या आती है। उसका समाधान अंत में हो जाता है। तत्पश्चात दूसरे भाग में दूसरी समस्या उत्पन्न होती है। उसका समाधान के साथ एक अन्य नई समस्या उत्पन्न हो जाती है।

इस तरह पूरा उपन्यास सरल, सहज व प्रवाहमई गति से जिज्ञासा जगाते हो आगे बढ़ता है।

उपन्यास की भाषा सरल व सहज है। कहीं-कहीं मुहावरेदार भाषा का प्रयोग किया गया है। जहां आवश्यक हुआ है वर्णन के साथ-साथ उपयुक्त संवाद का प्रयोग किया गया है।

कुल मिलाकर देश की धरोहर की अनमौलता और उसकी उपयुक्तता को सहेजने के रूप में लिखा गया उपन्यास पाठकीय दृष्टि से बेहतर बन पड़ा है। 114 पृष्ठ के उपन्यास का मूल्य ₹250 बालकों के हिसाब से ज्यादा है।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

19-02-2023

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 132 – “इदम् न मम्” – डा संजीव कुमार ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है डा संजीव कुमार जी की पुस्तक इदम् न मम्पर पुस्तक चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 132 ☆

☆ “इदम् न मम्” – डा संजीव कुमार ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

इदम् न मम्

हिंदी साहित्यकारों से मानक साक्षात्कार

संपादक संजीव कुमार

प्रकाशक इंडिया नेटबुक्स

पृष्ठ 348, मूल्य 475रु

चर्चा… विवेक रंजन श्रीवास्तव, भोपाल

हिंदी साहित्य में शोध, इतिहास, आलोचना में साक्षात्कार, पत्र, संस्मरण का महत्व निर्विवाद है । शोधार्थी इसके आधार पर अपने निष्कर्ष और  मंतव्य प्रतिपादित करते आए हैं।  भिन्न-भिन्न प्रश्नों के माध्यम से अलग अलग साहित्यकारों से किये गए अनेक साक्षात्कार चर्चित रहे हैं ।

डा संजीव कुमार न केवल एक अच्छे लेखक और कवि हैं वे एक मिलनसार साहित्यिक पत्रकार भी हैं ।  उनके ढेरों साहित्यकारों से आत्मीय संबंध हैं । उन्होंने प्रस्तुत किताब में अनूठा प्रयोग किया । एक शोधार्थी की तरह उन्होंने रचनाकारों के जीवन, लेखन, अभिव्यक्ति को लेकर एक प्रश्नावली बनाई,और उसी प्रश्नावली से वीडियो तथा लिखित साक्षात्कार शताधिक समकालीन साहित्य में सक्रिय भागीदारी कर रहे लोगों से लिए हैं । इन साक्षात्कारों को यू ट्यूब पर भी सुना देखा जा सकता है । प्रस्तुत किताब में ये 102 साहित्यिक साक्षात्कार संकलित हैं।  रचनाकारों के तुलनात्मक अध्ययन और शोध हेतु ये  पुस्तक महत्वपूर्ण बन गई है ।

पाठक अपने सुपरिचित  साहित्यकार के बारे में और उनकी विचारधारा के बारे में इस किताब के जरिए जान सकते हैं।

इस अध्ययन में जो मानक प्रश्नावली बनाई गई उसके कुछ सवाल इस तरह हैं,  साहित्य सृजन में आपकी रुचि कैसे उत्पन्न हुई? किस साहित्यकार से आपको लिखने की प्रेरणा मिली? आपकी पहली रचना क्या थी और कब प्रकाशित हुई थी?  साहित्य की किस किस विधा में आपने काम किया है? और किस विधा में आपकी रुचि सर्वाधिक है? आपने कविता या कहानी में चुनाव कैसे किया? आदि आदि

