(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब) शिक्षा- एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)
☆ पुस्तक चर्चा ☆ “मेरे शब्दों में छुपकर मुस्कुराते हो तुम” (काव्य संग्रह) – कवयित्री : सुश्री पल्लवी गर्ग☆ समीक्षा – श्री कमलेश भारतीय ☆
पुस्तक : मेरे शब्दों में छुपकर मुस्कुराते हो तुम (काव्य संग्रह )
कवयित्री : पल्लवी गर्ग
प्रकाशक : बोधि प्रकाशन, जयपुर
मूल्य 225, पृष्ठ ; 132 (पेपरबैक)
☆ “काव्यगंध से महकतीं कवितायें – पल्लवी गर्ग की मुस्कुराते हो तुम” – कमलेश भारतीय ☆
मेरे लिए पल्लवी गर्ग की कविताओं से गुजरना यूं तो फेसबुक और पाठक मंच पर अक्सर होता है लेकिन कविताओं को एकसाथ पढ़ने का सुख कुछ और ही होता है। पल्लवी ने बड़े चाव से अपना ताज़ा प्रकाशित काव्य संग्रह ‘मेरे शब्दों में छुपकर मुस्कुराते हो तुम’ भेजा तो वादा किया कि सिर्फ पढ़ूंगा ही नहीं, अपने मन पर इसकी छाप भी लिखूंगा। कुछ दिन इसके पन्ने पलटता रहा, पढ़ता रहा, एक दो यात्राओं में यह मेरे साथ ही चलता रहा। शीर्षक इतना लम्बा कि कमलेश्वर की कहानी का शीर्षक याद आ गया- उस दिन वह मुझे ब्रीच केंडी पर मिली थी’ जैसा ! इसलिए प्रकाशक ने भी मुस्कुराते हो तुम बोल्ड कर दिया, जैसे यही शीर्षक हो !
प्रसिद्ध लेखक व ‘अन्विति’ के संपादक राजेंद्र दानी की भूमिका से यह विश्वास हो गया कवितायें पढ़कर कि कविताओं में ‘काव्यगंध’ है और मुझे भी ऐसी ही महक आई कविताओं को पढ़ते पढ़ते ! खुशी इसलिए भी हुई कि बहुत लम्बे समय बाद ताज़गी भरी छोटी छोटी कवितायें पढ़ने को मिलीं, सार्थक भी और स़देशवाहक भी। आपको बानगी दिखाता हूं :
परत दर परत
मन को उधेड़ना तब
सामने रफ़ूगर अच्छा हो तब
(रफ़ूगर)
……
प्रेम वह कमाल है
जिसमें दूरियां पाटी न जा सकें
नजदीकियां आंकीं न जा सकें !
(प्रेम)
…….
रुचता है मुझे हिमालय पर जाना
उसकी उत्ताल भुजाओं में
शिशु सा समा जाना !
(यात्रा)
…….
हाथ तो पकड़ लिया उसने
काश जान जाता
हाथ पकड़ने और थामने का अंतर !
(अंतर)
…….
धूप का एक टुकड़ा
तुम्हरी यादों की तरह
नजदीक आया
हटाने की कोशिश भी की
पर वह ढीठ भी तुम सा !
(धूप का टुकड़ा)
……
वक्त के बेहिसाब घाव दिखते हैं
तुम्हारी आंखों में
किसी दिन उन पर
प्रेम का मरहम लगायेंगे !
(वक्त के घाव)
……
पल्लवी गर्ग लिखती हैं कि मन के कोने तो बरसों से हर बात पी जाने के अभ्यस्त हो चुके होते हैं, यकायक उनमें एक कांप उठती है ! शून्य, चीत्कार, दर्द, मुस्कुराहट और अश्रु सब उफन पड़ते हैं! पल्लवी की कविताओं में ये सब मिल जायेंगे जगह जगह ! बस, दबे पांव आई पल्लवी की कवितायें उसकी पहली ही कविता नीलकुरिंजी की तरह ! कोई शोर नहीं, कोई प्रचार नहीं लेकिन ये कवितायें पाठकों के मन में खिल जायेंगीं, ऐसा मेरा विश्वास है।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
संजय दृष्टि – समीक्षा का शुक्रवार # 21
वह हँसती बहुत है — कवयित्री – सुश्री स्वरांगी साने समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज
पुस्तक का नाम- वह हँसती बहुत है
विधा- कविता
कवयित्री- सुश्री स्वरांगी साने
स्त्रीत्व का वामन अवतार- ‘वह हँसती बहुत है।’☆ श्री संजय भारद्वाज
कविता और संवेदना का चोली-दामन का साथ है। अनुभूति कविता का प्राणतत्व है। जैसा अनुभव करेंगे, वैसा जियेंगे। जैसा जियेंगे वैसी ढलेगी, बहेगी कविता। यह अखंड जीना किसी को कवि या कवयित्री बना देता है। कवयित्री स्वरांगी साने इस जीने को स्त्री जीवन के अमर पक्ष अर्थात पीहर तक ले जाती हैं। यहीं से उनकी कविता में सदाहरी बेल पनपने लगती है-
कविता में जाना मेरे लिए पीहर जाने जैसा है..*
‘वह हँसती बहुत है’ संग्रह की कविताएँ स्त्री जीवन के विविध आयामों को अभिव्यक्त करती हैं। प्रेम, जीवन का डीएनए है। यही प्रेम प्राय: दोराहे पर ला खड़ा करता है। एक राह मिलन के बाद की टूटन और दूसरी ना मिल पाने की कसक अथवा बिछुड़न। दूसरी राह शाश्वत है। ये शाश्वत की कविताएँ हैं। इस शाश्वत की बानगी ‘मेडिकल टर्म्स’ में देखिए-
धुंधला दिख रहा है/ सब कह रहे हैं मोतियाबिंद हो गया है/ पर वह जानती है/ ठहर गए हैं सालों साल के आँसू /आँखों में आकर..*
आह और वाह को एक साथ जन्म देती शाश्वत की यह अभिव्यक्ति जितनी कोमल है, उतनी ही प्रखर भी। यह शाश्वत ‘धोखा’, ‘ऐसे करना प्रेम’, ‘मीरा के लिए’, ‘ललक’, ‘पार हो जाती’, ‘तुमने कहा था’, ‘चाहत’, ‘रसोई’, ‘यात्रा’, ‘जो बना रहा’ जैसी अन्यान्य कविताओं के माध्यम से इस संग्रह में यत्र, तत्र, सर्वत्र दिखाई देता है। शाश्वत प्रेम की एक हृदयस्पर्शी बानगी ‘फेसबुक’ कविता से,
फेसबुक पर तुम्हारे नाम के पास/ ले जाती हूँ कर्सर/ लगता है/ तुम्हें छू कर लौटी हूँ…*
बिछुड़न का कारण और निवारण, गहरे से निकलता है, पाठक को गहरे तक भिगो देता है,
उसकी संजीवनी बूटी हो तुम/ जो नहीं हो उसके पास… *
प्रेम कोमल अनुभूति है पर प्रेम चीर देता है। प्रेम टीस देता है, व्याकुलता और विकलता देता है लेकिन यही प्रेम संबल और बल भी देता है। खंडित होकर अखंड होने का संकल्प और ऊर्जा भी देता है। कवयित्री प्रेम की मखमली अभिव्यक्ति से आगे बढ़ती हैं और सांसारिक यथार्थ को निरखती, परखती और उससे लोहा लेती हैं,
मैंने बंद कर दिया है तुमसे अपना वार्तालाप/ अब शुरू हुआ है मेरा खुद से संवाद..*
समय के थपेड़े व्यक्ति पर पाषाण कठोरता का आवरण चढ़ा देते हैं,
बाहर से वह कठोर दिखती है/ इतनी कि लोग उसे अहिल्या कहते हैं..*
पत्थर के भीतर भी स्त्री बची रहती है पर स्त्री की देह उसे डरने के लिए विवश भी करती है,
कछुआ नहीं लड़की है वह/ और तभी वह समझ गई यह भी कि/ सुरक्षित नहीं है वह/ फिर सिमट गई अपनी खोल में..*
खोल या आवरण को तोड़कर बाहर लाती है शिक्षा। शिक्षा अर्थात पढ़ना। पढ़ना अर्थात केवल साक्षर होना नहीं। पढ़ना अर्थात देखना, पढ़ना अर्थात गुनना, पढ़ना अर्थात समझना। पढ़ना अर्थात विचार करना, पढ़ना अर्थात विचार को अभिव्यक्त करना। समाज स्त्रीत्व की खोल से बाहर आती स्त्री को देखकर, उसके चिंतन को समझ कर चिंतित होने लगता है,
खतरा तो तब मंडराता है/ पढ़ने लगती है/ औरत कोई किताब..*
औरत पढ़ने लगती है किताब। औरत लिखने लगती है किताब। स्त्री जीवन का अनंत विस्तार सिमटकर उसकी कलम की स्याही में उतर आता है,
किसी तरह चुरा लेनी है/ मेहंदी की गंध और उसका रंग भी/ तो बेटियां निकल सकती हैं/ इस तिलिस्म से बाहर/ सच अभी इतनी भी देर नहीं हुई..*
………
इतिहास कहता है/ वह वैशाली की नगरवधू थी/ इतिहास में नहीं कहा कि/ वह एक स्त्री थी..*
‘सौरमंडल’, ‘हँसी’, ‘नर्तकी’ और ऐसी अनेक कविताओं में स्त्री के ब्रह्मांड का मंथन है। ‘प्याज़’ नामक कविता इसका क्लासिक उदाहरण है।
बहुत सारा प्याज़/ काटने बैठ जाती थी माँ/ कहती थी मसाला भूनना है/ तब समझ नहीं पाती थी/ इतना अच्छा क्या है प्याज़ काटने में/ आज पूछती है बेटी/ क्या हुआ?/ और वह कह देती है/ कुछ नहीं/ प्याज़ काट रही हूँ..*
