☆ पुस्तक चर्चा ☆ व्यंग्य का रिसर्च पेपर ‘धन्नो, बसंती और बसंत’ और व्यंग्य के वैज्ञानिक विवेक रंजन ☆ सुश्री सुषमा व्यास ‘राजनिधि’ ☆
कोरोना काल में लिखे गए बेहतरीन और प्रभावी व्यंग्य संग्रह में उल्लेखनीय नाम है धन्नो बसंती और बसंत
समकालीन और सक्रिय व्यंग्यकार विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी का व्यंग्य संग्रह प्रभावी और मुखरता की श्रेणी में आता है। विवेक रंजन व्यंग्य को तकनीकी दृष्टि से देखते हैं ।वह व्यंग्य के प्रयोग धर्मी रचनाकार है। व्यंग्य संग्रह का शिर्षक “धन्नो बसंती और बसंत” बेहद आकर्षक और एक्सक्लूसिव है ।इस संग्रह में उन्होंने लगभग हर विषय पर लेखनी गंभीरता से चलाई है। ‘आंकड़े बाजी’ हो या ‘अमीर बनने का सॉफ्टवेयर’ या फिर ‘बजट देश का बनाम घर का’ ‘लो फिर लग गई आचार संहिता’ सभी में वे विसंगतियों पर करारी चोट करते हुए धीरे से चिकुटी काटना भी नहीं भूलते।
श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
‘डॉग शो बनाम कुत्ता नहीं श्वान’, ‘ब्रांडेड वर वधू’, ‘पड़ोसी के कुत्ते’ जैसी छोटी-बड़ी समस्याओं और विषयों को उन्होंने बड़ी ही सहजता और सरलता से व्यंग्य में ढाला है।
परिष्कृत भाषा शैली और विवरणात्मक लेखन इस व्यंग्य संग्रह को उच्च स्तरीय बनाता है।
विवेक जी व्यंग्य के तकनीकी विशेषज्ञ हैं, इसीलिए उनके व्यंग्य संग्रह में बौद्धिक और त्वरित तर्कशक्ति बेहद प्रभावित करती है ।
‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की प्रतीक हमारी पत्नी’ में उन्होंने हास्य का पुट भी दिया है। बड़ी ही कुशलता से पत्नी पीड़ित बताकर अंत में पत्नी की तारीफ भी कर दी और उससे देश की समस्या को भी जोड़ दिया यह नवीन प्रयोग है व्यंग्य के क्षेत्र में।
‘ बच्चों आओ बाघ बचाओ’ पाठकों को सोचने पर मजबूर करता है। बच्चों के मासूम और भावुक मन की जरूरत है आम इंसान को। ‘बजट देश बनाम घर का’ में आम नागरिक की पीड़ा नजर आती है। उनके व्यंग्य में कहीं परिस्थिति अनुसार जीने की सीख है, तो कहीं मानवीय गुण को विषय बनाकर जोरदार विसंगति पर प्रहार करना भी वे नहीं भूलते। कहीं वे प्रशासन की खूब खबर लेते नजर आते हैं ,तो कहीं उन्होंने मनुष्य की पीड़ा और दर्द को बखूबी व्यंग्य में ढाला है।
विवेक रंजन जी पाठक के मस्तिष्क को पढ़ लेते हैं ,इसीलिए उनके इस व्यंग्य संग्रह का ताना-बाना ऐसा बना हुआ है जो पाठकों के ह्रदय में गहरे तक पैठ कर सकता है । विवेक जी का वैज्ञानिक दृष्टिकोण व्यंग्य पर गहरा प्रभाव रखता है ।उनके चिंतन मनन की गहनता सामाजिक दृष्टिकोण को उभारती है ,जो इस संग्रह में झलकती है। व्यंग्य विधा आसान विधा नहीं है इसमें सतर्क धैर्यवान और सूक्ष्म दृष्टि के साथ सागर की गहराई सी सोच होना बेहद आवश्यक है। जो विवेक जी के व्यंग्य संग्रह ‘दोनों किडनी रखने की लग्जरी क्यों’ , ‘बिछड़े हुए होने का सुख लो फिर लग गई आचार संहिता’ जैसे व्यंग्य में बखूबी नजर आती है ।इसमें उन्होंने व्यंग्य को तराशकर मांजने का काम किया है। व्यंग्य संग्रह में अधिकतर व्यंग्य के शीर्षक बड़े हैं यह ऐसा है मानो मजमून देखकर लिफाफा भांप लो। बड़े शिर्षक देखते ही पाठक उस विषय को भांपकर पढ़ने को उत्सुक हो उठता है ।यह भी इस व्यंग्य संग्रह का एक प्लस पॉइंट ही है। शिर्षक बड़े रखकर उन्होंने एक अभिनव प्रयोग किया है ।प्रयोग धर्मी व्यंग्यकार की भूमिका में वे साहित्य जगत के उभरते सितारे हैं। व्यंग्य को इस संग्रह में उन्होंने एक उत्तरदायित्व की भूमिका में लिया है। बेहद परिष्कृत चिंतन मनन और शाब्दिक भावों का त्रिवेणी संगम है संग्रह में ।इस में भीगने या तैरने की कुशलता पाठक को आ ही जाती है।
अंत में कहा जा सकता है की व्यंग्य के इस वैज्ञानिक ने संग्रह के साथ उचित न्याय किया है। उन्हें व्यंग का प्रायोगिक रचनाकार (व्यंग्यशास्त्री) कहा जा सकता है।
(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि। संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताeह रविवार को “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा डॉ पूर्णिमा निगम ‘पूनम ‘ के गीत संग्रह ‘गीत स्पर्श’ पर कृति चर्चा।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 50 ☆
☆ कृति चर्चा : गीत स्पर्श – डॉ. पूर्णिमा निगम ‘पूनम’ ☆
गीत स्पर्श : दर्द के दरिया में नहाये गीत
चर्चाकार – आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
[कृति विवरण: गीत स्पर्श, गीत संकलन, डॉ. पूर्णिमा निगम ‘पूनम’, प्रथम संस्करण २००७, आकार २१.से.मी. x १३.से.मी., आवरण बहुरंगी पेपरबैक, पृष्ठ १२२, मूल्य १५० रु., निगम प्रकाशन २१० मढ़ाताल जबलपुर। ]
साहित्य संवेदनाओं की सदानीरा सलिला है। संवेदनाविहीन लेखन गणित की तरह शुष्क और नीरस विज्ञा तो हो सकता है, सरस साहित्य नहीं। साहित्य का एक निकष ‘सर्व हिताय’ होना है। ‘सर्व’ और ‘स्व’ का संबंध सनातन है। ‘स्व’ के बिना ‘सर्व’ या ‘सर्व’ के बिना ‘स्व’ की कल्पना भी संभव नहीं। सामान्यत: मानव सुख का एकांतिक भोग करना चाहता है जबकि दुःख में सहभागिता चाहता है।इसका अपवाद साहित्यिक मनीषी होते हैं जो दुःख की पीड़ा को सहेज कर शब्दों में ढाल कर भविष्य के लिए रचनाओं की थाती छोड़ जाते हैं। गीत सपर्श एक ऐसी ही थाती है कोकिलकंठी शायरा पूर्णिमा निगम ‘पूनम’ की जिसे पूनम-पुत्र शायर संजय बादल ने अपनी माता के प्रति श्रद्धांजलि के रूप में प्रकाशित किया है। आज के भौतिकवादी भोगप्रधान कला में दिवंगता जननी के भाव सुमनों को सरस्वती के श्री चरणों में चढ़ाने का यह उद्यम श्लाघ्य है।
गीत स्पर्श की सृजनहार मूलत: शायरा रही है। वह कैशोर्य से विद्रोहणी, आत्मविश्वासी और चुनौतियों से जूझनेवाली रही है। ज़िंदगी ने उसकी कड़ी से कड़ी परीक्षा ली किन्तु उसने हार नहीं मानी और प्राण-प्राण से जूझती रही। उसने जीवन साथी के साथ मधुर सपने देखते समय, जीवन साथी की ज़िंदगी के लिए जूझते समय, जीवनसाथी के बिछुड़ने के बाद, बच्चों को सहेजते समय और बच्चों के पैरों पर खड़ा होते ही असमय विदा होने तक कभी सहस और कलम का साथ नहीं छोड़ा। कुसुम कली सी कोमल काया में वज्र सा कठोर संकल्प लिए उसने अपनों की उपेक्षा, स्वजनों की गृद्ध दृष्टि, समय के कशाघात को दिवंगत जीवनसाथी की स्मृतियों और नौनिहालों के प्रति ममता के सहारे न केवल झेला अपितु अपने पौरुष और सामर्थ्य का लोहा मनवाया।
गीत स्पर्श के कुछ गीत मुझे पूर्णिमा जी से सुनने का सुअवसर मिला है। वह गीतों को न पढ़ती थीं, न गाती थीं, वे गीतों को जीती थीं, उन पलों में डूब जाती थीं जो फिर नहीं मिलनेवाले थे पर गीतों के शब्दों में वे उन पलों को बार-बार जी पाती थी। उनमें कातरता नहीं किन्तु तरलता पर्याप्त थी। इन गीतों की समीक्षा केवल पिंगलीय मानकों के निकष पर करना उचित नहीं है। इनमें भावनाओं की, कामनाओं की, पीरा की, एकाकीपन की असंख्य अश्रुधाराएँ समाहित हैं। इनमें अदम्य जिजीविषा छिपी है। इनमें अगणित सपने हैं। इनमें शब्द नहीं भाव हैं, रस है, लय है। रचनाकार प्राय: पुस्तकाकार देते समय रचनाओं में अंतिम रूप से नोक-फलक दुरुस्त करते हैं। क्रूर नियति ने पूनम को वह समय ही नहीं दिया। ये गीत दैनन्दिनी में प्रथमत: जैसे लिखे गए, संभवत: उसी रूप में प्रकाशित हैं क्योंकि पूनम के महाप्रस्थान के बाद उसकी विरासत बच्चों के लिए श्रद्धा की नर्मदा हो गई हिअ जिसमें अवगण किया जा सकता किन्तु जल को बदला नहीं जा सकता। इस कारण कहीं-कहीं यत्किंचित शिल्पगत कमी की प्रतीति के साथ मूल भाव के रसानंद की अनुभूति पाठक को मुग्ध कर पाती है। इन गीतों में किसी प्रकार की बनावट नहीं है।
पर्सी बायसी शैली के शब्दों में ‘ओवर स्वीटेस्ट सांग्स आर दोस विच टेल ऑफ़ सेडेस्ट थॉट’। शैलेन्द्र के शब्दों में- ‘हैं सबसे मधुर वो गीत जिन्हें हम दर्द के सुर में गाते हैं’। पूनम का दर्द के साथ ताज़िंदगी बहुत गहरा नाता रहा –
भीतर-भीतर रट रहना, बहार हंसकर गीत सुनाना
ऐसा दोहरा जीवन जीना कितना बेमानी लगता है?
