हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ “कैनवस के पास” (काव्य-संग्रह) – डॉ जसप्रीत कौर फ़लक़ ☆ समीक्षा – डॉ. सुरेश नायक ☆

डॉ. सुरेश नायक

☆ पुस्तक चर्चा ☆ “कैनवस के पास” (काव्य-संग्रह) – डॉ जसप्रीत कौर फ़लक़ ☆ समीक्षा – डॉ. सुरेश नायक

कैनवस के पास: प्रेम-सम्बन्ध से शून्य तक की यात्रा डॉ. सुरेश नायक ☆  

जसप्रीत कौर फ़लक़ के सद्यप्रकाशित काव्य-संकलन ‘कैनवस के पास’ गद्य-पद्य में काव्यार्चन के सुवासित पुष्प लेकर हिंदी साहित्य जगत में उपस्थित है। स्नेह-सुवासित इस संग्रह के काव्य-सुमन ह्र्दयक्षेत्र को आप्लावित करते हैं। यहाँ प्रेमजल से सिंचित मन भावनाओं के अनेक इंद्रधनुष खिलाता है। प्रेमजन्य पीड़ा भी कवयित्री ने कविताओं में व्यक्त की है और यही पीड़ा उन्हें रचनाकर्म के लिए प्रेरित करती गई है। प्रकृति उसकी सहचरी है एवं कल्पनाओं का एक उन्मुक्त संसार उसके शब्दों का उद्यान!

डॉ. जसप्रीत कौर फ़लक़

प्रकृति का आँचल थाम लिखी गई कवयित्री की वेदना-गाथा ही उसकी अधिकांश रचनाओं में मुखर है।

पेड़ों से लिपटी बेलें

जगा रही हैं कसक

मन की वेदनाएं उमड़ रही हैं

छूना चाहती हैं प्रेम का क्षितिज

( भीगी चाँदनी , पृ. 35)

जिस गद्य को पद्य में समाहित किया है, वह भी पद्यात्मक है। एक बानगी प्रस्तुत है-

लोग कहते हैं आवाज़ की कोई आकृति नहीं होती। मगर, मुझे नज़र आ रहा है तुम्हारा चेहरा….तुम्हारी आँखों में वही कशिश है….तुम्हें दूर जाकर भी रहना होगा मेरे आसपास…

(जुदाई की तहरीर, पृ.37)

न जाने

कितने पतझड़ आ खड़े हुए

बसन्त का जामा पहन कर

मगर

अविचल पड़ी रही

यह प्रेम की शिला।

वर्चस्ववादी विचारधारा में स्वामी, फ़न के कातिल, संगदिल लोगों के यथार्थ को जानकर कवयित्री ने उनकी वृत्तियों को प्रकाशित किया है-

वो चाहते हैं हमारी मुट्ठी में रहें

सारे सितारे, सारे जुगनूँ

मगर अब मैं

समझ गई हूँ उनकी फ़ितरत

मुझे नहीं है ऐसी रौशनी की ज़रूरत

मैं खुश हूँ

मेरे पास हैं लफ़्ज़ों के चराग़

इल्म की रोशनी।

(लफ़्ज़ों के चराग़, पृ.62)

मीरा और महादेवी की प्रेम की पीड़ा उनके काव्य का प्रमुख स्वर रहा अथवा इस प्रकार कहना अधिक समीचीन होगा कि विरह-व्याकुलता प्रेरक प्रतिपाद्य बनी। इसी वेदनानुभूति के परिप्रेक्ष्य में कवयित्री जसप्रीत कौर फ़लक की भाव-तीव्रता भी उनके शब्दों में स्पष्ट रूप से मुखर हुई है। देखिए-

प्रेम के रस में भीगे तन-मन

मन का नगर बना वृंदावन

मैं हूँ तेरी युगों से जोगन

साँच कहो मेरे मनमोहन

तुम मुझसे रूठ तो न जाओगे

(वेदनाओं की माला, पृ. 63)

आधुनिक समय में प्रेम-सम्बन्धों में भी दैहिक आकर्षण मुख्य है।भोगवृत्ति में प्रवृत्त प्रेमी पुरुष का आत्मिक नैकट्य  न मिल पाना कवयित्री को सालता रहता है। नारी पुरुष के निकट मात्र भोग्या है, इससे अधिक उसमें आत्मा भी है, यह उसकी विचार-परिधि से बाहर है। निदर्शन प्रस्तुत है-

वज अपने पल गंवा देता है

हवस की महफिलें सजाने में

बस एक जिस्म को पाने में

 

वह नहीं जानता

रिश्तों की मर्यादा

प्रेम की परिभाषा

मन का समर्पण

वह लालसा में गंवाता है

अपना हर एक क्षण

( मैं हर पल, पृ.66)

इसी कविता में एक गद्य-टिप्पणी में वे लिखती हैं-

तुम्हें पाने की तड़प में अब जुनून भी है और सुकून भी है…स्पर्श से ज़्यादा लम्बी होती है कल्पनाओं की उम्र…।

फिर भी प्रेयसी के समर्पण में कोई कमी नहीं है। वह अपने जीवन में दीप्त सभी सुखद भावनाओं, अनुभूतियों का जनक अपने प्रियतम को ही स्वीकारती है-

घनघोर घटाओं में

कल्पित व्यथाओं में

मेरे नाम का अर्थ समझाने वाले

तुम्हीं तो हो

(तुम्हीं तो हो, पृ. 71)

 शब्दालंकारों से सज्जित उनकी भाषा में एक अलग ही गरिमा है-

रात गहरा रही है और मैं जाग रही हूँ

तुम्हें सुनाने के लिए

पिघलती रात के काजल से लिखी नई कविता

 और भी-

उम्मीद की टहनियों पे जो फ़ूल थे

वो झर गए

(वस्ल की चाँदनी, पृ.73)

 एक अन्य कविता में नदी के माध्यम से कवयित्री ने नारी -मन की जुझारू मनोवृत्ति को लेखनीबद्ध किया है। यह उनके जीवट एवं रचनाधर्मिता के प्रति प्रतिबद्धता को प्रदर्शित करती कविता है-

मैं बने बनाए हुए

रास्तों पर नहीं चलती

मुझे आता है राह बनाने का हुनर

मेरा टेढ़ा मेढ़ा और लम्बा है सफ़र

 

मैं नदी हूँ

मेरा स्वभाव है ख़ामोश रहना।निरन्तर बहना…निरन्तर चलना

(मैं नदी हूँ, पृ. 76)

जीवन की अपूर्णताओं, दुश्वारियों एवं चुनौतियों के बीच कवयित्री आशावादिता के स्वर से सुख-संगीत की सृष्टि करना चाहती है। आशाओं के रंगों से ज़िन्दगी के अधूरे चेहरे में रंग भरने की अभिलाषा रखती है-

यह सोच कर कि

मेरे बाद जो लोग आएं

उन्हें प्रकृति के कैनवस पर

ज़िन्दगी का चेहरा

उदास नहीं मुस्कुराता दिखे

धुंधला नहीं स्पष्ट दिखे

रंग भरा, भरपूर, खिलखिलाता नज़र आए

इसी कोशिश में मुहब्बत के रंग लेकर बैठी हूँ

(ज़िन्दगी….आधी अधूरी सी, पृ.80)

 एक सच्चे साथी का सम्बल नारी के लिए कितना शक्तिदायी व सार्थक हो सकता है, इसका रेखांकन भी फ़लक़ करती हैं-

तुमसे दिल के रिश्ते हैं

जो पवित्र और सच्चे हैं

तुम्हारे होने से

मेरे जज़्बात महके हैं

 

तुम मेरी अभिव्यक्ति हो

तुम मेरी शक्ति हो

तुम मेरा स्वाभिमान हो

तुम मेरा अभिमान हो

(ज़िन्दगी के मोड़ पर, पृ. 82-83)

कवयित्री कल्पनालोक में विचरण करती हैं तथा एक रुमानियत से भरे आलम में स्वयं को पाती हैं। फ़लक के यहाँ कविता की रचना करना दैनिक जीवन के तल्ख़ यथार्थ से कुछ क्षणों के लिए मुक्ति प्राप्त कर सुखद अनुभूतियों के लोक की यात्रा है-

कभी -कभी ख़याल आता है

कि ख़ुशबू की तरह साथ हवा में उड़ती जाऊँ

मैं परियों के देश में जाकर

उनको अपना गीत सुनाऊँ

(कभी-कभी ख्याल आता है, पृ.105)

प्रेम की शाश्वतता में विश्वास करने वाला कवयित्री का मन कह उठता है-

मैं मुहब्बत को जब भी लिखूंगी

तो दिल के सफ़ीहों पे लिखूंगी

कि कोई मिटा न सके जिसे

मैं जान गई हूं

मुहब्बत तख्तियों पे लिखने की चीज़ नहीं होती

(मुहब्बत, पृ.21)

कितना भी मनोरम-सुरम्य प्राकृतिक स्थल हो, प्रेमी ह्रदय को वह अपने प्रेमास्पद के बिना अपूर्ण ही प्रतीत होता है। ऐसे ही किसी क्षण को जीवंत करतीं फ़लक़ लिखती हैं-

उठो, आओ! कैनवस के पास

इन नज़ारों की तस्वीर बनाओ

इनके हुस्न को कुछ और बढ़ाओ

 

इनमें मुहब्बत का रंग भर दो

इन नज़ारों को मुकम्मल कर दो

आओ ! कैनवस के पास

(कैनवस के पास, पृ. 23)

बिम्ब-विधान इन कविताओं का कलेवर है।  प्रकृति के कैनवस के हर रंग को शब्दों में ढाल कर आर्ट गैलरी -सा यह काव्य-संग्रह सृजित किया गया है।  अधिकांश कविताएं सब्जेक्टिव टोन की हैं। उनमें वर्णित भावुकता, मिलनातुरता, विरहवर्णन की मुखरता, संयोगवस्था के श्रृंगार-चित्र, आत्मिक तृप्ति हेतु व्यथा और अपनी सृजन की प्रेरणा- इन सब पक्षों में कवयित्री की निजी अनुभूतियों की प्रबलता पृष्ठभूमि में विद्यमान है।

गद्य-भाग दार्शनिकता से ओतप्रोत है, जिसे पढ़ना सुखद लगता है। वस्तुतः इनकी उत्सुकता से प्रतीक्षा करने लगता है।

भाषा में हिन्दी-उर्दू का संगम इसे अलग ही छटा प्रदान करता है। उनकी कविताओं में शब्द भावानुसार आकृति लेते गए हैं। इन कविताओं के अनुशीलन से कतई नहीं लगता कि ये सप्रयास सृजित हुई हैं। इनमें अबोधता, निश्छलता के साथ-साथ कहीं-कहीं रूहानियत तक पहुंच भी है। यह पहुँच सौभाग्यशाली रचनात्मक विभूतियों को सहज प्राप्त होती है। इस पर भी विचारों की प्रौढ़ता-परिपक्वता इनमें निहित मानवीय भावों का साक्ष्य भी प्रस्तुत करती है।

प्रस्तुत काव्य-संकलन कवयित्री के साहित्य-साधिका-रूप का एक अन्य निदर्शन है, जो निश्चय ही एक पड़ाव कहा जाएगा। उनसे भविष्य में भी सार्थक सृजन की अपेक्षा जागती है।

शुभकामनाएं !

