(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकते हैं ।
आज प्रस्तुत है सुश्री नूपुर अशोक जी के व्यंग्य संग्रह “७५ वाली भिंडी” पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 45 ☆
व्यंग्य संग्रह – ७५ वाली भिंडी
व्यंग्यकार – सुश्री नूपुर अशोक
प्रकाशक – रचित प्रकाशन, कोलकाता
पृष्ठ १२०
☆ पुस्तक चर्चा – व्यंग्य संग्रह – ७५ वाली भिंडी – व्यंग्यकार –सुश्री नूपुर अशोक ☆ पुस्तक चर्चाकार -श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र☆
परसाई जी ने लिखा है “चश्मदीद वह नहीं है जो देखे, बल्कि वह है जो कहे कि मैने देखा है” नूपुर अशोक वह लेखिका हैं जो अपने लेखन से पूरी ताकत से कहती दिखती हैं कि हाँ मैंने देखा है, आप भी देखिये. उनकी कविताओ की किताब आ चुकी है. व्यंग्य में वे पाठक को आईना दिखाती हैं, जिसमें हमारे परिवेश के चलचित्र नजर आते हैं. नूपुर जी की पुस्तक से गुजरते हुये मैंने अनुभव किया कि इसे और समझने के लिये गंभीरता से, पूरा पढ़ा जाना चाहिये.
नूपुर आकाशवाणी की नियमित लेखिका है. शायद इसीलिये उनकी लेखनी संतुलित है. वाक्य विन्यास छोटे हैं. भाषा परिपक्व है. वे धड़ल्ले से अंग्रेजी शब्दो को देवनागरी में लिखकर हिन्दी को समृद्ध करती दिखती हैं. बिना सीधे प्रहार किये भी वे व्यंग्य के कटाक्ष से गहरे संदेश संप्रेषित करती हैं “गांधी जी की सत्य के प्रयोग पढ़ी है न तुमने… इस प्रश्न के जबाब में भी वह सत्य नही बोल पाता.. किताब मिली तो थी हिन्दी पखवाड़े में पुरस्कार में और सोशल मीडिया में सेल्फी डाली भी थी.. गाट अ प्राइज इन हिन्दी दिवस काम्पटीशन”. लिखना न होगा कि मेरी बात रही मेरे मन में लेख में उन्होने इन शब्दो से मेरे जैसे कईयो के मन की बात सहजता से लिख डाली है.
व्यंग्य और हास्य को रेखांकित करते हुये प्रियदर्शन की टीप से मैं सहमत हूं कि नूपुर जी के व्यंग्य एक तीर से कई शिकार करते हैं. भारतीय संस्कृति के लाकडाउन में वे कोरोना, जनित अनुभवो पर लिखते हुये बेरोजगारी, डायवोर्स वगैरह वगैरह पर पैराग्राफ दर पैराग्राफ लेखनी चलाती हैं, पर मूल विषय से भटकती नहीं है. रचना एक संदेश भी देती है. रचना को आगे बढ़ाने के लिये वे कई रचनाओ में फिल्मी गीतो के मुखड़ो का सहारा लेती हैं, इससे कहा जा सकता है कि उनकी दृष्टि सजग है, वे सूक्ष्म आब्जर्वर हैं तथा मौके पर चौका लगाना जानती हैं.
कुल जमा १६ रचनायें संग्रह में हैं, प्रकाशक ने कुशलता से संबंधित व्यंग्य चित्रो के जरिये किताब के पन्नो का कलेवर पूरा कर लिया है. लेखो के शीर्षक पर नजर डालिये चुनाव का परम ज्ञान, प्रेम कवि का प्रेम, हम कंफ्यूज हैं, संडे हो या मंडे, यमराज के नाम पत्र, बेटा बनाम बकरा, पूरे पचास, किस्सा ए पति पत्नी, अथ श्री झारखण्ड व्यथा, इनके अलावा दो तीन रचनायें कोरोना काल जनित भी हैं. अपनी बात में वे बेबाकी से लिखती हैं कि अंत की ६ रचनायें अस्सी के दशक की हैं और यथावत हैं, मतलब उनकी लेखनी तब भी परिपक्व ही थी.
अस्तु, त्यौहारी माहौल में, दोपहर के कुछ घण्टे और पीडीएफ किताब पर सरसरी नजर डालकर लेखिका की व्यापक दृष्टि पर इतना तो कहा ही जा सकता है कि इस पीढ़ी की जिन कुछ महिलाओ से व्यंग्य में व्यापक संभावना परिलक्षित होती है नूपुर अशोक उनमें महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं.
समीक्षक .. विवेक रंजन श्रीवास्तव
ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८
मो ७०००३७५७९८
≈ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकते हैं ।
आज प्रस्तुत है श्री मुकेश राठौर जी के व्यंग्य संग्रह “अपनी ढ़पली अपना राग” पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 44 ☆
व्यंग्य संग्रह – अपनी ढ़पली अपना राग
व्यंग्यकार – श्री मुकेश राठौर
प्रकाशक – बोधि प्रकाशन, जयपुर
पृष्ठ १००
मूल्य १२० रु
☆ पुस्तक चर्चा – व्यंग्य संग्रह – अपनी ढ़पली अपना राग – व्यंग्यकार – श्री मुकेश राठौर ☆ पुस्तक चर्चाकार -श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र☆
यूं तो मुझे किताब पढ़ने का सही आनंद लेटकर हार्ड कापी पढ़ने में ही मिलता है, पर ई बुक्स भी पढ़ लेता हूं. मुकेश राठौर जी का व्यंग्य संग्रह अपनी ढ़पली अपना राग चर्चा में है. इसकी ई बुक पढ़ी.
मुकेश जी जुझारू व्यंग्यकार हैं. नियमित ही यहां वहां पढ़ने मिल रहे हैं व अपनी सक्रिय उपस्थिति दर्ज करवाते हैं.
उन्हें स्वयं के लेखन पर भरोसा है. संग्रह के कुछ व्यंग्य पूर्व पठित लगे संभवतः किसी पत्र पत्रिका या समूह में नजरो से गुजरे हैं. राजनीति, सोशल मीडीया,मोबाईल, बजट, प्याज, और ग्राम्य परिवेश के गिर्द घूमते विषयो पर उन्होने सार्थक कलम चलाई है. भेडियो की दया याचना संवाद शैली में व्यंग्य का अच्छा प्रयोग है. प्रतीको के माध्यम से न्याय व्यवस्था पर गहरी चोट समझी जा सकती है. बाजा, गाजा और खाजा से शुरू किताब का शीर्षक व्यंग्य अपनी ढ़पली अपना राग छोटा है, वर्णात्मक ज्यादा है इसको अधिक मुखर, संदेश दायक व प्रतीकात्मक लिखने की संभावनायें थीं. सच है जीवन में संगीत का महत्व निर्विवाद है. हर कोई अपने तरीके से अपनी सुविधा से अपनी जीवन ढ़पली पर अपने राग ठेल ही रहा है.
ठगबंधन का कामन मिनिमम प्रोग्राम वर्तमान राजनैतिक स्थितियो कर गहरा कटाक्ष है. घर में ” जितनी बहुयें उतने ही बहुमत “, हम वो नही जो चुनाव जीतने के बाद बदल जायें हमने आपकी सेवा के लिये ही पार्टी बदली है, या बाबुओ की थकती कलम के कारण विलम्बित वेतन जैसे अनेक शैली गत व्यंग्य प्रयोग बताते है कि मुकेश जी में व्यंग्य रचा बसा है वे जिस भी विषय पर लिखेंगे उम्दा लिख जायेंगे. बस विषय के चयन का केनवास बड़ा बना रहे तो उनसे हमें धड़ाधड़ धाकड़ व्यंग्य मिले रहेंगे. यही आकांक्षा भी है मेरी.
समीक्षक .. विवेक रंजन श्रीवास्तव
ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८
मो ७०००३७५७९८
≈ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकते हैं ।
आज प्रस्तुत है श्री शंतिलाल जैन जी के व्यंग्य संग्रह “वे रचना कुमारी को नहीं जानते” पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा। संयोग से इस व्यंग्य संग्रह को मुझे भी पढ़ने का अवसर मिला। श्री शांतिलाल जी के साथ कार्य करने का अवसर भी ईश्वर ने दिया। वे उतने ही सहज सरल हैं, जितना उनका साहित्य। श्री विवेक जी ने भी उसी सहज सरल भाव से पैंतालीस कॉम्पैक्ट व्यंग्य रचनाओं परअपने सार्थक विचार रखे हैं। यह तय है कि एक बार प्रारम्भ कर आप भी बिना पूरी पुस्तक पढ़े नहीं रह सकते।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 42 ☆
पुस्तक – वे रचना कुमारी को नहीं जानते
व्यंग्यकार – श्री शांतिलाल जैन
प्रकाशक – आईसेक्ट पब्लिकेशन , भोपाल
पृष्ठ – १३२
मूल्य – १२०० रु
☆ पुस्तक चर्चा – व्यंग्य संग्रह – वे रचना कुमारी को नहीं जानते– व्यंग्यकार – श्री शांतिलाल जैन ☆
किताबों की दुनियां बड़ी रोचक होती है. कुछ लोगों को ड्राइंगरूम की पारदर्शी दरवाजे वाली आलमारियों में किताबें सजाने का शौक होता है. बहुत से लोग प्लान ही करते रहते हैं कि वे अमुक किताब पढ़ेंगे, उस पर लिखेंगे. कुछ के लिये किताबें महज चाय के कप के लिये कोस्टर होती हैं, या मख्खी भगाने हेतु हवा करने के लिये हाथ पंखा भी.
मैं इस सबसे थोड़ा भिन्न हूँ. मुझे रात में सोने से पहले किताब पढ़ने की लत है. पढ़ते हुये नींद आ जाये या नींद उड़ जाये यह भी किताब के कंटेंट की रेटिंग हो सकता है. अवचेतन मन पढ़े हुये पर क्या सोचता है, यह लिख लेता हूँ और उसकी चर्चा कर लेता हूँ जिससे मेरे पाठक भी वह पुस्तक पढ़ने को प्रेरित हो सकें.
श्री शांति लाल जैन जी अन्य महत्वपूर्ण सम्मानो के अतिरिक्त प्रतिष्ठित डा ज्ञान चतुर्वेदी व्यंग्य सम्मान २०१८ से सम्मानित सुस्थापित व्यंग्यकार हैं . “वे रचना कुमारी को नहीं जानते” उनका चौथा व्यंग्य संग्रह है . लेखन के क्षेत्र में बड़ी तेजी से ऐसे लेखको का हस्तक्षेप बढ़ा है, जिनकी आजीविका हिन्दी से इतर है. इसलिये भाषा में अंग्रेजी, उर्दू का उपयोग, सहजता से प्रबल हो रहा है. श्री शान्तिलाल जैन जी भी उसी कड़ी में एक बहुत महत्वपूर्ण नाम हैं, वे व्यवसायिक रूप से बैंक अधिकारी रहे हैं.
