हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 101 – “जीवन वीणा” – सुश्री अनीता श्रीवास्तव ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है  सुश्री अनीता श्रीवास्तव जी के काव्य संग्रह  “जीवन वीणा” – की समीक्षा।

 पुस्तक चर्चा

पुस्तक : जीवन वीणा ( काव्य संग्रह)

कवियत्री : सुश्री अनीता श्रीवास्तव

प्रकाशक : अंजुमन प्रकाशन, प्रयागराज

मूल्य : १५० रु

पृष्ठ : १५०

आई एस बी एन ९७८.९३.८८५५६.१२.५

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 101 – “जीवन वीणा” – सुश्री अनीता श्रीवास्तव ☆   

जीवन सचमुच वीणा ही तो है. यह हम पर है कि हम उसे किस तरह जियें. वीणा के तार समुचित कसे हुये हों,  वादक में तारों को छेड़ने की योग्यता हो तो कर्णप्रिय मधुर संगीत परिवेश को सम्मोहित करता है. वहीं अच्छी से अच्छी वीणा भी यदि अयोग्य वादक के हाथ लग जावे तो न केवल कर्कश ध्वनि होती है,  तार भी टूट जाते हैं. अनीता श्रीवास्तव कलम और शब्दों से रोचक,  प्रेरक और मनहर जीवन वीणा बजाने में नई ऊर्जा से भरपूर सक्षम कवियत्री हैं.

उनकी सोच में नवीनता है… वे लिखती हैं

” घड़ी दिखाई देती है,  समय तू भी तो दिख “.

वे आत्मार्पण करते हुये लिखती हैं…

” लो मेरे गुण और अवगुण सब समर्पण,  ये तुम्हारी सृष्टि है मैं मात्र दर्पण, …. मैं उसी शबरी के आश्रम की हूं बेरी,  कि जिसके जूठे बेर भी तुमको ग्रहण “.

उनकी उपमाओ में नवोन्मेषी प्रयोग हैं. ” जीवन एक नदी है,  बीचों बीच बहती मैं…. जब भी किनारे की ओर हाथ बढ़ाया है,  उसने मुझे ऐसा धकियाया है,  जैसे वह स्त्री सुहागन और पर पुरुष मैं “.

गीत,  बाल कवितायें,  क्षणिकायें,  नई कवितायें अपनी पूरी डायरी ही उन्होने इस संग्रह में उड़ेल दी है. आकाशवाणी,  दूरदर्शन में उद्घोषणा और शिक्षण का उनका स्वयं का अनुभव उन्हें नये नये बिम्ब देता लगता है,  जो इन कविताओ में मुखरित है. वे स्वीकारती हैं कि वे कवि नहीं हैं,  किन्तु बड़ी कुशलता से लिखती हैं कि “कविता मेरी बेचैनी है,  मुझे तो अपनी बात कहनी है “.

कहन का उनका तरीका उन्मुक्त है,  शिष्ट है,  नवीनता लिये हुये है. उन्हें अपनी जीवन वीणा से सरगम,  राग और संगीत में निबद्ध नई धुन बना पाने में सफलता मिली है. यह उनकी कविताओ की पहली किताब है. ये कवितायें शायद उनका समय समय पर उपजा आत्म चिंतन हैं.

उनसे अभी साहित्य जगत को बहुत सी और भी परिपक्व,  समर्थ व अधिक व्यापक रचनाओ की अपेक्षा करनी चाहिये,  क्योंकि इस पहले संग्रह की कविताओ से सुश्री अनीता श्रीवास्तव जी की क्षमतायें स्पष्ट दिखाई देती हैं. जब वे उस आडिटोरियम के लिये अपनी कविता लिखेंगी,  अपनी जीवन वीणा को छेड़कर धुन बनायेंगी जिसकी छत आसमान है,  जिसका विस्तार सारी धरा ही नहीं सारी सृष्टि है,  जहां उनके सह संगीतकार के रूप में सागर की लहरों का कलरव और जंगल में हवाओ के झोंकें हैं,  तो वे कुछ बड़ा,  शाश्वत लिख दिखायेंगी तय है. मेरी यही कामना है.  

समीक्षक .. विवेक रंजन श्रीवास्तव

ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 100 – “सकारात्मक सपने” – सुश्री अनुभा श्रीवास्तव ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी की पुस्तक  “सकारात्मक सपने” – की समीक्षा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 100 – “सकारात्मक सपने” – सुश्री अनुभा श्रीवास्तव ☆ 

 पुस्तक चर्चा

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कृति …सकारात्मक सपने

लेखिका …अनुभा श्रीवास्तव

प्रकाशक … डायमण्ड पाकेट बुक्स दिल्ली

मूल्य …११० रु

पृष्ठ .. १२४

साहित्य अकादमी म प्र. संस्कृति परिषद के सहयोग से प्रकाशित एवं लेखिका को इस कृति पर  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त। 

युवा लेखिका ने समय समय पर यत्र तत्र विभिन्न विषयो पर युवा सरोकारो के स्फुट आलेख लिखे , जिनमें से शाश्वत मूल्यो के आलेखो को प्रस्तुत पुस्तक में संग्रहित कर प्रकाशित किया गया है .

आत्मकथ्य  – युवा सरोकार के लघु आलेख 

जीवन में विचारो का सर्वाधिक महत्व है. विचार ही हमारे जीवन को दिशा देते हैं, विचारो के आधार पर ही हम निर्णय लेते हैं . विचार व्यक्तिगत अनुभव , पठन पाठन और परिवेश के आधार पर बनते हैं . इस दृष्टि से सुविचारो का महत्व निर्विवाद है . अक्षर अपनी इकाई में अभिव्यक्ति का वह सामर्थ्य नही रखते , जो सार्थकता वे  शब्द बनकर और फिर वाक्य के रूप में अभिव्यक्त कर पाते हैं . विषय की संप्रेषणीयता  लेख बनकर व्यापक हो पाती है.   इसी क्रम में स्फुट आलेख उतने दीर्घजीवी नही होते जितने वे पुस्तक के रूप में  प्रभावी और उपयोगी बन जाते हैं . समय समय पर मैने विभिन्न समसामयिक, युवा मन को प्रभावित करते विभिन्न विषयो पर अपने विचारो को आलेखो के रूप में अभिव्यक्त किया है जिन्हें ब्लाग के रूप में या पत्र पत्रिकाओ में  स्थान मिला है. लेखन के रूप में वैचारिक अभिव्यक्ति का यह क्रम  और कुछ नही तो कम से कम डायरी के स्वरूप में निरंतर जारी है.

अपने इन्ही आलेखो में से चुनिंदा जिन रचनाओ का शाश्वत मूल्य है तथा  कुछ वे रचनाये जो भले ही आज ज्वलंत  न हो किन्तु उनका महत्व तत्कालीन परिदृश्य में युवा सोच  को समझने की दृष्टि से प्रासंगिक है व जो विचारो को सकारात्मक दिशा देते हैं ऐसे आलेखों को प्रस्तुत कृति में संग्रहित करने का प्रयास किया  है . संग्रह में सम्मिलित प्रायः सभी आलेख स्वतंत्र विषयो पर लिखे गये हैं ,इस तरह पुस्तक में विषय विविधता है. कृति में कुछ लघु लेख हैं, तो कुछ लम्बे, बिना किसी नाप तौल के विषय की प्रस्तुति पर ध्यान देते हुये लेखन किया गया है.

आशा है कि पुस्तकाकार ये आलेख साहित्य की दृष्टि से  संदर्भ, व वैचारिक चिंतन मनन हेतु किंचित उपयोगी होंगे.

–  अनुभा श्रीवास्तव

खूशी की तलाश , आपदा प्रबंधन , कन्या भ्रूण हत्या , स्थाई चरित्र निर्माण हेतु नैतिकता की आवश्यकता , कम्प्यूटर से जीवन जीने की कला सीखने की प्रेरणा , देश बनाने की जबाबदारी युवा कंधों पर , कचरे के खतरे , धार्मिक पर्यटन की विरासत , आरक्षण धर्म और संस्कृति , आम सहमति से समस्याओ का स्थाई निदान, कागज जलाना मतलब पेड जलाना , भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई , तोड़ फोड़ राष्ट्रीय अपव्यय , शब्द मरते नहीं , कैसे हो गांवो का विकास , मुखिया मुख सो चाहिये , गर्व है सेना और संविधान पर , कार्पोरेट जगत और हिन्दी , संचार क्रांति , भ्रष्टाचार के विरुद्ध लडाई , महिलायें समाज की धुरी , जीवन और मूल्य जैसे समसामयिक विषयो पर आज के युवा मन के विचारो को प्रतिबिंबित करते छोटे छोटे सारगर्भित तथ्यपूर्ण आलेखो में अभिव्यक्त किया गया है .