© डॉ. सुरेश नायक

पूर्व एसोसिएट प्रोफेसर व अध्यक्ष, पटेल मेमोरियल नेशनल कॉलेज, राजपुरा

 #1359, अरबन एस्टेट, फेज़ दो, पटियाला।

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ पुस्तक चर्चा #138 – “अच्छे होने की कठिनाई (Difficulty being Good)” लेखक : गुरुचरण दास ☆ समीक्षक – श्री सुरेश पटवा ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है पुस्तक “अच्छे होने की कठिनाई (Difficulty being Good)” लेखक : गुरुचरण दास की समीक्षा)

📚 पुस्तक चर्चा # 137 – “अच्छे होने की कठिनाई (Difficulty being Good)” लेखक : गुरुचरण दास ☆ समीक्षक – श्री सुरेश पटवा 📚

पुस्तक समीक्षा : कृष्ण प्रयोजन

पुस्तक ; अच्छे होने की कठिनाई

(Difficulty being Good)

लेखक : गुरुचरण दास

समीक्षक : सुरेश पटवा

गुरुचरण दास (जन्म 3 अक्टूबर, 1943), एक भारतीय लेखक, टिप्पणीकार और सार्वजनिक बुद्धिजीवी हैं। वह “द डिफिकल्टी ऑफ बीइंग गुड: ऑन द सटल आर्ट ऑफ धर्म” के लेखक हैं जो महाभारत पर सवाल उठाता है कि “क्या हरेक स्थिति में अच्छा बना रहना कठिनाई पूर्ण नहीं होता है।”

लेखक महाभारत के कथानक की ओर मुड़ते हैं, और पाते हैं कि महाकाव्य की नैतिक अस्पष्टता और अनिश्चितता आज की दुनिया की संकीर्ण और कठोर वास्तविकता के कितने क़रीब है। इससे महाभारत का यह श्लोक सही सिद्ध होता है कि :-

जो यहाँ है वही अन्यत्र पाया जाता है।

जो यहां नहीं है वह कहीं नहीं है.

– महाभारत I.56.35-35

“अच्छा होने की कठिनाई पुस्तक धर्म की सूक्ष्मता पर” प्रसिद्ध भारतीय लेखक और राजनयिक गुरचरण दास की एक विचारोत्तेजक और व्यावहारिक पुस्तक है। प्राचीन भारतीय महाकाव्य महाभारत से सीख लेते हुए, लेखक सद्गुण और धार्मिकता की खोज में व्यक्तियों द्वारा सामना की जाने वाली जटिल नैतिक दुविधाओं और नैतिक चुनौतियों का पता लगाते हैं।

लेखक ने महाभारत के पात्रों और घटनाओं को एक लेंस के रूप में उपयोग करते हुए मानव व्यवहार और निर्णय लेने को आकार देने वाले रिश्तों, मूल्यों और आदर्शों के जटिल जाल की पड़ताल की, जिसके माध्यम से कर्तव्य, वफादारी, न्याय और प्रकृति जैसे सार्वभौमिक विषयों की जांच की जा सके। अपने अच्छे और बुरे का विश्लेषण के माध्यम से पाठकों को अस्पष्टता, परस्पर विरोधी प्रेरणाओं और नैतिक धूसर क्षेत्रों से भरी दुनिया में नैतिक निर्णय लेने की जटिलताओं की गहन और सूक्ष्म समझ प्रदान करते हैं। जी कि कृष्ण के व्यक्तित्व का एक गूढ़ हिस्सा था।

लेखक आकर्षक कहानी और तीक्ष्ण विश्लेषण के माध्यम से पाठकों को सही और गलत के बारे में अपनी धारणाओं पर पुनर्विचार करने और एक ऐसी दुनिया में अच्छा होने की अंतर्निहित कठिनाइयों से लड़ने की चुनौती देते हैं जो अक्सर धोखे, महत्वाकांक्षा और स्वार्थ को पुरस्कृत करती है। अंततः, “अच्छे होने की कठिनाई” नैतिकता, सदाचार और मानवीय स्थिति की एक सम्मोहक खोज प्रदान करती है, जो पाठकों को नैतिक उत्कृष्टता की खोज में अपने स्वयं के विश्वासों और कार्यों पर विचार करने के लिए आमंत्रित करती है।

लेखक प्रत्येक पात्र की कहानी लेता है और उसकी व्याख्या इस प्रकार करता है कि प्रत्येक पात्र स्वयं अच्छा करने का प्रयास कर रहा है; जिस स्थिति में वे हैं, वे खुद को सही और गलत, अच्छे और बुरे के अपने मानकों के प्रति जवाबदेह मानते हैं, अंततः उन व्यक्तियों और समूहों के गुणों के रूप में उभरते हैं जिन्हें हम अपने आसपास देखते हैं।

प्रत्येक पात्र, सही होने की कोशिश करते हुए, और अपनी स्थिति को देखते हुए अपने स्वयं के नैतिक मानकों के अनुसार अच्छा बनने की कोशिश करते हुए, एक प्रकार के व्यक्तित्व के रूप में उभरता है; मैं यह नहीं कहूंगा कि वे आदर्श हैं। बल्कि वे लोग हैं, जो अलग-अलग समय में रहे होंगे, लेकिन उन्हीं चीज़ों से प्रेरित हैं जिनसे हमारे आस-पास के लोग प्रेरित होते हैं – ईर्ष्या, कर्तव्य की भावना, निराशा, निस्वार्थता, विजय, पराजय, छल और बदला।

पुस्तक “धर्म” की व्याख्या “एक जटिल शब्द के रूप में करती है जिसका अर्थ विभिन्न प्रकार से गुण, कर्तव्य और कानून है, लेकिन यह मुख्य रूप से सही काम करने से संबंधित है।” यह निश्चित रूप से यह सवाल उठाता है कि क्या एक सार्वभौमिक सत्य, सही और गलत का एक सार्वभौमिक उपाय, “धर्म” की एक सार्वभौमिक परिभाषा हो सकती है। इस बीच, दास एक परिभाषा प्रस्तुत करते हैं। धर्म को उसकी अनुपस्थिति से पहचानना सबसे आसान है: महाभारत धर्म के विपरीत, अधर्म के माध्यम से धर्म के बारे में सिखाने की शैक्षणिक तकनीक का उपयोग करता है। महाभारत का हर चरित्र दुविधा में है, सिवाय कृष्ण और शकुनि को छोड़कर। शकुनि का लक्ष्य हस्तिनापुर का नाश करना है। वहीं कृष्ण का उद्देश्य हस्तिनापुर को मानव कल्याणकारी राज्य में बदलना है।

कृष्ण के चरित्र पर प्रश्न उठाए जाते हैं कि उन्होंने युद्ध में अधर्म का सहारा लिया। जैसे:-

  1. कुंती को कर्ण के पास भेजकर यह रहस्य उद्घाटन कराया कि वह पाण्डवों का भाई है। कर्ण ने अर्जुन को छोड़कर बाक़ी चार भाइयों का न वध करने का वचन दे दिया। उसने बाक़ी चारों भाइयों को निशाने पर आने के बावजूद छोड़ दिया। इस बात पर उसका दुर्योधन से विवाद भी हुआ।
  2. कृष्ण जानते थे कि कवच कुंडल युक्त कर्ण अर्जुन से श्रेष्ठ यौद्धा है। उन्होंने अर्जुन के पिता इन्द्र को भिक्षुक बनाकर भेजा और कवच कुंडल उतरवा लिये। जो कि कर्ण का सबसे अहम रक्षा कवच था।
  3. कृष्ण ने अश्वत्थामा नामक हाथी के मारे जाने को द्रोणाचार्य पुत्र अश्वत्थामा का स्वाँग रच सत्य पर अड़िग युधिष्ठिर के मुँह से आधा झूठ बुलवाया और आधा सच शंखों की ध्वनि में छुपाया।
  4. कृष्ण ने द्रोणाचार्य का वध उस समय करवाया जब वे निरस्त्र होकर युद्ध भूमि पर निढाल ही बैठे थे। जबकि किसी निरस्त्र यौद्धा पर वार करना युद्ध के नियमों के विरुद्ध था।
  5. कृष्ण ने भीष्म पितामह का वध एक शिखंडी की आड़ में युद्ध करते हुए अर्जुन को सुरक्षित रखकर करवाया।
  6. कृष्ण ने कर्ण का युद्ध उस समय करवाया जब वह युद्ध भूमि में फँसे रथ के पहिये को निकाल रहा था जबकि निहत्थे पर अस्त्र चलाना नियम विरुद्ध था।
  7. कृष्ण ने अर्जुन के हाथों जयद्ररथ का वध सूर्य ग्रहण का प्रयोग करके करवाया।
  8. कृष्ण ने दुर्योधन का वध गदा युद्ध में कमर के नीचे नियम विरुद्ध गदावार से करवाया।

इस सभी का उत्तर मिलता है इसी पुस्तक में। महाभारत का आधार चार पुरुषार्थ के सिद्धांत पर रखा है अर्थात् धर्म अर्थ काम और मोक्ष। महाकाव्य का आरंभ सृजन के हेतु “काम” से होता है। ऋषि पराशर के द्वारा धीवर कन्या सत्यवती से नाव में व्यास जी का जन्म, शान्तनु से गंगा देवी के संसर्ग से भीष्म पितामह का जन्म, विचित्र वीर्य की रानियों के व्यास जी के नियोग से धृष्टराष्ट्र, पांडु और विदुर का जन्म, कुंती से सूर्य द्वारा कर्ण का जन्म, कुंती से धर्म, इंद्र और वायु देव द्वारा युधिष्ठिर, अर्जुन और भीम का जन्म और अश्विनीकुमारों द्वारा माद्रि से नकुल सहदेव का जन्म।

ग्रंथ का दूसरे हिस्से का कथानक “अर्थ” केंद्रित है। हस्तिनापुर का विभाजन न होकर इंद्रप्रस्थ का निर्माण, फिर ईर्ष्या द्वेष का नंगा खेल आरंभ होता है। जो सुई की नोक के बराबर भूमि के बराबर भी अर्थ का विभाजन स्वीकार नहीं करता है। युद्ध अपरिहार्य होता जाता है। द्रौपदी के शब्द, चीरहरण  और भीम की प्रतिज्ञा युद्ध निर्धारित कर देते हैं।

तीसरा कथानक “धर्म” पर आधारित है। भगवत्गीता का कर्मयोग एक निरंतर धर्म है। युद्ध निश्चित है तो संघर्ष करो। डिगो नहीं। उसके बाद मोक्ष का द्वार खुलेगा।

ग्रंथ की सबसे बड़ी सीख है कि पुरुष चतुष्टय भी समय के साथ बदलते रहते हैं। ब्रह्म के अलावा प्रत्येक चीज और सिद्धांत परिवर्तन शील है। धर्म भी अधर्म के अनुरूप उसे पस्त करने को रूप बदलता है।

असल महाभारत शकुनि और कृष्ण की विचारधाराओं के मध्य है। शकुनि की कूटनीतिक समझ है कि कृष्ण युद्ध में अधर्म का सहारा नहीं लेगा। युधिष्ठिर भी धर्म पुत्र है। राम के त्रेता युग से लेकर कृष्ण के द्वापर तक मनुष्यों का मस्तिष्क कूटनीति की बारीकियों से नीति निपुण हो चुका था। हृदय की शुद्धता कम होती जा रही थी। कृष्ण को यह कूटनीतिक समझ थी कि अधर्म को अधर्म से ही जीता जा सकता है। और अधर्म को परास्त करने हेतु अद्भुत तरीक़े धर्म के पक्ष में जाते हैं। मुख्य बात है धर्म युद्ध जीतना। युद्ध जीतने में स्थापित धर्म की मान्यताओं को धता बताकर नयी मान्यताएँ और परम्परायें स्थापित करना भी धर्म का एक अंग है।