किताब की लम्बी भूमिका में डा ज्ञान चतुर्वेदी जी ने उन्हें एक बेचैन व्यंग्यकार लिखा, और तर्को से सिद्ध भी किया है. लेखकीय आभार अंतिम पृष्ठ है. मैं श्री शांति लाल जैन जी को पढ़ता रहा हूँ, सुना भी है . “वे रचना कुमारी को नहीं जानते ” पढ़ते हुये मेरी मेरी नींद उचट गई, इसलिये देर रात तक बहुत सारी किताब पढ़ डाली. मैने पाया कि उनका मन एक ऐसा कैमरा है जो जीवन की आपाधापी के बीच विसंगतियो के दृश्य चुपचाप अंकित कर लेता है. मैं डा ज्ञान चतुर्वेदी जी से सहमत हूं कि वह दृश्य लेखक को बेचैन कर देता है, छटपटाहट में व्यंग्य लिखकर वे स्वयं को उस पीड़ा से किंचित मुक्त करते हैं . वे प्रयोगवादी हैं.
लीक से हटकर किताब का नामकरण ही उन्होंने “ये तुम्हारा सुरूर” व्यंग्य की पहली पंक्ति “वे रचना कुमारी को नहीं जानते” पर किया है , अन्यथा इन दिनो किसी प्रतिनिधि व्यंग्य लेख के शीर्षक पर किताब के नामकरण की परंपरा चल निकली है. इसलिये संग्रह के लेखो की पहली पंक्तियो की चर्चा प्रासंगिक है. कुछ लेखो की पहली पंक्तियां उधृत हैं जिनसे सहज ही लेख का मिजाज समझा जा सकता है. पाठकीय कौतुहल को प्रभावित करती लेख की प्रवेश पंक्तियो को उन्होंने सफल न्यायिक विस्तार दिया है.
वाइफ बुढ़ा गई है … , ” मि डिनायल में नकारने की अद्भुत प्रतिभा है” कार्यालयीन जीवन में ऐसे अनेको महानुभावो से हम सब दो चार होते ही हैं, पर उन पर इस तरह का व्यंग्य लिखना उनकी क्षमता है. इसी तरह आम बड़े बाबुओ से डिफरेंट हैं हमारे बड़े बाबू ,हुआ यूं कि शहर में एक्स और वाय संप्रदाय में दंगा हो गया …
उनके लेखन में मालवा का सोंधा टच मिलता है “अच्छा हुआ सांतिभिया यहीं पे मिल गये आप” मालगंज चौराहे पर धन्ना पेलवान उनसे कहता है . ….
या पेलवान की टेरेटरी में मेंढ़की का ब्याह …
वे करुणा के प्रभावी दृश्य रचने की कला में पारंगत हैं ..
बेबी कुमारी तुम सुन नही पातीं, बोल नही पाती, चीख जरूर निकल आती है, निकली ही होगी उस रात. बधिर तो हम ठहरे दो दो कान वाले . …
राजा, राजकुमार, उनके कई व्यंग्य लेखो में प्रतीक बनकर मुखरित हुये हैं. गधे हो तुम .. सुकुमार को डांट रहे थे राजा साहब …. , या बादशाह ने महकमा ए कानून के वजीर को बुलाकर पूछा ये घंटा कुछ ज्यादा ही जोर से नही बज रहा ?
मुझे नयी थ्योरी आफ रिलेटिविटी रिलेटिंग माडर्न इंडिया विथ प्राचीन भारत पढ़कर मजा आ गया. इसी तरह छीजते मूल्य समय में विनम्र भावबोध की मनुहार वादी कविताएं वैवाहिक आमंत्रण पत्रो पर मुद्रित पंक्तियो का उनका रोचक आब्जरवेशन है. इसी तरह समय सात बजे से दुल्हन के आगमन तक भी वैवाहिक समारोहो पर मजेदार कटाक्ष है.
वे लोकप्रिय फिल्मी गीतों का अवलंबन लेकर लिखते मिलते हैं, जैसे महिला संगीत में बालीवुड धूम मचा ले से शुरूकरके, जस्ट चिल तक पहुँचता गुदगुदाता भी है, वर्तमान पर कटाक्ष भी करता है.
मैं पाठको को अपनी कुछ विज्ञान कथाओ में अगली सदियो की सैर करवा चुका हूँ इसलिये आँचल एक श्रद्धाँजंली पढ़कर हँस पड़ा, रचना यूँ शुरू होती है “३ जुलाई २०४८ … आप्शनल सब्जेक्ट हिंदी क्लास टेंथ . …
पैंतालीस काम्पेक्ट व्यंग्य लेख. वैचारिक दृष्टि से नींद उड़ा देने वाले, सूक्ष्म दृष्टि, रचना प्रक्रिया की समझ के मजे लेते हुये, खुद के वैसे ही देखे पर अनदेखे दृश्यो को याद करते हुये जरूर पढ़िये.
रेटिंग – मेरे अधिकार से ऊपर
समीक्षक .. विवेक रंजन श्रीवास्तव
ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८
मो ७०००३७५७९८
≈ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
सिद्धार्थ हे पुस्तक वाचल्यावर पहिली प्रतिक्रिया द्यायची म्हणजे हे पुस्तक मातृत्वाच्या कसोटीची एक कहाणी सांगते. हा एक प्रवास आहे. सिद्धार्थ आणि त्याच्या आई वडीलांचा. या प्रवासात खूप खाचखळगे होते. आशा निराशेचे लपंडाव होते. सुखाचा नव्हताच हा प्रवास. सुखदु:खाच्या पाठशिवणीची ही एक खडतर वाटचाल होती. वेदना, खिन्नता, चिंता, भविष्याचा अंधार वेढलेला होता.
सिद्धार्थच्या ह्रदयाला जन्मत:च छिद्र होतं. २६/२७ वर्षापूर्वी विज्ञान आजच्याइतकं प्रगत नव्हतं. शिवाय सिद्धार्थची समस्याच मूळात अवघड आणि गुंतागुंतीची होती.
एका हसतमुख, गोर्या ,गोंडस बाळाला मांडीवर घेऊन प्रेमभरे पाहताना,या असाधारण समस्येमुळे त्याच्या आईचं ह्रदय किती पिळवटून गेलं असेल याचा विचारच करता येत नाही. त्या आईची ही शोकाकुल असली तरी सकारात्मक कथा आहे.
सिद्धार्धच्या आई म्हणजेच स्वत: लेखिका स्मिता बापट जोशी. सिद्धार्थला, त्याच्या शारिरीक, मानसिक त्रुटींसह मोठं करताना आलेल्या चौफेर अनुभवांचं, भावस्पर्शी कथन या पुस्तकात वाचायला मिळतं..
सिद्धार्थच्या अनेक शस्त्रक्रिया, त्यातून ऊद्भवलेल्या इतर अनेक व्याधी..जसं की,त्याच्या मेंदुच्या कार्यात आलेले अडथळे…पर्यायाने त्याला आलेलं धत्व, बाळपणीचे लांबलेले माईलस्टोन्स.. चोवीस तास, सतत त्याच्यासाठी अत्यंत जागरुक, सावध राहण्याचा तो, भविष्य अवगत नसलेला काळ भोगत असाताना झालेल्या यातनांची ही चटका लावणारी जीवनगाथाच…
पण असे जरी असले तरी सकारात्मकपणे स्मिता बापट जोशी यांनी एक आई म्हणून दिलेली ही झुंज खूप ऊद्बोधक, या वाटेवरच्या दु:खितांसाठी, मार्गदर्शक आहे. Never Give Up ही मानसिकता या पुस्तकात अनुभवायला मिळते. आणि ती आश्वासक आहे. समाजाकडुन मिळालेले दु:खद नजराणे, ऊलगडत असताना, त्यांनी समाजाच्या चांगुलपणाचीही दखल घेतलेली आहे. किंबहुना त्यांनी त्यावरच अधिक प्रकाश टाकलेला आहे. राग, चीड याबरोबरच ऊपकृततेची भावनाही त्यांनी मनापासून व्यक्त केली आहे.
विज्ञानाची मदत असतेच. पण भक्कमपणे, अनुभवाने मिळालेले ज्ञान जोडून, या काटेरी प्रवासातही फुलांची बरसात कशी होईल,आणि त्यासाठी प्रयत्नांची केलेली पराकाष्ठा यशाचं दार ऊघडते, हे या पुस्तकात ठळकपणे जाणवते आणि म्हणूनच या पुस्तकाशी आपलं नातं जुळतं..
जन्मापासून ते वयाच्या सव्वीसाव्या वर्षापर्यंतचा, सिद्धार्थचा हा जीवनपट, एका जिंकलेल्या युद्धाचीच हकीकत सांगतो.
आज सिद्धार्थला एक स्वत:ची ओळख आहे.
ज्याला संवादही साधता येत नव्हता, तो आज “झेप” नावाच्या एका विशेष मुलांच्या संस्थेत शिक्षक आहे,
जिगसाॅ पझल सोडवण्याच्या कलेने, त्यात असलेल्या प्राविण्याने, त्याचे नांव गिनीज बुक मधे नोंदले गेले.
स्मिता आणि भूषण या जन्मदात्यांच्या संगोपनाचा हा वेगळा प्रवास वाचनीय आहे..
पुस्तकाच्या शेवटच्या टप्प्यात लेखिका त्यांच्या मनोगतात म्हणतात, “जेव्हां,स्मिता एक व्यक्ती आणि स्मिता ..सिद्धार्थची आई म्हणून विचार करते,तेव्हां मला हरल्यासारखे वाटते..
स्मिताला तिची स्वत:ची स्वप्नं,महत्वाकांक्षा अर्पण कराव्या लागल्या या भावनेने कुठेतरी दु:ख होऊन पराभूत झाल्यासारखे वाटते.पण मग,सिद्धार्थच्या जडणघडणी मधे विजीगीषु वृत्तीची स्मिताच तर होती….हे जेव्हां जाणवतं तेव्हां दृष्टी बदलते. हात बळकट होतात.
…”आज या जगाला गर्जून सांगावसं वाटतं, आम्ही दोघीही जिंकलो.”
☆ पुस्तकांवर बोलू काही ☆ निसर्ग माझा, मी निसर्गाचा – प्रा. विजय जंगम ☆ श्री सुहास रघुनाथ पंडित☆
पुस्तकाचे नाव: निसर्ग माझा, मी निसर्गाचा
लेखक: प्रा. विजय जंगम
प्रकाशक: अक्षरदीप प्रकाशन, कोल्हापूर.
किंमत: रू.260/.
