हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 163 ☆ “कर्म से तपोवन तक ” (उपन्यास) – लेखिका … सुश्री संतोष श्रीवास्तव ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है आपके द्वारा सुश्री संतोष श्रीवास्तव  जी द्वारा लिखित  “कर्म से तपोवन तक ” (उपन्यास) पर चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 163 ☆

☆ “कर्म से तपोवन तक ” (उपन्यास)लेखिका … सुश्री संतोष श्रीवास्तव ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

पुस्तक – कर्म से तपोवन तक (उपन्यास)

माधवी गालव पर केंद्रित कथानक

लेखिका … सुश्री संतोष श्रीवास्तव

दुनियां में विभिन्न संस्कृतियों के भौतिक साक्ष्य और समानांतर सापेक्ष साहित्य के दर्शन होते हैं। भारतीय संस्कृति अन्य संस्कृतियों से कहीं अधिक प्राचीन है। रामायण और महाभारत भारतीय संस्कृति के दो अद्भुत महा ग्रंथ हैं। इन महान ग्रंथों में  धार्मिक, पौराणिक, ऐतिहासिक और दार्शनिक, आध्यात्मिक और वैचारिक ज्ञान की अनमोल थाथी है। महाभारत जाने कितनी कथायें उपकथायें ढ़ेरों पात्रों के माध्यम से  न्याय, शिक्षा, चिकित्सा, ज्योतिष, युद्धनीति, योगशास्त्र, अर्थशास्त्र, वास्तुशास्त्र, शिल्पशास्त्र, कामशास्त्र, खगोलविद्या के गुह्यतम रहस्यों को संजोये हुये है। परंपरागत रूप से, महाभारत की रचना का श्रेय वेदव्यास को दिया जाता है। धारणा है कि महाभारत महाकाव्य से संबंधित मूल घटनाएँ संभवतः 9 वीं और 8 वीं शताब्दी ईसा पूर्व के बीच की हैं। महाभारत की रचना के बाद से ही अनेकानेक विद्वान सतत उसकी कथाओ का विशद अध्ययन, अनुसंधान, दार्शनिक विवेचनायें करते रहे हैं। वर्तमान में अनेकानेक कथावाचक देश विदेश में पुराणो, भागवत, रामकथा, महाभारत की कथाओ के अंश सुनाकर समाज में भक्ति का वातावरण बनाते दिखते हैं। विश्वविद्यालयों में महाभारत के कथानकों की विवेचनायें कर अनेक शोधार्थी निरंतर डाक्टरेट की उपाधियां प्राप्त करते हैं। प्रदर्शन के विभिन्न  माध्यमो में ढ़ेरों फिल्में, टी वी धारावाहिक, चित्रकला, साहित्य में महाभारत के कथानकों को समय समय पर विद्वजन अपनी समझ और बदलते सामाजिक परिवेश के अनुरूप अभिव्यक्त करते रहे हैं।

न केवल हिन्दी में वरन विभिन्न भाषाओ के साहित्य पर महाभारत के चरित्रों और कथानको का व्यापक प्रभाव परिलक्षित होता है। महाभारत कालजयी महाकाव्य है। इसके कथानकों को जितनी बार जितने तरीके से देखा जाता है, कुछ नया निकलता है। हर समय, हर समाज अपना महाभारत रचता है और उसमें अपने अर्थ भरते हुए स्वयं को खोजता है। महाभारत पर अवलंबित हिन्दी साहित्य की रचनायें देखें तो डॉ॰ नरेन्द्र कोहली का प्रसिद्ध महाकाव्यात्मक उपन्यास महासमर, महाभारत के पात्रों पर आधारित रचनाओ में धर्मवीर भारती का अंधा युग, आधे-अधूरे, संशय की रात, सीढ़ियों पर धूप, माधवी (नाटक), शकुंतला (राजा रवि वर्मा), कीचकवधम, युगान्त, आदि जाने कितनी ही यादगार पुस्तकें साहित्य की धरोहर बन गयी हैं।

महाभारत से छोटे छोटे कथानक लेकर अनेकानेक रचनायें हुईं हैं जिनमें रचनाकार ने अपनी सोच से कल्पना की उड़ान भी भरी है। इससे निश्चित ही साहित्य विस्तारित हुआ है, किन्तु इस स्वच्छंद कल्पना के कुछ खतरे भी होते हैं। उदाहरण स्वरूप रघुवंश के एक श्लोक की विवेचना के अनुसार माहिष्मती में इंदुमती प्रसंग में कवि कुल शिरोमणी कालिदास ने वर्णन किया है कि नर्मदा, करधनी की तरह माहिष्मती से लिपटी हुई हैं। अब नर्मदा के प्रवाह के भूगोल की यह स्थिति मण्डला में भी है और महेश्वर में भी है। दोनो ही शहर के विद्वान स्वयं को प्राचीन माहिष्मती सिद्ध करने में जुटे रहते हैं। साहित्य के विवेचन विवाद में वास्तविकता पर भ्रम पल रहा है।

मैं भोपाल में मीनाल रेजीडेंसी में रहता हूं, सुबह घूमने सड़क के उस पार जाता हूं। वहाँ हाउसिंग बोर्ड ने जो कालोनी विकसित की है, उसका नाम करण अयोध्या किया गया है, एक सरोवर है जिसे सरयू नाम दिया गया है। हनुमान मंदिर भी बना हुआ है, कालोनी के स्वागत द्वार में भव्य धनुष बना है। मैं परिहास में कहा करता हूं कि सैकड़ों वर्षों के कालांतर में कभी इतिहासज्ञ वास्तविक अयोध्या को लेकर संशय न उत्पन्न कर देँ। दुनियां में अनेक स्थानो पर जहां भारतीय बहुत पहले बस गये हैं जैसे कंबोडिया, फिजी आदि वहां राम को लेकर कुछ न कुछ साहित्य विस्तारित हुआ है और समय समय पर तदनुरूप चर्चायें विद्वान अपने शोध में करते रहते हैं। इसी भांति पढ़ने, सुनने से जो भ्रम होते हैं उसका एक रोचक उदाहरण बच्चों की एक बहस में मिलता है। एक साधु कहीं से गुजर रहे थे, उन्हें बच्चों की बहस सुनाई दी। कोई बच्चा कह रहा था मैं हाथी खाउंगा, तो कोई ऊंट खाने की जिद कर रहा था, साधु का कौतुहल जागा कि आखिर यह माजरा क्या है, यह तो शुद्ध सनातनी मोहल्ला है। उन्होंने दरवाजे पर थाप दी, भीतर जाने पर वे अपनी सोच पर हंसने लगे दरअसल बच्चे होली के बाद शक्कर के जानवरों को लेकर लड़ रहे थे। यह सब मैं इसलिये कह रहा हूं क्योंकि मैंने संतोष श्रीवास्तव जी का उपन्यास कर्म से तपोवन तक पढ़ा। और महाभारत के वे श्लोक भी पढ़े जहां से माधवी और गालव पर केंद्रित कथानक लिया गया है। अपनी भूमिका में ही संतोष जी स्पष्ट लिखती हैं, उधृत है ..”माधवी पर लिखना मेरे लिये चुनौती था। इस प्रसंग पर उपन्यास, नाटक, खंडकाव्य बहुत कुछ लिखा जा चुका है, थोडे बहुत उलट फेर से वही सब लिखना मुझे रास नहीं आया। मुझे माधवी के जीवन को नए दृष्टिकोरण से परखना था। गालव, माधवी धीरे-धीरे अंतरंग होते गए और दोनों के बीच दैहिक संबंध बन गए। मैंने इसी छोर को पकडा। ये अंतरंग संबंध मेरी माधवी कथा का सार बन गया, और मैंने माधवी का चरित्र इस तरह रचा जिसमें वह गालव से प्रेम के चलते ही राजा हर्यश, दिवोदास और उशीनर की अंकशायनी बनकर अपने अक्षत यौवना स्वरूप के साथ तीनों के बच्चों की माँ बनी। ” मेरा मानना है कि यह लेखिका की कल्पनाशीलता और उनकी साहित्यिक स्वतंत्रता है।

हो सकता है, यदि मैं इस प्रसंग पर लिखता तो शायद मैं माधवी के भीतर छुपी उस माँ को लक्ष्य कर लिखता जो बारम्बार अपनी कोख में संतान को नौ माह पालने के बाद भी लालन पालन के मातृत्व सुख से वंचित कर दी जाती है। गालव बार बार उसका दूध आंचल में ही सूखने को विवश कर उसे क्रमशः नये नये राजा की अंकशायनी बनने पर मजबूर करता रहा। मुझे संतोष जी की तरह गालव में माधवी के प्रति प्रेम नहीं दिखता। अस्तु।

उपन्यास में सीधा कथानक संवाद ही है, मुंशी प्रेमचंद या कोहली जी की तरह परिवेश के विस्तृत वर्णन का साहित्यिक सौंदर्य रचा जा सकता था जिसका अभाव लगा। उपन्यास का सारांश भूमिका में कथा सार के रूप में सुलभ है। महाभारत के उद्योग पर्व के अनुसार राजा ययाति जब अपने सबसे छोटे पुत्र पुरु को उसका यौवन लौटाकर वानप्रस्थ ग्रहण कर चुके होते हैं तभी गालव उनसे काले कान वाले ८०० सफेद घोड़ों का दान मांगने आता है। ययाति जिनका सारा चरित्र ही विवादस्पद रहा है, गालव को ऐसे अश्व तो नहीं दे सकते थे, क्योंकि वे राजपाट पुरु  दे चुके थे। अपनी दानी छबि बचाने के लिये वे गालव को अपनी अक्षत यौवन का वरदान प्राप्त पुत्री माधवी को ही देते हैं, और गालव को अश्व प्राप्त करने का मार्ग बताते हैं कि माधवी को अलग अलग राजाओ के संतानो की माँ बनने के एवज में गालव राजाओ से अश्व प्राप्त कर ले। सारा प्रसंग ही आज के सामाजिक मापदण्डों पर हास्यास्पद, विवादास्पद और आपत्तिजनक तथा अविश्वसनीय लगता है। मुझे तो लगता है जैसे हमारे कालेज के दिनों में यदि ड्राइंग में मैने कोई सर्कल बनाया और किसी ने उसकी नकल की, फिर किसी और ने नकल की नकल की तो होते होते सर्कल इलिप्स बन जाता था, शायद कुछ इसी तरह ये असंभव कथानक किसी मूल कथ्य के अपभ्रंश न हों। कभी कभी मेरे भीतर छिपा विज्ञान कथा लेखक सोचता है कि महाभारत के ये विचित्र कथानक कहीं किसी गूढ़ वैज्ञानिक रहस्य के सूत्र वाक्य तो नहीं। ये सब अन्वेषण और शोध के विषय हो सकते हैं।