एक घटना को लेते हैं। कृष्ण भीम को इशारा करते हैं कि गदायुद्ध में दुर्योधन की कमर के नीचे जंघा पर गदा से वार करे। जबकि गदायुद्ध के नियमों के अनुसार कमर के नीचे वार नहीं किया जाता। यह अधर्म है। लेकिन कृष्ण की दूरदर्शितापूर्ण कूटनीति बुद्धि देखिए कि भरी सभा में किसी पराई स्त्री को नग्न करके जाँघ पर बिठाने के प्रयत्न भी घोर अधर्म है। उस अधर्म पर चोट करने हेतु जंघा पर गदा प्रहार भी धर्म हो जाता है। यानि धर्म की मान्यता भी समय के साथ रूप बदलती है। यहीं कृष्ण हमेशा प्रासंगिक हैं।

धर्म मानव कल्याण हेतू ‘व्यवस्थित अस्तित्व का अनुशासन’ हैं। हमारे पूर्वजों की दुनिया के विपरीत, जो काली और सफ़ेद थी, जहाँ अपना पेट भरने के लिए जानवरों को मारना ही जीने का एकमात्र तरीका था, जहाँ कोई नैतिक द्वंद्व नहीं था, हमारी दुनिया इस सवाल से भरी है कि क्या सही है और क्या गलत है। हम भूरे काल में रहते हैं, काले या सफेद रंग में नहीं। गुरचरण दास हमारे सामने मौजूद नैतिक दुविधाओं को कई आर्थिक घोटालों से परिचित कराते हुए समय के साथ बदलते धर्म की व्याख्या करते चलते हैं।

अच्छा बनने की कठिनाई से 5 मुख्य सबक

  1. अच्छा होने की कठिनाई नैतिक निर्णय लेने की जटिलता और भ्रष्ट और अन्यायी दुनिया में नैतिक सिद्धांतों का पालन करने में व्यक्तियों के सामने आने वाली चुनौतियों की जांच करती है।
  2. पुस्तक धर्म, या कर्तव्य की अवधारणा और व्यक्तियों द्वारा उनके नैतिक सिद्धांतों और मूल्यों के अनुसार अपने दायित्वों और जिम्मेदारियों को पूरा करने के महत्व की पड़ताल करती है।
  3. लेखक, गुरचरण दास, भारतीय महाकाव्य, महाभारत में पात्रों द्वारा सामना की गई नैतिक दुविधाओं पर प्रकाश डालते हैं, और उनके कार्यों के उनके स्वयं के जीवन और दूसरों के जीवन पर परिणामों पर जोर देते हैं।
  4. अच्छा होने की कठिनाई नैतिक निर्णय लेने की जटिलताओं से निपटने के लिए आत्म-अनुशासन, संयम और करुणा, सहानुभूति और अखंडता जैसे गुणों को विकसित करने के महत्व पर जोर देती है।
  5. कुल मिलाकर, यह पुस्तक पाठकों को प्रलोभन, भ्रष्टाचार और नैतिक अस्पष्टता से भरी दुनिया में एक सदाचारी जीवन जीने की चुनौतियों के बारे में मूल्यवान सबक सिखाती है। यह व्यक्तियों को नैतिक उत्कृष्टता के लिए प्रयास करने और ऐसे नैतिक विकल्प चुनने के लिए प्रोत्साहित करता है जो उनके मूल्यों और विश्वासों के अनुरूप हों।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

*≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆ संजय दृष्टि – फिर भी दिल है हिंदुस्तानी — कहानीकार – श्री महेश दुबे ☆ समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

? संजय दृष्टि –  समीक्षा का शुक्रवार # 12 ?

?फिर भी दिल है हिंदुस्तानी — कहानीकार – श्री महेश दुबे ?  समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ?

पुस्तक का नाम – फिर भी दिल है हिंदुस्तानी

विधा – छोटी कहानियाँ

कहानीकार-  श्री महेश दुबे

? छोटी कहानियाँ, बड़े संदर्भ  श्री संजय भारद्वाज ?

कहानी मनुष्य को ज्ञात सबसे पुरानी विधा है। धारणा है कि कहानी का जन्म मनुष्य के साथ ही हुआ। वस्तुतः कहने-सुनने, स्वयं को व्यक्त करने की इच्छा मनुष्य की मूलभूत आवश्यकता है। कहानी रोचकता से इस मानसिक विरेचन को पूरा करती है। सरलता और सुबोधता के चलते कहानी सर्वाधिक संप्रेषणीय विधा हो जाती है। यही कारण है कि स्पष्टीकरण के लिए गूढ़ दर्शन भी कहानी लेखन का सहारा लेता है।

लेखन, निरीक्षण की उपज है। विशेषकर कहानी के संदर्भ में जहाँ अपनी बात पात्रों के माध्यम से रखनी हो, यह निरीक्षण अधिक सूक्ष्मता की मांग रखता है। अपने भीतर एक कहानी समेटे हमारे आसपास अनेक घटनाएँ घट रही होती हैं। इन्हें अनगिन लोग देखते हैं किंतु इनमें कुछ ही के देखने में दृष्टि का अंतर्भाव होता है।

महेश दुबे ऐसे ही दृष्टि संपन्न कहानीकार हैं। वे मूलरूप से कवि हैं। कविता के गर्भ में एक कहानी छिपी होती है जबकि हर कहानी, एक कविता का विस्तार होती है। यही कारण है कि महेश दुबे की कवि दृष्टि, कहानी में संवेदना के सूक्ष्म तंतुओं को स्पंदित करने में सफल रही है।

‘फिर भी दिल है हिंदुस्तानी’ संग्रह की कहानियाँ, कहानीकार की देखी, भोगी, समझी, सुनी घटनाओं की कहन हैं। अपनी कहन की पृष्ठभूमि में उपस्थित घटनाओं का सकारात्मक आकलन लेखक ने किया है। बिना कोई लेबल लगाए, आदमी को आदमी की तरह देखने की यह सकारात्मकता इन कहानियों का शक्तिबिंदु है।

पटकथा लेखन के क्षेत्र में कहा जाता है कि मनुष्य जीवन की कहानियाँ छत्तीस फ्रेमों में बँटी हैं। प्रस्तुत संग्रह की कहानियाँ अमूमन इन सभी फ्रेमों से गुज़रती हैं। आदमी के सारे रंग, रंगों के शेड्स, स्थिति-परिस्थिति, आशा-आशंका, भावना-संभावना को ये प्रकट करती हैं।

साहित्य बेहतर मनुष्य की खोज है। प्रस्तुत कहानियाँ बेहतर मनुष्य को हमारे सामने रखती हैं। विशेष बात है कि ये कहानियाँ बेहतर मनुष्य गढ़ती नहीं अपितु हमारे आसपास, इर्द-गिर्द के नितांत साधारण से परिचित व्यक्ति की ओर इंगित करती हैं और कहती हैं, ‘देखो, यह है बेहतर मनुष्य।’ बेहतर मनुष्य के माध्यम से बेहतर मनुष्यता और बेहतर संसार की यात्रा कराती हैं ये कहानियाँ।

शब्दों की संख्या की दृष्टि से ये कहानियाँ छोटी हैं। अतः पात्रों के चित्रण की अपनी सीमाएँ हैं। पात्र की तुलना में इन कहानियों में परिवेश का चित्रण अधिक मुखर है। भाषा, देशकाल के अनुरूप और सरल है। कथानक सशक्त हैं। कथोपकथन को कहानीकार ने संक्षेप में बहुत प्रभावी ढंग से बांधा है। कथ्य और शिल्प में साधा गया ‘बोनसाई’ संतुलन इन कहानियों की प्रभावोत्पादकता को बहुआयामी करता है। मैं इन्हें बड़े संदर्भ वाली छोटी कहानियाँ निरूपित करूँगा।

कहानियों के जगत में महेश दुबे का प्रकाशित पुस्तक के रूप में यह पहला कदम है। यह कदम इतना सहज और आत्मविश्वास से भरा है कि पाठक इसे हाथों-हाथ अपना लेगा, इसका विश्वास है।

© संजय भारद्वाज  

नाटककार-निर्देशक

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 169 ☆ “औघड़” – लेखक … श्री नीलोत्पल मृणाल ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हमप्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’  जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है आपके द्वारा श्री नीलोत्पल मृणाल जी द्वारा लिखित पुस्तक औघड़पर चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 169 ☆

☆ “औघड़” – लेखक … श्री नीलोत्पल मृणाल ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

पुस्तक चर्चा

पुस्तक …औघड़

उपन्यासकार …नीलोत्पल मृणाल

प्रकाशक …हिन्द युग्म, नोएडा

पृष्ठ …३८८, मूल्य …२०० रु

चर्चाकार …विवेक रंजन श्रीवास्तव

नाटकीयता से परे जमीनी हकीकत पर “औघड़”एक उम्दा उपन्यास

हिन्द युग्म “नई वाली हिंदी” का जश्न मनाने वाला, युवाओ द्वारा प्रारंभ की गई साहित्यिक यात्रा का मंच है। ब्लागिंग के प्रारंभिक दिनों में शैलेश भारतवासी ने हिन्दयुग्म प्रकाशन शुरु किया था। काव्य पल्लवन ब्लाग से मैं भी हिन्द युग्म के प्रारंभिक समय से जुडा रहा हूं। हिन्द युग्म ने कई हिट्स साहित्य जगत को दिये हैं। नीलोत्पल का “औघड़” भी उनमें से एक है। मलखानपुर गांव के इकतीस शब्द दृश्य बेबाकी से यथार्थ बयानी करते हैं। नीलोत्पल की लेखनी में प्रवाह है।

चाय की गुमटी वाले मुरारी, पंडित जी, जग्गू दा, जगदीश यादव, डागदर साहब, गणेशी, आदि आदि चरित्र पात्रों के संग कथानक के नायक सामंतवाद के प्रतिनिधि पुरोषत्तम सिंह और फूंकन सिंह वर्सेस पेशाब की धार को हथियार बनाकर जमीदार की हवेली पर प्रहार करने वाला औघड़ गंजेड़ी बिरंचिया … सब को बड़ी सहजता से “औघड़” में पिरो कर प्रस्तुत किया गया है। बिना नायिका के भी उपन्यास पाठक को अपने साथ बनाये रखने में पूरी तरह सफल है।

नीलोत्पल मृणाल नई पीढ़ी के लोकप्रिय लेखकों में से हैं, उन्हें साहित्य अकादमी युवा पुरस्कार मिल चुका है। औघड़ लोकभाषा और उसी टोन में गांव की पृष्ठ भूमि पर लिखा गया उपन्यास है।

रोजमर्रा की ग्रामीण समस्याओ को रेखांकित किया गया है, उपन्यास अंश उधृत है ” रमनी देवी ने कई बार कहा था कि रात-बिरात हरदम बाहर जाना पड़ता है। सुबह खेत जाओ तो लाज लगता है। कल के दिन घर में बहू आएगी तऽ ऊहो का ऐसे ही खेत जाएगी? काम भर के खाने-पीने का फसल हो ही जाता है। क्या घर में एक ठो लैटरिंग रूम नहीं बन सकता ? गरीब और किसान घर की औरत का इज्जत पानी नहीं है का? एक दिन रात को बलेसर के पतोह को दू-चार लफुआ मोटरसायकिल के लाइट मार रहा था। बेचारी कैसहूँ इज्जत ढक भागी। काहे नहीं बनवा देते हैं घर में लैटरिंग रूम ?”