प्रा. विजय जंगम लिखित ‘निसर्ग माझा,मी निसर्गाचा हे अलिकडेच प्रकाशित झालेले पुस्तक नुकतेच वाचनात आले.सारे काही निसर्गाविषयीच असेल असे गृहीत धरून पुस्तक वाचायला सुरुवात केली.काही पाने वाचून झाली आणि असे वाटू लागले की आपण वर्गात बसलो आहोत आणि आपले सर आपल्याला एक एक विषय व्यवस्थित समजावून सांगत आहेत.पुस्तकाच्या नावात जरी निसर्ग हा शब्द असला तरी या पुस्तकाचा विषय फक्त निसर्गापुरता मर्यादीत नाही.कारण अमर्याद निसर्गाचा विचारही संकुचितपणे करता येणार नाही.त्यामुळे निसर्ग आणि मानव यांचा विचार करताना लेखकाला अध्यात्म,विज्ञान आणि तत्त्वज्ञान या शास्त्रांचाही विचार करावा लागला आहे.प्रथमदर्शनी अवघड वाटणारे हे विषय लेखकात लपलेल्या शिक्षकाने अतिशय सोपे करून सांगितले आहेत.
पुस्तकाची विभागणी छोट्या छोट्या बत्तीस प्रकरणांमध्ये केलेली असल्यामुळे एक एक मुद्दा समजून घेणे सोपे झाले आहे.सृष्टीची निर्मिती कशी झाली,त्यामागचा वैज्ञानिक सिद्धांत काय आहे हे सुरूवातीला स्पष्ट करत एकेका प्रश्नाचे उत्तर शोधण्याचा प्रयत्न केला आहे.विश्वनिर्मिती मागील अध्यात्मिक दृष्टीकोन विषद करतानाच विश्वाची निर्मिती होण्याआधी काय होते याचाही शोध ते घेतात. पंचमहाभूते, सप्तसिंधू , ब्रह्मांड,जन्म मरणाचा फेरा, ब्रह्म, मूळमाया असे अनेक शब्द आपल्या कानावर पडत असतात. त्या सर्वांचे साध्या,सोप्या भाषेतील स्पष्टीकरण आपल्याला येथे वाचायला मिळते. पंचमहाभूतांची निर्मिती, त्यांचा मानवी शरीराशी असणारा संबंध, मानवाची गर्भावस्था, त्याची ज्ञानेंद्रिये, कर्मेंद्रिये, अंतरेंद्रिये, मन आणि चित्त यातील फरक, पंचप्राण अशा अनेक विषयांवर सहजपणे भाष्य केले आहे.याशिवाय मानवाचा अहंकार,प्राकृतिक गुण,त्रिगुणी मनुष्यप्राणी, त्याचे सात्विक गुण, दुःख, सुख आणि आनंद यातील फरक यासारख्या अनेक विषयांसंबंधी असणार्या शंकांचे निरसन करण्याचा प्रयत्न केला आहे. अंतिम आणि अटळ असा मृत्यू, मृत्यूचे प्रकार याविषयी लिहीताना चिरंजीवित्व ही एक कल्पना आहे असे ते म्हणतात.
माणूस आणि निसर्ग यांच्यातील दुरावत चाललेल्या नात्यासंबंधी चिंता व्यक्त करून निसर्गाच्या पुनर्जन्माचीच आवश्यकता असल्याचे त्यांनी आवर्जून नमूद केले आहे.
श्री श्रीकांत वडियार यांनी चित्रित केलेले पुस्तकाचे मुखपृष्ठ अत्यंत बोलके आहे. निसर्गाचे मानवाशी असलेले अतूट नाते, पुढील पिढ्यांसाठीही त्याची असलेली आवश्यकता आणि निखळ नैसर्गिक आनंदाचे दर्शन घडवणारे हे मुखपृष्ठ योग्य रंगसंगती मुळे आकर्षक ठरले आहे.
पुस्तकात अनेक ठिकाणी येणारी संतवचने, संदर्भ, गीता,दासबोध, चाणक्य नीती,अशा ग्रंथातील दाखले हे लेखकाच्या वाचनसमृद्धीचे द्योतक आहेत.अनेक ठिकाणी त्यांच्या लेखणीतून उतरलेली वाक्ये ही सुवचनाप्रमाणे वाटतात.उदाहरण म्हणून, ‘उपाशीपण हे नेहमी भरकटलेलं असतं’, आनंद हा कधीच परावलंबी नसतो’, ‘माणसाला अंतर्मुख व्हायला दुःख ही एक संधी असते’, ‘वेदनाच खरं बोलते’ अशा काही वाक्यांचा उल्लेख करता येईल.
मला तर वाटते की निसर्गाच्या माध्यमातून अध्यात्माच्या दारापर्यंत नेऊन पोचवणारा विज्ञाननिष्ठित भक्तीमार्ग या पुस्तकाने दाखवून दिला आहे.
☆ पुस्तकांवर बोलू काही ☆ दोन ज्योती – श्रीमती अनुराधा फाटक ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर☆
पुस्तकाचे नाव – दोन ज्योती
लेखिका – श्रीमती अनुराधा फाटक
प्रकाशन -श्री नवदुर्गा प्रकाशन
दोन ज्योती (पुस्तक परिचय)
‘दोन ज्योती’ हा अनुराधा फाटक यांचा अलीकडेच प्रकाशित झालेला कथासंग्रह. त्यांचा हा 13 वा कथासंग्रह. राज्य पुरस्कारासकट ( भारतीय रेल्वेची कहाणी – भौगोलिक ) त्यांच्या विविध पुस्तकांना विविध पुरस्कार लाभले आहेत. वास्तव आणि कल्पनारंजन यांच्या दुहेरी विणीतून त्यांची कथा गतिमान होते. कल्पनारंजन असं की समाजात ज्या गोष्टी घडायला हव्यात, असं त्यांना वाटतं, त्या त्या गोष्टी त्यांच्या कथांमधून घडतात. ‘पालखीचे भोई’ मधील बाबा गावातील विविध धर्मियांची एकजूट करून माणुसकीची दिंडी काढतात. त्यांच्याकडे भजनाला विविध जाती-धर्माचे लोक येतात. सकाळी तिरंग्याची पूजा करून व त्याला प्रणाम करून पालखी निघते. त्यात सर्व धर्माचे धर्मग्रंथ ठेवलेले असतात. आपआपल्या धर्माचा पोशाख केलेले वारकरी ‘पालखीचे भोई’ होतात.
श्रीमती अनुराधा फाटक
‘झेप’ मधील सायली हुशार पण घरची गरीबी म्हणून ती सायन्सला न जाता आर्टस्ला जाते. संस्कृत विषय घेते. दप्तरदार बंधूंकडे जुन्या औषधांची माहिती असलेली त्यांच्या आजोबांची दोन बाडं असतात. सायली त्यांचा मराठीत अनुवाद करून देते. पुस्तक छापलं जातं. कुलगुरूंच्या हस्ते त्याचं प्रकाशन होतं. वेगळ्या दिशेने झेप घेतलेल्या सायलीचं कौतुक होतं. कथेचा शेवट असा- भारतीय ज्ञान, बुद्धी, यांना साता समुद्रापार नेणारी ही झेप’ नव्या पिढीचा आदर्श ठरणार होती.
‘बळी’ ही ‘यल्ली ’ या जोगतीणीची व्यथा मांडणारी कथा. ती म्हणते, नशिबानं मलाच यल्लम्मा बनीवली आणि दारोदर फिरीवली. तिचा विचार करणारा, तिला चिखलातून बाहेर काढू इच्छिणारा, तसं केलं नाही, तर माझ्या शिक्षणाचा काय उपयोग असं म्हणणारा एक स्वप्नाळू तरुण तिच्याशी लग्न करतो. एकदा रस्त्यावरील एका गाडीच्या अपघातात तो मरतो. शिक्षण नसलेल्या यल्लीला जगण्यासाठी पुन्हा जोगतीणच व्हावं लागत पण आपण मूल जन्माला घालायचा नाही , असं पक्कं ठरवते. कथेचा शेवट असा- ‘यल्लूचे डोळे गळत होते. त्या अश्रूतून मातृत्वाची बांधून ठेवलेली ओल वहात होती. कुणाचा बळी न देण्याचा निर्धारही. ती म्हणते, माझ्या आयुष्याचं बुकच वेगळं हाय. त्यात फाकस्त बकर्यावाणी बळीची गोष्ट.’ सजलेली –धजलेली यल्लम्मा जग डोक्यावर घेऊन निघाली. तिचाही बळी घेतला होता, समाजातील दुष्ट रुढींनी. खरं तर त्या अश्रूतून बांधून ……. न देण्याचा निर्धारही … इथेच कथा संपायला हवी होती. पण लेखिकेला स्वतंत्रपणे भाष्य करण्याचा मोह आवरत नाही, हे त्यांच्या अनेक कथांमधून दिसते.
दोन ज्योती, घर, कलंक,पुरस्कार या कथा वृद्धाश्रमाच्या पार्श्वभूमीवरच्या. ‘दोन ज्योती’मधल्या सुमतीबाई, ‘घर’मधल्या कुसुमताई, कलंक’ मधल्या मीनाताई सगळ्या वेगवेगळ्या कारणांनी आश्रमात आलेल्या. त्या तिथे केवळ रूळल्याच नाहीत, तर रमल्याही.त्यांचा आत्मसन्मान तिथे त्यांना मिळालेला. कुसुमताई सुनेच्या वागणुकीला कंटाळून आश्रमात आलेल्या. त्या म्हणतात, ‘नवरा गेल्यापासून आजपर्यंत घरात आश्रमासारखी राहिले, आता या आश्रमात घरासारखी रहाणार आहे.’ मीनाताईंच्या मुलाने हाती लागलेल्या बनावटी पत्रांच्या आधारे, त्याची शहानिशा न करता आईवर लावलेल्या बाहेरख्यालीपणाच्या आरोपाने व्यथित होऊन त्या आश्रमात आल्या आहेत. शेवटी मुलाला आपली चूक कळते. तो त्यांना घरी न्यायला येतो, पण त्या ‘तुझ्या पश्चात्तापाने माझा कलंक पुसला, तरी मनाची जखम ओली आहे.’असा म्हणत पुन्हा घरी जायला नकार देतात. आत्मकेंद्रित, अहंमन्य, पैशाच्या मागे लागलेले, बायकोला गुलामासारखं वागावणारे वसंतराव. त्यांच्या वागणुकीला कंटाळून आश्रमात आलेल्या सुमतीबाई नवरा न्यायला येणार, म्हंटल्यावर धास्तावतात. त्यावेळी आश्रमाच्या व्यवस्थापिका वसंतरावांनाच इथे ठेवून घेऊन हा पेच सोडवण्याचे ठरवतात. त्यावेळी पती-पत्नी यांच्या नात्याबद्दल खूप काही बोलतात. भाषण दिल्यासारखं. वाटत रहातं, लेखिकाच त्यांच्या तोंडून बोलतेय. कथासंग्रहात असं वाटायला लावणार्या खूप जागा आहेत. लेखिकेचा अध्यापणाचा पेशा असल्यामुळे कुठल्याही घटना-प्रसंगावर भाष्य करण्याचा लेखिकेला मोह होतो आणि अनेकदा संवाद भाषणात रूपांतरित होतात.