आलोच्य उपन्यास से कुछ अंश उधृत कर रहा हूं, जो संतोष जी की कहन की शैली के साथ साथ कथ्य भी बताते हैं।

“महाराज आपका यह पुत्र वसुओं के समान कांतिमान है। भविष्य में यह खुले हाथों धन दान करने वाला दानवीर राजा कहलाएगा। इसकी ख्याति चारों दिशाओं में कपूर की भांति फैलेगी। प्रजा भी ऐसे दानवीर और पराक्रमी राजा को पाकर सुख समृद्धि का जीवन व्यतीत करेगी। राजा हर्यश्व और सभी रानियां राजपुरोहित के कहे वचनों से अत्यंत प्रसन्न थी। “

“वसुमना के जन्म के बाद से ही राजा हर्यश्च ने माधवी के कक्ष में आना बंद कर दिया था। इतने दिन तो माधवी को वसुमना के कारण इस बात का होश न था पर राजमहल से प्रस्थान की अंतिम बेला में उसने सोचा पुरुष कितना निर्माही होता है। “

“गालव निर्णय ले चुका था ठीक है राजन, आप माधवी से अपने मन की मुराद पूरी करें। आज से ठीक। वर्ष पक्षात में माधवी को तथा 200 अश्वों को आकर ले जाऊंगा। “

इतने अश्वों का विश्वामित्र जैसे तपस्वी करेंगे क्या? उनके आश्रम का तपोवन तो अश्वों से ही भर जाएगा। ” “मेरे मन में तो यह प्रश्न भी बार-बार उठता है कि गुरु दक्षिणा में उन्होंने ऐसे दुर्लभ अश्वों की मांग ही क्यों की ?

“क्या कह रहे हो मित्र, माधवी का तो स्वयंवर होने वाला था। ” “हां गालव स्वयंवर तो हुआ था देवी माधवी का, किंतु उन्होंने उस स्वयंवर में पधारे अतिथियों में से किसी का भी चयन न कर तपोवन को स्वीकार किया। यहां तक कि उन्होंने हाथ में पकड़ी वरमाला तपोवन की ओर उछालते हुए कहा कि मैं तुम्हें स्वीकार करती हूं। हे तपोवन, आज से तुम ही मेरे जीवन साथी हो। “

इस तरह की सरल सहज संवाद शैली में  “कर्म से तपोवन तक” के रूप में सुप्रसिद्ध लोकप्रिय बहुविध वरिष्ठ कथा लेखिका, कई किताबों की रचियता और देश विदेश के साहित्यिक पर्यटन की संयोजिका, ढ़ेर सारे सम्मान और पुरस्कार प्राप्त संतोष श्रीवास्तव जी का यह साहित्यिक सुप्रयास स्तुत्य है। मन झिझोड़ने वाला असहज कथानक है। स्वयं पढ़ें और स्त्री विमर्श पर तत्कालीन स्थितियों और आज के परिदृश्य का अंतर स्वयं आकलित करें।

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆ संजय दृष्टि – रामकथा : ग्रह-नक्षत्रों के आईने सेे – मूल लेखक – नीलेश ओक – अनुवाद – डॉ. नंदिनी नारायण ☆ समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

? संजय दृष्टि –  समीक्षा का शुक्रवार # 3 ?

? रामकथा : ग्रह-नक्षत्रों के आईने सेे – मूल लेखक – नीलेश ओक – अनुवाद – डॉ. नंदिनी नारायण ?  समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ?

पुस्तक का नाम – रामकथा : ग्रह-नक्षत्रों के आईने सेे

विधा – अनुवाद

मूल लेखक – नीलेश ओक

अनुवाद – डॉ. नंदिनी नारायण

प्रकाशन – क्षितिज प्रकाशन

? रामकथा : ग्रह-नक्षत्रों के आईने सेे – श्री संजय भारद्वाज ?

पत्थर पर खिंची रेखा

रमते कणे कणे इति राम:।

सृष्टि के कण-कण में जो रमते हैं वही (श्री) राम हैं। कठिनाई यह है कि जो कण-कण में है अर्थात जिसका यथार्थ, कल्पना की सीमा से भी परे है, उसे सामान्य आँखों से देखना संभव नहीं होता। यह कुछ ऐसा ही है कि मुट्ठी भर स्थूल देह तो दिखती है पर अपरिमेय सूक्ष्म देह को देखने के लिए दृष्टि की आवश्यकता होती है। नश्वर और ईश्वर के बीच यही सम्बंध है।

सम्बंधों का चमत्कारिक सह-अस्तित्व देखिए कि निराकार के मूल में आकार है। इस आकार को साकार होते देखने के लिए रेटिना का व्यास विशाल होना चाहिए। सह-अस्तित्व का सिद्धांत कहता है कि विशाल है तो लघु अथवा संकीर्ण भी है।

संकीर्णता की पराकाष्ठा है कि जिससे अस्तित्व है, उसके अस्तित्व पर प्रश्नचिह्न लगाया जाए। निहित स्वार्थ और संकुचित वृत्तियों ने कभी श्रीराम के अस्तित्व पर प्रश्न उठाए तो कभी उनके काल की प्रामाणिकता पर संदेह व्यक्त किया। कालातीत सत्य है कि समुद्र की लहरों से बालू पर खिंची रेखाएँ मिट जाती हैं पर पत्थर पर खिंची रेखा अमिट रहती है। यह पुस्तक भी विषयवस्तु के आधार पर पत्थर पर खिंची एक रेखा कही जा सकती है।

प्रस्तुत पुस्तक ‘रामकथा : ग्रह-नक्षत्रों के आईने सेे’ में प्रभु श्रीराम के जीवन-काल की प्रामाणिकता का वैज्ञानिक दृष्टि से विवेचन किया गया है। वाल्मीकि रामायण में वर्णित ग्रह नक्षत्रों की स्थिति का कालगणना के लिए उपयोग कर उसे ग्रेगोरियन कैलेंडर में बदला गया है। इसके लिए आस्था, निष्ठा, श्रम के साथ-साथ अपनी धार्मिक-सांस्कृतिक धरोहर के मानकीकरण की प्रबल इच्छा भी होनी चाहिए।

इस संदर्भ में पुस्तक में वर्णित कालगणना के कुछ उदाहरणों की चर्चा यहाँ समीचीन होगी। सामान्यत: चैत्र माह ग्रीष्म का बाल्यकाल होता है। महर्षि वाल्मीकि ने श्रीराम के जन्म के समय शरद ॠतु का उल्लेेख किया है। बढ़ती ग्लोबल वॉर्मिग और ॠतुचक्र में परिवर्तन से हम भलीभाँति परिचित हैं। वैज्ञानिक रूप से तात्कालिक ॠतुचक्र का अध्ययन करें तो चैत्र में शरद ॠतु होने की सहजता से पुष्टि होगी। राजा दशरथ द्वारा कराए यज्ञ के प्रसादस्वरूप पायस (खीर) ग्रहण करने के एक वर्ष बाद रानियों का प्रसूत होना तर्कसंगत एवं विज्ञानसम्मत है। राजा दशरथ की मृत्यु के समय तेजहीन चंद्र एवं बाद में दशगात्र के समय के वर्णन के आधार पर तिथियों की गणना की गई है। किष्किंधा नरेश सुग्रीव द्वारा दक्षिण में भेजे वानर दल का एक माह में ना लौटना, वानरों के लिए भोजन उपलब्ध न होना, रामेश्वरम के समुद्र का वर्णन, लंका का दक्षिण दिशा में होना, सब कुछ तथ्य और सत्य की कसौटी पर खरा उतरता है। एक और अनुपम उदाहरण रावण की शैया का अशोक के फूलों से सज्जित होना है। इसका अर्थ है कि अशोक के वृक्ष में पुष्प पल्लवित होने के समय हनुमान जी लंका गए थे।

साँच को आँच नहीं होती। श्रीराम के साक्ष्य अयोध्या जी से लेकर वनगमन पथ तक हर कहीं मिल जाएँगे। अनेक साक्ष्य श्रीलंका ने भी सहेजे हैं। अशोक वाटिका को ज्यों का त्यों रखा गया है। नासा के सैटेलाइट चित्रों में रामसेतु के अवशेष स्पष्ट दिखाई देते हैं।

श्री नीलेश ओक द्वारा मूल रूप से अँग्रेज़ी में लिखी इस पुस्तक का हिंदी अनुवाद डॉ. नंदिनी नारायण ने किया है। अनुवाद किसी भाषा के किसी शब्द के लिए दूसरी भाषा के समानार्थी शब्द की जानकारी या खोज भर नहीं होता। अनुवाद में शब्द के साथ उसकी भावभूमि भी होती है। अतः अनुवादक के पास भाषा कौशल के साथ-साथ विषय के प्रति आस्था होगी, तभी भावभूमि का ज्ञान भी हो सकेगा। डॉ. नंदिनी नारायण द्वारा किया हिंदी अनुवाद, विधागत मानदंडों पर खरा उतरता है। अनुवाद की भाषा प्रांजल है। अनुवाद में सरसता है, प्रवाह है। पढ़ते समय लगता नहीं कि आप अनुवाद पढ़ रहे हैं। यही अनुवादक की सबसे बड़ी सफलता है।

विश्वास है कि जिज्ञासु पाठक इस पुस्तक का स्वागत करेंगे। लेखक और अनुवादिका, दोनों को हार्दिक बधाई।

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – पुस्तकावर बोलू काही ☆ लक्षावधी बीजं (अनुवादित लघुकथा संग्रह)… – हिन्दी लेखक : श्री. भगवान वैद्य ‘प्रखर‘ ☆ प्रस्तुती – सौ अंजली दिलीप गोखले ☆

सौ अंजली दिलीप गोखले

? पुस्तकावर बोलू काही ?