इसी तरह भूत प्रेत टोना टुटके पर ग्रामीण नजरिये का अंदाजा इस अंश में देखिये “अरे, धीरे बोलिए ना आप। काहे हमारा प्राण लेने पर तुल गए हैं बाबा। अरे बाबा हम तो कह रहे हैं कि 1000 परसेंट भूत ही पकड़ा है चंदन बाबा को। लेकिन ई भूत हिंदू भूत है ही नहीं, महराज यह मुसलमान है, मुसलमान भूत। तब ना इतना उत्पात मचा रहा है। मुसलमानी भूत को क्या कर लेगा आपका जंतर-मंतर। ” लटकु भंडारी ने यह बता जैसे ब्रह्मांड की उत्पत्ति का रहस्य खोलकर रख दिया हो। “

नीलोत्पल के वाक्य विन्यास व्याकरण की सीमाओ से परे बोलचाल की ग्रामीण भाषा में ही है।

नमूना देखिये ” गहरा साँवला रंग। हड्डी पर काम भर का माँस। यही बनावट थी वैजनाथ की। “

सहज दृश्य वर्णन में वे नये उपमान रचते हैं, ” समय खेत जाते बैल की तरह चला जा रहा था “, “मुरारी ने अपने इस सार्थक वचन के साथ ही चर्चा को एक नया फलक प्रदान कर दिया था। चाय पर चर्चा, देश को कितनी सार्थक दिशा दे सकती है, यह यहाँ आकर देखा और समझा जा सकता था। दूरदर्शन और उसके समाज पर प्रभाव के इस सेमीनार का सत्र चल ही रहा था कि मस्जिद से अजान की आवाज आई, “अल्लाह हू अकबर… “लीजिए अजान हो गया। बैरागी पंडी जी के आने का हो गया टाइम। ” मुरारी ने चाय का कप बढ़ाते हुए कहा। असल में बैरागी पंडी जी गाँव के ही मंदिर में पुजारी थे। अजान की आवाज अल्लाह तक जाने से पहले मंदिर के देवी-देवाताओं को मिल जाती थी। बैरागी पंडी जी को वर्षों से अजान की आवाज सुनकर उठने की आदत थी। यही उनका दैनिक अलार्म था। ” …. यह गाँव ही था जहां आम कुत्ते भी हीरा, मोती, शेरा नाम से जाने जाते थे ” .

उपन्यास में गांवो के सामाजिक-राजनीतिक ढाँचे की विसंगतियां, धार्मिक पाखंड, जात-पात, छुआछूत, महिलाओ की स्थिति का यथार्थ, अपराध और प्रसाशन के गठजोड़, झोलाछाप स्वास्थ्य व्यवस्था, सामंतवादी सोच के खिलाफ मध्य वर्ग की चेतना आदि विषयों को पूरी गंभीरता से सामने लाने का प्रयास किया गया है।

बिरंचिया गंजेड़ी है। वह फूंकन सिंह की हवेली के सामने के नल से ही पानी पीकर पीछे की दीवार पर पेशाब कर उसे कमजोर करने की मशक्कत में लगा रहता है। उसके माध्यम से व्यंजना में बिटवीन द लाइन्स लेखक ने सामंतवाद के विरोध में बहुत कुछ अभिव्यक्त किया है। बिरंचिया की असामयिक मौत के 13 दिन बाद अंतिम पृष्ठ से उधृत है …. ” रात के 11:30 बजे थे। पुरुषोत्तम सिंह की पत्नी आँगन में कुछ सामान लेने गई थी। तभी उसे लगा कि हाते के पास कुछ आकृति जैसी दिखी हो। उसने करीब जाकर दीवार के पार झाँका। झाँकते ही वह बदहवास उल्टे पाँव चिल्लाकर दौड़ी। घर के लोग तब तक लगभग सो चुके थे। आवाज सुनकर सबसे पहले पुरुषोत्तम सिंह हड़बड़ाकर जागे। “अरे क्या हुआ ? अरे हुआ क्या, काहे चिल्लाए हैं?” पुरुषोत्तम सिंह ने अपने कमरे से बाहर आकर पूछा। “अजी बिरंचिया। बिरंचिया को देखे हम। वहाँ है। वहाँ खड़ा है। ” क्षणभर में पसीने से नहा चुकी, डर से थर-थर काँप रही पत्नी माला देवी ने बताया। “का ? दिमाग खराब है क्या तुम्हारा माँ!” तब तक उठकर आ चुका फूँकन सिंह अंदर के बरामदे से बोला। बाप-बेटे ने लाठी-टॉर्च लेकर पीछे जाकर देखा।

फूंकन सिंह लपक के दीवार पर चढ़ा और पुरुषोत्तम सिंह एक ऊँचा स्टूल लेकर टॉर्च मारने लगे। एक जगह टार्च जाते ही सिहर उठे दोनों। दीवार का एक कोना भीगा हुआ था। फूँकन सिंह तो देखते ही दीवार से कूदकर आँगन में आ गया था। पुरुषोत्तम सिंह ने काँपते कलेजे को सँभालते हुए एक बार सीधी रेखा में टार्च मारी। उन्हें भी लगा कि कोई आदमी काला कंबल ओढ़े दूर खेतों की ओर से निकल रहा है। पुरुषोत्तम सिंह को भी जो दिखा उस पर खुद भी यकीन नहीं कर पा रहे थे। … आखिर कौन था वो आदमी ? कोई तो था। बाप-बेटे अंदर से हिल चुके थे। पसीने से तरबतर, एक-दूसरे का मुँह देख रहे थे। दीवार अब भी खतरे में थी।

कुल जमा सहज भाषा में नाटकीयता से परे जमीनी हकीकत पर “औघड़”एक उम्दा उपन्यास है। कूब पढ़ा जा रहा है, प्रिंट रिप्रिंट जारी है, अमेजन पर सुलभ है, आप भी पढ़िये।

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆ संजय दृष्टि – कविता के आर-पार : शोधकर्ता- डॉ. रजनी रणपिसे ☆ समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

? संजय दृष्टि –  समीक्षा का शुक्रवार # 11 ?

?कविता के आर-पार : शोधकर्ता- डॉ. रजनी रणपिसे ?  समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ?

पुस्तक- कविता के आर-पार : कवि दुष्यंतकुमार

विधा- लघु शोध

शोधकर्ता- डॉ. रजनी रणपिसे

? तुम्हारी कहन-मेरी कहन  श्री संजय भारद्वाज ?

शाश्वत प्रश्न है, ‘मनुष्य लिखता क्यों है?’ स्थूल रूप से माना जाता है कि लेखक या कवि अपनी पीड़ा से मुक्त होने के लिए लिखता है। कभी-कभार वह अपनी प्रसन्नता को विस्तार देने के लिए भी लिखता है। लेखन, भावनात्मक विरेचन है। अगला प्रश्न है कि पाठक किस प्रकार की रचना को श्रेष्ठ मानता है? जिस रचना के भावों, पात्रों, स्थितियों को पाठक अपने भावविश्व के निकट पाता है, उसे बेहतर मानता है। जब रचनाकार के सृजन की व्यक्तिगत लघुता, पाठक की अनुभूति के साथ तादात्म्य स्थापित करती है, अनगिनत पाठकों की सह-अनुभूति पाती है तो प्रभुता में परिवर्तित हो जाती है। समय साक्षी है कि वहीं शब्दकार सफल हुआ जिसने लघुता से प्रभुता की यात्रा की।

दुष्यंतकुमार उन रचनाकारों में से हैं जिन्होंने जीवन की अल्पावधि में ही यह उपलब्धि हासिल की। इस अपूर्व प्रतिभावान कवि ने छोटे-से जीवन में विशेषकर हिंदी ग़ज़ल को नई ऊँचाइयों पर पहुँचाया। वे उन कवियों में रहे जिनकी पारंपरिक विषयों से मुक्त कराके ग़ज़ल का विस्तार करने में महत्वपूर्ण भूमिका रही। यही कारण था कि दुष्यंतकुमार की ग़ज़ल में आम आदमी अपनी समस्याओं की झलक देखने लगा।

देखना, प्रकृति द्वारा सामान्यतया सबको एक समान मिला वरदान है। देखना एक होते हुए भी, विधाता ने प्रत्येक को दृष्टि अलग-अलग दी। लेखक/ कवि अपनी स्थितियों, अपने परिवेश, अपने भाव विश्व और अपनी वैचारिकता से उपजी दृष्टि से किसी विषय को शब्द देता है। पाठक / अनुसंधानकर्ता अपनी दृष्टि से उस रचना को अपनी तरह से समझने का प्रयास करता है। भिन्न-भिन्न पाठकों / अनुसंधानकर्ताओं यह प्रयास किसी रचनाकार की रचनाओं के अनुशीलन को जन्म देता है।

‘कविता के आर-पार : कवि दुष्यंतकुमार’ डॉ. रजनी रणपिसे द्वारा दुष्यंतकुमार की कविताओं का अनुशीलन है। डॉ. रणपिसे स्वयं कवयित्री हैं। उन्हें हिंदी साहित्य के अध्यापन का लम्बा अनुभव है। आशा की जानी चाहिए कि उनका व्यापक दृष्टिकोण दुष्यंतकुमार की कविता के चेतन तत्वों और समष्टि भाव की तार्किक मीमांसा करने में सफल रहेगा। बकौल स्वयं दुष्यंतकुमार-

अपाहिज व्यथा को वहन कर रहा हूँ,

तुम्हारी कहन थी, कहन कर रहा हूँ।

डॉ. रजनी रणपिसे को हार्दिक शुभकामनाएँ।

© संजय भारद्वाज  

नाटककार-निर्देशक

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ “पानी राखिए” (व्यंग्य-संग्रह) – श्री अभिमन्यु जैन ☆ समीक्षा – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार श्री अभिमन्यु जैन जी के व्यंग्य संग्रह – “पानी राखिए” पर पुस्तक चर्चा।)

☆ पुस्तक चर्चा ☆ “पानी राखिए” (व्यंग्य-संग्रह) – श्री अभिमन्यु जैन ☆ समीक्षा – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

मजबूत खोपड़ी से उपजा ‘पानी राखिए’ व्यंग्य संग्रह– जय प्रकाश पाण्डेय 

रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून। रहीम के इस दोहे ने मनुष्य और समाज की बेहतरी के लिए सकारात्मक संदेश दिया है और व्यंग्यकार अभिमन्यु जैन के व्यंग्य संग्रह ‘पानी राखिए’ में भी हमारे आसपास फैली विसंगतियों, पाखंड, दोगलापन जैसी अनेक विकृतियों पर अपने व्यंग्य लेखों के मार्फत प्रहार कर समाज को जागृत करने का प्रयास किया है।

