हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ “बोधगम्य, प्रबुद्ध – सिद्धार्थ से महात्मा बुद्ध” – श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(भारतीय नव वर्ष के अवसर पर दिनांक 2 अप्रैल को श्रीमती वीनु जमुआर द्वारा लिखित पुस्तक ‘सिद्धार्थ से महात्मा बुद्ध’ का ऑनलाइन लोकार्पण हुआ। यह कार्यक्रम क्षितिज प्रकाशन और इन्फोटेनमेंट के तत्वाधान में आयोजित किया गया था।)

? पुस्तक चर्चा ☆ “बोधगम्य, प्रबुद्ध – सिद्धार्थ से महात्मा बुद्ध” – श्री संजय भारद्वाज ☆ ??

 

जिस तरह बीज में वृक्ष होने की संभावना होती है, उसी प्रकार मनुष्य की दृष्टि में सृष्टि का बीज होता है। अनेक बार बीज को अंकुरण के लिए अनुकूल स्थितियों की दीर्घ अवधि तक प्रतीक्षा करनी पड़ती है। लेखिका वीनु जमुआर की इस पुस्तक के संदर्भ में भी यही कहा जा सकता है। युवावस्था में पर्यटन की दृष्टि से बोधगया में बोधिवृक्ष के तले खड़े होकर नववधू लेखिका की दृष्टि में जो समाया, लगभग साढ़े पाँच दशक बाद, वह शब्दसृष्टि के रूप में काग़ज़ पर आया। बोधगम्य, प्रबुद्ध शब्दसृष्टि का नामकरण हुआ, ‘सिद्धार्थ से महात्मा बुद्ध।’

श्रीमती वीनु जमुआर

 

‘सिद्धार्थ से महात्मा बुद्ध’, का बड़ा भाग बुद्ध की जीवनयात्रा का कथा शैली में वर्णन करता है। उत्तरार्द्ध में जातक कथाओं, ऐतिहासिक तथ्यों, बौद्ध मठों की जानकारी, बुद्ध के विचारों का संकलन भी दिया गया है। इस आधार पर इसे मिश्र विधा का सृजन कहा जा सकता है। तथ्यात्मक जानकारी के साथ अनुभूत बुद्ध को पाठकों तक पहुँचाने की अकुलाहट इसमें प्रमुखता से व्यक्त हुई है। पुस्तक की भूमिका में लेखिका ने इस बात को कुछ यूँ अभिव्यक्त भी किया है- ‘सत्य और शांति के अटूट रिश्ते का महात्म्य हम तभी समझ पाते हैं जब आंतरिक शांति की जिजीविषा हृदय को कचोटने लगती है।’ विचारों की साधना से यह कचोट, जटिलता से सरलता की ओर चल पड़ती है। लेखिका के ही शब्दों में-‘विचारों को साध लो तो जीवन सरल हो जाता है।’ पग पग पर पगता अनुभव एक समृद्ध पिटारी भरता जाता है। बकौल लेखिका, ‘सत्य की सर्वदा जीत होती है, इस बात की पुष्टि अनुभवों की पिटारी करती है।’

जैसाकि उल्लेख किया गया है, कथासूत्र के साथ सम्बंधित स्थान, काल, घटना विशेष के इतिहास की यथासंभव जानकारी और पुरातत्व अभिलेखों का उल्लेख भी पुस्तक में हुआ है। उदाहरण के लिए लोकमान्यता में ‘पिप्राहवा’ को कपिलवस्तु मानना पर पुरातत्ववेत्ताओं द्वारा ‘तौलिहवा’ को कपिलवस्तु के रूप में मान्यता देने का उल्लेख है। बुद्ध के जन्म स्थान लुम्बिनी का वर्णन करते हुए चीनी यात्रियों फाहियान तथा ह्वेनसांग के यात्रा वृतांत का उल्लेख किया गया है। इस संदर्भ में सम्राट अशोक द्वारा ईसा पूर्व वर्ष 249 में स्थापित बलवा पत्थर के स्तंभ पर प्राकृत भाषा में बुद्ध का जन्म लिखा होने की जानकारी भी है। इस तरह की जानकारी किंवदंती, लोक-कथा, सत्य को तर्क, तथ्य, इतिहास और पुरालेख के प्रमाण देकर पुष्ट करती है। यही इस पुस्तक को विशिष्टता भी प्रदान करती है।

बुढ़ापा, रोग और मृत्यु के पार जाने का विचार बुद्ध के महाभिनिष्क्रमण का आधार बना। एक संन्यासी के संदर्भ में सारथी चन्ना द्वारा कहा गया वाक्य- ‘इसने जग से नाता तोड़ ईश्वर से नाता जोड़ लिया है’, उनके लिए नये मार्ग का आलोक सिद्ध हुआ। तथापि नया नाता जोड़ने की प्रक्रिया में यशोधरा से नाता तोड़ने और स्त्री के मान को पहुँची ठेस तथा पीड़ा को भी लेखिका ने विस्मृत नहीं किया है। पिता राजा शुद्धोदन के आग्रह पर अपने गृह नगर कपिलवस्तु पहुँचे संन्यासी बुद्ध से गृहस्थ जीवन में पत्नी रही यशोधरा ने मिलने आने से स्पष्ट मना कर दिया। यशोधरा का दो टूक उत्तर है, “मैंने उन्हें नहीं त्यागा था, वे त्याग गए थे हमें।”

इतिहास को तटस्थ दृष्टिकोण से देखना वांछनीय होता है। इससे तात्कालिक सामाजिक मूल्यों के अध्ययन का अवसर मिलता है। जटाधारी साधुओं के प्रमुख पंडित काश्यप द्वारा गौतम बुद्ध को रात्रि निवास के लिए आश्रम में स्थान देना, ‘मतभेद हों पर मनभेद न हों’ की तत्कालीन सुसंगत सामाजिक सहिष्णुता का प्रतीक है। पुस्तक इस सहिष्णुता को अधोरेखित करती है।

भारतीय दर्शन में सम्यकता की जड़ें गहरी हैं। इसकी पुष्टि बुद्ध द्वारा अपने पिता राजा शुद्धोदन को किये उपदेश से होती है। बुद्ध ने पिता से कहा, ” महाराज जितना स्नेह और प्रेम अपने पुत्र से करते हैं, वही स्नेह और प्रेम राज्य के प्रत्येक व्यक्ति से रखेंगे तो सभी उनके पुत्रवत हो, वैसा ही प्रेम महाराज से करने लगेंगे।” राजवंश के दिनों में किये गए इस उपदेश में काफी हद तक प्रजातंत्र की ध्वनि भी अंतर्निहित है। यह उपदेश काल के वक्ष पर पत्थर की लकीर है।

‘सिद्धार्थ से महात्मा बुद्ध’ अनित्य से नित्य होने का मार्ग है। यह पुस्तक महात्मा के जीवन दर्शन को सामने रखकर पाठक को विचार करने के लिए प्रेरित करती है। इस प्रेरणा से पाठक अपने भीतर, अपने बुद्ध को तलाशने की यात्रा पर निकल सके तो लेखिका की कलम धन्य हो उठेगी।

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ ‘नयी प्रेम कहानी’ – श्री कमलेश भारतीय ☆ समीक्षक – श्री मुकेश पोपली ☆

 

☆ पुस्तक चर्चा ☆ ‘नयी प्रेम कहानी’ – श्री कमलेश भारतीय ☆ समीक्षक – श्री मुकेश पोपली ☆

पुस्तक: नयी प्रेम कहानी

लेखक: कमलेश भारतीय

प्रकाशक: हंस प्रकाशन, नई दिल्ली

वर्ष: 2022

मूल्य: 250/- रुपये

☆ भावनाओं और संवेदनाओं का ज्वार है ‘नयी प्रेम कहानी’ – श्री मुकेश पोपली☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