जिन रचनाकारों से साक्षात्कार इस किताब में शामिल हैं उनमें दिविक रमेश,  माधव सक्सेना, हरीश कुमार सिंह ,किशोर दिवसे, लता तेजेश्वर रेणुका, प्रभात गोस्वामी,  रमाकांत शर्मां, संदीप तोमर, सीमा असीम, कमलेश भारतीय, सी. कोमलावा, स्नेहलता पाठक, हरिसुमन विष्ट, रंगनाथ द्विवेदी, सरस दरबारी, श्यामसखा श्याम, विवेक रंजन श्रीवास्तव,सुरेश कुमार मिश्रा, रमाकांत ताम्रकार,अनिता कपूर चन्द्रकांता, अजय शर्मा, गीतू गर्ग,किशोर श्रीवास्तव,मनोज ठाकुर, समीक्षा तेलांग, सविता चड्डा,सुनील जैन राही, प्रो राजेश कुमार, प्रबोध कुमार गोविल, धर्मपाल महेंद्र जैन, नीरज दईया, अरविंद तिवारी, ममता कालिया जैसे कई नाम हैं ।आशा है यह अनूठा संकलन साहित्य के अध्येताओं को पसंद आएगा और बहु उपयोगी होगा ।

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 131 – “कोणार्क” – डा संजीव कुमार ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है डा संजीव कुमार जी की पुस्तक “कोणार्क ” पर पुस्तक चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 131 ☆

☆ “कोणार्क” – डा संजीव कुमार ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

कोणार्क

डा संजीव कुमार

इंडिया नेट बुक्स,नोयडा

मूल्य १७५ रु, पृष्ठ ११६

चर्चा… विवेक रंजन श्रीवास्तव, भोपाल

कोणार्क पर हिन्दी साहित्य में बहुत कुछ लिखा गया है. कोणार्क मंदिर के इतिहास पर परिचयात्मक किताबें हैं. प्रतिभा राय का उपन्यास कोणार्क मैंने पढ़ा है. जगदीश चंद्र माथुर का नाटक “कोणार्क” भी है. स्फुट लेख और अनेक कवियों ने कोणार्क पर केंद्रित कवितायें लिखी हैं. इसी क्रम में साहित्य सेवी डा संजीव कुमार ने कोणार्क नाम से हाल में ही मुक्त छंद में कविता संग्रह या बेहतर होगा कि कहें कि उन्होने खण्ड काव्य लिखा है.

पुरी और भुवनेश्वर मंदिरों की नगरियां है. कोणार्क सूर्य मंदिर ओडिशा के पुरी में आज से लगभग ९०० वर्षो पूर्व बनवाया गया था. पुरातत्वविदों के अनुसार यह कलिंग शैली में बना मंदिर है. यह स्वयं में अनूठा है, क्योंकि मंदिर  रथ की आकृति में हैं.  12 जोड़ी भव्य विशाल पहियों की आकृतियां  हैं, 7 घोड़े रथ को खींच रहे हैं. इस दृष्टि से सूर्य देव के रथ की आध्यात्मिक भारतीय कल्पना को मूर्त रूप दिया गया है. समुद्र तट पर मंदिर इस तरह निर्मित है कि सूरज की पहली किरण मंदिर के प्रवेश द्वार पर पड़ती है. समय की आध्यात्मिकता दर्शाते कोणार्क की कहानी रोचक है. इस मंदिर को वर्ष 1984 में यूनेस्को ने विश्व धरोहर स्थल घोषित किया था. इस महत्व के दृष्तिगत कोणार्क पर लिखा जाना सर्वथा प्रासंगिक है. मैने पर्यटन के उद्देश्य से कोणार्क की सपरिवार यात्रा की है. वहां मोमेंटो की दूकानो पर कोणार्क पर लिखी किताबें भी देखी थीं, उनमें एक श्रीवृद्धि डा संजीव कुमार की किताब से और हो गई है.

कोणार्क का मंदिर तो बना पर,आज तक वहां कभी विधिवत पूजा नहीं हुई. इसी तरह  भोपाल के निकट भोजपुर में भी एक विशालतम शिवलिंग की स्थापना की गई थी पर वहां भी  आज तक  कभी विधिवत पूजा नहीं हुई. कोणार्क को  लेकर किवदंतियां हमेशा से ही लोगों के बीच चर्चित रही हैं. ये ही कथानक संजीव जी की कविताओ की विषय वस्तु हैं. खजुराहो की ही तरह मंदिर की बाहरी दीवारों पर रति रत मूर्तियां हैं, जो  संदेश देती हैं कि परमात्मा का सानिध्य पाना है तो भीतर झांको किन्तु वासना को बाहर छोडकर आना होगा.

