हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ “धरोहर” (कथा संग्रह) – संपादक : सुश्री रत्ना भदौरिया ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ पुस्तक चर्चा ☆ “धरोहर” (कथा संग्रह) – संपादक : सुश्री रत्ना भदौरिया ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

संपादक : रत्ना भादौरिया

कथा संग्रह : धरोहर 

प्रकाशक : वान्या पब्लिकेशंज, कानपुर

मूल्य : 700 रु पेपरबैक

पृष्ठ : 296

☆ “धरोहर : जीवन की सांध्य बेला की मार्मिक कहानियां” – कमलेश भारतीय ☆

युवा रचनाकार रत्ना भादौरिया, जो प्रसिद्ध कथाकार मन्नू भंडारी की परिचारिका के रूप में काम करते करते खुद लेखन कार्य आरम्भ कर दिया । अब रत्ना भादौरिया ने एक कहानी संग्रह संपादित किया है ‘धरोहर’ जो जीवन की सांध्य बेला से जुड़ीं 41 कहानियों का खूबसूरत संकलन है । आज जब इस पर कुछ कहने जा रहा हूँ तो संयोगवश पितृपक्ष चल रहा है । हम परंपरा के तौर पर अपने पित्तरों को याद कर रहे हैं । नवांशहर में मेरे बचपन के दोस्त बृजमोहन के पिता पंडित लोकानंद‌ इन दिनों के लिए परिवारजनों से कहा करते थे कि अरे ! जीते जी मुझे खीर पूरी, हलवा खिला लो, बाद में कौन देखेगा क्या करते हो ? सचमुच यह प्रसंग याद आया और ये इसी प्रसंग से जुड़ी कहानियो़ं का संकलन है । जीते जी तो घोर उपेक्षा मां बाप की और मृत्यु भोज पर खर्च दिखावे का ! डाॅ इंद्रनाथ मदान भी कहते थे दिखावे के लिए अखबारों में स्मृति दिवस मनायेंगे लेकिन जीते जी ? अपनी प्रतिष्ठा का यह दोगलापन ! हमारे देश में संयुक्त परिवार का चलन खत्म होता जा रहा है और एकल परिवार फल फूल‌ रहे हैं, ऐसे में वृद्धाश्रमों की व्यवस्था आ गयी है । ये सब इन 41 कहानियों की आत्मा में है । सभी कहानियों में वृद्धों की परिवार में दिन प्रतिदिन घटती अहमियत और घोर उपेक्षा को सामने आता है ! सूरज प्रकाश की कहानी ‘ये हत्या का मामला  है’ दिल दहला देने वाली कहानी है कि एक रिटायर्ड प्रिंसिपल पिता का अंत दोस्त के पास लावारिस की तरह होता है क्योंकि बेटे ने मकान बेचकर महानगर में घर लिया और फिर अचानक एक्सीडेंट में मृत्यु हो जाने पर बहू सब कुछ बेचकर मायके चली गयी ससुर को लावारिस छोड़कर ! यही है आज का सच, यही है सांध्य बेला का अंतिम सत्य ! कल्पना मनोरम की कहानी ‘आखिरी मोड़ पर’ भी याद रहने वाली मार्मिक कहानी है । कैसे एक बेटा मां को वृद्धाश्रम में छोड़कर इंग्लैंड चला गया और सुहानी उस मां को ढूंढ निकालती है और इंग्लैंड ले आती है और उसी संबंधी बेटे को बुलाती है पर मां उसके साथ जाने से इंकार कर देती है । सूरज सिंह नेगी की ‘आम की गुठली’ बहुत भावुक कर देती है । कोई चाहे तो मेरी कहानी ‘भुगतान’ भी पढ़ सकता है, जो एक वृद्ध नौकर की वह इच्छा है, जो मर कर भी अधूरी रहती है । विवेक मिश्रा की एल्बम भी दिल को छू जाती है।

पूनम मनु, सुमन केशरी,योगिता यादव, सुधांशु गुप्त, राजीव सक्सेना, अनिता रश्मि, रिंकल शर्मा, लता अग्रवाल, संतोष सुपेकर, सुधा भार्गव नीरू मित्तल, इंदु गुप्ता, नागेंद्र जगूड़ी, निर्देश निधि आदि की कहानियां भी पठनीय हैं, स्मरणीय हैं ।

रत्ना भादौरिया का श्रम सार्थक है और चयन बहुत खूबसूरत । इस युवा रचनाकार को ढेर सारी शुभकामनाएं । संग्रह पठनीय और सहेज कर रखने लायक है ।

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆ संजय दृष्टि – एकलव्य (खण्डकाव्य)– कवि- मेजर सरजूप्रसाद ‘गयावाला’ ☆ समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

? संजय दृष्टि –  समीक्षा का शुक्रवार # 14 ?

? एकलव्य (खण्डकाव्य)– कवि- मेजर सरजूप्रसाद ‘गयावाला’ ?  समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ?

पुस्तक का नाम- एकलव्य

विधा- खण्डकाव्य

कवि- मेजर सरजूप्रसाद ‘गयावाला’

प्रकाशन- क्षितिज प्रकाशन, पुणे

? पारंपरिक पर युगधर्मी रचना  श्री संजय भारद्वाज ?

इतिहास और पुराण एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। दिखने में एक जैसे पर दोनों के बीच स्पष्ट अतंर-रेखा है। इतिहास, अतीत में घट चुकी घटनाओं को प्रमाणित दस्तावेज़ो के रूप में सुरक्षित रखने का माध्यम है। दस्तावेज़ों में लेशमात्र परिवर्तन भी कठिन होता है। इसके विरुद्ध पुराण दस्तावेज़ों में विश्वास नहीं करता। फलत: इतिहास ठहरा रहता है जबकि पुराण सार्वकालिक हो जाता है।

संभावनाओं की चरम परिणिति है पुराण। यही कारण है कि पौराणिक आख्यानों की मीमांसा मनुष्य युगानुरूप करते आया है। इतिहास का ढाँचा प्रमाणों के चलते तयशुदा है, पुराण का ‘स्केलेटन’ व्यक्ति अपनी वैचारिकता और कल्पना के आधार पर बदलता रहता है।

मेजर सरजूप्रसाद ‘गयावाला’ का खण्डकाव्य ‘एकलव्य’ स्केलेटन का ताज़ा परिवर्तित रूप है। इसमें समकालीन जीवनमूल्यों के आधार पर एकलव्य कथा की मीमांसा की गई है।काव्यशास्त्र में दी गई कल्पना की छूट के आधार पर प्रचलित तथ्यों से छेड़छाड़ किये बिना गुरु द्रोणाचार्य का बचाव भी किया गया है।

परंपरा और विधा के शिल्प के अनुरूप अनेक चिंतन सूत्र इस खण्डकाव्य में दिखते हैं। जाति व्यवस्था की तार्किक मीमांसा करते हुए कवि लिखता है-

वंश कुल नहीं जाति कहाती, जाति उसका गुण है।

विष की जाति पाप, पीयूष की जाति पुण्य है।

विवेकहीन विद्या भस्मासुर को जन्म देती है। भारतीय संस्कृति का ये उद्घोष कुछ यों शब्द पाता है-

विद्या विवेक बिन आएगी।

जग में अशान्ति फैलाएगी।  

इसी क्रम में जन संहारक आविष्कार की भी निंदा की गई है।

अनुशासन इस रचना की प्राणवायु है। कवि की सैनिक पृष्ठभूमि ने इस विचार के विस्तार में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। कवि अनुशासन को जीवन का आभूषण मानता है-

अनुशासन जीवन का भूषण।

अनुशासन जीवन का पोषण।

प्रकृति अनुशासन से बंधी हुई है। सूर्योदय से पुन: सूर्योदय तक के प्राकृतिक किया-कलाप इसके साक्षी हैं-  

प्रकृति भी बँधी अनुशासन में, अपवाद बहुत कम होता है।

दिवस में जन्तु रत रहता, रजनी में कैसे सोता है।

अनुशासन केवल प्रजा पर नहीं, राजा पर भी समान रूप से लागू होता है। दोनों को अपनी-अपनी सीमा में रहने की सलाह दी गई है-

राजा-प्रजा अनुशासित हों।

सीमा के अन्दर भाषित हों।

असमंजम की स्थिति में गुरु द्रोण द्वारा अपने मन के गुरु से संवाद अर्थात् स्वसंवाद का प्रसंग है। यह प्रसंग ‘अहं ब्रह्यास्मि’ के सत्य को गहराई से रेखांकित करने का प्रयास करता है।

अपनी विचारधारा और कल्पना के तरकश में रखे तर्क के तीरों की सहायता से कवि ने द्रोणाचार्य को महिमा मण्डित किया है। एकलव्य का अंगूठा कटवाने को भी न्यायोचित ठहराया है। ये तार्किकता पाठक के लिए अदरक के समान है जो किसी के लिए पाचक है तो किसी के लिए वायु का कारक। निर्णय अपनी प्रकृति अनुरूप पाठक को स्वयं करना है।

खण्डकाव्य गुरु की महिमा के गान से ओतप्रोत है। वंदना के सर्ग में माँ को भी विशेष मान दिया गया है। नायक एकलव्य का वर्णन कुछ स्थानों पर खण्डकाव्य के पारंपरिक शिल्प के चलते अतिरंजना का शिकार हुआ है।

प्रशंसनीय है कि एकलव्य के सामाजिक परिवेश का वर्णन करते हुए कवि ने संथाली रीति-रिवाज़ों  का ध्यान रखा है। तथापि इनके वर्णन में आदिवासी और शहरी समाज के रिवाज़ों का मेल परिलक्षित होता है।