श्री अभिमन्यु जैन

सच ही तो है पानी हमारे जीवन की सबसे अहम जरूरतों में से एक है इसके बिना मनुष्य ही क्या, किसी भी जीव- जंतु यहाँ तक की प्रकृति के अस्तित्व की कल्पना भी नहीं की जा सकती, इसीलिए ‘पानी राखिए’ शीर्षक वाले संकलन को पानी पी पीकर पढ़ने की इच्छा हुई। अभिमन्यु जी ने पानी राखिए संग्रह सप्रेम भेंट किया, पानी राखिए संग्रह का कवर पेज चेतावनी दे रहा है कि भविष्य में होने वाली लड़ाईयां पानी के कारण होगीं, इसीलिए पानी बचाना बहुत जरूरी होता जा रहा है, और समझ में ये भी आया कि पानी सबको रचता है, पृथ्वी से पानी खींचने के लिए पौधों और वृक्षों की जड़ें नीचे की तरफ गईं। पानी से पृथ्वी पर जीवन आया, पानी से भाषा बनीं, पानी से हम बने, जीवन वहां है जहां पानी है, ऐसे में व्यंग्यकार अभिमन्यु जैन जी का संग्रह “पानी राखिए” पढ़ने के लिए आकर्षित करता है, होना भी यही चाहिए कि शीर्षक ऐसा हो जो पाठक को पढ़ने के लिए बुलाए। सहज सरल व्यक्तित्व के धनी हास्य विनोद से लबालब भरे व्यंग्यकार अभिमन्यु जी हर रचना में कोशिश करते हैं कि उनकी रचना का शीर्षक पाठक को पकड़ कर रचना पूरी पढ़वा ले। व्यंग्यकार अभिमन्यु जैन जी का कहना है कि “व्यंग्य लिखना सरल नहीं, इसके लिए दिल के साथ खोपड़ी भी मजबूत होना चाहिए”। खोपड़ी तभी मजबूत बनेगी जब उसमें व्यंग्य लिखने लायक पानी हो, और दिल दरिया हो, ये सारी बातें व्यंग्यकार अभिमन्यु जी में कूट-कूट कर भरीं हैं। अभिमन्यु जी सकारात्मक सोच के व्यक्ति है विषम परिस्थितियों में भी राह निकालना उनके लिए चुटकियों का काम है। वे यायावर, मस्त मौला लेखक है और यहीं बिंदासपन उनके व्यंग्य लेखों में यदा-कदा दिखाई देता है।

अभिमन्यु जैन जी के व्यंग्य लेखों पर प्रसिद्ध आलोचक स्व.बालेन्दु शेखर तिवारी का कहना था कि ‘अभिमन्यु जैन ने व्यंग्य के इलाके में जान बूझकर पहलकदमी की है और अपने व्यंग्यों के लिए कथ्य और शिल्प की नव्यता तलाशी है, नये आलम्बनों से जूझते हुए उनके व्यंग्य अपने छोटे आकार में भी अनुभव के विस्तार का संकेत देते हैं ‘

जिन प्रवृतियों और आदतों को लेखक ने अपनी बेबाक कलम से पकड़ा है वो किसी एक शहर की बात नहीं है बल्कि शहर-शहर गांव-गांव ये नजारे आपको देखने मिलेंगे। ‘पानी राखिए’ व्यंग्य में लेखक लिखता है, गर्मी और पानी दोनों का बैर है, गर्मी में नल में पानी नहीं आधे घंटे हवा और 15 मिनिट आंसू देता है, इसीलिए शांतिलाल का रोज नल पर झगड़ा होता है और रोज अशांति होती है, गली गली पानी पर पानीपत का युद्ध देखने मिलता है। ये संकेत ऐसे हैं जो इशारा करते हैं कि अगला विश्व युद्ध पानी को लेकर होगा, इसीलिए लेखक बार बार चेतावनी दे रहा है कि पानी राखिए क्योंकि बिन पानी सब सून… हार कर फिर कहता है कि चलो जब प्यास लगे तो रेत निचोड़ना ही होगा। ‘जन्मदिन की बहुत बहुत बधाई’ में टोनू भैया के बार बार जन्मदिन मनाने के ढकोसलेबाजी और राजनैतिक लोगों पर गहरे कटाक्ष किए गए हैं।

अभिमन्यु जैन जी के यहां गुदगुदाते लफ्ज़ों का ये लाव लश्कर किसी चश्मे से फूट कर बहते पानी सा छलकता है। इसमें सायास कुछ भी नहीं है बल्कि अनायास ही लच्छेदार भाषा की फुहार टपकती दिखाई देती है। लच्छेदार भाषा से सराबोर व्यंग्य ‘फूफा जी’ पाठक को जकड़कर बांध लेता है, हास्य विनोद से भरपूर कटाक्ष करते वाक्य जीवन के सच से सामना कराते हैं। फूफा गुजरा गवाह – लौटता बराती है। जीजा नई फिल्म तो फूफा पुरानी फिल्म नये प्रिंट में। मांगलिक अवसर पर फूफा मुंह न फुलाए तो काहे का फूफा। चाहे जो मजबूरी हो फूफा की मांग पूरी हो….

आज के लोग चिकित्सक, अस्पताल मालिक अपने निजी कामों में किस स्वार्थ की हद तक तल्लीन दिखाई देते हैं, ये लेखक ने बखूबी देखा है और उस पर व्यंग्य की दृष्टि से प्रहार किया है। ‘डाक्टर सरकारी, मरीज तरकारी ‘ लेख का शीर्षक पाठक को पढ़ने के लिए बुलाता है। लेख में अस्पताल और असंवेदनशील होते डाक्टरों के चरित्र पर चिंता व्यक्त करते हुए लेखक कहता है कि डाक्टर, अब डाक्टर नहीं रहे वे चाण्डाल बन लाश भी गिरवी रखने लगे हैं। व्यंग्य लेख में बड़े करुण दृश्य उकेरे गए हैं और पैसे के लालच में मरीजों के शोषण की कहानी कही गई है।

सच्चा व्यंग्य मनुष्य को सोचने के लिए बाध्य करता है। पाठक के मन में हलचल पैदा करता है, और जीवन में व्याप्त मिथ्याचार, पाखंड, आसामंजस्य और अन्याय से लड़ने के लिए उसे तैयार करता है। चुनाव में वोट खींचने एवं जनता को तरह तरह के लालच देने वाली शासकीय योजनाओं की बाढ़ का पोस्टमार्टम करती हुई रचना ‘बहना सुखी, भैया दुखी’ में भैया लोगों की पीड़ा और वोट खींचने के लिए महाराष्ट्र सरकार ने आगामी चुनाव हेतु भैया लोगों को सुखी करने की योजना घोषित कर दी है, यही इस व्यंग्य की सफलता मानी जाएगी। ‘बेईमान भर्ती केन्द्र’ लघु व्यंग्य जरूर है पर ईमानदारी से बेईमानी का विश्लेषण करते हुए बेईमान लोगों पर कटाक्ष कर सुधरने का मौका दिया है। उधर ‘फुटपाथ’ लेख में बड़ी सतर्कता के साथ फुटपाथ से अपनी करुण कहानी कहलायी गई है, फुटपाथ कहता है कि वह अमीर गरीब, ऊंच नीच में भेदभाव नहीं करता, फुटपाथ सबके भले पर विश्वास करता है कभी वह गरीबों का मसीहा बन जाता है तो कभी फुटपाथ बनाने वाले अफसर ठेकेदार की हवेली बनवा देता है। उपेक्षित, तिरस्कृत, पीड़ित की पीर फुटपाथ ही सहता है।

व्यंग्य लेखन वास्तव में देश, काल और परिस्थितियों के मद्देनजर व्यक्ति और समाज के अध्ययन से जन्मता है, एक व्यंग्य लेख ‘निधन विचार’ में लेखक ने जीवन की सच्चाई और रिश्तों में आयी खटास को मृत्यु के बहाने बड़े करुण अंदाज में प्रस्तुत करता है, मौत कई घरों में अंधेरा कर जाती है और कई घरों में अंधेर। बाप मर गए अंधेरे में, बेटा का नाम प्रकाश धर गए… कुछ अच्छे प्रयोग देखकर खुशी हुई।

‘नान स्टाप’ लेख में शब्दों की गजब की बाजीगरी देखने मिलती है, नान स्टाप शब्द के बहाने तरह तरह से लूटने और फायदा उठाने वालों पर हास्य विनोद के साथ व्यंग्य बाण छोड़े गए हैं। सादा जीवन, चरित्र बल, ईमानदारी और अपने काम से काम जैसे गुणों ने ही अभिमन्यु जैन की कलम में इतनी ताकत भरी है कि वह कामचोरों, भ्रष्टाचारियों, जमाखोरों, चापलूसों और स्वार्थी, मौकापरस्त, झूठे आश्वासन देने वाले नेताओं का अनावरण करने से नहीं चूकती। वे कहते हैं कि व्यंग्यकार सदैव स्वस्थ विपक्ष की भूमिका निभाता है। व्यंग्य व्यक्ति, सत्ता और समाज को खबरदार करने का काम करता है।

पानी राखिए’ व्यंग्य संग्रह में 46 व्यंग्य रचनाएं उछल-कूद करते पाठकों को पढ़ने बाध्य करतीं हैं। सभी व्यंग्य छोटे हैं पर लक्ष्य बेधन में सफल हैं। यदि व्यंग्य अखबार में छपा है तो कहते हैं कि व्यंग्य की उम्र अधिक नहीं होती किंतु व्यंग्यकार की दृष्टि और उसकी अभिव्यक्ति सशक्त हो तो व्यंग्य दीर्घ जीवी बन जाता है।

अपने आस-पास फैले विषयों, विसंगतियों एवं रोजमर्रा जिन्दगी में फैले ढकोसलेपन जैसी प्रवृत्तियों पर अभिमन्यु जी ने सभी लेखों में अपने तरकश से खूब व्यंग्य बाण छोड़े हैं बहुत अनुशासनात्मक भाषा में।

कुल मिलाकर इस संग्रह की सभी व्यंग्य रचनाएं सहज, सरल होकर भी विसंगतियों पर गहन प्रहार करती हैं।

किताब चर्चा योग्य है, खरीदकर पढ़ना घाटे का सौदा बिल्कुल नहीं। उनके व्यंग्य मात्र हँसी-मजाक नहीं हैं वे चार दशकों से अधिक समय से उद्देश्य पूर्ण, संदेशात्मक तीखी मारक क्षमता वाले व्यंग्य लिख रहे हैं। देश की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाएं निरंतर उनकी रचनाओं का प्रकाशन कर रही हैं। आकाशवाणी से भी जब-तब रचनाओं का प्रसारण होता रहता है।

साफ़ सुथरे मुद्रण, शुद्ध भाषा और कलात्मक प्रस्तुति का श्रेय प्रकाशक को दिया जाए या लेखक को, ये सोचे बिना पाठक अभिमन्यु जी की अगली किताब के इंतजार में रहेंगे। लेखक और संदर्भ प्रकाशन के लिए दिल से बधाई और शुभकामनाएं हैं।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 168 ☆ “मानसी” – लेखक … श्री चंद्रभान राही ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’  जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है आपके द्वारा श्री चंद्रभान राही जी द्वारा लिखित पुस्तक “मानसी…पर चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 168 ☆

☆ “मानसी” – लेखक … श्री चंद्रभान राही ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

पुस्तक चर्चा

पुस्तक – मानसी

उपन्यासकार – चन्द्रभान राही, भोपाल

प्रकाशक – सर्वत्र, भोपाल

पृष्ठ – २७८, मूल्य – ३९९ रु

पाश्चात्य समाज में स्त्रियों की भागीदारी को उन्नीसवीं शताब्दी के अंत और बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में रेखांकित किया जाने लगा था। इसी से विदेशी साहित्य में स्त्री विमर्श की शुरुआत हुई। इसे फ़ेमिनिज़्म कहा गया। स्त्री अस्मिता, लिंग भेद, नारी-जागरण, स्त्री जीवन की सामाजिक, मानसिक, शारीरिक समस्याओं का चित्रण साहित्यिक रचनाओ में प्रमुखता से किया जाने लगा। यह विमर्श एक साहित्यिक आंदोलन के रूप में विकसित हुआ है। आज भी स्त्री विमर्श के विषय, साहित्य के माध्यम से स्त्री पुरुष समानता, स्त्री दासता से मुक्ति के प्रश्नों के उत्तर खोजने की वैचारिक कविताओ, कहानियों, उपन्यास और प्रेरक लेखों के जरिये उठाए जाते हैं। स्त्री विमर्श पर शोध कार्य हो रहे हैं।