लेकिन इसी बेमानीपन में ज़िंदगी के मायने तलाशे उसने –
अब यादों के आसमान में, बना रही अपना मकान मैं
न कहते-कहते भी दिल पर लगी चोट की तीस आह बनकर सामने आ गयी –
जान किसने मुझे पुकारा, लेकर पूनम नाम
दिन काटे हैं मावस जैसे, दुःख झेले अविराम
जीवन का अधूरापन पूनम को तोड़ नहीं पाया, उसने बच्चों को जुड़ने और जोड़ने की विरासत सौंप ही दी –
जैसी भी है आज सामने, यही एक सच्चाई
पूरी होने के पहले ही टूट गयी चौपाई
अब दीप जले या परवाना वो पहले से हालात नहीं
पूनम को भली-भाँति मालूम था कि सिद्धि के लिए तपना भी पड़ता है –
तप के दरवाज़े पर आकर, सिद्धि शीश झुकाती है
इसीलिए तो मूर्ति जगत में, प्राण प्रतिष्ठा पाती है
दुनिया के छल-छलावों से पूनम आहात तो हुई पर टूटी नहीं। उसने छलियों से भी सवाल किये-
मैंने जीवन होम कर दिया / प्रेम की खातिर तब कहते हो
बदनामी है प्रेम का बंधन / कुछ तो सोची अब कहते हो।
लेकिन कहनेवाले अपनी मान-मर्यादा का ध्यान नहीं रख सके –
रिश्ते के कच्चे धागों की / सब मर्यादाएँ टूट गयीं
फलत:,
नींद हमें आती नहीं है / काँटे सा लगता बिस्तर
जीवन एक जाल रेशमी / हम हैं उसमें फँसे हुए
नेक राह पकड़ी थी मैंने / किन्तु जमाना नेक नहीं
‘बदनाम गली’ इस संग्रह की अनूठी रचना है। इसे पढ़ते समय गुरु दत्त की प्यासा और ‘जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ है’ याद आती है। कुछ पंक्तियाँ देखें-
रिश्ता है इस गली से भाई तख्तो-ताज का / वैसे ही जैसे रिश्ता हो चिड़ियों से बाज का
जिनकी हो जेब गर्म वो सरकार हैं यहाँ / सज्जन चरित्रवान नोचते हैं बोटियाँ
वो हाथ में गजरा लपेटे आ रहे हैं जो / कपड़े की तीन मिलों को चला रहे हैं वो
रेखा उलाँघती यहाँ सीता की बेटियाँ / सलमा खड़ी यहाँ पे कमाती है रोटियाँ
इनको भी माता-बहनों सा सत्कार चाहिए / इनको भी प्रजातन्त्र के अधिकार चाहिए
अपने दर्द में भी औरों की फ़िक्र करने का माद्दा कितनों में होता है। पूनम शेरदिल थी, उसमें था यह माद्दा। मिलन और विरह दोनों स्मृतियाँ उसको ताकत देती थीं –
तेरी यादे तड़पाती हैं, और हमें हैं तरसातीं
हुई है हालत मेरी ऐसी जैसे मेंढक बरसाती
आदर्श को जलते देख रही / बच्चों को छलते देख रही
मधुर मिलान के स्वप्न सुनहरे / टूट गए मोती मानिंद
अब उनकी बोझिल यादें हैं / हल्के-फुल्के लम्हात नहीं
ये यादें हमेशा बोझिल नहीं कभी-कभी खुशनुमा भी होती हैं –
एक तहजीब बदन की होती है सुनो / उसको पावन ऋचाओं सा पढ़कर गुनो
तन की पुस्तक के पृष्ठ भी खोले नहीं / रात भर एक-दूसरे से बोले नहीं
याद करें राजेंद्र यादव का उपन्यास ‘सारा आकाश’।
एक दूजे में मन यूँ समाहित हुआ / झूठे अर्पण की हमको जरूरत नहीं
जीवन के विविध प्रसगों को कम से कम शब्दों में बयां करने की कला कोई पूनम से सीखे।
उठो! साथ दो, हाथ में हाथ दो, चाँदनी की तरह जगमगाऊँगी मैं
बिन ही भाँवर कुँवारी सुहागन हुई, गीत को अपनी चूनर बनाऊँगी मैं
देह की देहरी धन्य हो जाएगी / तुम अधर से अधर भर मिलाते रहो
लाल हरे नीले पिले सब रंग प्यार में घोलकर / मन के द्वारे बन्दनवारे बाँधे मैंने हँस-हँसकर
आँख की रूप पर मेहरबानी हुई / प्यार की आज मैं राजधानी हुई
राग सीने में है, राग होंठों पे है / ये बदन ही मेरा बाँसुरी हो गया
साँस-साँस होगी चंदन वन / बाँहों में जब होंगे साजन
गीत-यात्री पूनम, जीवन भर अपने प्रिय को जीती रही और पलक झपकते ही महामिलन के लिए प्रस्थान कर गयी –
पल भर की पहचान / उम्र भर की पीड़ा का दान बन गई
सुख से अधिक यंत्रणा / मिलती है अंतर के महामिलन में
अनूठी कहन, मौलिक चिंतन, लयबद्ध गीत-ग़ज़ल, गुनगुनाते-गुनगुनाते बाँसुरी सामर्थ्य रखनेवाली पूनम जैसी शख्सियत जाकर भी नहीं जाती। वह जिन्दा रहती है क़यामत मुरीदों, चाहनेवालों, कद्रदानों के दिल में। पूनम का गीत स्पर्श जब-जब हाथों में आएगा तब- तब पूनम के कलाम के साथ-साथ पूनम की यादों को ताज़ा कर जाएगा। गीतों में अपने मखमली स्पर्श से नए- नए भरने में समर्थ पूनम फिर-फिर आएगी हिंदी के माथे पर नयी बिंदी लिए।हम पहचान तो नहीं सकते पर वह है यहीं कहीं, हमारे बिलकुल निकट नयी काया में। उसके जीवट के आगे समय को भी नतमस्तक होना ही होगा।
व्यंग्य, हिन्दी साहित्य की बेगानी विधा है। फ़क्खड़ कवि और समाज-सुधारक संत कबीर ने इस विधा से हम सभी को परिचित कराया। उन्होंने तत्कालीन समाज में व्याप्त कुरीतियों, पाखंडवाद और विसंगतियों पर इसी मखमली-पनही से प्रहार किया था। व्यंग्य में उपहास, मजाक (लुफ़त) और इसी क्रम में आलोचना का प्रभाव रहता है। दांते की लैटिन भाषा में लिखी किताब ‘डिवाइन कॉमेडी’ मध्ययुगीन व्यंग्य का महत्वपूर्ण कार्य है जिसमें तत्कालीन व्यवस्था का मजाक उड़ाया गया है। हिन्दी में हरिशंकर परसाई, श्रीलाल शुक्ल, रवींद्रनाथ त्यागी, के. पी. सक्सेना, शरद जोशी इसी कंटकाकीर्ण पथ पर चले और उन्होंने जो प्रतिमान स्थापित किये उसी का अनुसरण करते हुए अभियंता-कवि विवेकरंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ हौले-हौले बढ़ रहे हैं।
समीक्षित कृति “समस्याओं का पंजीकरण व अन्य व्यंग्य”, व्यंग्यविद विवेकरंजन का ताजा व्यंग्य-संग्रह है जिसमें 33 विविधवर्णी व्यंग्य सम्मिलित हैं। इसके पूर्व उनकी ‘रामभरोसे’, ‘कौआ कान ले गया’, ‘मेरे प्रिय व्यंग्य’, ‘धन्नो बसंती और बसंत’ जैसी व्यंग्य की किताबें प्रकाशित, चर्चित व पुरस्कृत हो चुकीं हैं। अलावा इसके, उन्होंने ‘मिली भगत’ एवं ‘लॉकडाउन’ नाम से दो संयुक्त व्यंग्य-संग्रहों का संपादन भी किया जिसमें दुनिया भर के व्यंग्यकारों के व्यंग्य शामिल हैं। “आक्रोश” शीर्षक से उनकी नई कविताओं की किताब भी है।