साहित्य जगत में एक जाना पहचाना नाम है कमलेश भारतीय।  अगर हम यह कहें कि पुरानी पीढ़ी से संबंध रखते हुए भी नयी पीढ़ी के लिए यह लेखक आज भी प्रेरणा प्रदान कर रहा है तो गलत नहीं होगा।  कमलेश भारतीय की कहानियाँ पढ़ते हुए हम इनके पात्रों में ही खो जाते हैं।  केवल खो ही नहीं जाते बल्कि ऐसा अहसास होने लगता है कि सब कुछ हमारे साथ ही घटित हो रहा है।  कमलेश भारतीय ने स्वयं यातनाओं को झेला है और अनेक प्रकार की विसंगतियों के बावजूद पहले एक शिक्षक,उसके बाद एक संपादक और अंतत: एक लेखक के रूप में उभरकर सामने आए हैं।  सुप्रसिद्ध कथाकार चित्रा मुद्गल ने भूमिका में लिखा है कि एक पीढ़ी जो साहित्य के प्रति समर्पित रही, कमलेश भारतीय ने उस विरासत को सँभाल लिया है । यह सच है कि समय किसी की प्रतीक्षा नहीं करता और यही बात पुस्तक ‘नयी प्रेम कहानी’ के साथ लागू होती है।  पुस्तक में संकलित कहानियों में भावनाओं और संवेदनाओं का ज्वार है।  इन कहानियों में व्यक्ति, घर और समाज को विभिन्न दृष्टिकोणों से देखा गया है, उसे जिया गया है और चुनौतियाँ पूरी भी की गई हैं।  पुस्तक की कहानियों को पढ़ने के बाद एक पुरानी दुनिया में खो जाने का मन करता है और साथ ही नए जीवन में खुशियाँ ढूँढ़ने के लिए भी हम आगे कदम बढ़ाने को तैयार होते हैं।

शीर्षक कहानी ‘नयी प्रेम कहानी’ चाहे एक नायक की असफल प्रेम कहानी है और यह प्रेम कहानी हजारों-लाखों दिलों में पनपती रहती है लेकिन  उसे बयान ही नहीं किया जाता।  कहीं आर्थिक अभाव या असमानता, कहीं क्षेत्रवाद, कहीं बदनामी का डर तो कहीं लव जिहाद का आतंक।  हमारे समाज में प्रारंभ से ही प्रेम करना एक घृणित कार्य की श्रेणी में आता है।  बहुत से उदाहरण दे-देकर युवाओं को बरगलाया जाता है।  प्रसंगवश यह भी पूछना ज़रूरी है कि जो विवाह परिपाटी के अनुसार हुए हैं, क्या वो सब के सब आदर्श बने?  कहानी में बार-बार यह प्रदर्शित होता है कि प्रेम गुनाह नहीं है लेकिन सभ्यता एवं संस्कृति में घुली नफरत को चाशनी की मिठास में लपेट दिया जाता है।    नायक एक दूसरे युवा के मुंह से यह सुनकर कि हम तो पंजाबी हैं और वो लड़की पहाड़ी है,  हमारी शादी नहीं हो सकी,  नायक भी अपने आपको भी इसी प्रकार की श्रेणी में ले जाता है।  हालांकि नायिका शांता की शादी उसकी मां पक्की कर देती है क्योंकि वह अपने अंत के निकट है और शांता इस बात को चुपचाप मान लेती है।  कहानी में कोई प्रेम प्रसंग नहीं है और न ही वह मिलकर कोई ख्वाब बुनते हैं।  सिर्फ नायक अपनी ही कल्पनाओं में उसे अपने साथ रखता है और फिर उसके विवाह पर जाने का निश्चय भी कर लेता है ताकि बाद में भी संबंध बने रहें । इस कहानी में एक अलग सी विशेषता  और भी है और वो है इसमें प्रकृति का खूबसूरत वर्णन।  कुछ उदाहरण-

“किश्ती आगे बढ़ती जा रही है।  झील के धुंधलके में, स्याह हो गए पानी में उदास चाँद डगमगाने लगा है- काँपता प्रतिबिंब लहरों के बीच दिखाई दे रहा है।”

“सुंदरनगर… सुनहरी धूप बिलासपुर में ही छूट गई है, हाथ आई है सुंदरनगर की नन्ही-नन्ही बूंदें और काले-काले उड़ते बादल… जाने कब बरस जाएं… कहाँ बरस जाएं… कहाँ बरस जाएं…”

“बाहर बादल सफ़ेद रूई से सफ़ेद हैं । इकट्ठे हो रहे हैं- बरसने के लिए… ये भी मेरा साथ देने आ गए हैं।  मैं तो इन्हें आँखों में पी जाता हूँ पर बादल बरस ही उठे हैं।”

‘नयी प्रेम कहानी’ में खूबसूरत नजारे देखने की उत्कंठा और अपने आपको प्रकृति के हवाले कर देने की जिद्द है।  इस प्रकार के दृश्यों से कहानी को सहज ही गति मिली है।

डॉ. नरेंद्र मोहन के नाम समर्पित इस कथा संग्रह में शामिल कहानियों के बारे में लेखक ने पहले ही स्पष्ट कर दिया है कि ‘महक से ऊपर’ कहानी उनके सबसे पहले कहानी संग्रह की शीर्षक कहानी है।  इस कहानी को पढ़ने के बाद यह साफ नजर आता है कि यदि वरिष्ठ लेखिका राजी सेठ ने अपने समय के जाने-माने कथाकार महीप सिंह को इसे छपवाने न दिया होता तो कमलेश भारतीय के साहित्य संसार को वहीं विराम लग गया होता । आज भी इस कहानी को पढ़ते समय आँखों के सामने वो पिता आकर खड़ा हो जाता है जो अपनी बेटियों के लिए हमेशा खुशी और सुकून तलाश करता है।  उसके भीतर के द्वंद्व को एक बेटी का पिता ही महसूस कर सकता है।  यह मान लिए जाने के बावजूद कि रिश्ते ऊपर से बनकर आते हैं फिर भी एक परिवार की लड़की के ब्याह के बाद भी मां-बाप उसके एक सुखी परिवार की कामना करते नहीं थकते।  कहानी में पूर्व में ब्याही गई घर की लड़कियों के जीवन से सबक लेते हुए सबसे छोटी लड़की को वह किस्मत के भरोसे छोड़ने को तैयार नहीं हैं।  वास्तव में कुछ तो मिट्टी की महक से ऊपर है।  कहानी एक पिता की तमाम संवेदनाओं को प्रकट करने में सक्षम दिखाई पड़ती है।

कहानी लिखने की कला तो लेखक में कूट-कूट कर भरी हुई है और उससे भी अधिक सार्थक बन पड़ा है किसी पाठक को कहानी के साथ बहाकर ले जाना।  पाठक एक पसोपेश में रहते हुए ‘उसके बावजूद’ कहानी को अंत तक जल्दी से पढ़ लेना चाहता है।  यह कहानी  एक भाई और एक बहन के निश्छल प्रेम की पराकाष्ठा है।  बहन के जीवन की कुछ समस्याओं से भाई परिचित तो है लेकिन उसके अंदर की एक और कथा से वह अनजान है । बहन उसे एक कथा के रूप में अपनी जीवन गाथा सुनाती हुई एक नई राह बुनने लगती है।  इस कहानी से हम इतना भर तो जान ही लेते हैं कि हमारा अतीत हमें छोड़ता नहीं है।  कहानी में हम पाते हैं कि उसकी दीदी बार-बार अतीत में लौटती दिखाई देती है । प्रेम के प्रति रुझान एक सामान्य चीज है लेकिन प्रेम में जीना उससे कहीं बिलकुल अलग है।  विभिन्न उतार-चढ़ाव कहानी को बोझिल नहीं बनाते और यही विशेषता इसे आम कहानियों से अलग करती है।

‘नयी प्रेम कहानी’ में उनकी ताजातरीन कहानियाँ ‘पड़ोस’, ‘अपडेट’ और ‘जय माता पार्क’ संकलित हैं । इन कहानियों में हमारे आस-पास का आधुनिकीकरण दिखलाई पड़ता है।  देश में मीडिया की गिरती साख को महसूस किया जा सकता है।  निश्चित रूप से गंदी और स्वार्थ की राजनीति हमारे यहाँ इस कदर हावी हो गई है कि एक ईमानदार अधिकारी अपने आपको चारों ओर से घिरा हुआ पाता है।  फटाफट और सबसे पहले हम की दुर्भावना ने पत्रकारिता के स्तर को गर्त में ले जाने का प्रयास किया है।  ‘अपडेट’ और  ‘जयमाता पार्क’ इसी प्रकार की कहानियाँ हैं जिनमें आजकल का माहौल हम देख सकते हैं।  ‘पड़ोस’ कहानी में एक तरफ तो भावनाएं और संवेदनाएं हैं जबकि दूसरी तरफ केवल अपने बारे में सोचने की प्रवृत्ति भी है।  यह ठीक है कि हालात हमेशा एक जैसे नहीं रहते फिर भी यह सोचकर दुख होता है कि इनसान के भीतर सबकुछ मर चुका है।  यह भी ठीक है कि भविष्य हम नहीं देख पाते लेकिन जब मजबूरी हावी हो जाती  है तब सभी मान्यताएं और परम्पराएं स्वत: ही ढह जाती हैं।  कोई किसी की मदद के लिए आगे नहीं आता और जो आते हैं उनको भी शक की निगाह से ही देखा जाता है।  फलत: हर आदमी अकेला पड़ जाता है और भटक भी जाता है।