कवि की भाषा में प्रवाह है, आँचालिकता है, परंपरा का बोध है, नवीनता का शोध है। उसकी अपनी विचारधारा है, अपने तर्क हैं अपनी शैली है। इन सबके बल पर कवि अपनी बात प्रभावी ढंग से कहने में सफल रहा है।

‘जितना छोटा होगा, उतना अधिक पढ़ा जाएगा’ के आधुनिक जीवनमूल्यों के अनुरूप ये रचना लिखी गई प्रतीत होती है। इसलिए ‘एकलव्य’ परंपरा का निर्वाह करता युगधर्मी लघु खण्डकाव्य कहा जाएगा। 

© संजय भारद्वाज  

नाटककार-निर्देशक

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 170 ☆ “मैं खोजा मैं पाइयां” (निबंध संग्रह) – लेखक … श्री सुरेश पटवा ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हमप्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’  जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है आपके द्वारा श्री सुरेश पटवा जी द्वारा लिखित निबंध संग्रह “मैं खोजा मैं पाइयां…पर चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 170 ☆

☆ “मैं खोजा मैं पाइयां” (निबंध संग्रह) – लेखक … श्री सुरेश पटवा ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

पुस्तक चर्चा

पुस्तक …. मैं खोजा मैं पाइयां

निबंध संग्रह … सुरेश पटवा

प्रकाशक … आईसेक्ट पब्लिकेशन, भोपाल

पृष्ठ ..१३६, मूल्य २६० रु

चर्चाकार …विवेक रंजन श्रीवास्तव

श्री सुरेश पटवा 

“आनंद राहत देता है और मजा तनाव”,

” जिनके पास आँख और कान हैं वे भी अंधे और बहरे हैं “,

“इस जगत में हमारे लिये वही सत्य सार्थक है, जिसे स्वीकार कर भोग लेने की हममें योग्यता हो “

… इसी किताब में श्री सुरेश पटवा

ऊपर उधृत वाक्यांशो जैसे दार्शनिक, शाश्वत तथ्यों से इंटरनेट पर रजनीश साहित्य, बाबा जी के यूट्यूब चैनल, विकिपीडीया आदि में प्रचुर सामग्री सुलभ है, पर आजकल अपने मस्तिष्क में रखने की प्रवृत्ति हमसे छूटती जा रही है। पटवा जी एक अध्येता हैं, उनके संदर्भ विशद हैं और वे विषयानुकूल सामग्री ढ़ूंढ़ कर अपने पाठकों को रोचक पठनीय मटेरियल देने की कला में माहिर हैं। पटवा जी न केवल बहुविध रचना कर्मी हैं, वरन वे विविध विषयों पर पुस्तक रूप में सतत प्रकाशित लेखक भी हैं। साहित्यिक आयोजनो में उनकी निरंतर भागीदारी रहती ही है। कबीर के दोहे ” जिन खोजा तिन पाइयां शीर्षक से किंडल पर ओशो की एक पूरी किताब ही सुलभ है। इसी का अवलंब लेकर इस किताब में संग्रहित नौ लेखों का संयुक्त शीर्षक “मैं खोजा मैं पाइयां” रखा गया है। शीर्षक ही किताब का गेटवे होता है, जो पाठक का प्रथम आकर्षण बनता है।

मैं खोजा मैं पाइयां में “मैं की यात्रा का पथिक”, हिन्दी भाषा की उत्पत्ति और विकास, आजाद भारत में हिन्दी, “राष्ट्रभाषा, राजभाषा, संपर्क भाषा “, देवनागरी उत्पत्ति और विकास, खड़ी बोली की यात्रा, हिन्दी उर्दू का बहनौता, भारतीय ज्ञान परम्परा में पावस ॠतु वर्णन, तथा ” हिन्दी साहित्य में गुलमोहर ” शीर्षकों से कुल नौ लेख संग्रहित हैं।

किताब आईसेक्ट पब्लीकेशन भोपाल से त्रुटिरहित छपी है। आईसेक्ट रवीन्द्रनाथ टैगोर विश्वविद्यालय का ही उपक्रम है। विश्वरंग के साहित्यिक सांस्कृतिक आयोजनो के चलते हिन्दी जगत में दुनियां भर में पहचान बना चुके इस संस्थान से “मैं खोजा मैं पाइयां” के प्रकाशन से किताब की पहुंच व्यापक हो गई है। देवनागरी की उत्पत्ति, हिन्दी भाषा की उत्पत्ति आदि लेखों में जिन विद्वानो के लेखों से सामग्री उधृत की गई है, वे संदर्भ भी दिये जाते तो प्रासंगिक उपयोगिता और भी बढ़ जाती। हिन्दी मास के अवसर पर प्रकाशित होकर आई इस पुस्तक से हिन्दी और देवनागरी पर प्रामाणिक जानकारियां मिलती हैं, जिसका उल्लेख साहित्य अकादमी मध्यप्रदेश के निदेशक डा विकास दवे जी ने पुस्तक की प्रस्तावना में भी किया है। शाश्वत सत्य यही है कि बिना मरे स्वर्ग नहीं मिलता, खुद खोजना होता है, ज्ञान का खजाना तो बिखरा हुआ है। जो भी पूरे मन प्राण से जो कुछ खोजता है उसे वह मिलता ही है। सुरेश पटवा जी ने इस किताब के जरिये हिन्दी भाषा की उत्पत्ति, देवनागरी उत्पत्ति, आदि शोध निबंध, साहित्य में गुलमोहर, ज्ञान परम्परा में पावस ॠतु वर्णन जैसे ललित निबंध तथा कई वैचारिक निबंध प्रस्तुत कर स्वयं की निबंध लेखन की दक्षता प्रमाणित कर दिखाई है। इस संदर्भ पुस्तक के प्रकाशन पर मैं सुरेश पटवा जी को हृदयतल से बधाई देता हूं और “मैं खोजा मैं पाइयां” का हिन्दी जगत में स्वागत करता हूं।

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ “एक ज़िंदगी… एक स्क्रिप्ट भर” (कथा संग्रह) – लेखक : सुश्री उपासना ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ पुस्तक चर्चा ☆ “एक ज़िंदगी… एक स्क्रिप्ट भर” (कथा संग्रह) – लेखक : सुश्री उपासना ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

समीक्ष्य पुस्तक : एक ज़िंदगी… एक स्क्रिप्ट भर।

कथाकार : उपासना।

प्रकाशक :लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद।

पृष्ठ : 184

मूल्य : 250 रुपये (पेपरबैक)

☆ “जीवन और समाज के अंधेरे उजालों की कहानियां” – कमलेश भारतीय ☆

भारतीय ज्ञानपीठ नवलेखन पुरस्कार व वनमाली विशिष्ट कथा सम्मान से सम्मानित युवा कथाकार उपासना का कथा संग्रह ‘एक ज़िंदगी… एक स्क्रिप्ट भर’ जीवन व समाज के अंधेरे वर्ष उजालों की कहानियां लिए हुए है। ‌ऐसा प्रसिद्ध कथाकार प्रियंवद का आंकलन है और उनकी नज़र में उपासना एकाग्रता, गंभीरता और निष्ठा के साथ कहानियां लिखने में विश्वास करती हैं । कथा संग्रह में आधा दर्जन कहानियां हैं और इनमें ‘कार्तिक का पहला फूल’ को छोड़कर बाकी पांच लम्बी कहानियां हैं, जिन्हें पढ़ते समय हम पुराने कस्बों और पुराने प्रेम के दिनों में सहज ही पहुंच जाते हैं । कथा संग्रह की शीर्षक कथा ‘एक ज़िंदगी.. एक स्क्रिप्ट भर’ एक ऐसी शांत, खामोश सी प्रेम कथा है पुराने समय की, जो कभी देवदास तो कभी किसी और नायक की दशा बयान करती है

‌गीता और शंकर का  किशोर प्रेम कितने शानदार ढंग से वयक्त किया है कि भुलाये नहीं भूलेगा! वह साइकिल पर बिठाना और बहुत धीमे से यह कहना कि हम तुम्हें प्यार करते हैं, सच में पुराने समय की ओर ले जाता है । फिर थोड़ा युवा होने पर अभिभावकों द्वारा घास और फूस को अलग रखने और गीता की शादी अनायक यानी अमरीश पुरी स्टाइल व्यक्ति से करने और ससुराल में सास व‌ ननद के तानों की शिकार गीता को अपना प्यार बहुत याद आता है और फिर अंत ऐसा कि गीता लौटती है अपने मायके और बस में शंकर मिल जाता है तब वह उतरते समय बहन को कहती है कि किसी से मत कहना कि शंकर हमको बस में मिला था! कितना कुछ कह जाता है यह वाक्य ! यह प्रेम स्क्रिप्ट बहुत खूबसूरत है। कथा संग्रह की सबसे छोटी कथा है ‘कार्तिक का पहला फूल’ ! ओझा जी सेवानिवृत्त हैं और फूल पौधों की निराई गुड़ाई कर अपना समय व्यतीत करते हैं। इसी में खुश रहते हैं और हर पौधे पर ध्यान देते हैं। अड़हुल पर पहला फूल आने वाला है और वे इंतज़ार में हैं लेकिन एक सुबह देखते हैं कि फूल तो तोड़ लिया गया है और पूछने पर पता चलता है कि बहू ने  एकादशी की पूजा के लिए तोड़ लिया है ! ओझा जी का मन रोने रोने को हो आता है । अड़हुल की वह सूनी डाल अब भी कार्तिक के झोंके से अब भी झूम रही थी ।

तीसरी कहानी ‘एमही सजनवा बिनु ए राम’ में सिलिंडर और रतनी दीदिया के मुख्य चरित्रों के माध्यम से ग्रामीण परिदृश्य में होने वाली छोटी से छोटी बातों को बहुत मन से लिखा गया है और कैसे दूसरों के घरों में आग लगाई जाती है, कैसे सिलिंडर द्वारा रतनी दीदिया को बर्फ खिला भर देने से बात फेल जाती है और किस प्रकार से आखिर कहानी रतनी दीदिया के जीवन के दुखांत तक ले जाने और व्यक्त करने में सफल हो जाती है, यह जादू उपासना की कलम में है ।

“नाथ बाबा की जय कहानी कैसे धीरे धीरे साम्प्रदायिक उन्माद की ओर बढ़ जाती है, यह भी बहुत ही सहजता से लिखी कहानी है और अपनी गुमटी को उन्मादियों द्वारा तोड़े जाने के बाद गुस्से में खुद ही अलगू मेहर तोड़ डालता है और उसकी पत्नी चुपचाप चूल्हे से उठता धुआं देखती रह जाती है!