विवेक रंजन: एक स्नातकोत्तर सिविल इंजीनियर हैं, नर्मदा तट के वासी हैं, साहित्य-संस्कारी हैं, उनकी भाषा शिष्ट-विशिष्ट है। मध्यप्रदेश विद्युत विभाग में अधिकारी पद पर कार्य करते हुए उनकी तीखी (कटाक्ष करने वाली) लेखन-शैली का स्वाभाविक विकास हुआ और उन्होंने उसमें सिद्धि भी प्राप्त की। सामान्यत: वे अपनी बंदूक खुद पर ही तानते हैं, सधे-अंदाज में खुद पर व्यंग्य कसते हैं। और इसलिए वे भली-भांति जानते हैं कि एक औसत-आदमी, व्यंग्य का कितना वेग (प्रहार) झेल सकता है ? दूसरे शब्दों में कहूँ तो वे व्यंग्य में उतने ही वोल्टेज का प्रयोग करते हैं, जो सामने वाला व्यक्ति आसानी से सहन कर सके, जिसके झटके से वह बावला (विक्षिप्त) न जाए, अपने बाल न नौचने लगे। ‘वाटर स्पोर्ट्स’, ‘क्या रखा है शराफत में’ जैसी व्यंग्य रचनाएं इसी श्रेणी के हैं। प्रथम पुरुष में सृजित ऐसी व्यंग्य-शैली (आयरनी) में प्रत्यक्षत: जो कहा गया है, वही उसका अर्थ नहीं है, वह कुछ-और व्यंजित करता है। समझदार समझ लेता है। अहंकार में डूबा पाखंडी व्यक्ति उसे नहीं समझ पाता। विवेक रंजन ने व्यंग्य की इसी पराशक्ति का फायदा उठाया और व्यवस्था का हिस्सा होते हुए व्यवस्था पर चोट कर पाए।
‘मांगे सबकी खैर’, ‘जिसकी चिंता है वह जनता कहाँ है’, ‘समस्या का पंजीकरण’, ‘स्वर्ग के द्वार पर करोना टेस्ट’ जैसे व्यंग्यों में उन्होंने रामदीन, रामभरोसे, रमेश बाबू जैसे पात्रों का सृजन किया है, उनके माध्यम से अपने पड़ोसियों पर निशाना साधा है, सहकर्मियों को भी जद में लिया है और अन्य-पुरुष में वक्रोंक्तियाँ दी हैं। ‘अथ चुनाव कथा’, ‘सीबीआई का सीबीआई के द्वारा सीबीआई के लिए’, ‘जीएसटी बनाम एक्साईज और सर्विस टेक्स’, ‘फ़ोटो में आत्मनिर्भरता यानी सेल्फ़ी’, ‘हैलो व्हाट्स अप’, ‘आँकड़ेबाजी’ जैसे व्यंग्य वर्तमान व्यवस्थाओं की विद्रूपताओं से उपजे हैं।
मास्क के घूँघट और हैंडवाश की मेहंदी के साथ मेड की वापिसी’, फार्मेट करना पड़ेगा वायरस वाला 2020’, ‘करोना का रोना’, ‘अप्रत्यक्ष दानी शराबी’ ‘जरूरी है आटा और डाटा’, ‘स्वर्ग के द्वार पर करोना टेस्ट’, ‘रमेश बाबू की बैंकाक यात्रा और करोना’, कोरोजीवी व्यंग्य हैं (कोरोजीवी व्यंग्य शीर्षक, श्री प्रकाश शुक्ल के व्याख्यान कोरोजीवी कविता : अर्थ और संदर्भ से प्रेरित होकर लिया है, जिसका लिप्यंतरण “आजकल” के नवंबर, 2020 में प्रकाशित है)। देखा जावे तो, कोरोनाकाल के इन व्यंग्यों की भाषा और संरचना दोनों ही बदले-बदले से है। इनमें निजी अनुभूतियाँ सार्वजनिक हुईं हैं। इनमें बदलते समय के नए बिम्ब हैं, लॉकडाउन में फंसे-बिछड़े मजबूरों की विवशता है, सरकारों की बेवसी है, इंटरनेट के जरिए मोबाइल पर सिमट आए रिश्ते हैं। इन व्यंग्यों में प्रतिभा से अधिक श्रम को महत्व मिला है। इन कोरोजीवी व्यंग्यों का महत्व इस कारण नहीं है कि वे महामारी के बीच लिखे गए हैं बल्कि इस कारण से हैं कि वे महामारी के बावजूद लिखे गए हैं जिनमें युगबोध की उपस्थिति तो है ही, साथ-ही-साथ इतिहास-बोध की नई अंतर्दृष्टि भी है। ‘इदं पादुका कथा’, ‘शर्म! तुम जहां हो लौट आओ’, ‘बसंत और बसंती’ को ललित व्यंग्य की श्रेणी में रखा जा सकता है।
रोजमर्रा के क्रम में; हम सम-सामयिक विषयों की जानकारी न्यूज पेपर्स, टी व्ही चैनल्स, इंटरनेट, मोबाइल इत्यादि से लेते हैं, प्रिय विषयों पर विस्तार से चर्चा करते हैं, कभी-कभी अति महत्वपूर्ण विषयों पर टिप्पणियाँ (नोट्स) भी बनाकर रख लेते हैं और इस प्रकार किसी तड़कती-भड़कती सूचना या घटना की इति-श्री हो जाती है। परंतु इन सूचनाओं को संग्रहित कर, उन्हें विचारों से मथकर, उनका नैनू (सार-तत्व) निकालकर, उनकी विसंगति को पहचान कर प्रहार करने का काम व्यंग्यकार करता है। जैसे कि, गांधी जी की तस्वीर तो हर सरकारी कार्यालय में साहब की कुर्सी के पीछे लगी होती है- दुशाला ओढ़े, हाथ में लाठी लिए, लेकिन यही तस्वीर विवेक जैसे व्यंग्यकार के लिए व्यंग्य की सामग्री जुटाती है(देखिए ई-अभिव्यक्ति.कॉम/ साहित्य एवं कला विमर्श का साप्ताहिक स्तम्भ ‘विवेक साहित्य’ के अंतर्गत विवेक जी का व्यंग्य- “गांधी जी आज भी बोलते हैं”)
व्यंग्य लेखक निर्मम, कठोर और मनुष्य-विरोधी नहीं होता है, ऐसा भी नहीं कि उसे सिर्फ बुराई या विसंगति ही दिखती है और ऐसा भी नहीं है कि व्यंग्य, मरखना बैल या कटखना कुत्ता होता है, जिसका स्वभाव ‘जल्दी क्रोध में सींग मारने’ या ‘अकसर काटने वाला’ होता है। व्यंग्य-लेखन एक गंभीर कर्म है। परंपरा से हर समाज की कुछ संगतियाँ होती हैं, सामंजस्य होते हैं, अनुपात होते हैं। ये व्यक्ति और समाज दोनों के होते हैं। जब यह संगति गड़बड़ होती है, तभी व्यंग्य का जन्म होता है। व्यंग्यकार विवेक द्वारा अपने व्यंग्यों में प्रयुक्त ‘वोट की जुगत में’, ‘गरीबी हटाओ’, ‘सुनहरे कल की और’, ‘फील गुड’, ‘पंद्रह लाख का प्रलोभन’, ‘सीने की नाप’, ‘चाय पर चर्चा’, ‘खटिया पर चौपाल’, ‘मोदी मंत्र’ जैसे जुमले जनता-जनार्दन के बीच से ही उठाए हैं। दरअसल व्यंग्य एक माध्यम है, जो समाज की विसंगतियों, भ्रष्टाचार, सामाजिक शोषण अथवा राजनीति के गिरते स्तर की घटनाओं पर अपरोक्ष रूप से व्यंग्य या तंज कसता है, कटाक्ष करता है जो इन आबाँछित स्थितियों के प्रति पाठकों को सचेत करता है।
अपने व्यंग्यों में व्यंग्य-शिल्पी विनम्र अपने पूर्वज कबीर को स्मरण करते हैं, उनका अनुगमन करते हैं और उनके जैसी खरी-खरी सुनाते हैं। परंतु वे बाजार में खड़े सब की खैर नहीं मांगते, उनका तर्क है कि ‘क्या खैर मांगने से बात बन जाएगी’? कदापि नहीं। वे, ‘महात्मा कबीर के विचारों से अपनी एक मीटिंग फिक्स करने’ यानी इस पर ‘पुनर्विचार करने’ का सुझाव देते है। खड़ी हिन्दी में आंग्ल भाषा के शब्दों की प्रचुरता, वाक्यों का संक्षिप्तीकरण, संभाषण में कोडिंग-डिकोडिंग कुल मिलाकर हिंगलिश जैसी है इन व्यंग्यों की भाषा। उदाहरण के तौर पर,
“दरअसल यह लव मैरिज का अरेंज़्ड वर्सन था”(शर्म !तुम जहां कहीं हो लौट आओ/24)
”लिंक फॉरवर्ड, रिपोस्ट ढूंढते हुए सर्च इंजिन को भी पसीने आ जाते हैं”(फेक न्यूज/71)
“दुनिया में हर वस्तु का मूल्य मांग और सप्लाई के एकोनॉमिक्स पर निर्भर होता है”(किताबों के मेले/78)
“गड़े मुर्दों को खोज कर सर्च रिसर्च करने लगे”,(सीबीआई का सीबीआई के द्वारा सीबीआई के लिए /98)
व्यंग्यकार ने अपने व्यंग्यों में कतिपय नए शब्दों को गढा और प्रयोग किया है जैसे, कनफुजाया (किंकर्तव्य विमूढ़), ठुल्ला (पुलिस के लिए प्रयोग कतिपय अशिष्ट शब्द), मिस्सड़ ( बिस्किट, खटमिट्ठा नमकीन और मीठे खुरमों के तीन डिब्बों में जो भी थोड़ा-थोड़ा चूरा बचा का मिश्रण) आदि । व्यंग्यकार ने सामाजिक विसंगतियों की सपाट बयानी (‘अमिधा’ में अभिव्यक्ति ) न कर परोक्षत: (‘व्यंजना’ में व्यंजित) चित्रण किया है। मुहावरे, प्रतीकों और मिथकों का आसरा लेकर वे किसी घटना या व्यक्ति की परतें उधेड़ते हैं तो निशाने पर बैठा व्यक्ति न तो ठीक से हँस पाता है और न ही रो पाता है, बस ! तिलमिला कर रह जाता है। हाँ, कई बार आक्रोश अवश्य पैदा होता है और यही व्यंग्य की ताकत है। उदाहरण के तौर पर –