‘किसी भी शहर में’ कहानी के भीतर चारों ओर एक अजीब सा तनाव फैला हुआ है।  यह किसी अकेले का तनाव नहीं है।  इस तनाव में भी राशन की चिंता भी है ।  एक दहशत भरे माहौल में जब नायक बच्चों के लिए कुछ खाने-पीने का सामान लेने के लिए बाहर निकल पड़ता है तब पाठक भी भयभीत रहता है।   जब मौत सिर पर नाचती दिखाई देती है तो डर तो लगता ही है।   यही बात नायक को समझाई जाती है तो वो मौत को किनारे रख देता है और खुले आम राशन की खोज में घूमता है।

एक और कहानी भी तनाव से भरपूर है मगर उसमें एक बच्चे की ज़िद्द है कि पिकनिक पर जाना ही जाना है।  इस तनाव से मुक्त हो जाने पर बच्चे के चेहरे पर खुशियों के फूल खिल जाते हैं और बच्चे का नाना भी सोचने लगता है कि ‘कब गए थे पिकनिक पर’।  वास्तव में इस तनाव भरी दुनिया में हम अपने लिए, अपने बच्चों के लिए और इस समाज को खुशनुमा बनाने के लिए समय कहाँ निकाल पाते हैं।  आखिर इतनी व्यस्तता किस काम की?

‘बस, थोड़ा सा झूठ’ कहानी पूरी तरह दर्द से भरी हुई है।  जिसके सीने में दर्द है, वह बुजुर्ग है और आशावादी भी है और उसे विश्वास है कि यह सभी दुख-दर्द एक न एक दिन दूर हो जाएँगे॥   उसकी इसी आशावादिता को बनाए रखने के लिए एक मित्र दूसरे मित्र से यह वादा लेता है कि पीड़ित व्यक्ति के लिए थोड़ा सा झूठ बहुत बड़ा संबल है। कहानी के भीतर से हम सबके जीवन का सच उभर आता है और यही सच इस कहानी में सांस भरने का काम करता है।

‘नयी प्रेम कहानी’ की कहानियों के संवाद हमें उकसाते भी हैं और बहुत सी मजबूरियों से हमारा परिचय भी कराते हैं।   इन कहानियों में रिश्तों का आदर मुखरित हुआ है जबकि विभिन्न पात्रों में कशमकश भी मौजूद है।   यह कहानियाँ केवल घर में घटित होने वाली कहानियाँ नहीं हैं।  इन कहानियों की घटनाओं को हम हमेशा अपने आस-पास देखते हैं।   दरअसल इस संसार में किसी के जीवन की खुशियाँ और किसी का सुख दूसरे से देखा नहीं जाता।  इन कहानियों को पढ़कर लगता है कि अगर जीवन में समझौता नाम का शब्द नहीं होता तो न जाने अभी तक कितने घर टूट गए होते, प्रेम बदनाम हो गया होता, रिश्ते तार-तार हो गए होते और नव निर्माण की तो कल्पना ही नहीं होती। कमलेश भारतीय की कहानियों को पढ़ने पर अहसास होता है कि वह यह सब भुगत चुके हैं।  सच तो यह है कि हम सब लोग भी इस जीवन की उधेड़बुन से बाहर नहीं निकल पाते हैं।  सभी कहानियों के पात्र सहज ही हमारे इर्द-गिर्द मँडराते दिखाई देते हैं।  इन कहानियों में कोरी कल्पना नहीं बल्कि एक ऐसा यथार्थ है कि हम उससे मुंह मोड़ने का साहस ही नहीं कर सकते । ‘नयी प्रेम कहानी’ पुस्तक प्रेम करने लायक है।

विभिन्न कहानी संग्रहों, लघु-कथाओं और अन्य पुस्तकों के रचयिता कमलेश भारतीय की ‘नयी प्रेम कहानी’ को हंस प्रकाशन ने प्रकाशित किया है जिसका खूबसूरत आवरण कुँवर रवीन्द्र ने तैयार किया है।

समीक्षक – श्री मुकेश पोपली

‘स्वरांगन’, ए-38-डी, करणी नगर, पवनपुरी, बीकानेर-334003

मोबाइल: 7073888126

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा #112 – “एकता और शक्ति” – श्री अमरेन्द्र नारायण ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है श्री अमरेंद्र नारायण जी की पुस्तक “एकता और शक्ति”  की समीक्षा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 112 ☆

☆ “एकता और शक्ति” – श्री अमरेन्द्र नारायण ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆  

Unity And Strength

एकता और शक्ति 

लेखक… अमरेन्द्र नारायण

प्रकाशक :  राधाकृष्ण प्रकाशन,राजकरल प्रकाशन समूह, 7/31 अंसारी रोड दरयागंज, नई दिल्ली  

अमेज़न लिंक >> एकता और शक्ति

एकता और शक्ति उपन्यास स्वतंत्र भारत के शिल्पकार  लौह पुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल के अप्रतिम योगदान पर आधारित कृति है। इस उपन्यास की रचना  गुजरात के रास ग्राम के एक सामान्य कृषक परिवार को केन्द्र में रख कर की गयी है।श्री वल्लभभाई पटेल के महान  व्यक्तित्व से प्रभावित होकर हजारो लोग खेड़ा सत्याग्रह के दिनों से ही उनके अनुगामी हो गए थे और उनकी संघर्ष यात्रा के सहयोगी बने थे।पुस्तक में सरदार पटेल के व्यक्तित्व के महत्वपूर्ण पक्षों को और उनके अद्वितीय योगदान का प्रामाणिक रूप से वर्णन किया गया है।

महान स्वतंत्रता सेनानी… कर्मठ देशभक्त…  दूरदर्शी नेता… कुशल प्रशासक…! सरदार वललभभाई पटेल के सन्दर्भ में ये शब्द विशेषण नहीं हैं। ये दरअसल उनके व्यक्तित्व की वास्तविक छबि है.   स्वतंत्रता प्राप्ति के तुरन्त बाद अनेक समस्याओं से जूझते हुए भारतवर्ष को संगठित करने, उसे सुदृढ़ बनाने और नवनिर्माण के पथ पर अग्रसर कराने में उनकी भूमिका अविस्मरणीय रही है। ‘एकता और शक्ति’ स्वतंत्र भारत के इस महान शिल्पी को लेखक की विनम्र श्रद्धांजली  है। यह उपनयास एक सामान्य कृषक परिवार  के किरदार से सरदार की कार्य -कुशलता, उनके प्रभावशाली नेतृत्व और अनुपम योगदान का का ताना-बाना बुनता है।उपन्यास सरदार श्री के जीवन से सबंधित कई अल्पज्ञात या लगभग अनजान पहलुओं को भी नये सिरे और नये नजरिये से छूता है। 

यह उपन्यास सरदार वल्लभभाई पटेल के अप्रतिम जीवन से  नयी पीढ़ी में राष्ट्रनिर्माण की अलख जगाने का कार्य कर सकता है. आज की पीढ़ी को सरदार के जीवन के संघर्ष से परिचित करवाना आवश्यक है, जिसमें यह उपन्यास अपनी महती भूमिका निभाता नजर आता है.  