‘टूटी परिधि का वृत्त’ और ‘अनभ्यास का नियम’ भी लम्बी कहानियां हैं लेकिन अपना जादू और आकर्षण बनाये रखती हैं। जो कार्य लम्बे समय तक किया या दोहराया नहीं जाता है, वह भूल जाता है। इसी को अनभ्यास का नियम कहते हैं! इस तरह नियम स्पष्ट कर कथाकार आगे बढ़ती है ।

भाषा बहुत ही मोहक है, जिसके कुछ उदाहरण ये हैं :

औरत की मांग में पीला सिंदूर था, मायका था, आदमी के मां बाप थे, गली कूचे, मोहल्ले थे, महिमामय सारा भारतवर्ष था और इस सबके बीच औरत का एकतरफा प्यार था!

…..

दुपट्टा फरफराता है… शंकर के हाथ पर…!

यह कोमल स्पर्श शंकर की उपलब्धि है। उन्होंने चा़द की ठंडाई को छू लिया है।

…..

प्रेम करने वाला कभी पछताने की स्थिति में रहता ही नहीं । प्रेम हमेशा हर हालत में पाता है । यह अलग बात है कि यह ‘पा लेना’ कभी समझ में आ जाता है और कभी नहीं आता!

…..

रतनी दीदिया सोचती थी कि हम चीज़ें नहीं यादें पहनते थे । हाथों में चूड़ियां नहीं, यादें खनकती थीं। बालों में रबर नहीं, याद बंधी थी! सीने पर दुपट्टा नहीं, याद फैली थी!

ऐसे अनके उदाहरण हैं। ‌उपासना की कहानियों में ताज़गी है, कहने में रवानगी है और पुराने दृश्यों को जीवंत कर देने की कला! संग्रह पठनीय है और सहेज कर रखने लायक ! लोकभारती प्रकाशन का साफ सुथरा प्रकाशन है यह कथा संग्रह!

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆ संजय दृष्टि – राष्ट्रीय एकता के प्रहरी भारतीय सरोकारः एक राष्ट्रीय सनद – सम्पादक- डॉ. केशव फालके ☆ समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

? संजय दृष्टि –  समीक्षा का शुक्रवार # 13 ?

?राष्ट्रीय एकता के प्रहरी भारतीय सरोकारः एक राष्ट्रीय सनद – सम्पादक- डॉ. केशव फालके ?  समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ?

पुस्तक का नाम- राष्ट्रीय एकता के प्रहरी भारतीय सरोकारः एक राष्ट्रीय सनद

विधा- लेख संग्रह

सम्पादक- डॉ. केशव फालके

? प्रसंगवश  श्री संजय भारद्वाज ?

ऑफलाइन से ऑनलाइन तक नित तकनीक की क्राँति उगलती इक्कीसवीं सदी में किसी पुस्तक का प्रकाशन मशीनी दृष्टि से सामान्य प्रक्रिया है। पुस्तकों के इस ढेर में किसी महत्वपूर्ण विषय पर भिन्न-भिन्न विचारधारा के विद्वानों के विचारों का तटस्थ सम्पादक द्वारा किया गया संग्रह हाथ लगना पुस्तक को ‘ग्रंथ’ तथा प्रकाशन को ‘प्रसंग’ बनाता है। यही कारण है कि पुस्तकों की भूमिका / समीक्षा ‘रूटीन-वश’ लिखती कलम महत्वपूर्ण ग्रंथ पर ‘प्रसंगवश’ लिखती है।

‘राष्ट्रीय एकता के प्रहरी भारतीय सरोकारः एक राष्ट्रीय सनद’ सतही तौर तैयार किया गया ‘एक और ग्रंथ’ मात्र नहीं है। ध्यान आकृष्ट करने की ग्रंथिवश सम्पादित किया गया ग्रंथ भी नहीं है। वस्तुतः यह राष्ट्र-राज्य के तंत्रिका तंतुओं और मज्जा- रज्जु को स्पंदित तथा संतुलित करने वाला ईमानदार प्रयास है। इसे अनेक विशेषताओं और छटाओं से सम्पन्न ग्रंथ कहा जा सकता है।

रसायनविज्ञान में एक शब्द है- ‘कैटेलिस्ट।’ हिंदी में हम इसे उत्प्रेरक कहते हैं। किसी भी रासायनिक प्रक्रिया में भाग न लेते हुए प्रक्रिया को तीव्र या मंद कर उससे वांछित परिणाम प्राप्त करने की भूमिका कैटेलिस्ट की होती है। इस ग्रंथ के सम्पादक डॉ. केशव फालके ने इसी भूमिका का वहन करते हुए ग्रंथ के लिए प्राप्त लेखों में कहीं कोई वैचारिक हस्तक्षेप नहीं किया। यह बहुत महत्वपूर्ण है। यही कारण है कि ग्रंथ में आपको समान सोच वाले विचार पढ़ने मिलेंगे तो घोर विपरीत ध्रुवों की तार्किकता /अतार्किकता, मंथन के दर्शन भी होंगे। विश्वास किया जाना चाहिए कि यह ग्रंथ न केवल पाठकों को समृद्ध करेगा, अपितु विपरीत धुरी के विद्वानों को भी एक-दूसरे के विचार समझने में सहायता करेगा।

‘राष्ट्रीय एकता के प्रहरी भारतीय सरोकारः एक राष्ट्रीय सनद’ इस विषय के बहुआयामी स्वरूप पर सम्पादक ने गम्भीर चिंतन किया है। प्रातः उठने से रात सोने तक जीवन के जितने पहलू हो सकते हैं, सृष्टि पर आगमन से लेकर सृष्टि से गमन तक जितने आयाम हो सकते हैं, भारत के संदर्भ में एकता के जितने सरोकार हो सकते हैं, अपनी सीमा में अधिकांश तक प्रत्यक्ष या परोक्ष पहुँचने का प्रयत्न लेखक ने किया है। संविधान, नागरिक, स्त्री, लोक, धर्म, संस्कृति, संत-दर्शन, त्योहार, युवा, शिक्षक, सृजेता, कलाकार, ललित कला, संगीत, भक्ति संगीत, संगीत नाटक अकादेमी, साहित्य अकादेमी, सिनेमा, भारतीय नृत्य, अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वद्यालय, शांतिनिकेतन, संग्रहालय, खेल, सेना, विज्ञान, राजनीति, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, प्रसारण-प्रचारण जैसे विभिन्न संदर्भों और परिप्रेक्ष्यों में भारत की राष्ट्रीय एकता पर विचार किया गया है। एक धारणा है कि ‘फूट डालो और राज करो’ राजनीति की बुनियाद होती है। राष्ट्रीय एकता में राजनीति की सकारात्मक भूमिका का विवेचन भी तत्सम्बंधी लेख द्वारा यह ग्रंथ करता है। दिल्ली को शासन का केंद्र मानकर इर्द-गिर्द के कुछ प्रदेशों को ही देश का प्राण समझ लेने की एक भ्रांत धारणा मुगलों-अँग्रेजों से लेकर स्वाधीन भारत के सत्ताधारियों में दीखती रही है। इसे उनकी क्षमता और दृष्टि का परावर्तन भी कह सकते हैं। राष्ट्रीय एकता में सुदूर पूर्वोत्तर भारत और द्रविड़ दक्षिण के योगदान की चर्चा इस ग्रंथ की परिधि को विस्तृत करती है।

अँग्रेजी में कहावत है- ‘कैच देम यंग।’ राष्ट्रीय एकता के बीज देश के युवा नागरिकों में रोपित करने में ‘राष्ट्रीय सेवा योजना’ की भूमिका उल्लेखनीय है। सम्पादक अपने सेवाकाल में एन.एस.एस. के राज्य सम्पर्क अधिकारी और विशेष कार्य-अधिकारी रहे। स्वाभाविक है कि उन्होंने योजना के प्रभाव और परिणाम निकट से देखे, जाने हैं। राष्ट्रीय सेवा योजना पर ग्रंथ में समाविष्ट लेख, विषय के एक महत्वपूर्ण आयाम पर प्रकाश डालता है।

सम्पादक ने यह ग्रंथ राष्ट्रीय एकता के अनन्य पैरोकार महात्मा गांधी को समर्पित किया है। गांधीजी के राजनीतिक निर्णयों या व्यक्तिगत जीवन के पक्षों से सहमति या असहमति रखनेवाले भी उनके सामाजिक और मानवीय सरोकारों में आस्था रखते हैं। यही कारण है कि गांधी दर्शन ने व्यापक स्वीकृति पाई और अनुकरणीय बन सका। एकता को साधने की साधना में जीवन होम करनेवाले महात्मा को यह ग्रंथ समर्पित करना इसके उद्देश्य और ध्येय को सम्मान प्रदान करता है।