संजीव जी मंदिर के महा शिल्पी को इंगित करते हुये लिखते हैं

समेटे अपने आँचल में

खड़ा है आज भी

एक कालखंड

जिसमें निहित थी

कल्पना की उड़ान

नभ पर उड़ते सूर्य को

अपनी धरती पर उतार लाने का स्वप्न

जो अपनी अभिनवता में

भर लाया होगा।

उत्साह का पारावार और कल्पना के उत्कर्ष

उकेर गया होगा

उन पत्थरों पर

जो हो उठा जीवंत

कला की प्राचुर्यता के साथ विभिन्न मुद्राओं में

जीवन की भंगिमाओं में

मैने स्व अंबिका प्रसाद दिव्य का उपन्यास खजुराहो की अतिरूपा पढ़ा था. उसमें वे कल्पना करते हैं कि शिल्पी ने अतिरूपा को विभिन्न काम मुद्राओ में सामने कर उन जीवंत मूर्तियों को देह के प्रेम की  व्याख्या हेतु तराशा रहा होगा.

कवि डा संजीव कुमार भी लिखते हैं

संगिका थी वह

 मेरे बचपन की

 जिसे पाया था मैंने

 बाल हठ से

 कितने ही वर्षों के बाद

 और आज

 हमारी देहों का

 कण कण

 महकता था

 हमारे प्रेम का साक्षी बनकर

 हमने खेले थे

 बचपन के खेल भी

 और तरूणाई की केलि भी

 पर यौवन हो गया

 समर्पित

 किसी राजहठ को

 और बस

 एक असंभव को

 संभव बनाने में

विभिन्न कविताओ से गुजरते हुये कोणार्क के महाशिल्पी उसके पुत्र की कथा चित्रमय होकर पाठक के सम्मुख उभरती है. 

मंदिर की वर्तमान भग्नावस्था को देख वे लिखते हैं…

 काश! उग सकता

 वह स्वप्न आज भी

 इन भग्नावशेषों के बीच

 जहाँ उतरता

 किरणों भरा रथ

 दिवाकर का

 और जाज्वल्यमान

 हो उठता

 भारत का कण क

 बरस जाती चेतनता विहस पड़ता

 नव जीवन

 उसी कोणार्क के उच्च शिखरों से

 भुवन भर में

 और नवचेतना

 संगीत लहरियों में बसकर

 हवा में बहती.

कोणार्क पर काव्य रूप में लिखी गई पुस्तकों में यह एक बेहतरीन कृति है, जिसके लिये डा संजीव कुमार बधाई के सुपात्र हैं.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ बाल साहित्य – ‘आधा पुल को पूरा करते बच्चे’ – श्री अमृतलाल मदान ☆ समीक्षा – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं।आज प्रस्तुत है  श्री अमृतलाल मदान जी  की पुस्तक  “आधा पुल को पूरा करते बच्चे ” की पुस्तक समीक्षा।)

☆ पुस्तक चर्चा ☆ ‘आधा पुल को पूरा करते बच्चे’ – श्री अमृतलाल मदान ☆ समीक्षा – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

उपन्यास- आधा पुल 

उपन्यासकार- अमृतलाल मदान

प्रकाशक- पारुल प्रकाशन, 35- प्रताप एनक्लेव, मोहन गार्डन, दिल्ली-110059 

पृष्ठ संख्या- 120 

मूल्य- ₹200

समीक्षक ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’, 

बच्चों का उपन्यास बच्चों के लिए हो तो सार्थकता बढ़ जाती है। बच्चा क्या चाहता है? यह आपको पता हो तो बच्चे के उपन्यास की कहानी में प्रवाह बढ़ जाता है। क्योंकि आप स्वयं बच्चा बनकर अपने उपन्यास लिखने को उत्सुक हो जाते हैं।

बच्चों के लिखे उपन्यास की अपनी कुछ विशेषताएं होती है। उसमें आरंभ से उत्सुकता का समावेश हो जाता है। वाक्य छोटे-छोटे होते हैं। उसकी भाषा शैली सरल व रोचक होती है। हर एक भाग में कथा व उसका प्रवाह बना रहता है।