भारत के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान एवं स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद देशी रियासतों का भारत में त्वरित विलय कराने, स्वाधीन देश में उपयुक्त प्रशासनिक व्यवस्था बनाने और कई कठिनाइयों से जूझते हुए देश को प्रगति के पथ पर अग्रसर कराने में, लौह पुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल का योगदान अप्रतिम रहा है। वे लाखों लोगों के लिए अक्षय प्रेरणा-स्रोत हैं। एकता और शक्ति, सरदार वल्लभभाई पटेल के योगदान पर आधारित एक ऐसा उपन्यास है जिसमें एक सामान्य कृषक परिवार की कथा के माध्यम से, सरदार श्री के प्रभावशाली कृशल नेतृत्व का एवं तत्कालीन घटनाओं का वर्णन किया गया है। साथ ही, एक सम्पन्न एवं सशक्त भारत के निर्माण हेतु उनके प्रेरक दिशा-निर्देशों पर भी प्रकाश डाला गया है।

श्री अमेरन्द्र नारायण

अमेरन्द्र नारायण एशिया एवं प्रशान्त क्षेत्र के अन्तरराष्ट्रीय दूर संचाार संगठन एशिया पैसिफिक टेली कॉम्युनिटी के भूतपूर्व महासचिव एवं भारतीय दूर संचार सेवा के सेवानिवृत्त कर्मचारी हैं। उनकी सेवाओं की प्रशंसा करते हुए उन्हें भारत सरकार के दूरसंचार विभाग ने स्वर्ण पदक से और संयुक्त राष्ट्र संघ की विशेष एजेंसी अन्तर्राष्ट्रीय दूरसंचार संगठन ने टेली कॉम्युनिटी को स्वर्ण पदक से और उन्हें व्यक्तिगत रजत पदक से सम्मानित किया।

श्री नारायण के अंग्रेजी उपन्यास—“फ्रैगरेंस बियॉन्ड बॉर्डर्स”  का उर्दू अनुवाद “खुशबू सरहदों के पास” नाम से प्रकाशित हो चुका है। भारत के भूतपूर्व राष्ट्रपति महामहिम अब्दुल कलाम साहब, भूतपूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी सहित कई गणमान्य व्यक्तियों ने इस पुस्तक की सराहना की है। महात्मा गांधी के चम्पारण सत्याग्रह और फिजी के प्रवासी भारतीयों की स्थिति पर आधारित उनका संघर्ष नामक उपन्यास काफी लोकप्रिय हुआ है। उनकी पाँच काव्य पुस्तकें—सिर्फ एक लालटेन जलती है, अनुभूति, थोड़ी बारिश दो, तुम्हारा भी, मेरा भी और श्री हनुमत श्रद्धा सुमन पाठकों द्वारा प्रशंसित हो चुकी हैं। श्री नारायण को अनेक साहित्यिक संस्थाओं ने सम्मानित किया है।

 श्री अमरेन्द्र नारायण जी  के इस प्रयास की व्यापक सराहना की जानी चाहिये. यह विचार ही रोमांचित करता है कि यदि देश का नेतृत्व लौह पुरुष सरदार पटेल के हाथो में सौंपा जाता तो आज कदाचित हमारा इतिहास भिन्न होता. पुस्तक पठनीय व संग्रहणीय है.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’, भोपाल

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा #111 – “ठहरना जरूरी है प्रेम में” (काव्य संग्रह)  – अमनदीप गुजराल ‘विम्मी’ ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है  सुश्री अमनदीप गुजराल ‘विम्मी’  की पुस्तक “ठहरना जरूरी है प्रेम में”  की समीक्षा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 111 ☆

☆ “ठहरना जरूरी है प्रेम में” (काव्य संग्रह)  – अमनदीप गुजराल ‘विम्मी’ ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆  

पुस्तक चर्चा

पुस्तक – ठहरना जरूरी है प्रेम में (काव्य संग्रह) 

कवियत्री… अमनदीप गुजराल ‘विम्मी’ 

बोधि प्रकाशन, जयपुर, १५० रु, १०० पृष्ठ

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव

जब किसी अपेक्षाकृत नई लेखिका की किताब आने से पहले ही उसकी कविताओ का अनुवाद ओड़िया और मराठी में हो चुका हो, प्रस्तावना में पढ़ने मिले कि ये कवितायें खुद के बूते लड़ी जाने वाली लड़ाई के पक्ष में खड़ी मिलती हैं, आत्मकथ्य में रचनाकार यह लिखे कि ” मेरे लिये, लिखना खुद को खोजना है ” तो किताब पढ़ने की उत्सुकता बढ़ जाती है. मैने अमनदीप गुजराल विम्मी की “ठहरना जरूरी है प्रेम में ” पूरी किताब आद्योपांत पढ़ी हैं.

बातचीत करती सरल भाषा में, स्त्री विमर्श की ५१ ये अकवितायें, उनके अनुभवों की भावाभिव्यक्ति का सशक्त प्रदर्शन करती हैं.

पन्ने अलटते पलटते अनायास अटक जायेंगे पाठक जब पढ़ेंगे

” देखा है कई बार, छिपाते हुये सिलवटें नव वधु को, कभी चादर तो कभी चेहरे की “

या

” पुल का होना आवागमन का जरिया हो सकता है, पर इस बात की तसल्ली नहीं कि वह जोड़े रखेगा दोनो किनारों पर बसे लोगों के मन “

अथवा

” तुम्हारे दिये हर आक्षेप के प्रत्युत्तर में मैंने चुना मौन “

और

” खालीपन सिर्फ रिक्त होने से नहीं होता ये होता है लबालब भरे होने के बाद भी “

माँ का बिछोह किसी भी संवेदनशील मन को अंतस तक झंकृत कर देता है, विम्मी जी की कई कई रचनाओ में यह कसक परिलक्षित मिलती है…

” जो चले जाते हैं वो कहीं नही जाते, ठहरे रहते हैं आस पास… सितारे बन टंक जाते हैं आसमान पर, हर रात उग आते हैं ध्रुव तारा बन “

अथवा…

” मेरे कपड़ो मेंसबसे सुंदर वो रहे जो माँ की साड़ियों को काट कर माँ के हाथों से बनाए गये “

 और एक अन्य कविता से..

” तुम कहती हो मुझे फैली हुई चींजें, बिखरा हुआ कमरा पसन्द है, तुम नही जानती मम्मा, जीनियस होते हैं ऐसे लोग “

“ठहरना जरूरी है प्रेम में” की सभी कविताओ में बिल्कुल सही शब्द पर गल्प की पंक्ति तोड़कर कविताओ की बुनावट की गई है. कम से कम शब्दों में भाव प्रवण रोजमर्रा में सबके मन की बातें हैं. इस संग्रह के जरिये  अमनदीप गुजराल संभावनाओ से भरी हुई रचनाकार के रूप में स्थापित करती युवा कवियत्री के रूप में पहचान बनाने में सफल हुई हैं. भविष्य में वे विविध अन्य विषयों पर बेहतर शैली में और भी लिखें यह शुभकामनायें हैं. मैं इस संग्रह को पाठको को जरूर पढ़ने, मनन करने के लिये रिकमेंड करता हूं. रेटिंग…पैसा वसूल, दस में से साढ़े आठ.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’, भोपाल

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा #110 – “विचारों का टैंकर” (व्यंग्य संग्रह) – श्री अशोक व्यास ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है  श्री अशोक व्यास जी की पुस्तक  “विचारों का टैंकर” की समीक्षा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 110 ☆

☆ “विचारों का टैंकर” (व्यंग्य संग्रह)  – श्री अशोक व्यास ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆  

पुस्तक चर्चा

व्यंग संग्रह  … विचारों का टैंकर

व्यंगकार … श्री अशोक व्यास

पृष्ठ : १३२     मूल्य : २६० रु.

प्रकाशक : अयन प्रकाशन , दिल्ली

आईएसबीएन : ९७८९३८८३४७१४६६    

संस्करण : प्रथम , वर्ष २०१९

मैंने श्री अशोक व्यास को व्यंग्य पढ़ते सुना है. वे लिखते ही बढ़िया नही हैं, पढ़ते भी प्रभावी तरीके से हैं. व्यंग्य में निहित आनंद, चटकारे और अंततोगत्वा लेखन जनित संदेश का विस्तार ही  रचनात्मक उद्देश्य होता है, जो व्यंग्यकार को संतुष्टि प्रदान करता है. अशोक व्यास पेशे से इंजीनियर रहे हैं, सेवानिवृति के बाद वे निरंतरता से स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं, उन्हें मैंने अखबारो में अनेक बार पढ़ा था, कुछ समय पूर्व उनका जबलपुर आगमन हुआ और भेंट भी. विचारों का टैंकर उनकी सद्यः प्रकाशित पहली व्यंग्य कृति है. किताब बढ़िया गेटअप में हार्ड बाउंड प्रकाशित हुई है. इसके लिये प्रकाशक को पूरे नम्बर जाते हैं. पुस्तक में संजोये  गये  व्यंग्य आलेख मैंने पिछले दो तीन दिनो में  पढ़े. वे व्यवहारिक बोलचाल की भाषा का उपयोग करते हैं. अंग्रेजी शब्दो का भी बहुतायत में प्रयोग है, तो  तत्सम शुद्ध शब्द कटाक्ष के लिये प्रयुक्त किये गये हैं.अशोक जी अधिकांशतः बातचीत की शैली में  लिखते हैं.