व्यापक विषय पर व्यापक दृष्टि और व्यापक स्तर पर काम करते समय सामना भी व्यापक समस्याओं से करना होता है। सम्पादक ने इस ग्रंथ को लगभग चार वर्ष दिए हैं। विषय के विविध आयामों को न्याय देने के लिए लेख मंगवाए गए है, केवल इतना भर नहीं है। अधिकांश लेख सम्बंधित विषय के ज्ञाता/ विद्वान/शोधार्थी/अभ्यासक ने लिखे हैं। यह बहुत अच्छी बात है। किंतु विषय का विजिगीषु कलम का भी धनी हो, यह आवश्यक नहीं। फलतः पाठकों को कतिपय लेख किसी शोध प्रबंध का भाग लग सकते हैं, कुछ सरकारी नीतिगत वक्तव्य-से तो कुछ सम्पादक का आग्रह न ठुकरा पाने की विवशता में लिखे गए। तब भी इनमें से प्रत्येक में जानकारी और ग्राह्य तत्व तो हैं ही।

अलबत्ता ग्रंथ की जान हैं वे लेख जो विषय को जीनेवालों द्वारा लिखे गए हैं। डूबकर लिखे गए ये लेख ऐसे हैं कि उनसे उबरने का मन न हो- गहरे और गहरे जाने की इच्छा करे। प्रस्तुत ग्रंथ का ऐसे लेखों के रिक्थ से सम्पन्न होना इसकी समृद्धि में चार चाँद लगाता है।

सम्पादक ‘बन-जारा’ लोक साहित्य के मर्मज्ञ हैं। बंजारा का अपना स्थायी ठौर नहीं होता। वन-प्रांतर का भटकाव उसकी अनुभव पूँजी को समृद्ध करता है। स्थितप्रज्ञ ऐसा कि मोह से मुक्त अपनी यात्रा जारी राखता है। दातृत्व ऐसा कि एक क्षेत्र का अनुभव दूसरे और तीसरे चौथे तक पहुँचाता है। जन-संचेतना, लोक ज्ञान, उपचार, लोक औषधियों का संवाहक होता है वह। ‘बन-जारा’ से बढ़कर राष्ट्रीय एकता का मूर्तिमान प्रतीक दूसरा भला कौन होगा ?

सहज था कि सम्पादक के भीतर बसा यह ‘बन-जारा’ उनसे राष्ट्रीय एकता के सरोकारों पर विविध विचारों को संकलित करवाता। उनका पिछला ग्रंथ भी इसी विषय के एक आयाम ‘राष्ट्रीय एकता की कड़ी: हिंदी भाषा और साहित्य’ पर प्रकाशित हुआ है। जब आग लगी हो तो आग के विरोध में मोर्चे निकालना, नारेबाजी करना, धरना-प्रदर्शन में सम्मिलित होना, हाथ में हाथ धरकर मानव शृंखला बनाने के मुकाबले बेहतर है दौड़कर एक घड़ा पानी लाना और आग पर डालना। डॉ केशव फालके यही कर रहे हैं।

विध्वंस की लंका के विनाश के लिए सद्भाव के सेतु के रूप में ‘राष्ट्रीय एकता के भारतीय सरोकार : एक राष्ट्रीय सनद’ की भूमिका महनीय सिद्ध होगी, इसका विश्वास है।

© संजय भारद्वाज  

नाटककार-निर्देशक

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ “कैनवस के पास” (काव्य-संग्रह) – डॉ जसप्रीत कौर फ़लक़ ☆ समीक्षा – डॉ. सुरेश नायक ☆

डॉ. सुरेश नायक

☆ पुस्तक चर्चा ☆ “कैनवस के पास” (काव्य-संग्रह) – डॉ जसप्रीत कौर फ़लक़ ☆ समीक्षा – डॉ. सुरेश नायक

कैनवस के पास: प्रेम-सम्बन्ध से शून्य तक की यात्रा डॉ. सुरेश नायक ☆  

जसप्रीत कौर फ़लक़ के सद्यप्रकाशित काव्य-संकलन ‘कैनवस के पास’ गद्य-पद्य में काव्यार्चन के सुवासित पुष्प लेकर हिंदी साहित्य जगत में उपस्थित है। स्नेह-सुवासित इस संग्रह के काव्य-सुमन ह्र्दयक्षेत्र को आप्लावित करते हैं। यहाँ प्रेमजल से सिंचित मन भावनाओं के अनेक इंद्रधनुष खिलाता है। प्रेमजन्य पीड़ा भी कवयित्री ने कविताओं में व्यक्त की है और यही पीड़ा उन्हें रचनाकर्म के लिए प्रेरित करती गई है। प्रकृति उसकी सहचरी है एवं कल्पनाओं का एक उन्मुक्त संसार उसके शब्दों का उद्यान!

डॉ. जसप्रीत कौर फ़लक़

प्रकृति का आँचल थाम लिखी गई कवयित्री की वेदना-गाथा ही उसकी अधिकांश रचनाओं में मुखर है।

पेड़ों से लिपटी बेलें

जगा रही हैं कसक

मन की वेदनाएं उमड़ रही हैं

छूना चाहती हैं प्रेम का क्षितिज

( भीगी चाँदनी , पृ. 35)

जिस गद्य को पद्य में समाहित किया है, वह भी पद्यात्मक है। एक बानगी प्रस्तुत है-

लोग कहते हैं आवाज़ की कोई आकृति नहीं होती। मगर, मुझे नज़र आ रहा है तुम्हारा चेहरा….तुम्हारी आँखों में वही कशिश है….तुम्हें दूर जाकर भी रहना होगा मेरे आसपास…

(जुदाई की तहरीर, पृ.37)

न जाने

कितने पतझड़ आ खड़े हुए

बसन्त का जामा पहन कर

मगर

अविचल पड़ी रही

यह प्रेम की शिला।

वर्चस्ववादी विचारधारा में स्वामी, फ़न के कातिल, संगदिल लोगों के यथार्थ को जानकर कवयित्री ने उनकी वृत्तियों को प्रकाशित किया है-

वो चाहते हैं हमारी मुट्ठी में रहें

सारे सितारे, सारे जुगनूँ

मगर अब मैं

समझ गई हूँ उनकी फ़ितरत

मुझे नहीं है ऐसी रौशनी की ज़रूरत

मैं खुश हूँ

मेरे पास हैं लफ़्ज़ों के चराग़

इल्म की रोशनी।

(लफ़्ज़ों के चराग़, पृ.62)

मीरा और महादेवी की प्रेम की पीड़ा उनके काव्य का प्रमुख स्वर रहा अथवा इस प्रकार कहना अधिक समीचीन होगा कि विरह-व्याकुलता प्रेरक प्रतिपाद्य बनी। इसी वेदनानुभूति के परिप्रेक्ष्य में कवयित्री जसप्रीत कौर फ़लक की भाव-तीव्रता भी उनके शब्दों में स्पष्ट रूप से मुखर हुई है। देखिए-

प्रेम के रस में भीगे तन-मन

मन का नगर बना वृंदावन

मैं हूँ तेरी युगों से जोगन

साँच कहो मेरे मनमोहन

तुम मुझसे रूठ तो न जाओगे

(वेदनाओं की माला, पृ. 63)

आधुनिक समय में प्रेम-सम्बन्धों में भी दैहिक आकर्षण मुख्य है।भोगवृत्ति में प्रवृत्त प्रेमी पुरुष का आत्मिक नैकट्य  न मिल पाना कवयित्री को सालता रहता है। नारी पुरुष के निकट मात्र भोग्या है, इससे अधिक उसमें आत्मा भी है, यह उसकी विचार-परिधि से बाहर है। निदर्शन प्रस्तुत है-

वज अपने पल गंवा देता है

हवस की महफिलें सजाने में

बस एक जिस्म को पाने में

 

वह नहीं जानता

रिश्तों की मर्यादा

प्रेम की परिभाषा

मन का समर्पण

वह लालसा में गंवाता है

अपना हर एक क्षण

( मैं हर पल, पृ.66)

इसी कविता में एक गद्य-टिप्पणी में वे लिखती हैं-

तुम्हें पाने की तड़प में अब जुनून भी है और सुकून भी है…स्पर्श से ज़्यादा लम्बी होती है कल्पनाओं की उम्र…।

फिर भी प्रेयसी के समर्पण में कोई कमी नहीं है। वह अपने जीवन में दीप्त सभी सुखद भावनाओं, अनुभूतियों का जनक अपने प्रियतम को ही स्वीकारती है-

घनघोर घटाओं में

कल्पित व्यथाओं में

मेरे नाम का अर्थ समझाने वाले

तुम्हीं तो हो

(तुम्हीं तो हो, पृ. 71)

 शब्दालंकारों से सज्जित उनकी भाषा में एक अलग ही गरिमा है-

रात गहरा रही है और मैं जाग रही हूँ

तुम्हें सुनाने के लिए

पिघलती रात के काजल से लिखी नई कविता

 और भी-

उम्मीद की टहनियों पे जो फ़ूल थे

वो झर गए

(वस्ल की चाँदनी, पृ.73)

 एक अन्य कविता में नदी के माध्यम से कवयित्री ने नारी -मन की जुझारू मनोवृत्ति को लेखनीबद्ध किया है। यह उनके जीवट एवं रचनाधर्मिता के प्रति प्रतिबद्धता को प्रदर्शित करती कविता है-