अपनी जिंदगी अपनी तरह से नहीं जी पाने की निराशा अपनी तरह से मरने की आज़ादी का शंख फूँकती है।
उसे मरने का कॉपीराइट चाहिए..*
‘वह हँसती बहुत है’ संग्रह की कविताएँ स्त्रीत्व का वामन अवतार हैं। इस संग्रह की कविताएँ स्त्री जीवन की विराटता को अल्प शब्दों में जीने का सामर्थ्य रखती हैं, यथा-
एक कदम में लांघा माँ का घर/ दूसरे में पहुँच गई ससुराल/ विराट होने की ज़रूरत ही नहीं रही/और उसने नाप ली दुनिया..*
इस संग्रह की रचनाएँ स्त्री जीवन की विसंगत स्थितियों का वर्णन अवश्य करती हैं पर अपना स्त्रीत्व नहीं छोड़तीं। यह स्त्रीत्व है जिजीविषा का, सपने देखने का, सपना टूटने पर फिर सपना देखने का। सदाहरी विस्तार पाती है, और शब्द फूटते हैं,
खुली आँखों से सपना देखती/ सपने को टूटता देखती/ खुद को अकेला देखती/ फिर भी वह सपना देखती..*
कवयित्री के सपने फलीभूत हों, कवयित्री निरंतर लिखती रहें।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
संजय दृष्टि – समीक्षा का शुक्रवार # 20
मंगल पथ — कवि – स्व. प्रकाश दीक्षित समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज
मंगल पथ- स्वयंप्रकाशित कविताएँ
पुस्तक का नाम- मंगल पथ
विधा- कविता
कवि- स्व. प्रकाश दीक्षित
प्रकाशन- क्षितिज प्रकाशन, पुणे
मंगल पथ- स्वयंप्रकाशित कविताएँ☆ श्री संजय भारद्वाज
माना जाता है कि लेखन जब तक काग़ज़ पर नहीं उतरता, गर्भस्थ शिशु की तरह लेखक की व्यक्तिगत अनुभूति होता है। काग़ज़ पर आने के बाद वह परिवार की परिधि में नाना प्रकार के लोगों से नानाविध संवाद साधता है। प्रकाशन की प्रक्रिया लेखन को प्रकाश में लाती है और रचना समष्टिगत होकर विस्तार पाती है। इसे विडंबना या दैव प्रबलता ही मानना पड़ेगा कि अपनी रचनाओं से स्वयंप्रकाशित प्रकाश दीक्षित जी की रचनाएँ उनके देवलोक गमन के उपरांत ही पुस्तक के रूप में आ पाई हैं।
उपरोक्त कथन में कहीं निराशा का भाव अंतर्निहित नहीं है। अनेक सुप्रसिद्ध रचनाकार जिन्हें सदा पढ़ा जाता रहा है, अपने जीवनकाल में प्रकाशित नहीं हो सके, परंतु शरीर चले जाने के बाद भी उनके सृजन ने उन्हें सृष्टि पर बनाए रखा। सृष्टि पर मिले शरीर का जाना अर्थात आत्मा का ब्रह्म में विलीन होना। हमारी सनातन संस्कृति में ब्रह्म का एक रूप शब्द भी है। अतः सारस्वत दिवंगत शब्द का चोला ओढ़कर सदैव हमारे सम्मुख रहते हैं। एतदर्थ प्रस्तुत संग्रह पढ़ते समय अनेक बार ये अनुभूति होती है कि साक्षात कवि द्वारा इसका पाठ किया जा रहा हो। काया मौन हुई तो शब्द मुखर हो उठे। यह सुखद है कि पार्थिव रूप से अनुपस्थित होते हुए भी दीक्षित जी इस संग्रह के हर पृष्ठ पर सूक्ष्म रूप से उपस्थित हैं।
इस संग्रह को ॐ छंदावली, वचनामृत एवं गुरु-गोविंद तथा वेदों पर आधारित रचनाओं के तीन भागों में बाँटा गया है। सृष्टि में सर्वत्र ॐ का नाद है। जीवन की सारी गाथा ॐ के तीन अक्षरों- ‘अ’ से आविर्भाव, ‘उ’ से ऊर्जा तथा ‘म’ से मौन में समाहित है। यही कारण है कि ‘अ’ को ब्रह्मा, ‘उ’ को विष्णु तथा ‘म’ को महेश का द्योतक माना गया है। सारांश में ॐ ईश्वर का पर्यायवाची है। इस शब्दब्रह्म को मान्यता प्रदान करते हुए छांग्योपनिषद कहता है, ‘ॐ इत्येत अक्षरः।’ अर्थात् ॐ अविनाशी, अव्यय एवं क्षरण रहित है। ॐ की अक्षरा महिमा का प्रगल्भ गान कवि ने ॐ छंदावली के अंतर्गत किया है। पूरे खण्ड में कवि का इस विषय में गहन अध्ययन स्पष्ट प्रतिपादित होता है। कुछ पंक्तियॉं दृष्टव्य हैं-
अकार से विराट विश्व अग्नि आदि अर्थ होत,
उकार में हिरण्यगर्भ वायु तेज आ रहे।।
मकार से ईश्वर, आदित्य और प्राज्ञ आदि,
नाम सब ब्रह्म के हैं, ओऽम में समा रहे।
संस्कृत साहित्य, ज्ञान की अविरल धारा है। इसे सामूहिक दृष्टिहीनता ही कहेंगे कि निहित स्वार्थों और कथित आधुनिकता के हवाई गुणगान के चलते हमने संस्कृत साहित्य की घोर उपेक्षा की। उपेक्षा के इस स्वप्रेरित कुठाराघात ने आधुनिक पीढ़ी को अनेक मामलों में दिशाहीनता की स्थिति में ला छोड़ा है। ‘वचनामृत’ इस दिशाहीनता को सार्थक दिशा दिखाने का प्रयास है। इस खण्ड में संस्कृत के विभिन्न मंत्रों का पद्यानुवाद है। विशेषता यह है कि छंद रचते समय कवि ने व्याकरण और सर्जना का समन्वय भली-भाँति साधने का यत्न किया है। श्लोकों का चुनाव मनुष्य जीवन को समाजोपयोगी बनाने को दृष्टिगत रख कर किया गया है। विद्वता और नम्रता का अंतर्संबंध देखिए-
विद्या और मेघ संवर्द्धनकारी हों जो कर्म।
हे विद्वानो! करो क्रिया वह, यह जीवन का मर्म।।
जो भी चाहें शिक्षा-विद्या करो प्रीतियुत दान।
विद्या ग्रहण करो तुम उनसे जो कि अधिक विद्वान।।
तीसरा खण्ड गुरु-गोविंद व वेदों पर केंद्रित रखा गया है। वेद हमारे आद्यगुरु हैं। हमारी संस्कृति ने गुरु को ईश्वर से भी ऊँचा स्थान दिया है। “गुरु गोबिंद दोउ खड़े’ हम सबको कंठस्थ है। पूरे खण्ड में ईश्वर, गुरु व वेदों के प्रति मानवंदना अक्षर-अक्षर में प्रतिध्वनित होती है। इस मानवंदना को श्रद्धा के साथ ज्ञान की पृष्ठभूमि मिली है। यथा-
वेदों में वारिधि लहराता, जीवन की समरसता का,
वेदों का हर मंत्र, गा रहा, गीत मनुज की समता का,
बल वैभव लख विपुल किसी का द्वेष दाह से नहीं जलें।
जीवन पथ पर नित्य निरंतर वेदों के अनुसार चलें।।
उल्लेखनीय है कि प्रस्तुत संग्रह कवि के देहावसान के बाद उनके बेटी-जमाता के अथक प्रयास से प्रकाशित हुआ है। बेटियों को कम आँकनेवाले समाज के एक अंश की मानसिकता में परिवर्तन लाने के लिए यह एक उदाहरण है।
आशा की जानी चाहिए कि “मंगलपथ’ की मांगलिक रचनाएँ पाठकों के हर वर्ग हेतु कल्याणकारी सिद्ध होंगी।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब) शिक्षा- एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)
☆ पुस्तक चर्चा ☆ “अम्बर परियां ” (उपन्यास) – उपन्यासकार – श्री बलजिंदर नसराली ☆ समीक्षा – श्री कमलेश भारतीय ☆
पुस्तक : अम्बर परियां (उपन्यास)
उपन्यासकार – श्री बलजिंदर नसराली
अनुवाद : श्री सुभाष नीरव
प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली।
मूल्य : 350 रुपये (पेपरबैक)
☆ “विवाह जैसी परंपरा पर सवाल उठाता बलजिंदर नसराली का उपन्यास अम्बर परियां” – कमलेश भारतीय ☆
एक दिन मित्र डाॅ विनोद शाही का फोन आया कि पंजाबी लेखक बलजिंदर नसराली आपको अपना उपन्यास भेजेंगे, आप इसे पढ़कर कुछ लिखना! मज़ेदार बात यह है कि इस वर्ष की शुरुआत डाॅ विनोद शाही के उपन्यास से हुई, फिर कुछ ऐसा मूड बना कि ब्रह्म दत्त शर्मा का लम्बा उपन्यास भी पढ़ डाला और मनोज शर्मा का कविता संग्रह भी यानी यह वर्ष मेरे पढ़ने का वर्ष ज्यादा रहा और लिखने का कम! अरे! मैं तो पाठक बन गया! खैर, बलजिंदर नसराली का उपन्यास आ गया और मेज़ पर पड़ा रहा, फिर एक दिन मेज़ साफ करने की आपाधापी में इधर उधर रखा गया। बलजिंदर का फोन आया कि इसे पढ़कर कुछ न कुछ लिख दीजिये तो जिन खोजा तिन पाइया और उपन्यास ढूंढकर पढ़ना शुरू!