व्यंग्य अनुभव जनित लगते हैं. सच तो यह है कि  व्यंग्यकार की संवेदन शीलता उसके अपने व्यक्तिगत या उसके परिवेश में किसी अन्य के सामाजिक कटु अनुभव व विसंगती तथा लोगो का व्यवहारिक दोगलापन ही व्यंग्य लेखन के लिये प्रेरित करते हैं. व्यंग्यकार का रचनाकार संवेदन शील मन सामाजिक विडंबनाओ को पचा नही पाता तो उसके मन में विचारो का बवंडर खड़ा हो जाता है वह  अपने मन में चल रही उथल पु्थल और खलबली को  लिखकर किंचित शांति पाने का यत्न करता है. इस प्रक्रिया में जब रचनाकार अमिधा की जगह लक्षणा और व्यंजना शक्तियो का प्रयोग करता है तो उसके कटाक्ष पाठक को कभी गुदगुदाते हैं, कभी हंसाते हैं, कभी भीतर ही भीतर रुला देते हैं.अपने इन विचारो को ही अशोक जी ने एक टैंकर में  भर कर पाठको के सम्मुख सफलता पूर्वक रखा है.

पाठक या श्रोता व्यंग्य के आस पास से ही उठाये गये  विषय की वैचारिक विडम्बना पर सोचने को मजबूर हो जाता है.उनकी सफलता घटना का सार्वजनीकरण इस तरह करने में  है कि व्यक्ति कटाक्ष को पढ़कर, कसमसा कर रह जाने पर मजबूर हो जाता है.

व्यंग्य लेखन व्यंग्यकारों का उद्घोष है कि वह समाज की गलतियो के विरोध में अपनी कलम के साथ प्रहरी के रूप में खड़ा है. विडंबना यह है समाज इतनी मोटी चमड़ी का होता जा रहा है कि आज जिस पर व्यंग्य किया जाता है वह उसे हास्य में उड़ा देता है और लगातार अंतिम संभावना तक कुतर्को से स्वयं को सही सिद्ध करने का यत्न करता रहता है. यही कारण है कि त्वरित प्रतिक्रिया का लेखन व्यंग्य, जो प्रायः अखबारो के संपादकीय पन्नो पर छपता है, अब पुस्तको का स्थाई स्वरूप लेने को मजबूर है. विडम्बनाओ, विसंगतियो को जब तक समाज स्थाईभाव देता रहेगा व्यंग्य की पुस्तके प्रासंगिक बनी रहेंगी. व्यंग्यकार की अभिव्यक्ति उसकी विवशता है. सुखद है कि व्यंग्य के पाठक हैं, मतलब सच के समर्थक मौजूद हैं, और जब तक नैसर्गिक न्याय के साथ लोग खड़े रहेंगे  तब तक समाज जिंदा बना रहेगा. आदर्श की आशा है.

पुस्तक के शीर्षक व्यंग्य विचारों का टैंकर में वे लिखते हैं ” अब उनके विचारों का प्रेशर समाप्त होने वाला था,… वे अगले दौर में फिर अपनी नई नई सलाहों के साथ हाजिर होंगें… मैंने भी सहमति में सिर हिलाया जिससे उनकी सलाह मेरे सिर से इधर उधर बिखर जावे… बिन मांगे सलाह देने वाले फुरसतियों पर यह अच्छा व्यंग्य है. कई नामचीन व्यंग्यकारो ने इस विषय पर लिखा है, क्योकि ऐसे बिना मांगे सलाह देने वाले चाय पान के ठेलो से लेकर कार्यालय तक कही न कही मिल ही जाते हैं. अशोक जी ने अपने लेखनी कौशल व स्वयं के अनुभव के आधार पर अच्छा लिखा है. शब्दो की मितव्ययता से और प्रभावी संप्रेषण संभव था.

जित देखूं उत मेरा लाल, कट आउट होने का दुख, युवा नेता से साक्षात्कार, टाइम नही है, ठेकेदार का साहित्त्य,दास्तान ए साड़ी, राग मालखेंच, घर का मुर्गा, भ्रष्टाचार की जड़, आम आदमी की तलाश, रिमोट कंट्रोल, चुप बहस चालू है, संसार का पहला एंटी हीरो, सरकार का चिंतन, सरकारी और गैर सरकारी मकान, मांगना एक श्वेत पत्र का, ज्ञापन से विज्ञापन तक, बारात की संस्कृति, जेलसे छूटने की पटकथा, राजनीति के श्वेत बादल, सम्मानित होने का भय, कुत्तो के रंगीन पट्टे, साहित्य माफिया, कटौती प्रस्ताव, इक जंगला बने न्यारा, क्रिकेट का असली रोमांच, आई डोंट केयर, वी आई पी कल आज और कल भी, नई सदी का नयापन, मरना उर्फ महान होना, एक घोटाले का सवाल है बाबा, ऐसा क्यो होता है, नागिन डांस वाले मुन्ना भाई, चर्चा चुनाव की, लेखन का संकट जैसे रोचक टाइटिल्स के सांथ कुल ३६ व्यंग्य आलेख किताब में हैं.

व्यंग्य के मापदण्डो पर इन लेखो में कथ्य है, कटाक्ष है, भाषाई करिश्मा पैदा करने के यत्न जहां तहां देखने मिलते हैं, सामयिक विषय वस्तु है, वक्रोक्ति हैं, घटना को कथा बनाने की निपुणता भी देखने मिलती है, किंचित  संपादन की दृ्ष्टि से स्वयं पुनर्पाठ या मित्र मण्डली में चर्चा से कुछ लेख और भी कसावट के साथ प्रस्तुत किये जाने की संभावना पढ़ने पर मिलती है. हमें अशोक जी की अगली किताबों में यह मूर्त होती मिलेगी. विचारो के टैंकर के लिये वे बधाई के सुपात्र हैं, वे शरद जोशी, रवींद्रनाथ त्यागी और परसाई परम्परा के ध्वज वाहक बने हैं, उन्हें कबीर के दिझखाये मार्ग पर बहुत आगे तक का सफर पूरा करना है. स्वागत और शुभकामना क्योकि इस राह में सम्मान मिलेगा तो कभी अपनो के पत्थर और गालियां भी पड़ेंगी, पर अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते रहना होगा.लेखकीय शोषण एवं हिन्दी पुस्तकों की बिक्री की जो वर्तमान स्थितियां है, वे  छिपी नहीं है, ऐसे समय में  सारस्वत यज्ञ का मूल्यांकन भविष्य जरूर करेगा, इसी आशा के साथ.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’, भोपाल

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 109 – “परमानंदम्” – सुश्री सुषमा व्यास राजनिधि ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है  सुश्री सुषमा व्यास राजनिधि जी  की  पुस्तक  “परमानंदम्” की समीक्षा।

पुस्तक चर्चा

पुस्तक चर्चा

कृति… परमानंदम्

लेखिका… सुषमा व्यास राजनिधि

संस्मय प्रकाशन, इंदौर

ISBN 978-81-952641-3-1

 पृष्ठ 48

साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 109 ☆

☆ “परमानंदम्” – सुश्री सुषमा व्यास राजनिधि ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆  

आध्यात्म को बड़ा गूढ़ विषय समझे जाने की भ्रांति है. 

रिटायरमेंट के बाद ही धर्म आध्यात्म के लिये  समय दिये जाने की परम्परा है.

लम्बे लम्बे गंभीर प्रवचन आध्यात्मिक उन्नयन के लिये जरूरी माने जाते हैं. किंतु वास्तव में ऐसा है नहीं. सुषमा व्यास राजनिधि की कृति परमानंदम् पढ़िये, उनके छोटे छोटे आलेख, आपमें आध्यात्मिकता के प्रति लगाव पैदा कर देंगे. गुरु के प्रति आपमें समर्पण जगा देंगे. इन दिनों धर्म सार्वजनिक शक्ति प्रदर्शन का संसाधन बनाकर राजनैतिक रूप से प्रस्तुत किया जा रहा है. जबकि वास्तव में धर्म नितांत व्यक्तिगत साधना है. यह वह मार्ग है जो हमारे व्यक्तित्व को इस तरह निखारता है कि हमारा  मन, चित्त परम शांति का अनुभव कर पाता है. ईश्वरीय परम सत्ता किसी फ्रेम में बंधी फोटो या जयकारे से बहुत परे वह शिखर नाद है जिसकी ध्वनि मन ही कह सकता है और मन ही सुन सकता है. परमानंद  अभिव्यक्ति कम और अनुभूति अधिक है. सुषमा व्यास राजनिधि ने नितांत सरल शब्दों में गूढ़ कथ्य न्यूनतम विस्तार से लिख डाली है. जिनकी व्याख्या पाठक असीम की सीमा तक अनुभव कर सकता है. वे नर्मदा को अपनी सखी मानती हैं. रेवासखि में यही भाव अभिव्यक्त होते हैं. भगवान श्रीकृष्ण और श्रीमद्भगवतगीता, आधुनिक युग में राम और रामायण की महत्ता, श्रीमद् देवी भागवत पुराण, युवा वर्ग में धार्मिक ग्रंथो के प्रति अरुचि, उनका आलेख है, दरअसल हमारे सारे धार्मिक पौराणिक ग्रंथ संस्कृत में हैं, और आज अंग्रेजी माध्यम में पढ़ने वाले सारे युवा संस्कृत ही नही जानते. इसीलिये मेरे पिता प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव जी ने भगवतगीता, रघुवंश, भ्रमरगीत, दैनंदिनी पूजन श्लोक आदि का हिन्दी काव्यगत अनुवाद किया है, जिससे युवा पीढ़ी इन महान ग्रंथो को पढ़ समझ व उनका मनन कर सके. और इन वैश्विक ग्रंथो के प्रति युवाओ में रुचि जाग सके. धार्मिक ग्रंथो में नारी पात्र, प्रसिद्ध मंदिर रणजीत बाबा हनुमान की महिमा, सृष्टि के सबसे दयालु संत, गोस्वामी तुलसीदास के ग्रंथो में राम का स्वरूप, कृष्ण चिंतन तथा अंधकार में उगता सूरज जैसे विषयों पर सारगर्भित लेखों का संग्रह किताब में है.