लेख विषय की सहज अभिव्यक्ति करते हैं व मानसिक भूख शांत करते हैं . पुस्तक पढ़ने योग्य है , वैचारिक स्तर पर  संदर्भ हेतु संग्रहणीय भी है . युवाओ हेतु विषेश रूप से बहुउपयोगी है .

समीक्षक .. विवेक रंजन श्रीवास्तव

ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 99 – “हम इश्क के बंदे हैं” – स्व रामानुजलाल श्रीवास्तव ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है  स्व रामनुजलाल श्रीवास्तव जी के कथा संग्रह “हम इश्क के बन्दे हैं” – की समीक्षा।

 पुस्तक चर्चा


पुस्तक : हम इश्क के बंदे हैं (कहानी संग्रह)

लेखक : स्व रामानुजलाल श्रीवास्तव

प्रकाशक : त्रिवेणी परिषद, यादव कालोनी जबलपुर

मूल्य : २०० रु ,

पृष्ठ : १५०

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 99 – “हम इश्क के बंदे हैं” – स्व रामानुजलाल श्रीवास्तव ☆ 

स्व रामानुजलाल श्रीवास्तव ‘ऊंट’ जी ने हिन्दी गीत , कवितायें , उर्दू  गजलें , कहानियां , लेख ,पत्रकारिता , प्रकाशन आदि बहुविध साहित्यिक जीवन जिया . उन्होंने प्रेमा प्रकाशन के माध्यम से  साहित्यिक में महत्वपूर्ण योगदान दिया .  तत्कालीन साहित्यिक पत्रिकाओं में  ‘प्रेमा’ की बडी प्रतिष्ठा रही है . उन की धरोहर कहानी कृति “हम इश्क के बंदे हैं ” जिसका प्रथम प्रकाशन १९६० में हुआ था , उसे त्रिवेणी परिषद के माध्यम से साधना उपाध्याय जी ने संस्कृति संचालनालय म प्र के सहयोग से पुनर्प्रकाशित किया है . इस कहानी संग्रह में शीर्षक कहानी हम इश्क के बंदे हैं , बिजली , कहानी चक्र , मूंगे की माला , क्यू ई डी , मयूरी , जय पराजय , वही रफ्तार , भूल भुलैया , बहेलिनी और बहेलिया , आठ रुपये साढ़े सात आने , तथा माला नारियल कुल १२ कहानियां संग्रहित हैं .

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव विदग्ध जी की पंक्तियां हैं

सुख दुखो की आकस्मिक रवानी जिंदगी

हार जीतो की बड़ी उलझी कहानी जिंदगी

भाव कई अनुभूतियां कई , सोच कई व्यवहार कई

पर रही नित भावना की राजधानी जिंदगी .

ये सारी कहानियां सुख दुख , हार जीत , जीवन की अनुभूतियों , व्यवहार , इसी भावना की राजधानी के गिर्द बड़ी कसावट और शिल्प सौंदर्य से बुनी गई हैं . ये सारी ही कहानियां पाठक के सम्मुख अपने वर्णन से हिन्दी कथासम्राट मुंशी प्रेमचंद की कहानियों जैसा दृश्य उपस्थित करती हैं .  कहानी “वही रफ्तार” को ही लें …

कहानी १९५७ के समय काल की है अर्थात १८५७ के स्वतंत्रता संग्राम के सौ बरस बाद का समय . तब के जबलपुर का इतिहास , भूगोल , अर्थशास्त्र , समाज शास्त्र , राजनीति सब कुछ मिलता है कहानी में . सचमुच साहित्य समाज का दर्पण है .

कहानी से ही उधृत करता हूं ” अरे अब तो अंग्रेजी राज्य नहीं है . अब तो अपना राज्य है . अपना कानून है . अब तो होश में आओ रे मूर्खो . “

हम आप भी तो यही लिख रहे हैं , मतलब साहित्यकार पीढ़ी दर पीढ़ी लिख रहा है , वह लिख ही तो सकता है . पर लगता है मूर्ख होश में आने से रहे .

एक दूसरा अंश है , जिसमें रिक्शा वाला सवारी से संवाद करते हुये कहता है ” दिन भर में रुपया डेढ़ रुपया मार कूट कर बचा भी तो मंहगाई ऐसी लगी है कि पेट को ही पूरा नहीं पड़ता ” . कहानी का यह अंश बतलाता है १९५७ में रिक्शा वाला दिन भर में रुपये डेढ़ रुपये कमा लेता था. जो उसे कम पड़ता था . कमोबेश यही संवाद आज भी कायम हैं . यह जरूर है कि अब रिक्शे की जगह आटो ने ले ली है , रुपये डेढ़ रुपये की बचत तीन चार सौ में बदल गई है .

इस कहानी में तत्कालीन जबलपुर का वर्णन  भी बड़ा रोचक है ” देवताल के नुक्कड़ पर , गढ़ा की संकरी सड़क में कुछ घुस कर एक मोटर दीख पड़ी ” या “ग्वारी घाट सड़क पर रिक्शेवाला दाहिने मुड़ने लगा तभी सवारी ने कहा सीधे चलो चौथे पुल से इधर दो दो रेल्वे फाटक पड़ेंगे ” छोटी लाइन की समाप्ति और शास्त्री ब्रिज के निर्माण ने यह भूगोल अवश्य बदल दिया है .

अब आपके सम्मुख इस कहानी का कथानक बता देने का समय आ गया है . जो आपको निश्चित ही चमत्कृत कर देगा , यही कहानीकार की विशिष्ट कला है .  

आज भी रोज कमाने खाने वाले मजदूर में यह प्रवृत्ति देखने में आती है कि यदि  किसी तरह उनके पास अतिरिक्त कमाई हो जावे तो बजाय उसे संग्रह करने के वह अगले दिन काम पर ही नही जाते .  वही रफ्तार कहानी में एक रिक्शे वाले जग्गू को उसके चातुर्य से , एक प्रेमी जोड़े से अतिरिक्त आय हो जाती है . वह स्वयं साहब बनकर मजे करना चाहता है और एक सरल हृदय बारेलाल के रिक्शे पर सवारी करता है . साहबी स्वांग करते हुये जग्गू बारेलाल के रिक्शे से अपने मित्र तीसरे रिक्शेवाले मनसुख के घर पहुंचता है . जब बारेलाल पर यह भेद खुलता है कि उस पर अकड़ दिखाता रौब झाड़ता जो उसके रिक्शे की सवारी कर रहा था वह स्वयं भी एक  रिक्शेवाला ही है , तो वह भौंचक रह जाता है . किन्तु फिर भी वह उससे किराया लेने से मना कर देता है तब तीसरा रिक्शे वाला मनसुख जिसके घर जग्गू पहुंचता है वह कहता है ” भाई बारेलाल , यह सच है कि नाई नाई से हजामत की बनवाई नही लेता . पर मैने जो रूखी सूखी बनाई है , आओ हम तीनो बांटकर खा लें और इस सालेसे पूछें कि आज क्या स्वांग किया है .
बारेलाल कहता है , हाँ यह हो सकता है .
 
बारे लाल जग्गू से कहता है ” साले बेईमान एक दिन की बादशाहत में जिंदगी कट जायेगी ? गधे , घोड़े बैल का काम करो , आधा पेट खाओ . फैक्टरी की छंटनी के मारे ऐसी भीड़ कि रिक्शा मिलना भी हराम है . ….

मनसुख बोला धीरज धरो भैया सब ठीक हो जायेगा .

कैसे ?

ऐसे कि जैसे जग्गू बाबू बना था . समय आने पर नकली बाबू का भेद खुल गया न . इसी तरह नकली स्वराज्य और असली स्वराज्य का भेद खुल जायेगा . और समय आते क्या देर लगती है ?

आ ही तो गया सत्तावन गदर का साल .

सत्तावन अत्ठावन सब बीत गये परन्तु गरीबों के लिये तो वही रफ्तार बेढ़ंगी जो पहले थी सो अब भी है .

इस वाक्य से कहानी पूरी होती है . स्व रामानुज लाल श्रीवास्तव की अभिव्यक्ति भारत के अधिकांश गरीब तबके की मन की स्थिति का निरूपण है  . कहानियां सत्य घटनाओ पर आधारित अनुभूत समझ आती हैं .  

प्रश्न है कि क्या राजनीती की लकड़ी ही हांड़ी आज भी वैसे ही चुनाव दर चुनाव नही चढ़ाई जा रही . जग्गू , मनसुख और बारेलाल की पीढ़ीयां बदल चुकी हैं , पर समाज की विसंगतियों की वही रफ्तार कायम है .

सभी कहानियां भी ऐसी ही प्रभावकारी हैं . किताब जरूर पढ़िये . सत्साहित्य के पुनर्प्रकाशन की जो ज्योति त्रिवेणी परिषद ने प्रारंभ की है , वह प्रशंसनीय है . ऐसा पुराना साहित्य जितना अधिक प्रचारित प्रसारित हो बढ़िया है . यह नई पीढ़ी को दिशा देता है . स्वागतेय है .