समीक्ष्य उपन्यास आधा पुल को इसी कसौटी पर कस कर देखते हैं। तब हमें पता चलता है कि उपन्यास- आधा फुल का कथानक बहुत रोचक है। इसका पात्र- मोनी अपनी व्यथा से परेशान है। वह चाहता है कि मम्मी-पापा में सुलह हो जाए। इसी कथानक पर पूरी कथा चलती है।

इसी में एक उपपात्र भी है। मोनी की सहायता करता है। उसी के बीच कथा का पूरा कथानाक मुकम्मल होता है। उसी पात्र के द्वारा मुख्य पात्र अपने उपन्यास के प्रवाह को अंत तक बनाए रखता है।

उपन्यास की भाषा सरल, सहज व रोचक है। उपन्यास की कथा कभी अतीत को छूते हुए निकलती है। कभी वर्तमान में आ जाती है। कभी भविष्य के सपने बुनने लगती है। इसी के द्वारा वह अपने रिश्ते के अधुरे पुल को पूरा करने का स्वप्न देखता है।

शैली के रूप में संवाद का उत्कृष्ट उपयोग किया गया है। पूरा उपन्यास संवादशैली में लिखा है। आवश्यकता अनुसार वर्णन भी किया गया है। 25 भाग में बंटे इस उपन्यास का अंत भी रोचक है।

उपन्यास के उपन्यासकार अमृतलाल मदान की संपूर्ण उपन्यास पर पकड़ बनी रहती है। कहीं-कहीं पात्र स्वयं चलने लगते हैं। साजसज्जा की दृष्टि से मुखपृष्ठ आकर्षक है। त्रुटि रहित छपाई और पठनीयता की दृष्टि से उपन्यास बढ़िया बन पड़ा है। पृष्ठ संख्या के हिसाब से मूल्य वाजिब हैं।

कोरोनाकाल में रचित उपन्यास का बाल साहित्य के क्षेत्र में हार्दिक स्वागत किया जाएगा। इसी आशा के साथ उपन्यासकार को हार्दिक बधाई।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

19-02-2023

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 130 – “प्रेम चंद मंच पर” – सुश्री रिंकल शर्मा ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है सुश्री रिंकल शर्मा जी की पुस्तक “प्रेम चंद मंच पर” पर पुस्तक चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 130 ☆

“प्रेम चंद मंच पर” – सुश्री रिंकल शर्मा ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’’ ☆

प्रेम चंद मंच पर

रूपांतरण.. रिंकल शर्मा

कहानी नाट्य रूपांतर

प्रभाकर प्रकाशन दिल्ली

मूल्य १२५ रु

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव, भोपाल

बीसवीं सदी के आरंभिक वर्ष प्रेमचंद के रचना काल का समय था, किन्तु अपनी सहज अभिव्यक्ति की शैली  तथा जन जीवन से जुडी कहानियों के चलते उनकी कहानियां आज भी प्रासंगिक बनी हुई हैं. प्रेमचंद के साहित्य की कापी राइट की कानूनी अवधि समाप्त हो जाने के बाद से निरंतर अनेकानेक प्रकाशक लगातार उनके उपन्यास और कहानियां बार बार विभिन्न संग्रहों में प्रकाशित करते रहे हैं.

कोई भी कथानक विभिन्न विधाओ में अभिव्यक्त किया जा सकता है. कविता में भाषाई चतुरता के साथ न्यूनतम शब्दों में त्वरित तथा संक्षिप्त वैचारिक संप्रेषण किया जाता है, तो कहानी में शब्द चित्र बनाकर सीमित पात्रों एवं परिवेश के वर्णन के संग किसी घटना का लोकव्यापीकरण होता है. ललित निबंध में अमिधा में रचनाकार अपने विचार रखता है. उपन्यास अनेक परस्पर संबंधित घटनाओ को पिरोकर लंबे समय की घटनाओ का निरूपण करता है. इसी तरह लघुकथा एक टविस्ट के साथ सीधा प्रहार करती है, तो व्यंग्य विसंगतियों पर लक्षणा में कटाक्ष करता है. नाटक वह विधा है जिसमें अभिनय, निर्देशन, दृश्य और संवाद मिलकर दर्शक पर दीर्घ जीवी मनोरंजक या शैक्षिक प्रभाव छोड़ते हैं. इन दिनों हिन्दी में ज्यादा नाटक नहीं लिखे जा रहे हैं. फिल्मो ने नाटको को विस्थापित कर दिया है.