पुस्तक पढ़ने समझने गुनने लायक है.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ पुस्तक चर्चा – आत्मानंद साहित्य #111 ☆ ‌गांव देस – श्री विवेक कांत मिश्र ‘उजबक’ ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 111 ☆

☆ ‌पुस्तक चर्चा – गांव देस – श्री विवेक कांत मिश्र ‘उजबक’ ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

पुस्तक समीक्षा

पुस्तक का नाम – गांव देस (कहानी संग्रह)

लेखक —श्री विवेक कांत मिश्र ‘उजबक’

मूल्य- ₹ 175

 

उपलब्ध – अमेज़न लिंक  >> गांव देस  

☆ पुस्तक चर्चा –  श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

यदि अगर हम या आप रचना धर्मिता की बात करें तो यह बात स्पष्ट हो जाती है कि एक कुशल रचनाकार अपने कथा पात्रों का चयन तथा पटकथा का ताना-बाना बुनने का कार्य अपने ही इर्द गिर्द के परिवेश से चयनित करता है जो यथार्थ होने के साथ कल्पना प्रधान भी होती है, जो साहित्यिक सौंदर्य को भावप्रधान बना देती है।

मेरा यह कहना भी समसामयिक है कि किसी भी संग्रह का मुखपृष्ठ ही बहुत कुछ कह जाता है। लेखन के बारे में और पाठक को पहली ही नजर में ललचा देता है। यदि हम गांव देस की बात करें तो इसका मुख पृष्ठ अपने उद्देश्य में सफल रहा, और यदि रचना धर्मिता की बात करें तो हम यह पाते हैं कि इस रचना कार को मात्र यही एक संग्रह मुंशी प्रेमचंद के समकालीन तो नहीं, समकक्ष अवश्य खड़ा कर देता है।

लेकिन एक की दूसरे से तुलना एक दूसरे की रचनाधार्मिता के प्रति अन्याय होगा। दोनों रचना कारों में कुछ  लक्षण सामूहिक दिखते हैं , जैसे पटकथा, पात्र संवाद शैली तथा कहानी का ग्रामीण परिवेश  एक जैसा है अगर कुछ फर्क है तो समय का ज़हां मुंशी प्रेमचंद आज का परिवेश देखने तथा लिखने के लिए जीवित नहीं है, जब कि लेखक महोदय वर्तमान समय में वर्तमान परिस्थितियों का बखूबी  चित्रण कर रहे हैं। जैसे–बैजू बावरा, नियुक्ति पत्र, तथा अचिरावती का प्रतिशोध, वर्तमान कालीन सामाजिक विद्रूपताओं, योजनाओं में व्याप्त भ्रष्टाचार तथा कथा नायकों की मजबूरी का कच्चा चिट्ठा है, तो प्रतिज्ञा सामूहिक परिवार में घट रही घटनाओं के द्वारा  मन के भावों का उत्कृष्ट नमूना पेश करती है जिनके कथा पात्रों के भावुक कर देने वाले संवाद में पाठक खो सा जाता है, जब कि काफिर की बेटी तथा चिकवा कहानी सामाजिक समरसता  और इंसानियत की ओर इशारा करती है, तथा हमारे संकुचित दृष्टिकोण और विचार धारा को आवरणहीन कर देती है।  इसके साथ ही साथ दिदिया कहानी इस पुस्तक रचनाओं में सिरमौर है। यह रचना भावनाओं का पिटारा ही नहीं है जिसमें दया करूणा प्रेम मजबूरी बेबसी  समाई है बल्कि उसका दूसरा राजनैतिक पहलू भी बड़े ही बारीकी से उजागर किया गया है कि आर्थिक उदारीकरण किस प्रकार विदेशी पूंजी वाद बढ़ावा देता है और कैसे हमारे छोटे-छोटे गृहउद्योगों को लील जाता है।

उससे रोजी-रोटी कमाने वालों को दर्द और पीड़ा, तथा बर्बादी इसके साथ ही साथ यह कहानी बुनकर समाज दुर्गति को दिखाती है । नए विषय वस्तु के ताने-बाने में बुनी कथा तथा उसके संवाद तो इतने मार्मिक चित्रण प्रस्तुत करते हैं कि बचपन में हम उनको तानी फैलाते समेटते हुए देख चुके हैं। इस लिए कहानी पढ़ते हुए वे दिन याद आते हैं साथ ही आंचलिक भाषा भोजपुरी शैली के संवाद भले ही अहिंदी भाषी लोगों की समझ से परे हो, लेकिन उसनेे रचना सौंदर्य को निखारने में महती भूमिका निभाने का कार्य किया है। यह रचना बनारसी साड़ी उद्योग को केंद्रित कर लिखी गई है। सर्वथा नया विषय है। उसके भावुक संवाद पाठक को अंत तक रचना पढ़ने को बांधे रखने में सक्षम है।

इस पुस्तक का एक महत्वपूर्ण पहलू और भी है कि इसके कहानी शीर्षक कुछ अजीब से है जो पाठक के मन कहानी पढ़ने समझने की जिज्ञासा तथा ललक जगाते हैं।  जैसे अचिरावती का प्रतिशोध,काला नमक, चिकवा आदि। वहीं अंतिम कहानी शीर्षक बिदाई कथा संग्रह के समापन की घोषणा करता जान पड़ता है।और यहीं एक रचना कार की कार्य कुशलता का परिचायक है।

हर्ष प्रकाशन दिल्ली का त्रुटिहीन मुद्रण तारीफ के काबिल है अन्यथा त्रुटि से युक्त मुद्रण तो भोजन में कंकड़ पत्थर के समान लगता है।यह पुस्तक पढ़ने के बाद आप के पुस्तकालयों की शोभा बढ़ा सकती है ।

 

समीक्षा – सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 108 – “एक दिया देहरी पर” – कवियत्री… सुश्री सुषमा व्यास राजनिधि ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है  सुश्री सुषमा व्यास राजनिधि जी  के काव्य संग्रह  “एक दिया देहरी पर” की समीक्षा।

पुस्तक चर्चा

कृति… एक दिया देहरी पर

कवियत्री… सुषमा व्यास राजनिधि

संस्मय प्रकाशन, इंदौर

ISBN 978-81-95264-12-4

मूल्य २०० रु, पृष्ठ १०८

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 108 ☆

☆ “एक दिया देहरी पर” – कवियत्री… सुश्री सुषमा व्यास राजनिधि ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆  

 

“धन, वैभव, राज सब ठुकरा देना

आंगाष्टिक मार्ग सेतप संयम की राह अपनाना

सिद्धार्थ से सिद्धस्थ हो जाना

मौन से हर उत्तर दे पाना

इतनाआसान तो नही बुद्ध हो जाना”

या

“उसके अंदर  सांझा चूल्हा है

तंदूर धधक रहा है

वो निगल नही सकता रोटी

उसके पास मुंह ही नही

फिर भी वह मुस्करा रहा है “

अथवा

“जब तुम मूड में हो

हँसो तो वह भी हँस ले

जब तुम गिल्टी हो

तो उसे भी होना ही चाहिये

तुम्हें क्या लगता है

स्त्री कोई उपयोग करने वाली चीज है ?