समीक्षक .. विवेक रंजन श्रीवास्तव

ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆बूझोवल – रचनाकार – महादेव प्रेमी ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। आज प्रस्तुत है  आपके द्वारा पुस्तक की समीक्षा  “बूझोवल

☆ पुस्तक समीक्षा ☆ बूझोवल – रचनाकार – महादेव प्रेमी ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆ 

 

पुस्तक-  बूझोवल

रचनाकार-  महादेव प्रेमी

प्रकाशक- किताबगंज प्रकाशन, रेमंड शोरूम, राधा कृष्ण मार्केट, एसबीआई के पास, गंगापुर सिटी- 322201 जिला -सवाई माधोपुर (राजस्थान)

पृष्ठ संख्या- 116

मूल्य- ₹195

पहेलियों का इतिहास काफी पुराना है. जब से मानव ने इशारों में बातें करना सीखा है तब से यह अभिव्यक्त होते आ रहे हैं. आज भी ये इशारें विभिन्न रूपों में प्रचलित है. जब घर पर कोई मेहमान आता है तब मां अपने बच्चों को इशारा कर के चुप करा देती है. बच्चे मां का इशारा तुरंत समझ जाते हैं. 

अधिकांश बाल पत्रिकांए इन्हीं इशारों पर आधारित बाल पहेलियां प्रकाशित करती है. इन में वर्ग पहेली, प्रश्न पहेली, चित्र पहेली और गणित पहेलियां मुख्य होती है. कई किस्सेकहानियों में भी पहेलियां प्रयुक्त होती आई है. अकबर-बीरबल, विक्रम-बेताल के किस्से पहेलियों पर ही आधारित है. ऋग्वेद, बाइबिल, महाभारत, संस्कृत साहित्य आदि में पहेलियां भरी हुई है.

पहेलियां पूछना और बूझाना हमारी सांस्कृतिक परंपरा रही है. दादीनानी से हम ने कई पहेलियां सुनी है. वे आज भी हमें याद है. इसी तरह संस्कृत साहित्य में भी कई रोचक पहेलियां प्रयुक्त हुई है. इन्हें प्रहेलिका कहते हैं. इन प्रहेलिका में पहेलियों के गूढ़ रूप का ज्यादा प्रचलन रहा है. संस्कृत की एक पहेली देखिए-

श्यामामुखी न मार्जारी, द्विजिह्वा न सर्पिणी

पंचभर्ता न पांचाली, यो जानाति स पंडित.

यानी काले मुखवाली होते हुए बिल्ली नहीं है.  दो जिह्वा  होते हुए भी सर्पिणी नहीं है.  पांच पति वाली होते हुए भी द्रोपदी नहीं है. जो इस का नाम बता देगा वह पंडित यानी ज्ञानवान कहलाएगा. जिस का उत्तर कलम है. यानी पुराने जमाने की नीब वाल पेन. जिस की नीब में बीच में चीरा लगा होता है. 

ऐसी कई पहेलियों ने हिन्दी साहित्य को समृद्ध किया है. अमीर खुसरों का नाम पहेलियों के लिए ही प्रसिद्ध है. इन के अलावा अनेक साहित्यकारों ने पहेलियां लिखी है. मगर, खुसरों को छोड़ दें तो अधिकांश साहित्यकारों ने कथासाहित्य के साथसाथ पहेलियोें की रचनाएं की है.

पारंपरिक रूप से पहेलियां मानव की बुद्धिलब्धि जानने और उस की क्षमता विकसित करने का एक साधन रही है. ये हमेशा ही सरलसहज, कठिन और गूढ़ अर्थ में प्रयुक्त होती रही है. इन पहेलियों में किसी वस्तु के गुण, रूप या उपयोगिता का वर्णन संकेत में किया जाता है. इसी के आधार पर इस का उत्तर बताना होता है. 

ये पहेलियों सदा से मानव को चुनौतियां प्रस्तुत करती रही है. इस रूप में और आधुनिक समय में भी इस का महत्व बना हुआ है. पुराने समय में यह राजामहाराज के लिए मनोरंजन और आनंद उठाने के लिए उपयोग में आती थी. वर्तमान में इस का उपयोग मानव मस्तष्कि के विकास और उस की क्षमता बढ़ाने और उस की क्षमता जानने के लिए उपयोग हो रहा है.

इसी परिपेक्ष्य में ‘महादेव प्रेमी’ ने अपनी पुस्तक- बूझोवल, में पहेलियां प्रस्तुत कर के इस प्रयास में एक महत्वपूर्ण कदम बढ़ाया है. प्रस्तुत पुस्तक में आप की पहेलियां सरल और गूढ़ दोनों रूपों में लिख कर प्रस्तुत की है. इस में पहेलियां कई रूपों में प्रयुक्त हुई है.

पहेली के वाक्य में छूपे उत्तर की पहेलियां अपने विशिष्ट रूप के कारण ज्यादा सहज व सरल होती है. इस में उत्तर रूपी शब्द पहेलियों में ही व्यक्त होता है. उसे ढूंढ कर या बूझ कर पहेली का उत्तर बताना होता है. बस इस के लिए थोड़ा सा दिमाग लगाना होता है. उत्तर सामने होता है. जिस से ज्यादा आनंद की प्राप्ति होती है. 

उल्टा किया तो हो गया राजी

डाल दिया तो बन गई भाजी.

करते हैं सब ही उपयोग मेेरा

क्या मूल्ला है क्या काजी.

यह इसी प्रकार की पहेली है. इस का उत्तर इसी पहेली में छूपा हुआ है. ये पहेलियां सरल व सहज होती है. जिन्हें पढ़ने में आनंद की अनुभूति होती है. इस अनुभूति के कारण व्यक्ति पहेलियों को पढ़ते चले जाता है.

छज्जे जैसे कान है मेरे

सब से लंबी नाक .

खंबे जैसे पैर है मेरे

बच्चों जैसी आंख. 

इस पहेली में सहजता से उत्तर का पता चल जाता हैं. उत्तर का पता चलते ही मन प्रसन्न हो जाता है. हम भी कुछ जानते हैं यह भाव अच्छा लगता है. इस से पहेलियां पढ़ने की उत्सुकता बढ़ जाती है. 

तीन अक्षर का मेरा नाम

उल्टा-सीध एक समान.

मेरे साथ ही आप सभी के 

बनते रहते हैं पकवान.

इसे पहेली को बूझ कर देखिए. यदि उत्तर पता चल जाए तो मन प्रसन्न हो जाएगा. नहीं चले तो कोई बात नहीं, आप का मन-मस्तिष्क इस का उत्तर खोजने के लिए प्रेरित हो जाएगा. जब तक उसे इस का उत्तर नहीं मिलेगा तब तक वह उत्तर खोजने के प्रयास में लगा रहेगा.

पहेलियां मस्तिष्क को सक्रिय और क्रियाशील रखने में मुख्य भूमिका निभाती है. संकेताक्षर में लिखी पहेलियां मन को बहुत लुभाती है. इस से पढ़ने वाले का आत्मविश्वास बढ़ता है. इसी संदर्भ में यह पहेली देखिए-

धोली धरती काला बीज

बौने वाला गाए गीत.

इस पहेली को पढ़ कर आप मन ही मन मुस्करा रहे होंगे. इस बात का पता है मुझे. हम सब यही चाहते हैं कि आप कि यह मुस्कान सदा बनी रही. क्यों कि इस पुस्तक के रचनाकार ने अपनी पुस्तक का श्रीगणेश कुछ इसी तरह की पहेली के साथ किया है.

नर शरीर धारण किया

मुख किया पशु समान.

प्रथम पूज्य देवता भये

पहेली है आसान.

कुछ इसी तरह की आसान और आनंददायक पहेलियों इस पुस्तक में प्रस्तुत की गई है. पहेलियों की भाषा सरल और सहज है. इन पहेलियां में रूप, गुण और उस के स्वरूप के वर्णन कर के संकेत रूप में इन का लिखा गया है. 

इस अर्थ में प्रस्तुत पुस्तक के रचनाकार ने अच्छी पहेलियां प्रस्तुत की है. सभी पहेलियां बच्चों के साथ बड़ों के लिए उपयोगी है. कहींकहीं भाषा का प्रवाह बाधित हुआ है. जिसे संपादक ने अपनी कुशलता से दूर कर दिया गया हे.

इस पुस्तक का प्रकाशन किताबगंज द्वारा किया गया है. इस रूप में इस की साजसज्जा और प्रस्तुतिकरण बहुत बढ़िया है. 116 पृष्ठ की पुस्तक का मूल्य ₹195 है. उपयोगिता की दृष्टि से वाजिब है. कुल मिला कर पुस्तक बहुउपयोगी बनी है. इस का साहित्य के क्षेत्र में तनमनधन से स्वागत किया जाएगा. ऐसा विश्वास है. 