अम्बर परियां बड़ा सादा सा, स्पष्ट सा नाम है कि नायक अम्बर और उसकी ख्वाबों की, ख्यालों की प्रेमिकाओं की कहानी! वह भी उस अम्बर की, जो पहले से विवाहित है, दो प्यारे प्यारे बच्चे भी हैं उसके और उसे अपनी पत्नी किरणजीत कौर से प्यार नहीं, तो नफरत भी नहीं लेकिन जब वह काॅलेज में अपनी खूबसूरत सहयोगी संगीत की प्राध्यापिका अवनीत को देखता है तो वह उसे परी से कम नहीं लगती। इसके बावजूद वह बड़े सधे तरीके से कदम बढ़ाता है जबकि अवनीत की मंगनी हो चुकी होने के बावजूद उसके साथ वह वहीं पहुंच जाती है, जहां अम्बर पेपर पढ़ने के लिए जाता है और दो रात वे इकट्ठे एक ही कमरे में बिताते हैं! परी को इतने पास पाकर सुखद अहसास में भर जाता है अम्बर। जैसे परी आकाश से धरती पर उतर आई हो। अवनीत संगीत की प्राध्यापिका है और मंगेतर से ज्यादा संगीत में स्टार बनना चाहती है और यही होता है। वह संगीत में स्टार बन जाती है, मंगेतर और अम्बर कहीं पीछे छूट जाते हैं! अम्बर खुद टीवी स्टार के साथ साथ अपने छात्रों का स्टार प्राध्यापक है।
फिर अम्बर को जम्मू विश्वविद्यालय के पंजाबी विभाग में नयी जाॅब मिल जाती है और वहां जोया उसके दिल को धीरे धीरे छू जाती है। वह भी किसी परी से कम नहीं। किरणजीत कौर को अम्बर पीएचडी तक पढ़ा कर प्राध्यापिका लगवा देता है और जोया के साथ विवाह करवाना चाहता है। हालांकि किरणजीत यह सोचती है कि जैसे अवनीत के साथ सब चक्कर के बावजूद अम्बर घर ही तो लौट आता था। लेकिन अम्बर किरणजीत पर दबाव बनाता है तलाक देने के लिए और बच्चों का वास्ता देती किरणजीत आखिर मान जाती है लेकिन जोया के बदलते व्यवहार से अम्बर अकेले ही रहना पसंद करता है, वह किरणजीत से तलाक लिये बिना ही आगे बढ़ जाता है!
जो सिर्फ नावल रीडिंग करेंगे, उनके लिए तो उपन्यास इतना ही है लेकिन जो गहरे जायेंगे, वे जानेंगे समझेंगे कि अम्बर उस परिवार से आया जिसका ताया अरजन अविवाहित है, जैसा कि पंजाब के पुराने समय में ज़मीन को आगे बंटने से बचाने के लिए किया जाता था या हो जाता था। ताया रंग का काला है और अम्बर कुछ सांवला सा, ताये व मां के काले अंधेरे में पैदा हुआ बच्चा, जिसे गांव भर में यह सहना पड़ता है ‘ओ अरजन दा’ और वह इससे चिढ़कर सीधे लड़ने दौड़ता है, अम्बर पढ़ाई में अच्छा है और ताया भी चाहता है कि अम्बर पढ़ लिख जाये ताकि आठ खेत बंटे तो चार खेत वाले की शादी कैसे होगी? अम्बर स्कूल में भाषण देने आये निहंग सिंह से किताबों से प्रेम करना सीख जाता है और अपनी सहपाठी चरनी से भी प्रेम करने लगता है और रजिस्ट्री से अपना प्रेम निवेदन भेजता है तब अध्यापिका समझाती है कि इतने गहरे पढ़ने वाला लड़का साधारण सी चरनी पर क्यों मर मिटना चाहता है ?
उपन्यास की शुरुआत भी पुराने स्कूल में प्राध्यापक बन चुके अम्बर के भाषण व यादों से होती है। अम्बर कैसे अपने घर के माहौल से परेशान था बचपन से ही क्योंकि पिता इस बात को स्वीकार करने को तैयार नहीं थे कि अम्बर उनका बेटा है और मां बाप की कहा सुनी हो जाती, मा़ं कपड़े लत्ते लेकर अपने मायके लेकर चल देती अम्बर को! अम्बर सोचता कि वह अपनी शादी के बाद ऐसा माहौल नहीं रहने देगा लेकिन परियों के आने के बाद वह अम्बर नहीं रह पाता! डगमगाते, उलझन में रहते, अंतर्द्वंद में पहले अवनीत निकट आती है, फिर जोया! ये परियां विवाह परंपरा पर सवाल बन जाती हैं कि क्या शादीशुदा अम्बर को ऐसा करना चाहिए था या किसी भी अवनीत को, जोया को शादीशुदा अम्बर के प्यार में पड़ना चाहिए था ? क्या ये लिव इन की ओर उठते कदम हैं या परियों को पाकर अम्बर की तरह सब कुछ समझते हुए भी बेबस हो जाने की विवशता ? क्या अम्बर सही है? यह सवाल पाठक के लिए छोड़ा गया है! शिक्षा व्यवस्था पर भी यह उपन्यास सवाल उठाता चलता है लगातार!
वैसे इस उपन्यास को देहरादून की एक संस्था द्वारा एक लाख रुपये का पुरस्कार दिया जायेगा और राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित होने से पहले पंजाबी में इसके अब तक छह संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं, इसका अंग्रेज़ी संस्करण भी आने वाला है। उपन्यास मूलत: पंजाबी में लिखा गया है और अनुवाद हमारे मित्र सुभाष नीरव ने किया है लेकिन कुछ शब्दों को जानबूझकर कर पंजाबी से ज्यों के त्यों रख दिये जाने से वे खटकते हैं। अगले संस्करण में इन पर ध्यान दिया जाना चाहिए। उदाहरण के लिए उल्था की जगह अनुवाद शब्द आना चाहिए जबकि उल्था ही बार बार लिखा गया। यह थोड़ी जल्दबाजी दिखती है। पर बहुत प्यारा अनुवाद किया है। बधाई दोनों को! अंग्रेज़ी में भी पढ़ेंगे भाई।
भाषा बहुत प्रवाहमयी है। अपनी ओर खींचती लिए चलती है और अम्बर व परियां जैसे हमारे आसपास ही विचरते दिखाई देते हैं! भाषाओं का, जम्मू, डोगरी, पंजाबी सबका स्वाद आता है लगातार! कितने उदाहरण हैं जो अम्बर को श्रेष्ठ प्राध्यापक साबित करते हैं और छात्रों का प्रिय प्राध्यापक भी! वह अपनी इमेज के प्रति सचेत होते होते भी जोया की ओर कदम बढ़ा लेता है पर वह पत्नी किरणजीत को धोखा देने का अहसास भी कमाल है। चिनाव और पहाड़ियों का खूबसूरत चित्रण भी मोह लेता है। बलजिंदर को बहुत बहुत बधाई!
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
मनमंथन : बोलती-बतियाती कहानियाँ☆ श्री संजय भारद्वाज
भावनाओं का इंद्रियों के माध्यम से प्रकटीकरण, जीव में प्राण होने या उसके निष्प्राण होने को परिभाषित करता है। सुनने-सुनाने की वृत्ति सजीव सृष्टि का अनिवार्य गुणधर्म है। वैचारिक अभिव्यंजना की इस तृष्णा ने कहानी को जन्म दिया। विशेषता है कि कहानी ऐसी विधा के रूप में जानी जाती है जो कभी एकांगी नहीं होती। सुनाने वाले (या लेखक) की कामना और सुनने वाले (या पाठक) की जिज्ञासा, दोनों तत्वों का इस विधा में तालमेल होता है। इसके चलते कहानी का इतिहास मनुष्य के इतिहास जितना ही पुराना है।
सनातन संस्कृति में वेदों के बाद पुराणों का लेखन दर्शाता है कि गूढ़ ज्ञान को सरल कथाओं के माध्यम से आम आदमी तक पहुँचाया जा सकता है। उपनिषदों की रूपक कथाओं से लेकर बौद्धवाद की जातक कथाएँ इसी शृंखला की अगली कड़ी हैं। कालांतर में घटित / अघटित कई किंवदतियाँ लोककथाओं के वेश में मनुष्य के चरित्र निर्माण एवं सामाजिक जागृति का माध्यम बनीं।
‘मनमंथन’ कहानी संग्रह का अधिकांश भाग चुनिंदा भारतीय लोककथाओं का आधुनिक संस्करण है। कथाकार ने अपनी प्रस्तावना में इस बात को स्पष्ट भी किया है कि कुछ कथाएँ उसका उसका अपना सृजन है, शेष माँ से सुनी कहानियों का पुनर्लेखन है। लोककथाओं को बालसाहित्य के रूप में प्रकाशित करने का चलन भी है। इस संदर्भ में कहानीकार और प्रकाशक बधाई के पात्र हैं कि उन्होंने इस लीक का अनुसरण नहीं किया। यों भी अनुभवजनित लोककथाएँ मनुष्य वेश के पथिक के लिए हर सोपान पर दिशादर्शक प्रकाशस्तम्भ का काम करती हैं।
