English Literature – Travelogue ☆ New Zealand: A Spirit Unbroken: # 10 ☆ Mr. Jagat Singh Bisht ☆

Shri Jagat Singh Bisht

☆ Travelogue – New Zealand: A Spirit Unbroken: # 10 ☆ Mr. Jagat Singh Bisht ☆

In the heart of New Zealand’s verdant wilderness, where ancient trees stood as silent witnesses to the passage of time, we found ourselves meandering along a narrow trail in a serene reserve. The air was cool, rich with the fragrance of damp earth and blooming ferns. It was here that we met her—a lady of serene countenance, her silver hair gleaming like spun moonlight, and a smile that carried the warmth of a hundred summers.

“Are you visiting New Zealand?” she inquired, her tone bright and lilting.

“Yes,” we replied, pausing to reciprocate her kindness.

“And where are you from?”

When we told her we hailed from India, her eyes lit up with a spark of recognition. “Ah, India! I thought as much. I spent my childhood there, you know. It is a land that stays with you—its colours, its chaos, its soul.”

Her voice carried a peculiar blend of nostalgia and reverence, as though she spoke not merely of a place, but of an intimate companion. She must have been in her seventies, yet her vibrancy belied her years. It was then that her story began to unfurl, a tale that seemed plucked from the realm of miracles and destiny.

She was born in a small country in Western Europe, she explained, but her father’s profession had brought their family to India during the twilight of colonial rule. Her childhood in India had been a mosaic of vivid memories—the monsoon rains drumming against the tiled roofs, the scent of jasmine in the evening air, the call of distant temple bells. But as adulthood beckoned, her family returned to Europe, leaving behind the land that had cradled her earliest dreams.

Years passed, life took its turns, and she found herself yearning to revisit the land of her childhood. So one monsoon season, she arrived in Bombay, now Mumbai. The city was drenched in a torrential downpour, the streets awash with rainwater. As she navigated the chaos, she caught sight of something caught in the eddies of a small stream by the roadside. Her heart lurched—a tiny bundle, motionless and soaked.

Without hesitation, she waded into the water and retrieved the bundle. It was a newborn baby, abandoned and barely alive. As she cradled the child, a strange sensation rippled through her body—a warmth in her chest, an ache both physical and spiritual. She hurried to her lodging, where to her astonishment, she discovered she could breastfeed the infant. Though she had never borne children of her own, her body responded as though it had awaited this moment all its life.

The path that followed was arduous. She navigated a labyrinth of legalities to adopt the child, a process that demanded every ounce of her resolve and a significant sum of money. But she prevailed, returning to her homeland with the baby girl she now called her daughter.

Years later, compelled by an inexplicable pull, she returned to India once more. This time, her journey took her to an orphanage. As fate would have it, she arrived just as someone left a newborn in a cradle at the orphanage’s gate. Drawn to the tiny, wailing figure, she picked up the child—and again, the sensation returned. The mysterious flow of milk, the unbidden maternal bond.

“I couldn’t turn away,” she told us, her eyes shimmering with the memory. “It was as if the universe whispered, ‘They are yours.’” She adopted the second baby too, overcoming the same hurdles with unrelenting determination.

Life, however, was not without its trials. Her husband, unable to comprehend the depth of her choices, left her for another. Yet she pressed on, a woman unyielding, carrying her daughters to a distant Pacific island. There, she built a life from the ground up, working tirelessly to provide them with education and opportunities.

Today, her daughters thrived—women of strength and compassion, with families of their own. “My girls,” she said with a radiant smile, “are my greatest triumph.”

As she recounted her journey, we stood in awe of the woman before us—a tapestry of grit and grace, of wounds and wonders. Her story was not merely of survival, but of a spirit that embraced the extraordinary, transforming it into purpose.

“Do you ever wonder why it all happened?” we asked softly.

She paused, gazing into the emerald expanse of the forest. “Oh, I stopped questioning long ago. Some things are not for us to understand, only to live. Perhaps I was meant to be their mother. Perhaps they were meant to save me as much as I saved them.”

And with that, she bid us farewell, her steps light, her heart indomitable. As she disappeared into the dappled shade of the trees, we were left with a profound sense of awe—of destiny’s strange, wondrous design, and the boundless resilience of the human spirit.

#newzealand #india #mother

© Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

Founder:  LifeSkills

A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.

The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga. We conduct talks, seminars, workshops, retreats and training.