मैं बने बनाए हुए

रास्तों पर नहीं चलती

मुझे आता है राह बनाने का हुनर

मेरा टेढ़ा मेढ़ा और लम्बा है सफ़र

 

मैं नदी हूँ

मेरा स्वभाव है ख़ामोश रहना।निरन्तर बहना…निरन्तर चलना

(मैं नदी हूँ, पृ. 76)

जीवन की अपूर्णताओं, दुश्वारियों एवं चुनौतियों के बीच कवयित्री आशावादिता के स्वर से सुख-संगीत की सृष्टि करना चाहती है। आशाओं के रंगों से ज़िन्दगी के अधूरे चेहरे में रंग भरने की अभिलाषा रखती है-

यह सोच कर कि

मेरे बाद जो लोग आएं

उन्हें प्रकृति के कैनवस पर

ज़िन्दगी का चेहरा

उदास नहीं मुस्कुराता दिखे

धुंधला नहीं स्पष्ट दिखे

रंग भरा, भरपूर, खिलखिलाता नज़र आए

इसी कोशिश में मुहब्बत के रंग लेकर बैठी हूँ

(ज़िन्दगी….आधी अधूरी सी, पृ.80)

 एक सच्चे साथी का सम्बल नारी के लिए कितना शक्तिदायी व सार्थक हो सकता है, इसका रेखांकन भी फ़लक़ करती हैं-

तुमसे दिल के रिश्ते हैं

जो पवित्र और सच्चे हैं

तुम्हारे होने से

मेरे जज़्बात महके हैं

 

तुम मेरी अभिव्यक्ति हो

तुम मेरी शक्ति हो

तुम मेरा स्वाभिमान हो

तुम मेरा अभिमान हो

(ज़िन्दगी के मोड़ पर, पृ. 82-83)

कवयित्री कल्पनालोक में विचरण करती हैं तथा एक रुमानियत से भरे आलम में स्वयं को पाती हैं। फ़लक के यहाँ कविता की रचना करना दैनिक जीवन के तल्ख़ यथार्थ से कुछ क्षणों के लिए मुक्ति प्राप्त कर सुखद अनुभूतियों के लोक की यात्रा है-

कभी -कभी ख़याल आता है

कि ख़ुशबू की तरह साथ हवा में उड़ती जाऊँ

मैं परियों के देश में जाकर

उनको अपना गीत सुनाऊँ

(कभी-कभी ख्याल आता है, पृ.105)

प्रेम की शाश्वतता में विश्वास करने वाला कवयित्री का मन कह उठता है-

मैं मुहब्बत को जब भी लिखूंगी

तो दिल के सफ़ीहों पे लिखूंगी

कि कोई मिटा न सके जिसे

मैं जान गई हूं

मुहब्बत तख्तियों पे लिखने की चीज़ नहीं होती

(मुहब्बत, पृ.21)

कितना भी मनोरम-सुरम्य प्राकृतिक स्थल हो, प्रेमी ह्रदय को वह अपने प्रेमास्पद के बिना अपूर्ण ही प्रतीत होता है। ऐसे ही किसी क्षण को जीवंत करतीं फ़लक़ लिखती हैं-

उठो, आओ! कैनवस के पास

इन नज़ारों की तस्वीर बनाओ

इनके हुस्न को कुछ और बढ़ाओ

 

इनमें मुहब्बत का रंग भर दो

इन नज़ारों को मुकम्मल कर दो

आओ ! कैनवस के पास

(कैनवस के पास, पृ. 23)

बिम्ब-विधान इन कविताओं का कलेवर है।  प्रकृति के कैनवस के हर रंग को शब्दों में ढाल कर आर्ट गैलरी -सा यह काव्य-संग्रह सृजित किया गया है।  अधिकांश कविताएं सब्जेक्टिव टोन की हैं। उनमें वर्णित भावुकता, मिलनातुरता, विरहवर्णन की मुखरता, संयोगवस्था के श्रृंगार-चित्र, आत्मिक तृप्ति हेतु व्यथा और अपनी सृजन की प्रेरणा- इन सब पक्षों में कवयित्री की निजी अनुभूतियों की प्रबलता पृष्ठभूमि में विद्यमान है।

गद्य-भाग दार्शनिकता से ओतप्रोत है, जिसे पढ़ना सुखद लगता है। वस्तुतः इनकी उत्सुकता से प्रतीक्षा करने लगता है।

भाषा में हिन्दी-उर्दू का संगम इसे अलग ही छटा प्रदान करता है। उनकी कविताओं में शब्द भावानुसार आकृति लेते गए हैं। इन कविताओं के अनुशीलन से कतई नहीं लगता कि ये सप्रयास सृजित हुई हैं। इनमें अबोधता, निश्छलता के साथ-साथ कहीं-कहीं रूहानियत तक पहुंच भी है। यह पहुँच सौभाग्यशाली रचनात्मक विभूतियों को सहज प्राप्त होती है। इस पर भी विचारों की प्रौढ़ता-परिपक्वता इनमें निहित मानवीय भावों का साक्ष्य भी प्रस्तुत करती है।

प्रस्तुत काव्य-संकलन कवयित्री के साहित्य-साधिका-रूप का एक अन्य निदर्शन है, जो निश्चय ही एक पड़ाव कहा जाएगा। उनसे भविष्य में भी सार्थक सृजन की अपेक्षा जागती है।

शुभकामनाएं !

© डॉ. सुरेश नायक

पूर्व एसोसिएट प्रोफेसर व अध्यक्ष, पटेल मेमोरियल नेशनल कॉलेज, राजपुरा

 #1359, अरबन एस्टेट, फेज़ दो, पटियाला।

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ पुस्तक चर्चा #138 – “अच्छे होने की कठिनाई (Difficulty being Good)” लेखक : गुरुचरण दास ☆ समीक्षक – श्री सुरेश पटवा ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है पुस्तक “अच्छे होने की कठिनाई (Difficulty being Good)” लेखक : गुरुचरण दास की समीक्षा)

📚 पुस्तक चर्चा # 137 – “अच्छे होने की कठिनाई (Difficulty being Good)” लेखक : गुरुचरण दास ☆ समीक्षक – श्री सुरेश पटवा 📚

पुस्तक समीक्षा : कृष्ण प्रयोजन

पुस्तक ; अच्छे होने की कठिनाई

(Difficulty being Good)

लेखक : गुरुचरण दास

समीक्षक : सुरेश पटवा

गुरुचरण दास (जन्म 3 अक्टूबर, 1943), एक भारतीय लेखक, टिप्पणीकार और सार्वजनिक बुद्धिजीवी हैं। वह “द डिफिकल्टी ऑफ बीइंग गुड: ऑन द सटल आर्ट ऑफ धर्म” के लेखक हैं जो महाभारत पर सवाल उठाता है कि “क्या हरेक स्थिति में अच्छा बना रहना कठिनाई पूर्ण नहीं होता है।”

लेखक महाभारत के कथानक की ओर मुड़ते हैं, और पाते हैं कि महाकाव्य की नैतिक अस्पष्टता और अनिश्चितता आज की दुनिया की संकीर्ण और कठोर वास्तविकता के कितने क़रीब है। इससे महाभारत का यह श्लोक सही सिद्ध होता है कि :-

जो यहाँ है वही अन्यत्र पाया जाता है।

जो यहां नहीं है वह कहीं नहीं है.

– महाभारत I.56.35-35

“अच्छा होने की कठिनाई पुस्तक धर्म की सूक्ष्मता पर” प्रसिद्ध भारतीय लेखक और राजनयिक गुरचरण दास की एक विचारोत्तेजक और व्यावहारिक पुस्तक है। प्राचीन भारतीय महाकाव्य महाभारत से सीख लेते हुए, लेखक सद्गुण और धार्मिकता की खोज में व्यक्तियों द्वारा सामना की जाने वाली जटिल नैतिक दुविधाओं और नैतिक चुनौतियों का पता लगाते हैं।

लेखक ने महाभारत के पात्रों और घटनाओं को एक लेंस के रूप में उपयोग करते हुए मानव व्यवहार और निर्णय लेने को आकार देने वाले रिश्तों, मूल्यों और आदर्शों के जटिल जाल की पड़ताल की, जिसके माध्यम से कर्तव्य, वफादारी, न्याय और प्रकृति जैसे सार्वभौमिक विषयों की जांच की जा सके। अपने अच्छे और बुरे का विश्लेषण के माध्यम से पाठकों को अस्पष्टता, परस्पर विरोधी प्रेरणाओं और नैतिक धूसर क्षेत्रों से भरी दुनिया में नैतिक निर्णय लेने की जटिलताओं की गहन और सूक्ष्म समझ प्रदान करते हैं। जी कि कृष्ण के व्यक्तित्व का एक गूढ़ हिस्सा था।

लेखक आकर्षक कहानी और तीक्ष्ण विश्लेषण के माध्यम से पाठकों को सही और गलत के बारे में अपनी धारणाओं पर पुनर्विचार करने और एक ऐसी दुनिया में अच्छा होने की अंतर्निहित कठिनाइयों से लड़ने की चुनौती देते हैं जो अक्सर धोखे, महत्वाकांक्षा और स्वार्थ को पुरस्कृत करती है। अंततः, “अच्छे होने की कठिनाई” नैतिकता, सदाचार और मानवीय स्थिति की एक सम्मोहक खोज प्रदान करती है, जो पाठकों को नैतिक उत्कृष्टता की खोज में अपने स्वयं के विश्वासों और कार्यों पर विचार करने के लिए आमंत्रित करती है।