☆ लक्षावधी बीजं (अनुवादित लघुकथा संग्रह)… – हिन्दी लेखक : श्री. भगवान वैद्य ‘प्रखर‘ ☆ प्रस्तुती – सौ अंजली दिलीप गोखले ☆

पुस्तक : लक्षावधी बीजं (अनुवादित लघुकथा संग्रह) 

मूळ कथाकार : भगवान वैद्य” प्रखर”

अनुवाद – सौ. उज्वला केळकर आणि  सौ. मंजुषा मुळे

प्रकाशक : अथर्व प्रकाशन, कोल्हापूर  

पृष्ठसंख्या : २४४ 

आज अचानक एक सुंदर सुबक पुस्तक हातात आले . त्याचे मुखपृष्ठ पाहूनच पुस्तक वाचण्याचा मोह झाला .मुखपृष्ठावर विशाल आभाळ अन् पाचूसारखे हिरवेकंच पीक आलेली विस्तीर्ण जमीन दिसते. डोळे तृप्त करणारे असे हे मुखपृष्ठ पाहून पुस्तकाचे “ लक्षावधी बीजं “ हे नाव यथार्थ आहे असे जाणवते. अशीच विचारांची लक्षावधी बीजे या कथांमध्ये नक्कीच आहेत.. हे पुस्तक म्हणजे हिंदीतील सुप्रसिद्ध लेखक भगवान वैद्य” प्रखर” यांच्या हिंदी लघुकथांचा अनुवाद . हा अनुवाद केला आहे, सौ .उज्वला केळकर आणि सौ मंजुषा मुळे या दोघींनी . दोघींचे नाव वाचून क्षणात माझ्या मनामध्ये शंकर – जयकिशन, कल्याणजी – आनंदजी, अजय – अतुल अशा संगीतकार जोडीची नावे तरळली अन् वाटले – हा अनुवादही अशा रसिक, साहित्यिक जेष्ठ भगिनीनी – मैत्रिणींनी केलेला आहे . 

इथे एक गोष्ट आवर्जून स्पष्ट करावीशी वाटते. मराठीत आपण ज्याला लघुकथा म्हणतो त्याला हिंदीत ‘ कहानी  ‘ असे म्हटले जाते. आणि हिन्दी साहित्यात कहानी आणि  लघुकथा हे दोन स्वतंत्र साहित्य-प्रकार आहेत. आणि अशा लघुकथा सर्वत्र प्रकाशित होतात. अगदी अलीकडे मराठीत अशासारख्या कथा लिहायला सुरुवात झाली आहे.. हिंदीत २५० ते साधारण ४००-५०० शब्दांपर्यन्त लिहिलेल्या कथेला ‘लघुकथा ‘ म्हणतात. आणि अशा कथा म्हणजे मोठ्या कथेचे संक्षिप्त रूप किंवा सारांश अजिबातच नसतो. यात कमीत कमी शब्दात जास्तीत जास्त मोठा आशय मार्मिकतेने मांडलेला असतो, ज्याला एक नक्की सामाजिक परिमाण असते. ती कथा आकाराने लहान असली तरी ती “अर्थपूर्ण” असते, तिला आशयघनता असते . भगवान वैद्य “प्रखर” हे उत्तम लघुकथा लिहिण्यामध्ये प्रसिद्ध आहेत. लक्षावधी बीजं या पुस्तकामध्ये, वाचकाला त्यांच्या अशाच कथा वाचायला मिळतात. अनुवादामुळे एका भाषेतील उत्तम साहित्य दुसऱ्या भाषेमध्ये वाचकाला तितक्याच उत्तम स्वरूपात वाचायला मिळते ही गोष्ट या अनुवादित पुस्तकामुळे पुन्हा एकदा नक्कीच अधोरेखित झालेली आहे.  या दोघींनी निवडक कथांचा अनुवाद करून आपल्याला ” लक्षावधी बीजं ” या पुस्तकाच्या  रुपानं वाचनभेट दिली आहे . यातील १२० कथांपैकी १ ते ६५ या कथांचे अनुवाद केले आहेत मंजुषा मुळे यांनी तर ६६ ते १२० या कथांना अनुवादित केलंय उज्वला केळकर यांनी .

 या लघुकथा वाचताना मूळ लेखकाची प्रगल्भता, निरीक्षण क्षमता आणि अचूक आणि अल्प शब्दात मनातलं लिहिण्याची  हातोटी पाहून आपण अचंबित होतो. वाचकाच्या कधी लक्षातही येणार नाहीत अशा विषयांवर चपखल शब्दात लघुकथा लिहिण्यात लेखक भगवान वैद्य” प्रखर” कमालीचे यशस्वी झालेत . म्हणूनच हिंदी साहित्य क्षेत्रात लघुकथा लिहिणाऱ्यांमध्ये त्यांचे नाव अग्रक्रमाने घेतले जाते. उज्वलाताई आणि मंजुषाताईंनी या सर्व लघुकथांना मराठीमध्येही त्याच हातोटीने उत्तमपणे गुंफून वाचकाला वाचनाचा आनंद दिला आहे आणि पुढील गोष्टींची उत्सुकता वाढवली आहे .सूक्ष्म निरीक्षण, विषयातील गांभीर्य, अल्प शब्दात परिणामकारकपणे  त्या विषयावरचे लेखन, या सगळ्याची उत्तम गुंफण् करण्याच्या कामात हिंदी लेखक आणि दोन्ही मराठी अनुवादिका पूर्णपणे यशस्वी झाले आहेत . छोट्या छोट्या कथा असल्यामुळे पटापट वाचून होतात आणि एक आगळा वेगळा आनंद वाचकाला मिळतो .

 “प्रत्येक वेळी” ही पहिलीच एक पानी कथा आपल्या हृदयाचा ठोका चुकवून जाते आणि समाजातील _ डोंबाऱ्यांमध्येसुद्धा असलेले मुलींच्या आयुष्याचे दुय्यम स्थान समजते . बिन्नी आपल्या आईला विचारते,” आई, दर वेळी मलाच का दोरावर चढायला लावता? भय्याला का नाही ?” या लहानशा प्रश्नावरून आपण विचार करायला प्रवृत्त होतो.

 “मूल्यांकन” ही इवलीशी कथा . शेवटचे वाक्य कापसाचे भाव सांगणाऱ्या परीक्षकाच्या शून्य बुद्धीची जाणीव करून देते . या परिक्षकाला’ कापूस शेतात पिकविण्यासाठी शेतकरी अविरत श्रम करतो, त्याला किती जागरूक राहून काम करावे लागते याची काहीच कल्पना नसते .. त्याला वाटते साखर किंवा थर्मोकोल प्रमाणे कापसाचेही कारखाने असतात . परीक्षकाच्या बुद्धीची किती कीव करावी हेच समजत नाही . अडाणीपेक्षा निर्बुद्ध हाच शब्द योग्य वाटतो. लेखकाचे थोडक्या शब्दात हा खूप मोठा अर्थ सांगण्याचे जे कसब आहे, ते आपल्याला थक्क करते .

आयडिया या गोष्टीमध्ये, रेल्वे  प्रवासामध्ये एक आंटी तरुण मुलाना त्यांच्याकडून झालेला कचरा व्यवस्थित गोळा करून प्लॅस्टिक पिशवीमध्ये, जशी आंटीने बरोबर आणली आहे, तशा पिशवीत टाकायची आयडिया सुचवतात. काही वेळानंतर थोड़ी झोप झाल्यावर, आंटी पहातात तर  मुलांनी सगळा कचरा साफ केलेला दिसतो . पण – – पण आंटीच्याच पिशवीमध्ये गोळा करून भरून ठेवून मुले आपल्या स्टेशनवर उतरून निघून गेलेली असतात.  .

ऑफीसमध्ये काम करणाऱ्यांना वेळेवर पगार न मिळणे हे नित्याचेच . मग तो पोस्टमन असो, एसटी डायव्हर असो की कुटुंब प्रमुख अन ऑफिसर . पोस्टमन एका घरी गृहिणीकडे आपला ३ महिने पगारच न झाल्याचे सांगत पैशाची मागणी करतो . ही गोष्ट जेव्हा ती गृहिणी आपल्या नवर्‍याला सांगते, तेव्हा तो म्हणतो, सांगायचं नाही का त्याला साहेबांचाही पगार ३ महिने झाला नाही . त्यावेळी ती थक्क होऊन विचारते, तुम्ही बोलला नाहीत ते? तेव्हा तो म्हणतो, कसा बोलणार ? कुटुंबाचा प्रमुख आहे ना?

छोटा संवाद पण खूप काही सांगून जातो ” कुटुंब प्रमुख” या कथेमध्ये ….. अशा साध्या साध्या प्रसंगातून घराघरातील परिस्थिती, मानसिकता, कुटुंब प्रमुखाची होणारी कुचंबणा, त्याचे धैर्य आणि अगतिकता अल्प शब्दात लिहिण्याचे लेखकाचे कौशल्य वाखाणण्याजोगे आहे .

अलीकडे लहान मुलांना मनसोक्त खेळायला, बागडायला जागाच नाही . त्यांची किलबिल, दंगा, आरडा ओरडा, हसण्या खिदळण्याचे आवाज येत नाहीत . मोठ्याना पण सुने सुने वाटते आहे . ही भावना ” दुर्लभ” या कथेतून वाचताना आपल्यालाही ही बोच मनोमन पटल्याशिवाय रहात नाही ..

हल्ली मुलांना शिक्षणातला ओ की ठो येत असो वा नसो पास करायचेच, नापास करायचेच नाही हा फंडा आहे . पालकांना माहिती आहे की आपला मुलगा वाचू शकत नाही, पाढे पाठ नाहीत तरी ४थीत गेला कसा? म्हणून शाळेत चवकशी करायला जातात तर त्याच वेळी शाळेचा निकाल – प्रत्येक वर्गाचा निकाल १००% लागल्या बद्दल शाळेचा, मुख्याध्यापक, सगळा स्टाफ यांचा सत्कार होणार असतो . टाळ्यांच्या गजरात कार्यक्रम पुढे सरकत असतो . ते पालकही, आपला पाल्य बोट सोडून पळून गेलाय याकडे दुर्लक्ष्य करून टाळ्या वाजवायला लागतात . शिक्षण क्षेत्रातला विरोधाभास, दुष्ट पण कटू सत्य आणि पालकांची अगतिकता लेखकानी थोड्या शब्दान टाळी या लघुकथेत वर्णन केली आहे .