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा – भाग-९ ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। आज से प्रत्यक शनिवार प्रस्तुत है  यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा)

? यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा – भाग-९ ☆ श्री सुरेश पटवा ?

बहमनी और विजयनगर साम्राज्यों की सीमा कृष्णा नदी निर्धारित करती थी। कृष्णा नदी के उत्तरी किनारे तक बहमनी साम्राज्य की सीमा थी और दक्षिणी किनारे से विजयनगर साम्राज्य आरम्भ होता था। कृष्णा नदी पश्चिमी घाट के महाराष्ट्र में महाबलेश्वर पर्वत की कंदराओं से निकलती है। जहाँ पर्यटक अक्सर घूमने जाते हैं। कृष्णा नदी की उपनदियों में कुडाळी, वेण्णा, कोयना, पंचगंगा, दूधगंगा, तुंगभद्रा, घटप्रभा, मलप्रभा, मूसी और भीमा प्रमुख हैं। कृष्णा नदी के किनारे विजयवाड़ा एंव मूसी नदी के किनारे हैदराबाद स्थित है। इसके मुहाने पर बहुत बड़ा डेल्टा है। इसका डेल्टा भारत के सबसे उपजाऊ क्षेत्रों में से एक है। कृष्णा महाराष्ट्र, कर्नाटक, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश में बहती हुई बंगाल की खाड़ी में जाकर गिरती है। कृष्णा नदी 1400 किलोमीटर यात्रा तय करके हर मान सून में उपजाऊ डेल्टा प्रदान करती है। सबसे ऊँचा चिनाई नागार्जुन सागर बांध नरगुण्डा जिले में इसी नदी पर बना है। इस इलाक़े में दुनिया की सबसे तीखी मिर्च की खेती होती है। विजयनगर साम्राज्य की उन्नति से बहमनी साम्राज्य के विखंडन से पैदा हुए चारों मुस्लिम राज्यों को मिर्ची लगती थी।

दिल्ली के तुगलक वंश के सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक के खिलाफ़ इस्माइल मुख के विद्रोह से बहमनी सल्तनत (1347-1518) अस्तित्व में आया था। इसकी स्थापना 03 अगस्त 1347 को एक तुर्क-अफ़गान सूबेदार अलाउद्दीन बहमन शाह ने की थी। 1518 में इसका विघटन हो गया जिसके फलस्वरूप – गोलकोण्डा, बीजापुर, बीदर, बिरार और अहमदनगर के मुस्लिम राज्यों का उदय हुआ।

हिन्दू विजयनगर साम्राज्य इसका प्रतिद्वंदी था। कृष्णदेवराय ने बहमनी सुल्तान महमूदशाह को बुरी तरह परास्त किया। रायचूड़, गुलबर्गा और बीदर आदि दुर्गों पर विजयनगर की ध्वजा फहराने लगी। किंतु प्राचीन हिंदु राजाओं के आदर्श के अनुसार महमूदशाह को जीता हुआ इलाका लौटा दिया। इस प्रकार कृष्णदेवराय यवन राज्य स्थापनाचार्य की उपाधि धारण की।

तालीकोटा की लड़ाई के समय सदाशिव राय (1542-1570) का शासन चल रहा था। सदाशिव राय विजयनगर साम्राज्य के कठपुतली शासक थे। वास्तविक शक्ति उसके मंत्री राम राय के हाथ में थी।  सदाशिव राय दक्कन की इन सल्तनतों को पूरी तरह से कुचलने की योजना बना रहा था। इन सल्तनतों को विजयनगर के मंसूबे के बारे में पता चल गया। उन्होंने एकजुट होकर लड़ने की योजना बनाई। बीजापुर के अली आदिल शाह प्रथम, गोलकुंडा के इब्राहिम कुली क़ुतुब शाह, अहमदनगर के हुसैन निज़ाम शाह प्रथम और मराठा मुखिया राजा घोरपड़े की संयुक्त सेना ने एकजुट होकर एक गठबंधन का निर्माण कर विजयनगर साम्राज्य पर हमला बोल दिया था। विजयनगर साम्राज्य और दक्कन सल्तनत की सेनाओं के बीच भयानक लड़ाई हुई, जिसे ‘तालिकोटा की लड़ाई’ के नाम से जाना जाता है।