#“हड़बड़ी में गड़बड़ी से उपजे फेक न्यूज सोशल मीडिया में वैसे ही फैल जाते हैं जैसे कोरोना का वायरस, सस्ता डाटा फेक न्यूज प्रसारण के लिए रक्तबीज है”। (फेक न्यूज/71)
#“मैं पादुका हूँ । वही पादुका, जिन्हें भरत ने भगवान राम के चरणों से उतरवाकर सिंहासन पर बैठाया था। इस तरह मुझे वर्षों राज करने का विशद अनुभव है। सच पूछा जाये तो राज काज सदा से मैं ही चला रही हूँ, क्योंकि जो कुर्सी पर बैठ जाता है वह बाकी सबको जूती के नोक पर ही रखता है। आवाज उठाने वाले को जूती तले मसल दिया जाता है”। (इदं पादुका कथा/91)
#”कलमकार जी ज्यों ही धार्मिक किताबों के स्टाल के पास से निकले तो ये किताबें पूँछ बैठी हैं उनके आसपास सीनियर सिटीजन ही क्यों नजर आते हैं”। (किताबों के मेले)
#“नेता जी बोलते तो हम ना भी मानते, पर जब आँकड़े बोल रहे हैं कि देश की विकास दर नोट बन्दी से कम नहीं हुई तो क्या करें, मानना ही पड़ेगा। हम तो एक दिन स्टेशन पर अपना मोबाइल वैलेट लेकर स्टाल-स्टाल पर चाय ढूंढ रहे थे, पर हमें चाय नसीब नहीं हुई थी, पर एक कप चाय से देश की विकास दर थोड़े ही गिरती है”। (आँकड़ेबाजी/105)
इंडिया नेटबुक्स, नोएडा से प्रकाशित और बालाजी ऑफसेट से मुद्रित इस व्यंग्य संग्रह में यदि मुद्रण की भूलों को नजरंदाज कार दिया जावे तो दो सौ रुपये मूल्य का पेपरबैक में आकर्षक आवरण युक्त यह एक उत्तम संकलन है। अपनी बात समाप्त करने के पहले अनुज अभियंता विवेकरंजन से छोटी-छोटी दो बातें अवश्य कहना चाहूँगा-
पंच लाइन (वन लाइनर व्यंग्य वाण) व्यंग्य को रोचकता प्रदान करते हैं, जैसा कि श्रीलाल शुक्ल के “राग दरबारी” में हैं। विशिष्ट दक्षता के बावजूद वे इनका सीमित प्रयोग किया है
माँ(जननी), मातृ भूमि (जन्म भूमि) के क्रम में मातृभाषा से प्रतिबद्धता हमारी जीवंतता का प्रतीक है। अन्य भाषाओं के; विशेषकर अंग्रेजी, प्रचलित शब्दों के अधिकाधिक प्रयोग से हमारी भाषा के भंडार में श्रीवृद्धि तो अवश्य हो रही है , परंतु डर है ! कल को ऐसा न हो कि आने वाली पीढ़ी यह कहने लगे कि, “हम क्या करें हम तो वही पढ़ रहे थे जो हमें पढ़ाया जा रहा था, जैसा हमें पढ़ाया जा रहा था, हम तो यही समझते हैं कि हमारी भाषा ऐसी ही है, या होना चाहिए”।
देखा जावे तो, व्यंग्यकार ने व्यंग्यों के आंतरिक ढांचे में विडंबनाओं / विसंगतियों / विद्रूपताओं को पहचानकर सार्वजनिक रूप से प्रकटीकरण करने और अपने अंतस को परिष्कृत करने का भरपूर प्रयास किया है। उन्होंने आज के फैशन और पैशन को अपने व्यंग्यों में व्यंजित किया है। उनकी अपनी जमीन है, उनका अपना आकाश हैं। जिस आयु-वर्ग और कार्य-संस्कृति के व्यस्त युवालिए ये व्यंग्य लिखे गए हैं, वे वास्तव में उन्हें पढ़ रहे हैं, पढ़ने का आनंद ले रहे हैं, पढ़ना उनकी आदत बनती जा रही है, वे [व्यंग्य के] मर्म को ग्राह्य कर अपनी जीवन-पद्धति (लाइफ स्टाइल) में सकारात्मक सुधार ला रहे हैं। अत: कहा जा सकता है कि व्यंग्यकार विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ अपने उद्देश्य में सफल हुए हैं। यहाँ यह कहने में भी कोई संकोच नहीं कि इस व्यंग्य-संग्रह (समस्या का पंजीकरण व अन्य व्यंग्य ) को उसके हिस्से का प्यार और दुलार अवश्य प्राप्त होगा। हम सभी व्यंग्यकार की अन्य प्रकाशाधीन व्यंग्य-कृतियों यथा; “खटर-पटर”, “बकवास काम की”, “जय हो भ्रष्टाचार की” की उत्सुकता से प्रतीक्षा करेंगे।
(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक चर्चा /समीक्षाएं पढ़ सकते हैं ।
आज प्रस्तुत है डा सुधा कुमारी द्वारा लिखित काव्य संग्रह “ओ मातृभूमि !” – की चर्चा।
☆ ओ मातृभूमि ! – कवि – डा सुधा कुमारी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
पुस्तक चर्चा
पुस्तक –ओ मातृभूमि !
(पांच खण्डो में काव्य रचनाओ का पठनीय संकलन)
कवि – डा सुधा कुमारी
पृष्ठ संख्या – १६०
मूल्य – ४५० रु, हार्ड बाउंड
ISBN- 9788194860594
प्रकाशक – किताब वाले, दरिया गंज, नई दिल्ली २
रचना को गहराई से समझने के लिये वांछित होता है कि रचनाकार के व्यक्तित्व, उसके परिवेश, व कृतित्व का किंचित ज्ञान पाठक को भी हो, जिससे अपने परिवेश के अनुकूल लिखित रचनाकार का साहित्य पाठक उसी पृष्ठभूमि पर उतरकर हृदयंगम कर आनन्द की वही अनुभूति कर सके, जिससे प्रेरित होकर लेखक के मन में रचना का प्रादुर्भाव हुआ होता है. शायद इसीलिये किताब के पिछले आवरण पर रचनाकार का परिचय प्रकाशित किया जाता है. आवरण के इस प्रवेश द्वार से भीतर आते ही भूमिका, व प्राक्कथन पाठक का स्वागत करते मिलते हैं, जिससे किताब के कलेवर से किंचित परिचित होकर पाठक रचनाओ के अवगाहन का मन बनाता है, और पुस्तक खरीदता है. पुस्तक समीक्षायें इस प्रक्रिया को संक्षिप्त व सरल बना देती हैं और समीक्षक की टिप्पणी को आधार बनाकर पाठक किताब पढ़ने का निर्णय ले लेता है. किंतु इस सबसे परे ऐसी रचनायें भी होती हैं जिन पर किताब अलटते पलटते ही यदि निगाह पड़ जाये तो पुस्तक खरीदने से पाठक स्वयं को रोक नहीं पाता. ओ मातृभूमि ! की रचनायें ऐसी ही हैं. छोटी छोटी सधी हुई, गंभीर, उद्देश्यपूर्ण. दरअसल ये रचनायें लंबे कालखण्ड में समय समय पर लिखी गईं और डायरी में संग्रहित रही हैं. लगता है अवसर मिलते ही डा सुधा कुमारी ने इन्हें पुस्तकाकार छपवाकर मानो साहित्य के प्रति अपनी एक जिम्मेदारी पूरी कर उस प्रसव पीड़ा से मुक्ति पाई है जिसकी छटपटाहट उनमें लेखन काल से रही होगी.
डा सुधा कुमारी में कला के संस्कार हैं. वे उच्चपद पर सेवारत हैं, उनकी बौद्धिक परिपक्वता हर रचना में प्रतिबिंबित होती है. वे मात्र शब्दों से ही नहीं, तूलिका और रंगों से केनवास पर भी चित्रांकन में निपुण हैं. ओ मातृभूमि में लघु काव्य खण्ड, देश खण्ड, भाव खण्ड, प्रकृति खण्ड, तथा ईश खण्ड में शीर्षक के अनुरूप समान धर्मी रचनायें संग्रहित हैं.