लक्ष्यावधी बीजं हे पुस्तक वाचताना खूप वैशिष्ट्यपूर्ण कथा आपल्याला वाचायला मिळतात, त्यामध्ये ज्याचं त्याचं दुःख, मनोकामना, कर्ज, कठपुतळी , कर्जदार या सांगता येतील . आणखी एक वैशिष्ठ्य म्हणजे या कथा वाचताना आपण अनुवादित कथा वाचतो आहोत हे जाणवतसुद्धा नाही . मराठीत इतका सुंदर अनुवाद झाला आहे की जणू काही या कथा मूळ मराठीतच लिहिलेल्या आहेत असे वाटते,  आणि ते या दोन अनुवादिकांचे यश आहे . फक्त आपल्याला कधी जाणवतं … तर  त्यामधील पात्रांची जी नावे आहेत ती मराठीतली नाहीत … दादाजी, अनुलोम, दीनबंधू इ .आहेत एवढेच. यासाठी या दोन्ही मराठी लेखिकांना सलाम !

म्हणूनच समस्त वाचक वर्गाला विनंती की हे पुस्तक विकत घेऊन मुद्दाम वाचावे .सर्वाना आवडणारे, वेगळाच आनंद देणारे, समाजातील बोलकी चित्रे विरोधाभासासह रेखाटणारे हे पुस्तक पुरस्कारास यथायोग्य असेच आहे .

उज्वलाताई आणि मंजुषाताई दोघींनाही  पुढील वाटचालीसाठी हार्दिक शुभेच्छा .

परिचय : सौ अंजली दिलीप गोखले

मोबाईल नंबर 8482939011

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 162 ☆ “एजी ओजी लोजी इमोजी” (व्यंग्य संग्रह) – लेखक – श्री अरुण अर्णव खरे ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है आपके द्वारा श्री अरुण अर्णव खरे जी द्वारा लिखित  “ एजी ओजी लोजी इमोजी ” (व्यंग्य संग्रह) पर चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 161 ☆

☆ “एजी ओजी लोजी इमोजी” (व्यंग्य संग्रह) – लेखक – श्री अरुण अर्णव खरे ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

पुस्तक – एजी ओजी लोजी इमोजी (व्यंग्य संग्रह)

लेखक  – श्री अरुण अर्णव खरे

प्रकाशक – इंक पब्लीकेशन

चर्चा … विवेक रंजन श्रीवास्तव

सर्वप्रथम बात इंक पब्लीकेशन की, दिनेश जी वाकई वर्तमान साहित्य जगत में अच्छी रचनाओं के प्रकाशन पर उम्दा काम कर रहे हैं, उन्हे और उनके चयन के दायरे में अरुण अर्णव खरे जी के व्यंग्य संग्रह हेतु दोनो को बधाई।

अरुण अर्णव खरे जी इंजीनियर हैं, अतः उनके व्यंग्य विषयों के चयन, नामकरण, शीर्षक, विषय विस्तार में ये झलक सहज ही दिखती है। किताब पूरी तो नही पढ़ी पर कुछ लेख पूरे पढ़े, कई पहले ही अन्यत्र पढ़े हुए भी हैं। पुस्तक का शीर्षक व्यंग्य सोशल मीडिया में इमोजी की चिन्ह वाली भाषा से अनुप्रास में प्रायः हमारी पीढ़ी की पत्नियो द्वारा अपने पतियों को एजी के संबोधन से जोड़कर बनाया गया है। बढ़िया बन पड़ा है। लेख भी किंचित हास्य, थोड़ा व्यंग्य, थोड़ा संदेश, कुछ मनोरंजन लिए हुए है। संग्रह इकतालीस व्यंग्य लेख संजोए हुए है। टैग बिना चैन कहां, सच के खतरे, झूठ के प्रयोग ( गांधी के सत्य के प्रयोग से प्रेरित विलोम ), नमक स्वादानुसार, ड्रीम इलेवन ( श्री खरे अच्छे खेल समीक्षक भी हैं ), पाला बदलने का मुहूर्त रचनाएं प्रभावोत्पादक है। आत्म कथन में अरुण जी ने प्रिंट  किताब के भविष्य पर अपनी बात रखी है, सही है। पीडीएफ होते हुए भी, अवसर मिला तो इस कृति को पुस्तक के रूप में पढ़ने का मजा लेना पसंद करूंगा। अस्तु

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆ लहू के गुलाब – श्री अमृतपाल सिंह ‘शैदा’ ☆ समीक्षक – प्रो. नव संगीत सिंह ☆

प्रो. नव संगीत सिंह

☆ पुस्तक समीक्षा ☆ लहू के गुलाब – श्री अमृतपाल सिंह ‘शैदा’ ☆ समीक्षक – प्रो. नव संगीत सिंह ☆

पुस्तक चर्चा 

पुस्तक – लहू के गुलाब (हिन्दी गजल संग्रह)

लेखक  – अमृतपाल सिंह ‘शैदा’

प्रकाशक – शब्दांजलि पब्लिकेशन, पटियाला,

पृष्ठ – 96

मूल्य – 200/-

☆ “लहू के गुलाब” ~  सामाजिक विसंगतियों की परिचायक: प्रो. नव संगीत सिंह ☆

अमृतपाल सिंह ‘शैदा’ ग़ज़ल को समर्पित त्रिभाषी कवि हैं। उन्होंने अब तक पंजाबी में 4 संपादित और 2 मौलिक पुस्तकें लिखी हैं, जिनमें ‘गरम हवावां’ (कहानियां, 1985), ‘जुगनू अतीत दे’ (कविताएं, चरणजीत सिंह चड्ढा, 2003), ‘सांझ अमुल्ली बोली दी’ (ग़ज़लें, 2021), ‘सथ्थ जुगनुआं दी’ (कहानियाँ, 2021) (सभी संपादित); ‘फसल धुप्पां दी’ (गज़ल, 2019), ‘टूणेहारी रुत्त दा जादू’ (ग़ज़लें, 2022) (दोनों मौलिक) शामिल हैं। वह सहजता और ठहराव के कवि हैं। पिछले 40 वर्षों से उन्होंने स्थानीय, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय कवि दरबारों/मुशायरों सहित त्रिभाषी कवि दरबारों की शोभा बढ़ाई है। उन्होंने दूरदर्शन और ऑल इंडिया रेडियो कार्यक्रमों में भी भाग लिया है। वे 1979 से ‘त्रिवेणी साहित्य परिषद’ पटियाला से जुड़े हुए हैं और 1985 से वे भाषा विभाग, पंजाब की साहित्यिक गतिविधियों से संबंधित हैं। ग़ज़ल की बारीकियां उन्हें अपने दिवंगत पिता श्री गुरबख्श सिंह शैदा की संगति से मिली।

समीक्षाधीन पुस्तक (‘लहू के गुलाब’, शब्दांजलि पब्लिकेशन, पटियाला, पृष्ठ 96, मूल्य 200/-) अमृतपाल सिंह शैदा की हिंदी ग़ज़लों की पहली मौलिक पुस्तक है, जिसमें 72 ग़ज़लें शामिल हैं। इस पुस्तक की प्रस्तावना एवं तब्सिरा में क्रमशः डाॅ. सुरेश नाइक (राजपुरा, पंजाब) और प्रो. सग़ीर तबस्सुम (पाकिस्तान) ने पुस्तक की विस्तृत और बारीकी से समीक्षा की है। शिरोमणि हिन्दी साहित्यकार डाॅ. मनमोहन सहगल ने भी पुस्तक पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखी है।

दरअसल, वर्तमान समय में ग़ज़ल भी साहित्य की अन्य विधाओं की तरह आडंबर/फंतासी/शाही दरबारों के चक्र से मुक्त होकर सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक मान्यताओं को चुनौती देती दिखाई देती है। पुस्तक का शीर्षक “लहू के गुलाब” संघर्ष और प्रगति को दर्शाता है, अर्थात् गुलाब अब केवल सुगंधि या खुशबू का केन्द्र बिन्दु नहीं रहा, बल्कि उसके लाल रंग से कवि को रक्त/क्रान्ति का झंडा लहराता नजर आता है। और जब कवि को कोमल/नाज़ुक चीजों से भी रक्त का संचार दिखाई दे, तो समझ लेना चाहिए कि ‘ताज़ो-तख्त’ गिरने वाले हैं।

शायर ने सभी ग़ज़लों में शेयरों की संख्या सात तक सीमित कर दी है और लगभग हर ग़ज़ल के अंत में अपना उपनाम ‘शैदा’ इस्तेमाल किया है। उन्होंने अधिकतर ग़ज़लों में दो-दो शब्दों के दोहराव से वक्रोक्ति पैदा करने की कोशिश की है। किताब की दूसरी ग़ज़ल में ही यह जादू प्रमुखता से उभरता नज़र आता है:

गुलशन-गुलशन सहरा-सहरा, जंगल-जंगल आग लगी है

आँगन-आँगन मरघट-मरघट, आंचल-आंचल आग लगी है

मौसम-मौसम मातम-मातम, पल-पल-पल-पल आग लगी है

धरती-धरती झुलसी-झुलसी, बादल-बादल आग लगी है

                                                     (पृष्ठ 20)

हर समाज में हर तरह के लोग होते हैं – अच्छे भी और बुरे भी। कुछ मददगार साबित होते हैं, कुछ लूटपाट/हत्या करने में लगे रहते हैं। कवि इस लम्बे चौड़े आख्यान को एक ही शेयर में कैसे समेटता है:

बस्ती पर जब संकट आया, कुछ लोगों ने लंगर खोले

कुछ लोगों ने लूट मचाई, कुछ ने जुगनू बांटे थे

                                                    (पृष्ठ 22)

शीर्षक ग़ज़ल में कई मुद्दों/विषयों को छुआ गया है और काफिया-रदीफ़ में ‘लहू के गुलाब’ का दोहराव है। पूरी दुनिया को जीतने की चाहत रखने वाला सिकंदर आखिरकार खाली हाथ चला गया। कवि ने इस तथ्य को जीवन की सच्चाई से कितनी गहराई से जोड़ा है:

जो चाहता था दुनिया को अपनी मुट्ठी में करना, 

थे हाथ उसके ख़ाली जनाज़े से बाहर

खिलाता रहा उम्र भर ही अना के,

वो अहमक़ सिकंदर लहू के गुलाब।     

(पृष्ठ 24)

क़लम की ताकत को ‘शैदा’ जैसा बुद्धिमान ग़ज़लगो ही समझ सकता है, अन्यथा आम लोग तो लेखक को मूर्ख ही समझते हैं:

तुम नहीं ताक़त क़लम की जानते, सोचो ज़रा

इन्किलाबों का है ये इक कारगर हथियार क्यों

जिस के फ़न को सोने-चांदी से खरीदा जा सके

उसको हम, ‘शैदा’ कहेंगे साहिबे-किरदार क्यों

                                                     (पृष्ठ 26)

आज के मनुष्य के तनावपूर्ण और जटिल जीवन को देखकर ऐसा लगता है कि वह एक ही समय में कई हिस्सों में बंटा हुआ है। वह करता कुछ और है, सोचता कुछ और; देखता कुछ और है, लिखता कुछ और.. और ऐसी परेशानी में उससे कोई काम अच्छे से नहीं हो पाता। मेरा मानना है कि इसका प्रमुख कारण प्रौद्योगिकी है, जिसने मनुष्य के विखंडन में प्रमुख भूमिका निभाई है:

 दिल कहीं, रुह कहीं, जिस्म कहीं पर होगा

तुम हवाओं में उड़ोगे तो बिखर जाओगे

अक़्लमंदों की जो सोहबत में रहोगे ‘शैदा’

अपने क़द से भी कहीं ऊंचा उभर जाओगे

(पृष्ठ 32)

जिंदगी सिर्फ जाम-ओ-सुराही, लबो-रुख़सार के  पेचो-ख़म की उलझनों में ही नहीं उलझी है, बल्कि उसे भूख, अस्तित्व और निजता जैसी कठिनाइयों और चुनौतियों का भी सामना करना पड़ता है। मनुष्य की जवांमर्दी इसी में है कि वह ज़ुल्मो-सितम से लड़ने के लिए किसी और के सहारे को न ढूंढे, किसी से मदद मांगने के लिए हाथ न फ़ैलाए, बल्कि अपनी पूरी ताकत से, जितनी तेजी से संभव हो, कूद पड़े। रात चाहे कितनी भी भयानक और अंधेरी क्यों न हो, आने वाला कल अवश्य खुशनुमा होगा। कवि आशावादी सोच और भविष्य के सुनहरे सपनों को प्रमुखता से रेखांकित करते हुए लिखता है:

जुगनू की दिलेरी से, लीजेगा सबक़ कोई

लड़ता है अकेला ही, ज़ुलमात के लश्कर से

नस्लें ही चलो अपनी, पुरनूर सहर देखें

आओ कि लड़ें जमकर, हम रात के लश्कर से

                                                    (पृष्ठ 33)

 शैदा’ एक ऐसा संवेदनशील शायर हैं जो लोगों के दुखों, आंसुओं और परेशानियों से हमेशा विचलित रहता है। कवि ने इस पुस्तक को “संसार की सुख शांति, समृद्धि व सलामती को समर्पित” किया है। सांसारिक समस्याओं से डरना और भागना भी कायरता की निशानी है। सच्चा योद्धा वही होता है जो सिर पर कफ़न बांधकर युद्ध के मैदान में जूझता है:

 मेरे शे’रों में लोगों के दुःख हैं, आँसू हैं, खुशियाँ हैं

हर पल चिंतन और मनन ने हक़ सच का परचम लहराया

जीना बेशक रास न आया, सारा जीवन, ‘शैदा’ मुझ को

पर संघर्ष की राह अपनाई, मर जाना न मन को भाया

(पृष्ठ 34)

 

गहरी नींद से जागो, उट्ठो, और संघर्ष में जूझो

वक्त की नाद सुनो बंधु, तुम को ललकार पड़ी है

                          ‌‌                       (पृष्ठ 53)

पृष्ठ 48 पर कवि ने ‘ऐ दोस्त’ अलग-अलग वर्तनी में लिखे हैं, लेकिन हिंदी में ‘ऐ दोस्त’ ही सही है। शायर ने क़िताब की ग़ज़लों को हिंदी ग़ज़लों का नाम दिया है लेकिन इनमें प्रस्तुत शब्द/वाक्यांश अधिकतर फ़ारसी/अरबी हैं। कवि ने इन्हें अरबी-फ़ारसी के अनुसार लिखा है। इस पुस्तक की ख़ूबी यह है कि अंत में कठिन शब्दों के अर्थ दिये गये हैं। लेकिन सभी कठिन शब्द यहां नहीं आ सके। शब्दार्थ-विधि भी सही नहीं है। उन्हें क्रमांकित या पृष्ठांकित किया जाना चाहिए था या फ़ुटनोट में लिखा जाना चाहिए था। जोश, प्रेरणा और संघर्ष की बातें कहतीं ‘शैदा’ की यह ग़ज़लें तहक़ीक़-ओ-तवारीख़ में भूचाल लाने की क्षमता रखती हैं, ऐसा मेरा मानना है!

© प्रो. नव संगीत सिंह

# अकाल यूनिवर्सिटी, तलवंडी साबो-१५१३०२ (बठिंडा, पंजाब) ९४१७६९२०१५.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – पुस्तकावर बोलू काही ☆ पाने आणि पानगळ… श्री वसंत वसंत लिमये ☆ परिचय – सौ. माधुरी समाधान पोरे ☆

सौ. माधुरी समाधान पोरे

? पुस्तकावर बोलू काही ?

☆ पाने आणि पानगळ… श्री वसंत वसंत लिमये ☆ परिचय – सौ. माधुरी समाधान पोरे ☆

पुस्तक परिचय

पुस्तकाचे नाव – पाने आणि पानगळ

लेखक – श्री वसंत वसंत लिमये

पृष्ठसंख्या – 192

लेखकांना  कोकणकडा, गिर्यारोहण याची आवड आहे. ते गडकोट मोहिमांचे नेतृत्व करतात. 1989 मध्ये भारतात प्रथम निसर्ग आणि साहस अशी प्रशिक्षणाची मुहूर्तमेढ रोवली. त्यांच्या नावावर अनेक लेखसंग्रह प्रकाशीत आहेत. त्यांना 2013 सालचा ‘सहकारमहर्षी’  साहित्य पुरस्कार’ मिळाला आहे. 

माणसाचं आयुष्य समृद्ध असतं म्हणजे नक्की काय, तर त्याने आयुष्याच्या वाटेवर जमवलेली अगणित माणसे. लेखकांनी आजवरच्या भटकंतीतून 

जी माणसं जमवली, त्यांची व्यक्तिमत्व म्हणजे ‘पाने आणि पानगळ’ हे पुस्तक. वसंत लिमये यांनी या प्रत्येक व्यक्तीच वर्णन या पुस्तकात ‘एकोणतीस’ लेखांद्वारे केले आहे. त्यांना भेटलेल्या प्रत्येक व्यक्तीबद्दलची आपुलकी, प्रेम नेमकेपणाने मांडले आहे. ही पानं रूजवत ते स्वतःच एक समृद्ध झाड होऊन गेले आहेत.  

‘अस्वस्थ संध्याछाया’ या लेखात लेखकाने त्यांच्या आईबद्दल लिहिले आहे. आईचा सगळा जीवनप्रवास, त्यांची कष्टाळू वृत्ती, खंबीरपणा त्यांनी शब्दबद्ध केला आहे. त्यांची  वडीलांना भक्कम साथ होती. पण वयोमानानुसार होणारे बदल, स्वावलंबन उतारवयात सोडवत नाही. लेखकाला वाटतं आयुष्य एखाद्या वर्तुळासारखं आहे. मोठ्ठा फेरा मारून ते बालपणाच्या जवळ येतं.

‘मरीन कमांडो प्रवीण, त्रिवार वंदन’! .. खरंतर ही कहाणी अंगावर शहारा आणणारी आहे. कमांडो प्रवीण यांचा जाट कुटुंबातील जन्म.  नेव्हीमधे होते. खडतर प्रशिक्षण, एकविसाव्या वर्षी ते कमांडो झाले. 26/11 च्या काळरात्री दहशतवाद्यांचा खातमा करण्यासाठी त्यांना ताजमहाल हाॅटेलमधे जाण्याचे आदेश आले. अतिरेकी एका दालनात दबा धरून बसले होते. कमांडो प्रवीण मेन असल्यामुळे आत गेले, त्यांना गोळया लागल्या अशा अवस्थेत एका अतिरेक्याला जायबंदी केले. त्यामुळे अनेक लोकांचा जीव वाचला. नंतर कमांडो प्रवीण यांच्यावर उपचार करण्यात आले.त्यातून ते सुखरूप बाहेर पडले.  त्यांना खूप पथ्ये सांगितली. पण ते स्वस्थ बसले नाहीत,  हळूहळू लांब चालणं, सोबत योगा, पळणं, पोहणं, अशी सुरुवात केली. साउथ अफ्रिकेत  ‘Iron Man’ हा किताब मिळवला. राखेतून उठून भरारी घेणाऱ्या फिनिक्स पक्ष्यासारखी ही कहाणी आहे. 

‘अटळ, अपूर्ण तरीही परिपूर्ण’  यामधे लेखकांनी त्यांच्या बाबांच्या आठवणी सांगितल्या आहेत. साठ वर्ष त्यांना सहवास लाभला. स्वातंत्र्याच्या चळवळीत त्यांच्या वडीलांचे योगदान होते. त्यांनी आपली मते इतरांवर कधीच लादली नाहीत.  मुलांवर चांगले संस्कार देऊन समृद्ध केले. यश, अपयश, त्यांनी पचवले. परिपूर्ण आयुष्य ते जगले. 

‘किनारा मला पामराला’  यामधे लेखकांनी स्वतःच्या आयुष्यातील चढउतार मांडले आहेत.  मागे वळून पाहताना त्यांना वळणावळणाचा रस्ता दिसतो. आठवीत असताना त्यांचा नंबर घसरून एकतीसवर  आला. प्रगतिपुस्तकावर सही करताना बाबा त्यांना म्हणाले, बाळकोबा यातले तीन काढता आलेतर नक्की काढा…….हा प्रसंग मनावर त्यांनी कायम कोरला. त्यांनी आयुष्यभर सर्वोत्तम हाच धडा गिरवला. अवघड शिड्या लिलया पार केल्या. डोंगरवाटा, कोकणकडा, गिर्यारोहण,  यांनी त्यांना वेड लावले. यासाठी अथक प्रयत्न केले. पत्नीची मोलाची साथ लाभली. त्यांचा मनुष्य संग्रह अफाट आहे. ते स्वतःला भाग्यवान समजतात.  लेखन हा त्यांचा शोधप्रवास आहे. जे जमतं ते करण्यात वेगळीच मजा आहे. 