ऐसे समय में रिंकल शर्मा ने “प्रेम चंद मंच पर ” में मुंशी प्रेमचंद की सुप्रसिद्ध कहानियों पंच परमेश्वर, नादान दोस्त, गुल्ली डंडा और कजाकी के नाट्य रुपांतरण प्रस्तुत कर अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य किया है. इससे पहले भी कई प्रसिद्ध रचनाओ के नाट्य रूपांतरण किये गये हैं, हरिशंकर परसाई की रचना मातादीन चांद पर के नाट्य रूपांतरण के बाद जब उसका मंचन जगह जगह हुआ तो वह दर्शको द्वारा बेहद सराहा गया. केशव प्रसाद मिश्र के उपन्यास कोहबर की शर्त पर फिल्म नदिया के पार भीष्म साहनी की रचना तमस पर, अमृता प्रीतम के उपन्यास पिंजर पर आधारित ग़दर एक प्रेम कथा, धर्मवीर भारती के गुनाहों का देवता और सूरज का सातवां घोड़ा, स्वयं मुंशी प्रेमचंद जी के ही उपन्यासों गोदान, सेवासदन, और गबन पर भी फिल्में बन चुकी हैं.

किसी कहानी का केंद्र बिंदु एक कथानक होता है, पात्र होते हैं, परिवेश का किंचित वर्णन होता है, कहानी में एक उद्देश्य निहित होता है जो कहानी का चरमोत्कर्ष होता है. पात्रों के माध्यम से लेखक इस उद्देश्य को पाठको तक पहुंचाता है. नाटक की कहानी से यह समानता होती है कि नाटक में भी एक कहानी होती है, नाटक में संवाद होते हैं, पात्रों के मध्य द्वंद्व होता है. नाटक के पात्र संवादों को प्रभावशाली बना कर दर्शक तक अधिक उद्देशयपूर्ण बनाने की क्षमता रखते हैं.

किसी कहानी का नाट्य रूपांतरण करने के लिये कहानीकार की मूल भावना को समझकर बिना कहानी के मूल आशय को बदले संवाद लेखन सबसे महत्वपूर्ण पहलू होता है. जब मुझे रिंकल जी ने समीक्षा के लिये यह पुस्तक भेजी तो मैंने सर्वप्रथम  अपनी बहुत पहले पढ़ी गई मुंशी प्रेमचंद की चारों कहानियों पंच परमेश्वर, नादान दोस्त, गुल्ली डंडा और कजाकी को  उनके मूल रूप में फिर से पढ़ा, उसके बाद जब मैंने यह नाट्य रूपांतर पढ़ा तो मैंने  पाया है कि रिंकल शर्मा ने इन चारों कहानियों के नाट्य रूपांतर में संवाद लेखन का दायित्व बड़े कौशल से निभाया है चूंकि वे स्वयं नाट्य निर्देशिका हैं अतः वे यह कार्य सुगमता पूर्वक कर सकी हैं. अत्यंत छोटे छोटे वाक्यों में संवाद लिखे गये हैं, इससे किशोर वय के बच्चे भी ये रूपातरित नाटक अपने स्कूलों के मंच पर प्रस्तुत कर सकेंगे, ऐसा मेरा विश्वास है. मैं इस साहित्यिक सुकृत्य हेतु लेखिका, कवियत्री  और स्तंभ लेखिका  रिंकल शर्मा की सराहना करता हूं.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 129 – “तंत्र कथा” – श्री कुमार सुरेश ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’’☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है श्री कुमार सुरेश जी के उपन्यास “तंत्र कथा” पर पुस्तक चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 129 ☆

☆ “तंत्र कथा” – श्री कुमार सुरेश ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’’ ☆