पुस्तकात पाहुणेर, गोफ, नवजीवन, मंगला, माणुसकी इ. आणखीही वाचनीय कथा आहेत. शब्दमर्यादेचा विचार करता, मासिका- साप्ताहिकातून चित्रपट परीक्षणे येतात, त्यात शेवटी म्हंटलेलं आसतं, ‘पुढे काय होतं, ते प्रत्यक्ष पडद्यावरच पहा.’ तसंच म्हणावसं वाटत, ‘कथांचा प्रत्यक्ष पुस्तक वाचूनच आनंद घ्या.
आपण अनेक पुस्तके वाचतो. त्यातील काही पुस्तकं आपल्याला आवडतात. त्यावर बोलावं, इतरांना सांगावं, असं आपल्याला वाटतं. कित्येकदा आपल्या पुस्तकाबद्दल इतरांशी बोलावं, आपली त्यामागची भूमिका मांडावी, असंही काही वेळा वाटत. या वाटण्याला शब्द देण्यासाठी एक नवीन सादर सुरू करत आहोत, ‘पुस्तकांवर बोलू काही.’ आज त्यातील पहिला लेख सुश्री संगीता कुलकर्णी यांचा.
संपादक मंडळ – ई – अभिव्यक्ती
☆ पुस्तकांवर बोलू काही ☆ लघुकथा संग्रह “संवेदना” अनुवाद – श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆ सुश्री संगीता कुलकर्णी☆
अनुवादित पुस्तक –संवेदना
मूळ हिंदी लेखक – डाॅ. कमल चोपडा
अनुवाद – श्रीमती उज्ज्वला केळकर
समकालीन हिंदी प्रस्थापित लेखकांमध्ये डॉ कमल चोपडा हे एक महत्वाचं नाव. त्यांच्या हिंदीतील निवडक लघुत्तम कथांचा अनुवाद संवेदना या नावाने श्रीमती उज्ज्वला केळकर यांनी केला आहे..
आपल्या सभोवतालचं जीवन त्यातील सहजता, गंभीरता, तर कधी कधी भयावहताही ते सहजतेने पाहतात व अनुभवतात. तसेच आपल्या भोवती घडणारे घटना- प्रसंग, ते घडवणा-या विविध व्यक्ती, त्यांचे विचार, विकार, वर्तमानात जाणवणारी सुसंगती- विसंगती, स्वार्थ, त्याग, सांमजस्य ताठरता यांचे ते सूक्ष्म निरीक्षण करतात.
श्रीमती उज्ज्वला केळकर
या त्यांच्या पुस्तकातील कथांत लक्षणीय विविधता आहे. कौटुंबिक नातेसंबंध, सामाजिक व्यवहार, सांप्रदायिक दंगे, राजकारण अशा विविध क्षेत्रांतील अनेक पैलू या कथांमध्ये आहेत. कौटुंबिक नात्यातील अनेक प्रकारचे भावबंध त्यांनी उलगडलेले आहेत. मुलं, त्यांचे आई-वडील भावंड, सासवा- सूना या नात्यातील आत्मियता, प्रेम, जिव्हाळा त्यांच्यातील ताण-तणाव त्यातून प्रगट झालेले भाव- भावनांचे कल्लोळ या सा-याला चिटकून राहिलेले दारिद्रयाचे अस्तर त्यातूनच झरणारी आत्मीयतेची माणुसकीची जाण हे सर्व या कथांमधून प्रगट होते.
सासू-सुनेचे संबंध तर जगजाहीर… पण इथे मुलगा आणि सून यांच्यातील बेबनाव दूर करणारी सासू आहे. “ओठांत उमटले हसू– मूळ कथा छिपा हुआ दर्द ” या कथेत तर गावाहून सासू-सास-यांना भेटायला आल्यावर घरात फक्त मक्याचचं पीठ शिल्लक आहे बाकी काही नाही हे कळल्यावर…आम्ही फक्त तुमच्याच हातच्या मक्याच्या रोट्या खायला आलो आहोत पण त्या सोबत दूध, लोणी, तूप, साखर असं काहीही घालू नका. डाॅक्टरांनी आम्हाला खाऊ नका म्हणून सांगितलयं…असं म्हणत सासूचा आत्मसन्मान जपणारी समंजस सून आहे.
पतीचा अन्याय सहन करणारी स्त्री हे चित्र तर आपल्याला जागोजागी दिसतं. ” पती परमेश्वर–मूळ कथा- पालतू ” या कथेत तर दुस-या बाईकडे जाण्यासाठी बायकोकडे पन्नास रुपये मागणा-या नव-याचे पाय सुपारी देऊन गुंडाकडून निकामी करणारी व नंतर त्याला औषधोपचार करून भाजीच्या गाडीवर बसवून त्याला कामाला लावणारी व माझा पती ” पती परमेश्वर ” असेही म्हणणारी विरळा बायको भेटते…. दारूडा नवरा मेल्यानंतर आठ दहा वर्षांचा मुलाला सोडून दुसरा घरोबा करणा-या आईचं दुःख समजून घेणारा..आपल्याला सोडून गेल्यावरही आपल्यात कटुता येऊ न देणारा ” असेल तिथे सुखी असो– मुळ कथा– जहाँ रहे सुखी रहे ” अशी इच्छा बाळगणारा मुलगाही येथे आपल्याला भेटतो..
सांप्रदायिक दंग्याच्या पार्श्वभूमीवरच्या अनेक कथांही यात आहेत. पण प्रत्येक कथेचा रंग वेगळा सांगण वेगळ…” विष-बिज ” मूळ कथा विष-बिज मधील म्हातारी म्हणते लूटमार, आगं लावणं यामुळे तुमच्या धर्माची प्रतिष्ठा कशी वाढेल? उलट अशा प्रत्येक घटनेतून तुमच्या शत्रूंची संख्याच वाढत जाईल आणि मग ही आग तुमच्या घरापर्यंत, तुमच्या मुलांबाळांपर्यंत पोचेल….
तर “तपास–मूळ कथा- शिनाख्त ” या कथेत पोलिसांची कुत्री त्या भागातला एक कुख्यात गुंड एक आमदार एक गुन्हेगार यांच्यापर्यंत पोचतात. इन्स्पेक्टर आझाद आपल्या अधिका-याला अहवाल सादर करतो. खरे गुन्हेगार कोण? हे कळल्यावर तो अधिकारी म्हणतो तुला ‘ तपास ‘ नाही ‘ तपासाच नाटक ‘ करायला सांगितलं होतं. त्यावर इन्स्पेक्टर म्हणतो माझा तपास पूर्ण झालाच नव्हता. चौथ्या गुन्हेगारापर्यंत मी पोचलोच नव्हतो. चौथा गुन्हेगार पोलिस म्हणजे आपण..
आजारी मुलाच्या औषधपाण्यासाठी पैसे हवे असलेला एक सामान्य माणूस..पैशासाठी बस मध्ये बाँम्ब ठेवायला तयार होतो. उतरता उतरता त्याला एका लहान मुलाचं रडणं ऐकू येतं. त्याला ते आपल्याच मुलाचं वाटतं व तो बस मध्ये बाँम्ब आहे हे सगळ्यांना सांगून खाली उतरायला लावतो. लहान मुलाचे रडण्या- हसण्याचे आवाज आपल्याच मुलासारखे कसे वाटतात? मग ते कुठल्या का धर्माचे असेनात…कथा– ‘धर्म– मूळ कथा– धरम ‘
‘सफरचंद– मूळ कथा– फल’ व ” पैसा आणि परमेश्वर — मूळ कथा–पैसा और भगवान ” या कथांत तर मुलांचे मन, त्यांना पडणारे गमतीदार प्रश्न मांडले आहेत. ” पैसा व परमेश्वर ” या कथेत तर देवाला पैसे टाकताना पाहून ‘ देव भिकारी आहे का? ‘ त्याला पैसे टाकून त्याच्याकडे भिका-यासारखं काही का मागतात? त्याला जर पैसे हवे असतील तर तो आपल्या जादूने पैशाचा ढिग निर्माण करणार नाही का? असं विचारणारा व विचार करायला लावणारा निरागस पिंकू इथे आहे…
अशा अनेकविध कथांतून सांप्रदायिक कट्टरतेच्या दरम्यान सद्भभावना आणि मानवी मूल्यांच्या जपणुकीचा आशय अतिशय सुंदररित्या मांडलाय..विविध पातळ्यांवर विविध अंगाने होणा-या शोषणाचे अनेक रूपरंग त्यांच्या या कथांतून प्रगट झाले आहेत..
डाॅ. कमल चोपडा यांच्या कथा जीवनातील, लोक व्यवहारातील, आचार-विचारातील विसंगतीवर नेमकं बोट ठेवते व मोजक्याच शब्दांतून त्यांचं मार्मिक दर्शनही घडवतं..