The summit is what drive us, but the climb itself is what matters……

शिखरं असंख्य आहेत आणि प्रवास सुरूच राहणार आहे.

खरंच ‘पाने आणि पानगळ’ वाचताना लेखकांच्या आयुष्यातील ही सारे पाने खूप काही शिकवून जातात.  प्रत्येक नवीन पान काय असेल याची उत्सुकता लागून राहते. वेगवेगळ्या व्यक्तीमत्वाची पैलूंची  ओळख झाली. यातील डोंगरवाटा, कोकणकडे, गिर्यारोहणाचे अनुभव वाचताना अंगावर शहारे येतात.  चित्ररूपाने हा प्रवास डोळ्यांसमोरून सरकत होता.  तुम्हीही वाचा ही पाने…….

संवादिनी – सौ. माधुरी समाधान पोरे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆ संजय दृष्टि –  पुरानी डायरी के फटे पन्ने – कहानीकार – ऋता सिंह ☆ समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

? समीक्षा का शुक्रवार # 2 ?

? संजय दृष्टि –  पुरानी डायरी के फटे पन्ने – कहानीकार – ऋता सिंह ?  समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ?

पुस्तक – पुरानी डायरी के फटे पन्ने

विधा – कहानी

कहानीकार – ऋता सिंह

प्रकाशक – क्षितिज प्रकाशन, पुणे

? प्रभावी कहन – श्री संजय भारद्वाज?

माना जाता है कि कहानी का जन्म मनुष्य के साथ ही हुआ। सत्य तो ये है कि हर आदमी की एक कहानी है।

आदमी एक कहानी लेकर जन्मता है, अपना जीवन एक कहानी की तरह जीता है। यदि एक व्यक्ति के हिस्से केवल ये दो कहानियाँ भी रखी जाएँ तो विश्व की जनसंख्या से दोगुनी कहानियाँ तो हो गईं। आगे मनुष्य के आपसी रिश्तों, उसके भाव-विश्व, चराचर के घटकों से अंतर्संबंध के आधार पर कहानियों की गणना की जाए तो हर क्षण इनफिनिटी या असंख्येय स्थिति उत्पन्न हो जाएगी।

श्रीमती ॠता सिंह

श्रीमती ॠता सिंह की देखी, भोगी, समझी, अनुभूत, श्रुत, भीतर थमी और जमी कहानियों की बस्ती है ‘पुरानी डायरी के फटे पन्ने।’ संग्रह की कुल चौबीस कहानियाँ, इन कहानियों के पात्रों, उनकी स्थिति-परिस्थिति, भावना-संभावना, आशा-आशंका सब इस बस्ती में बसे हैं।

इस बस्ती की व्याप्ति विस्तृत है। बहुतायत में स्त्री वेदना है तो पुरुष संवेदना भी अछूती नहीं है, निजी रिश्तों में टूटन है तो भाइयों में  प्रेम का अटूट बंधन भी है। आयु की सीमा से परे मैत्री का आमंत्रण है तो युद्धबंदियों के परिवार द्वारा भोगी जाती पीड़ा का भी चित्रण है। वृद्धों की भावनाओं की पड़ताल है तो अतीत की स्मृतियों के साथ भी कदमताल है। सामाजिक प्रश्नों से दो-चार होने  का प्रयास है तो स्वच्छंदता के नाम पर मुक्ति का छद्म आभास भी है। आस्था का प्रकाश है तो बीमारी के प्रति भय उपजाता अंधविश्वास भी है। आदर्शों के साथ जीने की ललक है तो व्यवहारिकता की समझ भी है।  

अलग-अलग आयामों की इन कहानियों में स्त्री का मानसिक, शारीरिक व अन्य प्रकार का शोषण प्रत्यक्ष या परोक्ष कहीं न कहीं उपस्थित है। इस अर्थ में ये स्त्री वेदना को शब्द देनेवाली कही जा सकती हैं।

विशेष बात ये है कि स्त्री वेदना की प्रधानता के बावजूद ये कहानियाँ शेष आधी दुनिया के प्रति विद्रोह का बिगुल नहीं फूँकती। पात्र के व्यक्तिगत विश्लेषण को समष्टिगत नहीं करतीं। सृष्टि युग्म राग है, इस युग्म का आरोह-अवरोह लेखिका की कलम के प्रवाह में ईमानदारी से देखा जा सकता है। लगभग आठ कहानियों में कहानीकार ने पुरुष को केंद्रीय पात्र बनाकर उससे बात कहलवाई है। इन सभी और अन्य कहानियों में भी वे पुरुष की भूमिका के साथ न्याय करती हैं।

अतीत को आधार बनाकर कही गई इन कहानियों में इंगित विसंगतियाँ तत्कालीन हैं। विडंबना ये है कि यही ‘तत्कालीन’ समकालीन भी है। इसे समाज का दुर्भाग्य कहिए कि विलक्षणता कि यहाँ कुछ अतीत नहीं होता। अतीत, संप्रति और भविष्य समांतर यात्रा करते हैं तो कभी गडमड भी हो जाते हैं।

बंगाल लेखिका का मायका है। सहज है कि मायके की सुगंध उनके रोम-रोम में बसी है। बंगाली स्वीट्स की तरह ये ‘स्वीट बंगाल’ उनकी विभिन्न कथाओं में अपनी उपस्थिति रेखांकित करवाता है।

कहानी के तत्वों का विवेचन करें तो कथावस्तु सशक्त हैं। देशकाल के अनुरूप भाषा का प्रयोग भी है। कथोपकथन की दृष्टि से देखें तो इन कहानियाँ में केंद्रीय पात्र अपनी कथा स्वयं कह रहा है। अतीत में घटी विभिन्न घटनाओं का कथाकार की स्मृति के आधार पर वर्णन है। इस आधार पर ये कहानियाँ, संस्मरण की ओर जाती दृष्टिगोचर होती हैं।  

लेखिका, शिक्षिका हैं। विद्यार्थियों तक अपनी बात पहुँचाने के लिए शिक्षक विभिन्न शैक्षिक साधनों यथा चार्ट, मॉडेल, दृक-श्रव्य माध्यम आदि का उपयोग करता है। न्यूनाधिक वही बात लेखिका के सृजन में भी दिखती है। समाज का परिष्कार करना, परिष्कार के लिए समाज की इकाई तक अपनी बात पहुँचाने के लिए वे किसी विधागत साँचे में स्वयं को नहीं बाँधती। ये ‘बियाँड बाउंड्रीज़’ उनके लेखन की संप्रेषणीयता को विस्तार देता है।

अपनी बात कहने की प्रबल इच्छा इन कहानियों में दिखाई देती है। साठोत्तरी कहानी के अकहानी, सहज कहानी, समांतर कहानी जैसे वर्गीकरण से परे ये लेखन अपने समय में अपनी बात कहने की इच्छा रखता है, अपनी शैली विकसित करता है। मनुष्य के नाते दूसरे मनुष्य के स्पंदन को स्पर्श कर सकनेवाला लेखन ही साहित्य है। इस अर्थ में ॠता सिंह का लेखन साहित्य के उद्देश्य तथा शुचिता का सम्मान करता है।

इन अनुभूतियों को ‘कहन’ कहूँगा। ॠता सिंह अपनी कहन पाठक तक प्रभावी ढंग से पहुँचाने में सफल रही हैं। प्रसिद्ध गज़लकार दुष्यंतकुमार के शब्दों में-

अपाहिज व्यथा को वहन कर रहा हूँ

तुम्हारी कहन थी, कहन कर रहा हूँ।

आपके-हमारे भीतर बसे, अड़ोस-पड़ोस में रहते, इर्द-गिर्द विचरते परिस्थितियों के मारे मूक रहने को विवश अनेक पात्रों को लेखिका  श्रीमती ॠता सिंह ने स्वर दिया है। उनके स्वर की गूँज प्रभावी है। इसकी अनुगूँज पाठक अपने भीतर अनुभव करेंगे, इसका विश्वास भी है।

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 161 ☆ “डेड एंड” (कहानी संग्रह) – लेखक – श्री पद्मेश गुप्त ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है आपके द्वारा श्री पद्मेश गुप्त जी द्वारा लिखित  “डेड एंड” (कहानी संग्रह) पर चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 161 ☆

☆ “डेड एंड” (कहानी संग्रह) – लेखक – श्री पद्मेश गुप्त ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

पुस्तक – डेड एंड (कहानी संग्रह)

लेखक  – श्री पद्मेश गुप्त

प्रकाशक – वाणी प्रकाशन

संस्कारण – पहला संस्करण २०२४,

पृष्ठ – १०० 

मूल्य – २९५  रु

ISBN – 978-93-5518-900-4

चर्चा … विवेक रंजन श्रीवास्तव

पिछली सदी में भारत से ब्रेन ड्रेन के दुष्परिणाम का सुपरिणाम विदेशों में हिन्दी का व्यापक विस्तार रहा है। जो भारतीय विदेश गये उनमें से जिन्हें हिन्दी साहित्य में किंचित भी रुचि थी, वह विदेशी धरती पर भी पुष्पित, पल्लवित, मुखरित हुई। विस्थापित प्रवासियों के परिवार जन भी उनके साथ विदेश गये। उनमें से जिनकी साहित्यिक अभिरुचियां वहां प्रफुल्लित हुईं उन्होंने मौलिक लेखन किया, किसी हिन्दी पत्र पत्रिका का प्रकाशन विदेशी धरती से शुरु किया । सोशल मीडिया के माध्यम से उन छोटे बड़े बिखरे बिखरे प्रयासों को हि्दी साहित्य जगत ने हाथों हाथ लिया। भोपाल से प्रारंभ विश्वरंग, विश्व हिंदी सम्मेलन, विदेशों में भारतीय काउंसलेट आदि ने प्रवासी हिन्दी प्रयासों को न केवल एकजाई स्वरूप दिया वरन साहित्य जगत में प्रतिष्ठा भी दिलवाई। प्रवासी रचनाकारों की सक्षम आर्थिक स्थिति के चलते भारत के नामी प्रकाशनो ने साहित्य के गुणात्मक मापदण्डो को किंचित शिथिल करते हुये भी उन्हें हाथों हाथ लिया। वाणी प्रकाशन, नेशनल बुक ट्र्स्ट, इण्डिया नेट बुक्स, शिवना प्रकाशन आदि संस्थानो से प्रवासी साहित्य की पुस्तकें निरंतर प्रकाशित हो रही हैं। विदेश से होने के कारण भारत में प्रवासी रचनाकारों की स्वीकार्यता अपेक्षाकृत अधिक रही है। डॉ॰ पद्मेश गुप्त ब्रिटेन मे बसे भारतीय मूल केअत्यंत सक्षम  हिंदी बहुविध रचनाकार हैं। उन पर विकिपीडिया पेज भी है। डॉ॰ पद्मेश गुप्त ने यू॰के॰ हिन्दी समिति एवं `पुरवाई’ पत्रिका के माध्यम से हिन्दी को  प्रतिष्ठित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। मूलत: वे कवि हैं, किन्तु उनकी कहानियाँ भी बेहद प्रभावी हैं। उनका अनुभव संसार वैश्विक है, वे नये नये बिम्ब प्रस्तुत करते हैं। हाल ही लंदन बुक फेयर में आयोजित एक विशेष कार्यक्रम में पद्मेश गुप्त के कहानी संग्रह ‘डेड एंड‘ का विमोचन संपन्न हुआ था। संयोगवश मैं भी लंदन प्रवास में होने से इस आयोजन में भागीदार रहा। इस संग्रह में कुल नौ कहानियां अस्वीकृति, औरत प्रेम सिर्फ एक बार करती है, डेड एंड, इंतजार, कशमकश, तिरस्कार, तुम्हारी शिवानी, कब तक और यात्रा सम्मिलित हैं।