तंत्र कथा, उपन्यास

कुमार सुरेश

सरोकार प्रकाशन, भोपाल

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव, भोपाल

सरकारी तंत्र से किसका पाला नहीं पड़ता. सफेद पोश बने रहते हुये अधिकारियों एवं हर स्तर पर कर्मचारियों की भ्रष्टाचार में लिप्तता, कार्यालयीन प्रक्रिया में राजनीति की दखलंदाजी के आम आदमी के अनुभवों के साथ ही कार्यालयों की खुद अपनी अंतर्कथायें अनन्त हैं. जिन पर कलम चलाने का साहस कम ही लोग कर पाते हैं. मैं कुमार सुरेश को व्यक्तिगत रूप से जानता हूं, वे यह बेबाक बयानी कर सके हैं क्योकि वे स्वयं सरकारी तंत्र का हिस्सा रह चुके हैं और उन्होने सब कुछ कमरे के भीतर से देखा और समझा है और उससे असहमत होते हुये उच्च पद से सरकारी नौकरी छोड़ कर लेखन को अपनाया है. इस उपन्यास का हर हिस्सा यथार्थ है, उसे अपने लेखन सामर्थ्य से कुमार सुरेश ने रोचक बना दिया है. कुछ टुकड़े बानगी के लिये उधृत हैं…

” जाहिर है सफेद बगुले की तरह दिख रहे सज्जन ही दुबे जी थे “

…. दुबे जी इस कार्यालय के बड़े बाबू थे, महीने में दो तीन दिन थोड़ी देर के लिये आफिस आते और उपस्थिति रजिस्टर पर हस्ताक्षर कर चले जाते थे. वो सत्ता पक्ष के प्रभावशाली मंत्री श्री कटारिया जी के बंगले पर देश की उन्नति में अपना योगदान दे रहे थे.

… आजकल जिन राष्ट्र निर्माताओ को शिक्षाकर्मी का पवित्र नाम दिया गया है उन्हें उस जमाने में निम्न श्रेणि शिक्षक कहा जाता था.

…. निकृष्ट प्रकार का दौरा तब होता है जब अफसर अपने पूरे परिवार के साथ पर्यटन के लिये निकलता है और इस यात्रा को सरकारी दौरे का स्वरूप दे दिया जाता है.

… अपर कलेक्टर को निकट भविष्य में प्रमोशन की आशा थी, उन्हें कलेक्टर से अभी अपनी सी आर भी लिखवानी थी, इसलिये उन्हे शहर की शांति व्यवस्था से अधिक कलेक्टर को खुश करने की चिंता थी, उन्होने कहा द्वापर में भगवान श्री कृष्ण की प्रशासनिक क्षमतायें इतिहास प्रसिद्ध हैं, मैं अपने अनुभव से कह सकता हूं कि कलेक्टर साहब के रूप में हमें हमारा कृष्ण मिल गया है.

…डाकबंगले पर बिना पैसा दिये लंच डिनर करने वाले अधिकारियों और नेताओ के बिलों का भुगतान आखिर करता कौन है ?

… अपनी हैंडराइटिंग में उन्होंने जिले के कर्मचारियों के ट्रांसफर की एक सूची बनाई और उसे टेबल पर छोड़कर टूर पर चले गये, आफिस से दूर जाकर उन्होने स्टेनो को फोन किया कि वह सूची उठाकर रख ले, रीडर ने सूची पढ़कर सुरक्षित रख ली, थोड़ी ही देर में सभी कर्मचारियों तक संभावित ट्रांस्फर की खबर पहुंच गई, और ट्रांसफर न हों जो कभी होने ही न थे के लिये पैसे आने लगे….

… हे मित्र किसी सरकारी अधिकारी को निलंबित करवाने या उसका कहीं दूर स्थानांतरण करवाने के कया उपाय हैं, कृपा करके मुझे कहें… 

… इसी उपन्यास से अंश ( यूं लिखना चाहता हूं की उपन्यास का हर पृष्ठ कोट किए जाने योग्य उद्दरनो से भरा हुआ है)