मैं लेखिका को कलम की उसी यात्रा में सहगामी पाता हूं, जिसमें कथित पाठक हीनता की विडम्बना के बाद भी प्रायः रचनाकार समर्पण भाव से लिख रहे हैं, स्व प्रकाशित कर, एक दूसरे को पढ़ रहे हैं. नीलाम्बर पर इंद्रधनुषी रंगो से एक सुखद स्वप्न रच रहे हैं.
लेखिका चिर आशान्वित हैं, वे लिखती हैं ” समानांतर रेखायें भी अनंत पर मिलती हैं, तुम्हारे साथ चलने की वजह यही उम्मीद रखती है “. या “बुद्धिरूपी राम को दूर किया, अनसुनी कर दी तर्क रूपी लक्ष्मण की, फिर से दुहराई गई कथा , हृदय सीता हरण की. ” अब इन कसी हुई पंक्तियों की विवेचना प्रत्येक पाठक के स्वयं के अनुभव संसार के अनुरूप व्यापक होंगी ही.
देश खण्ड की एक रचना का अंश है.. ” नित्य जब सताई जाती हैं ललनाएँ, या समिधाओ सी धुंआती हैं दुल्हने तो चुप क्यों रह जाते हो ? तुमने पाषाण कर दिया अहिल्या को ” नारी विमर्श के ये शब्द चित्र बनाते हुये डा सुधा की नारी उनकी लेखनी पर शासन कर रही दिखाई देती है.
ओ मातृभूमि, पुस्तक की शीर्षक रचना में वे लिखती हैं ” तेरा रूप देख कूंची फिसली, मेरे गीत में सरिता बह निकली, ऊंचे सपने जैसे पर्वत, बुन पाऊँ, ओ देश मेरे ” काश कि यही भाव हर भारतीय के मन में बसें तो डा सुधा की लेखनी सफल हो जावे.
उनका आध्यात्मिक ज्ञान व चिंतन परिपक्व है. ईश खण्ड से एक रचना उधृत है ” बंधन में सुख, सुख में बंधन, अर्जुन सा आराध मुझे ! प्रेम विराट कृष्ण सा कहता, आ दुर्योधन! बांध मुझे. बनती मिटती देह जरा से, कर इससे आजाद मुझे. तू लय मुझमें मैं लय तुझमें, दे बंधन निर्बाध मुझे. जीवन स्त्रोत प्रलय ज्वाला हूं, तृष्णा से मत बाँध मुझे. पूर्ण काम हूं, निर्विकार हूं, अंतरतम में साध मुझे.
भाव खण्ड में अपनी “अकविता” में वे लिखती हैं ” क्या कहूं, क्या नाम दूं तुझे ? गीत यदि कहूं तो सुर ताल की पायल तुझे बाँधी नहीं, कविता जो कहूँ तो, किसी अलंकार से सजाया नही. अनाभरण, अनलंकृत, फिर भी तू सुंदर है, संगीत भर उठता है, मन आँगन में जब जब तू घुटनों के बल चलती है, अकविता मेरी बच्ची ! ”
काव्यसंग्रह चित्रयुक्त है एवं देशखण्ड में महामानव सागर तीरे में संदेश है कि अंतरिक्ष की खोज से पहले संपूर्ण धरा का जीवन सुखमय बनाना आवश्यक है, यह उल्लेखनीय है.
यद्यपि छंद शास्त्र की कसौटियों पर संग्रह की रचनाओ का आकलन पिंगल शास्त्रियो की समालोचना का विषय हो सकता है किंतु हर रचना के भाव पक्ष की प्रबलता के चलते मैं इस पुस्तक को खरीदकर पढ़ने में जरा भी नही सकुचाउंगा. आप को भी इसे पढ़ने की सलाह देते हुये मैं आश्वस्त हूं.
समीक्षक .. श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव
ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८
मो ७०००३७५७९८
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकते हैं ।
आज प्रस्तुत है डा राजेश कुमार व डा लालित्य ललित द्वारा सम्पादित पुस्तक “२१ वीं सदी के श्रेष्ठ २५१ व्यंग्यकार” – की समीक्षा।
☆ २१ वीं सदी के श्रेष्ठ २५१ व्यंग्यकार – संपादक – डा राजेश कुमार व डा लालित्य ललित ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
व्यंग्य का बहुरंगी अब तक का सबसे बड़ा सामूहिक संकलन
हिन्दी जगत में साझे साहित्यिक संकलनो की प्रारंभिक परम्परा तार सप्तक से शुरू हुई थी. वर्तमान अपठनीयता के युग में साहित्यिक किताबें न्यूनतम संख्या में प्रकाशित हो रही हैं, यद्यपि आज भी व्यंग्य के पाठक बहुतायत में हैं. इस कृति के संपादक द्वय डा राजेश कुमार व डा लालित्य ललित ने व्यंग्य के व्हाट्स अप समूह का सदुपयोग करते हुये यह सर्वथा नवाचारी सफल प्रयोग कर दिखाया है.तकनीक के प्रयोग से इस वैश्विक व्यंग्य संकलन का प्रकाशन ३ माह के न्यूनतम समय में पूरा हुआ है. नवीनतम हिन्दी साफ्टवेयर के प्रयोग से इस किताब की प्रूफ रीडिंग कम्प्यूटर से ही संपन्न की गई है. किताब भारी डिमांड में है तथा प्रतिभागी लेखको को मात्र ८० रु के कूरियर चार्ज पर घर पहुंचाकर भेंट की जा रही है. तार सप्तक से प्रारंभ साझा प्रकाशन की परम्परा का अब तक का चरमोत्कर्ष है व्यंग्य का बहुरंगी कलेवर वाला,अब तक का सबसे बड़ा सामूहिक व्यंग्य संकलन”२१ वीं सदी के श्रेष्ठ २५१ व्यंग्यकार”. ६०० से अधिक पृष्ठों के इस ग्रंथ का शोध महत्व बन गया है. इससे पहले डा राजेश कुमार व डा लालित्य ललित”अब तक ७५”, व उसके बाद”इक्कीसवीं सदी के १३१ श्रेष्ठ व्यंग्यकार” सामूहिक व्यंग्य संकलनो का संपादन, प्रकाशन भी सफलता पूर्वक कर चुके हैं.
व्यंग्य अभिव्यक्ति की एक विशिष्ट विधा है. व्यंग्यकार अपनी दृष्टि से समाज को देखता है और समाज में किस तरह से सुधार हो सके इस हेतु व्यंग्य के माध्यम से विसंगतियां उठाता है. संग्रह की रचनाएं समाज के सभी वर्ग के विविध विषयों का प्रतिनिधित्व करती हैं. एक साथ विश्व के 251 व्यंग्यकारों की रचनाएं एक ही संकलन में सामने आने से पाठकों को एक व्यापक फलक पर वर्तमान व्यंग्य की दशा दिशा का एक साथ अवलोकन करने का सुअवसर मिलता है. व्यंग्य प्रस्तुति में टंकण हेतु केंद्रीय हिन्दी निदेशालय की देवनागरी लिपि तथा हिन्दी वर्तनी का मानकीकरण के दिशा निर्देश अपनाये गये हैं. रचनाओ के संपादन में आधार भूत मानव मूल्यों, जातिवाद, नारी के प्रति सम्मान, जैसे बिन्दुओ पर गंभीरता से ध्यान रखा गया है, जिससे ग्रंथ शाश्वत महत्व का बन सका है.
“इक्कीसवीं सदी के 251 अंतरराष्ट्रीय श्रेष्ठ व्यंग्यकार” में व्यंग्य के पुरोधा परसाई की नगरी जबलपुर से इंजी विवेक रंजन श्रीवास्तव, इंजी सुरेंद्र सिंह पवार, इंजी राकेश सोहम, श्री रमेश सैनी, श्री जयप्रकाश पाण्डे, श्री रमाकांत ताम्रकार की विभिन्न किंचित दीर्घजीवी विषयों की रचनायें शामिल हैं. मॉरीशस स्थित विश्व हिंदी सचिवालय द्वारा विश्व को पाँच भौगोलिक क्षेत्रो में बाँटकर अंतरराष्ट्रीय व्यंग्य लेखन प्रतियोगिता का आयोजन किया गया था. संकलन में इस प्रतियोगिता के विजेताओं में से सभी प्रथम स्थान प्राप्त करने वाले व्यंग्यकारों कुसुम नैपसिक (अमेरिका), मधु कुमारी चौरसिया (युनाइटेड किंगडम), वीणा सिन्हा (नेपाल), चांदनी रामधनी‘लवना’ (मॉरीशस), राकेश शर्मा (भारत) जिन्होंने प्रथम पुरस्कार जीते और आस्था नवल (अमेरिका), धर्मपाल महेंद्र जैन (कनाडा), रोहित कुमार ‘हैप्पी’ (न्यूज़ीलैंड), रीता कौशल (ऑस्ट्रेलिया) की रचनायें भी संकलित हैं. इनके अलावा विदेश से शामिल होने वाले व्यंग्यकार हैं- तेजेन्द्र शर्मा (युनाइटेड किंगडम), प्रीता व्यास (न्यूज़ीलैंड), स्नेहा देव (दुबई), शैलजा सक्सेना, समीर लाल ‘समीर’ और हरि कादियानी (कनाडा) एवं हरिहर झा (ऑस्ट्रेलिया) इस तरह की भागीदारी से यह संकलन सही मायनों में अंतरराष्ट्रीय संकलन बन गया है.