कहानी अस्वीकृति में ई मेल बिछड़े प्रेमियों राजीव और अनीशा को फिर से मिलवाने का माध्यम बनती है। इस तरह का नया प्रयोग समकालीन कहानियों में नवाचारी और अपारंपरिक ही कहा जायेगा। पूर्ण समर्पण को उद्यत अनीशा के प्रस्ताव के प्रति समीर की अस्वीकृति से पल भर में  अनीशा के प्रेम, भावनाओ, और समर्पण की इमारत खंडहर हो गयी। कहानी “औरत प्रेम सिर्फ एक बार करती है” में पद्मेश गुप्त का कवि उनके कहानीकार पर हावी दिखता है। एक लम्बी काव्यात्मक अभिव्यक्ति से कथा नायक राम, सुजान के संग बिताये अपने लम्हे याद करता है। … सुजान के बेटे लव में राधिका ने राम की छबि देख ली थी, वह दुआ मांगने लगी कि अब किसी मोड़ पर कोई कुश न मिल जाये। …. औरत प्रेम सिर्फ एक बार करती है …. सुजान का वह वाक्य एक बार फिर राम के हृदय में गूंजने लगा। कहानी प्रेम त्रिकोण को नवीन स्वरूप में रचती है, जिसमें राम, राधिका, लव के पुरातन प्रतीको को लाक्षणिक रूप से किया गया प्रयोग भी कहानीकार की प्रतिभा और भारतीय मनीषा के उनके अध्ययन को इंगित करता है। ‘डेड एंड’ कहानी के गहन भाव और सुघड़ शिल्प ने पद्मेश गुप्त के कहानी बुनने के कौशल को उजागर किया है। हिन्दी कहानी के अंग्रेजी शब्दों के शीर्षक से विदेशों में बदलते हिन्दी के स्वरूप का आभास भी होता है। पुस्तक की अनेकों कहानियों में संवाद शैली का ही प्रयोग किया गया है। ढ़ेरों संवाद अंग्रेजी में हैं। … मिनी ने हँसते हुये उत्तर दिया ….  ” आई नो वी कांट विदाउट ईच अदर “। इंतजार वर्ष २००६ में लिखी गई पुरानी कहानी है, यह स्पष्ट होता है क्योंकि अंदर वर्णन में मिलता है ” आज २१ मार्च २००६ को शादी की पाँचवी वर्षगांठ का दिन दीपक ने शालिनी से अपने दिल की बात कहने के लिये चुना। … वह महसूस कर रहा था कि अंजली उसका बीता हुआ कल है और शालिनी भविष्य। किन्तु कहानी का ट्विस्ट और चरमोत्कर्ष है कि दीपक को एक पत्र बेड के पास मिलता है जिसमें लिखा था … मैं तुम्हारे जीवन से सदा के लिये जा रही हूं, मैं राजेश से विवाह कर रही हूं … शालिनी। कहानी के मान्य आलोचनात्मक माप दण्डो पर पद्मेश जी की कहानियां खरी हैं। कहानी ‘कब तक‘ आज के परिदृश्य में प्रासंगिक है। ये कहानियां स्वतंत्र प्रेम कथायें हैं। यदि कथाकार भाषा की समझ रखता है। उसमें समाज के मनोविज्ञान की पकड़ है तो प्रेमकथायें हृदय स्पर्शी होती ही हैं। पद्मेश की कहानियां भी पाठक के दिल तक पहुंच बनाती हैं। कशमकश संग्रह की सर्वाधिक लंबी कहानी है जिसमें कथानक का निर्वाह उत्तम तरीके से हुआ है। तिरस्कार से अंश उधृत है …सिमरन का घमण्ड चूर होने लगा। जिस गोरे रंग पर सिमरन को इतना नाज था, उसी के कारण आये दिन उसका तिरस्कार होता। …. राखी को लोगों से बहुत प्रशंसा मिली पर सिमरन ने यह कहकर उसका मजाक बनाया कि साँवली होने के कारण उसे एशियन लड़की भूमिका बहुत सूट कर रही थी। …. सिमरन अखबार उठाकर बैठ गई, अचानक उसकी नजर तीसरे पेज पर पड़ी … सिमरन चौंक गई … यह तसवीर उसकी छोटी बहन राखी की थी, नीचे लिखा था इस साल विश्वसुंदरी का खिताब भारत की राखी ने जीता है। कहानी इस चरम बिंदु के साथ स्किन कलर रेसिज्म और वास्तविक सौंदर्य पर अनुत्तरित सवाल खड़े करते हुये पूरी हो जाती है। तुम्हारी शिवानी भी रोचक है। ‘कब तक’ मिली-जुली संस्कृति के टकराव की व्याख्या करती है। यात्रा में लेखक के आध्यात्मिक चिंतन से परिचय मिलता है ” आत्मा अमर है, शरीर वस्त्र। आत्मा शरीर बदलती है, नया जन्म होता है।

कहानी में रुचि रखते हैं तो डेड एंड शब्दों  में बांधते हुये प्रेम को व्यक्त करता नये वैश्विक बिम्ब बनाता रोचक कहानी संग्रह है। सरल सहज खिचड़ी भाषा में बातें करता यह कहानी संग्रह समकालीन वैश्विक परिदृश्य को अभिव्यक्त करता पठनीय और संग्रहणीय है। कुल मिलाकर मुझे हर कहानी पठनीय मिली। सब का कथा विस्तार बताकर मैं आप का वह आनंद नहीं छीनना चाहता जो कहानी पढ़ते हुये उसकी कथन शैली में डुबकी लगाते हुये आता है। वाणी प्रकाशन से सीधे बुलाइये या अमेजन पर आर्डर कीजीये, पुस्तक सुलभ है।

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆ संजय दृष्टि –  अंतरा (काव्य संग्रह) –  कवयित्री- डॉ. पुष्पा गुजराथी  ☆ समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

? समीक्षा का शुक्रवार # 1 ?

? संजय दृष्टि –  अंतरा (काव्य संग्रह) –  कवयित्री- डॉ. पुष्पा गुजराथी  ?  समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ?

पुस्तक – अंतरा

विधा – कविता

कवयित्री- डॉ. पुष्पा गुजराथी

? पार्थिव यात्रा और शाश्वत कविता – श्री संजय भारद्वाज ?

रोटी, कपड़ा और मकान, मनुष्य की मूलभूत भौतिक आवश्यकताएँ हैं। इसी प्रकार अभिव्यक्ति, मनुष्य की मूलभूत मानसिक आवश्यकता है। संवेदनाएँ भावात्मक विरेचन से ही प्रवहमान रहती हैं। भावात्मक विरेचन एवं व्यक्तित्व के चौमुखी विकास में काव्य कला को विशिष्ट स्थान प्राप्त है। भाग्यवान हैं वे लोग जो लेखनी द्वारा उद्भूत शब्दों के माध्यम से व्यक्त हो  पाते हैं। डॉ. पुष्पा गुजराथी उन्हीं सौभाग्यशाली लोगों में से एक हैं।

विलियम वर्ड्सवर्थ ने कविता को परिभाषित करते हुए लिखा है,‘पोएट्री इज़ स्पॉन्टेनियस ओवरफ्लो ऑफ पॉवरफुल फीलिंग्स।’ यहाँ ‘स्पॉन्टेनियस’ शब्द महत्वपूर्ण है। कविता तीव्रता से उद्भूत अवश्य होती है पर इसकी पृष्ठभूमि में वर्षों का अनुभव और विचार होते हैं। अखंड वैचारिक संचय ज्वालामुखी में बदलता है। एक दिन ज्वालामुखी फूटता है और कविता प्रवाहित होती है। कवयित्री डॉ. पुष्पा गुजराथी के क्षितिज प्रकाशन द्वारा प्रकाशित प्रस्तुत कवितासंग्रह ‘अंतरा’ में यह प्रवाह स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है।

कविता संवेदना की धरती पर उगती है। संवेदना मनुष्य की दृष्टि को उदात्त करती है। उदात्त भाव सकारात्मकता के दर्शन करता है-

पर

तुझे पता भी है?

पत्थर के बीच

झरना भी बहता है..!

कविता के उद्भव में विचार महत्वपूर्ण है। अवलोकन से उपजता है विचार। पुष्पा जी के सूक्ष्म अवलोकन का यह विराट चित्र प्रभावित करता है-

चिता पर रखी लकड़ी पर,

एक पौधे ने

खुलकर अंगड़ाई ली..!

विचार को अनुभव का साथ मिलने पर कविता युवतर पीढ़ी के लिए जीवन की राह हो जाती है-

अब मैैं

तुम्हारी आँखों के आकाश से

नीचे उतर जाती हूँ, क्योंकि-

आकाश में

घर तो बनता नहीं कभी..!

