(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब) शिक्षा- एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)
☆ पुस्तक चर्चा ☆ “मैं एकलव्य नहीं” (लघुकथा संग्रह) – लेखक : श्री जगदीश कुलरिया ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆
पुस्तक : मैं एकलव्य नहीं (लघुकथा संग्रह)
लेखक : श्री जगदीश कुलरिया
प्रकाशक : के पब्लिकेशन, बरेटा (पंजाब)
मूल्य : 199 रुपये
☆ एक सोच और समर्पण के साथ लिखीं लघुकथायें – कमलेश भारतीय ☆
हिंदी व पंजाबी में एकसाथ सक्रिय जगदीश कुलरिया पंजाब से आते हैं और अनुवाद में तो अकादमी पुरस्कार भी पा चुके हैं । पंजाब के मिन्नी आंदोलन से जुड़े हैं और उनका ‘मैं एकलव्य नहीं’ लघुकथा संग्रह मिला तो लगभग दो ही दिनों में इसके पन्नों से गुजर गया और महसूस किया कि कुलरिया एक सोच और समर्पण के साथ लघुकथा आंदोलन से जुड़े हैं, कोई शौकिया या रविवारीय लेखन नहीं करते है । अनेक पत्रिकाओं में इनकी रचनायें पढ़ने को मिलती हैं । शुरुआत के पन्नों में जगदीश कुलरिया ने अपने लघुकथा से जुड़ने और अब तक कि लघुकथा लेखन-यात्रा के अनुभवों का विस्तार से जिक्र करते लघुकथा के प्रति अपने समर्पण व दिशा और सोच के बारे में खूब लिखा है और अपनी कुछ लघुकथाओं का उल्लेख भी किया है उदाहरण भी दिये हैं । लघुकथायें समाज व आसपास से ही हुए अनुभवों पर आधारित हैं, जिनमें थर्ड जेंडर, रिश्वत, नेता का रोज़नामचा, ज़मीन के बटवारे के बीच अवैध संबंधों की पीड़ा और महिलाओं के सशक्तिकरण व एकलव्य की तरह अब अंगूठा न कटवाने जैसी घटनायें या कहिये अनुभव इनकी लघुकथाओं के आधार बने हैं और समाज को आइना दिखाते हैं । असल में आजकल मैं एक एक लघुकथा या रचना पर बात न कर, इनकी आधारभूमि को टटोलता हूँ और फिर लघुकथा के सृजन की पीड़ा को समझने का प्रयास करता हूँ। सौ पृष्ठों में फैली पुस्तक को अंतिम पन्ने तक पढ़ा है, जिसमें जगदीश कुलरिया का लघुकथा के प्रति समर्पण और लघुकथा के क्षेत्र में योगदान सब उभर कर सामने आया है । बधाई। लगे रहो कुलरिया भाई । हिंदी व पंजाबी लेखन के बीच एक शानदार पुल की भूमिका भी निभा रहे हो ।
लघुकथा संग्रह पेपरबैक में है और मुखपृष्ठ भी खूबसूरत है। बहुत बहुत बधाई । ऐसा लगता है यह लघुकथा संग्रह स्वयं कुलरिया ने ही प्रकाशित किया है, जो बहुत खूबसूरत आया है।
(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं।
आज प्रस्तुत है आपके द्वारा श्री सुदर्शन सोनी द्वारा लिखित पुस्तक “नौकरी धूप सेंकने की…” (जीवनी)पर चर्चा।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 165 ☆
☆ “नौकरी धूप सेंकने की” – लेखक … श्री सुदर्शन सोनी☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
पुस्तक चर्चा
व्यंग्य संग्रह – नौकरी धूप सेंकने की
लेखक – श्री सुदर्शन सोनी, भोपाल
प्रकाशक …आईसेक्ट पब्लीकेशन, भोपाल
पृष्ठ ..२२४, मूल्य २५० रु
चर्चा …. विवेक रंजन श्रीवास्तव
मो ७०००३७५७९८
धूप से शरीर में विटामिन-D बनता है। नेशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसिन की मानें, तो विटामिन डी प्राप्त करने के लिए सुबह 11 से 2 बजे के बीच धूप सबसे अधिक लाभकारी होती है। यह दिमाग को हेल्दी बनाती है और इम्यून सिस्टम को मजबूत करती है। आयुर्वेद के अनुसार, शरीर में पाचन का कार्य जठराग्नि द्वारा किया जाता है, जिसका मुख्य स्रोत सूर्य है। दोपहर में सूर्य अपने चरम पर होता है और उस समय तुलनात्मक रूप से जठराग्नि भी सक्रिय होती है। इस समय का भोजन अच्छी तरह से पचता है। सरकारी कर्मचारी जीवन में जो कुछ करते हैं, वह सरकार के लिये ही करते हैं। इस तरह से यदि तन मन स्वस्थ रखने के लिये वे नौकरी के समय में धूप सेंकतें हैं तो वह भी सरकारी काम ही हुआ, और इसमें किसी को कोई एतराज नहीं होना चाहिये। सुदर्शन सोनी सरकारी अमले के आला अधिकारी रहे हैं, और उन्होंने धूप सेंकने की नौकरी को बहुत पास से, सरकारी तंत्र के भीतर से समझा है। व्यंग्य उनके खून में प्रवाहमान है, वे पांच व्यंग्य संग्रह साहित्य जगत को दे चुके हैं, व्यंग्य केंद्रित संस्था व्यंग्य भोजपाल चलाते हैं। वह सब जो उन्होने जीवन भर अनुभव किया समय समय पर व्यंग्य लेखों के रूप में स्वभावतः निसृत होता रहा। लेखकीय में उन्होंने स्वयं लिखा है ” इस संग्रह की मेरी ५१ प्रतिनिधि रचनायें हैं जो मुझे काफी प्रिय हैं “। किसी भी रचना का सर्वोत्तम समीक्षक लेखक स्वयं ही होता है, इसलिये सुदर्शन सोनी की इस लेखकीय अभिव्यक्ति को “नौकरी धूप सेंकने की” व्यंग्य संग्रह का यू एस पी कहा जाना चाहिये। सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार आलोक पुराणिक ने किताब की भूमिका में लिखा है ” सरकारी कर्मचारी धूप सेंक रहे हैं, दफ्तर ठप हैं, पर सरकार चल रही है, पब्लिक परेशान है। सरकार चलाने वाले चालू हैं वे काम के वक्त धूप सेंकते हैं। ”
मैंने “नौकरी धूप सेंकने की” को पहले ई बुक के स्वरूप में पढ़ा, फिर लगा कि इसे तो फुरसत से आड़े टेढ़े लेटकर पढ़ने में मजा आयेगा तो किताब के रूप में लाकर पढ़ा। पढ़ता गया, रुचि बढ़ती गई और देर रात तक सारे व्यंग्य पढ़ ही डाले। लुप्त राष्ट्रीय आयटम बनाम नये राष्ट्रीय प्रतीक, व्यवस्था का मैक्रोस्कोप, भ्रष्टाचार का नख-शिख वर्णन, साधने की कला, गरीबी तेरा उपकार हम नहीं भूल पाएंगे, मेवा निवृत्ति, बाढ़ के फायदे, मीटिंग अधिकारी, नौकरी धूप सेकने की, सरकार के मार्ग, डिजिटाईजेशन और बड़े बाबू, एक अदद नाले के अधिकार क्षेत्र का विमर्श आदि अनुभूत सारकारी तंत्र की मारक रचनायें हैं। टीकाकरण से पहले कोचिंगकरण से लेखक की व्यंग्य कल्पना की बानगी उधृत है ” कुछ ऐसे भी लोग होंगे जो अजन्मे बच्चे की कोचिंग की व्यवस्था कर लेंगे “। लिखते रहने के लिये पढ़ते रहना जरूरी होता है, सुदर्शन जी पढ़ाकू हैं, और मौके पर अपने पढ़े का प्रयोग व्यंग्य की धार बनाने में करते हैं, आओ नरेगा-नरेगा खेलें में वे लिखते हैं ” ये ऐसा ही प्रश्न है जेसे फ्रांस की राजकुमारी ने फ्रासीसी क्रांति के समय कहा कि रोटी नहीं है तो ये केक क्यों नहीं खाते ? “सर्वोच्च प्राथमिकता” सरकारी फाइलों की अनिवार्य तैग लाइन होती है, उस पर वे तीक्षण प्रहार करते हुये लिखते हैं कि सर्वोच्च प्राथमिकता रहना तो चाहती है सुशासन, रोजगार, समृद्धि, विकास के साथ पर व्यवस्था पूछे तो। व्यंग्य लेखों की भाषा को अलंकारिक या क्लिष्ट बनाकर सुदर्शन आम पाठक से दूर नहीं जाना चाहते, यही उनका अभिव्यक्ति कौशल है।
अगले जनम हमें मिडिल क्लास न कीजो, अनेक पतियों को एक नेक सलाह, हर नुक्कड़ पर एक पान व एक दांतों की दुकान, महँगाई का शुक्ल पक्ष, अखबार का भविष्यफल, आक्रोश जोन, पतियों का एक्सचेंज ऑफर, पत्नी के सात मूलभूत अधिकार, शर्म का शर्मसार होना वगैरह वे व्यंग्य हैं जो आफिस आते जाते उनकी पैनी दृष्टि से गुजरी सामाजिक विसंगतियों को लक्ष्य कर रचे गये हैं। वे पहले अगले जनम मोहे कुत्ता कीजो व्यंग्य संग्रह लिख चुके हैं। डोडो का पॉटी संस्कार, जेनरेशन गैप इन कुत्तापालन इससंग्रह में उनकी पसंद के व्यंग्य हैं। अपनी साहित्यिक जमात पर भी उनके कटाक्ष कई लेखों में मिलते हैं उदाहरण स्वरूप एक पुरस्कार समारोह की झलकियां, ये भी गौरवान्वित हुए, साहित्य की नगदी फसलें, श्रोता प्रोत्साहन योजना, वर्गीकरण साहित्यकारों का : एक तुच्छ प्रयास, सम्मानों की धुंध, आदि व्यंग्य अपने शीर्षक से ही अपनी कथा वस्तु का किंचित प्रागट्य कर रहे हैं।
एक वोटर के हसीन सपने में वे फ्री बीज पर गहरा कटाक्ष करते हुये लिखते हैं ” अब हमें कोई कार्य करने की जरूरत नहीं है वोट देना ही सबसे बड़ा कर्म है हमारे पास “। संग्रह की प्रत्येक रचना लक्ष्यभेदी है। किताब पैसा वसूल है। पढ़ें और आनंद लें। किताब का अंतिम व्यंग्य है मीटिंग अधिकारी और अंतिम वाक्य है कि जब सत्कार अधिकारी हो सकता है तो मीटिंग अधिकारी क्यों नहीं हो सकता ? ऐसा हो तो बाकी लोग मीटिंग की चिंता से मुक्त होकर काम कर सकेंगे। काश इसे व्यंग्य नहीं अमिधा में ही समझा जाये, औेर वास्तव में काम हों केवल मीटिंग नहीं।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
संजय दृष्टि – समीक्षा का शुक्रवार # 8
मैं सिमट रही हूँ — कवयित्री – रेखा सिंह समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज
पुस्तक का नाम- मैं सिमट रही हूँ
विधा- कविता
कवयित्री – रेखा सिंह
प्रकाशन- क्षितिज प्रकाशन, पुणे
फल्गु की तरह अंतर्स्रावी कविताएँ☆ श्री संजय भारद्वाज
भूमिति के सिद्धांतों के अनुसार रेखा अनगिनत बिंदुओं से बनी है। इसमें अंतर्निहित हर बिंदु में एक केंद्र होने की संभावना छिपी होती है। ऐसे अनेक संभावित केंद्रों का समुच्चय हैं कवयित्री रेखा सिंह। परिचयात्मक कविता में वे अपनी क्षमताओं, संभावनाओं और आत्मविश्वास का स्पष्ट उद्घोष भी करती हैं-
मैं तो रेखा हूँ
मुझमें क्या कमी…!