संग्रह में समाविष्ट चौदह कहानियों में ‘आत्मसात’ सर्वाधिक प्रभावित करती है। ये ईमानदारी की धरती पर लिखी कथा है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष को निर्वाण के चार महाद्वार मानकर समान आदर दिया गया है। संस्कृति की इस उदात्त भावना को समझे बिना ही बाद के समाज ने काम को वासना पूर्ति की परिधि तक सीमित कर दिया। ‘आत्मसात’ इस परिधि का विस्तार करती है। वासना के बेस कैम्प से उपासना के शिखर की यात्रा का मानचित्र तैयार करती है। कथा पूरी सादगी से बिना मुखौटे लगाये, बिना मुलम्मा चढ़ाए चलती है, अत: कहीं अविश्वसनीय नहीं लगती। बुजुर्ग साधु-साध्वी के मन में आजीवन पाले ब्रह्यचर्य के खण्डित होने पर कोई ग्लानिबोध न जगना, परस्पर दोषारोपण न करना, कथा को तार्किक सम्बल प्रदान करता है। कथा प्रत्यक्ष में कोई उपदेश नहीं करती पर परोक्ष में अतंर्निहित संदेश पाठक के मन पर अंकित हो जाता है।
इसके विरुद्ध ‘कुत्ते की पूँछ’ नामक कहानी है जो मात्र किस्सागोई है, किसी तरह का प्रत्यक्ष या परोक्ष संदेश नहीं देती। ‘बच्चा किसका’, रात भर अंडा पकाया फिर भी कच्चा रह गया, ‘झूठ के हाथ-पैर नहीं’, इसी श्रेणी की हल्के-फुल्के ढंग से कही गई कथाएँ हैं। ‘दुविधा,’ ‘एक वरदान,’ ‘चने की एक दाल’ विशुद्ध लोक कथाएँ हैं जिनमें विभिन्न मानवीय गुण और काल-पात्र-परिस्थिति के अनुरूप धारण किये जाने वाले धर्म की सूक्ष्म अवधारणा अंतर्निहित है। ‘कल्पना से परे’ और ‘कानाफूसी’ सीधे-सीधे अपना संदेश लेकर आती हैं। ‘नास्तिक के मुख से’ नामक लोककथा लोक में आस्था का बीज रोपने की भूमिका लेकर चलती है। ‘प्रतीक्षा’ में कहानीकार सेना के परिवेश का चित्रण करने में सफल रहा है। ‘गलतफहमी’अतिरंजित लगती है। ‘मरणोपरांत’ एक सैनिक के भावों की स्पष्ट अभिव्यक्ति है।
संग्रह की विभिन्न कथाओं में समाहित विचारसूत्र चिंतन के लिए पर्याप्त संभावनाओं को अवसर प्रदान करते हैं। कुछ विचारसूत्र उल्लेखनीय हैं। यथा-आँसू पीयूष भी है और हलाहल भी…/ आँसू अंदर रहकर तूफान मचाता है पर बाहर निकलकर मरहम का काम करता है…/ गलतफहमी गांधारी है जिसकी कोख से सौ कौरव पैदा होकर महाभारत रचाएँगे और बाद में बिलखती हुई विधवाओं का रुदन और क्रंदन छोड़ जायेंगे…/ साधन एक अवसर पर साधना में सहयोग देता है तो वही साधन किसी दूसरे समय में व्यवधान उत्पन्न करने लगता है।…
लोकसाहित्य की विशेषता है कि उसके संकेत और प्रतीक रोज़मर्रा की ज़िंदगी से जुड़े होते हैं। फलत: कथ्य तुरंत पाठक तक पहुँचता है। बानगी है- प्यार में दरार आ गई, प्रेम की डोर में गाँठ पड़ गई। बाहर से पता नहीं चलता था परंतु अंदर से खीरे जैसी तीन फाँक ! …
‘मनमंथन’ में मुहावरों और लोकोक्तियों का यथेष्ट प्रयोग हुआ है। कहानियों में प्रयुक्त बिहार की आंचलिक बोली अंचल की माटी की सौंध पाठक तक पहुँचाती है। संग्रह की कथाओं में कम चरित्रों के माध्यम से कथ्य को रखा गया है। अनावश्यक प्रसंग भी ठूँसे नहीं गए हैं। ये इन कहानियों का शक्तिस्थान है।
सेना की पृष्ठभूमि की कहानियाँ अधिक प्रभावी हैं क्योंकि कथाकार के जीवन के 32 वर्ष सेना में बीते हैं। कथाकार से भविष्य में सैनिक परिवेश पर अधिक कहानियों की अपेक्षा की जानी चाहिए। कुल मिलाकर इस संग्रह की कहानियाँ पाठक से बोलती हैं, बतियाती हैं। यह कथाकार आशा जगाता है। उससे लम्बी दौड़ की उम्मीद की जा सकती है।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
संजय दृष्टि – समीक्षा का शुक्रवार # 17
हंसा चल घर आपने — कहानीकार-रजनी पाथरे समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज
पुस्तक का नाम- हंसा चल घर आपने
विधा- कहानी
कहानीकार-रजनी पाथरे
प्रकाशन- क्षितिज प्रकाशन, पुणे
प्रभावी और संवेद्य कहानियाँ☆ श्री संजय भारद्वाज
कहानी सुनना-सुनाना अभिव्यक्ति का अनादिकाल से चला आ रहा सुबोध रूप है। यही कारण है कि प्रकृति के हर चराचर की अपनी एक कहानी है। औपचारिक शिक्षा के बिना भी श्रवण और संभाषण मात्र से रसास्वाद के अनुकूल होने के कारण कहानी की लोकप्रियता सार्वकालिक रही है।
लोकप्रिय कहानीकार रजनी पाथरे के प्रस्तुत कहानी संग्रह ‘हंसा चल घर आपने’ की कहानियाँ कुछ मामलों में अपवादात्मक हैं। इस अपवाद का मूल संभवतः उस विस्थापन में छिपा है जिसे काश्मीरी पंडितों ने झेला है। अन्यान्य कारणों से विस्थापन झेलनेवाले अनेक समुदायों की कहानियाँ इतिहास के पन्नों पर दर्ज़ हैं। इन समुदायों के विस्थापन में एक समानता यह रही कि इन्हें अपने देश की मिट्टी से दूर जाकर नए देश में आशियाना बसाना पड़ा। काश्मीरी पंडित ऐसे दुर्भाग्यशाली भारतीय नागरिक हैं जो पिछले लगभग तीन दशकों से अपने ही वतन में बेवतन होने का दंश भोग रहे हैं। पिछले वर्षों में स्थितियाँ कुछ बदली अवश्य हैं तथापि अभी लम्बी दूरी तय होना बाकी है।
यही कारण है कि काश्मीरी पंडित परिवार की कहानीकार का सामुदायिक अपवाद उनकी कहानियों में भी बहुतायत से, प्रत्यक्ष या परोक्ष दृष्टिगोचर होता है। इस पृष्ठभूमि की कहानियों में लेखिका की आँख में बसा काश्मीर ज्यों की त्यों कागज़ पर उतर आता है। घाटी के तत्कालीन हालात और क़त्लेआम के बीच घर छोड़ने की विवशता के बावजूद जेहलम, शंकराचार्य की पहाड़ी, दुर्गानाग का मंदिर, खिचड़ी अमावस्या, यक्ष की गाथा, अखरोट के पेड़, चिनार की टहनियाँ, बबा; गोबरा जैसे संबोधन, शीरी चाय, हांगुल, गुरन, कानुल साग, कहवा, चश्माशाही का पानी, काश्मीरी चिनान आदि को उनकी क़लम की स्याही निरंतर याद करती रहती है। विशेषकर ‘माइग्रेन्ट’, ‘मरु- मरीचिका’, ‘देवनार’, ‘पोस्ट डेटेड चेक’, ‘हंसा चल घर आपने’, ‘काला समंदर’ जैसी कहानियों की ये पृष्ठभूमि उन्हें प्रभावी और संवेद्य बनाती है।
स्त्री को प्रकृति का प्रतीक कहा गया है। स्त्री वंश की बेल जिस मिट्टी में जन्मती है और फिर जहाँ रोपी जाती है, उन दोनों ही घरों को हरा-भरा रखने का प्रयास करती है। यही कारण है कि रजनी पाथरे ने केवल अपने मायके की पृष्ठभूमि पर कहानियों नहीं लिखी हैं। ससुराल याने महाराष्ट्र की भाषा और संस्कृति भी उतनी ही मुखरता और अंतरंगता से उनकी कहानियों में स्थान पाती हैं।’ आजी का गाँव’, ‘जनाबाई’, ‘कमली’ जैसी कहानियाँ इसका सशक्त उदाहरण हैं।
स्त्री का मन बेहद जटिल होता है। उसकी थाह लेना लगभग असंभव माना जाता है। लेखिका की दृष्टि और अनुभव ‘कुँवारा गीत’, ‘नाम’ और ‘ज़र्द गुलाब’ के माध्यम से इन परतों को यथासंभव खोलते हैं। इस भाव की कहानियों की विशेषता है कि इनमें स्त्री को देवी या भोग्या में न बाँटकर मनुष्य के रूप में प्रस्तुत किया गया है। स्त्री स्वतंत्रता या नारी विमर्श का नारा दिए बिना कहानीकार जटिल बातों को सरलता से प्रस्तुत करने का यत्न करती हैं। ‘नाम’ में यह जटिलता व्यापक रूप से उभरती है। ‘कुँवारा गीत’ यह संप्रेषित करने में सफल रहती है कि स्त्री को केवल शारीरिक नहीं अपितु मानसिक ‘ऑरगेज़म’ की भी आवश्यकता होती है।
स्त्री को केवल देह और उसकी देह को अपनी प्रॉपर्टी मानने की अधिकांश पुरुषों की मानसिकता को ‘परतें’ और ‘राजहंस’ कहानियाँ पूरी तल्ख़ी से सामने रखती हैं। ‘परतें’ में एक स्त्री के साथ विभाजन के दौरान हुआ बलात्कार अफगानिस्तान की नाजू के माध्यम से वैश्विक हो जाता है। युद्ध किसीका, किसीके भी विरुद्ध हो, उसका शिकार सदैव स्त्री ही होती है। ‘राजहंस’ रिश्तों की संश्लिष्टता की थोड़ी कही, खूब अनकही दास्तान है जो पाठक को भीतर तक मथकर रख देती है।