इन सब पंक्तियों को पढ़ने के बाद आपको क्या लगता है कि  ये किसी नई कवियत्री की पहली किताब से उधृत कविता अंश हैं ? पर हाँ यह सच ही सुषमा व्यास राजनिधि के प्रथम काव्य संग्रह “एक दिया देहरी पर” की कविताओ को पढ़ते हुये जिन ढ़ेरो पक्तियो को मैंने लाल स्याही से रेखांकित किया है, उन्हीं में से चंद पंक्तियां हैं.  सुषमा जी रिश्तों, घर परिवार, धन धान्य, सदव्यवहार से परिपूरित एक आध्यात्मिक दृष्टि वाली भाषा संपन्न सरल रचनाकार हैं. एक दिया देहरी पर में उन्होने तीन खण्डों में अपनी ४५ अकवितायें साहित्य जगत के सम्मुख रखीं हैं. शैली, भाषा, काव्य में भावगत सौंदर्य, रचना सौष्ठव परिपक्व है. स्त्री विमर्श की कवितायें नारी खण्ड में हैं, जिनमें माई का पल्लू, घर से जाती बेटियां, नारी मन के भाव बेलती रोटियां, मैं सितार सी, खुद को खुद में ढ़ूंढ़ रही हूं, धरा सी नारी, मेरा कोना, मैं भी चुनरिया, अनगढ़ी आदि प्रभावोत्पादक हैं. उनकी आध्यात्मिक दृष्टि व पौराणिक ज्ञान ही उनसे लिखवाता है

“ओ स्त्री तुम पैदा नही हुई, बना दी गई हो….

तुम कभी अनुसूया बनी कभी अहिल्या बनी बरसों बरस

शिला बन सहती रहीं वर्षा, शीत, ग्रीष्म….

सीता, द्रौपदि, तारा बनकर शोषित होती रहीं पर अब तुम उठ खड़ी हो गई हो….

मेरी आशा है कि यह आव्हान नारी अस्मिता और जीवन दर्शन में शाश्वत प्रेम के जागरण की नई इबारत लिखेगा.

सुषमा व्यास राजनिधि जी व्यंग्य, आध्यात्म, मंच संचालन आदि विविध विधाओ में समान रूप से पारंगत हैं उनसे अनवरत बहुआयामी लेखन की अपेक्षा साहित्य जगत रखता है. एक दिया देहरी पर अक्षय प्रकाश करता रहे यही शुभेच्छा करता हूं.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 107 – “अक्षरा ” (सरस्वती विमर्श पर केंद्रित अंक)  – संपादन… श्री मनोज श्रीवास्तव ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है  श्री  मनोज श्रीवास्तव जी  द्वारा सम्पादित पत्रिका  “अक्षरा ” (सरस्वती विमर्श पर केंद्रित अंक) की समीक्षा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 107 ☆

☆ “अक्षरा ” (सरस्वती विमर्श पर केंद्रित अंक)  – संपादन… श्री मनोज श्रीवास्तव ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆  

पत्रिका चर्चा

अक्षरा नई यात्रा पर…

पत्रिका चर्चा… अक्षरा अंक २०३, मासिक पत्रिका,

“सरस्वती विमर्श पर केंद्रित अंक “

संपादन… श्री मनोज श्रीवास्तव

प्रकाशक… म. प्र. राष्ट्र भाषा प्रचार समिति, भोपाल

वार्षिक सदस्यता… ३०० रु

किसी विशुद्ध साहित्यिक पत्रिका में  लेख पढ़कर किसी अपरिचित पाठक का स्वस्फूर्त फोन आवे तो निष्कर्ष निकलता है कि प्रकाशित शब्द पाठक के मन पर छबि अंकित कर रहे हैं, पत्रिका सांगोपांग पढ़ी जा रही है. वरना विशुद्ध साहित्य की कतिपय कथित गरिष्ठ पत्रिकायें वरिष्ठ साहित्यकारों के पास भी लिफाफे से बाहर निकलने को ही तरसती रह जाती हैं. राष्ट्रभाषा प्रचार समिति की मुख पत्रिका “अक्षरा” विगत ४० वर्षो से अनवरत छप रही है, खरीद कर पढ़ी जा रही है, इसमें प्रकाशित होना रचनाकार को आंतरिक प्रसन्नता देता है, अर्थात अक्षरा विशिष्ट है.  नये आकार, नये गेटअप, कलेवर के नये स्वरूप में सेवानिवृत वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी श्री मनोज श्रीवास्तव के संपादन में नई  टीम के साथ अक्षरा अंक २०३, “सरस्वती विमर्श पर केंद्रित अंक ” २०० पृष्ठो  की विशद सामग्री निश्चित ही स्थाई संदर्भ हेतु  संग्रहणीय है. वर्तमान परिदृश्य में साहित्य  समाज को चिंतन, विचार और दिशा तो देता है किन्तु उससे सीधा आर्थिक लाभ नगण्य ही होता है.  सामाजिक गरिमा व सम्मान के लिये ही रचनाकार यह सारस्वत अनुष्ठान करते समझ आते हैं.

इस अंक को पढ़कर एक बुजुर्ग पाठक का फोन मेरे पास आाया वे मेरे व्यंग्य लेख ” सरस्वती वंदना से आभार तक ” की प्रशंसा कर रहे थे, मैं फुरसत में था तथा पत्रिका पढ़ ही रहा था सो मैंने उनसे पत्रिका के बाकी लेखों के विषय में भी बातें कीं, और मुझे लगा कि अक्षरा की इस नई यात्रा की चर्चा पाठको के बीच की जानी चाहिये जिससे अक्षरा और भी व्यापक हो.

हाल ही हमने समाचार देखा कि दक्षिण कश्मीर के अनंतनाग में बहने वाली ब्रिंगी नदी की जलधारा अचानक रुक गई है,  इसका पानी ‘पाताल’ में समा रहा है,  इसका कारण नदी का स्रोत समाप्त होना नहीं, बल्कि एक गहरा गड्ढा (सिंकहोल) बनना है जिसमें सारा पानी समाता जा रहा है. आगे की नदी का करीब 20 किमी लंबा हिस्सा सूखने से बड़ी संख्या में ट्राउट मछलियां भी मर गई हैं. 

अनेक नदियां उनके बेसिन में जंगलो की कटाई के चलते सूख रही हैं, जैसे जालौन से निकली नून नदी विलुप्त होती जा रही है. जालौन के 89 किलोमीटर के दायरे में फैली इस नदी से करीब 30 गांवों की फसलें सिंचित होती थीं. लेकिन, बुंदेलखंड में पड़ रहे सूखे के कारण ये नदी विलुप्त होती जा रही है.

अनेक नदियां व उनके जीव जंतु रेत के अंधाधुंध दोहन से मृतप्राय हो रही हें जैसे गाडरवाड़ा की शक्कर नदी सूख रही है. प्रातः स्मरणिय श्लोक “गंगे यमुने चैव गोदावरी सरस्वती ” में तो सरस्वती बांची जाती है पर पवित्र  नदी सरस्वती विलुप्त हो चुकी है. अक्षरा का यह विशेषांक सारस्वत साहित्य मंथन के साथ ही लुप्त होती नदियों की ओर भी पर्यावरणविदों का ध्यान आकर्षित करे ऐसी कामना है.

अंक के आरंभिक पन्ने पर अगली पीढ़ी को अपने सम्मुख ऊपर की सीढ़ी पर चढ़ाने का सुख “अपनी बात” में संपादन दायित्व से मुक्त होते कैलाश चंद्र पंत जी ने अभिव्यक्त किया है. नये विद्वान संपादक मनोज श्रीवास्तव जी के संपादकीय का शब्द शब्द, विभिन्न व्यापक संदर्भ, सरस्वती को लेकर उनका गहन चिंतन व संदर्भ विमर्श के श्रोत हैं. श्री रमेश दवे के आलेख सरस्वती मात्र शब्द नहीं दर्शन है, में वे लिखते हें कि ” भारतीय ज्ञान परंपरा का जीवंत होना, शक्तिमय होना ही सरस्वती होना है.

पत्रिका में माँ सरस्वती के दुर्लभ चित्र यत्र तत्र संदर्भानुकूल प्रकाशित किये गये हैं. अंक का सुंदर आवरण चित्र क्षमा उर्मिला जी ने बनाया गया है. 

श्री विनय कुमार, प्रेमशंकर शुक्ल, आभा बोधिसत्व, सुधीर सक्सेना, स्वदेश भटनागर, अभिषेक सिंह,बृजकुमार पटेल, राजकुमार कुम्भज, मुरलीधर चांदवाला, व देवेंद्र दीपक की  चयनित प्रकाशित कविताओ में से स्वदेश भटनागर जी की पंक्तियां उधृत करता हूं..