प्रस्तुत कवितासंग्रह में कवयित्री ने अपने समय के अधिकांश विषयों को बारीकी से छूने का प्रयास किया है। नारी विमर्श, परिवार, आक्रोश, विवशता, गर्भ में पलता स्वप्न, लोकतांत्रिक चेतना, प्रकृति, विसंगतियाँ, धार्मिकता, अध्यात्म जैसे अनेक बिंदु इस रेखा में समाहित है। अपने परिप्रेक्ष्य से शिकायत का स्वर गूँजता है-
मैं गाती / यदि गाने का मौका दिया होता
मैं हँसाती / यदि हँसने का मौका दिया होता
ये शिकायत नारी की विशाल दृष्टि और परिवर्तन की अदम्य जिजीविषा में रुपांतरित होती है। कवयित्री इला के अंतराल में समानेवाली सीता नहीं बनना चाहती। दीपिका तो अवश्य जलेगी भले उजाले में ही क्यों न जलानी पड़े। मीमांसा तार्किक है, उद्देश्य स्पष्ट है-
अंधेरे में जलाऊँगी दीपिका,
क्योंकि उजाले में
दीपिका का अस्तित्व
तुम नहीं समझ सके !
अपराजेय नारीत्व चरम पर पहुँचता है, अभिव्यक्त होता है-
ओ सिकंदर,
तुम, विश्वविजेता बन सकते,
मुझे नहीं जीत सकते..!
पर सिकंदर का प्रेम पाते ही सारी कुंठाएँ विसर्जित हो जाती हैं। प्रेम के आगे सारे वाद बौने लगने लगते हैं। कवयित्री का स्त्रीत्व कलकल प्रवाहित होने लगता है-
आज कोई सिकंदर,
मेरे आगे झुका है,
आज फिर किसी नल ने
दमयंती से स्वयंवर रचाया है,
आ, अब लौट चलें अपनी दुनिया में,
बाकी पल गुज़ार लेंगे हँसते-हँसते..!
मानव के भीतर की आशंका से कवयित्री रू-ब-रू होती हैं, प्रश्न करती हैं-
क्या होती हैं विभ्रम की प्रवृत्तियाँ?
रस्सी को सर्प समझने की रीतियाँ?
रेखा सिंह ने समाज को समग्रता से देखने का प्रयास किया है। ‘सास-बहू’ के उलझे समीकरणों के तार सुलझाने की ईमानदार कोशिश है ‘काश’ नामक कविता। ‘धरातल’ राजनीतिक-सामाजिक विषमता के धरातल पर खड़े देश की सांप्रतिक पीड़ा का स्वर बनती है। ‘जोगी’ ‘स्नातक-भिक्षुक’ बनाती हमारी शिक्षानीति पर व्यंग्य करती है तो ‘जंगल की ओर’ सभ्यता की यात्रा की दिशा पर गंभीर प्रश्न खड़े करती है। ‘आखिर क्यों’ और इस भाव की अन्य कविताएँ आतंकवाद की मीमांसा करने का प्रयास करती हैं।
शासनबद्धता का चोला ओढ़कर अन्याय को रोक पाने में असमर्थता व्यक्त करनेवाले भीष्म पितामह को आदर्श मानने से इंकार करना कवयित्री का सत्याग्रह है। ‘गंगापुत्र’ नामक इस कविता में दायित्व से बचने के बहाने तलाशनेवाली मानसिकता पर कठोर प्रहार है। संवेदना से लबरेज़ संग्रह की इन कविताओं में मनुष्य के सूक्ष्म मन को स्पर्श करने का सामर्थ्य है। ‘पुश्तैनी घर’ में ये संवेदना भारतीय प्रतीकों के संकेत से प्रखरता उभरी है। यथा-
तुलसी का चबूतरा
बन गया दीवार बंटवारे की..!
शहर द्वारा अपहृत होते गाँव ‘अनमोल’ कविता में सजीव हो उठते हैं-
सींचता बही जो बोता है,
उसके अंदर एक बच्चा रोता है..
झारखंड की हरित पृष्ठभूमि में रची गई इन कविताओं में प्रकृति का सुंदर चित्रण हुआ है। अधिकांश कविताओं में ऋतुओं का वर्णन शृंगार रस में हुआ है। संग्रह में कई गीत भी शामिल किए गए हैं। इनमें गेयता और मिठास दोनों हैं। पूरे संग्रह में आँचलिकता मिश्री-सी घुली हुई है और उसकी माटी की सुगंध हर रचना में समाहित है। ‘चंबर’, ‘मोजराई गंध’, ‘तुदन’ जैसे शब्द पाठक को कविता की कोख तक ले जाते हैं। ‘शिवजी की बरात’, ‘कल्पगा की धार’ जैसे प्रतिमान लोकसंस्कृति के स्वर को शक्ति प्रदान करते हैं। पपीहा तो कवयित्री के मन से निकलकर कई बार कविता के अनेक पन्नों की सैर कर आता है। ‘मल्हार’ कविता में पंद्रह अगस्त को तीज-त्यौहार से जोड़ना बेहद प्रभावी और सार्थक बन पड़ा है।
कवयित्री ने नारी विमर्श को एकांगी न रखते हुए एक ही कविता से क्यों न हो, पुरुष के मन की भीतरी परतों को टटोलने का प्रयास भी किया है। रेखा सिंह की कुछ हास्य कविताएँ भी इस संग्रह में सम्मिलित हैं। हास्य रस पर कवयित्री की पकड़ साबित करती है कि वे बहुमुखी प्रतिभा की धनी हैं।
शीर्षक कविता ‘मैं सिमट रही हूँ में प्रयुक्त सिमटना को मैं सकारात्मक भाव से सृजन के लिए आवश्यक प्रक्रिया के तौर पर देखता हूँ। बाहर विस्तार के लिए भीतर सिमटना होता है। यह संग्रह इस बात का दस्तावेज़ है कि कवयित्री का रचना सामर्थ्य लोहे के दरवाज़ों की नींव हिलाने में समर्थ है। कितने ही दरवाज़े लग जाएँ, वह ताज़ा हवा का झोंका तलाश लेंगी।
मैं सिमट रही हूँ,
अपने आप में,
धुआँकश कारागार में,
मेरे इर्द-गिर्द लग गए
लोहे के दरवाज़े..!