संग्रह की कहानियों में विषयों की विविधता है। सांप्रदायिकता की आड़ में आतंकवाद के शिकार अपने अपने पात्रों में लेखिका ने समुदाय भेद नहीं किया है। इन कहानियों को पढ़ते समय घाटी का सांप्रदायिक सौहार्द पूरी आत्मीयता से उभरकर आता है। स्त्री पात्रों के मन की परतें खोलने की प्रक्रिया में जहाँ कहीं तन का संदर्भ आया है, लेखिका की भाषा और बिंब शालीन रहे हैं। ‘बात का बतंगड़’ करने की वृत्ति के दिनों में ‘बतंगड़ से बात बनाने’ का यह अनुकरणीय उदाहरण है।
वातावरण निर्मिति की सहजता संग्रह की सभी कहानियों को स्तरीय बनाती है। कथानक का शिल्पगत कसाव और क्रमिक विकास कथ्य को प्रभावी रूप से प्रस्तुत करता है। कहानियों में कौशल, त्वरा और वेग अनायास आए हैं। कथोपकथन समुचित उत्सुकता बनाए रखता है। अवांतर प्रसंग न होने से कहानी अपना प्रभाव बनाए रखती है। कहानियों के पात्र सजीव हैं। इन पात्रों का चित्रण प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों रूपों में हुआ है। पात्रों का अंतर्द्वंद्व कहानीकार और पाठक के बीच संवाद का सेतु बनाता है। देश काल का चित्रण कहानीकार की मूल संवेदना और भाव क्षेत्र से पढ़नेवाले का तादात्म्य स्थापित कराने में सफल है।
लेखन का अघोषित नियम है कि लिखनेवाला जब भी कलम उठाए, अमृतपान कराने के लिए ही उठाए। रजनी पाथरे के भीतर मनुष्योचित संवेदनाओं का यह अमृत प्रस्तुत कहानी संग्रह में यत्र-तत्र-सर्वत्र है। संग्रह की अंतिम कहानी ‘काला समंदर’ के अंत में हत्यारों के लिए भी ‘या देवी सर्वभूतेषु क्षमारूपेण संस्थिता’ का मंत्र मानो सारी कहानियों का सार है। विश्वास है कि पाठक इस अमृत के आस्वाद से स्वयं को तृप्त करेंगे। शुभं भवतु ।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
संजय दृष्टि – समीक्षा का शुक्रवार # 18
मैं कविता नहीं करता — कवि – डॉ. सत्येंद्र सिंह समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज
पुस्तक का नाम- मैं कविता नहीं करता
विधा- कविता
कवि- डॉ. सत्येंद्र सिंह
प्रकाशन- क्षितिज प्रकाशन, पुणे
‘कॉमन मैन’ की कविताएँ☆ श्री संजय भारद्वाज
संवेदना कविता का प्राणतत्व है। स्वाभाविक है कि कवि संवेदनशील होता है। कवि भौतिकता की अपेक्षा वैचारिकता में जीवन व्यतीत करता है। उसके चिंतन का आधार मनुष्य के चोले में बीत रहे जीवन की सार्थकता है। प्रस्तुत कवितासंग्रह ‘मैं कविता नहीं करता’ में कवि डॉ. सत्येंद्र सिंह मनुष्य के रूप में जीवन की पड़ताल करते हुए दिखाई देते हैं।
मैं कविता नहीं करता
अपने आपको देखता हूँ…,
कब मुझे प्रभावित किया-
अहंकार ने, क्रोध ने, लालच ने
और मैं कब गिरा, कब खड़ा हुआ..।
मनुष्यता की भावनाओं में कृतज्ञता प्रमुख है। जिनसे जीवन पाया, जिनके चलते पोषण मिला,जिनसे जीवन का अर्थ मिला, जिन्होंने जीवन को सही मार्ग दिखाया, जिनके कारण जीवन जी सके, उन सब के प्रति आजीवन कृतज्ञ रहना मनुष्यता है। ‘दीप की चाहत’ कविता में यह कृतज्ञता कुछ यूँ शब्द पाती है-
मैं दीप जलाना चाहता हूँ,
उस खेत के कोने में-
जहाँ एक पूरे परिवार ने,
अपने परिश्रम से हमें
अनाज, फल, सब्जी देकर
ज़िंदा बनाए रखा।
कृतज्ञता के साथ सामासिकता और समता भी मानवता के तत्व हैं। कवि की यह आकांक्षा देखिए-
न प्रतिभा दमन हो,
न हो श्रम शोषण,
अखंड विकास ही
केवल साध्य हो।
मनुष्य सामाजिक प्राणी है। समाज, समूह से बनता है। इस सत्य से परिचित होते हुए भी स्वयं को श्रेष्ठ समझने की यह नादानी भी देखिए-
मुझसे कोई श्रेष्ठ नहीं,
मुझसे कोई ज्येष्ठ नहीं,
जो हूँ, मैं ही हूँ, बस
और कोई नहीं..!
नादानी की पराकाष्ठा है कि मनुष्य आत्मकेंद्रित संसार बनाने के मंसूबे बांधना नहीं छोड़ता। इस संदर्भ में कवि की स्पष्टोक्ति देखिए-
हाँ,‘मैं’ का संसार बन सकता है,
अहंकार का संसार बन सकता है,
पर वह होगा नितांत आभासी,
जब तक मेरे साथ तू न होगा.
तब तक संसार नहीं होगा।
कवि अदृश्य ईश्वर को दृश्यमान बनता देखता है और लिखता है-
कहते रहे लोग,
सुनते रहे हम,
रचयिता अदृश्य है
और देखते भी रहे
रचयिता को
दृश्यमान बना रहे हैं लोग।
दृश्यमान की संभावना को अपरिमित करते हुए कवि फिर प्रश्न करता है-
तुम कण-कण में हो-
आप्त वचन है,
फिर एक ही प्रस्तर में क्यों?
यह कोई साधारण प्रश्न नहीं है। कण-कण में ईश्वर को देखने के लिए दृष्टि के पार जाना होता है। पार के बाद अपार होता है और अपार में अपरंपार का दर्शन होता है।
मथुरा के श्रीकृष्ण जन्मस्थान-सेवासंघ में सेवाएँ दे चुका व्यक्तित्व स्वाभाविक है कि अपने भीतर एक आध्यात्मिक, दार्शनिक उमड़-घुमड़ अनुभव करे। इस आध्यात्मिकता और दर्शनिकता का सराहनीय पक्ष यह है कि कोई मुलम्मा चढ़ाए बिना, अलंकार और रस की चाशनी में डुबोए बिना, कवि जो देखता है, कवि जो सोचता है, वही लिखता है।
यद्यपि कवि ने संग्रह को ’मैं कविता नहीं करता’ शीर्षक दिया है तथापि अनेक स्थानों पर भीतर का कवित्व गागर में सागर-सा प्रकट हुआ है।
निरालंब होने हेतु
ढूँढ़ता हूँ अवलंब..!
मानवता के इतिहास के उपलब्ध न होने की दस्तावेज़ी बात कविता में थोड़े से शब्दों में अभिव्यक्त होती है। कुछ पंक्तियों में लघुता से प्रभुता की यात्रा पूर्ण होती है।
इतिहास के लिए
कुछ करना होता है,
…जैसे युद्ध।
बिना युद्ध वालों का ज़िक्र
कहीं मिला तो
युद्ध के कारण ही।
…इसीलिए
मनुष्यता का
कोई इतिहास नहीं है।
बुज़ुर्ग रचनाकार के पास जीवन का विपुल अनुभव है। यह अनुभव आने वाली पीढ़ी के लिए मार्गदर्शन के रूप में कविता में स्थान पाता है। कुछ बानगियाँ देखिए-
जिस विगत की उपेक्षा की,
वर्तमान बदलने की इच्छा की,
तो आगत भयावह बन गया,
जो स्वयं नहीं किया कभी,
औरों के लिए उद्देश्य बन गया।
…
अस्तित्व जिस रूप में है,
स्वीकार करो, उपभोग करो,
अपना जीवन सार्थक करो।
…
अतीत में ही बने रहना,
आदमी का वृद्धत्व है,
कहते गए विद्वान जग में,
आज में जाग बुुद्धत्व है।
यह सूचनाक्रांति का युग है। हर क्षण चारों ओर से मत-मतांतर उँड़ेले जा रहे हैं। अनुभव-संपन्न और प्रबुद्ध होने पर भी दिग्भ्रमित होना स्वाभाविक है-
मैं सोचता रहता हूँ कि
मैं, मैं हूँ या एक विचार,
जिसका स्थायित्व नहीं
अस्तित्व नहीं,
पता नहीं कब बन जाती है
विचारों की दुनिया,..मेरी दुनिया,
जहाँ विचार ही होते हैं
पर मैं कहीं नहीं होता।
पूरे संग्रह में आम नागरिक का प्रतिनिधि बनकर उभरा है कवि। आम नागरिक, जिसकी बड़ी आकांक्षाएँ नहीं हैं। आम नागरिक, जो बोलता कम है, लेकिन समझता सब है। आम नागरिक, जिसके लिए उसका राष्ट्र और राष्ट्र के प्रति प्रेम अहम बिंदु हैं (संदर्भ-भारत माता, 26 जनवरी, देशप्रेम व अन्य कविताएँ)। आम नागरिक जिसे रामराज्य चाहिए, माता जानकी का निर्वासन नहीं (संदर्भ- ओ अयोध्या वालो!)। आम नागरिक जो जानता है कि राजनीति कैसे सब्ज़बाग दिखाती है। जनता को उपदेश पिलाना और पालन के नाम पर स्वयं, शून्य रहना अब सामान्य बात हो चली है। (संदर्भ- कर्तव्य की वेदी पर)। कवि ने जो भोगा है, जो अनुभव किया है, किसी नामोल्लेख के बिना पद्य में अनेक स्थानों पर उसे संस्मरण-सा लिखा है (संदर्भ-कंधे और कुछ अन्य कविताएँ)।
प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट आर.के. लक्ष्मण का ‘कॉमन मैन’ भारत के आम आदमी का प्रतिरूप है। एक वाक्य में कहूँ तो- ‘कॉमन मैन’ की कविताएँ हैं, ‘मैं कविता नहीं करता।’
इस आम आदमी का कहना कि मैं कविता नहीं करता, एक रूप में सही है। उनके शब्द सहज हैं, सरल हैं। इनमें भाव हैं, ये अनुभव से उपजे हैं। ये प्राकृतिक रूप से उमगे हैं, इन्हें कविता में लिखने का प्रयास नहीं किया गया है।