” हिंसा पर हिंसा

जमती जा रही है

आसमान भी तिरछा हो गया

तुम्हें मालूम होगा न माँ

मौन भी अब हिंसा की जद में आ गया

सुबह रक्त भरे पन्ने से शुरू होने लगी है

मनुष्य भी संवेदन शील नही रहा “

सोनल मानसिंह का लेख सरस्वती, कुसुमलता केडिया का लेख सरस्वती के मुहाने पर दम तोड़ता आर्य आक्रमण सिद्धांत,सरस्वती भारतीय सारस्वत साधना का जीवंत प्रतीक द्वारा राधावल्लभ त्रिपाठी, अरुण उपाध्याय का आलेख सरस्वती वाक् तरंगें और एक नदी, रंगों और रेखाओं में सरस्वती आलेख नर्मदा प्रसाद उपाध्याय,  राजा भोज के सरस्वती कंठाभरण : धुंध के पार एक चमकदार लकीर में  विजय मनोहर तिवारी ने धार की भोजशाला पर विस्तृत ऐतिहासिक विवेचना की है. 

सरस्वती के बहाने आत्म प्रत्यभिज्ञा की खोज में  आनंद सिंह,  आखिर कविता संयत और सिद्ध वाचालता ही तो है / कुमार मुकुल,  सा मां पातु सरस्वती भगवती / राजेश श्रीवास्तव,  सरस्वती का स्वरूप निराकार से साकार तक / मीनाक्षी जोशी,  भारतीय संगीत में सरस्वती / विजया शर्मा,  लुप्त सरस्वती की खोज : श्रीधर वाकणकर ‍-  रेखा भटनागर,  सरस्वती, श्रुति महती न हीयताम् : सरस्वती शाश्वत है / श्यामसुंदर दुबे,  सरस्वती की कालजयिता / विजयदत्त श्रीधर,  ‘ सरस्वती ‘ में महिला संचेतना / मंगला अनुजा,  पुरातन का रूपान्तरण है बसन्त / इंन्दुशेखर तत्पुरुष विशेषांक पर केंद्रित सभी आलेख पौराणिक साहित्य, वेदो, से संदर्भ उधृत करते हुये गंभीर चिंतन जनित लेख हैं. प्रत्येक लेख को पढ़ने समझने में लंबा समय लगेगा.  वैज्ञानिक व तकनीकी दृष्टिकोण से विलुप्त सरस्वती नदी पर एक आलेख की कमी लगी.

नारी तू सरसती / सुमन चौरे, मुझे सरस्वती से कोई दिक्कत नहीं है / निरंजन श्रोत्रिय एवं दारागंज में निराला / देवांशु पद्मनाभ संस्मरणात्मक लेख हैं. सरस्वती संदर्भ की अनूदित सामग्री भी संयोजित है जिसमें “ज्ञान प्रदाता : सरस्वती माता / मूल : विजयभास्कर दीर्घासि / अनुवादक एस. राधा,   सरस्वती नाद शब्द और परब्रह्म का वपुधारण / मूल पुदयूर जयनारायनन नंबूदरीपाद / अनुवादक तथा देवी सरस्वती अंतहीन ज्ञान की देवी मूल : वृन्दा रामानन के हिन्दी अनुवादक स्वयं संपादक मनोज श्रीवास्तव  हैं. इस तरह मनोज जी के अनुवादक स्वरूप के भी दर्शन हम करते हैं.

सरस – वती भव में नरेन्द्र तिवारी ने अद्भुत कल्पना कर स्वयं वाग्देवी सरस्वती से स्वप्न साक्षात्कार ही प्रस्तुत कर दिया है. स्मरणांजलि में श्री नरेश मेहता दृष्टि और काव्य पर प्रमोद त्रिवेदी व गहरे सामाजिक बोध के कवि नरेश महता / प्रतापराव कदम के लेख महत्वपूर्ण हैं.  व्यंग्य “सरस्वती से आभार तक”  / विवेक रंजन श्रीवास्तव,  ललित निबंध राग की वासंतिका : सरस्वती की रंगाभा / परिचय दास के अतिरिक्त दो  कहानियां  बदरवा बरसे रे : कृष्णा अग्निहोत्री एवं यू – टर्न / इंदिरा दाँगी भी पत्रिका में समाहित हैं.  तीन किताबो पर पुस्तक परिचय में बात की गई हैं.  समय जो भुलाए नहीं भूलता (अश्विनी कुमार दुबे), उपनिषद त्रयी (एम. एल. खरे) / पहाड़ी,  नर्मदा (सुरेश पटवा) : रामवल्लभ आचार्य, खंडित होती शाश्वत अवधारणाएँ (सदाशिव कौतुक) / माधव नागदा ने प्रस्तुत की है.   पगडंडियों का रिश्ता (विजय कुमार दुबे) / रमेश दवे,  बीर – बिलास (सं. प्रो. वीरेन्द्र निर्झर) / गंगा प्रसाद बरसैंया,  वसंत का उजाड़ (प्रकाश कांत) / सूर्यकांत नागर,  शिखण्डी (शरद सिंह) / मैथिली मिलिंद साठे,  लोकतंत्र और मीडिया की निरंतर बदलती चुनौतियाँ (मनीषचंद्र शुक्ल) / जवाहर कर्नावट ने पुस्तको पर समीक्षायें रखी हैं.

कुल मिलाकर इस अंक के साथ अक्षरा जिस नई यात्रा पर निकल पड़ी है, उसमें पूर्ण कालिक संपादकीय समर्पण दृष्टि गोचर है.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’, भोपाल

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ पुस्तक चर्चा – आत्मानंद साहित्य #110 ☆ ‌सोनपरी – श्री रमेश सिंह यादव ‘मौन’ ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 110 ☆

☆ ‌पुस्तक चर्चा – सोनपरी – श्री रमेश सिंह यादव ‘मौन’ ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

 

पुस्तक का नाम – सोनपरी 

रचना कार – श्री रमेश सिंह यादव ‘मौन’

विधा – हिंदी काव्य।

प्रकाशक – नोशन प्रेस

मूल्य– ₹ 135

उपलब्ध – अमेज़न लिंक  >> सोनपरी  फ्लिपकार्ट लिंक >> सोनपरी 

☆ पुस्तक चर्चा –  श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

यह वृत्तांत नहीं है कोरा,

यह जीवन की जीवंत परिभाषा।

सोन परी अब लौट गई घर,

बची रही केवल अभिलाषा।

एहसास कराती मानवता की,

खुद मानवता की थी परिभाषा।

सोन परी थी सोने जैसी,

उम्मीद किरण की आशा।

असमय छोड़ गई वह सबको,

और हिया में दे गई पीर।

जब जब करता याद उसे,

तब मेरा मन होता अधीर।

लिखते पढ़ते  सोन परी को,

आंखें मेरी भर आई,।

उसके संग जो समय बिताया ,

मेरी स्मृतियों में उतर आई।

रचनाकार – सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

यूँ  तो हिंदी साहित्य जगत में रचनाएं होती रही है  जो विद्वत समाज द्वारा तथा पाठक वर्ग द्वारा सराही जाती रही है, उन्ही कृतियों के बीच कभी कभी ऐसे रचनाकार या उनकी कृतियां हाथों में  आ जाती है जो बरबस दिमाग से होती हुई दिल में उतर जाती है, और सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका होती आवरण पृष्ठ की जो सहज में ही पाठक को आकृष्ट तो करता ही है, लेखन सामग्री के बारे मूक शब्दों बहुत कुछ आभास करा देता है और यही उक्ति चरितार्थ होती दीख रही है सोनपरी के बारे में। बाकी ज्यादा लिखना तो कटोरी भर पानी में चांद को समेटने जैसा टिट्टिभ प्रयास है बाकी साहित्य का पूर्ण आनंद लेने के लिए इस कृति का आदि से अंत तक पढ़ना आवश्यक है, यह लेखक के दृढ़ इक्षाशक्ति का परिचायक भी है, इसके सारे अध्याय सोनपरी के जीवन का दर्शन है जो कभी गुदगुदाती है तो कभी भावुक कर जाती है।

यह हर पुस्तकालय की शोभा बढ़ाने में सक्षम है और हम कामना करते हैं कि साहित्यकार श्री रमेश सिंह यादव “मौन” जी इसी तरह साहित्य सेवा में तन्मयता के साथ अग्रसर हो कर  अपने साहित्य के द्वारा समाज के सही रास्ता दिखाते रहेंगे। हम उनके उज्वल भविष्य की मंगल मनोकामना करते हैं।

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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