कवयित्री ने एक रचना में धरती के भीतर प्रवाहित होती फल्गु नदी का संदर्भ दिया है। रेखा सिंह की ये कविताएँ भी फल्गु की तरह अंतर्स्रावी हैं। भीतर ही भीतर प्रवाहित होने के कारण ये अब तक वांछित प्रकाश से वंचित रही हैं। ये अच्छी बात है कि अंतर्स्राव धरती से बाहर निकल आया है। अब इसे सूरज की उष्मा मिलेगी, चंद्र की ज्योत्स्ना मिलेगी। सृष्टि के सारे घात-प्रतिघात, मोह-व्यामोह, प्रशंसा-उपेक्षा सभी मिलेंगे। इनके चलते परिष्कृत होने की प्रक्रिया भी निरंतर चलती रहेगी।
फल्गु अब संभावनाओं की विशाल जलराशि समेटे गंगोत्री-सी कलकल बहने को तैयार है। अपने भूत को झटक कर उसे भविष्य की यात्रा करनी है।
अतीत के पन्ने,
उलटो न बार-बार,
चलते चलो,
कश्ती कर जाएगी
मझधार पार।
शुभाशंसा।
(श्रीमती रेखा सिंह का पिछले दिनों देहांत हो गया। वर्ष 2009 में प्रकाशित उनके कवितासंग्रह ‘मैं सिमट रही हूँ’ की यह समीक्षा दिवंगत को श्रद्धांजलि स्वरूप प्रस्तुत कर रहे हैं।)
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
☆ पुस्तक चर्चा ☆ “बंद किवाड़ों पर दस्तक देती आजादी” – सुश्री इन्दिरा किसलय ☆ चर्चाकार – श्री अशोक शर्मा ☆
पुस्तक – बंद किवाड़ों पर दस्तक देती आजादी
कृतिकार—इन्दिरा किसलय
समीक्षक—अशोक शर्मा चण्डीगढ़
प्रकाशक—अविशा प्रकाशन
मूल्य –150/-
पृष्ठ–100
☆ मनोमंथन को विवश करती — “बंद किवाड़ों पर दस्तक देती आजादी” – श्री अशोक शर्मा ☆
“बंद किवाड़ों पर दस्तक देती आजादी “शीर्षकवाही कृति में लेखिका “इन्दिरा किसलय” के 40 आलेख संग्रहित हैं। उनकी दो दशक की साहित्यिक यात्रा के मनपसंद पड़ाव कह सकते हैं इन्हें। जो यथासमय विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं।
इन्दिरा किसलय
उन्होंने स्वयं स्वीकार किया है कि संग्रह के अधिकांश लेख स्त्री सशक्तिकरण पर केन्द्रित हैं।
उन्होंने एक ओर पराधीनता के दृश्य उकेरे दूसरी ओर आजादी के सम्यक प्रयोग से प्राप्त ऊँचाइयों को भी अंकित किया है।
लेखिका ने अन्य विषयों पर भी कलम की आजादी का भरपूर उपयोग किया है फिर वह राजनीति, धर्म अध्यात्म, गांधीवाद, पर्यावरण तथा युद्ध ही क्यों न हो, उनकी जाग्रत संचेतना से जुड़कर जानकारियों के साथ भावभीना स्पर्श भी दे जाते हैं। पौराणिक कथानकों की नवतम व्याख्या भी संलग्न है। कहने की जरूरत नहीं कि हर समसामयिक संदर्भ में शाश्वत प्रवाह की गूँज छिपी होती है।
“झरोखा कान्हा की यादों का” एवं “रिमझिम बरसे हरसिंगार ” जैसे संस्मरणात्मक ललित लेख एक मधुर गंध फिजां में घोल देते हैं। दुग्ध शर्करा योग की तरह।
पाठक, लेखिका की संवेदनशीलता के साथ हर दृश्य देखता है। यह अनुभूति आम सैलानी के लिये असंभव है। पढ़ते पढ़ते अर्थ कहीं गुम हो जाते हैं। कितने दृश्य आँखों के सामने से गुजर जाते हैं। कल्पना को यथार्थ के साथ पिरोना कोई इन्दिराजी से सीखे। सितारे ऊँचाई से थककर पेड़ों के पत्तों पर आकर बैठ जाते हैं।
आलेख पढ़ते पढ़ते कभी लगेगा कि आप कोई कविता पढ़ रहे हैं, कभी कोई पेंटिंग देख रहे हैं, या फिर लेखिका के साथ चर्चा कर रहे हैं। दिमाग कहीं खो जाता है, मन मस्तिष्क पर हावी होकर गुनगुनाने लगता है।
लेखकों का शुतुरमुर्गी आचरण हो या ज्वालाग्राही लेखन से डरती हुई सियासत या उत्सव, पर्यावरण ध्वंस या यूक्रेन-रूस, इज़राइल फिलीस्तीन युद्ध के रक्तरंजित दृश्य, लेखिका की नज़र से ओझल नहीं हो पाते।
मुखपृष्ठ पर अंकित चित्र संकेतित करता है कि प्रकृति के समग्र दर्शन का सौभाग्य मिलता है, अगर मन-मस्तिष्क के द्वार खुले हों।
भाषा तो भावना के संकेतों पर सिर झुकाए हुये चली आती है। पूरे मन से लिखे गये आलेख प्राणों के स्पंदन और शिल्प सौंदर्य की निरायास गवाही देते हैं। उन्होंने पंजाबी और अंग्रेजी शीर्षक देने से भी परहेज नहीं किया है। कठिन उतने ही रोजमर्रा की बोली के शब्द भी आसानी से मिल जाते हैं।
अविशा प्रकाशन की यह किताब पाठकों को मनोमंथन को विवश तो करेगी ही, सुमन विहग के पंखों का रंग ऊंगलियों पर लपेट देगी इसी विश्वास के साथ—
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समीक्षक – श्री अशोक शर्मा
चंडीगढ़
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
☆ ‘समय से संवाद’ – लेखिका : डॉ. मुक्ता ☆ समीक्षक – डॉ० दुर्गा सिन्हा ‘उदार‘ ☆
पुस्तक का नाम – समय से संवाद
लेखिका – डॉ० मुक्ता
प्रकाशक – वर्ड्सविगल पब्लिकेशन
प्रकाशन वर्ष – 2023
समीक्षक — डॉ० दुर्गा सिन्हा ‘उदार‘
साहित्याकाश में डॉ० मुक्ता जी का नाम विशेष अग्रणी स्थान रखता है। राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित आप किसी पहचान की मोहताज़ नहीं हैं। डॉ० मुक्ता जी के सरल,सहज,सौम्य और मृदु स्वभाव ने सभी को अपना बना लिया है। बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी डॉ० मुक्ता जी का वृहद् रचना संसार उनके विस्तृत भावालोक व रचनाधर्मिता को दर्शाता है।लेखन कौशल ने पुस्तकों को पठनीय व संग्रहणीय बना दिया है। विलक्षण सूक्ष्म और व्यापक दृष्टि,समाज में घटित घटनाओं को बहुत ही सहजता से हुबहू उतार देती है।आपका शब्द भण्डार असीम को ससीम रखते हुए,कुछ इस तरह अभिव्यक्ति पाता है कि पाठक उन घटनाओं,परिस्थितियों को स्वयं जी रहा है,ऐसा अनुभव करता है। जो घटनाएँ दूर-दूर तक आपके जीवन में कभी पास शायद नहीं फटकीं होंगी,उनका भी सशक्त और सचोट वर्णन आपकी अभिव्यक्ति क्षमता व आपकी संवेदनशीलता का परिचायक है।
‘समय से संवाद‘ काव्य-संग्रह जीवन से संवाद है। पुस्तक का आवरण पृष्ठ ही पाठकों को अपनी ओर आकर्षित करता है।कोमल पन्ने व छपाई सभी कुछ प्रभावशाली है। प्रकाशक ने भी अपना उत्तरदायित्व बखूबी निभाया है। वे भी बधाई की पात्र हैं।
जीवन में घटित होती घटनाएँ मानव मन को जिस तरह प्रभावित करती हैं और मनुष्य जिस तरह उनके प्रति प्रतिक्रिया करता है, उन सभी का सूक्ष्म विश्लेषण करते हुए बड़ी ही ख़ूबसूरती से शब्दबद्ध कर जन-सामान्य तक पहुँचाने का प्रयास किया है डॉ० मुक्ता जी ने। नारी मन, नारी जीवन के प्रति विशेष संवेदनशील है।नारी को केन्द्र में रख कर अभिव्यक्ति पाती भावनाएँ हर नारी के मन को उद्वेलित कर जाती है।समाज में नारी का स्थान, नारी के कर्त्तव्य नारी की अहम् भूमिकाओं का सहज व यथार्थ चित्रण अभिभूत करता है। कठिन परिस्थितियों में जीवन निर्वाह करती नारी,आगे बढ़ने और परिवार का दायित्व-वहन के निमित्त कितना जूझती है,संघर्ष करती है कल्पनातीत व शब्दातीत है। सहनशक्ति की पराकाष्ठा स्वरूप धरती बन सब कुछ सहन करती नारी के कोमल मन के आहत आर्तनाद को मुखरित करती रचनाएँ मन को छूकर उद्वेलित कर जाती हैं। रिश्तों में गिरावट,बनावट और दिखावेपन की नाटकीयता जीवन के प्रति एक नई दृष्टि दे जाती है।
आज डिजिटल युग में अनजाने संबंधों की भीड़ तो है,किन्तु अपना कहने को कोई नहीं।“तन्हा ज़िन्दगी, तन्हा हर इंसान है”आभासी दुनिया तो बहुत बड़ी है, किन्तु अपना कहने के लिए कोई नहीं।सामीप्य,नैकट्य और साधिकार कुछ कह सकने की स्वतंत्रता और साहस से सम्पूर्ण वंचित आज का मानव अपने एकाकीपन से बेहद भयभीत रहता है।यही कारण है कि वह तनावग्रस्त रहता है और अंततः अवसाद में डूब जाता है। हर कोई उसे पराया और दुश्मन-सा प्रतीत होता है और चहुँओर उसे नकारात्मकता का ही बोलबाला नज़र आता है।दुविधा और शक़ के कारण वह अभागा किसी से आत्मीय संबंध नहीं बना पाता।
एकाकीपन बढ़ता जा रहा है। आपसी संवाद समाप्त हो रहे हैं। रिश्तों में दूरियाँ बढ़ रही हैं।औपचारिकता ने संबंधों की परिभाषा बदल डाली है।”हर इंसान ख़ुद से ख़ौफ़ खा गया।” शायद सब स्वयं से भी डरने लगे हैं।इतना ही नहीं ख़ुद से भी दूर भागने लगे हैं।
सामाजिक मूल्य व मान्यताएँ भी परिवर्तित हो रही हैं।समाज विसंगतियों का आग़ार बनता जा रहा है। आरोप-प्रत्यारोप में उलझा मनुष्य संबंधों का निर्वाह करना भूलता जा रहा है। सभ्यता-संस्कृति व प्रचलित मान्यताएँ-परम्पराएँ दम तोड़ती-सी नज़र आती हैं।इन नज़्मों में सामाजिक समस्याओं से रूबरू कराते हुए यथार्थ का चित्रण भी है और समस्याओं का समाधान भी।बड़े-छोटे का लिहाज़ जहाँ एक ओर कम हो रहा है वहीं उसे पुनः स्थापित करने की प्रेरणा भी मिल रही है।
“बदल जाते हैं जब इंसान के तेवर,बहुत तकलीफ़ होती है” और “सभी अपने नज़र आते बेग़ाने हैं”
हर चेहरे पर मुखौटा लगा है।सब एक-दूसरे को छलने के लिए आतुर हैं। छल-कपट व आत्म-प्रवंचना से सावधान करती रचना सावधानी बरतने व बच के रहने का संकेत प्रेषित करती है।
परिवार खण्डित हो रहे हैं।
“आजकल बच्चे आईना दिखाने लगे हैं “
“ बेवजह तमतमाने लगे हैं। “
“ सोच बदल गई है।केवल अपने बारे में ही सोचते हैं” उन्हें आज किसी का सुझाव,निर्देश कुछ भी नहीं सुहाता।सुनना नहीं; वे बस सुनाना चाहते हैं।तभी मुक्ता जी कहती हैं कि “बच्चे जब बड़े हो जाएँ तो उन्हें,उनके हाल पर छोड़ दें।
“नेह के सब नाते छूटते चले गए।मानो सुख सदा के लिए रूठ गए।”
अहम् भी कुछ ज़्यादा हावी हो रहा है। बार-बार एक संकेत कि “मन में पसरा सन्नाटा क्यों है?”