तथापि इन रचनाओं के शब्द इतने व्यापक और मुखर हैं कि व्यक्तिगत होते हुए भी इनका भावजगत, इनकी ईमानदारी, इन्हें समष्टिगत कर देती है। तब कहना पड़ता है कि ’यह आदमी करता है कविता।’
कामना है कि कवि डॉ. सत्येंद्र सिंह के इस संग्रह को पाठकों का समुचित समर्थन मिले।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(हमप्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के आभारी हैं जो साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं।
आज प्रस्तुत है आपके द्वारा डा ॠतु शर्मा जी द्वारा प्रस्तुत “नीदरलैंड की लोक कथायें”पर चर्चा।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 171 ☆
☆ “नीदरलैंड की लोक कथायें” – प्रस्तुती … डा ॠतु शर्मा☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
पुस्तक चर्चा
नीदरलैंड की लोक कथायें
हिन्दी प्रस्तुति डा ॠतु शर्मा
वंश पब्लिकेशन, रायपुर, भोपाल
पहला संस्करण २०२३
पृष्ठ १०८
मूल्य २५०रु
ISBN 978-81-19395-86-6
☆ लोक कथायें बच्चों के अवचेतन मन में संस्कारों का प्रतिरोपण भी करती हैं ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
प्रत्येक संस्कृति में लोक कथायें पीढ़ियों से मौखिक रूप से कही जाने वाली कहानियों के रूप में प्रचलन में हैं। सामान्यतः परिवार के बुजुर्ग बच्चों को ये कहानियां सुनाया करते हैं और इस तरह बिना लिखे हुये भी सदियों से जन श्रुति साहित्य की ये कहानियां किंचित सामयिक परिवर्तनो के साथ यथावत चली आ रही है। इन कहानियों के मूल लेखक अज्ञात हैं। किन्तु लोक कथायें सांस्कृतिक परिचय देती हैं। आर्थर की लोक कथाओ को ईमानदारी, वफादारी और जिम्मेदारी के ब्रिटिश मूल्यों को अंग्रेजो की राष्ट्रीय पहचान का एक महत्वपूर्ण हिस्सा माना जाता है। भारत में पंचतंत्र की कहानियां नैतिक शिक्षा की पाठशाला ही हैं, उनसे भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों का परिचय भी मिलता है। लोक कथायें बच्चों के अवचेतन मन में संस्कारों का प्रतिरोपण भी करती हैं। समय के साथ एकल परिवारों के चलते लोककथाओ के पीढ़ी दर पीढ़ी पारंपरिक प्रवाह पर विराम लग रहे हैं अतः नये प्रकाशन संसाधनो से उनका विस्तार आवश्यक हो चला है। विभिन्न भाषाओ में अनुवाद का महत्व निर्विवाद है। आज की ग्लोबल विलेज वाली दुनियां में अनुवाद अलग अलग संस्कृतियों को पहचानने के साथ ही सामाजिक सद्भाव के लिए भी महत्वपूर्ण है। अनुवाद ही एकमात्र ऐसा माध्यम है जिसके जरिये क्षेत्रीयता के संकुचित दायरे टूटते हैं। यूरोपियन देशों में नीदरलैंड्स में फ्रांसीसी, अंग्रेज़ी और जर्मन भी समझी जाती है।
प्रस्तुत पुस्तक नीदरलैंड की लोक कथायें में डा ॠतु शर्मा ने बहुत महत्वपूर्ण कार्य करते हुये छै लोककथायें नीदरलैंड से, दो स्वीडन से, इटली से तथा जर्मनी से एक एक कहानी चुनी। डा ॠतु शर्मा ने कोई लेखकीय नहीं लिखा है। यह स्पष्ट नहीं है कि ये लोककथायें लेखिका ने कहां से ले कर हिन्दी अनुवाद किया है। कहानियों को हिन्दी में बच्चों के लिये सहज सरल भाषा में प्रस्तुत करने में लेखिका को सफलता मिली है। यद्यपि कहानियों को किंचित अधिक विस्तार से कहा गया है। जादुई पोशाक, चांदी का सिक्का, बुद्धू दांनचे, स्वर्ग का उपवन, तिकोनी ठुड्डी वाला राजकुमार, और दो लैंपपोस्ट की प्रेम कहानी नीदर लैंड की कहानियां हैं। जिनके शीर्षक ही बता रहे हैं कि उनमें कल्पना, फैंटेसी, चांदी के सिक्के और लैंप पोस्ट जैंसी जड़ वस्तुओ का मानवीकरण, थोड़ी शिक्षा, थोड़ा कथा तत्व पढ़ने मिलता है। स्वीडन की लोककथायें नन्हीं ईदा के जादुई फूल और रेत वाला कहानीकार हैं। इटली की लोक कहानी तीन सिद्धांत और जर्मन लोक कथा तीन सोने के बाल के हिन्दी रूप पढ़ने मिले।
इस तरह का साहित्य जितना ज्यादा प्रकाशित हो बेहतर है। वंश पब्लिकेशन, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश सहित हिन्दी बैल्ट के राज्यो में अपने नये नये प्रकाशनो के जरिये गरिमामय स्थान अर्जित कर रहा उदयीमान प्रकाशन है। वे उनके सिस्टर कन्सर्न ज्ञानमुद्रा के साथ लेखको के तथा किताबों के परिचय पर किताबें भी निकाल रहे हैँ। मेरी मंगल कामनाये। यह पुस्तक विश्व साहित्य को पढ़ने की दृष्टि से बहुउपयोगी और पठनीय है।
☆ “माझे दगडाचे हात” – (काव्य-संग्रह) – कवी : श्री सुधाकर इनामदार ☆ परिचय – श्री सुहास रघुनाथ पंडित ☆
पुस्तक : माझे दगडाचे हात (काव्यसंग्रह)
कवी : श्री सुधाकर इनामदार
संपर्क: 9421122017
मूल्य : रु. 200/_
प्रकाशक: तेजश्री प्रकाशन, कबनूर. 8275638396
परिचय : सुहास रघुनाथ पंडित
☆ माझे दगडाचे हात : दगडाच्या हातातून पाझरलेली काव्यगंगा ☆
… सांगली जिल्ह्य़ातील आटपाडी तालुका म्हणजे साहित्यिकांची खाणच ! याच तालुक्यातील गोमेवाडीचे कवी श्री. सुधाकर इनामदार यांचा ‘ माझे दगडाचे हात ‘ हा काव्य संग्रह काही महिन्यांपूर्वी सांगलीत प्रकाशित झाला. हा त्यांचा चौथा काव्य संग्रह. उत्तम गझलकार म्हणून तर ते प्रसिद्ध आहेतच. पण या काव्यसंग्रहामुळे त्यांचे गझलेतर काव्य प्रकाशात आले आणि काव्य रसिकांना एक नवे लेणे प्राप्त झाले. त्या लेण्याचे यथाशक्ती दर्शन घडवण्याचा हा प्रयत्न !
कविता काय असते, कवितेची ताकद काय असते हे सांगताना ते पहिल्याच कवितेत म्हणतात की कविता ही विश्वाला व्यापून उरणारी असते. ती मौनाला फुटलेला अक्षरपान्हा असते. करुणा, वेदना, भूक, तृप्ती अशी कवितेची अनेक रुप त्यांना दिसतात. एवढेच नव्हे तर आत्महत्येच्या अविचारापासून परावृत्त करण्याचे सामर्थ्यही कवितेत आहे असा विश्वास त्यांना कवितेबद्दल आहे. त्यामुळेच कुटुंबातील वातावरण काव्य निर्मितीला पोषक नसतानाही त्यांनी कवितेला दूर लोटलं नाही. कारण ज्या कवितेने विठूलाही बांधून ठेवलं आहे तीच कविता आपल्या रक्तातून वाहते आहे, ती दूर करता येणारच नाही याची जाणीव त्यांना सुरुवातीपासूनच झाली आहे. मग हा प्रवास अव्याहतपणे चालू राहीला आणि कवितेच्या हव्यासाने लाभलेली फकिरी ही सुद्धा अमीरी वाटू लागली. कविता गझल, अभंग, ओवी होऊन ह्रृदयातून पाझरु लागली. कधी ती गवतासारखी मुलायम बनली तर कधी तलवारीची धार होऊन तळपू लागली. कवितेच्या सामर्थ्यामुळे कवी इतका सामर्थ्यवान बनला की तो आत्मविश्वासपूर्ण सांगू शकतो की
“अंथरुनिया समुद्र अवघा
घेऊन निजलो चंद्र उशाला
पांघरुनी आकाश घेतले
पायाशी बसवले तमाला “
कविचा कवितेविषयीचा हा दृष्टीकोन, विश्वास म्हणजे कवीच्या रक्तात कविता किती भिनली आहे याचे द्योतक आहे.
झाड, पारध, चिमणे यांसारख्या काही रुपकात्मक कवितांतूनही कवीच्या भावना व्यक्त होतात.
सुखासुखी जीवन जगणं कुणाला नको असतं ? पण राजमार्ग सोडून संकटांना सामोरं जाणं ज्याला जमतं त्यालाच जगणं समजतं. वादळवा-याशी टक्कर देत उभं असलेलं झाड म्हणून तर कविला आकर्षित करत नसेल ना ? कविला झाड व्हायचय. ते इतक सोप नसतं हे त्याला माहित आहे. पण तरीही त्याला झाड व्हायचंय. बहरणं असणार तशी पानगळही असणार. पाऊस बरसणार. विजा झेलाव्या लागणार. सावली देऊनही कु-हाडीचे घाव सोसावे लागणार. पण हे सगळ्याला त्याची तयारी आहे. कारण स्वतः मातीखाली मुजून दुस-यासाठी वर फुलून येण्यातली सार्थकता कविला अनुभवायची आहे. कवीचं मातीशी असलेलं नातं कधीच तुटणार नाही हेच यातून स्पष्ट होतय.