भारत से इस संकलन में 19 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के व्यंग्यकारों ने हिस्सेदारी की है. मध्य प्रदेश के 65,उत्तर प्रदेश के 39, नई दिल्ली के 32, राजस्थान के 32, महाराष्ट्र के 18, छत्तीसगढ़ के 12, हिमाचल प्रदेश के 8, बिहार के 6, हरियाणा के 4, चंडीगढ़ के 3, झारखंड के 4, उत्तराखंड के 4, कर्नाटक के 4, पंजाब के 2, पश्चिम बंगाल के 2, तेलंगाना से 2, तमिलनाडु से 1, गोवा से 1 और जम्मू-कश्मीर से 1 व्यंग्यकारों के व्यंग्य हैं.
यदि स्त्री और पुरुष लेखकों की बात करें तो इसमें 51 व्यंग्य लेखिकाएँ शामिल हुई हैं. इस बहु-रंगी व्यंग्य संचयन में जहां डॉ सूर्यबाला, हरि जोशी, हरीश नवल, सुरेश कांत, सूरज प्रकाश, प्रमोद ताम्बट, जवाहर चौधरी, अंजनी चौहान, अनुराग वाजपेयी, अरविंद तिवारी, विवेक रंजन श्रीवास्तव, विनोद साव,शांतिलाल जैन, श्याम सखा श्याम, मुकेश नेमा, सुधाकर अदीब, स्नेहलता पाठक, स्वाति श्वेता, सुनीता शानू जैसे सुस्थापित व चर्चित हस्ताक्षरो के व्यंग्य भी पढ़ने मिलते हैं, वही नवोदित व्यंग्यकारों की रचनाएं एक साथ पढ़ने को सुलभ है
संवेदना की व्यापकता, भाव भाषा शैली और अभिव्यक्ति की दृष्टि से व्यंग्य एक विशिष्ट विधा व अभिव्यक्ति का लोकप्रिय माध्यम है. प्रत्येक अखबार संपादकीय पन्नो पर व्यंग्य छापता है. पाठक चटकारे लेकर रुचि पूर्वक व्यंग्य पढ़ते हैं. इस ग्रंथ में व्यंग्य की विविध शैलियां उभर कर सामने आई है जो शोधार्थियों के लिए निश्चित ही गंभीर शोध और अनुशीलन का विषय होगी. इस महत्वपूर्ण साहित्यिक कार्य की अनुगूंज हिन्दी साहित्य जगत में हमेशा रहेगी.
समीक्षक .. विवेक रंजन श्रीवास्तव
ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८
मो ७०००३७५७९८
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
साहित्य एवं प्रकाशन – ☆ व्यंग्यकार ☆ प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कविताओं, कथाओं आदि का स्फुट प्रकाशन ☆ आकाशवाणी और दूरदर्शन से प्रसारण ☆ बाल रचनाकार ☆ प्रतिष्ठित मासिक पत्रिका और दैनिक अखबार के लिए स्तंभ लेखन ☆ दूरदर्शन में प्रसारित धारावाहिक की कुछ कड़ियों का लेखन ☆ बाल उपन्यास का धारावाहिक प्रकाशन ☆ अनकहे अहसास और क्षितिज की ओर काव्य संकलनों में कविताएँ प्रकाशित ☆ व्यंग्य संग्रह ‘टांग अड़ाने का सुख’ प्रकाशनाधीन।
पुरस्कार / अलंकरण – ☆ विशेष दिशा भारती सम्मान ☆ यश अर्चन सम्मान ☆ संचार शिरोमणि सम्मान ☆ विशिष्ठ सेवा संचार पदक
आज प्रस्तुत है श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव जी के व्यंग्य संग्रह “ खटर पटर (खबरों की खरोच से उपजे व्यंग्य)” – की समीक्षा।
☆ पुस्तक चर्चा ☆ खटर पटर – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆ समीक्षा श्री राकेश सोहम ☆
पुस्तक चर्चा
समीक्षित कृति – खटर पटर (खबरों की खरोच से उपजे व्यंग्य)
व्यंग्यकार – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
मूल्य – रु 300
एक व्यंग्यकार इंजीनियर की सुरीली खटर पटर
(व्यंग्य संकलन- श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव)
साहित्य में व्यंग्य इन दिनों सर्वाधिक चर्चा में हैं। लगभग हर विधा का साहित्य साधक व्यंग्य में हाथ आजमा रहा है। लेकिन विवेक रंजन श्रीवास्तव व्यंग्य के लिए समर्पित इन दिनों जाना माना नाम है। उनकी सक्रियता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है, उनके एक के बाद एक व्यंग्य संग्रह पाठकों के बीच आ रहे हैं। वह एक अनुभवी व्यंग्यकार हैं। उन्हें व्यंग्य रचने के लिए विषयों की कमी नहीं पड़ती। उनका ताज़ा व्यंग्य संकलन ‘खतर पटर’ इस बात का सबूत है। संग्रह का शीर्षक आकर्षक है। जिंदगी की खटर पटर हो या मशीनों की, ध्यान बरबस ही खिंचा चला जाता है। विवेक रंजन जी पेशे से इंजीनियर है। मैं भी इंजिनियर हूँ, इसीलिए समझ सकता हूँ कि ‘खटर-पटर’ उनका करीबी शब्द है। वे दैनंदिनी की खबरों से भी व्यंग्य उठा लेते हैं। किताब के शीर्षक के नीचे उन्होंने स्वयं इस बात का उल्लेख कर दिया है- खबरों की खरोच से उपजे व्यंग्य।
व्यंग्यकार विवेक रंजन श्रीवास्तव क्या है, कैसे हैं, इसकी जानकारी संग्रह के आरंभ में डॉ स्मृति शुक्ला हिंदी विभागाध्यक्ष, मानकुंवर बाई शासकीय महाविद्यालय, जबलपुर ने विस्तार से की है। संकलन के शुरूआती छः पृष्ठों पर इन दिनों के सर्वाधिक चर्चित चौबीस समकालीन व्यंग्यकारों ने विवेक रंजन के व्यंग्य के बारे में लिखा है।
इस संकलन में कुल 33 व्यंग्य रचनाएं हैं। संग्रहित व्यंग्य रचनाओं की सार्थकता इस बात से प्रमाणित हो जाती है कि इन्हें पढ़ते हुए पाठक सहज ही तात्कालिक खबरों से जुड़ जाता है और व्यंग्य के मजे लेने लगता है। ‘गाय हमारी माता है’ नामक रचना में व्यंग्य की बानगी देखिए- बिलौटा भाग रहा था और चूहे दौड़ा रहे थे। मैंने बिलौटे से पूछा, यह क्या? तुम्हें चूहे दौड़ रहे हैं! बिलौटे ने जवाब दिया, यही तो जनतंत्र है। चूहे संख्या में ज्यादा है। इसलिए उनकी चलती है। मेरा तो केवल एक वोट है। चूहों के पास संख्या बल है। एक और जोरदार व्यंग्य ‘पड़ोसी के कुत्ते’ की बानगी देखिए- कुत्ते पड़ोसी के फार्म हाउस से निकलकर आसपास के घरों में चोरी-छिपे घुस आते हैं और निर्दोष पड़ोसियों को केवल इसलिए काट खाते हैं क्योंकि वह उनकी प्रजाति के नहीं है।
लगभग सभी रचनाएं अंत में संदेश देती सी प्रतीत होती है जबकि इसकी आवश्यकता नहीं है। बावजूद इसके उनकी रचनाएं उनके द्वारा गढ़े गए नश्तर से व्यंग्य का कटाक्ष निर्मित करते हैं एवं दिशा भी देते हैं। क्या व्यंग्य में दार्शनिक भी हुआ जा सकता है? यह बड़ी कुशलता से अपनी रचना ‘फुटबॉल: दार्शनिक अंदाज’ में दिखाई देता है- हम क्रिकेट जीवी है। हमारे देश में फुटबॉल का मैच कोई भी हारे या जीते, आप मजे से पॉप कार्न खाते हुए मैच का वास्तविक आनंद ले सकते हैं। दार्शनिकता में यह निरपेक्ष आनंद ही परमानंद होता है।
चुभन और सहज हास्य व्यंग्य को सम्पूर्ण बनाते हैं। विवेक रंजन जी की हर रचना में पंच मिलता है- सूरज को जुगनू अवार्ड, क्विक मनी का एक और साधन है-दहेज, कुछ भरोसे लायक पाना हो तो भरोसा ना करिए, सरकारी संपत्ति की मालिक जनता ही होती है, पिछड़ेपन को बढ़ावा देने के लिए धीमी चाल प्रतियोगिता को राष्ट्रीय खेलों के रूप में मान्यता देनी चाहिए आदि। यहां पर प्रत्येक रचना के बारे में लिखना ठीक ना होगा वरना पढ़ने का मजा चला जाएगा। एक और बात ‘वाटर स्पोर्ट्स’ नामक व्यंग्य रचना में विवेक रंजन स्वयं को एक पात्र के रूप में प्रस्तुत किया है। अपने बचपन से लेकर अब तक का चित्रण करते हुए सरकारी सेवाओं की व्यवस्था पर गहरा कटाक्ष किया है कि सरकारी सेवाओं में योग्यता के अनुरूप काम नहीं मिलता। ‘गांधी जी आज भी बोलते हैं’ एक बहुत ही टाइट एवं सटीक लघु व्यंग्य है।
संकलन के संपादन में चूक (कुछ रचनाओं में पूर्ण विराम का प्रयोग हो गया है जबकि अधिकतर रचनाओं में फुलस्टॉप लगाया गया है। रचनाओं का अनुक्रम बदला जाता तो शायद और अच्छा होता।) को नज़रअंदाज़ कर दें तो संग्रह पठनीय और अनोखा है जबकि कीमत ₹300 मात्र है।
(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकते हैं ।
आज प्रस्तुत है श्री संतोष तिवारी अशोक शाह जी की पुस्तक “जंगल राग” – की समीक्षा।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 92 – रिश्तें मन से मन के – श्री संतोष तिवारी ☆
मूलतः इंजीनियरिंग की शिक्षा प्राप्त, म. प्र. में प्रशासनिक सेवा में कार्यरत अशोक शाह हृदय से संवेदनशील कवि, अध्येता, आध्यात्म व पुरातत्व के जानकार हैं. वे लघु पत्रिका यावत का संपादन प्रकाशन भी कर रहे हैं. उनकी ७ पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं. पर्यावरण के वर्तमान महत्व को प्रतिपादित करती उनकी छंद बद्ध काव्य अभिव्यक्ति का प्रासंगिक कला चित्रो के संग प्रस्तुतिकरण जंगलराग में है.