संदेशात्मक रचनाएँ आग़ाह भी करती हैं और सकारात्मकता का संचार भी करती हैं।साथ ही वे आश्वस्त भी करती हैं कि अब भी समय है, सब कुछ सँभल सकता है।थोड़े से प्रयास की ओर इस दिशा में हर किसी को सोचने की आवश्यकता है। सकारात्मकता की पराकाष्ठा देखिए–
“ निराशा में आशा के फूल खिलाता चल”
“ कल की चिंता मत कर बंदे, वर्तमान में जीना सीख ले” सही संदेश है।
ज़िन्दगी वरदान स्वरूप ईश्वर का उपहार है। ज़िन्दगी मिली है तो भरपूर जीने का आनंद उठाते हुए जीना चाहिए।ज़िन्दगी से शिक़ायतें नहीं,शुक्रिया का भाव रखना चाहिए।निराशा नहीं,कदम-कदम पर आशा संचरित करती मर्मस्पर्शी रचनाएँ जीवन के प्रति सकारात्मकता का संदेश देती हैं।
एक ओर आशा है,उम्मीद है, ख़ुशियाँ हैं, सुख हैं तो दूसरी ओर वर्तमान की दिल दहलाने वाली घटनाएँ मन में दावानल सुलगाती हैं।हर पल मन में एक आशंका व एक आतंक छाया रहता है। अनिश्चितता का डर तो सदा से ही है,लेकिन इसके अलावा भी अनेक परिस्थितियाँ भी ऐसी होती जा रही हैं कि जीने की जिजीविषा ही जैसे ख़त्म होती जा रही है।
हौसला और प्रयास दो ही मूलमंत्र स्वीकारे जा सकते हैं,जिसके बल पर हम सब सफलता प्राप्त कर सकते हैं;आकाश की बुलँदियों को छू सकते हैं और ज़माने को कदमों में झुका सकते हैं।आज व्यक्ति ख़ुद से भी बहुत दूर होता जा रहा है।उसे ख़ुद की तलाश रहती है और यह सिलसिला अनवरत जारी है।जबकि यह भी देखा गया है कि वह ख़ुद में ही मग्न रहता है और जब वह सजग होता है तो दूसरों की आलोचना में लिप्त हो जाता है।डॉ० मुक्ता सशक्त शब्दों में सार्थक संदेश देती हुई कहती हैं कि
“दूसरों में दोष देखना छोड़ दे बंदे!अंतर्मन में झाँकना सीख ले बंदे!” ऐसा हो जाए तो दुनिया रहने के लायक़ बन जाए।अपना ज़मीर भी बचाना बहुत ज़रूरी है,क्योंकि जिसका ज़मीर मर जाता है,वह मनुष्य ज़िन्दा लाश बन जाता है।
जब रिश्तों में दरारें पड़ जाती हैं तो दीवारें बन जाती हैं।आज की एक नई समस्या का बहुत स्पष्ट संकेत भी दिया है।
“लोग तो बेवजह इल्ज़ाम लगा देते हैं।” हक़ीक़त है और हम हैं।आज आपराधिक घटनाएँ बहुत घटित हो रही हैं।निरपराध को अपराधी बनाने का अपराध भी बहुत कर रहे हैं लोग।दूसरे शब्दों में ग़लत इल्ज़ाम लगा कर फँसाने की प्रवृत्ति बेतहाशा बढ़ रही है। “क्या वे दिन आएँगे ?” प्रश्न निराशाजनक है,क्योंकि हम सभी जानते हैं कि जो बदलाव आ गया है,वह अतीत की अच्छाइयों को विस्मृत कर नकारते हुए आगे निकल जाएगा।फिर भी एक आशा की किरण जगाती भावना का स्वागत् है कि जब हम सब फिर एक साथ मिल बैठेंगे।आपस में संवाद करेंगे। हँसेंगे, मुसकाएंगे,गुनगुनाएँगे।अमावस का अँधेरा छँट जाएगा और पूनम का चाँद जगमगाएगा। यह चाहत हर किसी की है। हर किसी की तमन्ना को ही व्यक्त किया है।
लेखिका ने वह भी कुछ इस तरह कि ऐसा हो तो कितना सुन्दर हो, लेकिन लगता नहीं कि यह सब होगा।ढाढ़स बँधाते हुए डॉ० मुक्ता यह भी कहती हैं कि घबरा मत, संघर्ष कर।
“जिसे ज़िन्दगी में काँटों पर चलना आ गया।वह ज़माने की हर दौलत पा गया।”सोलह आने सच, इस तथ्य को कोई झुठला नहीं सकता;अस्वीकार नहीं कर सकता।
वास्तव में हर हाल में ख़ुश रहना ही ज़िन्दगी है।
आशावादिता कूट-कूट कर भरी हुई है।जीने की इच्छा भी। तभी तो मुक्ता जी कहती हैं–
“जीना है मुझे मरना नहीं” वो न केवल स्वयं जीना चाहती हैं, वरन् सभी को यही निर्देश दे रही हैं कि कठिनाइयों से हारना नहीं,जूझना है और जीना है।
ज़िन्दगी को भरपूर जीने के बाद अध्यात्म की ओर मुड़ना स्वाभाविक है। मन के मनोविज्ञान को समझते-समझाते हुए अध्यात्म की ओर भी इशारा किया है कि “मेरी मंज़िल क्या है कोई बताए।मुझे मेरे मालिक से मिला दे कोई।”
अच्छी रचना है।आत्मा का परमात्मा से मिलन और विलय ही जीवन का अंतिम लक्ष्य है।मिलन पर्व सुखद व आनंदप्रदायी होगा।आशा का संचार करते हुए डॉ० मुक्ता कहती हैं कि “ऐ मन, मत घबरा! दुःख के बादल छंट जाएँगे”
मन में आशा जगाती,विश्वास सृजित करती रचनाएँ मानव मन को आंदोलित करती हैं।
पुस्तक हाथ में आते ही उसे पूरा पढ़ने का मन कर जाता है। विविधता लिए हुए हर रचना हृदय को प्रभावित करती है।डॉ० मुक्ता जी की लेखनी यूँ ही सतत चलती रहे व सार्थक संदेश प्रसारित करती रहे – यही शुभकामना है।
अन्य पुस्तकों की भाँति यह पुस्तक “समय से संवाद” भी पाठकों के बीच बहुत लोकप्रिय होगी, ऐसा मुझे विश्वास है तथा शुभेच्छा है।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
संजय दृष्टि – समीक्षा का शुक्रवार # 7
मौन टूटता है – कवयित्री- डॉ. सौ. कांतिदेवी लोधी समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज
पुस्तक का नाम – मौन टूटता है
विधा- कविता
कवयित्री- डॉ. सौ. कांतिदेवी लोधी
प्रकाशन- क्षितिज प्रकाशन, पुणे
सदा जीवित रहने की जिजीविषा हैं ये कविताएँ☆ श्री संजय भारद्वाज
मनुष्य के भीतर संचित होता बूँद दर बूँद निरीक्षण और परत दर परत अनुभूति, जब चरम पर आते हैं तो उफनकर छूते हैैं सतह और मौन टूटकर शब्दों में मुखर हो उठता है। मुखरित इसी मौन की अभिव्यक्ति का एक प्रकार है कविता। मर्मज्ञ कवि वर्ड्सवर्थ ने पोएट्री को ‘स्पाँटेनियस ओवरफ्लो ऑफ पावरफुल फीलिंग्स’ कहा है। ‘’पावरफुल फीलिंग्स’ की मुखरित अनुभूतियों का संग्रह है कवयित्री डॉ. सौ. कांतिदेवी लोधी रचित ‘मौन टूटता है।’
‘मौन टूटता है’ की कविताओं में अध्यात्म की अनुगूँज है। पर्यावरण की चिंता, प्रकृति से समरसता है। अच्छा मनुष्य बनना और अच्छा मनुष्य बनाना कवयित्री के चिंतन का केंद्र है। आत्मविश्लेषण से आरंभ इस चिंतन की ईमानदारी प्रभावित करती है। पाठक और रचयिता के लिए उनके मानदंड अलग-अलग नहीं हैं। अपने ही मुखौटों से विद्रोह कर सकने का भाव उनकी कविता को एक मोहक सुगंध से भर देता है-
मैं कभी-कभी ऐसा क्यों करती हूँ-
अपनी पहचान-स्वभाव भूलकर
क्यों कोई अलग चोला पहनती हूँ?
वर्तमान स्थितियों में सूर्योदय से सूर्यास्त तक समझौतों पर जीनेवाला आदमी शनैः-शनैः अपनी जीवनशैली और दैनिकता में ऐसा कैद हो गया है कि ‘साँस लेना’ और ‘साँस जीना’ में अंतर भूल गया है। यह विसंगति कवयित्री को मथती है। सामाजिक संदर्भ के प्रश्नों पर टिप्पणी करती उनकी पंक्तियाँ व्यवस्था में यथास्थितिवाद पर अपनी चिंता रखती हैं-
जब क़ैद होना आदत बन जाए
तब आज़ादी कैसे महसूस की जाए?
कांति जी की रचनाओेंं में दर्शन, आस्था, निष्ठा का अंतर्भाव है। एक ‘स्कूल ऑफ थॉट’ लेखन को व्यवस्था के विरोध की उपज मानता है। वस्तुतः लेखन को किसी सीमा में बाँधना उचित नहीं है। लेखन जीवन के सारे भावों की अभिव्यक्ति है। साहित्य में सर्वाधिक लेखन प्रेम विषयक हुआ है। प्रेम चाहे देश से हो, पति-पत्नी या प्रेमी-प्रेमिका का हो, संतान अथवा माता-पिता से हो, सदा सकारात्मकता से उपजता है। कवयित्री की सकारात्मकता तथा उसमें निहित विषयों की व्यापकता की कुछ बानगियाँ दृष्टव्य हैं-
1.माटी के खिलौने दुनिया के प्रति असीम तृष्णा के प्रति आगाह करती पंक्तियाँ-
रेशम का सुंदर जाल, बुनते रहते आस-पास
पाते जितनी अधिक, बढ़ती उतनी प्यास।
2.इस तृष्णा को संतोष-जल से तृप्त करने का अनुभव व्यक्त करती पंक्तियाँ-
और अधिक, और-और की चाह से बची रही
हे अनंत तुझसे, मुझको संतोष की ऐसी धार मिली।
3.संतान के सान्निध्य में ‘अभाव’ भूलने का यह भाव दर्शाती पंक्तियाँ-
आज भी जब-जब तुझसे मिलते,
‘अभाव’ शब्द की व्याख्या भूल जाते।
4.मानव कल्याण और श्रेष्ठ मानव निर्माण की भावाभिव्यक्ति-
मुझे मानव अतिप्रिय है
प्रकृति का कण-कण प्रिय है।
……………………………….