समीक्षक- ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

04/05/2019

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़, जिला- नीमच (मध्य प्रदेश) पिनकोड-458226 

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆ “प्रकृति की पुकार”- संपादक- डॉक्टर सूरज सिंह नेगी, डॉक्टर मीना सिरोला ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। आज प्रस्तुत है  आपके द्वारा पुस्तक की समीक्षा  “प्रकृति की पुकार

आप साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  )

☆ पुस्तक समीक्षा ☆ प्रकृति की पुकार – संपादक- डॉक्टर सूरज सिंह नेगी, डॉक्टर मीना सिरोला ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆ 

पुस्तक- प्रकृति की पुकार 

संपादक- डॉक्टर सूरज सिंह नेगी, डॉक्टर मीना सिरोला

प्रकाशक- साहित्यागार, धमाणी मार्केट की गली, चौड़ा रास्ता, जयपुर (राज)

पृष्ठ संख्या- 340

मूल्य- ₹500

 

सभी सुनें प्रकृति की पुकार

प्रकृति अमूल्य है। हमें बहुत कुछ देती है। जिसका कोई मोल नहीं लेती है। यह बात अस्पताल में कई मरीज बीमारी के दौरान जान पाए हैं। 10 दिन के इलाज में ऑक्सीजन के ₹50000 तक खर्च करने पड़े हैं। यही ऑक्सीजन प्रकृति हमें मुफ्त में देती है। जिसका कोई मोल नहीं लेती है। यह हमारे लिए सबसे अनमोल उपहार है।

तालाबंदी यानी लॉकडाउन के इसी दौर में नदियां स्वत: ही शुद्ध हुई है। हम लाखों रुपए खर्च कर उसे शुद्ध नहीं कर पाए थे। मगर तालाबंदी यानी लॉकडाउन ने इसे संभव कर दिया। कल-कल करती गंगा साफ-सुथरी हो गई। उसकी स्वच्छता अद्भुत थी। मगर तालाबंदी खत्म होते ही नदिया पुन: गंदी होना शुरू हो गई है।

सामान्य दिनों में हमें दूर की चीजें साफ दिखाई नहीं देती हैं। तालाबंदी ने ही वायु को शुद्ध कर दिया था। हवा में तैरती गंदगी कम हो गई थी। बहुत दूर की चीजें साफ दिखाई देने लगी थी। 

यह सब हमारी प्रकृति के बदलते स्वरूप के कारण संभव हुआ था। तालाबंदी के दौरान वाहन बंद हो गए थे। ध्वनि और वायु प्रदूषण कम हो गया था। इसका असर प्रकृति पर दिखने लगा था।

प्रकृति के इसी दौर में, उसकी पुकार को संपादक सूरजसिंह नेगी ने सुना और महसूस किया। उनके मन में 5 जून 2019 के दिन यानी विश्व पर्यावरण दिवस पर यही पुकार मस्तिष्क में गूंजी। तब उन्होंने भूली-बिसरी यादें पाती को पुनर्जीवित करने वाली अपनी मुहिम में इसी प्रकृति की पुकार को भी अपना अभियान बनाया।

स्मरण रहे कि नेगी जी ने राजस्थान में पाती प्रतियोगिता की मुहिम चला रखी है। जिसमें कई विद्यालय के छात्र, अनेक कनिष्ठ और वरिष्ठ रचनाकार इसमें प्रतिभाग कर सम्मान प्राप्त कर चुके हैं। उन्होंने इसी अभियान में ‘प्रकृति की पाती मानव के नाम’ को शामिल किया। प्रतियोगिता आयोजित की। ताकि मानव मन को प्रकृति की पुकार को सुना जा सके। ताकि हम मानव अपने-अपने स्तर पर उसकी आवाज सुनकर उसे सजा और संवार सकें।

बस! इसी को पाती प्रतियोगिता के रूप में रूपांतरित किया गया। इसमें कनिष्ठ और वरिष्ठ- दो वर्ग में बांटा। फलस्वरूप इस प्रतियोगिता को अच्छा प्रतिसाद मिला। 250 से अधिक पत्रों में से 118 पत्रों का चयन कर “प्रकृति की पुकार” नामक पुस्तक में चयनित पत्रों को स्थान दिया गया।

प्रस्तुत पुस्तक में संग्रहित हरेक पाती अनोखें और अलग अंदाज में लिखी गई है। प्रकृति ने रचनाकार को आत्मसात कर मानव के नाम अनोखी पाती लिखी है। इसमें कई रंग, कई भाव, कई भंगिमा और कई आयाम प्रस्तुत किए गए हैं।  जिसमें विविध रंग भरे हुए हैं। यह सब रंग हमें भातें और सुहाते हैं। साथ ही रुचिका लगते हैं। बस पढ़ने, गुनने और महसूस करने की जरूरत है।

प्रस्तुत पुस्तक उसी पाती मुहिम का अंग है। इसमें रचनाकारों द्वारा प्रकृति की पाती मानव के नाम लिखी गई है। इसी में प्रकृति अपने मन की बात, मानव के द्वारा कह रही है।

आज की आवश्यकता को देखते हुए “प्रकृति की पुकार” बहुत ही आवश्यक पुस्तक है। इसका संपादन सूरजसिंह नेगी व डॉक्टर मीना सिरोला ने किया है। पुस्तक का आवरण पृष्ठ आकर्षक है। त्रुटि रहित छपाई, बेहतरीन आवरण पृष्ठ, ऊत्तम साजसज्जा, हार्डकवर बाइंडिंग और 340 पृष्ठों की पुस्तक का मूल्य ₹500 वाजिब है। प्रकृति व मानव की भलाई की दृष्टि से यह बहुत ही उपयोगी पुस्तक है। जिसे समस्त रचनाकारों को ससम्मान भेंट किया गया है। यह पुस्तक सभी के लिए अनुपम उपहार है।

आशा है कोरोना काल में देखी व महसूस की गई विसंगतियों को दूर करने के लिए इस पुस्तक का सभी हार्दिक स्वागत करेंगे। ऐसा विश्वास है। इस पुस्तक के संयोजन के लिए सभी बधाई के पात्र हैं।

 

समीक्षक- ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़, जिला- नीमच (मध्य प्रदेश) पिनकोड-458226 

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 98 – साक्षात्कार (बाल साहित्य विशेषांक) ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका  पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है  म प्र साहित्य अकादमी के मासिक प्रकाशन  “साक्षात्कार (बाल साहित्य विशेषांक)” – की समीक्षा।

 पुस्तक चर्चा

साक्षात्कार (बाल साहित्य विशेषांक)

अंक ४८५..४८६ संयुक्तांक नवम्बर दिसम्बर

म प्र साहित्य अकादमी का मासिक प्रकाशन

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 98 – साक्षात्कार (बाल साहित्य विशेषांक) ☆ 

साक्षात्कार का संभवतः पहला प्रयास है , अंक ४८५..४८६ संयुक्तांक नवम्बर दिसम्बर २०२० जो बाल साहित्य पर केंद्रित है, तथा इतनी महत्वपूर्ण शोध सामग्री बाल साहित्य की उपयोगिता, लेखन, बच्चों के लिये साहित्य लेखन में नवाचार, वैज्ञानिक दृष्टि, सकारात्मकभावनाओ का विकास जैसे बहुविध विषय समेटे हुये है.

३०० पृष्ठो से ज्यादा की विशद सामग्री निश्चित ही शोधार्थियो हेतु  संग्रहणीय है. यह निर्विवाद है कि बच्चो के कोरे मन पर बाल साहित्य वह पटकथा लिखता है, जो भविष्य में उनका व्यक्तित्व व चरित्र गढ़ता ह . बच्चो को विशेष रूप से गीत तथा कहानियां व नाटिकायें अधिक पसंद आती हैं. बाल साहित्य रचने के लिये बड़े से बड़े लेखक को बाल मनोविज्ञान को समझते हुये बच्चे के मानसिक स्तर पर उतर कर ही लिखना पड़ता है तभी वह रचना बाल उपयोगी बन पाती है.

हिन्दी में जितना कार्य बाल साहित्य पर आवश्यक है उससे बहुत कम मौलिक नया कार्य हो रहा है, पीढ़ीयो से वे ही बाल गीत पाठ्य पुस्तको में चले आ रहे हैं, जबकि वैज्ञानिक सामाजिक परिवर्तनो के साथ नई पीढ़ी का परिवेश बदलता जा रहा है.  

बाल कवितायें जहां जीवन पर्यंत स्मरण में रहती हैं व किंकर्तव्यविमूढ़ स्थोति में पथ प्रदर्शन करती हैं वहीं बचपन में पढ़ी गई कहानियां अवचेतन में ही व्यक्तित्व बनाती हैं. बाल कथा के नायक बच्चे के संस्कार गढ़ते हैं.

मैं इस अंक के साठ से अधिक लेखको को और उन सब को साक्षात्कार के एकल मंच पर सारगर्भित तरीके से प्रस्तुत करने के लिये संपादक डा विकास दवे जी को हृदय से शुभकामनायें देता हूँ व इस महती कार्य के लिये आभार व्यक्त करता हूँ.