लेखक प्रत्येक पात्र की कहानी लेता है और उसकी व्याख्या इस प्रकार करता है कि प्रत्येक पात्र स्वयं अच्छा करने का प्रयास कर रहा है; जिस स्थिति में वे हैं, वे खुद को सही और गलत, अच्छे और बुरे के अपने मानकों के प्रति जवाबदेह मानते हैं, अंततः उन व्यक्तियों और समूहों के गुणों के रूप में उभरते हैं जिन्हें हम अपने आसपास देखते हैं।

प्रत्येक पात्र, सही होने की कोशिश करते हुए, और अपनी स्थिति को देखते हुए अपने स्वयं के नैतिक मानकों के अनुसार अच्छा बनने की कोशिश करते हुए, एक प्रकार के व्यक्तित्व के रूप में उभरता है; मैं यह नहीं कहूंगा कि वे आदर्श हैं। बल्कि वे लोग हैं, जो अलग-अलग समय में रहे होंगे, लेकिन उन्हीं चीज़ों से प्रेरित हैं जिनसे हमारे आस-पास के लोग प्रेरित होते हैं – ईर्ष्या, कर्तव्य की भावना, निराशा, निस्वार्थता, विजय, पराजय, छल और बदला।

पुस्तक “धर्म” की व्याख्या “एक जटिल शब्द के रूप में करती है जिसका अर्थ विभिन्न प्रकार से गुण, कर्तव्य और कानून है, लेकिन यह मुख्य रूप से सही काम करने से संबंधित है।” यह निश्चित रूप से यह सवाल उठाता है कि क्या एक सार्वभौमिक सत्य, सही और गलत का एक सार्वभौमिक उपाय, “धर्म” की एक सार्वभौमिक परिभाषा हो सकती है। इस बीच, दास एक परिभाषा प्रस्तुत करते हैं। धर्म को उसकी अनुपस्थिति से पहचानना सबसे आसान है: महाभारत धर्म के विपरीत, अधर्म के माध्यम से धर्म के बारे में सिखाने की शैक्षणिक तकनीक का उपयोग करता है। महाभारत का हर चरित्र दुविधा में है, सिवाय कृष्ण और शकुनि को छोड़कर। शकुनि का लक्ष्य हस्तिनापुर का नाश करना है। वहीं कृष्ण का उद्देश्य हस्तिनापुर को मानव कल्याणकारी राज्य में बदलना है।

कृष्ण के चरित्र पर प्रश्न उठाए जाते हैं कि उन्होंने युद्ध में अधर्म का सहारा लिया। जैसे:-

  1. कुंती को कर्ण के पास भेजकर यह रहस्य उद्घाटन कराया कि वह पाण्डवों का भाई है। कर्ण ने अर्जुन को छोड़कर बाक़ी चार भाइयों का न वध करने का वचन दे दिया। उसने बाक़ी चारों भाइयों को निशाने पर आने के बावजूद छोड़ दिया। इस बात पर उसका दुर्योधन से विवाद भी हुआ।
  2. कृष्ण जानते थे कि कवच कुंडल युक्त कर्ण अर्जुन से श्रेष्ठ यौद्धा है। उन्होंने अर्जुन के पिता इन्द्र को भिक्षुक बनाकर भेजा और कवच कुंडल उतरवा लिये। जो कि कर्ण का सबसे अहम रक्षा कवच था।
  3. कृष्ण ने अश्वत्थामा नामक हाथी के मारे जाने को द्रोणाचार्य पुत्र अश्वत्थामा का स्वाँग रच सत्य पर अड़िग युधिष्ठिर के मुँह से आधा झूठ बुलवाया और आधा सच शंखों की ध्वनि में छुपाया।
  4. कृष्ण ने द्रोणाचार्य का वध उस समय करवाया जब वे निरस्त्र होकर युद्ध भूमि पर निढाल ही बैठे थे। जबकि किसी निरस्त्र यौद्धा पर वार करना युद्ध के नियमों के विरुद्ध था।
  5. कृष्ण ने भीष्म पितामह का वध एक शिखंडी की आड़ में युद्ध करते हुए अर्जुन को सुरक्षित रखकर करवाया।
  6. कृष्ण ने कर्ण का युद्ध उस समय करवाया जब वह युद्ध भूमि में फँसे रथ के पहिये को निकाल रहा था जबकि निहत्थे पर अस्त्र चलाना नियम विरुद्ध था।
  7. कृष्ण ने अर्जुन के हाथों जयद्ररथ का वध सूर्य ग्रहण का प्रयोग करके करवाया।
  8. कृष्ण ने दुर्योधन का वध गदा युद्ध में कमर के नीचे नियम विरुद्ध गदावार से करवाया।

इस सभी का उत्तर मिलता है इसी पुस्तक में। महाभारत का आधार चार पुरुषार्थ के सिद्धांत पर रखा है अर्थात् धर्म अर्थ काम और मोक्ष। महाकाव्य का आरंभ सृजन के हेतु “काम” से होता है। ऋषि पराशर के द्वारा धीवर कन्या सत्यवती से नाव में व्यास जी का जन्म, शान्तनु से गंगा देवी के संसर्ग से भीष्म पितामह का जन्म, विचित्र वीर्य की रानियों के व्यास जी के नियोग से धृष्टराष्ट्र, पांडु और विदुर का जन्म, कुंती से सूर्य द्वारा कर्ण का जन्म, कुंती से धर्म, इंद्र और वायु देव द्वारा युधिष्ठिर, अर्जुन और भीम का जन्म और अश्विनीकुमारों द्वारा माद्रि से नकुल सहदेव का जन्म।

ग्रंथ का दूसरे हिस्से का कथानक “अर्थ” केंद्रित है। हस्तिनापुर का विभाजन न होकर इंद्रप्रस्थ का निर्माण, फिर ईर्ष्या द्वेष का नंगा खेल आरंभ होता है। जो सुई की नोक के बराबर भूमि के बराबर भी अर्थ का विभाजन स्वीकार नहीं करता है। युद्ध अपरिहार्य होता जाता है। द्रौपदी के शब्द, चीरहरण  और भीम की प्रतिज्ञा युद्ध निर्धारित कर देते हैं।

तीसरा कथानक “धर्म” पर आधारित है। भगवत्गीता का कर्मयोग एक निरंतर धर्म है। युद्ध निश्चित है तो संघर्ष करो। डिगो नहीं। उसके बाद मोक्ष का द्वार खुलेगा।

ग्रंथ की सबसे बड़ी सीख है कि पुरुष चतुष्टय भी समय के साथ बदलते रहते हैं। ब्रह्म के अलावा प्रत्येक चीज और सिद्धांत परिवर्तन शील है। धर्म भी अधर्म के अनुरूप उसे पस्त करने को रूप बदलता है।

असल महाभारत शकुनि और कृष्ण की विचारधाराओं के मध्य है। शकुनि की कूटनीतिक समझ है कि कृष्ण युद्ध में अधर्म का सहारा नहीं लेगा। युधिष्ठिर भी धर्म पुत्र है। राम के त्रेता युग से लेकर कृष्ण के द्वापर तक मनुष्यों का मस्तिष्क कूटनीति की बारीकियों से नीति निपुण हो चुका था। हृदय की शुद्धता कम होती जा रही थी। कृष्ण को यह कूटनीतिक समझ थी कि अधर्म को अधर्म से ही जीता जा सकता है। और अधर्म को परास्त करने हेतु अद्भुत तरीक़े धर्म के पक्ष में जाते हैं। मुख्य बात है धर्म युद्ध जीतना। युद्ध जीतने में स्थापित धर्म की मान्यताओं को धता बताकर नयी मान्यताएँ और परम्परायें स्थापित करना भी धर्म का एक अंग है।

एक घटना को लेते हैं। कृष्ण भीम को इशारा करते हैं कि गदायुद्ध में दुर्योधन की कमर के नीचे जंघा पर गदा से वार करे। जबकि गदायुद्ध के नियमों के अनुसार कमर के नीचे वार नहीं किया जाता। यह अधर्म है। लेकिन कृष्ण की दूरदर्शितापूर्ण कूटनीति बुद्धि देखिए कि भरी सभा में किसी पराई स्त्री को नग्न करके जाँघ पर बिठाने के प्रयत्न भी घोर अधर्म है। उस अधर्म पर चोट करने हेतु जंघा पर गदा प्रहार भी धर्म हो जाता है। यानि धर्म की मान्यता भी समय के साथ रूप बदलती है। यहीं कृष्ण हमेशा प्रासंगिक हैं।

धर्म मानव कल्याण हेतू ‘व्यवस्थित अस्तित्व का अनुशासन’ हैं। हमारे पूर्वजों की दुनिया के विपरीत, जो काली और सफ़ेद थी, जहाँ अपना पेट भरने के लिए जानवरों को मारना ही जीने का एकमात्र तरीका था, जहाँ कोई नैतिक द्वंद्व नहीं था, हमारी दुनिया इस सवाल से भरी है कि क्या सही है और क्या गलत है। हम भूरे काल में रहते हैं, काले या सफेद रंग में नहीं। गुरचरण दास हमारे सामने मौजूद नैतिक दुविधाओं को कई आर्थिक घोटालों से परिचित कराते हुए समय के साथ बदलते धर्म की व्याख्या करते चलते हैं।