‘पारध’ ही कवितेतून कवीने गावरान वातावरण निर्माण करत एक मोलाच इशाराही देऊन ठेवला आहे. रानाची राखण करता करता आपली पारध होणार नाही याची काळजी घ्यायचा सल्ला देताना काळाच्या बेरकेपणाची जाणीव करुन देऊन सर्वांनाच सावध केलं आहे. तरारलेल्या रानाची राखण करताना खडा पहारा तर हवाच पण त्याच रानाची भुरळ पडू देऊ नकोस, गाफील राहू नकोस ही रुपकात्मक भाषा ‘ ऊसाला लागलं कोल्हा ‘ ची आठवण करुन देते. ‘चिमणे ‘ या कवितेतून कवीने चिमणीशी साधलेला संवाद हा सावधानतेचा इशारा देऊन स्त्रीचे बळ वाढवणाराच आहे.
त्यांच्या अनेक कवितांमधून विठूमाऊलीचा उल्लेख आढळतोच. पण काही कविता या भक्तिरसात न्हाऊन निघाल्या आहेत. ’ धाव रे विठ्ठला, तुझा कैवल्याचा मळा ‘ यासारख्या कविता आपल्याला त्यांच्या सश्रद्ध मनाचे दर्शन घडवतात. तरी सुद्धा…..
“ज्यांच्या तळहाती घट्टे
आणि भाळावर घाम
कसा आठवावा त्यांना
सांज सकाळचा राम “
हा प्रश्न त्यांना पडतोच. या विठुरायाचे गुणगान गाताना ते दुस-या देवाला- देशालाही- विसरत नाहीत.
संतांची, शूरांची भूमी असलेल्या या भूमीचा जयजयकार करुन ते थांबत नाहीत तर वास्तवाचे भान ठेवून सांगतात ” सावध ठेवा सीमा अपुल्या करेल शत्रू मारा “. ही सावधानता डोळस भक्तीची द्योतक आहे.
‘जख्ख दुपारी ‘…. ही कविता म्हणजे एक उत्तम शब्दचित्रच आहे. भर दुपारच्या रखरखराटाचे केलेले वर्णन वाचून कवीच्या निरीक्षण शक्तीचा अंदाज येतो. पोरकी पेठ, सुनामुका माळ, कळसाची सावली, पडलेला वारा यासारखे संदर्भ दुपारच्या तीव्रतेचे नेमके चित्रण करतात. दुपार किती ‘ जख्ख ‘ आहे ते डोळ्यासमोर येते.
कवितेवर प्रेम करणारा असा कोणताच कवी नसेल की ज्याने प्रेमकवीता लिहीली नाही. कवी सुधाकर हेही याला अपवाद नाहीत. तिची उडणारी बट, फडफडणारी ओढणी, तिच्या पैंजणांचा नाद कवीला आकृष्ट करुन घेतातच. पण तिच्या मनाच्या समुद्रात वादळ उठतेय आणि इकडे त्याची ओली सळसळ त्याच्या इंद्रियात होतेय. या सळसळीतून नकळत मुरलीचे सूर झरे लागतात. कृष्ण कृष्ण रहात नाही. राधा राधा रहात नाही. कारण
“मी कृष्ण सावळा होतो
तू शुभ्र पिठोरी राधा
मज डसते शुभ्रता आणिक
तूज डसते सावळबाधा “
अशा एकरुपतेनेच मग तिच्या परिस स्पर्शाने त्याचे लोखंडी ओठही सोन्याचे होऊन जातात. तर कधी तिच्या येण्यानेच डोळ्यांना भाषा सुचते आणि मौनाचे अक्षर होते. ही प्रेमाची किमया त्याची खात्री पटवून देते की तिचं चंद्रकोरी लेणं आपल्या मिठीत लाभलं की आपले दगडाचे हात सुद्धा मेणाचे बनून जातील.
कविता संग्रहातील अनेक कविता कवीच्या चिंतनशील मनाची साक्ष पटवतात. दुःखाकडे पाहण्याचा कविचा दृष्टिकोन काय आहे हे ‘दुःख ‘ या कवितेत व्यक्त झाले आहे. शेवटी कवी म्हणतो…
“पडझडत्या सुखांना
दुःख घालते लिंपण
दुःख म्हणजे सुखाच्या
नाकामधली वेसण “
कवीच्या दुःखाविषयीच्या चिंतनातून आलेले हे नेमके शब्द आपल्यालाही विचार करायला लावतात. म. वाल्मिकींच्या महाकाव्यापासून वाहत आलेली ही दुःख सरिता आजच्या काव्यातही जीवंत आहे. पण कवी या दुःखाला कवटाळून न बसता मशाल होऊन दाही दिशा उजळण्याची जिद्द बाळगतो. कवी म्हणतो
“माझ्यातच माझी बीजे
मी रोज पेरती करतो
मी काळीज नांगरणारा
ह्रृदयाची शेती करतो “
मग असेच कधीतरी
“परसामध्ये स्मृती पेरल्या
त्याचे होते झाड उगवले
सुखदुःखाच्या फुलाफळांनी
अंगोपांगी पूर्ण लगडले. “
तर कधी कवी अंतर्मुख होऊन पाहतो तेव्हा त्याला स्वतःतील (खरे तर आपल्या सर्वांतील) दोष, दुर्गुण दिसू लागतात आणि कशासाठी जगतोय आपण असे वाटावे इतकी उद्वीग्नता मनात निर्माण होते. मला डोहात नेऊन बुडवा आणि तरंगलो तरी वाचवू नका असे बजावणारी ‘ मला बुडवा डोहात…. ‘ ही कविता सर्वांनी आवर्जून वाचावी अशी आहे. या चिंतनशिलतेमुळेच कवी पुढे एका कवितेत म्हणतो,
“ह्या मौनातील शब्दांच्या
मी रोज ऐकतो हाका
श्र्वासांच्या हिंदोळ्यावर
मी रोजच घेतो झोका “
आपण कोण आहोत, कसे आहोत याची जाणीव कविला असल्यामुळेच कवी म्हणतो
“मी फक्त धुलीकण आहे
ह्या संतांच्या पायाचा “
याहून दुसरी थोरवी कविला नको आहे. त्याची इच्छा एवढीच आहे,
“त्या पावन मातीमध्ये
माझाही शेवट व्हावा
इतकेच वाटते माझा
जळण्यातच जन्म सरावा “
दुस-यासाठी जळण्याचे हे बळ संतांच्या, संतसाहित्याच्या शिकवणुकीतूनच मिळाले आहे. त्यामुळे देहाचा आणि आत्म्याचा संवाद चालू आहे असे कवी म्हणू शकतो. माणूस म्हणजे भरवसा नसलेल्या देहाचा दास आहे, त्याचा श्वासही त्याच्या ताब्यात नाही हे संतांनी सांगितलेले तत्वज्ञान कवी सोपे करुन आपल्याला सांगू शकतो ते चिंतनशीलतेमुळेच !
‘पाऊलखुणा ‘ आणि ‘ह्याच अंगणात ‘ या कविता भूतकाळात घेऊन जाणा-या आहेत. धुळीची वाट, आमराई, पाखरे, गायी, गुरे कविला अजूनही खुणावत आहेत. गावाची, घरातल्या अंगणाची आठवण मनात घर करुन बसली आहे. या मातीनेच आपल्याला घडवले आहे याची जाणीव कवीला आहे. तो कृतज्ञतापूर्वक म्हणतो,
“आज सोहळा शब्दांचा जो माझ्या ओठी आला
अंगणातल्या ह्याच मातीने जन्माला घातला “
संग्रहात काही अभंग रचनाही आहेत. तुकोबाची शेती, दळण, लोकोद्धार, जन्माची चाहूल यासारख्या अभंगांतून तुकोबांचे कार्य, प्रपंचाचे चित्रण, वर्तमान स्थिती असे विविध विषय हाताळले आहेत. तर वैरीण होते नीज, विराणी या कवितांतून समाजातील उपेक्षित स्त्रीयांचे दुःख प्रभावीपणे मांडले आहे.
या संग्रहातील कविता वाचताना विषयांची विविधता आहे हे लक्षात येते. तरीही सभोवतालचे जग, परिसर, वर्तमान परिस्थिती या सर्वांकडे कवीचे लक्ष असल्यामुळे सामाजिक आशयाच्या कविता संख्येने जास्त आहेत. जवळ जवळ निम्म्या कविता या सामाजिक जाणिवेतून जन्माला आल्या आहेत. असे असले तरीही प्रत्येक कवितेची मांडणी भिन्न भिन्न असल्यामुळे सर्वच कविता वाचनीय आहेत.
अशा सर्व कवितांचा उल्लेख करण्यापेक्षा काही काव्य पंक्ती पाहिल्या तर कवीच्या मनातील अस्वस्थतेची कल्पना येईल.
… समस्यांचा डोंगर पार करत जगणं हे मुश्किल होऊन गेलं आहे. त्याचे उत्तर मात्र कोणाकडेच नाही. कवी म्हणतो,
“लाख समस्या लाख प्रश्न
त्याचं द्याल का उत्तर
स्वप्नांवरती आश्वासनांच
शिंपडू नका अत्तर “
तुटणारी नाती पाहून तो अस्वस्थ होतो….
” घरांस आले कुंपण आणिक
बंद जाहली दारे
चार भिंतीच्या विश्व आतले
आम्हा वाटे प्यारे “
माणसाचे माणूसपण संपत चालले आहे हे पाहून कवी लिहीतो,
“मज नख्या सुळे फुटल्याने
मी क्रूर भयानक झालो
मी मनुष्य असलेल्याचे
नुसतेच कथानक झालो. “
चांगुलपणाची होणारी अवहेलना पाहून कवी लिहितो……
“इथला प्रत्येक चांगला माणूस
मेल्यावरती संत झालाय “
”जितके झेंडे तितक्या जाती “
ही वस्तुस्थिती आहे.