समीक्षक .. विवेक रंजन श्रीवास्तव

ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ आत्मकथ्य – ‘रुद्र्देहा’ ☆ श्रीमती प्रतिमा अखिलेश एवं श्री अखिलेश सिंह श्रीवास्तव ‘दादूभाई’

☆ पुस्तक चर्चा ☆ आत्मकथ्य – ‘रुद्र्देहा’ ☆ श्रीमती प्रतिमा अखिलेश एवं श्री अखिलेश सिंह श्रीवास्तव ‘दादूभाई’ ☆

पुस्तक – रुद्र्देहा

लेखक द्वय – श्रीमती प्रतिमा अखिलेश एवं श्री अखिलेश सिंह श्रीवास्तव ‘दादूभाई’  

प्रकाशक – उत्कर्ष प्रकाशन, मेरठ (उत्तर प्रदेश) 

मूल्य – 250 रु  

पृष्ठ संख्या –  296

अमेज़न लिंक ==>>  रुद्रदेहा  

यह उपन्यास और मन की बात… श्रीमती प्रतिमा अखिलेश एवं श्री अखिलेश सिंह श्रीवास्तव ‘दादूभाई’ 

[मध्य प्रदेश के सिवनी निवासी विद्वान लेखक श्री अखिलेश श्रीवास्तव उर्फ दादूभाई एवं पैनी लेखनी की धनी विख्यात कवयित्री व लेखिका श्रीमती प्रतिमा अखिलेश जी द्वारा लिखित युगनायिका नर्मदा की अद्भुत गाथा को इस पुस्तक में बड़े ही रोचक अंदाज में प्रस्तुत किया गया है जिसके लिए दोनों प्रबुद्ध कलमकारों को साधुवाद…भावुक असरदार भाषा-शैली पुस्तक ‘रुद्रदेहा’ को प्रभावकारी बनाते हैं जो लेखकों को विद्वता की श्रेणी में ला खड़ा करते हैं। मां नर्मदा के विविध सन्दर्भों का गहन अध्ययन मंथन कर इस पुस्तक को लेखनी दी गयी है जिसका भास पाठकों को स्वतः ही हो जायेगा कि पाठक एक बार कथा पढ़ना आरम्भ करे तो पूरी पुस्तक धारा-प्रवाह पढ़ जाये…उसमें डूबता चला जाये।]

नर्मदा! हमारी नर्मदा; प्रबोधिनी नर्मदा; जीवन-तारिणी नर्मदा; विचारों को विराटता देने वाली नर्मदा; संस्कृति और सभ्यता परिवर्द्धनी नर्मदा; शुष्क धरा की आस नर्मदा; प्यासे कंठों का तारल्य नर्मदा; सागर को समृद्ध करने वाली नर्मदा; आश्रयदात्री नर्मदा; वर्षभोग्य आजीविका और भोजन प्रदायिनी नर्मदा; लोकजीवन रक्षक नर्मदा; क्षीरवाहिनी नर्मदा; ग्रंथों, मन्त्रो की प्रणयन स्थली नर्मदा;  उदीयमान सौभाग्य दायिनी नर्मदा; दर्शन मात्र से कल्याणकारी नर्मदा; मेकलसुता नर्मदा; धरा की पवित्र जलधार, मुना, मुरंदला, मुरला, तमसा, मंदाकनी, विपाशा, शिवतनया, रुद्र्देहा, नर्मदा…! नर्मदा… !! नर्मदा…!!! कोटिशः प्रणाम…!!! इन्हीं अर्पित भावों के साथ साकार हूई इस कृति की बात आपसे करता हूँ।

उमारुद्रांगसंभूता नर्मदा! क्या यह शिव तनया है, क्या यह देवी है, क्या यह एक नदी है या कुछ और…? कौन है यह, कहाँ से आई, क्यों रखते हैं लोग इतनी श्रद्धा…? इन सभी प्रश्नों का उत्तर एक है- ‘आस्था-भाव…!’ जो जिस भाव से देखेगा, चाहेगा वह उसी भाव-से दिखेगी। मान लो तो माता अन्यथा जल राशि, एक नदी। 

नर्मदा समानता का वह उत्स है, जिससे सभी लाभांवित होते हैं। हमारे भाव ही इसे हमारे दृष्टि-सम्मुख, भावानुकूल प्रस्तुत करते हैं, अन्यथा वह स्वयं तो शील-सौरभ की सुगंध बिखेरती, जीवन के भूषण को बाँटती, विद्युल्लता-से चली जा रही है।

वह दिवस अविस्मरणीय है जब मैं और प्रतिमा नर्मदा सेवी अमृतलाल वेगड़ जी (दादा) के निवास पर उनसे भेंट हेतु गए। याद है, चाची जी ने अदरक छीलते हुए सहज भाव-से मुस्कराते हुए कहा था- “तुम दोनों अच्छा लिखते हो; नर्मदा मैया पर भी लिखो।” जिस पर वेगड़ जी ने भी ज़ोर देते हुए कहा- “हाँ! तुम भी नर्मदा-संतान हो तो दो कोई अक्षर भेंट माई को।” हमने कहा, “जी निश्चय कर के निकले हैं, अवश्य कुछ सृजन करेंगे नर्मदा पर, किंतु आशीष वचन तो आपको ही लिखना होगा।” दुःखद! समय ने हमें यह सुअवसर ही नहीं दिया, दादा अनंत की परिक्रमा पर चले गए।

हम ग्वारीघाट माँ नर्मदा के दर्शन हेतु गए। पूजा उपरांत एक दूसरे से पूछा, “क्या माँगा…?” दोनों का उत्तर एक ही था, “माँ हमारी लेखनी को आशीर्वाद दो तुम पर कुछ लिख सकें।”

सिवनी, अपने घर पहुँच के हम इसी विषय पर चर्चा करते रहे, क्या लिखें ? स्वयं से याचित अनुत्तरित प्रश्नों के साथ कुछ दिन और बीते। खुले हृदय-से स्वीकार करते हैं, आस्था को परिभाषा में नहीं बाँधा जा सकता, यह भाव है और आत्मा-से अनुभासित होता है। यह माँ नर्मदा का ही प्रभाव था कि हमें एक साथ नदी की गाथा, कन्या रूप में लिखने का विचार आया। हम विस्मित थे कि एक ही दिन, एक साथ दोनों के मन में समान विचार कैसे आए।

हमने उपन्यास का शुभारंभ किया ही था कि संयोग वश अठारह वर्ष से प्रतिक्षित हमारा वाहन द्वारा नर्मदा-परिक्रमा का कार्यक्रम बन गया। यह परिक्रमा-काल हम पति-पत्नी की लेखनी को अनेक चित्र; कई बिंब दिखा गया जो ‘रुद्रदेहा’ के पृष्ठों में हमारे विचारों के साथ मित्रता कर कथा-अंश बने। जिन साधु-संतों, नर्मदा-भक्तों ने हमारे कल्पनाश्रित उपन्यास के विषय को सुना, वे भाव-विभोर हो उठे परिणामतः हमारे प्रेरणा-द्वार और खुलते गए। इसी प्रेरणा की फलश्रुति है कि इस उपन्यास के पूर्व नर्मदा-परिक्रमा पर हमने एक वृत्त-चित्र भी बनाया जो यू-टयूब पर हमारे ‘कवितालेख’  चेनल पर देखा जा सकता है।

‘रुद्र्देहा’ अर्थात रूद्र-सी पवित्र देह वाली एक ऐसी कन्या की कथा जिसका जन्म देवों के देव महादेव शिव के अंश रूप में हुआ। जल-सिद्धि, औषधीय-ज्ञान, प्रकृति-प्रेम, शस्त्र-ज्ञान, शास्त्र-सामर्थ्य, मानवता, बंधुत्व भावना, प्रेम इस कन्या के भूषण हैं।

यह गाथा है उस काल कि जब सभ्यता की कोंपलें फूट रही थीं; यह गाथा है उस किशोरी शांकरी की जिसे दैवीय सामर्थ्य प्राप्त था, जिसका जीवन पश्चिम-गामिनी जलधार के भौगोलिक स्वरूप-से मेल खाता था; यह  गाथा है उस नर्मदांश की जिसने मानव को आखेट युग-से कृषि-युग की और मोड़ा; यह गाथा है उस ग्रामीण बाला मेकलसुता, मुरला की जो नर्मदा रूप में लोक-कल्याण करती है, साभ्यतिक विकास सुनिश्चित करती है तो दूसरी ओर रण सिद्ध ज्वाला, रुद्रदेहा रूप धारण कर बुराई का अंत व असुरों का संहार करती है।