मेरी तरह जिन्होंने भी बड़े या छोटे पदों पर सरकारी नौकरी की है, वे मीटिंग, योजनाओ की समीक्षायें, प्रगति प्रतिवेदन, मंत्रियों और अफसरों के दौरों, गोपनीय चरित्रावली,  प्रमोशन, स्थानांतरण, प्रशासनिक अधिकारियों के तथा उनके परिवार जनों की वास्तविकता बखूबी समझते हैं. उन्हें तंत्र कथा के रूप में आईना देखकर हंसी भी आती है और मजा भी आता है. कार्यालयों की गुटबाजियां, यूनियन बाजी, मातहत कर्मचारियों की मानसिकता, पीठ पलटते ही किये जाते कटाक्ष, फोन, सरकारी गाड़ी के दुरुपयोग, आदि आदि… इतनी सूक्ष्म दृष्टि से कथानक बुनने, उपन्यास के पात्र चुनने, कार्यालयों के दृश्य प्रस्तुत करने के लिये कुमार सुरेश की जितनी प्रशंसा की जाये कम है.

लेखक ने सरकारी मुहकमों का ऐसा वर्णन किया है मानो कोई गुप्तचर किसी संस्था का हिस्सा बनकर लंबे समय वहां रहने के बाद बाहर निकलकर वहां के किस्से बता रहा हो. यूं तो लोकतंत्र में सरकारी कार्यालय कार्यपालिका के वे मंदिर होने चाहिये जहां समाज के अंतिम आदमी की पूजा की जाये, पर वास्तविकता यह है कि प्रशासनिक पुजारियों ने सारी व्यवस्था हथिया ली है,जनता को चढ़ाये जाने वाले  प्रसाद के बजट मंत्रालयों और राजनेताओ की भेंट चढ़ गये हैं. इन विसंगतियों को लेकर सरकारी अमले पर ढ़ेर सा लिखा गया है, लगातार लिखा जा रहा है, किंतु भोगे हुये यथार्थ का मनोरंजक हास्य तथा तंज भरा चित्रण तंत्र कथा में है.

मैं इस किताब के नाट्य रूपांतरण, फिल्मांकन की व्यापक संभावनाये देखता हूं. मैं कतई तंत्रकथा की कहानी नहीं बताने वाला, यह मजे लेकर पढ़ने वाला उपन्यास है.

चलते चलते उपन्यास से एक छोटा सा अंश और पढ़ लीजीये…

” भीड़ में एक गांधी वादी टाइप बाबू जी भी थे, साथी उन्हें सत्यवादी हरिशचन्द्र की औलाद कहते थे…. उन्होने अपने नैतिक विचार व्यक्त किये.. हम तो इतना ही समझते हैं कि आनेस्टी इज द बेस्ट पालिसी, पहले भी सही थी  और आज भी सही है….

मैं इसी आशा और भरोसे में हूं कि आनेस्टी की यह पालिसी सचमुच सही साबित हो और फिर फिर से किसी कुमार सुरेश को तंत्रकथा लिखने की आवश्यकता न पड़े. तंत्रकथा कार्यालयीन कथानक पर रागदरबारी के बाद मेरे पढ़ने में आया पहला जोरदार उपन्यास है, जिसका समुचित मूल्यांकन व्यंग्य जगत में होना जरुरी है.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ बाल साहित्य – ‘गुलाबी कमीज़’ रहस्य रोमांच से भरपूर उपन्यास– सुश्री कामना सिंह ☆ समीक्षा – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं।आज प्रस्तुत है सुश्री कामना सिंह जी  की पुस्तक  “गुलाबी कमीज़” की पुस्तक समीक्षा।)

☆ पुस्तक चर्चा ☆ ‘गुलाबी कमीज़’ रहस्य रोमांच से भरपूर उपन्यास– सुश्री कामना सिंह ☆ समीक्षा – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

उपन्यास – गुलाबी कमीज़ 

उपन्यासकार – कामना सिंह 

प्रकाशक – भारतीय ज्ञानपीठ, 18- इंस्टीट्यूशनल एरिया, लोधी रोड, नई दिल्ली- 110033 मोबाइल नंबर 93505 36020

पृष्ठ संख्या – 135 

मूल्य – ₹270

समीक्षक – ओमप्रकाश क्षत्रिय प्रकाश

☆ गुलाबी कमीज़ रहस्य रोमांच से भरपूर उपन्यास – ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