” सत्तेमधुनी मिळतो पैसा
सत्तेवरती टोळ्या जगती
लाल फितीचे नाल ठोकले
फक्त कागदी घोडे झुलती “
किंवा
“जन्माच्या सगळ्या वाटा
मरणाने मिंध्या केल्या
हे दलाल आले ज्यांनी
मातीच्या चिंध्या केल्या “
हे शब्द दाहक सत्य प्रभावीपणे मांडत नाहीत काय ?
अशा अनेक काव्यपंक्ती उद्धृत करता येतील ज्यातून कवीने समाजाचे वास्तव चित्रण नेमकेपणाने केले आहे. असत्य, दांभिकपणा, नीतीहीनता, भ्रष्टाचार यांनी समाज पोखरून निघाला आहे. सत्ता आणि संपत्ती यांचे साटेलोटे असल्यामुळे मूल्यहीन जीवनपद्धती फोफावत चालली आहे. आपल्या कवितांमधून कवीने हे स्पष्टपणे मांडले आहे.
कोणतेही पुस्तक म्हटले की प्रस्तावना आलीच. पण या कवितासंग्रहात मात्र स्वतः कविनेच कवितेआधीचा संवाद साधला आहे. हा संवाद ‘ऐकल्याशिवाय ‘ म्हणजेच वाचल्याशिवाय पुढे जाणे योग्य ठरणार नाही. कारण कवितेकडे प्रथमपासूनच अत्यंत गंभीरपणे पाहिले असल्यामुळे कवीची कवितेविषयीची भूमिका काय आहे, कविता निर्मिती मागची प्रेरणा काय आहे या प्रश्नांची उत्तरे या संवादात मिळतात. त्यामुळे पुढे कवीच्या रचना वाचताना प्रत्येक कवितेमागची भावना समजून घेणे सोपे जाते. या संवादात कवीने स्वतःचे अंतरंग उघडे करताना अनेक ठिकाणी, नकळतपणे, काव्य निर्मितीविषयी प्रकट चिंतन केले आहे जे सर्वांनाच मार्गदर्शक ठरणारे आहे. स्वतःचा खरा चेहरा असणारी कविता कशी आकारत जाते हे समजू शकते किंवा कवितेच्या आकृतीबंधाचे त्यांनी केलेले विश्लेषण वाचनीय आहे. स्वतःच्या अनुभवातून लक्षात आलेल्या काव्य निर्मितीच्या प्रमुख जागा त्यांनी दाखवून दिल्या आहेत. काव्यगंगेच्या एवढे खोलीपर्यंत शिरुनही ते नम्रपणे म्हणतात मी काव्य-वारीचा एक साधा पाईक आहे. काव्याच्या पेशी रक्तात भिनलेल्या असल्यामुळेच ते म्हणतात
” ह्या नव्हेत नुसत्या कविता
आत्माचे लेणे आहे “
फत्तरांनी गीत गावं त्याप्रमाणे दगडाच्या हातांनी कोरलेलं हे आत्म्याचं काव्यलेणं डोळे भरुन पहायला नव्हे वाचायलाच हवं. अशीच दुर्मिळ काव्यलेणी यापुढेही त्यांच्या हातून कोरली जावोत हीच सदिच्छा !
पुस्तक परिचय – श्री सुहास रघुनाथ पंडित
सांगली (महाराष्ट्र)
मो – 9421225491
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
संजय दृष्टि – समीक्षा का शुक्रवार # 16
मीराबाई से वार्तालाप — लेखिका- सुश्री रीटा शहाणी समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज
पुस्तक का नाम- मीराबाई से वार्तालाप
विधा- लघु उपन्यास
लेखिका- रीटा शहाणी
प्रकाशन- क्षितिज प्रकाशन, पुणे
नींद उड़ानेवाली स्वप्नयात्रा☆ श्री संजय भारद्वाज
‘मीराबाई से वार्तालाप’, लेखिका रीटा शहाणी का अपने प्रतिबिंब से संवाद है। शीशमहल में दिखते जिस प्रतिबिंब की बात उन्होंने की है, वह शीशमहल लेखिका के भीतर भी कहीं न कहीं बसा है। अंतर इतना है कि कथा का शीशमहल जीव को प्राण देने के लिए विवश कर देता है जबकि लेखिका के भीतर का शीशमहल नित नए प्रतिबिंबों एवं नए प्रश्नों को जन्म देता है। अपने आप से संघर्ष को उकसाता है, चिंतन को विस्तार देता है। ये सार्थक संघर्ष है।
वस्तुतः इस वार्तालाप को स्थूल शरीर और सूक्ष्म शरीर का संवाद भी कहा जा सकता है। नायिका का एक रूप वो है जो वह है, दूसरा वो जो वह होना चाहती हैं। यह स्वप्नयात्रा हो सकती है पर नींद मेें तय की जानेवाली नहीं, बल्कि ऐसी स्वप्नयात्रा जो लेखिका को सोने नहीं देती।
भारतीय समाज में अध्यात्म की जड़ें बहुत गहरी हैं। हमारे आध्यात्मिक चिंतन में अचेतन के चित्र और अवचेतन की धारणा भीतर तक बसी है। ये चित्र और धारणाएँ शाश्वत हैं। लेखिका की मीरा, ललिता गोपी से मीरा तक की यात्रा तो करती ही है, यात्रा के उत्कर्ष में लेखिका तक भी पहुँचती है। सूक्ष्म और स्थूल का मिलन कथा की प्राणवायु है। अवचेतन के सनातन का वर्तमान से एकाकार हो जाता है। यह एकाकार, इहलोक की तमाम चौखटों की परिधि से अधिक विस्तृत है।
अपनी यात्रा को लेखिका संवाद की शैली के साथ-साथ चिंतन-मनन एवं विश्लेषण से जोड़कर रखती हैं। कहीं पात्रों के वार्तालाप से और अधिकांश स्थानों पर सपाटबयानी से वे अपने चिंतन को पाठकों के आगे ज्यों का त्यों रखती हैं।
स्वाभाविक है कि पूरी यात्रा में लेखिका, पथिक की भूमिका में हैं। पथिक होने के खतरों से वे भली-भाँति परिचित हैं। इसलिए लिखती हैं, ‘ यह जानना भी आवश्यक है कि उस रास्ते की मंज़िल कौनसी होगी, अंतिम पड़ाव क्या होगा। उसे पता है कि अपना एक पग उठाने से धरती का एक अंश छोड़ना पड़ता है। पैर उठाने से धरती तो छूट जाएगी और पुन: नई धरती पर पाँव धरना पड़ेगा। कुछ प्राप्त होगा, कुछ खोना पड़ेगा।’
यात्रा में पड़ने वाले संभावित अंधेरों से चिंतित होने के बजाय वे इसे सुअवसर के रूप में लेती हैं। कहती हैं, ‘यदि देखा जाए तो हर वस्तु का जन्म अंधेरे में ही होता है, प्रात: के उजाले में नहीं। बीज अंकुरित होते हैं धरती की कोख की अंधेरी दरारों में।’
जो कुछ भौतिक रूप से पाया, वह स्थायी नहीं हो सकता, इसका भान भी है। ये पंक्तियाँ विचारणीय हैं, ‘किसी प्रकार का भी आनंद अधिक काल तक नहीं टिकता। अत: वह सही अर्थ में आनंद है ही नहीं। वह तो केवल मृग- कस्तूरी का खेल है जिसकी प्रतिध्वनि हमें अन्य वस्तुओं में सुनाई पड़ती है।’
वे कृष्ण की अनुयायी हैं। अतः सिद्धांतों से परे वे कर्म में विश्वास करती हैं। जीवन को ‘लीला’-सा विस्तार देना चाहती हैं। फलतः शब्द बोलते हैं, ‘कृष्ण ने अपने को सिद्धांतों के बंधनों से मुक्त रखा है । उसने कोई रेखा नहीं खींची है। परिणामस्वरूप उसके जीवन को लीला कहा जाता है।’
लेखिका अपनी यात्रा में दीवानगी के आलम की शुरुआत ढूँढ़ती हैं। इस शुरुआत का दर्शन और तार्किक विश्लेषण देखिए, ‘पर्दा हमने खुद डाला है, अत: हमें ही हटाना है। वह पट बाह्य नेत्रों पर नहीं है । वह है हमारी आन्तरिक चक्षुओं पर। हम उसको हटाने की शक्ति रखते हैं। एक बार घूँघट हट गया तो दीवानगी का आलम आरंभ होता है।’
दीवानगी के चरम का सागर लेखिका ने अपनी गागर में समेटने का प्रयास किया है। उनकी गागर भी मीरा की गागर की भाँति तरह-तरह के भाव एवं भावनाओं से लबालब है। ‘तारी’, ‘बैत’, ‘सुर्त चढ़ना’ जैसे सिंधी शब्दों का प्रयोग हिंदी पाठकों को नया आनंदमयी विस्तार देता है। सिंधी आंचलिकता गागर के जल को सौंधी महक व मिठास देती है।
लेखिका परम आनंद की अनुभूति के साथ यात्रा के उत्कर्ष तक पहुँचना चाहती हैं। इसलिए टहनी के दृष्टांत की भाँति स्वयं को सागर को समर्पित कर देती हैं, ‘टहनी आनंदित थी, प्रफुल्लित थी। उसे कोई भी चिंता न थी क्योंकि उसने खुद को लहरों के हवाले कर दिया था।’
इस आनंदमयी यात्रा का पथिक होने के लिए समर्पण या दीवानगी पाठकों से भी अपेक्षित है-
अक्ल के मदरसे से उठ, इश्क के मयकदे में आ।
जामे पयामें बेखुदी हम नेे पिया, जो हो सो हो।
निराकार प्रेम के इस साकार शब्दविश्व में पाठक अनोखी अनुभूति से गुजरेगा, इसका विश्वास है। लेखिका को बधाई।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