अच्छा बनने की कठिनाई से 5 मुख्य सबक

  1. अच्छा होने की कठिनाई नैतिक निर्णय लेने की जटिलता और भ्रष्ट और अन्यायी दुनिया में नैतिक सिद्धांतों का पालन करने में व्यक्तियों के सामने आने वाली चुनौतियों की जांच करती है।
  2. पुस्तक धर्म, या कर्तव्य की अवधारणा और व्यक्तियों द्वारा उनके नैतिक सिद्धांतों और मूल्यों के अनुसार अपने दायित्वों और जिम्मेदारियों को पूरा करने के महत्व की पड़ताल करती है।
  3. लेखक, गुरचरण दास, भारतीय महाकाव्य, महाभारत में पात्रों द्वारा सामना की गई नैतिक दुविधाओं पर प्रकाश डालते हैं, और उनके कार्यों के उनके स्वयं के जीवन और दूसरों के जीवन पर परिणामों पर जोर देते हैं।
  4. अच्छा होने की कठिनाई नैतिक निर्णय लेने की जटिलताओं से निपटने के लिए आत्म-अनुशासन, संयम और करुणा, सहानुभूति और अखंडता जैसे गुणों को विकसित करने के महत्व पर जोर देती है।
  5. कुल मिलाकर, यह पुस्तक पाठकों को प्रलोभन, भ्रष्टाचार और नैतिक अस्पष्टता से भरी दुनिया में एक सदाचारी जीवन जीने की चुनौतियों के बारे में मूल्यवान सबक सिखाती है। यह व्यक्तियों को नैतिक उत्कृष्टता के लिए प्रयास करने और ऐसे नैतिक विकल्प चुनने के लिए प्रोत्साहित करता है जो उनके मूल्यों और विश्वासों के अनुरूप हों।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

*≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆ संजय दृष्टि – फिर भी दिल है हिंदुस्तानी — कहानीकार – श्री महेश दुबे ☆ समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

? संजय दृष्टि –  समीक्षा का शुक्रवार # 12 ?

?फिर भी दिल है हिंदुस्तानी — कहानीकार – श्री महेश दुबे ?  समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ?

पुस्तक का नाम – फिर भी दिल है हिंदुस्तानी

विधा – छोटी कहानियाँ

कहानीकार-  श्री महेश दुबे

? छोटी कहानियाँ, बड़े संदर्भ  श्री संजय भारद्वाज ?

कहानी मनुष्य को ज्ञात सबसे पुरानी विधा है। धारणा है कि कहानी का जन्म मनुष्य के साथ ही हुआ। वस्तुतः कहने-सुनने, स्वयं को व्यक्त करने की इच्छा मनुष्य की मूलभूत आवश्यकता है। कहानी रोचकता से इस मानसिक विरेचन को पूरा करती है। सरलता और सुबोधता के चलते कहानी सर्वाधिक संप्रेषणीय विधा हो जाती है। यही कारण है कि स्पष्टीकरण के लिए गूढ़ दर्शन भी कहानी लेखन का सहारा लेता है।

लेखन, निरीक्षण की उपज है। विशेषकर कहानी के संदर्भ में जहाँ अपनी बात पात्रों के माध्यम से रखनी हो, यह निरीक्षण अधिक सूक्ष्मता की मांग रखता है। अपने भीतर एक कहानी समेटे हमारे आसपास अनेक घटनाएँ घट रही होती हैं। इन्हें अनगिन लोग देखते हैं किंतु इनमें कुछ ही के देखने में दृष्टि का अंतर्भाव होता है।

महेश दुबे ऐसे ही दृष्टि संपन्न कहानीकार हैं। वे मूलरूप से कवि हैं। कविता के गर्भ में एक कहानी छिपी होती है जबकि हर कहानी, एक कविता का विस्तार होती है। यही कारण है कि महेश दुबे की कवि दृष्टि, कहानी में संवेदना के सूक्ष्म तंतुओं को स्पंदित करने में सफल रही है।

‘फिर भी दिल है हिंदुस्तानी’ संग्रह की कहानियाँ, कहानीकार की देखी, भोगी, समझी, सुनी घटनाओं की कहन हैं। अपनी कहन की पृष्ठभूमि में उपस्थित घटनाओं का सकारात्मक आकलन लेखक ने किया है। बिना कोई लेबल लगाए, आदमी को आदमी की तरह देखने की यह सकारात्मकता इन कहानियों का शक्तिबिंदु है।

पटकथा लेखन के क्षेत्र में कहा जाता है कि मनुष्य जीवन की कहानियाँ छत्तीस फ्रेमों में बँटी हैं। प्रस्तुत संग्रह की कहानियाँ अमूमन इन सभी फ्रेमों से गुज़रती हैं। आदमी के सारे रंग, रंगों के शेड्स, स्थिति-परिस्थिति, आशा-आशंका, भावना-संभावना को ये प्रकट करती हैं।

साहित्य बेहतर मनुष्य की खोज है। प्रस्तुत कहानियाँ बेहतर मनुष्य को हमारे सामने रखती हैं। विशेष बात है कि ये कहानियाँ बेहतर मनुष्य गढ़ती नहीं अपितु हमारे आसपास, इर्द-गिर्द के नितांत साधारण से परिचित व्यक्ति की ओर इंगित करती हैं और कहती हैं, ‘देखो, यह है बेहतर मनुष्य।’ बेहतर मनुष्य के माध्यम से बेहतर मनुष्यता और बेहतर संसार की यात्रा कराती हैं ये कहानियाँ।

शब्दों की संख्या की दृष्टि से ये कहानियाँ छोटी हैं। अतः पात्रों के चित्रण की अपनी सीमाएँ हैं। पात्र की तुलना में इन कहानियों में परिवेश का चित्रण अधिक मुखर है। भाषा, देशकाल के अनुरूप और सरल है। कथानक सशक्त हैं। कथोपकथन को कहानीकार ने संक्षेप में बहुत प्रभावी ढंग से बांधा है। कथ्य और शिल्प में साधा गया ‘बोनसाई’ संतुलन इन कहानियों की प्रभावोत्पादकता को बहुआयामी करता है। मैं इन्हें बड़े संदर्भ वाली छोटी कहानियाँ निरूपित करूँगा।

कहानियों के जगत में महेश दुबे का प्रकाशित पुस्तक के रूप में यह पहला कदम है। यह कदम इतना सहज और आत्मविश्वास से भरा है कि पाठक इसे हाथों-हाथ अपना लेगा, इसका विश्वास है।

© संजय भारद्वाज  

नाटककार-निर्देशक

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 169 ☆ “औघड़” – लेखक … श्री नीलोत्पल मृणाल ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हमप्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’  जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है आपके द्वारा श्री नीलोत्पल मृणाल जी द्वारा लिखित पुस्तक औघड़पर चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 169 ☆

☆ “औघड़” – लेखक … श्री नीलोत्पल मृणाल ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

पुस्तक चर्चा

पुस्तक …औघड़

उपन्यासकार …नीलोत्पल मृणाल

प्रकाशक …हिन्द युग्म, नोएडा

पृष्ठ …३८८, मूल्य …२०० रु

चर्चाकार …विवेक रंजन श्रीवास्तव

नाटकीयता से परे जमीनी हकीकत पर “औघड़”एक उम्दा उपन्यास

हिन्द युग्म “नई वाली हिंदी” का जश्न मनाने वाला, युवाओ द्वारा प्रारंभ की गई साहित्यिक यात्रा का मंच है। ब्लागिंग के प्रारंभिक दिनों में शैलेश भारतवासी ने हिन्दयुग्म प्रकाशन शुरु किया था। काव्य पल्लवन ब्लाग से मैं भी हिन्द युग्म के प्रारंभिक समय से जुडा रहा हूं। हिन्द युग्म ने कई हिट्स साहित्य जगत को दिये हैं। नीलोत्पल का “औघड़” भी उनमें से एक है। मलखानपुर गांव के इकतीस शब्द दृश्य बेबाकी से यथार्थ बयानी करते हैं। नीलोत्पल की लेखनी में प्रवाह है।

चाय की गुमटी वाले मुरारी, पंडित जी, जग्गू दा, जगदीश यादव, डागदर साहब, गणेशी, आदि आदि चरित्र पात्रों के संग कथानक के नायक सामंतवाद के प्रतिनिधि पुरोषत्तम सिंह और फूंकन सिंह वर्सेस पेशाब की धार को हथियार बनाकर जमीदार की हवेली पर प्रहार करने वाला औघड़ गंजेड़ी बिरंचिया … सब को बड़ी सहजता से “औघड़” में पिरो कर प्रस्तुत किया गया है। बिना नायिका के भी उपन्यास पाठक को अपने साथ बनाये रखने में पूरी तरह सफल है।

नीलोत्पल मृणाल नई पीढ़ी के लोकप्रिय लेखकों में से हैं, उन्हें साहित्य अकादमी युवा पुरस्कार मिल चुका है। औघड़ लोकभाषा और उसी टोन में गांव की पृष्ठ भूमि पर लिखा गया उपन्यास है।

रोजमर्रा की ग्रामीण समस्याओ को रेखांकित किया गया है, उपन्यास अंश उधृत है ” रमनी देवी ने कई बार कहा था कि रात-बिरात हरदम बाहर जाना पड़ता है। सुबह खेत जाओ तो लाज लगता है। कल के दिन घर में बहू आएगी तऽ ऊहो का ऐसे ही खेत जाएगी? काम भर के खाने-पीने का फसल हो ही जाता है। क्या घर में एक ठो लैटरिंग रूम नहीं बन सकता ? गरीब और किसान घर की औरत का इज्जत पानी नहीं है का? एक दिन रात को बलेसर के पतोह को दू-चार लफुआ मोटरसायकिल के लाइट मार रहा था। बेचारी कैसहूँ इज्जत ढक भागी। काहे नहीं बनवा देते हैं घर में लैटरिंग रूम ?”