हमें बनना है आज सही परिभाषा भूषित मानव
तभी होगा कल्याण जगत का और हमारा मानव।
हम पथिक हैं। चलना हमारी नीति होनी चाहिए। नियति तो है ही। यात्रा को गंतव्य स्वीकार करने या न करने की ऊहापोह से बचने के लिए कवयित्री प्रश्न करती हैं-
हम क्या करें?
उत्तर खोजें या फिर
बस सुचिंतन, सत्कर्म,
सत्पथ के यात्री बन जाएँ।
सृजन कवयित्री का अतीत, वर्तमान, भविष्य सब है। अतः सृजनशील रहना भक्ति में रमने जैसा है। सृजनात्मकता एवं परमात्मा से निकटता में प्रत्यक्ष अनुपात का संबंध है। सृजनात्मकता जितनी ब़ढ़ेगी, परमेश्वर उतने ही निकट अनुभव होंगे। यही कारण है कि विनीत भाव से कवयित्री अपनी मनीषा व्यक्त करती हैं-
जब तक रीत नहीं जाती
शब्द बिछाती रहूँगी,
जब तक ऊब नहीं जाती,
मैं यूँ ही गाती रहूँगी।
जीवन का अनुभव अन्य क्षेत्रों की तरह लेखन को भी परिपक्व करता है। रचना में उतरी ये परिपक्वता पाठक को विचार करने के लिए विवश करती है। स्वाभाविक है कि कवयित्री की कलम स्त्री सुरक्षा और बुज़ुर्गों के प्रति चिंता को लेकर बहुतायत से चली है। बच्चियों की खिलखिलाहट को ‘नीच ट्रेजेडी’ में बदलने की आशंका से सहमी ये पंक्तियाँ देखिए-
मासूम कन्या को क्या मालूम है,
आकाश मार्ग से उड़कर
कोई चील, कोई गिद्ध आयेगा,
झपट्टा मारकर उसे
उड़ाकर साथ ले जायेगा!
बुज़ुर्गों के प्रति संवेदनहीनता, निर्बल पर वर्चस्व का कुत्सित भाव निरीक्षण से लेखन तक यात्रा करता है-
अनीति कर विजय का अहसास,
आज है यह आम बात,
अनादर, कटुवचन, अपमान ख़ास बात,
ज्येष्ठों के साथ है आम बात।
वे स्त्री को देवी या केवल भोग्या दोनों ध्रुवों से परे केवल मनुष्य मानने की हिमायती हैं। यह हिमायत यों शब्द पाती है-
उसे संभालो, उसे सँवारो,
पूजो मत, मित्र बनो,
साथी बन निहारो।
भावनाओं को दबाकर रखना, इच्छाओं को दफ़्न कर देना मनुष्य जीवन की अवहेलना है। मानसिक विरेचन के जरिए खुलना, खिलना, सहज होना मनुष्य होने की संभावनाएँ हैं।
मन झिझकता है, झिझकने दो,
भीरूता का ख़्वाब तो नहीं,
मन सिसकता है, सिसकने दो,
रोना कोई अभिशाप तो नहीं।
मनुष्य पंचमहाभूत की उत्पत्ति है। पंचमहाभूत प्रकृति के घटक हैं। प्रज्ञा चक्षु प्रकृति एवं मनुष्य में अद्वैत देख पाते हैं। जो प्रकृति में घट रहा है वही मनुष्य जीवन में बीत रहा है। दूसरे छोर से देखें तो जो मनुष्य जीवन में है, उसीका प्रतिबिम्ब प्रकृति में है। घटती आत्मीयता के संदर्भ में इस अद्वैत के दर्शन कवयित्री कुछ यों करती हैं-
आज रिश्ते बीत रहे,
छतनार वृक्ष रीत रहे।
कवयित्री में रची-बसी बुंदेलखंड की आंचलिकता कतिपय शब्दों और उपमानों में अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराती है। संग्रह में बुंदेलखंडी के एक गीत का समावेश है। लम्बे समय से महाराष्ट्र में रहने के कारण मराठी की मिठास स्वाभाविक है। यथा- पर्वत ‘सर’ करना (जीतना/ रोहण)। अँग्रेजी का ‘रिदम’ कविता की धारा को रागात्मकता प्रदान करता है। हिंदी-उर्दू का मिला-जुला प्रयोग जैसे ‘यामिनी आँचल में सहर’ कविता का विस्तार करता है। विभिन्न भाषाओं से आए शब्दों का प्रयोग ‘नथिंग इज एबसोल्युट’ को प्रतिपादित भी करता है।
ये कविताएँ जीवन की समग्रता को बयान करती हैं। जीवन के अनेक पक्ष इनमें उभर कर आते हैं। पूर्वजों, निजी सम्बंधियों, आत्मजों से संवाद करती हैं ये कविताएँ। सृष्टि के सुर-ताल, राग-लय, आरोह-अवरोह से होकर आगे की यात्रा करती हैं ये कविताएँ। जीवन के प्रति आसक्ति और विषय भोग के प्रति विरक्ति का प्रतिबिंब हैं ये कविताएँ। मनुष्य और मनुष्यता के प्रति असीम विश्वास हैं ये कविताएँ। अध्यात्म, आस्था, प्रकृति, समानता, स्त्री, संस्कृति के प्रति चेतन बोध हैं ये कविताएँ। देह रहते और विदेह होने के बाद जीवित रहने की जिजीविषा हैं ये कविताएँ।
डॉ. सौ. कांतिदेवी लोधी का मौन बार-बार टूटे। कामना है कि उनके मुखरित शब्द अनेक पुस्तकों की शक्ल में अच्छी और सच्ची रचनाधर्मिता के पाठक को तृप्त करें।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं।
आज प्रस्तुत है आपके द्वारा श्री कुमार सुरेशद्वारा लिखित पुस्तक “संभावामि युगे युगे” (जीवनी)पर चर्चा।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 165 ☆
☆ “संभवामि युगे युगे” – लेखक … श्री कुमार सुरेश☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
पुस्तक चर्चा
संभवामि युगे युगे
आई एस बी एन ९७८.९३.८९४७१.५०.२
कुमार सुरेश
विद्या विहार नई दिल्ली
मूल्य ३०० रु
चर्चा …. विवेक रंजन श्रीवास्तव
मो ७०००३७५७९८
श्रीमद्भगवत गीता के चौथे अध्याय के आठवें श्लोक “परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्। धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे ॥ “से श्री कुमार सुरेश ने किताब का शीर्षक लिया है। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि दुष्टों के विनाश के लिये मैं हर युग में हर युग में फिर फिर जन्म लेता हूं। विदेशी आक्रांताओ के विरुद्ध भारत की निरंतर संघर्ष गाथा का इससे बेहतर शीर्षक भला हो भी क्या सकता था। कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी, सदियों रहा है दुश्मन सारा जहाँ हमारा। प्रगति के लिये अस्तित्व का यह संघर्ष रूप बदल बदल कर फिर फिर हमारे समाज में खड़ा होता रहा है, आज भी जारी ही है। कुमार सुरेश मूलतः एक अध्येता और विचारक बहुविध लेखक हैं। कभी उनका व्यंग्यकार उनसे तंत्रकथा जैसा मारक व्यंग्य उपन्यास लिखवा डालता है, तो कभी वे व्यंग्यराग लिखते हैं जिसमें वे अपने स्फुट व्यंग्य संग्रहित कर साहित्य जगत को सौंपते हैं। कभी उनके अंदर का कवि “शब्द तुम कहो”, “भाषा सांस लेती है”, “आवाज एक पुल है ” जैसी कविताओ के महत्वपूर्ण संग्रह रच देता है। साहित्य जगत उन्हें गंभीरता से पढ़ता और रजा पुरस्कार या शरद जोशी जैसे सम्मानो से सम्मानित करता है। कुमार सुरेश के पास अनुभव है, उन्होंने प्रकाशन जगत में भी दस्तक दी थी, वे प्रशासनिक अधिकारी रह चुके हैं। उनके पास जन सामान्य पाठक तक पहुंचने वाली अभिव्यक्ति और भाषा सामर्थ्य है। वे मेरे अभिन्न सारस्वत मित्र हैं, और इस किताब की लेखन यात्रा में पाण्डुलिपि पढ़ने, शीर्षक तय करने तथा प्रकाशक कौन हो यह निर्णय लेने में पल पल अवगत रहने का गौरव मुझे रहा है।
अपने इतिहास को जानना समझना प्रत्येक व्यक्ति का अधिकार भी है और कर्तव्य भी। इतिहास के प्रति जिज्ञासा नैसर्गिक मनोवृत्ति होती है। घर परिवार कुटुम्ब में दादियों की ज्वैलरी के डिब्बे में सिजरे होते हैं जिनमें पीढ़ी दर पीढ़ी खानदान का हाल नाम पते मिल जाते हैं। जिनके घरों में यह नहीं उनकी पुश्तों का हिसाब प्रयाग संगम के पंडो के पास मिल ही जाता है। राजस्थान में वंशावली लेखन की परंपरा है। पुराने राजाओ ने अपने दरबार में इस कार्य के लिये लोगों को रखा था, जो बढ़ा चढ़ा कर राजाओ तथा उनके पूर्वजों और राज परिवार के सदस्यों की वीरता तथा महिलाओ की सुंदरता के किस्से लिखा करते थे। यह वंशावली लेखन की व्यवस्था आज भी राजस्थान में चल रही है। गौरव शाली इतिहास पर नई पीढ़ी गर्व करती है, पुरानी गलतियों से शिक्षा लेती है किंतु यह भी सही है कि इतिहास का ज्ञान वर्तमान में कटुता भी फैलाता है, आज देश में यही देखने में आ रहा है। राजनैतिक दल इसका लाभ लेने से बाज नहीं आ रहे। अस्तु।