बच्चों के लिए उपन्यास लिखना टेढ़ी खीर है। इसको लिखते समय बहुतसी बातों का ध्यान में रखना पड़ता है। उसका कथानक बड़ों से अलग होता है। उसकी कहानी सीधी, सरल व सहज हो। भाषा शैली सरल हो। इसमें प्रवाह और रोचकता का ध्यान रखा गया हो।

बच्चों में लिखे उपन्यास का आरंभ रोचक प्रसंग से किया गया हो। ताकि उपन्यास का आरंभ पढ़कर बच्चा उसे उपन्यास को पूरा पढ़ने को लालयित हो जाए। यह बात दीगर है कि यह शर्त बड़ों के उपन्यास पर भी लागू होती है। मगर उनके उपन्यास में यह नियम शिथिल हो जाए तो भी चल सकता है।

दूसरी बात, बच्चों उपन्यास तभी निरंतर आगे पढ़ते हैं जब उनको उसमें एक के बाद एक नई रोचक कहानी मिले। उसी के साथ उपन्यास की मूल कहानी आगे बढ़ती रहे। यानी हरेक भाग में रहस्य के साथ अंत में उसका समाधान होने के साथ एक नया रहस्य का सृजन हो। तभी बच्चे उपन्यास पढ़ते हैं।

इस परिपेक्ष में देखे तो उपन्यासकार कामना सिंह का समीक्ष्य उपन्यास- गुलाबी कमीज़, इस कसौटी पर कितना खरा बैठता है? उपन्यासकार ने यह उपन्यास वैश्विक महामारी कोरोनाकाल के दौरान लिखा था। जब लॉकडाउन के दौरान अनेक मजदूरों का काम छिन गया था। वे रोजी रोटी से मोहताज हो गए थे।

इसी पृष्ठभूमि पर इसके कथानक का निर्माण किया गया था। इसका कथानक इतना भर है कि इसका नायक हीरा 11 साल का मासूम बच्चा है जो कोरोना के भयंकर संत्रास से रूबरू होकर दिल्ली से अपने गांव की यात्रा करता है पुनः दिल्ली लौट आता है।

इसी भयंकर त्रासदी को झेलते हुए में पैदल ही निकल पड़ते हैं। इस कथानक पर उपन्यास की कथावस्तु का सृजन किया गया है। 

उपन्यासकार कामनासिंह ने 14 भाग के इस उपन्यास का आरंभ रोचक ढंग से किया है। उपन्यास के आरंभ में वे लिखती हैं- 24 मार्च 2020। पूर्वी दिल्ली की कमला बस्ती। रात के 10:00 बज रहे हैं। इसी रोचक पंक्ति से उपन्यास में उत्सुकता जगाती उपन्यास का आरंभ करती है।

उपन्यास की कहानी इतनी है। हीरा के अपने कुछ सपने हैं। वह उसे देखते हुए पैदल ही माता-पिता के साथ चल देता है। यह उन सपनों को रास्ते में पूरा करते हुए मंजिल पर पहुंचता है। आखिर उसे अपने सपनों की मंजिल मिल ही जाती है या नहीं? यह उपन्यास के अंत में पता चलता है।

उपन्यास की भाषा, सरल, सहज व रोचक है। उपन्यासकार ने छोटे-छोटे वाक्यों का प्रयोग किया है। वाक्य सरल व रोचक हैं। भाषा में प्रवाह बना हुआ है। कहानी रोचकता से आगे बढ़ती है।

उपन्यास की मूल कहानी के साथ-साथ कई सहायक कहानियां भी चलती है। रास्ते में कई कठिनाइयां आती है। उसका समाधान होता है तो दूसरी समस्या आ जाती है।

कहने का तात्पर्य है कि बच्चों के उपन्यास की कसौटी पर यह उपन्यास खरा उतरता है। इसकी पृष्ठ सज्जा अच्छी है। त्रुटि रहित मुद्रण ने उपन्यास की गुणवत्ता में श्रीवृद्धि की है। उपन्यास का आवरण आकर्षक है। उपन्यास का मूल्य ₹270 बच्चों के मान से अधिक है। मगर बढ़ते मुद्रा मूल्य के कारण इसे वाजिब कह सकते हैं।

इस समीक्षक को आशा है कि बाल साहित्य में इस उपन्यास का जोरदार स्वागत किया जाएगा।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

19-02-2023

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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