एक बात पूर्णतः स्पष्ट करना चहूँगा कि न तो यह कृति एतिहासिक ग्रंथ है; न ही शोधग्रंथ और न ही कोई धर्मग्रंथ है। यह मात्र सरल, सीधे, साहित्यिक आनंद के उद्देश्य-से लोक-कथाओं, मान्यताओं, जन-चर्चाओं के साथ हमारे भावों और प्रमुखतः कल्पनाओं का लिखित रूप है अतः सुधि-पाठक किंचित मात्र भी भ्रमित न हों और इसे हमारी आस्थामई कल्पना की फलश्रुति रूप में स्वीकारें।

प्राचीनकाल में सतकर्मी मानवों को अमरत्व प्रदान करने के लिए उनके नाम से प्राकृतिक उपादानो के नाम रखे जाते थे; उदाहणार्थ– ध्रुव के नाम पर ध्रुव तारा, सभ्यता और संस्कृति संवर्धक सात महा-ऋषियों के नाम पर सप्तऋषि, ग्रहों के नाम, जैसे- ब्राहस्पति, शनि इत्यादि। इसी प्रकार पर्वतों और नदियों के नाम भी रखे गए। आज भी इतिहास प्रसिद्ध लोगों के नाम पर मार्गों, बाँधों, यहाँ तक कि कल्याणकारी योजनाओं के नाम रखे जाते हैं।

हमारे उपन्यास की नायिका आम्रकूट के प्रधान, मेकल की सुपुत्री शिवांश रूप में जन्मी शांकरी, देवयोग-से दिव्य शक्ति संपन्न है। साभ्यता के विकास कार्य से इसका व्यक्तित्व और कृतित्व इतना विशाल हुआ कि इसके समक्ष देव, गंधर्व, नाग, वराह, असुर, ऋषि, राजा, लोक-जन सभी प्रणिपात हो गए और वह एक युग-नायिका के रूप में प्रसिद्ध हुई। इसी संदर्भ तले जल-नर्मदा और कन्या-नर्मदा में देह-छाया का संबंध स्थापित हो गया जो केंद्रीय भाव है हमारी, आपकी, सबकी ‘रुद्रदेहा’ का।

इस कृति-निर्माण के लिए हम जिन ज्ञान-कोशों के शरणागत हुए उनमें लोक कथाएँ, जन-श्रुति, मार्कंडेय पुराण, नर्मदा पुराण विशेष हैं। साभार हम इन सभी को प्रणाम करते हैं। हृदय तल-से आभार व्यक्त करते हैं उन सभी नर्मदा-भक्तों का जिन्होंने हमारी कथा सुनी, हमसे वार्ता की। 

सुस्पष्ट एवं शीघ्र प्रकाशन के लिए उत्कर्ष प्रकाशन के श्री हेमंत जी के साथ पूरी प्रकाशन टीम को अंतर्मन की गहराइयों से साधुवाद। एक बात विशेष- रुद्रदेहा रूप में अपनी फ़ोटो देने के लिए हमारी प्यारी छोटी बेटी नौमी को ढेर सारा प्यार और इस फ़ोटो को प्रभावी रूप-से खींचने के लिए, बड़ी बेटी माही को ढेर सारा आशीर्वाद। गृह मंदिर के सभी बड़ों को सादर नमन।

मित्रो! हम साधारण मानव हैं, अतः भूल सहज-संभाव्य है, जिसके लिए आप सभी से क्षमाप्रार्थी हैं। तो आइए, विनयावनत स्वागत है आपका युगनायिका नर्मदा की अमर गाथा के अद्भुत, अविस्मरणीय, अपूर्व, अलौकिक सुंदर संसार में। जिसका नाम है…

‘रुद्रदेहा…!!’

वंदे…

  • प्रतिमा अखिलेश
  • अखिलेश सिंह श्रीवास्तव ‘दादूभाई’ 

संपर्क – 9425175861/9407814975

टीप – इस कृति-से प्राप्त राशि लाभार्जन के लिए नहीं अपितु रुद्रदेहा अन्न कुटी में  सेवार्थ उपयोग की जाएगी।

सहयोग राशि : रु 250 200

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ कृष्ण काव्य पीयूष — शब्द अमृत ☆ सुश्री नीलम भटनागर 

सुश्री नीलम भटनागर 

 ☆ पुस्तक चर्चा ☆ कृष्ण काव्य पीयूष — शब्द अमृत ☆ सुश्री नीलम भटनागर ☆ 

कृष्ण काव्य पीयूष — शब्द अमृत 

कृष्ण अमृत में पगी श्याम रंग में रंगी बड़ी देर सो ही रही अब पुनः पढ़कर जगी कुछ समय से ऐसा लगने लगा था कि अब तो भक्ति बस ऊपरी दिखावे की बात हो गई है मंदिरों में टीवी पर या कुछ त्योहारों पर । लेकिन चि विवेक रंजन ने कृष्ण काव्य पीयूष भेजी व समीक्षा करने का आग्रह किया । पढ़ा तो लगा कि  ऐसे ही नहीं कहा गया है कि हमारा धर्म सनातन है । 

 मन जब सोचेगा की इति हुई तभी पुनः आरंभ होता दिखेगा।

 एक नजर में ही लगा 

सच में यह रस की  गागर है या यह भक्ति का सागर है 

कैसे कुछ लिखूं इस पर यह खुद ही तो नट नागर है 

न जाने  क्यों अवचेतन में यह सोच बन गई थी  कि विदेशों में तो प्रवासी भारतीय केवल मौज मजे में डूबे रहते हैं , नित नई पार्टियां या भौतिक आनंद ही उनका लक्ष्य होता है ।

पर इस पुस्तक के दर्शन मात्र से यह भ्रम टूट गया । सच ही बिहारी ने यूं ही नही कहा है –

ज्यों ज्यों  डूबे श्याम रंग 

त्यों त्यों उज्जवल होए

पुस्तक खोलते ही अपनी आदत के अनुसार अनुक्रमणिका पर प्रथम दृष्टि गई सारी दुनिया से भक्ति रस में आकंठ डूबे प्रवासी भारतीय रचनाओं के माध्यम से संकलित हैं। 

कनाडा की पूनम चंद्रा  जी ने ” गिरधर ” में लिखा है 

श्याम सलोने हो गए

 स्वर्ण जैसी किरणों ने 

 श्याम को छुआ 

यह मनमोहक दृश्य सिर्फ मेरे लिए है 

सिर्फ मेरे लिए 

तो पूनम जी हर का कृष्ण उसके लिए ही है और आपने यह सब को याद दिला दिया ।

क्योंकि मन श्याम रंग में डूब कर निकलता है तो उज्जवल होकर निकलता है यह विचित्र सत्य है।  बगल के पृष्ठ पर मनु जी की ब्रज में फाग की पंक्तियां हैं 

नभ धरा दामिनी नर-नारी रास रंग राग

 भाव विभोर हो सब कृष्ण संग खेले फाग 

पढ़कर कभी किसी होली पर लिखी  अपनी ही पंक्तियां याद आ गई 

ऐसी होली मची है ब्रज बरसाने बीच

 रंग और अबीर की मची हुई है कीच

 राधा रंग गई ललिता रंग गई 

रंगे ग्वाल बाल

बावला है मन खेलता यहीं से उनके संग 

कौन कौन सी रचना पढ़ें , जिसे पढ़ो उसी में मन डूबता ही जाता है ।  सारे संग्रह को का भाव पक्ष इतना प्रबल है कि पढ़कर वर्णन करना वैसा ही है जैसे प्रभु के विराट स्वरूप का वर्णन करना । 

अचानक सुशील शर्मा कि धर्म क्षेत्र कुरुक्षेत्र पर दृष्टि गई और लगा कि गीता का कितना सुंदर भाव अनुवाद है 

ओम हूं मैं व्योम हूं मैं भूत भवन परमात्मा 

स्वर्ग हूं मैं अपवर्ग हूं मैं हिरन गर्भ आत्मा 

प्रतिभा पुरोहित अहमदाबाद की जीवन का सार पढ़ी,  लगा कि इतने अगम्य कृष्ण को इतना सरल कर लिखा है इन्होंने 

कान्हा ने छेड़ी जब बांसुरी की तान 

वृंदावन में छिड़ गया मधुर रागों का गान 

यही तो है हमारे कान्हा सरल से सरल तम और कठिन से अगम्य ।  रसखान के कान्हा गोपियों से छछिया भर छाछ लेकर नाचते हैं , सूर की मन की आंखों से मन में प्रवेश कर बैठते हैं । भक्ति काल के अनेक अनेक कवियों से ऊपर उठना ही होगा मुझे ,  आखिर कृष्ण काव्य  पीयूष का आस्वाद लेना है । 

 श्री कृष्ण के कर्म योगी रूप पर सदा से ही दुनियां और भारतीय प्रेरित होते रहे हैं ।

उसे ही श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव विदग्ध जी ने कुछ ही पंक्तियों में इतना अच्छा वर्णन किया है कि प्रत्येक शब्द का अर्थ समझते मन खो जाता है । वे लिखते हैं 