संभवामि युगे युगे में कुमार सुरेश ने कालक्रम में प्रामाणिक तथ्यों के आधार पर संदर्भ देते हुये सिकंदर के समय से औरंगजेब के काल तक भारतीय इतिहास को अपनी वांछित तीप के साथ संजोने में सफलता अर्जित की है। पुस्तक के अध्यायों का अवलोकन करें तो पुस्तक लेखन का मूल आशय समझ आ जाता है। वर्तमान में जो इतिहास पाठ्यक्रम में पढ़ाया जा रहा है, उसमें अनेक विदेशी आक्रांताओ का महिमा मंडन पढ़ने मिलता है। संभवतः गंगा जमनी तहजीब की संस्कृति बताकर उन आक्रांताओ का पक्ष सशक्त होने के चलते सामाजिक समरसता बनाये रखने के लिये वामपंथी इतिहास कारों ने ऐसा किया। किन्तु कुमार सुरेश ने पूरी ढ़ृड़ता से ऐसे कई आक्रांताओ की क्रूरता और अत्याचार पर बेबाकी से लिखा है। उन्होंने यह धारणा भी खंडित की है कि समुचा भारतवर्ष पर मुगल साम्राज्य के अधीन था।
पहले अध्याय “भारत सदा से एक राष्ट्र है”, में लेखक ने आर्य संस्कृति को मूलतः भारतीय संस्कृति लिखते हुये हिन्दुओ के देश भर में फैले ज्योतिर्लिंग, देवी पीठों, कुंभ के आयोजनो जैसे तर्क रोचक तरीके से रखा है। पुस्तक में डी एन ए एनालिसिस के वैज्ञानिक आधार पर आर्य तथा द्रविड़ को मूलतः भारत का हिस्सा बताया गया है। उन्होंने उल्लेख किया है कि १९४६ में ही अंबेडकर जी ने सिद्ध कर दिया था कि आर्य बाहर से नहीं आये थे। दूसरा अध्याय “सोने की चिड़िया पर बुरी नजरें ” है। किंचित भारतीय भूगोल, भारत से जुड़ने वाले विदेशी मार्गों के सचित्र वर्णन के साथ अखण्ड भारत की तत्कालीन संपन्नता और इस वजह से विदेशियों की भारत में रुचि पर विशद वर्णन इस अध्याय में है। इस पुस्तक को लिखने के लिये लम्बे समय तक कुमार सुरेश ने गहन अध्ययन किया है, जिनमें दर्जन भर से अधिक अंग्रेजी की किताबें हैं जिन्हें अध्ययन कर उनके वांछित कथ्य अपने तर्क रखने के लिये लेखक ने किया है। यह तथ्य संदर्भांकित पुस्तकों की सूची ही नहीं हर अध्याय में उधृत एतिहासिक अंश स्पष्ट करते हैं। जब सिकंदर आता है कोई पोरुष खड़ा हो जाता है, प्रतिरोध की यह भारतीय मूल प्रवृति ही संभवामि युगे युगे है जिसके चलते आज भी भारत अपनी मूल संस्कृति के साथ यथावत दुनियां में विश्वगुरू बना खड़ा हुआ है। चौथा अध्याय ” सिंध पर अरबों का आक्रमण उनके लिये एक न भूलने वाली असफलता बन गया ” है। भारतीय योद्धाओं ने अधिकांशतः कभी स्वयं किसी पर आक्रमण भले न किया हो पर हमेशा आक्रांताओ के प्रतिरोध में सुनिश्चित हार के खतरे को भांपते हुए भी हमेशा आक्रांताओं का मुकाबला पूरी वीरता और साहस से किया। इतिहास के बड़े-बड़े कालखंड ऐसे थे, जिनमें विदेशी आक्रांताओं को पराजय मिली। ये कालखंड छोटे नहीं, तीन सौ सालों तक लंबे रहे हैं। भारत में अनेक हिस्से ऐसे हैं, जिनमें आक्रांता कभी प्रवेश नहीं कर पाए। आक्रमणकारियों को सदैव भारत पर आक्रमण की बड़ी कीमत चुकानी पड़ी। बीच में ऐसे काल भी आए, जब विदेशी आक्रांताओं को कुछ सफलता मिली। किंतु जैसे ही मौका मिला, कोई-न-कोई वीर उठकर खड़ा हो गया। किसी-न-किसी क्षेत्र के आम लोगों ने विदेशी शासन के खिलाफ संघर्ष किया और उसे पराजित किया या इतना नुकसान तो जरूर पहुँचाया कि आक्रांता को भारतीय इच्छाओं का आदर करना पड़ा। भारतीय संस्कृति को जीवित रखने की ऊर्जा हमारे जिन पूर्वजों के बलिदानों से प्राप्त हुई है, यह पुस्तक उन पूर्वजों के प्रति लेखक की कृतज्ञता व्यक्त करने का प्रयास है। आठवी सदी में इस्लाम के भौगोलिक विस्तार को नक्शों के जरिये बताया गया है। अगले अध्याय का नाम हिंदूशाही वंश का शौर्य है। जिसमें महमूद गजनी से राजस्थान के योद्धाओ की चर्चा है। मीर तकी मीर ने एक शेर लिखा था ” उसके फरोग हुस्न में झमके है सब में नूर ” जिसमें उन्होंने काबा और सोमनाथ को एक सृदश ही बताया था। महमूद गजनवी की सेना के लौटने से भारतीय समृद्धि की सूचनायें विदेशों तक पहुंची और इसके चलते भारत पर आक्रमण के तांते लग गये। छोटे छोटे अध्यायों में बिंदु रूप से बड़ी बातें कह देने में लेखक ने सफलता अर्जित की है। पृथ्वीराज चौहान की वीरता के किस्से भारतीय इतिहास का गौरव है, उसे एक पूरे चेप्टर ” सम्राट पृथ्वीराज चौहान जिन्हें केवल धोखे से हराया जा सका ” में लिखा गया है। पूर्वोत्तर से भी आक्रांताओ ने भारत पर हमले के प्रयास किये थे पर असम के वीरों ने बक्तियार खिलजी को ऐसी धूल चटाई कि हमेशा के लिये उस ओर से भारत पर विदेशी आक्रमण नियंत्रित बने रहे। भारतीय प्रतिरोध की खासियत पीढ़ी दर पीढ़ी आक्रांता सल्तनतों का विरोध रहा है। राजस्थान के वीरों की ही नहीं वहां की वीरांगनाओ द्वारा उठाये गये कदम अद्भुत रहे हैं। उन पर पूरा अध्याय लिखा गया है। जिस भारतीय संस्कृति की विशेषता ही यह है कि वह हमारी रगों में पल्लवित पोषित होती है। जहां भी भारतीय गये वहां उनके साथ भारतीयता भी गई। लेखक ने स्पष्ट किया है कि १४०० ई तक विदेशी आक्रांता समझ गये कि भारतीय संस्कृति को मिटाना असंभव है। बाबर के आक्रमण का प्रतिरोध, पानीपत की लड़ाई, हेमू का विस्मृत बलिदान, मुगलों को निरंतर चुनौती, औरंगजेब से जाट, मराठों और राजपूतों के संघर्ष, समुद्र के रास्ते पुर्तगाली, डच, डेनिश, फ्रेंच और ब्रिटिशर्स यूरोपियन्स के भारत प्रवेश, १८५७ के संग्राम से पहले भी अंग्रेजो को भारत से निकालने के प्रयास एक चेप्टर में प्रस्तुत किये गये हैं। अंतिम अध्याय है ” यह बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी ” जिसमें लेखक ने अपने एतिहासिक अध्ययन का निचोड़ रख कर हमें गर्व का अवसर दिया है।
इतिहास की २०० से ज्यादा पृष्ठो पर फैली रोचक सामग्री को समेटना दुष्कर कार्य होता है। मैने पुस्तक की विषय वस्तु की बिन्दु रूप चर्चा कर किताब से पाठको को परिचित कराने का प्रयास किया है, किताब अमेजन सहित विभिन्न प्लेटफार्म पर उपलब्ध है, किताब बुलवाईये और पढ़िये तभी आप भारत के गौरवशाली इतिहास को लेखक के नजरिये से समझ सकेंगे। किताब पैसा वसूल तो है ही, संदर्भ के लिये संग्रहणीय है।
☆ पुस्तक समीक्षा ☆ मन चरखे पर (काव्य-संग्रह)- कवयित्री – नीलम पारीक ☆ समीक्षक – प्रो. नव संगीत सिंह ☆
पुस्तक चर्चा
पुस्तक – मन चरखे पर (काव्य संग्रह)
कवयित्री – नीलम पारीक
प्रकाशक – पुस्तक मंदिर, बीकानेर
पृष्ठ – 96
मूल्य – 250/-
☆ नारी-मन की सहज और सुकोमल भावनाओं को दर्शाता काव्य-संग्रह : मन चरखे पर – प्रो. नव संगीत सिंह ☆
नीलम पारीक अपने पहले काव्य संग्रह ‘कहां है मेरा आकाश’ द्वारा हिंदी काव्य जगत में पहले से ही चर्चित हो चुकी हैं। सिरसा (हरियाणा) में जन्मी नीलम ने कुरूक्षेत्र विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में पीजी, और महाराजा गंगा सिंह विश्वविद्यालय, बीकानेर से बीएड, राजस्थानी साहित्य में पीजी, पत्रकारिता में यूजी किया है और वर्तमान में केसरदेसर जाटान, बीकानेर में अंग्रेजी शिक्षिका के रूप में कार्यरत हैं। उन्होंने हिंदी और राजस्थानी भाषा में कविताएं और कहानियां लिखने के अलावा कुछ हिंदी लघुकथाएं लिखीं और बाल साहित्य पर भी काम किया है।
समीक्षाधीन काव्य-पुस्तक ‘मन चरखे पर’ (पुस्तक मंदिर, राजीव गांधी मार्ग, स्टेशन रोड, बीकानेर, राजस्थान; पृष्ठ 96; मूल्य 250/-) को कवयित्री ने तीन खंडों में विभाजित किया है- वसंत, हेमन्त और ग्रीष्म। इसमें कुल अट्ठावन कविताएँ हैं। सबसे अधिक कविताएँ वसंत खंड (31) में हैं, उसके बाद ग्रीष्म खंड (14) और सबसे कम कविताएँ हेमंत खंड (13) में हैं। वसंत खंड में प्रेम-कविताएँ हैं, हेमंत खंड में जीवन की मीठी-तीखी यादें हैं; स्त्री विमर्श की कविताएं ग्रीष्म अनुभाग में कलमबद्ध की गई हैं।