कवयित्री की भावाभिव्यक्ति के साथ पाठक समरस होता है। यह समरसता, व्यक्तिगत को समष्टिगत कर देती है। यही पुष्पा गुजराथी की कविता की सबसे सफलता है।

यूँ तो गैजेट के पटल पर एक क्लिक से सब कुछ डिलीट किया जा सकता है पर मानसपटल का क्या करें जहाँ ‘अन-डू’ का विकल्प ही नहीं होता।

अभी कुछ शेष है,

देह के कंकाल में

जो मुक्त होना नहीं चाहता,

गहरा अंतर तक खुद गया है,

यह ‘कुछ’ डिलीट नहीं होता..!

पूरे संग्रह में विशेषकर स्त्रियों द्वारा भोगी जाती उपेक्षा, टूटन की टीस प्रतिनिधि स्वर बनकर उभरती हैं।

हर बार वह

झुठला दी जाती,

अपनी क़ब्र में

दफ़न होने के लिए..

समय साक्षी है कि हर युग में स्त्री की भावनाओं, उसके अस्तित्व को दफ़्न करने के कुत्सित प्रयास हुए पर अपनी जिजीविषा से हर बार वह अमरबेल बनकर अंकुरित होती रही, विष-प्राशन कर मीरा बनती रही।

विष पीकर

वह निखरती रही,

मीरा बनती रही..

कवयित्री के अंतस में करुणा है, नेह है। विष पीनेवाली को भी एक अगस्त्य की प्रतीक्षा है जो उसके हिस्से के ज़हर को अपना सके, जिसके सान्निध्य में वह स्वयं को सुरक्षित अनुभव कर सके।

मैं आँखें खोल देखती हूँ

तुम्हारे नीले पड़े होठों को,

तुम कुछ कहते नहीं,

बस उठकर चल देते हो,

मेरा ज़हर स्वयं में समेटकर..

इस संग्रह की रचनाओं में मनुष्य जीवन के विभिन्न रंग और उसकी विविध छटाएँ अभिव्यक्त हुई हैं। प्रेम, टीस, पर्यावरण विमर्श, मनुष्य का ‘कंज्युमर’ होना, अध्यात्म, दर्शन, अनुराग, वीतराग, आत्मतत्व, परम तत्व जैसे अन्यान्य विषय हैं। विषयों की यह विविधता कवयित्री के विस्तृत भाव जगत की द्योतक हैं। हिडिम्बा जैसे उपेक्षित पात्र की व्यथा को कविता में उतारना उनकी संवेदनशीलता तो दर्शाता ही है, साथ ही उनके अध्ययन का भी परिचायक है।

इहलोक की पार्थिव यात्रा में कविता के शाश्वत होने को कुछ यूँ भी समझा जा सकता है-

शाश्वत-अशाश्वत की

सीढ़ियाँ चढता-उतरता हुआ

जब भी लम्बी यात्रा

पर निकल पड़ता है..!

कामना है कि डॉ. पुष्पा गुजराथी की साहित्यिक यात्रा प्रदीर्घ हो, अक्षरा हो।

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिंदी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ “तालियां बजाते रहो…”(व्यंग्य संग्रह)– श्री सुरेश मिश्र “विचित्र” ☆ पुस्तक चर्चा – श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

वरिष्ठ पत्रकार, लेखक श्री प्रतुल श्रीवास्तव, भाषा विज्ञान एवं बुन्देली लोक साहित्य के मूर्धन्य विद्वान, शिक्षाविद् स्व.डॉ.पूरनचंद श्रीवास्तव के यशस्वी पुत्र हैं। हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रतुल श्रीवास्तव का नाम जाना पहचाना है। इन्होंने दैनिक हितवाद, ज्ञानयुग प्रभात, नवभारत, देशबंधु, स्वतंत्रमत, हरिभूमि एवं पीपुल्स समाचार पत्रों के संपादकीय विभाग में महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन किया। साहित्यिक पत्रिका “अनुमेहा” के प्रधान संपादक के रूप में इन्होंने उसे हिंदी साहित्य जगत में विशिष्ट पहचान दी। आपके सैकड़ों लेख एवं व्यंग्य देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। आपके द्वारा रचित अनेक देवी स्तुतियाँ एवं प्रेम गीत भी चर्चित हैं। नागपुर, भोपाल एवं जबलपुर आकाशवाणी ने विभिन्न विषयों पर आपकी दर्जनों वार्ताओं का प्रसारण किया। प्रतुल जी ने भगवान रजनीश ‘ओशो’ एवं महर्षि महेश योगी सहित अनेक विभूतियों एवं समस्याओं पर डाक्यूमेंट्री फिल्मों का निर्माण भी किया। आपकी सहज-सरल चुटीली शैली पाठकों को उनकी रचनाएं एक ही बैठक में पढ़ने के लिए बाध्य करती हैं।

प्रकाशित पुस्तकें –ο यादों का मायाजाल ο अलसेट (हास्य-व्यंग्य) ο आखिरी कोना (हास्य-व्यंग्य) ο तिरछी नज़र (हास्य-व्यंग्य) ο मौन

आज प्रस्तुत है व्यंग्यकार श्री सुरेश मिश्र “विचित्र” जी की कृति “तालियां बजाते रहो… “ की समीक्षा)

श्री सुरेश मिश्र “विचित्र”

☆ “तालियां बजाते रहो… ”(व्यंग्य संग्रह)– श्री सुरेश मिश्र “विचित्र” ☆ पुस्तक चर्चा – श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆ 

(आज 22 जून को विमोचन पर विशेष)

पुस्तक चर्चा 

कृतिकार सुरेश मिश्र “विचित्र” के श्रेष्ठ व्यंग्य

विषयों के चयन, निर्भीक कथन और सहज – सरल चुटीली प्रवाह पूर्ण भाषा शैली के कारण व्यंग्यकार सुरेश मिश्र “विचित्र” ने व्यंग्यकारों और पाठकों के बीच अपना विशिष्ट स्थान बना लिया है। यों विचित्र जी एक अच्छे कवि भी हैं। उनकी कविताओं में भी सहज ही व्यंग्य उपस्थित हो जाता है। विगत कुछ समय से उनके द्वारा लिखे जा रहे “यह जबलपूर है बाबूजी” में पाठकों को काव्य और व्यंग्य का दोहरा मजा आ रहा है। आज विचित्र जी के नवीन व्यंग्य संग्रह “तालियां बजाते रहो” का विमोचन हो रहा है। मुझे विश्वास है कि विचित्र जी के इस व्यंग्य संग्रह को भी पाठकों का भरपूर स्नेह प्राप्त होगा। किसी भी लेखक की सफलता इस बात में है कि जब पाठक उसकी रचना पढ़ना प्रारंभ करे तो उसकी रोचक शुरूआत में ऐसा फंसे की पूरी रचना पढ़ने पर मजबूर हो जाए। देश के अनेक दिग्गज कहे जाने वाले व्यंग्यकारों में पाठकों को अपनी रचना से बांधने का जो कला कौशल नहीं है वह कला भाई विचित्र जी के लेखन में है। इसलिए वे पढ़े भी जाते हैं और लोकप्रिय भी हैं। यह बात अलग है कि समझ में न आने वाला लिखने वाले जोड़ तोड़ से निरंतर सरकारी व गैरसरकारी सम्मान अर्जित कर रहे हैं, स्वयं अपने श्रेष्ठ होने का डंका बजवा रहे हैं। मैं समझता हूं कि लेखक का असली सम्मान उसके लेखन को समझने वाले, उसमें रस लेने वाले, उसकी प्रशंसा करने वाले पाठकों की संख्या से होता है जो विचित्र जी के पास है।

“तालियां बजाते रहो” व्यंग्य संग्रह में विभिन्न विषयों, संदर्भों पर 35 व्यंग्य रचनाएं हैं। इनमें राजनैतिक व्यस्था – उथलपुथल, विसंगतियों, विद्रूपता, अतिवाद, भ्रष्टाचार, कुत्सित मानवीय प्रवृत्तियों आदि को आधार बना कर व्यंग्य की चुटकी लेते हुए रोचक ढंग से प्रस्तुत किया गया है। पुस्तक के नाम “तालियां बजाते रहो” शीर्षक से रचित व्यंग्य में विचित्र जी ने तालियां बजवाने और बजाने वालों के साथ साथ तालियों के प्रकार पर व्यापक चर्चा करते हुए उसके विविध अर्थ प्रकट किए हैं। संग्रह में तबादलों का मौसम खंड वृष्टि जैसा, पैजामा खींच प्रतियोगिता, वृद्धाश्रम का बढ़ता हुआ दायरा, भविष्यवाणियों का दौर जारी है, तृतीय विश्वयुद्ध के नगाड़े बज रहे, गधों को गधा मत कहो, नैतिकता के बदलते मापदंड, मेरे सफेद बाल जैसी संवेदना से भरपूर मारक व्यंग्य रचनाएं हैं। पाठक एक रचना पढ़ने के बाद तुरन्त ही दूसरी रचना पढ़ने के लिए बाध्य हो जायेगा।

“साहित्य सहोदर” संस्था के संस्थापक सुरेश मिश्र “विचित्र” वर्षों से समारोह पूर्वक कबीर जयंती समारोह माना रहे हैं। वे कबीर को सर्वश्रेष्ठ व्यंग्यकार मानते हैं और उनकी रचनाओं का अध्ययन मनन करके, उनसे प्रेरणा प्राप्त करके ही उन्होंने लेखन की व्यंग्य विधा को चुना है। मैं समझता हूं कि न सिर्फ विचित्र जी वरन किसी भी रचनाकार की तुलना किसी भी अन्य रचनाकार से नहीं की जा सकती क्योंकि प्रत्येक रचनाकार का समयकाल, बचपन, उसका पालन पोषण, पारिवारिक पृष्ठभूमि, शिक्षा, मित्र, पेशा, परेशानियों आदि का संयुक्त प्रभाव उसकी मनोदशा का निर्माण करता है जो उसकी रचनाओं में परिलक्षित होता है। अतः परसाई जी, शरद जोशी या किसी भी अन्य वर्तमान व्यंग्यकार से सुरेश मिश्र “विचित्र” की कोई तुलना नहीं। विचित्र जी “विचित्र” हैं और सदा सबसे अलग लिखने, दिखने वाले “विचित्र” रहेंगे। कृति विमोचन के अवसर पर सभी मित्रों, प्रशंसकों की ओर से उन्हें बहुत बहुत बधाई, मंगलकामनाएं। उनकी कलम निरंतर चलती रहे।

© श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

संपर्क – 473, टीचर्स कालोनी, दीक्षितपुरा, जबलपुर – पिन – 482002 मो. 9425153629

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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