इसी तरह भूत प्रेत टोना टुटके पर ग्रामीण नजरिये का अंदाजा इस अंश में देखिये “अरे, धीरे बोलिए ना आप। काहे हमारा प्राण लेने पर तुल गए हैं बाबा। अरे बाबा हम तो कह रहे हैं कि 1000 परसेंट भूत ही पकड़ा है चंदन बाबा को। लेकिन ई भूत हिंदू भूत है ही नहीं, महराज यह मुसलमान है, मुसलमान भूत। तब ना इतना उत्पात मचा रहा है। मुसलमानी भूत को क्या कर लेगा आपका जंतर-मंतर। ” लटकु भंडारी ने यह बता जैसे ब्रह्मांड की उत्पत्ति का रहस्य खोलकर रख दिया हो। “

नीलोत्पल के वाक्य विन्यास व्याकरण की सीमाओ से परे बोलचाल की ग्रामीण भाषा में ही है।

नमूना देखिये ” गहरा साँवला रंग। हड्डी पर काम भर का माँस। यही बनावट थी वैजनाथ की। “

सहज दृश्य वर्णन में वे नये उपमान रचते हैं, ” समय खेत जाते बैल की तरह चला जा रहा था “, “मुरारी ने अपने इस सार्थक वचन के साथ ही चर्चा को एक नया फलक प्रदान कर दिया था। चाय पर चर्चा, देश को कितनी सार्थक दिशा दे सकती है, यह यहाँ आकर देखा और समझा जा सकता था। दूरदर्शन और उसके समाज पर प्रभाव के इस सेमीनार का सत्र चल ही रहा था कि मस्जिद से अजान की आवाज आई, “अल्लाह हू अकबर… “लीजिए अजान हो गया। बैरागी पंडी जी के आने का हो गया टाइम। ” मुरारी ने चाय का कप बढ़ाते हुए कहा। असल में बैरागी पंडी जी गाँव के ही मंदिर में पुजारी थे। अजान की आवाज अल्लाह तक जाने से पहले मंदिर के देवी-देवाताओं को मिल जाती थी। बैरागी पंडी जी को वर्षों से अजान की आवाज सुनकर उठने की आदत थी। यही उनका दैनिक अलार्म था। ” …. यह गाँव ही था जहां आम कुत्ते भी हीरा, मोती, शेरा नाम से जाने जाते थे ” .

उपन्यास में गांवो के सामाजिक-राजनीतिक ढाँचे की विसंगतियां, धार्मिक पाखंड, जात-पात, छुआछूत, महिलाओ की स्थिति का यथार्थ, अपराध और प्रसाशन के गठजोड़, झोलाछाप स्वास्थ्य व्यवस्था, सामंतवादी सोच के खिलाफ मध्य वर्ग की चेतना आदि विषयों को पूरी गंभीरता से सामने लाने का प्रयास किया गया है।

बिरंचिया गंजेड़ी है। वह फूंकन सिंह की हवेली के सामने के नल से ही पानी पीकर पीछे की दीवार पर पेशाब कर उसे कमजोर करने की मशक्कत में लगा रहता है। उसके माध्यम से व्यंजना में बिटवीन द लाइन्स लेखक ने सामंतवाद के विरोध में बहुत कुछ अभिव्यक्त किया है। बिरंचिया की असामयिक मौत के 13 दिन बाद अंतिम पृष्ठ से उधृत है …. ” रात के 11:30 बजे थे। पुरुषोत्तम सिंह की पत्नी आँगन में कुछ सामान लेने गई थी। तभी उसे लगा कि हाते के पास कुछ आकृति जैसी दिखी हो। उसने करीब जाकर दीवार के पार झाँका। झाँकते ही वह बदहवास उल्टे पाँव चिल्लाकर दौड़ी। घर के लोग तब तक लगभग सो चुके थे। आवाज सुनकर सबसे पहले पुरुषोत्तम सिंह हड़बड़ाकर जागे। “अरे क्या हुआ ? अरे हुआ क्या, काहे चिल्लाए हैं?” पुरुषोत्तम सिंह ने अपने कमरे से बाहर आकर पूछा। “अजी बिरंचिया। बिरंचिया को देखे हम। वहाँ है। वहाँ खड़ा है। ” क्षणभर में पसीने से नहा चुकी, डर से थर-थर काँप रही पत्नी माला देवी ने बताया। “का ? दिमाग खराब है क्या तुम्हारा माँ!” तब तक उठकर आ चुका फूँकन सिंह अंदर के बरामदे से बोला। बाप-बेटे ने लाठी-टॉर्च लेकर पीछे जाकर देखा।

फूंकन सिंह लपक के दीवार पर चढ़ा और पुरुषोत्तम सिंह एक ऊँचा स्टूल लेकर टॉर्च मारने लगे। एक जगह टार्च जाते ही सिहर उठे दोनों। दीवार का एक कोना भीगा हुआ था। फूँकन सिंह तो देखते ही दीवार से कूदकर आँगन में आ गया था। पुरुषोत्तम सिंह ने काँपते कलेजे को सँभालते हुए एक बार सीधी रेखा में टार्च मारी। उन्हें भी लगा कि कोई आदमी काला कंबल ओढ़े दूर खेतों की ओर से निकल रहा है। पुरुषोत्तम सिंह को भी जो दिखा उस पर खुद भी यकीन नहीं कर पा रहे थे। … आखिर कौन था वो आदमी ? कोई तो था। बाप-बेटे अंदर से हिल चुके थे। पसीने से तरबतर, एक-दूसरे का मुँह देख रहे थे। दीवार अब भी खतरे में थी।

कुल जमा सहज भाषा में नाटकीयता से परे जमीनी हकीकत पर “औघड़”एक उम्दा उपन्यास है। कूब पढ़ा जा रहा है, प्रिंट रिप्रिंट जारी है, अमेजन पर सुलभ है, आप भी पढ़िये।

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆ संजय दृष्टि – कविता के आर-पार : शोधकर्ता- डॉ. रजनी रणपिसे ☆ समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

? संजय दृष्टि –  समीक्षा का शुक्रवार # 11 ?

?कविता के आर-पार : शोधकर्ता- डॉ. रजनी रणपिसे ?  समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ?

पुस्तक- कविता के आर-पार : कवि दुष्यंतकुमार

विधा- लघु शोध

शोधकर्ता- डॉ. रजनी रणपिसे

? तुम्हारी कहन-मेरी कहन  श्री संजय भारद्वाज ?

शाश्वत प्रश्न है, ‘मनुष्य लिखता क्यों है?’ स्थूल रूप से माना जाता है कि लेखक या कवि अपनी पीड़ा से मुक्त होने के लिए लिखता है। कभी-कभार वह अपनी प्रसन्नता को विस्तार देने के लिए भी लिखता है। लेखन, भावनात्मक विरेचन है। अगला प्रश्न है कि पाठक किस प्रकार की रचना को श्रेष्ठ मानता है? जिस रचना के भावों, पात्रों, स्थितियों को पाठक अपने भावविश्व के निकट पाता है, उसे बेहतर मानता है। जब रचनाकार के सृजन की व्यक्तिगत लघुता, पाठक की अनुभूति के साथ तादात्म्य स्थापित करती है, अनगिनत पाठकों की सह-अनुभूति पाती है तो प्रभुता में परिवर्तित हो जाती है। समय साक्षी है कि वहीं शब्दकार सफल हुआ जिसने लघुता से प्रभुता की यात्रा की।

दुष्यंतकुमार उन रचनाकारों में से हैं जिन्होंने जीवन की अल्पावधि में ही यह उपलब्धि हासिल की। इस अपूर्व प्रतिभावान कवि ने छोटे-से जीवन में विशेषकर हिंदी ग़ज़ल को नई ऊँचाइयों पर पहुँचाया। वे उन कवियों में रहे जिनकी पारंपरिक विषयों से मुक्त कराके ग़ज़ल का विस्तार करने में महत्वपूर्ण भूमिका रही। यही कारण था कि दुष्यंतकुमार की ग़ज़ल में आम आदमी अपनी समस्याओं की झलक देखने लगा।

देखना, प्रकृति द्वारा सामान्यतया सबको एक समान मिला वरदान है। देखना एक होते हुए भी, विधाता ने प्रत्येक को दृष्टि अलग-अलग दी। लेखक/ कवि अपनी स्थितियों, अपने परिवेश, अपने भाव विश्व और अपनी वैचारिकता से उपजी दृष्टि से किसी विषय को शब्द देता है। पाठक / अनुसंधानकर्ता अपनी दृष्टि से उस रचना को अपनी तरह से समझने का प्रयास करता है। भिन्न-भिन्न पाठकों / अनुसंधानकर्ताओं यह प्रयास किसी रचनाकार की रचनाओं के अनुशीलन को जन्म देता है।

‘कविता के आर-पार : कवि दुष्यंतकुमार’ डॉ. रजनी रणपिसे द्वारा दुष्यंतकुमार की कविताओं का अनुशीलन है। डॉ. रणपिसे स्वयं कवयित्री हैं। उन्हें हिंदी साहित्य के अध्यापन का लम्बा अनुभव है। आशा की जानी चाहिए कि उनका व्यापक दृष्टिकोण दुष्यंतकुमार की कविता के चेतन तत्वों और समष्टि भाव की तार्किक मीमांसा करने में सफल रहेगा। बकौल स्वयं दुष्यंतकुमार-

अपाहिज व्यथा को वहन कर रहा हूँ,

तुम्हारी कहन थी, कहन कर रहा हूँ।

डॉ. रजनी रणपिसे को हार्दिक शुभकामनाएँ।

© संजय भारद्वाज  

नाटककार-निर्देशक

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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