कविता भाव-अभिव्यक्ति का सबसे सशक्त माध्यम है। कविता में ही कोमल भावनाओं को अच्छी तरह व्यक्त किया जा सकता है। जब भी किसी व्यक्ति के मन में भावनाओं और संवेदनाओं के बादल उमड़ते हैं तो वह काव्यात्मक उड़ानों के माध्यम से उन्हें सहेज लेता है। पुरुष और महिलाएं अलग-अलग भाव-जगत से संबंधित हैं। जहां पुरुष कठिन परिश्रम के लिए जाने जाते हैं, वहीं महिलाएं करुणा, सहनशीलता का दूसरा नाम हैं।
किताब के नाम के मुताबिक इसमें मन से जुड़ी चार कविताएं हैं- मन चरखे पर, मन मलंग, मन हिरण (वसंत खंड) और औरत का मन (ग्रीष्म खंड)। चूँकि पहला भाग प्रेम-कवितायों का है, इसलिए इसमें चार प्रेम-रंग की कविताएँ भी हैं – पाती प्रेम भरी, प्रेम, प्रेम, प्रेम-रंग। इस संग्रह में माँ/नारी पर आधारित 6 कविताएँ शामिल हैं – माँ, माँ-2, स्त्री, पचास साल की औरतें, औरत का मन, हे स्त्री।
नीलम स्वयं एक महिला हैं और स्त्री-मन की बहुमुखी प्रकृति को जानती हैं। उन्होंने नारीत्व की अनेक परतों को छुआ है- दुःख, सुख, पीड़ा, आकांक्षा, विपदा आदि। बचपन से लेकर जवानी तक, जवानी से लेकर बुढ़ापे तक कई पड़ाव आते हैं और एक महिला इन सभी पड़ावों से गुजरती है, बिना किंतु, परंतु किये। बेटी की शादी की चिंता, दहेज की चिंता, पोते-पोतियों/नाते-नातिन को लाड़-प्यार करना, व्रत रखने वाली महिलाएं कैसे अपनी पीड़ा को सहती हैं, कैसे वे अपनी बीमारी की चिंता छोड़कर दूसरों के लिए हंसती हैं – यह सब कुछ ब्यान हुआ है- ‘पचास साल की औरतें’ (पृष्ठ 79-80) कविता में।
संग्रह के अंतिम भाग की कुछ कविताएँ चुनौतीपूर्ण हैं। मनुष्य को मनुष्य बनने की सीख देने वाली कविता ‘हे मानव’ (87-88) में कवयित्री ने मनुष्य को अहंकार त्यागने की सलाह दी है और कहा है कि उसे आने वाली पीढ़ियों के लिए कुछ सोचना चाहिए! अपने अहंकार में डूबकर पर्यावरण को बिगाड़ना, प्रदूषण बढ़ाना मनुष्य को शोभा नहीं देता। समाचार-पत्रों में भ्रूणहत्या, बलात्कार, आतंकवाद आदि की खबरें पढ़कर स्त्री का कोमल हृदय विचलित हो उठता है और स्वप्न में भी वह इस भयानक दृश्य को याद करके चीत्कार मचा देती है। कवयित्री ने नारी की सहनशक्ति का आख्यान करते हुए कितना सत्य कहा है कि वह खाना बनाते समय वाशिंग मशीन में कपड़े भी धो लेती है; खाना खाते समय उसे सास-ससुर की दवा और दूध-जूस भी याद रहता है; बच्चों को होमवर्क करवाते समय धुले और सूखे कपड़े उतार लाती है; रात को बिस्तर पर जाने से पहले वह अगले दिन बनाने वाली सब्जि की व्यवस्था भी करती है, ऑफिस में ड्यूटी करते समय बिजली-पानी-मोबाइल का बिल भरना भी याद रखती है और सबसे बढ़कर ससुराल वालों द्वारा अपने मायके को दिए जाने वाले ताने सहती है। लेकिन एक महिला की वजह से घर के सभी सदस्य एक सूत्र में बंधे रहते हैं, जुड़ा रहता है घर :
क्योंकि जानती है वो
क्या याद रखना है याद रखकर
और क्या भूल जाना है
याद रखकर भी
जबकि सच तो यह है कि
स्त्री कुछ नहीं भूलती
कुछ भी नहीं…
(पृष्ठ 76)
माँ के पास कहाँ था वक्त…
सिखाने का, समझने का,
बैठाकर गोद में अपनी,
फिर भी सिखा दिया,
हर हाल में जीना,
हर पल को जीना,
अपने लिये,
अपनों के लिये।
(पृष्ठ 59)
संग्रह में बचपन की मीठी यादें (आ लौट चलें), मां का आँचल (जादू), पिता से दूर होने का एहसास (शतरंज) आदि का वर्णन विशेष रूप से रेखांकित किया गया है।
दरअसल, संग्रह की सभी कविताएँ रिश्तों की पवित्रता पर केंद्रित हैं। रिश्तों के इंद्रधनुषी रंगों से भरी ये कविताएं स्त्री के मन में एक अस्पष्ट आकार से साकार हो उठती हैं और फिर बनती है – शुद्ध और निर्मल कविता, बिना किसी उदात्त के, बिना किसी बनावटी आभा के। राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर के वित्तीय सहयोग से प्रकाशित कविता की यह पुस्तक स्त्री मन की अनदेखी/अनजानी राहों की गहराई को पहचानने की कोशिश करती है। जीवन की आपाधापी, महानगरीय संस्कृति, जीवन के विविध रंगों को दर्शाती नीलम पारीक की यह पुस्तक भावनाओं की कोमलता को सरल, सहज शब्दों में प्रस्तुत करती है।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
संजय दृष्टि – समीक्षा का शुक्रवार # 6
सिद्धार्थ से महात्मा बुद्ध – लेखिका – सुश्री वीनु जमुआर समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज
बोधगम्य, प्रबुद्ध – सिद्धार्थ से महात्मा बुद्ध☆ श्री संजय भारद्वाज
जिस तरह बीज में वृक्ष होने की संभावना होती है, उसी प्रकार मनुष्य की दृष्टि में सृष्टि का बीज होता है। अनेक बार बीज को अंकुरण के लिए अनुकूल स्थितियों की दीर्घ अवधि तक प्रतीक्षा करनी पड़ती है। लेखिका वीनु जमुआर की इस पुस्तक के संदर्भ में भी यही कहा जा सकता है। युवावस्था में पर्यटन की दृष्टि से बोधगया में बोधिवृक्ष के तले खड़े होकर नववधू लेखिका की दृष्टि में जो समाया, लगभग साढ़े पाँच दशक बाद, वह शब्दसृष्टि के रूप में काग़ज़ पर आया। बोधगम्य, प्रबुद्ध शब्दसृष्टि का नामकरण हुआ, ‘सिद्धार्थ से महात्मा बुद्ध।’
‘सिद्धार्थ से महात्मा बुद्ध’ का बड़ा भाग बुद्ध की जीवनयात्रा का कथा शैली में वर्णन करता है। उत्तरार्द्ध में जातक कथाओं, ऐतिहासिक तथ्यों, बौद्ध मठों की जानकारी, बुद्ध के विचारों का संकलन भी दिया गया है। इस आधार पर इसे मिश्र विधा का सृजन कहा जा सकता है। तथ्यात्मक जानकारी के साथ अनुभूत बुद्ध को पाठकों तक पहुँचाने की अकुलाहट इसमें प्रमुखता से व्यक्त हुई है। पुस्तक की भूमिका में लेखिका ने इस बात को कुछ यूँ अभिव्यक्त भी किया है- ‘सत्य और शांति के अटूट रिश्ते का महात्म्य हम तभी समझ पाते हैं जब आंतरिक शांति की जिजीविषा हृदय को कचोटने लगती है।’ विचारों की साधना से यह कचोट, जटिलता से सरलता की ओर चल पड़ती है। लेखिका के ही शब्दों में-‘विचारों को साध लो तो जीवन सरल हो जाता है।’ पग-पग पर पगता अनुभव एक समृद्ध पिटारी भरता जाता है। बकौल लेखिका, ‘सत्य की सर्वदा जीत होती है, इस बात की पुष्टि अनुभवों की पिटारी करती है।’
जैसाकि उल्लेख किया गया है, कथासूत्र के साथ सम्बंधित स्थान, काल, घटना विशेष के इतिहास की यथासंभव जानकारी और पुरातत्व अभिलेखों का उल्लेख भी पुस्तक में हुआ है। उदाहरण के लिए लोकमान्यता में ‘पिप्राहवा’ को कपिलवस्तु मानना पर पुरातत्ववेत्ताओं द्वारा ‘तौलिहवा’ को कपिलवस्तु के रूप में मान्यता देने का उल्लेख है। बुद्ध के जन्म स्थान लुम्बिनी का वर्णन करते हुए चीनी यात्रियों फाहियान तथा ह्वेनसांग के यात्रा वृतांत का उल्लेख किया गया है। इस संदर्भ में सम्राट अशोक द्वारा ईसा पूर्व वर्ष 249 में स्थापित बलवा पत्थर के स्तंभ पर प्राकृत भाषा में बुद्ध का जन्म लिखा होने की जानकारी भी है। इस तरह की जानकारी किंवदंती, लोक-कथा, सत्य को तर्क, तथ्य, इतिहास और पुरालेख के प्रमाण देकर पुष्ट करती है। यही इस पुस्तक को विशिष्टता भी प्रदान करती है।
बुढ़ापा, रोग और मृत्यु के पार जाने का विचार बुद्ध के महाभिनिष्क्रमण का आधार बना। एक संन्यासी के संदर्भ में सारथी चन्ना द्वारा कहा गया वाक्य- ‘इसने जग से नाता तोड़ ईश्वर से नाता जोड़ लिया है’, उनके लिए नए मार्ग का आलोक सिद्ध हुआ। तथापि नया नाता जोड़ने की प्रक्रिया में यशोधरा से नाता तोड़ने और स्त्री के मान को पहुँची ठेस तथा पीड़ा को भी लेखिका ने विस्मृत नहीं किया है। पिता राजा शुद्धोदन के आग्रह पर अपने गृह नगर कपिलवस्तु पहुँचे संन्यासी बुद्ध से गृहस्थ जीवन में पत्नी रही यशोधरा ने मिलने आने से स्पष्ट मना कर दिया। यशोधरा का दो टूक उत्तर है, “मैंने उन्हें नहीं त्यागा था, वे त्याग गए थे हमें।”