वृक्ष, जंगल प्रकृति की मौन मुखरता है, जिसे पढ़ना, समझना, संवाद करना युग की जरूरत बन गया है. ये कवितायें उसी यज्ञ में कवि की आहुतियां हैं. परिशिष्ट में ९३ वृक्षो के स्थानीय नाम जिनका कविता में प्रयोग किया गया है उनके अंग्रेजी वानस्पतिक नाम भी दिये गये हैं.
कवितायें आयुर्वेदीय ज्ञान भी समेटे हैं, जैसे ।
” रेशमी तन नदी तट निवास भूरी गुलाबी अर्जुन की छाल
उगता सदा जल स्त्रोत निकट वन में दिखता अलग प्रगट
विपुल औषधि का जीवित संयंत्र रोग हृदय चाप दमा मंत्र “
बीजा, हर्रा, तिन्सा, धामन, कातुल, ढ़ोक, मध्य भारत में पाई जाने वाली विभिन्न वृक्ष वनस्पतियो पर रचनाकार ने कलम चलाई है. तथा सामान्य पाठक का ध्यान प्रकृति के अनमोल भण्डार की ओर आकृष्ट करने का सफल यत्न किया है. १४ चैप्टर्स में संग्रहित काव्य पठनीय लगा
समीक्षक .. विवेक रंजन श्रीवास्तव
ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८
मो ७०००३७५७९८
≈ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
इस महत्वपूर्ण उपलब्धि के लिए ई-अभिव्यक्ति परिवार की और से श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं
श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”
लेखक परिचय
नाम- ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’
जन्मतिथि एवं स्थान- 26 जनवरी 1965, भानपुरा जिला-नीमच (मप्र)
प्रकाशन- अनेक पत्रपत्रिकाओं में रचना सहित 141 बालकहानियाँ 8 भाषा में 1128 अंकों में प्रकाशित।
प्रकाशित पुस्तकेँ- 1- रोचक विज्ञान बालकहानियाँ, 2-संयम की जीत, 3- कुएं को बुखार, 4- कसक 5- हाइकु संयुक्ता, 6- चाबी वाला भूत, 7- पहाड़ी की सैर सहित 4 मराठी पुस्तकें प्रकाशित।
☆ पुस्तक चर्चा ☆ आत्मकथ्य – ‘लेखकोपयोगी सूत्र और 100 पत्रपत्रिकाएं’ ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’☆
प्रथम संस्करण से…..
अभ्यास भी गुरु है। बिना अभ्यास के कुछ नहीं सीखा जा सकता। संगीत के साथ रियाज जुड़ा है तो लेखन के साथ अभ्यास ।
अभ्यास के साथ-साथ यदि किसी से मार्गदर्शन मिलता रहे तो लक्ष्य जल्दी प्राप्त हो जाता है । गुरु का मार्गदर्शन दीपक की लौ की तरह है जो अंधेरे में राह बताता है ।
लेखन के लिए ये तीन बातें जरुरी है । एक, अभ्यास खूब किया जाए। दो, अपने ज्ञान का प्रयोग करना सीखा जाए । तीन, सही मार्गदर्शन प्राप्त किया जाए। इसी तीसरे लक्ष्य की पूर्ति के लिए यह पुस्तक प्रस्तुत की जा रही है, जिस का सारा श्रेय कहानी लेखन महाविद्यालय के सूत्रधार डॉ. महाराज कृष्ण जैन को जाता है ।
दिनांक 05-07-95
तीन महीने की मेहनत के बाद आखिर किताब पूरी हो ही गई…..
इस पुस्तक का पहला संस्करण सन 1995 में प्रकाशित हुआ था और वह 4 साल में ही समाप्त प्राय हो गया था। उस वक्त यह पुस्तक 40 पेज की थी और आज 150 के लगभग पेज की हो गई है। उसी वक्त आदरणीय डॉ महाराज कृष्ण जैन साहब ने मुझे इसे अद्यतन करने के लिए कहा था। वह अद्यतन संस्करण मैं ने तारिका प्रकाशन, कहानी लेखन महाविद्यालय, अंबाला छावनी को पहुंचाया भी था। मगर नियति को कुछ और ही मंजूर था। आदरणीय महाराज कृष्ण जैन साहब उसी दौरान हमें छोड़ कर चले गए। इस कारण यह संस्करण अटका हुआ रहा। पुन: इसे अद्यतन कर के आप के सम्मुख प्रस्तुत हैं।
इसमें नवोदित रचनाकारों के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण सूत्र शैली में जानकारी दी गई है।
उपन्यास लेखन की दो पद्धति है। अधिकांश दूसरी पद्धति का उपयोग करते हैं । इसी की व्यवहारिक योजना को इस पुस्तक में 13 पृष्ठों में समेटा गया है। यदि आप उपन्यास लिखना चाहते हैं तो आपके लिए यह पुस्तक काम की हो सकती है।
इस के अलावा भी बहुत कुछ है।
द्वितीय संस्करण से …..
लेखन में तीन बातें बहुत जरूरी है
यह अनुभव सिद्ध रहस्य है। जब तक आप बेहतर नहीं पढ़ते हैं तब तक बेहतर नहीं लिख सकते हैं। बेहतर पढ़ने पर ही बेहतर शब्दकोश तैयार होता है। यही शब्दकोश आपके लेखन में उपयोगी होता है।
इसलिए पहली बात- खूब पढ़ा जाए। जमकर पढ़ा जाए । अच्छा पढ़ा जाए। लेखन में सहायक हो, वैसा पढ़ा जाए। इन पंक्तियों के लेखक स्वयं अपनी रचना लिखने के पूर्व विधा की 20-25 रचनाएं पढ़ लेता है। तब लिखता है। तभी बेहतर ढंग से लिखा बाहर आता है।
दूसरी बात- जिस पत्रपत्रिका में छपना चाहते हैं उसे निरंतर देखते रहे। उसको देखने पढ़ने से उसकी रीति नीति पता चलता रहता है। उसके दृष्टिकोण को समझने के लिए यह बहुत जरूरी है। ताकि पत्रिका के इन रीति नीतियों को बेहतर ढंग से समझा जा सके। तभी आप उस पत्रिका के अनुरूप लिख सकते हैं।
पत्रिका क्या छपती है? यह जानना बहुत जरूरी है। आप एक धार्मिक रचना सरिता मुक्ता में छपने नहीं भेज सकते हैं। यदि भेज भी दी है तो वह हरगिज छप नहीं सकेगी। कारण स्पष्ट है कि सरिता मुक्ता की रीति नीति धार्मिक पाखंड का खंडन मंडन करना है। इस कारण वह इस तरह की रचनाएं प्रकाशित नहीं करेगी।
इसी तरह, एक धार्मिक पत्रिका सरिता मुक्ता की रीति नीति की रचनाएं भी हरगिज प्रकाशित नहीं करेगी। चाहे आपकी रचना कितनी भी श्रेष्ठ क्यों ना हो। कारण स्पष्ट है, धार्मिक पत्रिकाएं धार्मिक मान्यता, संस्कृति, परंपरा आदि की पोषक रचना ही स्वीकृत करती और छापती है। इस कारण, आपको पत्र पत्रिकाओं को सदा पढ़ते देखते रहना जरूरी है।
तीसरी और जरूरी बात- आपको बेहतर मार्गदर्शन मिलता रहे और आप बेहतर मार्गदर्शन प्राप्त करते रहें। यह मार्गदर्शन कई तरह का हो सकता है। छपना भी एक प्रेरक मार्गदर्शन ही है। इसके अलावा अपनी छपी रचना को कार्बन कॉपी से मिलान करते रहिए। इस से आपको अपनी कई तरह की गलतियां पता चलती रहेगी। यह स्व मार्गदर्शन होगा। आप अपनी गलतियों का परिष्कार कर पाएंगे।
यदि रचना अस्वीकृत हो तो उसका कारण खोजिए। निराश व हताश हरगिज़ न हो। अस्वीकृति कई कारणों से होती है। जरूरी नहीं कि रचना बेकार हो। इसके कारणों को जानने की कोशिश करें।
आपके आसपास कोई साहित्यकार रहता हो तो उसे रचना दिखाइए। उस से सलाह मशवरा कीजिए। इससे आप की नजर और नजरिया बदलेगा। उससे अस्वीकृत रचना पर सलाह लीजिए। उन की बताई सलाह पर चलिए। उसे अपनाइए। वह आपके लिए बहुत उपयोगी सिद्ध होगी।
गुरु का मार्गदर्शन आप का मार्ग प्रशस्त करता है। यह बेहद जरूरी है। इसी तीसरी बात को सामने लाने के लिए यह पुस्तक लिखी गई है। इस पुस्तक से आपको अनुभव सिद्ध मार्गदर्शन मिलेगा।
आप इसे पढ़कर बताइएगा कि यह पुस्तक आपको कैसी लगी ? इसमें और क्या जोड़ा जाए? या और क्या घटाया जाए ? ताकि भविष्य में इसमें सुधार किया जा सके। आपके पत्र, संदेश या मोबाइल का इंतजार रहेगा।
(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकते हैं ।
आज प्रस्तुत है श्री संतोष तिवारी जी की पुस्तक “रिश्तें मन से मन के” – की समीक्षा।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 91 – रिश्तें मन से मन के – श्री संतोष तिवारी ☆
पुस्तक चर्चा
रिश्तों को,
गलतियाँ उतना कमजोर नहीं करती….