मार्क्स ने वर्ग-संघर्ष के विकास में स्त्रियों की अहम भूमिका को स्वीकार किया था। उन्होंने स्त्रियों को शोषित वर्ग का प्रतिनिधि माना था। महिला विमर्श को पश्चिम और भारतीय परिवेश मे अलग नजरियों से देखा गया। पश्चिम ने स्त्री पुरुष को समानता का अधिकार स्वीकार किया। दूसरी ओर भारतीय महाद्वीप में स्त्री पुरुष को सांस्कृतिक रूप से परस्पर अनुपूरक माना जाता रहा है। नार्याः यत्र पूज्यंते। । के वेद वाक्य का सहारा लेकर स्त्री को पुरुष से अधिक महत्व का सैद्धांतिक घोष किया जाता रहा, किन्तु व्यवहारिक पक्ष में आज भी विभिन्न सामाजिक कारणो से समाज के बड़े हिस्से में स्त्री भोग्या स्वरूप में ही दिखती है। कानून, नारी आंदोलन, स्त्री विमर्श यथार्थ के सम्मुख बौने रह गये हैं, और स्त्री विमर्श के साहित्य की प्रासंगिकता सुस्थापित है।

विज्ञापन तथा फिल्मों ने स्त्री देह का ऐसा व्यापार स्थापित किया है कि पुरुष के कंधे से कंधा मिलाने की होड़ में स्त्रियां स्वेच्छा से अनावृत हो रही हैं। इंटरनेट ने स्त्रियों के संग खुला वैश्विक खिलवाड़ किया है। स्त्री मन को पढ़ने की, उसे मानसिक बराबरी देने के संदर्भ में, स्त्री को भी मनुष्य समझने में जो भी किंचित आशा दिखती है वह रचनाकारों से ही है। मुझे प्रसन्नता है कि चन्द्रभान राही जैसे लेखकों में इतना नैतिक साहस है कि वे इसी समाज में रहते हुये, समाज का नंगा सच भीतर से देख समझ कर मानसी जैसा बोल्ड उपन्यास लिखते हैं। मध्य प्रदेश साहित्य अकादमी सम्मान सहित, तुलसी सम्मान, शब्द शिखर सम्मान, पवैया सम्मान, देवकीनंदन महेश्वरी स्मृति सम्मान, श्रम श्री सम्मान, स्वर्गीय नर्मदा प्रसाद खरे सम्मान, पंडित बालकृष्ण शर्मा नवीन सम्मान, आदि आदि अनेक सम्मानो से समादृत बहुविध लेखक श्री चंद्रभान राही का साहित्यिक कृतित्व बहुत लंबा है। मैंने उनसे अनौपचारिक बातचीत में उनकी रचना प्रक्रिया को किंचित समझा है। वे टेबल कुर्सी लगाकर बंद कमरे में लिखने वाले फेंटेसी लेखक नहीं हैं। एक प्रोजेक्ट बनाकर वे सोद्देश्य रचना कर्म करते हैं। अध्ययन, अनुभव और सामाजिक वास्तविकताओ को अपनी जीवंत अभिव्यक्ति शैली में वे कुशलता से पाठकों के लिये पृष्ठ दर पृष्ठ हर सुबह संजोते हैं, पुनर्पाठ कर स्वयं संपादित करते हैं और तब कहीं उनका उपन्यास साहित्य जगत में दस्तक देता है। अपनी नौकरी के साथ साथ वे अपना रचना कर्म निरपेक्ष भाव से करते दिखते हैं। स्वाभाविक रूप से इतनी गंभीरता से किये गये लेखन को उनके पाठक हाथों हाथ लेते हैं। वे उन लेखकों में से हैं जो अपठनीयता के इस युग में भी किताबों से रायल्टी अर्जित कर रहे हैं।

“मर्द, एक स्त्री से दर्द लेकर आता है, दूसरी स्त्री के पास दर्द कम करने के लिए। ” स्त्री, स्त्री है तो एक घरवाली और एक बाहरवाली, दो भागों में कैसे बँट गई ? दोनों स्त्रियों के द्वारा मर्द को संतुष्ट किया जाता है लेकिन बदनाम कुछ ही स्त्रियाँ होती हैं। अनूठे शाब्दिक प्रयोग के साथ लिखे गये बोल्ड उपन्यास ‘मानसी’ के लेखक चन्द्रभान ‘राही’ ने स्त्री मन की पीड़ा को लिखा है। स्त्री प्रेम के लिए मर्द को स्वीकारती है और मर्द, स्त्री के लिए प्रेम को स्वीकारता है। स्त्री प्रेम के वशीभूत होकर अपने सपनों को पूरा करने के लिए पहले दूसरे के सपनों को पूरा करती है। पुरुष प्रधान समाज के बीच स्त्री स्वयं उलझती चली जाती है। इच्छित पुरुष को पाने का असफल प्रयास करती स्त्री की आत्मकथा के माध्यम से प्रेम का मनोविज्ञान ही मानसी का कथानक है।

स्त्री विमर्श आंदोलन ने स्त्री को कुछ स्वतंत्र, आत्मनिर्भर और शक्तिशाली बनाया है। फिल्म, मॉडलिंग, मीडिया के साथ बिजनेस और नौकरी में महिलाओ की भागीदारी बढ़ रही है। किंतु, इसका दूसरा पक्ष बड़ा त्रासद है। उपभोक्तावाद ने कुछ युवतियों को कालगर्ल, स्कार्ट रैकेट का हिस्सा बना दिया है। ‘मी-टू’ अभियान की सच्चाईयां समाज को नंगा करती हैं। आये दिन रेप की वीभत्स्व घटनायें क्या कह रही हैं ? सफल-परिश्रमी युवतियों के चरित्र को संदिग्ध मान लिया जाता है। महिला को संरक्षण देने वाले और समाज की दृष्टि में स्त्री इंसान नहीं ‘रखैल’ घोषित कर दी जाती है। सफल स्त्रियों की आत्मकथाएं कटु जीवनानुभवों का सच हैं। पुरुषों का अहं साथी की योग्यता और सफलता को स्वीकार नहीं कर पाता है। पितृसत्ता स्त्री की आजादी और मुक्ति में बाधक है। आरक्षण महिलाओ की योग्यता और क्षमता को मुखरता देने के लिये वांछित है।

इस उपन्यास के चरित्रों मुंडी, मुंडा, मुंडी का रूपांतरित स्वरूप मानसी, चकाचौंध की दुनियां वाली नैना, गिरधारीलाल, दिवाकर, रवि को लेखक ने बहुत अच्छी तरह कथानक में पिरोया है। उन्होंने संभवतः आंचलिकता को रेखांकित करने के लिये उपन्यास की नायिका मुंडी उर्फ मानसी को आदिवासी अंचल से चुना है। यद्यपि चमत्कारिक रूप से मुंडी के व्यक्तित्व का यू टर्न पाठक को थोड़ा अस्वाभाविक लग सकता है। किन्तु ज्यों ज्यों कहानी बढ़ती है नायिका की मनोदशा में संवेदनशील पाठक खो जाता है। पाठक को अपने परिवेश में ऐसे ही दृश्य समझ आते हैं, भले ही उसने वह सब अखबारी खबरों से देखे हों, स्वअनुभूत हों या दुनियांदारी ने सिखाये हों, पर स्त्री की विवशता पाठक के हृदय में करुणा उत्पन्न करती है। यह लेखकीय सफलता है।

मुझे स्मरण है पहले जब मैं किताबें पढ़ा करता था तो शाश्वत मूल्य के पैराग्राफ लिख लिया करता था, अब तो माध्यम बदल रहे हैं, कई किताबें सुना करता हूं तो कई किंडल पर पढ़ने मिलती हैं। उपन्यास मानसी के वे पैराग्राफ जो रेखांकित किये जाने चाहिये, अपनी प्रारंभिक लेखकीय अभिव्यक्ति ” कुछ तो देखा है ” में चंद्रभान जी ने स्वयं संजो कर प्रस्तुत किये हैं। केवल इतना ही पढ़ने से सजग पाठक अपना कौतुहल रोक नहीं पायेंगे और विचारोत्तेजना उन्हें यह उपन्यास पूरा पढ़ने को प्रेरित करेगी, अतः कुछ अंश उधृत हैं। । ।

‘स्त्री’, जब बड़ी हो जाती है तो लोगों की निगाहों में आती है। लोग स्त्री को सराहते नहीं है। सहलाने लगते हैं। यहीं से मर्द की विकृत मानसिकता और औरत की समझदारी का जन्म होता है।

‘स्त्री’ जब प्रेम के वशीभूत किसी मर्द के साथ होती है तो वह उस समय उसकी पसर्नल होती है। उसके पश्चात वही मर्द उसको ‘वेश्या’ का नाम धर देता है।

‘स्त्री’ को दो घण्टे के लिए होटल का कमरा कोई भी मर्द उपलब्ध करा देता है लेकिन जीवन भर के लिए छत उपलब्ध करना मर्द के लिए आसान नहीं।

‘स्त्री’ जब अपने देह के बदले रोटी को पाने की मशक्कत करे तब मर्द का वज़न उतना नहीं लगता जितना रोटी का लगता है। पेट की भूख मिटाने के खातिर स्त्री कब देह की भूख मिटाने लगती है उसे भी पता नहीं चलता।

“स्त्री प्रतिदिन अपने ऊपर से न जाने कितने वज़नदार मर्दों को उतर जाने देती है। वो उतने वज़नदार नहीं लगते जितनी की रोटी लगती है। “

“मैं जब किसी कमरे में वस्त्र उतारती हूँ तो मेरे साथ एक मर्द भी होता है। सच कहती हूँ तब मैं उसकी पसर्नल होती हूँ। “

“मर्द घर की स्त्री से कहीं ज्यादा आनन्द, संतुष्टि और प्रेम बाहर की स्त्री से पाता है लेकिन बाहर की स्त्री को वो मान-सम्मान और प्रतिष्ठा नहीं देता जो घर की स्त्री को देता है। “

“उन स्त्रियों का जीवन मर्द की प्रतीक्षा में कट जाता है, लेकिन उनकी ये प्रतीक्षा भी अलग अंदाज में होती है। घर की स्त्री भी मर्द की प्रतीक्षा करती है, उसका अपना अलग तरीका होता है। “

” दो घण्टे के साथ में उन स्त्री को सब कुछ मर्द से मिल जाता है। जिन्हें वो खुशी-खुशी स्वीकार कर लेती है। वहीं जीवन भर साथ रहने के पश्चात भी घर की स्त्री, मर्द से कहने से नहीं चूकती ‘तुमने किया ही क्या है, मेरे तो नसीब फूट गए, तम्हारे साथ रहते-रहते। ज़िन्दगी बरबाद हो गई। ‘

‘स्त्री’, ग्लेमर की दुनियाँ में अपनी पहचान बनाने के खातिर खड़ी होती है। समाज कब उसकी अलग पहचान बना देता है स्वयं स्त्री को भी पता नहीं चल पाता। “