 तुम से अनुप्राणित राजनीति

 तुम से विकसित अध्यात्म ज्ञान

 तुम ज्ञाता पथ दर्शक शिक्षक 

कर्मठ योगी अतिभासमान 

बालक किशोर नवयुवक प्रौढ़ 

और वृद्ध सभी के परम मित्र

शिशु बाल गोपाल तरुण सारथी

तुम्हारे विविध चित्र 

भारत जन मन सम्राट सुखद 

भगवान पूज्य हे सत्य काम 

तुम जल थल कण-कण में विद्यमान

हे देव तुम्हें शत शत प्रणाम

मेरा भी प्रणाम स्वीकार हो प्रभु,  क्योंकि मुझे खुद से तुम्हारा यह रूप अत्यंत आकर्षित करता है । प्रत्येक कवि की रचना में मन डूबा जाता है ।गहरे और गहरे पढ़ने का मन होता है । सचमुच का विशेष अमृत है, यह किताब ।

को बड़ छोटू कहत अपराधू ,   रस में सराबोर हो जाइए ।

दृष्टि गई श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव की रचना कृष्ण ही ब्रह्म है पर । विद्गध जी के पुत्र श्री विवेक रंजन भी बहुमुखी रचनाकार हैं । मुझे पिता-पुत्र एक दूसरे के पूरक लगते हैं । प्रभु सबको ऐसा ही पुत्र दे । 

पढ़िए उनकी रचना 

कृष्ण हैं काफ़ीया कृष्ण ही रदीफ़ 

कृष्ण से नज्म है कृष्ण ही वज्म है

 कृष्ण हैं हर किताब हर्फ-हर कृष्ण है 

कृष्ण है शाश्वत कृष्ण अंत हीन है

कृष्ण ही हैं प्रकृति कृष्ण संसार हैं

राहगीर हैं हम कृष्ण की राह के

तीन पंक्तियों वाले यह छन्द रोचक है 

एक रचनाकार जो अपने उपनाम के कारण अनुक्रम में ही आकर्षित कर बैठी का जिक्र जरूरी लगता है । शीतल जैन  अहमक लड़की , सिंगापुर में बैठकर वे इस तरह कृष्ण प्रेम में डूबी हुई है कि 

कान्हा  जिस पल हम दोनों 

एक साथ एक दूसरे के ख्याल में होते हैं 

तब मैं तुम से भी ऊपर होती हूं 

तब मैं रचती हूं तुमसे 

बसती हूं तुम में 

लीन हो जाती हूं तुम में ही 

तुम्हारे ख्याल मुझसे  मिलकर

मुझे मीरा कर देते हैं 

और मुझे मीरा होना पसंद है 

अहमक लड़की तुम सचमुच मीरा ही हो

 मुझे लगता है काश कभी तुम से मिल पाती ।

पढें तो पूरी पुस्तक , पर इस प्रेम दीवानी को अवश्य आत्मसात करें । मेरी कल्पना में अचानक तुम आ जाती हो,  रहो तुम सिंगापुर में मीरा बनकर पाठकों के हृदय में समाई रहो ।

लिखना तो हर कविता पर चाहती हूँ । इतने कृष्ण प्रेम को देखकर मेरी हालत रथ पर बैठे अर्जुन जैसी हो रही है , कमजोर , कांपते हुए ।उनके पास ज्ञान था हमारे पास प्रेम है। श्री कृष्ण का प्रेम हर युग में दीवाना कर देने वाला है।  कृष्ण काव्य पीयूष की  सारी रचनाए पढ़िए । कविताअमृत रस में डूब जाइए।

संपादक जी के वक्तव्य में एक बात बड़ी गहरी लगी तो मुझे भी लिखनी है ।  कि जिनकी रचनाएं शामिल नहीं कर पाए उनसे वह क्षमा प्रार्थी हैं । मैं भी जिनकी रचनाओं पर टीप नही कर सकी उनसे  क्षमा प्रार्थी हूं । 

सभी पाठकों से की ओर से भगवान कृष्ण से यह प्रार्थना करती हूं । 

मेरी भव बाधा हरो 

राधा नागर सोए 

जा तन की झाई पड़े 

श्याम हरित दुति होय

बिहारी ने राधा की कृपा से श्याम जू  को हरे कर दिया और वह ऐसे हरे हुए की पूरे विश्व में हरे कृष्णा, हरे कृष्णा छा गए हैं । 

तो सबको हरे कृष्णा,  श्री कृष्णा ।

© सुश्री नीलम भटनागर

 502 विज्ञान विहार, गुड़गांव 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 97 – कबूतर का कैटवॉक – सुश्री समीक्षा तैलंग ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका  पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है  सुश्री समीक्षा तैलंग जी की पुस्तक “कबूतर का कैटवॉक” – की समीक्षा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 97 – कबूतर का कैटवॉक – सुश्री समीक्षा तैलंग  ☆ 
 पुस्तक चर्चा

चर्चित कृति .. कबूतर का कैटवॉक

संस्मरण लेखिका- सुश्री समीक्षा तैलंग

प्रकाशक- भावना प्रकाशन, दिल्ली

मूल्य – २०० रु

पृष्ठ – ‍१२८

पर्यटन  साहित्य का जनक होता है क्योंकि जब लेखक भौतिक यात्रा करता होता है तो प्रकृति, परिवेश से प्रभावित उसका मन भी वैचारिक यात्रा पर निकल पड़ता है. लेखक इन अनुभवों को जाने अनजाने अंतस में संजोंता रहता है. कविता, कहानी, रचनाओ में लेखक मन की यह पूंजी जब तब छलकती ही रहती है. किंतु पर्यटन साहित्य व संस्मरण वे विधायें हैं जो स्पष्टतः रचनाकार के मन के दर्शन और उसकी इन अनुभूतियों की आध्यात्मिकता को पाठको के सम्मुख वैचारिक स्वरूप में शब्द चित्रो के जरिये अभिव्यक्त करती हैं. समीक्षा तैलंग हिन्दी पत्रकारिता से प्रारंभ कर, व्यंग्य संग्रह “जीभ अनशन पर है”  के माध्यम से हिन्दी पाठको तक सक्षम रूप से पहुंच चुकीं हैं, उनका यह प्रथम व्यंग्य संग्रह ही लेखिका संघ के भव्य मंच पर समादृत हो चुका है. यह लिखने का आशय मात्र इतना है कि समीक्षा जी को मेरे जैसे पाठक गहन रुचि तथा गंभीरता से पढ़ते हैं.

चर्चित कृति  कबूतर का कैटवॉक, उनके २५ से अधिक रोचक संस्मरणो का पठनीय संग्रह है. अनूप शुक्ल जिन्हें उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान ने संस्मरण लेखन हेतु पुरस्कृत किया है, ने इस संग्ह की भूमिका ” गैर इरादतन घुमक्कड़ी के किस्सों की दास्तान ” लिखी है. समीक्षा जी दुबई में लंबे समय तक रहीं हैं, परदेश में रहते हुये उनकी छोटी बड़ी यात्राओ से उपजे वैचारिक सचित्र आलेख किताब में हैं. संस्मरण “कबूतर का कैटवाक” किताब का शीर्षक संस्मरण है, अतः सबसे पहले वही पढ़ा वे लिखती हैं ” मुझे तो पत्थरों में भी सौंदर्य दिखता है ” उनकी यही दृष्टि और लिखने की यह दार्शनिक शैली जिसमें वे लिखती हैं

” हम सब बड़ी सुंदरता, बड़ी उपलब्धि, बड़ी खुशी, बड़ी उम्मीदें लेकर भागते हैं. बड़े का वजन हमें छोटी छोटी बातों को फील करने से रोकता है. ” पुस्तक को पठनीय बनाती है.  शुक्रवारी यात्रा पर कई  संस्मरण हैं, दरअसल व्यस्त सप्ताह में छुट्टी के दिन ही परिवार के संग लुत्फ के होते हैं और उल्लेखनीय है कि अबूधाबी में साप्ताहिक अवकाश शुक्रवार का होता है. इन दिनों लेखिका पुणे में रहती हैं और कुछ आलेख पुणे के भी हैं, जैसे लोनावाला के डैम पर केंद्रित उनकी रचना जो कोरोना काल में लिखी गई है. पर्यटन स्थलो की साफ सफाई व सार्वजनिक स्वच्छता के प्रति हम सब की जबाबदारी पर वे लिखती हैं

” वहाँ चट्टानो के बीच लोगों ने गजब की गंदगी छोड़ रखी है, टूरिस्ट अपना कचरा वहीं छोड़ चलते बने थे, बच्चों के डायपर, प्लास्टिक की बोतलें, जगह जगह गिरे हुये मास्क, खाने के सामान के खाली पैकेट्स सब वहीं फेंक दिये थे….. जिम्मेदारी किसी को नहीं चाहिये, फिर कहो कि विदेश कितना साफ सु्थरा है. ” यह उनके अंतरमन की राष्ट्रीय कर्तव्यो के प्रति जन लापारवाही की पीड़ा है.  यायावरी के उनके रोचक किस्से ’कबूतर का कैटवॉक’ में प्रवाहमयी भाषा में लिखे गये हैं. पुस्तक जरूर पढ़िये, किताब अमेजन पर सुलभ है.