जितना कि,
ग़लतफ़हमियाँ कमजोर कर देती है !
रिश्ते ऐसा विषय है जिस पर अलग अलग दृष्टिकोण से हर बार एक अलग ही चित्र बनता है, जैसे केलिडोस्कोप में टूटी चूडियां मनोहारी चित्र बनाती हैं, पर कभी भी चाह कर भी पुनः पिछले चित्र नही बनाये जा सकते।
अतः हर रिश्ते में प्रत्येक पल को पूरी जीवंतता से जीना ही जीवन है।
पति पत्नी का रिश्ता ही लीजिए प्रत्येक दम्पति जहां कभी प्रेम की पराकाष्ठा पार करते दिखते है, तो कभी न कभी एक दूसरे से क्रोध में दो ध्रुव लगते हैं।
इस पुस्तक से गुजरते हुए मानसिक प्रसन्नता हुई। सन्तोष जी का अनुभव कोष बहुत व्यापक है। उन्होंने स्वयं के या परिचितों के अनुभवों को बहुत संजीदा तरीके से, संयत भाषा मे अत्यंत रोचक तरीके से संस्मरण के रूप में लोकवाणी बनाकर लिखा है। उनकी लेखकीय क्षमताओं को देख कलम कागज से उनके रिश्ते बड़े परिपक्व लगते हैं। मुझ जैसे पाठकों से उन्होने पक्के रिश्ते बनाने में सफलता अर्जित की है। मैं पुस्तक को स्टार लगा कर सन्दर्भ हेतु सेव कर रहा हूँ।
पढ़ने व स्वयं को इन रिश्तो की कसौटियों पर मथने की अनुशंसा करता हूँ। पुनः बधाई।
इसकी हार्ड कॉपी अपनी लाइब्रेरी में रखना चाहूंगा।
समीक्षक .. विवेक रंजन श्रीवास्तव
ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८
मो ७०००३७५७९८
≈ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
☆ पुस्तक चर्चा ☆ आत्मकथ्य – ‘गांधी के राम’ ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆
पुस्तक – गांधी के राम
लेखक – श्री अरुण कुमार डनायक
प्रकाशक – ज्ञानमुद्रा पब्लिकेशन, भोपाल (मो- 8815686059)
मूल्य – 350 रु (सजिल्द)
पृष्ठ संख्या – 180
ISBN – 978-93-82224-21-1
(वर्तमान में आप यह पुस्तक ज्ञानमुद्रा पब्लिकेशन (मोबाइल नं 8815686059) से अथवा श्री अरुण कुमार डनायक जी (मोबाइल नं 9406905005) से सीधे संपर्क कर प्राप्त कर सकते हैं । शीघ्र ही यह पुस्तक अमेजन पर उपलब्ध होगी जिसका लिंक हम आपसे शेयर करेंगे।)
श्री अरुण कुमार डनायक
? इस महत्वपूर्ण उपलब्धि के लिए ई-अभिव्यक्ति परिवार की और से श्री अरुण कुमार डनायक जी को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं ?
लेखक परिचय
जन्म स्थान – हटा, जिला दमोह मध्य प्रदेश जन्म तिथि 15 फरवरी 1959
पिता – स्वर्गीय श्री रेवा शंकर डनायक माता – स्वर्गीय श्रीमती कमला डनायक
शिक्षा – शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, दमोह से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर उपाधि एवं सीएआईआईबी
सम्प्रत्ति – भारतीय स्टेट बैंक के सेवानिवृत्त सहायक महाप्रबंधक, उन्तालीस वर्षों की सेवा के दौरान दूरदराज के ग्रामीण व आदिवासी बहुल क्षेत्रों में कार्य करने का अवसर तथा बैंक की कृषि, लघु उद्योग व व्यवसाय, औद्योगिक वित्त आदि विभिन्न गतिविधियों में ऋण आकलन व वितरण का अनुभव ।
स्टेट बैंक से सेवानिवृति उपरान्त विभिन्न सामाजिक सरोकारों में संलग्न, कुछ सेवानिवृत्त मित्रों के साथ मिलकर मध्य प्रदेश की जीवनरेखा नर्मदा की पैदल खंड परिक्रमा, स्कूली विद्यार्थियों, ग्रामीणों व युवाओं के बीच गान्धीजी के विचारों को पहुंचाने की दिशा में पहल और ग्रामीण अंचलों में स्वच्छता, वृक्षारोपण, बालिका शिक्षा, ग्रामीण महिलाओं के आर्थिक सशक्तिकरण हेतु प्रयासरत श्री डनायक ने, गांधी जयन्ती के दिन 02 अक्टूबर 2019 से प्रारम्भ, स्वप्रेरित प्रकल्प के तहत भारतीय स्टेट बैंक के सेवानिवृत्त साथियों व अन्य मित्रों के सहयोग से दो दर्जन से अधिक शासकीय शालाओं में स्मार्ट क्लास शुरू करने में सफलता पाई है । आजकल अमरकंटक में बैगा आदिवासियों के बीच सक्रिय हैं।
आत्मकथ्य
पुस्तक में मैंने गांधी जी के ईश्वर के अस्तित्व संबंधी विचारों को लिपिबद्ध करने की शुरुआत राम के प्रति उनकी भक्ति को प्रदर्शित करती हुई नवजीवन में प्रकाशित एक लेख से की है। यह लेख उन्होंने 1924 में एक वैष्णव भाई को, इस उलाहने का जवाब देने के लिए लिखा था कि वे राम आदि अवतारों के लिए एकवचनी प्रयोग क्यों करते हैं? लेखन आगे बढ़ता है और हम पाते हैं कि रामनाम पर गांधी जी की अटूट श्रद्धा इतनी जबरदस्त थी कि वे अपने बीमार पुत्र मणिलाल का इलाज प्राकृतिक जल चिकित्सा से करते हुए भी राम के आसरे रहते हैं। भारत के स्वतंत्रता संग्राम में गांधी जी के प्रेरणास्रोत तो जन-जन के नायक, निर्बल के बल राम हैं, जिनकी भक्ति में गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस जैसे अमर महाकाव्य की रचना कर रामचरित्र को विश्वव्यापी बना दिया, हमारी विरासत की अनमोल धरोहर बना दिया। चाहे गोखले जी की सलाह पर भारत भ्रमण हो, हरिजन कल्याण के लिए देश व्यापी दौरा हो, नमक कानून के विरोध में दांडी मार्च हो सबकुछ राम के वन गमन से मेल खाता दिखता है।अपने हर कदम की अग्रिम सूचना अंग्रेजों को देने वाले गांधी जी यहां हनुमान और अंगद जैसे रामदूतों से प्रेरित दिखते हैं, जो रावण को न केवल चेतावनी देते हैं वरन राम से संधि न करने के दुष्परिणाम भी बताते हैं । ईश्वर के प्रति अगाध श्रद्धा रखने वाले गांधी जी नास्तिकों की शंकाओं का भी समाधान करते हैं और विभिन्न धर्मों के प्रति अपने विचारों को भी बिना किसी भय के प्रस्तुत करते हैं। गांधी जी का सर्वधर्म समभाव के प्रति समर्पण उन्हें हिंदू धर्म से विमुख नहीं करता वरन यह भावना उन्हें श्रेष्ठ हिंदू बनाने में मदद करती है। वे सनातनी हिन्दू क्यों हैं? इसे भी वे बड़ी स्पष्टता के साथ स्वीकार करते हैं। एकादश व्रत तो उनके आध्यात्मिक जीवन की कुंजी है।
माँ सरस्वती जी की अनुकम्पा से कल 16 फ़रवरी 2021 वसंतोत्सव पर्व पर ही ‘गांधी के राम’ के प्रकाशक श्री वरुण माहेश्वरी और श्री प्रयास जोशी हमारे निवास पुस्तक की पांच प्रतियां लेकर आए। इस प्रसन्नता को आप सभी मित्रों एवं ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा कर रहा हूँ।