श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव जी को उनकी नई पुस्तक “समस्या का पंजीकरण व अन्य व्यंग्य” के प्रकाशन के ई- अभिव्यक्ति परिवार की ओर से हार्दिक बधाई। यह नई पुस्तक चर्चा में है, और चर्चाकार हैं व्यंग्य जगत की सुप्रसिद्ध हस्तियां। प्रस्तुत हैं प्रसिद्ध व्यंग्यकारों के बेबाक विचार –
☆ पुस्तक चर्चा ☆ समस्या का पंजीकरण व अन्य व्यंग्य – पुस्तक चर्चा में ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ☆
1 सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार श्री मुकेश राठौर लिखते हैं
इधर जो मैंने पढ़ा क्रम में आज प्रस्तुत संस्कारधानी जबलपुर के ख्यात व्यंग्यकार श्री विवेक रंजन जी श्रीवास्तव के सद्य:प्रकाशित व्यंग्य संग्रह समस्या का पंजीकरण व अन्य व्यंग्य को आज पढ़ने का अवसर मिला। जैसा कि भूमिका में ही पद्मश्री व्यंग्यकार आदरणीय डॉ ज्ञान चतुर्वेदी जी ने बताया कि श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव जी पेशे से इलेक्ट्रिकल इंजीनियर है। विज्ञान, तकनीकी का छात्र किसी भी विषय पर सुव्यवस्थित, सुसंगठित और क्रमबद्ध तरीके से अपनी बात रखता है। प्रस्तुत संग्रह में यह तथ्य उभरकर आया है। सीमित आकार की रचनाओं में विवेक जी ने सुव्यवस्थित रूप से अपना बात रखी है। संग्रह की प्रथम दो शुभारंभ रचनाओं – मास्क का घूंघट, हैंडवाश की मेहंदी के साथ मेड की वापसी और जाहि विधि राखे राम ताहि विधि रहियो, रोचक शीर्षकों के साथ पति-पत्नी और घरेलू खींचतान को हल्के से प्लेट कर विकेट पर जमते दिखे हैं। तीसरी रचना ‘शर्म तुम जहां कहीं भी हो लौट आओ’ से मानो खुल गए। कहीं शर्म मिले तो इत्तला कीजियेगा! बेशर्म पीढ़ी के मुंह पर ज़ोरदार तमाचा है। फॉर्मेट करना पड़ेगा वायरस वाला 2020, सहित विभिन्न रचनाएं कोरोना त्रासदी की उपज है, जिसमें बदली जीवनशैली पर व्यंग्यकार ने अपना दृष्टिकोण स्प्ष्ट किया है। भगवान सत्यनारायण कथा के पैटर्न पर बुनी गई चुनावकथा के पांचों अध्याय रोचक हैं। संग्रह की शीर्षक रचना ‘समस्या का पंजीकरण‘ सरकारों द्वारा जनता की समस्याओं के थोकबंद निदान के लिए लगाए जाने वाले शिविर और मौसमी एकल खिड़की खोलने जैसे लोक लुभावन चोचलों की ग्राउंड रिपोर्ट है।
संग्रह की सभी 33 रचनायें पठनीय है। व्यंग्यकार ने बोलचाल के शब्दों के बीच उर्दू और अंग्रेजी भाषा के तकनीकी शब्दों को खूबसूरती से प्रयोग किया है। भाषा सरल, प्रवाहमान है जो पाठक को बहाते लिए जाती है। रचनाओं में यत्र-तत्र तर्कपूर्ण ‘पंच’ देखे जा सकते हैं। रचनाओं के शीर्षक बरबस ध्यान खींचते हैं यथा- ‘बगदादी की मौत का अंडरवियर कन्फर्मेशन’, मास्क का घूंघट..आदि। विवेकजी ने अपनी रचनाओं में पति, पत्नी और वो से लेकर पथभ्रष्ट युवा पीढ़ी, पाश्चात्य संस्कृति के अनुरागी, कामचोर बाबू, भ्रष्ट नेता और सरकार की नीतियों को भी लपेटा है। आंकड़ेबाजी, नया भारत सरीखी रचनाएं सरकार के न्यू इंडिया, स्मार्ट इंडिया की पोल खोलती है । जब व्यंग्यकार कहता है कि नाम के साथ ‘नया’ उपसर्ग लगा देने से सब कुछ नया-नया सा हो जाता है। वहीं ख़ास पहचान थी, गाड़ी की लाल बत्ती रचना में लेखक ने लाल बत्ती के शौकीन बत्तीबाजों को धांसू पंच दे मारा यह कहकर कि- जिस तरह मंदिर पर फहराती लाल ध्वजा देखकर भक्तों को मां का आशीष मिल जाता है, उसी तरह सायरन बजाती लाल बत्ती वाली गाड़ियों का काफ़िला देखकर जनता की जान में जान आ जाती है।
विभिन्न विषयों पर लिखे गए व्यंग्यलेखों से सजी यह पुस्तक पाठकों को ज़रूर पसन्द आएगी। एक कमी यह ख़ली की संग्रह का नाम केवल समस्या का पंजीकरण होना था । दूजी कमी यह कि कोरोना को केंद्र में रखकर लिखी गई रचनाओं की अधिकता सी है। हालांकि वे सभी एक न होकर अलग दृष्टिकोण से लिखी गई हैं। एक अच्छा व्यंग्य संग्रह पाठकों को उपलब्ध करवाने हेतु श्री श्रीवास्तव जी को बधाई।
2 वरिष्ठ व्यंग्यकारश्री शशांक दुबे जी लिखते हैं
विज्ञान के विद्यार्थी होने के कारण विवेकजी के पास चीजों को सूक्ष्मतापूर्वक देखने की दृष्टि भी है और बगैर लाग-लपेट के अपनी बात कहने की शैली भी। विवेकजी के इस संकलन की अधिकांश रचनाएँ नई हैं, कुछ तो कोरोना काल की भी हैं। संकलन की शीर्ष रचना ‘समस्या का पंजीकरण’ संवेदनाहीन व्यवस्था में आम आदमी की दुर्दशा पर बहुत अच्छा प्रहार करती है। ‘बसंत और बसंती’ में उन्होंने स्त्री के पंख फैलते ही पोंगापंथियों द्वारा त्यौरियां चढ़ा लेने की मानसिकता पर सांकेतिक तंज कसा है। आज यह संकलन हाथ में आया है। इसे पूरा पढ़ना निश्चित ही दिलचस्प अनुभव होगा। विवेक भाई को बहुत बधाई और शुभकामनाएँ।
3 उज्जैन से व्यंग्यकर्मी श्री हरीशकुमार सिंह का कहना है कि
प्रख्यात व्यंग्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव का नया व्यंग्य संकलन हाल ही में प्रकाशित हुआ है ‘समस्या का पंजीकरण व अन्य व्यंग्य’। इसे इंडिया नेटबुक्स ने प्रकाशित किया है। संकलन नया इसलिए भी है कि इसमें व्यंग्य के बिषयों में समकालीनता का बोध है और कुल 35 व्यंग्य में से कई व्यंग्यों में कोरोना काल और लॉकडाउन से उपजी सामाजिक विसंगतियों, कोरोना का भय और उतपन्न अन्य विषमताओं को व्यंग्य में बखूबी उकेरा गया है। लॉक डाउन में पहले काम वाली बाइयों को छुट्टी पर सहर्ष भेज देना और फिर घर के कामों में खपने पर, मेड की याद आने को लेकर, पूरे देश की महिलाओं का मान लेखक ने रखा। व्यंग्य ‘शर्म तुम जहाँ कहीं भी हो लौट आओ’ रंजन जी के श्रेष्ठ व्यंग्यों में से एक है क्योंकि शर्म किसी को आती नहीं, घर से लेकर संसद तक और इसलिए शर्म की गुमशुदगी की रपट वो थाने में लिखाना चाहते हैं। सत्यनारायण जी की कथा के समान उनका व्यंग्य है अथ श्री चुनाव कथा, जिसमें पांच अध्यायों में चुनाव के पंच प्रपंच की रोचक कथा है। व्यंग्य ‘किंकर्तव्यविमूढ़ अर्जुन’ में आज के भारत के आम आदमी की व्यथा है कि उसे राजनीति ने सिर्फ दाल रोटी में उलझा दिया है और विचार करने का नहीं। संग्रह के व्यंग्य में लगभग सभी विषयों पर कटाक्ष है।एक सौ सात पृष्ठ के इस व्यंग्य संग्रह के अधिकांश व्यंग्य रोचक हैं और लगभग समाज में घट रही घटनाओं पर लेखक की सूक्ष्म दृष्टि अपने लिए विषय खोज लेती है।
विवेक जी भारी भरकम व्यंग्यकार हैं क्योंकि संकलन की भूमिका ज्ञान चतुर्वेदी जी, बी एल आच्छा जी और फ्लैप पर आदरणीय प्रेम जनमेजय जी, आलोक पुराणिक जी और गिरीश पंकज जी की सम्मतियाँ हैं।
(इसके पहले इतनी भूमिकाओं से भोपाल के व्यंग्यकार बिजी श्रीवास्तव का संग्रह इत्ती सी बात लबरेज था। खैर यह तो मजाक की बात हुई । अलबत्ता कई व्यंग्यकार एक भूमिका के लिए तरस जाते हैं।)
बहरहाल यह विवेक जी की स्वीकार्यता और लोकप्रियता का भी प्रमाण है। बधाइयाँ।
4 बहुचर्चित व्यंग्य शिल्पी लालित्य ललित की लेखनी से
विवेक रंजन श्रीवास्तव बेहतरीन व्यंग्यकार है इसलिए नहीं कह रहा कि यह व्यंग्य संग्रह मुझे समर्पित किया गया है।अपितु कहना चाहूंगा कि व्यंग्य तो व्यंग्य वे कविता में भी सम्वेदनशील है जितने प्रहारक व्यंग्य में।एक साथ दो विधाओं में सक्रिय है,यह सोच कर देख कर अत्यंत प्रसन्नता होती है।शुभकामनाएं
5 व्यंग्य अड्डा के संचालक लखनऊ के श्री परवेश जैन के विचार
परसाई जी की नगरी के श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव जी की रचनाओं में परसाई की पारसाई झलकती हैंl व्यंग्य संग्रह पुस्तक समस्या का पंजीकरण व अन्य व्यंग्य में 33 व्यंग्य सम्माहित हैं, प्रत्येक व्यंग्य में गहन चिन्तन के पश्च्यात विषय का सावधानी से चयन किया गया हैं l पठनीयता के गुणों की झलक स्वतः साहित्यिक परिवेश से धरोहर स्वरुप प्राप्त हुये हैं l व्यंग्यकार विवेक को फ्रंट कवर पर लिखवा लेना चाहिए “चैलेंज पूरी पढ़ने से रोक नहीं सकोगें” l
अथ चुनाव कथा में पांच अध्यायों का वर्णन में नये प्रयोग दिखलायी देते हैं l
एक शिकायत पुस्तक की कीमत को लेकर हैं 110 पन्नो को समाहित पुस्तक की कीमत 200 रूपए पेपर बैक और 300 रूपए हार्ड बाउंड की हैं जो पाठकीय दृष्टिकोण से अधिक हैं l
6 सुप्रसिद्ध वरिष्ठ व्यंग्ययात्री आदरणीय प्रेम जनमेजय जी के आशीर्वाद
अपने आरंभिक काल से व्यंग्य के लक्ष्य सामयिक विषय रहे हैं। अपने समय की विसंगतियों का बयान कर उनपर प्रहार करना, गलत नहीं है। व्यंग्य की प्रकृति प्रहार की है तो व्यंग्यकार वही करेगा। विभिन्न विधाओं के रचनाकार भी अपने समय का बयान करते हैं पर अलग तरह से। मिथक प्रयोग द्वारा रचना संसार निर्मित करने वाले रचनाकार तो पुराकथाओं की आज के संदर्भ में व्याख्या /विश्लेष्णा आदि करते हैं।समस्या वहां आती है जब आज के समय का कथ्य समाचार मात्र बन जाता है,रचना नहीं।
विवेकरंजन श्रीवास्तव की कुछ रचनाओं के आधार पर कह सकता हूँ कि इस विषय मे वे सावधान हैं। वे रचना को ताकत देने के लिए गांधी नेहरू के नामों, ऐतिहासिक घटनाओं आदि के संदर्भ लाते हैं। वे भरत द्वारा राम की पादुका से प्रशासित राज्य को आज उपस्थित इस मानसिकता के कारण उपजी सामयिक विसंगतियों पर प्रहार करने के लिए प्रतीक के रूप में प्रयोग करते हैं।