‘स्त्री’ कल भी अपना अस्तित्व ढूँढ़ रही थी, आज भी अपना अस्तित्व ढूँढ़ रही है। स्त्री समाज में अपनी पहचान बनाने के लिए उन रास्तों पर कब चली जाती है जो जीवन को अंधकार की और मोड़ देता है। ‘स्त्री’ कभी स्वेच्छा से तो कभी विवश होकर, मजबूरी के कारण मर्द का साथ चाहती है। मर्द का साथ होना ही स्त्री को आत्मबल, सम्बल देता है। स्त्री जब मर्द के पीछे होती है तो स्वयं को सुरक्षित महसूस करती है। स्त्री जब मर्द के आगे होती है तो वह किसी कवच से कम नहीं होती। मर्द की संकीर्ण मानसिकता के कारण मर्द आज भी स्त्री को नग्न अवस्था में देखना पसंद करता है। स्त्री देह का आकर्षण, मर्द के लिए स्वर्णीय कल्पना लोक में जाने से कम प्रसन्नता का अवसर नहीं होता। “

मानसी’ एक ऐसी स्त्री की आत्मकथा है जो आई तो थी दुनियाँ में अपनी पहचान बनाने के लिए लेकिन दुनियाँ ने उसकी अलग ही पहचान बना दी और नाम धर दिया ‘वेश्या’ है। ‘स्त्री’ वेश्या की पहचान लेकर समाज में स्वच्छन्द नहीं घूम सकती। आज भी स्त्री को देवी स्वरूप की दृष्टी से देखने का चलन है। देखना और दिखाना दोनों में अंतर है। वही अंतर घर की स्त्री और बाहर की स्त्री में भी है।

घर की स्त्री और बाहर की स्त्री के साथ काम एक सा ही होता है। पर अलग-अलग नाम, अलग-अलग पहचान क्यों? “स्त्री, मर्द की भावना को समझ नहीं पाती या मर्द स्त्री को समझ नहीं पाता। स्त्री और मर्द के बीच प्रेम की खाईं को मिटा पाना किसी मर्द के बस की बात नहीं दिखती। यदि कहीं, कोई मर्द है, जो स्त्री की संतुष्टि का दावा करता है, तो वह मर्द वास्तव में समाज के लिए प्रणाम के योग्य है। “

लेखक बेबाकी से उन स्त्रियों का हृदय से आभार प्रकट करते हैं जिनके कारण उन्होंने स्त्री मन की भावनाओं तक पहुँच कर उन्हें समझने का प्रयास किया। और यह उपन्यास रचा। वे यह पुस्तक भी मैं उन स्त्रियों को समर्पित करते हैं जिन्होंने ऐसा जीवन जिया है। वे लिखते हैं उन स्त्रियों के साथ होते है, तो दूसरी दुनियाँ की अनुभूति होती है। उनकी दुनियाँ के आगे वास्तविक दुनिया मिथ्या लगती है। सच तो यही है कि उनको पता है कि हम ज़िन्दा क्यों हैं। मरने के लिए ज़िन्दा रहना कोई बड़ी बात नहीं है। बात तो तब है कि कुछ करने के लिए ज़िन्दा रहा जाए।

मुझे विश्वास है कि इस उपन्यास से चंद्रभान राही जी गंभीर स्त्रीविमर्श लेखक के रूप में साहित्य जगत में स्वीकार किये जायेंगे। उपन्यास अमेजन पर सुलभ है, पढ़कर मेरे साथ सहमति तय करिये।

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ “जागते रहो” (लघुकथा संग्रह) – लेखक : श्री मनोज धीमान ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ पुस्तक चर्चा ☆ “जागते रहो” (लघुकथा संग्रह) – लेखक : श्री मनोज धीमान ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

पुस्तक : जागते रहो (लघुकथा संग्रह)

लेखक : मनोज धीमान

प्रकाशक : न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन, नयी दिल्ली।

पृष्ठ : 96

मूल्य : 225 रुपये

☆ मनोज धीमान का “जागते रहो” – समाज को जगाने झकझोरने वाली लघु कथायें – कमलेश भारतीय ☆

मनोज धीमान से कभी रूबरू होने का  मौका तो नहीं बना अभी तक लेकिन पाठक मंच और सिटी एयर न्यूज में हम रोज़ मिलते हैं। बस, मुलाकात होना बाकी है। वे भी मेरी तरह पत्रकार और साहित्यकार हैं। अभी अभी उन्हें गुरु नानक देव‌ विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के साथ किसी महत्त्वपूर्ण तरीके से जोड़ा गया है। यह उनकी उपलब्धि कही जा सकती है। यह उनकी पहली किताब नहीं है। पर लघुकथा में महत्त्वपूर्ण संग्रह है -जागते रहो! न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन ने बहुत खूबसूरत ढंग से और पाॅकेट बुक साइज में प्रकाशित किया है।

अब आते हैं इसकी लघुकथाओं पर! जैसा संग्रह का नाम है, वैसी ही समाज को जगाने व सचेत करने वाली चुटीली लघुकथायें हैं इसमें! सबसे ज्यादा शीर्षक लघुकथा ही जगाने वाली है-जागते रहो, किससे? सरकार की चाल ही नहीं, उसके दुष्प्रचार से क्योंकि धर्म, जाति में बांटने के बाद नये नये न्यूज चैनल चला कर आमजन को गुमराह करने की चाल भी सत्तापक्ष चल रहा है, इसलिए जागते रहो। यह सर्वविदित है कि आज मीडिया किस गहरे गड्ढे में गिर चुका है। मीडिया को सत्तापक्ष ने पालतू बना रखा है, इससे जागते रहो। मदर्ज़ डे को हम मोबाइल पर ही सेलिब्रेट करते हैं जबकि मां दवाई मांग रही है और उसे अनसुना किये जा रहा है बेटा! दिखावा जरूरी, संवेदना गायब! मोबाइल पर, मोबाइल से हमारे जीवन में, रिश्तों में आ रहे बदलाव पर कुछ और लघुकथायें भी हैं। सबसे बड़ी है -झुनझुना! बच्चे जो अपनी खेलों में मस्त रहते थे, झुनझुने से भी खुश हो जाते थे, वही बच्चे अब झुनझुने से नही, मोबाइल से खेलते हैं और दादा का लाया झुनझुना फेंक देते हैं। दंगों में जो आग की लपटें उठती हैं, उनसे दूसरों के घर जलाने वालों के घर भी जल जाते हैं, आग से वे भी कहां बच पाते हैं? यही संदेश देने की कोशिश है! फलों की रेहड़ी लगाने वाला खुद फल खा नहीं पाता और डाॅक्टर सलाह देता है कि फल खाया करो, यह हमारे समाज की बड़ी विडंबना है। नारी के मेकअप का एक पल जब तक खत्म होता है तब तक पति का बाहर जाने का मूड ही नहीं रहता। ऐसी ही रचना लिपस्टिक भी है। महिला रचनाकार के भ्रम में एक पाठक सरोज नाम की लेखिका को मिलने जाता है तो पता चलता है, वे दीना नाथ सरोज हैं यानी सरोज उनका उपनाम है और यह जानकारी मिलते ही प्रशंसक उल्टे पांव भाग लेता है। मेरा खुद का नाम महिलाओं से मिलता होने के चलते ये मज़ेदार स्थितिया़ं अनेक बार आई हैं। ये लेखन के नहीं, महिलाओं के प्रशंसक हैं! भ्रष्टाचार और ईमानदारी की जंग निरंतर जारी है। दलबदल अब किसी गंगा स्नान से कम नहीं, सत्ताधारी दल में शामिल होना किसी गंगास्नान से कम नहीं रहा। लेखकों पर चोट है सोने की कलम! जब सत्ता सम्मान में सोने की कलम दे देती है तो लेखक सत्ता के खिलाफ कलम ही नहीं उठा पाता! काॅफी का स्वाद तब एकदम फीका और बेस्वाद हो जाता है, जब प्रेमिका अपनी शादी की खबर सुनाती है और तुम पहले जैसे नहीं रहे में काॅफी का स्वाद बढ़ जाता है जब पति बधा करवाता है और पति पत्नी एक दूसरे के लिए समय निकालते हैं। पुलिस ही डाॅन की भूमिका में हैं लेकिन टी शर्ट वाला बाबा जैसी लघुकथा इसमें अखरती है। गुरु नानक देव विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के अध्यक्ष प्रो सुनील‌ ने लघुकथा पर भूमिका के रूप में गहरी टिप्पणी की है जो लघुकथा को समझने में काम आयेगी। काफी शोध के बाद लिखी लगती है भूमिका!

मुखपृष्ठ भी खूबसूरत है। बधाई मनोज‌। 

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆ संजय दृष्टि – उसका सूरज  — कवयित्री – भारती संजीव ☆ समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

? संजय दृष्टि –  समीक्षा का शुक्रवार # 10 ?

?उसका सूरज  — कवयित्री – भारती संजीव ?  समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ?

? वो अपने घर का सूरज थी  श्री संजय भारद्वाज ?

पुस्तक- उसका सूरज

विधा- कविता

कवयित्री- भारती संजीव

प्रकाशक- आर के पब्लिकेशन मुम्बई 

मूल्य- 195/- 

देहरी का नाम आते ही/उभरती है एक स्त्री/ जिसके पास न जीभ है /न कान, न आँख /न स्वयं के विचार / ना विरोध की दरकार / है तो सिर्फ कुछ मिले हुए संस्कार / थोपे हुए विचार / जो है समिधा की तरह /स्वाहा होने को तैयार..

‘उसका सूरज’ भारती संजीव का पहला कवितासंग्रह है। उपरोक्त पंक्तियाँ उनके पहले कवितासंग्रह की पहली कविता से हैं। पहली कविता से ही कवयित्री की  विधागत दृष्टि, दृष्टिगोचर होने लगती है। समिधा की आहुति से अग्नि जन्म लेती है। अग्नि विशुद्ध महाभूत होती है। आग पीकर, आग से होकर, आग होकर जन्मती है कविता। यही कारण है कि कविता अभिव्यक्ति की विशुद्व विधा है। भारती संजीव के ‘उसका सूरज’ में यह शुद्धता अन्यान्य पृष्ठों पर प्रखरता से अवलोकित होती है।

कविता की एक विशेषता कम शब्दों में मर्म तक पहुँचना और पहुँचाना भी है। इसके चलते कविता को गागर में सागर की उपमा दी गई है। भीड़ द्वारा डायन घोषित कर किसी स्त्री के साथ किया जानेवाला अघोरीपन पिघलता लोहा है। इस लोहे का कविता में ‘टर्निंग द टेबल’ का दृश्य देखिये-

भीड़ के मनोविकारों की शिकार/डायनें/  लगाती हैं प्रश्नचिह्न व्यवस्था पर /वे छोड़ देती हैं /पिघलता गर्म लोहा /संविधान पर..

विज्ञान बताता है कि एक्स और वाई गुणसूत्र के मिलन से लड़का अथवा लड़की जन्म लेती है। इसका कारक पुरुष होता है ना कि स्त्री। तब भी स्त्री पर लड़की जनने का दोषारोपण और आधुनिक समाज में भी लड़की को कम आंकने की मनोरुग्णता देखने को मिलती है। गुणसूत्र के विज्ञान से परे व्यवहारिक ज्ञान को साधन बनाकर कवयित्री यही बात समाज को समझाने का प्रयास करती हैं।

न ही ईंट-गारे-पत्थर से /बनाई जाती हैं /वे भी पैदा होती हैं/ उसी तरह/जिस तरह पैदा होता है/घर का चिराग..