इतिहास को तटस्थ दृष्टिकोण से देखना वांछनीय होता है। इससे तात्कालिक सामाजिक मूल्यों के अध्ययन का अवसर मिलता है। जटाधारी साधुओं के प्रमुख पंडित काश्यप द्वारा गौतम बुद्ध को रात्रि निवास के लिए आश्रम में स्थान देना, ‘मतभेद हों पर मनभेद न हों’ की तत्कालीन सुसंगत सामाजिक सहिष्णुता का प्रतीक है। पुस्तक इस सहिष्णुता को अधोरेखित करती है।
भारतीय दर्शन में सम्यकता की जड़ें गहरी हैं। इसकी पुष्टि बुद्ध द्वारा अपने पिता राजा शुद्धोदन को किए उपदेश से होती है। बुद्ध ने पिता से कहा, ”महाराज जितना स्नेह और प्रेम अपने पुत्र से करते हैं, वही स्नेह और प्रेम राज्य के प्रत्येक व्यक्ति से रखेंगे तो सभी उनके पुत्रवत हो, वैसा ही प्रेम महाराज से करने लगेंगे।” राजवंश के दिनों में किये गए इस उपदेश में काफी हद तक प्रजातंत्र की ध्वनि भी अंतर्निहित है। यह उपदेश काल के वक्ष पर पत्थर की लकीर है।
‘सिद्धार्थ से महात्मा बुद्ध’ अनित्य से नित्य होने का मार्ग है। यह पुस्तक महात्मा के जीवन दर्शन को सामने रखकर पाठक को विचार करने के लिए प्रेरित करती है। इस प्रेरणा से पाठक अपने भीतर, अपने बुद्ध को तलाशने की यात्रा पर निकल सके तो लेखिका की कलम धन्य हो उठेगी।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं।
आज प्रस्तुत है आपके द्वारा श्री सुरेंद्र सिंह पवार द्वारा लिखित “विज्ञ शिल्पी विश्वेश्वरैया” (जीवनी)पर चर्चा।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 164 ☆
☆ “विज्ञ शिल्पी विश्वेश्वरैया” (जीवनी) – लेखक … श्री सुरेंद्र सिंह पवार ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
पुस्तक चर्चा
विज्ञ शिल्पी विश्वेश्वरैया (जीवनी)
आई एस बी एन ८१.७७६१.०१९.८
सुरेंद्र सिंह पवार
समन्वय प्रकाशन अभियान, जबलपुर
मूल्य १२५ रु
चर्चा …. विवेक रंजन श्रीवास्तव
ए २३३, ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी, जे के रोड, भोपाल ४६२०२३
मो ७०००३७५७९८
मुझे भारत रत्न मोक्षगुण्डम विश्वेश्वरैया जी के जीवन पर लिखी गई कई किताबें पढ़ने मिली हैं। मानव जीवन में विज्ञान के विकास को मूर्त रूप देने में इंजीनियर्स का योगदान रहा है और हमेशा बना रहेगा। किन्तु बदलते परिवेश में भ्रष्टाचार के चलते इंजीनियर्स को रुपया बनाने की मशीन समझने की भूल हो रही है। भौतिकवाद की इस आपाधापी में राजनैतिक दबाव में तकनीक से समझौते कर लेना इंजीनियर्स की स्वयं की गलती है। देखना होगा कि निहित स्वार्थों के लिये तकनीक पर राजनीति हावी न होने पावे। भारत रत्न मोक्षगुण्डम विश्वेश्वरैया तकनीक के प्रति समर्पित इंजीनियर थे, उनका जीवन न केवल इंजीनियर्स के लिये वरन प्रत्येक युवा के लिये प्रेरणा है।
सुरेंद्र सिंह पवार एक कुशल शब्द शिल्पी हैं। वे नियमित रूप से हिन्दी साहित्य जगत की महत्वपूर्ण त्रैमासिक पत्रिका साहित्य संस्कार का संपादन कर रहे हैं, उन्होने इंस्टीट्यूशन आफ इंजीनियर्स की वार्षिक बहुभाषी पत्रिका अभियंता बंधु का संपादन भी किया है। विज्ञ शिल्पी विश्वेश्वरैया में उन्होंने विषय वस्तु को शाश्वत, पाठकोपयोगी, और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया है। यह जीवनी केंद्रित कृति हाल ही समन्वय प्रकाशन जबलपुर से छपी है। योजनाबद्ध तरीके से विश्वेश्वरैया जी पर प्रामाणिक सामग्री संजोई गई है। महान अभियंता की जीवन यात्रा को १२ अध्यायों में बांटकर रोचक फार्मेट में पाठको के लिये प्रस्तुत किया है। प्रासंगिक फोटोग्राफ के संग प्रकाशन से जीवनी अधिक ग्राह्य बन सकी है। विज्ञ शिल्पी विश्वेश्वरैया उन पर केंद्रित सहज, प्रवाहमान शैली में, हिन्दी में पहली विशद जीवनी है। किसी के जीवन पर लिखने हेतु रचनाकार को उसके समय परिवेश और परिस्थितियों में मानसिक रूप से उतरकर तादात्म्य स्थापित करना वांछित होता है। विज्ञ शिल्पी विश्वेश्वरैया में सुरेंद्र सिंह पवार ने विश्वेश्वरैया जी के प्रति समुचित तथ्य रखने में सफलता पाई है।
पहले अध्याय में विश्वेश्वरैया जी की १०१ वर्षो के सुदीर्घ जीवन, उनके घर परिवार की जानकारियां संजोई गई हैं। किताब के अंत में संदर्भो का उल्लेख भी है, जो शोधार्थियों के लिये उपयोगी होगा। दूसरा अध्याय विश्वेश्वरैया जी के ब्रिटिश सरकार के रूप में कार्यकाल पर केंद्रित किया गया है। इसमें उनके द्वारा डिजाइन की गई सिंचाई की ब्लाक पद्धति, खडकवासला झील के लिये बनवाया गया स्वचलित गेट, सिंध प्रांत में सख्खर पर निर्मित बांध और नहरें, आदि कार्यों की जानकारियां समाहित की गई हैं। उल्लेखनीय है कि विश्वेश्वरैया जी ने सरकारी नौकरी से त्यागपत्र देकर हैदराबाद में मूसा नदी पर बाढ़ नियंत्रण, उस्मान सागर तथा हिमायत सागर के निर्माण कार्यों में भागीदारी की थी, यह सब तीसरे अध्याया का हिस्सा है। चौथे और पांचवे अध्याय में उनके मैसूर के कार्यकाल में निर्मित सुप्रसिद्ध कृष्ण राज सागर डैम, बृंदावन गार्डन विषयक जानकारियां तथा मैसूर रियासत के दीवान के रूप में किये गये शिक्षा, रेल, बंदरगाह स्टील वर्क्स आदि कार्य वर्णित हैं। छठा अध्याय उनकी विदेश यात्राओ की रोचक बातें बताता है। सातवें अध्याय में देश के विभिन्न हिस्सों में कंसल्टैंट के रूप में किये गये विश्वैश्वरैया जी के अनेक कार्यो पर प्रकाश डाला गया है। आठवां अध्याय उनके लोकप्रिय व्यक्तित्व के बारे में लिखा गया है। महात्मा गांधी तब एक राष्ट्र पुरुष के रूप में मुखरित हो चुके थे, उनके साथ विश्वेश्वरैया की भेंट के वर्णन यहां मिलते हैं। नौं वें अध्याय में विश्वेश्वरैया जी के भाषण, भात के आर्थिक विकास की उनकी सोच, तथा उनके जीवन की सुस्मृतियां संजोई गई हैं। विश्वेश्वरैया जी को देश विदेश से अनेकानेक सम्मान मानद उपाधियां, मिलीं उन्हें भारत रत्न प्रदान किया गया, उन पर डाक टिकिट जारी की गई। ये जानकारियां दसवें अध्याय का पाठ्य हैं। ग्यारवें अध्याय में गूगल द्वारा उन्हें प्रदत्त सम्मान, उनके जन्म दिवस पर इंजीनियर्स डे का प्रति वर्ष आयोजन, तथा उनकी अंतिम यात्रा का वर्णन है। बारहवां और अंतिम अध्याय परिशिष्ट है जिसमें अनेक महत्वपूर्ण संदर्भ प्रस्तुत किये गये हैं।
१९०२ में एक मैसूर वासी नाम से युवा विश्वेश्वरैया ने तकनीकी शिक्षा के संदर्भ में उनके विचार एक पत्रक के रूप में लिखे थे। इससे उनके वृहद सिद्धांत, स्व नहीं समाज की झलक मिलती है। उन्होंने कहीं लिखा कि मैं काम रते करते मरना चाहता हूं, वे जीवन पर्यंत सक्रिय रहे। उनकी दीर्घ आयु का राज भी यही है कि उन्होंने स्वयं पर जंग नहीं लगने दी, वे इस्पात की तरह सदा चमचमाते रहे। कुल मिलाकर स्पष्ट दिखता है कि सुरेंद्र सिंह पवार ने एक श्रम साध्य कार्य कर हिन्दी में विश्वेश्वरैया जी की जीवनी लिखने का बड़ा कार्य किया है, जो सदैव संदर्भ बना रहेगा। त्रुटि रहित साफ सुथरी प्रिंट में स्वच्छसफेद कागज पर पूर्ण डिमाई आकार की १३६ पृष्ठीय किताब मात्र १०० रु में सुलभ है। मेरा सुझाव है कि इसे सभी इंजीनियरिंग कालेजों में अवश्य खरीदा जाना चाहिये। यदि भीतर के चेप्टर्स में भी अनुक्रम के अध्याय नम्बर डाल दिये जाते तो रिफरेंस लेने में और सरलता होती, अगले एडीशन में यह सुधार वांछित है। अस्तु खरीदिये, पढ़िये।