समीक्षक .. विवेक रंजन श्रीवास्तव

ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 96 ☆ श्रीमदभगवदगीता हिन्दी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ” विदग्ध ” ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) से  हाल ही में सेवानिवृत्त में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका  पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं । आप श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़  सकते हैं ।

आज प्रस्तुत है  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ” विदग्ध ” जी की पुस्तक “श्रीमदभगवदगीता हिन्दी पद्यानुवाद” – की समीक्षा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 96 – श्रीमदभगवदगीता हिन्दी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ” विदग्ध ”  ☆ 
 पुस्तक चर्चा

समीक्षित कृति … श्रीमदभगवदगीता हिन्दी पद्यानुवाद 

अनुवादक …. प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ” विदग्ध ” 

प्रकाशक …. रवीना प्रकाशन दिल्ली

पुस्तक प्राप्ति हेतु पता … A 1 , मीनाल रेजीडेंसी , भोपाल 462023

श्रीमदभगवदगीता एक सार्वकालिक ग्रंथ है . इसमें जीवन के मैनेजमेंट की गूढ़ शिक्षा है . आज संस्कृत समझने वाले कम होते जा रहे हैं , पर गीता में सबकी रुचि सदैव बनी रहेगी , अतः संस्कृत न समझने वाले हिन्दी पाठको को गीता का वही काव्यगत आनन्द यथावथ मिल सके इस उद्देश्य से प्रो. सी. बी .श्रीवास्तव “विदग्ध” ने मूल संस्कृत श्लोक , फिर उनके द्वारा किये गये काव्य अनुवाद तथा शलोकशः ही शब्दार्थ को हार्ड बाउण्ड , बढ़िया कागज व अच्छी प्रिंटिंग के साथ यह बहुमूल्य कृति प्रस्तुत की है . अनेक शालेय व विश्वविद्यालयीन पाठ्यक्रमो में गीता के अध्ययन को शामिल किया गया है , उन छात्रो के लिये यह कृति बहुउपयोगी बन पड़ी है . 

भगवान कृष्ण ने  द्वापर युग के समापन तथा कलियुग आगमन के पूर्व (आज से पांच हजार वर्ष पूर्व) कुरूक्षेत्र के रणांगण मे दिग्भ्रमित अर्जुन को ,  जब महाभारत युद्ध आरंभ होने के समस्त संकेत योद्धाओ को मिल चुके थे, गीता के माध्यम से ये अमर संदेश दिये थे व जीवन के मर्म की व्याख्या की थी .श्रीमदभगवदगीता का भाष्य वास्तव मे ‘‘महाभारत‘‘ है। गीता को स्पष्टतः समझने के लिये गीता के साथ ही  महाभारत को पढना और हृदयंगम करना भी आवश्यक है। महाभारत तो भारतवर्ष का क्या ? विश्व का इतिहास है। ऐतिहासिक एवं तत्कालीन घटित घटनाओं के संदर्भ मे झांककर ही श्रीमदभगवदगीता के विविध दार्शनिक-आध्यात्मिक व धार्मिक पक्षो को व्यवस्थित ढ़ंग से समझा जा सकता है। 

जहॉ भीषण युद्ध, मारकाट, रक्तपात और चीत्कार का भयानक वातावरण उपस्थित हो वहॉ गीत-संगीत-कला-भाव-अपना-पराया सब कुछ विस्मृत हो जाता है फिर ऐसी विषम परिस्थिति मे गीत या संगीत की कल्पना बडी विसंगति जान पडती है। क्या रूद में संगीत संभव है? एकदम असंभव किंतु यह संभव हुआ है- तभी तो ‘‘गीता सुगीता कर्तव्य‘‘ यह गीता के माहात्म्य में कहा गया है। अतः संस्कृत मे लिखे गये गीता के श्लोको का पठन-पाठन भारत मे जन्मे प्रत्येक भारतीय के लिये अनिवार्य है। संस्कृत भाषा का जिन्हें ज्ञान नहीं है- उन्हे भी कम से कम गीता और महाभारत ग्रंथ क्या है ? कैसे है ? इनके पढने से जीवन मे क्या लाभ है ? यही जानने और समझने के लिये भावुक हृदय कवियो साहित्यकारो और मनीषियो ने समय-समय पर साहित्यिक श्रम कर कठिन किंतु जीवनोपयोगी संस्कृत भाषा के सूत्रो (श्लोको) का पद्यानुवाद किया है, और जीवनोपयोगी ग्रंथो को युगानुकूल सरल करने का प्रयास किया है। 

इसी क्रम मे साहित्य मनीषी कविश्रेष्ठ प्रो. चित्रभूषण श्रीवास्तव जी ‘‘विदग्ध‘‘ ने जो न केवल भारतीय साहित्य-शास्त्रो धर्मग्रंथो के अध्येता हैं बल्कि एक कुशल अध्येता भी हैं स्वभाव से कोमल भावो के भावुक कवि भी है। निरंतर साहित्य अनुशीलन की प्रवृत्ति के कारण विभिन्न संस्कृत कवियो की साहित्य रचनाओ पर हिंदी पद्यानुवाद भी आपने प्रस्तुत किया है . महाकवि कालिदास कृत ‘‘मेघदूतम्‘‘ व रघुवंशम् काव्य का आपका पद्यानुवाद दृष्टव्य , पठनीय व मनन योग्य है।गीता के विभिन्न पक्षों जिन्हे योग कहा गया है जैसे विषाद योग जब विषाद स्वगत होता है तो यह जीव के संताप में वृद्धि ही करता है और उसके हृदय मे अशांति की सृष्टि का निर्माण करता है जिससे जीवन मे आकुलता, व्याकुलता और भयाकुलता उत्पन्न होती हैं परंतु जब जीव अपने विषाद को परमात्मा के समक्ष प्रकट कर विषाद को ईश्वर से जोडता है तो वह विषाद योग बनकर योग की सृष्टि श्रृखंला का निर्माण करता है और इस प्रकार ध्यान योग, ज्ञान योग, कर्म योग, भक्तियोग, उपासना योग, ज्ञान कर्म सन्यास योग, विभूति योग, विश्वरूप दर्शन विराट योग, सन्यास योग, विज्ञान योग, शरणागत योग, आदि मार्गो से होता हुआ मोक्ष सन्यास योग प्रकारातंर से है,  तो विषाद योग से प्रसाद योग तक यात्रासंपन्न करता है।

इसी दृष्टि से गीता का स्वाध्याय हम सबके लिये उपयोगी सिद्ध होता हैं . अनुवाद में प्रायः दोहे को छंद के रूप में प्रयोग किया गया है .  कुछ अनूदित अंश बानगी के रूप में  इस तरह  हैं ..

अध्याय ५ से ..

नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्ववित्‌ ।

पश्यञ्श्रृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपंश्वसन्‌ ॥

प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि ॥

इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन्‌ ॥

स्वयं इंद्रियां कर्मरत, करता यह अनुमान

चलते, सुनते,देखते ऐसा करता भान।।8।।

सोते, हँसते, बोलते, करते कुछ भी काम

भिन्न मानता इंद्रियाँ भिन्न आत्मा राम।।9।।

भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्‌ ।

सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति ॥

हितकारी संसार का,तप यज्ञों का प्राण

जो मुझको भजते सदा,सच उनका कल्याण।।29।।

 

अध्याय ९ से ..

अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम्‌ ।

मंत्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हुतम्‌ ॥

मै ही कृति हूँ यज्ञ हूँ,स्वधा,मंत्र,घृत अग्नि

औषध भी मैं,हवन मैं ,प्रबल जैसे जमदाग्नि।।16।।

इस तरह प्रो श्रीवास्तव ने  श्रीमदभगवदगीता के श्लोको का पद्यानुवाद कर हिंदी भाषा के प्रति अपना अनुराग तो व्यक्त किया ही है किंतु इससे भी अधिक सर्व साधारण के लिये गीता के दुरूह श्लोको को सरल कर बोधगम्य बना दिया है .गीता के प्रति गीता प्रेमियों की अभिरूचि का विशेष ध्यान रखा है । गीता के सिद्धांतो को समझने में साधको को इससे बडी सहायता मिलेगी, ऐसा मेरा विश्वास है। अनुवाद बहुत सुदंर है। शब्द या भावगत कोई विसंगति नहीं है। अन्य गीता के अनुवाद या व्याख्येायें भी अनेक विद्वानो ने की हैं पर इनमें  लेखक स्वयं अपनी संमति समाहित करते मिलते हैं जबकि इस अनुवाद की विशेषता यह है कि प्रो श्रीवास्तव द्वारा ग्रंथ के मूल भावो की पूर्ण रक्षा की गई है।

समीक्षक .. विवेक रंजन श्रीवास्तव

ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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