वे अपने कहन को पात्रों और कथा के माध्यम से अभिव्यक्त करने में विश्वास करते हैं जिसके कारण कई बार लगता है कि उनकी रचना व्यंग्य धर्म का पालन नही कर रही है। उन्हें तो अभी बहुत लिखना है। मेरी शुभकामनाएं। -प्रेम जनमेजय
7 श्री राकेश सोहम जबलपुर से कहते हैं
ख्यात व्यंग्यकार आदरणीय विवेक रंजन के व्यंग्य संग्रह ‘समस्या का पंजीकरण’ पढ़ा. आज से कुछ दिन पूर्व जब उनका यह संग्रह प्रकाशित होकर आया था तब उन्होंने कहा था कि प्रतियां आने दो आपको भी एक प्रति दूंगा. मैं कोरोना में उलझ गया और वे सतत साहित्य सेवा में लगे रहे. उनकी सक्रियता व्हाट्स एप्प के समूहोंसे मिलती रही. आज उनका यह संग्रह ’21 वीं सदी के व्यंग्यकार’ समूह के माध्यम से पढ़ने को मिला तो मन हर्ष से भर गया. आदरणीय ज्ञान चतुर्वेदी जी द्वारा लिखी गयी भूमिका उनके संग्रह का आइना है. उनके संग्रह में पढ़ी गयी रचनाओं में उतरने से पता चलता है कि उनकी दृष्टी कितनी व्यापक है. एक इंजीनियर होने के नाते तकनीकी जानकारी तो है ही. अपनी पारखी दृष्टी और तकनीकी ज्ञान को बुनने का कौशल उन्हें व्यंग्य के क्षेत्र में अलग स्थान प्रदान करता है. मैंने शुरू के कुछ व्यंग्य पढ़े फिर किताब के अंतिम व्यंग्य से शुरू किया. शुरू के व्यंग्यों में एकरूपता है. वे परिवार से उपजते हैं और विषमताओं पर चोट करते चलते हैं. …आंकड़े बोल्राहे हैं … तो मानना ही पड़ेगा [आंकड़ेबाजी]. ..सफ़ेद को काला बनाने में इन टेक्स को याद किया जाता रहेगा [जी एस टी ] जैसे गहरे पंच व्यंग्यों को मारक बना गए हैं. अपने व्यंग्य में चिंतन की गहराई [दुनिया भर में विवाह में मांग में लाल सिन्दूर भरने का रिवाज़ केवल हमारी ही संस्कृति में है, शायद इसलिए की लाल सिन्दूर से भरी मांग वाली लड़की में किसी की कुलवधू होने की गरिमा आ जाती है .. ‘ख़ास बनने की पहचान थी गाडी की लाल बत्ती’] पिरोते हैं. कुल मिलाकर उनके व्यंग्य बड़ी नजाकत से विसंगतियों को उठाते और फिर चोट करते हैं जिससे पाठक उनकी किताब के व्यंग्य दर व्यंग्य पढता जाता है. इस संग्रह की हार्दिक बधाई. @ राकेश सोहम्
8 जबलपुर से वरिष्ठ व्यंग्य धारासमूह के संचालक श्री रमेश सैनी जी के विचार
विवेकरंजन जी नया संग्रह”समस्या का पंजीकरण और अन्य व्यंग्य” दृष्टि सम्पन्न संग्रह है जिसमें समाज और वर्तमान समय में कोरोना से व्याप्त विसंगतियों पर प्रहार किया गया है.लेखक की नजर मात्र विसंगतियों पर नहीं वरन मानवीय प्रवृत्तियों पर गई है जो कहीं न कहीं पाठक को सजग करती हैं.”शर्म!तुम जहाँ हो लौट आओ”.वर्तमान समाज में आचरण संबंधी इस विकृति ने सामाजिक जीवन में काफी कुछ अराजकता फैलाई है.उस पर अनेक बिंदुओं पर पाठक का ध्यान आकर्षित किया है. समाज के अनेक लोगों पर बात की है. जोकि सोचनीय और चिंतनीय है.यहां पर लेखक नाम के जीव को बक्श दिया है. यह देखा जा रहा है कि व्यंग्यकार भी आज विसंगतियों का पात्र बन गया है और उन पर काफी कुछ लिखा जा रहा है. इसी तरह कारोना का रोना अच्छी रचना है.इंडिया नेटबुक्स से प्रकाशित यह संग्रह पठनीय और संग्रहणीय है. विवेकरंजन जी कवि, कहानीकार और व्यंग्यकार तीनों की भूमिका में है. पर संग्रह में व्यंग्य के अन्याय नहीं होने दिया. बधाई
9 मुम्बई की युवा व्यंग्य लेखिका अलका अग्रवाल सिगतिया लिखती हैं
पहले तो फ्लैप, भूमिका, यह सब ही बड़े कद के हैं। जन्मेजय सर, सूर्यबाला जी, ज्ञान चतुर्वेदी जी, आलोक पुराणिक जी, बी एल आच्छा जी।
33 व्यंग्य शीर्षक बांध लेने वाले।
अभी शीर्षक रचना, समस्या का पंजीकरण पढ़ी, शर्म तुम जहाँ कहीं भी लौट आओ पढ़ीं। विवेक जी के भीतर विचार बहुत परिपक्वता से रूप लेता है, प्रस्तुति भी संतुलित और प्रभावी।
शीर्षक आकर्षक हैं।
10 विद्वान समीक्षक प्रभाशंकर उपाध्याय जी की टीप
संग्रह में 33 व्यंग्य संकलित हैं, जिनमें से नौ में कोरोना उपस्थित है। यह एकरसता की प्रतीति कराता है। यहां सवाल यह है कि कुछ वर्षों बाद जब कोविड-19 की स्मृति धूमिल हो जाएगी तो इस संकलन की प्रासंगिकता क्या होगी? मेरा मानना है कि आपने संग्रह निकालने में जल्दबाजी दिखाई है और इसमें अखबारों में लिखे स्तंभों में प्रकाशित व्यंग्य आलेखों को समाहित किया है। भूमिका लेखक और टिप्पणीकार कदाचित इसी वजह से रचनागत बातें करने से बचे हैं। आप गंभीर रचनाकार हैं। बहुत अच्छा लिख रहे हैं अतः मैं विनम्रतापूर्वक एक सुझाव देना चाहता हूं कि अखबारों के लिए लिखते समय, पहले रचना को शब्द सीमा से मुक्त होकर लिखना चाहिए। उस मूल रूप को अलग से सुरक्षित रखें और उसके बाद शब्द सीमा के अनुरूप संशोधित कर समाचार पत्रों-पत्रिकाओं में भेज दें। मैं ऐसा ही करता हूं।
आपकी तीन चार रचनाओं को ध्यानपूर्वक पढ पाया हूं। समस्या का पंजीकरण, शर्म! तुम जहां कहीं भी… और चुनाव कथा अच्छी रचनाएं हैं। ‘फार्मेट करना पड़ेगा..’ की बानगी अलग है। बात जो अखरी- ‘नैसर्गिक मानवीय’ के स्थान पर ‘मानव का नैसर्गिक गुण’ लिखा जाना अधिक उपयुक्त होता। इसी प्रकार ‘कुत्ते तितलियों के पर नोंचने..’ वाली पंक्ति मुझे जमी नहीं।
उम्मीद है, मेरी स्पष्टवादिता को अन्यथा नहीं लेंगे।
11 श्री भारत चंदानी जी के विचार
समस्या का पंजीकरण एवं अन्य व्यंग्य की कुछ रचनाएं पढ़ पाया। परसाईं जी की नगरी से आने वाले विवेक रंजन श्रीवास्तव जी एक मंजे हुए व्यंग्यकार हैं।
संग्रह की ज़्यादातर रचनाएं कोरोनकाल और लॉक डाऊन पीरियड की हैं जिनके माध्यम से विवेक जी ने सभी को घेरा है और ऐसा लगता है कि लॉक डाऊन में मिले समय का भरपूर सदुपयोग किया है।
समस्या का पंजीकरण एक सशक्त व्यंग्य रचना है। विवेक जी को बधाई एवं आगे आने वाले रचनाकर्म के लिए शुभकामनाएं।
12 श्री टीकाराम साहू, व्यंग्यकार लिखते हैं
विवेक रंजन श्रीवास्तव जी के व्यंग्यसंग्रह ‘समस्या का पंजीकरण और अन्य व्यंग्य’ के कुछेक व्यंग्यों को पढ़ा और कुछ पर दृष्टिपात किया। इस संग्रह के व्यंग्यों की सबसे बड़ी विशेषता है- रोचकता और धाराप्रवाह। संग्रह का दूसरा व्यंग्य ‘जाहि विधि राखे राम ताहि विधि रहिए’ की पंक्तियां हैं- ‘थानेदार मार-पीट कर अपराधी को स्वीकारोक्ति के लिए मजबूर करता रहता है। जैसे ही अपराधी स्वीकारोक्ति करता है, उसके सरकारी गवाह बनने के चांसेज शुरू हो जाते हैं’। ‘शर्म! तुम जहाँ कहीं भी हो लौट आओ’ व्यंग्य में जीवन के हर क्षेत्र में किस तरह शर्म गायब हो रही है इस पर बड़े रोचक प्रसंगों के साथ प्रस्तुत किया है। व्यंग्य में कटाक्ष है-‘क्या करू, कम से कम अखबार के खोया पाया वाले कालम में एक विज्ञापन ही दे दूँ ‘‘प्रिय शर्म! तुम जहाँ कहीं भी हो लौट आओ, तुम्हें कोई कुछ नहीं कहेगा।’’ ‘किंकर्तव्यविमूढ़ अर्जुन’ व्यंग्य में चुनाव के दौरान पोलिंग बूथ पर कृष्ण का अर्जुन को उपदेश रोचक है। गर्दन पर घुटना, जरूरी है आटा और डाटा, स्वर्ग के द्वार पर कोरोना टेस्ट अलग-अलग तेवर के व्यंग्य है। शीर्षक बड़े मजेदार है जो व्यंग्य के प्रति उत्सुकता जगाते हैं।
विनम्रतापूर्वक एक सुझाव देना चाहूंगा कि व्यंग्यसंग्रह का दूसरा संस्करण प्रकाशित करे तो पहला व्यंग्य कोई दूसरा व्यंग्य लीजिए। पठनीय व्यंग्य संग्रह के लिए श्रीवास्तवजी को हार्दिक बधाई।
और अंत मे लेखक की अपनी बात विवेक रंजन श्रीवास्तव
इससे पहले जो मेरी व्यंग्य की पुस्तके छपी राम भरोसे, कौवा कान ले गया, मेरे प्रिय व्यंग्य, धन्नो बसंती और वसंत , तब व्हाट्सएप ग्रुप नहीं थे इसलिए किंचित पत्र पत्रिकाओं में समीक्षा छपना ही पुस्तक को चर्चा में लाता था . किंतु वर्तमान समय में सोशल मीडिया से हम सब बहुत त्वरित जुड़े हुए हैं. और इसका लाभ आज मेरी व्यंग्य की इस पांचवी पुस्तक की व्हाट्सएप समूह चर्चा में स्पष्ट परिलक्षित हुआ. जो प्रबुद्ध समूह ऐसी पुस्तक का लक्ष्य पाठक होता है उस में से एक महत्वपूर्ण हिस्से तक बड़ी सहजता से दिन भर में पीडीएफ किताब पहुंच गई।
यद्यपि जिस बड़े समूह को इंगित करते हुए व्यंग्य लिखे जा रहे हैं, उन सोने का नाटक करने वालो को जगाना दुष्कर कार्य है, काश की उनके व्हाट्सएप समूह में भी अपनी पुस्तकें सर्क्युलेशन में आ सकें ।
इसी तरह सबसे सदा आत्मीयता की अपेक्षाओं के संग सदा नए व्यंग्य लेखन के साथ
आप सबका अपना
विवेक रंजन श्रीवास्तव,
जबलपुर
ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८
मो ७०००३७५७९८
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
☆ पुस्तक चर्चा – स्त्री-पुरुष – लेखक श्री सुरेश पटवा – समीक्षक – श्री गोकुल सोनी ☆
श्री सुरेश पटवा जी द्वारा लिखित पुस्तक ‘स्त्री-पुरुष’ को पढ़ते हुए वैचारिक धरातल पर जो अनुभव हुए, वैसे प्राय: अन्य कृतियों को पढ़ते समय नहीं होते. रिश्तों के दैहिक, भावनात्मक, मनोवैज्ञानिक, गूढ़ रहस्यों को धार्मिक, आध्यात्मिक, सांस्कृतिक, भौगोलिक, संरचनात्मक, परिप्रेक्ष्य में अनावृत्त कर विवेचन करती यह पुस्तक समूचे विश्व के मत-मतान्तरों को समेटते हुए सचमुच एक श्रमसाध्य अन्वेषण है. जहां श्री पटवा जी स्त्री- पुरुष के अंतर्संबंधों की गहराई में उतरते हुए कभी एक मनोवैज्ञानिक नजर आते हैं, तो कहीं इतिहासवेत्ता, कहीं भूगोलवेत्ता, तो कहीं समाजशास्त्री. पुस्तक को पढ़ते हुए लेखक की प्रतिभा के विभिन्न आयाम सामने आते हैं.