स्त्री और पुरुष के लिए लिखने की सुविधा में गहरा अंतर है। पुरुष 8 घंटे के लिए काम पर होता है। स्त्री 24×7 गृहिणी होती है। लेखन जब प्रस्फुटित होता है, उसे उसी समय काग़ज़ पर उतारना होता है। उस क्षण चूक जाना, एक रचना से हाथ धो बैठना है। सुबह के अलार्म से उठने के साथ रात को बिस्तर को जाने तक स्त्री अपनी अनेक रचनाओं के गर्भ में ही दम तोड़ने का साक्षी बनती है।

इन अनकहे शब्दों की मृत्यु का/ कोई गवाह नहीं/ जो पन्नों पर उतर आते/  वही स्त्री रचित कहलाते हैं..

स्त्री अपार संभावनाओं का पर्यायवाची है। स्त्री को आधी दुनिया कहना स्त्रीत्व के प्रति असम्मान है। सत्य तो यह है शेष आधी दुनिया को स्त्री अपनी कोख में धारण किए हुए है। विसंगति यह कि ब्रह्मांड होते हुए भी स्त्री को सृष्टि में अपने इच्छा को, अपने भाव को व्यक्त करने के लिए प्रतीकों का सहारा लेना पड़ता है, अपना स्थान बनाने के लिए निरंतर संघर्ष करना पड़ता है। उसे बार-बार, लगातार अपनी क्षमता को सिद्ध करना पड़ता है। तथापि जिजीविषा की धनी स्त्री प्रतिदिन उगनेवाले सूरज की तरह हर सुबह अपना नया सूरज बनाती है। घर, परिवार को आलोकित एवं ऊर्जस्वित कर देती है।

वह आटे की थाली पर/ उकेरती है शब्द/ रंगोली में फुटबॉल, किताबें, नदियाँ /और पहाड़..

……

वह स्त्री है/ सूरज के आने से पहले/  उठती है/ हाथ में रंग कूची लिए/ अपना सूरज/स्वयं बनाती है..

…….

वो अपने घर का सूरज थी/  वो स्त्री थी..

संग्रह में स्त्री संवेदना मुख्य रूप से अभिव्यक्त हुई है। अलबत्ता ऐसा नहीं है कि सारा संग्रह इसी पर केंद्रित हो। संग्रह में श्रमिकों की समस्याओं पर ध्यानाकर्षण है, महामारी की वेदना है, किसानों की चर्चा है, व्यवस्था के विरुद्ध आवाज़ है। ढेर सारी विसंगतियों को कवयित्री बहुत कम शब्दों में पिरो देती हैं-

केंद्र से बहुत दूर/ सारी व्यवस्था के केंद्र में/ आम आदमी..

यह एक स्त्री की रचनाओं का संग्रह है। स्वाभाविक है इनमें करुणा, ममता, वात्सल्य और प्रेम है। घटनाओं, प्रबोधन, प्रवर्तन, युद्ध आदि के मुकाबले प्रेम की सर्वग्राह्यता और अमाप परिधि शब्दों में ढली है।

मैंने क्रांति नहीं की/ मैंने युद्ध भी नहीं किया/ मैंने तो बस प्रेम किया था/ क्रांति तो/ अपने आप हो गई..

स्त्रैण सृष्टि का स्थायी भाव है। वह कायम रहता है। इसी भाँति अक्षर का क्षरण नहीं होता,  अक्षर सदा कायम रहता है। कवयित्री भारती संजीव का यह कविता संग्रह उनके चिंतन और सृजन के प्रति आशा जगाता है। विश्वास किया जाना चाहिए कि आने वाले समय में कवयित्री  पाठकों की इस आशा को कायम रखेंगी।

कायम होना चाहती हूँ/ जैसे कायम होती है/ नमी, समुद्री किनारों पर/ रंग और खुशबू बहारों पर/ झिलमिलाहट सितारों पर/ स्वच्छंदता हवाओं पर..

© संजय भारद्वाज  

नाटककार-निर्देशक

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 167 ☆ “इत्ती सी बात” (व्यंग्य संग्रह) – लेखक … श्री विजी श्रीवास्तव ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’  जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है आपके द्वारा श्री विजी श्रीवास्तव जी द्वारा लिखित पुस्तक “इत्ती सी बात…” (व्यंग्य संग्रह) पर चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 167 ☆

“इत्ती सी बात” (व्यंग्य संग्रह) – लेखक … श्री विजी श्रीवास्तव चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

पुस्तक चर्चा

व्यंग्य संग्रह … इत्ती सी बात

लेखक .. विजी श्रीवास्तव, भोपाल

प्रकाशक .. वनिका पब्लीकेशन, बिजनौर

पृष्ठ ..२२४, मूल्य ३५० रु

चर्चाकार …विवेक रंजन श्रीवास्तव

सतीश शुक्ल का उपन्यास “इत्ती सी बात” नाम से ही प्रकाशित हुआ था, जिसमें दो दोस्तों की कहानियां थी। १९८१ में एक फिल्म आई थी “इतनी सी बात” पारिवारिक ड्रामा था। कोरोना के बाद एक फिल्म आई ‘इत्तू सी बात’ जिस की कहानी इत्ती सी है कि अपनी प्रेमिका से आई लव यू सुनने के लिए एक युवा को आईफोन का जुगाड़ करना है। कहने का आशय यह कि “इत्ती सी बात” में ऐसी बड़ी बातें समाई होती हैं जो बार बार रचनाकारों को आकर्षित करती रहती हैं। व्यंजना के धनी विजी श्रीवास्तव का व्यंग्य संग्रह इत्ती सी बात २०१९ में आया। पिछले लंबे समय से मेरे तकिये के पास था, और मैं इसे मजे लेकर चबा चबा कर पढ़ता रहा। आज आजाद ख्याल विजी भाई का जनमदिन भी है और देश की आजादी की भी वर्षगांठ है, सोचा इत्ती सी बात पर कुछ चर्चा करके विजी जी को बधाई दे दूं। अस्तु।

व्यंग्य पुरोधा डा ज्ञान सर ने लिखा है कि विजी किसी महत्वाकांक्षा के बिना एक बड़े से व्यंग्य लेखक हैं। व्यंग्य यात्रा के सारथी डा प्रेम जनमेजय जी विजी को अपनी पसंद का लेखक बताते हैं। किताब में सम्मलित स्फुट रूप से लिखे गये विभिन्न विषयों के ७२ व्यंग्य लेखों पर व्यंग्य के प्रखर आलोचक सुभाष चंदर जी किताब को सार्थक व्यंग्य की बानगी बताते हैं, व्यंग्य के अर्थशास्त्र के विशेषज्ञ आलोक पुराणिक ने विजी की व्यंग्य साधना को सहज निरुपित किया है। अनूप शुक्ल इन्हें बिना लाग लपेट के लिखे गये बताते हैं। और शांति लाल जैन जी ने इन व्यंग्य लेखों की भाषा में नटखट चुलबुलापान दूंढ़ निकाला है। समकाल के व्यंग्य परिदृश्य के इस प्रमाणीकरण के बाद लिखने को शेष कम बचता है। स्वयं विजी अपने बिगड़े बोल में किताब को कैक्टस का गुलदस्ता बताते हैं।

विजी चाहते तो इतने स्तरीय कलेवर से कम से कम दो किताबें प्रकाशित कर सकते थे। लंबे समय का विविध स्फुट लेखन किताब में संग्रहित है। कुछ विषय जिन्हें मैंने पढ़ते हुये रेखांकित किया, का उल्लेख करता हूं ” गुरु द्रोण तुम कहाँ हो” “सत्य जो ढूँढन मैं चला” “मुझे अवार्ड लौटाना है” “किसान की आत्मा धरने पर” “कट-कॉपी पेस्ट” “हिन्दी के आँसुओं का विश्लेषण” “विकास की चिंता और इकत्तीस मार्च ” “हिन्दुस्तानी चैनल की बहस” “मौत का मुआवज़ा” “इत्ती सी बात”

” सब कुछ प्रायोजित है” “पेन देंगे भाईसाहब ” …. प्रत्येक व्यंग्य दूसरे से कुछ बढ़कर लगा। पूरी किताब गुदगुदाती है, ऐसा लगता है कि ये मेरी अपनी अनुभुति है, बल्कि कई विषयों पर मैंने भी लिखा ही है, किसी दूसरी तरह किसी भिन्न शीर्षक से, पर यह तय है कि जिन मुद्दों पर संवेदनशील मन कचोटता है, उन पर विजी जी ने कलम चलाई है, बेबाकी से पूरी निष्ठुरता से बिना डरे, व्यंग्य के कौशल व्यंजना और लक्षणा के बोध के साथ संप्रेषण की योग्यता के साथ चलाई है। वे अपने लक्षित पाठकों तक कथ्य पहुंचाने में सफल पाये गये। सभी व्यंग्य छोटे हैं पर लक्ष्य बेधन में सफल हैं। शीर्षक व्यंग्य “इत्ती सी बात ” से उधृत है ” आजादी के इत्ते सालों बाद हमने विकास का जित्ता सफर तय किया है उत्ता तो हमने न जाने कब पीछे छोड़ दिया होता जो उत्ता लुटे न होते ” कित्ती कित्ती कुर्बानियों से बने देश में इत्ती इत्ती सी बात पर झगड़ने से हम कित्ता कित्ता खुद का नुकसान कर लेते हैं ” ऐसी सरल शैली में इत्ती वाजिब चिंता विजी के विजन और सोच बताती है।

“बड़े बाबू की पर्सनल डायरी” में विजी एक नये तरीके से डायरी के पन्नो को व्यंग्य बनाने की क्षमता प्रदर्शित करते हुये एक सर्वथा भिन्न शैली में लिखते हैं। इसी भांति ” तोड़ी नाखो, फोड़ी नाखो, भूको करी नाखो ” नाट्य संवाद शैली का व्यंग्य है। अमिताभ बच्चन और किसान चैनल में भी उन्होंने नवीनता का बोध करवाया है, सुप्रसिद्ध टी वी कार्यक्रम के बी सी की तर्ज पर कटाक्ष से भरपूर सवाल हैं जो किसान के परिदृश्य में करुणा, संवेदना और दर्द से पाठक को प्रभावित किये बिना नहीं रह सकते। वे अपनी आजीविका में कृषि जगत से जुड़े हुये हैं और उन्होंने जो कुछ बहुत पास से देखा उसे पाठको को उसी भाव से संप्रेषित करने में सफलता अर्जित की है। “रेप से बेअसर रेपो” कटु सचाई है। दुखद है कि विजी ने जो मुद्दे व्यंग्य के लिये चुने वे समाज का शाश्वत नासूर बन रहे हैं। कहा जाता है कि व्यंग्य की उम्र अधिक नहीं होती वह अखबारी होता है, किंतु व्यंग्यकार की दृष्टि, और उसकी अभिव्यक्ति सशक्त हो तो व्यंग्य दीर्घ जीवी बन जाता है, क्योंकि मूल मानवीय और सामाजिक प्रवृतियां किंबहुना स्वरूप बदल बदल कर वही बनी हुई हैं। किताब चर्चा योग्य है, खरीदकर पढ़ना घाटे का सौदा बिल्कुल नहीं है। किताब का अंतिम पैरा पढ़वाता हूं ” अजीबो गरीब कहानियों की जलेबी, फेकम फाँक पगे घेवर, गठजोड़ का खत्टा चिरपरा मिक्चर, किसी को पच नहीं रहा। …. चूरण की जरूरत किसे है ? जनता को या उन्हें जिनकी न लीलने की सीमा न उगलने का शउर है। “न लीलने की सीमा न उगलने का शउर ” से।

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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