भारतवर्ष की पुरातन संस्कृति और धर्म तथा आध्यात्म का आधार वेद-पुराण, उपनिषद और अन्य धार्मिक ग्रन्थ हैं. जहाँ हमारे ऋषि-मुनियों ने मनुष्य के लिए चार पुरुषार्थ अभीष्ट बताये हैं, जो धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष हैं. इनमे ‘काम’ अर्थात सेक्स को एक सम्मानजनक स्थान दिया गया है. वहीँ सुखी मानवीय जीवन हेतु त्याज्य बुराइयों में काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह जैसे तत्वों या प्रवृत्तियों में ‘काम’ को पहला स्थान दिया गया है. काम दोनों जगह है.
प्रश्न उठता है, ऐसा क्यों? उत्तर स्पष्ट है- यदि काम का नैसर्गिक और मर्यादित रूप जीवन में हो तो समूचा जीवन संगीत बन जाता है, परन्तु काम को विकृति के रूप में अपनाने पर यह व्यक्ति के मन और मष्तिष्क पर अपना अधिकार करके उसे रसातल में पहुंचा देता है. निर्भया के अपराधियों के कृत्य और उनको फांसी, इसके जीवंत उदाहरण हैं.
काम सृष्टि का नियामक तत्व है और जीवन के प्रत्येक कार्य के मूल में पाया जाता है. यह केवल मनुष्यों में ही नहीं, पशु-पक्षियों या मनुष्येतर प्राणियों में भी आचरण और स्वभाव का मूल कारक होता है. यह एक ऐसा विषय है जिसने बड़े-बड़े ऋषि-मुनियों देवी-देवताओं, दैत्यों, विद्वानों के चिंतन को उद्वेलित किया है. धार्मिक ग्रंथों को लें तो ‘नारद मोह’ इंद्र-अहिल्या, और राजा ययाति की कथा इसके जीवंत उदाहरण हैं, वहीँ यह राजा भर्तहरी को भोग लिप्सा के वशीभूत श्रंगार शतक लिखवाता है. फिर चिंतन की गहराई में धकेलते हुए वैराग्य शतक लिखवाता है.
स्त्री-पुरुष अन्तर्संबंधों में काम तत्व इतना जटिल रूप में दृष्टिगोचर होता है कि जिसको मात्र आध्यात्मिक चिंतन से विद्वान लोग हल नहीं कर पाए. यही वजह है कि धर्म ध्वजा फहराने निकले आदि गुरु शंकराचार्य ने शास्त्रार्थ में मिथिला विद्वान मंडन मिश्र को तो हरा दिया परंतु उनकी विदुषी पत्नी भारती के काम कला संबंधी सवालों का जवाब ब्रहमचारी सन्यासी आदि शंकराचार्य नहीं दे पाए. क्योंकि एक स्त्री से हारना उनको अपमानजनक लगा अतः उन्होंने एक राजा की देह में परकाया प्रवेश कर काम कला का ज्ञान प्राप्त किया, तब जाकर भारती को हराकर उसे शिष्या बनाया. इस विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि काम एक गूढ़ विषय है.
आज से लगभग दो हजार वर्ष पूर्व ऋषि वात्सायन ने समग्र चिंतन-मनन के पश्चात काम सूत्र की रचना की. यही नहीं आधुनिक लेखकों ने नर-नारी पृष्ठभूमि पर प्रोफ़ेसर यशपाल के उपन्यास “क्यों फँसे” और “बारह घंटे” लिखा जिसमें उन्मुक्त यौनाचार, नर नारी संबंधों का विश्लेषण है, साथ में बारह घंटे में प्रेम-विवाह की नैतिकता को केंद्र में रखकर इसके स्वरुप पर विचार किया है. काम की महत्ता मात्र वैदिक धर्म में ही नहीं, वरन अन्य धर्मों में भी देखने में आती है. यदि मुस्लिम धर्म का उदाहरण देखें तो पाएंगे कि उन्हें भी प्रलोभन दिया गया है, कि यदि अल्लाह के बताए मार्ग पर चलेंगे, तो जन्नत में बहत्तर हूरें मिलेंगी. वहीँ ईसाई धर्म में तो प्रभु यीशु का कुंवारी मां के गर्भ से जन्म लेना काम का प्रभावी रूप दर्शाता है.
लेखक ने जहां भारतीय धर्म दर्शन वा साहित्य यथा- कामसूत्र, शिव पुराण, और अन्य धार्मिक ग्रंथों को पढ़ा है वहीँ कबीर, गांधी, ओशो, के साथ ही पाश्चात्य दर्शन-साहित्य जैसे फ्राइड, काल मार्क्स, अरस्तू, प्लेटो, लिविजिन व लाक, विल्हेम, वुंट, टिनेचर, फेक्नर, हेल्मोलेत्स, हैरिंग, जी ई म्युलर डेकार्ट, लायब, नीत्से, ह्यूम,हार्टले, रीड, कांडीलेक, जेम्स मिल, स्टुअर्ट मिल, बेन, कांट, हरबर्ट, बेवर, हेल्मो, डार्विन, फ्रेंचेस्को, पेट्रार्क, बर्ट्रेण्ड रसेल, जैसे कई विदेशी वैज्ञानिकों, मनोवैज्ञानिकों, समाज शास्त्रियों के सिद्धांतों का अध्ययन कर, उनके जीवन-दर्शन, चिंतन को इस पुस्तक में समाहित किया है.
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पग पग नर्मदा दर्शन के सहयात्री श्री सुरेश पटवा जी से पहली बार इस यात्रा में ही परिचय हुआ। वे मुझसे 5 साल बड़े हैं। स्टेट बैंक के सहायक महाप्रबंधक पद से रिटायर हुए हैं। हमारी पैदल नर्मदा यात्रा के सूत्र धार वे ही हैं। आपको लिखने पढ़ने का शौक है, इतिहास की सिलसिलेवार तारीख के साथ जानकारी उन्हें कंठस्थ है।वे लेखक भी हैं उनकी पहली पुस्तक “गुलामी की कहानी” में इतिहास के अनछुए किस्सों को रोचक ढंग से लिखा गया है। आपकी दूसरी पुस्तक “पचमढ़ी की खोज”जेम्स फार्सायथ का रोमांचक अभियान है, आपने तीसरी पुस्तक ” स्त्री पुरुष की उलझनें “ पति पत्नी और प्रेमियों के रिश्तों की देहिक, भावात्मक,और मनोवैज्ञानिक पहलुओं पर केन्द्रित है। श्री पटवा जी ने नर्मदा घाटी के इतिहास और यात्रा अनुभव को अपनी पुस्तक “नर्मदा” सौंदर्य, समृद्धि,और वैराग्य की नदी में लिखा है।
लेखक ने अपना एक सिद्धांत प्रतिपादित किया है, कि ईश्वर ने मंगल ग्रह के पत्थरों और कड़क मिट्टी को लेकर मजबूत हड्डियों और पुष्ट मांसपेशियों से आदमी बनाया, उसके बाद उसका दिमाग बनाकर उसमें ताकत, क्षमता, उपलब्धि और सफलता प्राप्त करने के बीज रोपित कर दिए. उसे ऐसी योग्यता का एहसास दिया, कि कठिन से कठिन परिस्थिति का हल ढूंढ सकता है. उसे इस भाव से भर दिया, कि मुश्किलों से निकलने के लिए मंगल ग्रह के जीव के अलावा किसी अन्य जीव का सहयोग वांछित नहीं और दिमाग में अजीब सी रासायनिक चीज डाली कि जवान औरत को देखकर उसे पाने हेतु उसमें तीव्र इच्छा जागृत हो. जिसे मात्रा अनुसार क्रमशः प्रेम, कामुकता, और वासना कहा गया. क्योंकि उसे सृष्टि का सृजनचक्र अनवरत जारी रखना था, इसीलिए यह सृष्टि कायम रखने के लिए उसने शुक्र ग्रह की हल्के, मुलायम, पत्थर और नरम मिट्टी से सुंदर स्त्री बनाकर उसके दिमाग में प्रेम-भावना, कमनीयता, अनुभूति, समस्या आने पर दूसरों से साझा कर, सुलझाने की प्रवृत्ति और आदमी से आठ गुना अधिक काम का अंश, दिमाग में रसायन देकर सुंदर शरीर-सौष्ठव, कामुक अंग, मन की चंचलता, परंतु ममता की भावनाओं से भर दिया. सजने-सँवरने द्वारा काम उद्दीपन और पसंद के आदमी से सृजन हेतु चयन का रुझान दिया. इतना ही नहीं, पशु पक्षियों में काम अंश की स्थापना की, ताकि सृष्टि का क्रम निर्वाध गति से चलता रहे. क्योंकि दोनों की वाह्य संरचना और आंतरिक सोच में पर्याप्त अंतर है, इसलिए आपस में समस्याएं भी उत्पन्न होती है. दोनों एक दूसरे को अपने जैसा समझ लेते हैं. अंतर भूल जाते हैं. तब एक दूसरे पर भावनात्मक शासन की प्रवृत्ति जागृत होती है. जब आपसी समस्या उत्पन्न होती है, तो आदमी चिंतन की आंतरिक गुफा में प्रवेश कर जाता है. वह अपनी समस्या को बगैर किसी से बाटें, स्वयं सुलझाना चाहता है और औरत के बार बार टोकने पर क्रोधित हो जाता है. वहीँ औरत जब समस्या अनुभव करती है, तो वह साझा करना चाहती है. वह चाहती है, कि आदमी धैर्य पूर्वक उसकी बात सुन भर ले, समस्या तो वह स्वयं हल कर लेगी. ऐसा नहीं होता, तो वह तनाव ग्रस्त होकर ऊपर से भले संयत दिखे, पर दुखी होकर अपना अस्तित्व खोने लगती है. यदि दोनों परस्पर एक दूसरे की मानसिक संरचना और शरीर में स्रावित रसों से उत्पन्न भावना चक्रों को ध्यान में रखते हुए परस्पर व्यवहार करें, तो जीवन की सारी समस्याएं स्वतः समाप्त हो जाती है.
लेखक यह भी मानता है, कि पूरे जीवन के प्रत्येक कार्य के मूल में काम होता है, जिसे उसने वात्सायन, फ्राइड, रजनीश आदि के सिद्धांत द्वारा स्पष्ट करते हुए रजनीश के उपन्यास “संभोग से समाधि की ओर” का विश्लेषण कर समझाने की चेष्टा की है. पुस्तक में औरत एवं आदमी की वाह्य अंगों की संरचना एवं आंतरिक स्वभाव की दृष्टि से कई वर्गीकरण भी किए गये हैं, तो जीवन में आने वाली विभिन्न समस्याओं और उनके समाधान के तरीके भी सुझाए गये हैं.
प्रेम के दैहिक वा मनोवैज्ञानिक रहस्य को समझने हेतु विभिन्न उदाहरण, और अंत तीन प्रेम कहानियां भी दी गई हैं, जो पुस्तक को सरल और बोधगम्य बनाती हैं. पृष्ठ ४७ से ५४ तक मनोविज्ञान के विकास का विस्तृत इतिहास पढ़ते हुए लगता है, कि लेखक जैसे अपने मूल विषय से भटक कर विषयांतर होकर उन मनोवैज्ञानिक प्रवृत्तियों का विश्लेषण करने लगा हो जो पूर्णत: स्त्री-पुरुष अंतर्संबंधों के आवश्यक कारक नहीं है तथापि पृष्ठ 62 से 66 पठनीय है जिसमें भारतीय संस्कृति और हिंदू दर्शन के बीज निहित हैं.
हमारे प्राचीन दर्शन में काम संबंधी वर्जनाएँ नहीं थी. आज के युग में काम विकृति का कारण ही यही है, कि उसे निंदनीय, गंदा, नियम विरुद्ध, त्याज्य बताकर ही बचपन से विचारों में ढाला जाता है, अतः जब नियम टूटता है तो व्यक्ति को ग्लानि भाव होने लगता है. लेखक के अनुसार यह नैसर्गिक प्रवृत्ति है और इसे सहजता पूर्वक अपनाकर मर्यादित रुप से आनंद लेने में कोई बुराई नहीं है. अंदर से प्रत्येक स्त्री-पुरुष इसे चाहते हुए ऊपर से परंपराओं के वशीभूत हो, इसकी आलोचना करते हैं, परंतु लेखक की दृष्टि में यह तथ्य भी मैं लाना चाहता हूँ कि जब कोई आदत या प्रवृत्ति बहुत सामान्य हो जाएगी तब वह निश्चित ही अपना आकर्षण खो देगी. लंबे अंतराल के पश्चात जो मिलन होता है वह कई गुना आनंद देता है. दूसरे अनावृत्त के प्रति अधिक आकर्षण होता है, पाने की चाह और आनंद होता है, अतः आंशिक वर्जनाओं का अपना अलग महत्त्व है. उसी से समाज का स्वरुप बना रहता है. यदि पुस्तक में राजा ययाति के चरित्र का चित्रण किया जाता तो विषय की व्यापकता में वृद्धि होती और यह सोने पर सोहागा सिद्ध होता। पुस्तक को पाठ्यपुस्तक की तरह लिखा गया है. वास्तव में यह पुस्तक ग्रेजुएशन के कोर्स में पढाये जाने लायक है, पुस्तक का शीर्षक एकदम सपाट “स्त्री पुरुष” है. लेखक विद्वान हैं अत: अच्छा होता कि इसका शीर्षक कलात्मक, यथा- जीवन और प्रेम, सुखद दांपत्य का रहस्य, सुखद अंतर्संबंधों का रहस्य, या सृष्टि-सृजन में प्रेम की भूमिका जैसा कलात्मक शीर्षक होता तो अधिक अच्छा लगता.
कुल मिलाकर यह पुस्तक चिंतन को नया आयाम देकर काम की विज्ञान और मनोविज्ञान सम्मत परिभाषा देते हुए स्त्री-पुरुष के बीच सौहार्द्र स्थापित करने की कुंजी है जो सुखद दाम्पत्य जीवन की नींव है. टीनेजर से लेकर सभी आयु वर्ग के पाठकों के पढ़ने योग्य है यह पुस्तक. श्री सुरेश पटवा जी को इस सुंदर सार्थक साहित्य-सृजन हेतु बधाई एवं उन्नत लेखकीय भविष्य हेतु हार्दिक मंगलकामनाएं.
समीक्षक .. श्री गोकुल सोनी (कवि, कथाकार, व्यंग्यकार)
(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है श्री बुलाकी शर्मा जी के व्यंग्य संग्रह “५ वां कबीर ” पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा । )
पुस्तक चर्चा के सम्बन्ध में श्री विवेक रंजन जी की विशेष टिपण्णी :- पठनीयता के अभाव के इस समय मे किताबें बहुत कम संख्या में छप रही हैं, जो छपती भी हैं वो महज विज़िटिंग कार्ड सी बंटती हैं । गम्भीर चर्चा नही होती है । मैं पिछले 2 बरसो से हर हफ्ते अपनी पढ़ी किताब का कंटेंट, परिचय लिखता हूं, उद्देश यही की किताब की जानकारी अधिकाधिक पाठकों तक पहुंचे जिससे जिस पाठक को रुचि हो उसकी पूरी पुस्तक पढ़ने की उत्सुकता जगे। यह चर्चा मेकलदूत अखबार, ई अभिव्यक्ति व अन्य जगह छपती भी है । जिन लेखकों को रुचि हो वे अपनी किताब मुझे भेज सकते हैं। – विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘ विनम्र’
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 40 ☆
पुस्तक –५ वां कबीर
व्यंग्यकार – श्री बुलाकी शर्मा
पृष्ठ – ११२
मूल्य – १०० रु
☆ पुस्तक चर्चा – व्यंग्य संग्रह – ५ वां कबीर – व्यंग्यकार – श्री बुलाकी शर्मा ☆
व्यंग्य यात्रा में हर सप्ताह हमें किसी नई व्यंग्य पुस्तक, किसी नये व्यंग्य लेखक को पढ़ने का सुअवसर मिलता है.. जाने माने व्यंग्यकार बुलाकी शर्मा के व्यंग्य उनके मुख से सुन चुका हूं. पढ़ने तो वे प्रायः मिल ही जाते हैं. प्रकाशन के वर्तमान परिदृश्य के सर्वथा अनुरूप ११२ पृष्ठीय ” ५ वां कबीर ” में बुलाकी जी के कोई ४० व्यंग्य संग्रहित हैं. स्पष्ट है व्यंग्य ८०० शब्दो के सीमित विस्तार में हैं. इस सीमित विस्तार में अपना मंतव्य पायक तक पहुंचाने की कला ही लेखन की सफलता होती है. वे इस कला में पारंगत हैं.
जितने भी लोग नये साल को किसी कारण से जश्न की तरह नही मना पाते वे नये साल के संकल्प जरूर लेते हैं, अपने पहले ही लेख में लेखक भी संकल्प लेते हैं, और आत्मनिर्भरता के संकल्प को पूरा करने के आशान्वित भरोसे के साथ व्यंग्य पूरा करते हैं. जरूर यह व्यंग्य जनवरी में छपा रहा होगा, तब किसे पता था कि कोरोना इस बार भी संकल्प पर तुषारापात कर डालेगा. दुख के हम साथी, फिर बापू के तीन बंदर पढ़ना आज २ अक्टूबर को बड़ा प्रासंगिक रहा, जब बापू के बंदर बापू को बता रहे थे कि वे न बुरा देखते, सुनते या बोलते हैं, तो टी वी पर हाथरस की रपट देख रहा मैं सोच रहा था कि हम तो बुरा मानते भी नहीं हैं…… पांचवे कबीर के अवतरण की सूचना पढ़ लगा अच्छा हुआ कि कबीर साहब के अनुनायियों ने यह नहीं पढ़ा, वरना बिना कबीर को समझे, बिना व्यंग्य के मर्म को समझे केवल चित्र या नाम देखकर भी इस देश में कट्टरपंथियो की भावनाओ को आहत होते देख शासन प्रशासन बहुत कुछ करने को मजबूर हो जाता है. लेकिन वह व्यंग्यकार ही क्या जो ऐसे डर से अपनी अभिव्यक्ति बदल दे. बुलाकी जी कबीर की काली कम्बलिया में लिखते हैं ” मन चंचल है किंतु बंधु आप अपने मन को संयमित करने का यत्न कीजीये. ” प्याज ऐसा विषय बन गया है जिसका वार्षिक समारोह होना चाहिये, जब जब चुनाव आयेंगे, प्याज, शक्कर, स्टील, सीमेंट कुछ न कुछ तो गुल खिलायेगा ही.उनका प्याज व्यंग्यकार से कहता है कि वह बाहर से खुश्बूदार होने का भ्रम पैदा करता है पर है बद्बूदार. अब यह हम व्यंग्यकारो पर है कि हम अंदर बाहर में कितना कैसा समन्वय कर पाते हैं.
अस्तु कवि, साहित्य, साहित्यिक संस्थायें आदि पर खूब सारे व्यंग्य लिखे हैं उन्होने, मतलब अनुभव की गठरी खोल कर रख दी है. बगावती वायरस बिन्दु रूप लिखा गया शैली की दृष्टि से नयापन लिये हुये है. डायरी के चुनिंदा पृष्ठ भी अच्छे हैं.
मेरी रेटिंग, पैसा वसूल ।
समीक्षक .. विवेक रंजन श्रीवास्तव
ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८
≈ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