तालिकोटा का मैदान हम्पी से 200 किलोमीटर दूर कृष्णा नदी के किनारे था। कृष्णा  नदी के दक्षिणी किनारे पर राक्षस-तांगड़ी नामक दो गावं के बीच का खुला मैदान तालिकोटा के नाम से प्रसिद्ध है, जहाँ यह लड़ाई हुई थी। सदाशिव राय साम्राज्य के प्रधान थे, उन्होंने तालीकोटा की लड़ाई में विजयनगर साम्राज्य की सेना का नेतृत्व किया था।

15 सितंबर 1564 को दशहरा के दिन राम राय ने दरबार में विचार-विमर्श के पश्चात आदेश दिया कि सभी दरबारी अपनी सेनाओं को लेकर तालीकोटा के मैदान में एकत्रित हों। 26 दिसंबर 1564 को संयुक्त मुस्लिम फ़ौज कृष्णा नदी के उत्तरी किनारे पर पहुँच गईं। दक्षिणी किनारे पर राम राय के सेनापतित्व में विजयनगर सेना उनका इंतज़ार कर रही थी। लड़ाई शुरू होने के पहले नदी पार करने को लेकर छुटपुट भिड़ंत होती रहीं। दोनों सेनाएँ एक महीने तक जासूसों के माध्यम से शक्ति संतुलन तौलती रहीं। निजाम शाह और क़ुतुब शाह ने नदी पार करके हमला करने की कोशिश में मार खाई और वे वैसा खेमे में लौट गए। मुस्लिम सेना ने बदली व्यूह रचना के मुताबिक़ युद्ध भूमि से हटकर दोनों तरफ़ से सशस्त्र घुड़सवार नदी पार करके दक्षिणी किनारे पर उतारे। उन्होंने बिच्छू डंक योजना के मुताबिक़ दोनों तरफ़ से विजयनगर सेना को घेरे में ले लिया।

23 जनवरी 1565 को कृष्णा नदी पर दोनों सेनाओं की भिड़ंत हुई। इतिहासकार स्वेल और फ़रिश्ता के अनुसार राम राय हुसैन निजाम शाह के आमने-सामने था और उनका भाई तिरुमला उनके दाहिनी तरफ़ बीजापुर फ़ौज के सामने, दूसरा भाई वेंकटद्रि अहमदाबाद-बिदर-गोलकुंडा के संयुक्त सेना के सामने से भिड़े। भयानक लड़ाई होने लगी। विजयनगर सेना का पड़ला भारी था। तभी दो घटनाओं में युद्ध का मुख मोड़ दिया। विजयनगर सेना के दो मुस्लिम सेनानायक जिहाद के नारे लगाते हुए, दगा करके मुस्लिम सेना के साथ हो गए। दूसरा, नदी पार करके आए घुड़सवारों ने विजयनगर सेना पर पीछे से घातक हमला कर दिया। विजयनगर की सेना तितर बितर हो गई। सैनिक जान बचा कर भागने लगे।

युद्ध के दौरान राम राय के जिन दो मुस्लिम सेना नायकों ने अचानक पक्ष बदल लिया था और वे मुस्लिम हमलावरों से जा मिले। इन दोनों ने राम राय को पकड़ लिया। निजाम शाह ने तलवार से राम राय का सर काट कर उसे भाले की नोक पर उठाकर युद्ध जीतने की घोषणा कर दी। राम राय का भाई तिरुमला किसी तरह हम्पी पहुँच खजाना और राज स्त्रियों को लेकर दक्षिण की तरफ़ पेनुगोंडा पहुँच राजा बनने की घोषणा कर सेना इकट्ठी करने लगा। लेकिन विजयनगर साम्राज्य इस हार से कभी उभर नहीं सका और धीरे-धीरे पतन की गर्त में चला गया।

क्रमशः… 

© श्री सुरेश पटवा 

भोपाल, मध्य प्रदेश

*≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा – भाग-८ ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। आज से प्रत्यक शनिवार प्रस्तुत है  यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा)

? यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा – भाग-८  ☆ श्री सुरेश पटवा ?

हम्पी के विध्वंस को देखने के पूर्व उसका स्वर्णयुग जानना ज़रूरी है, जो कि रतीय इतिहास का गौरव शाली अध्याय है। हरिहर तथा बुक्का ने हम्पी को राजधानी बनाकर साम्राज्य का नाम विजयनगर रखा। जिसकी स्थापना के साथ ही हरिहर तथा बुक्का के सामने कई कठिनाईयां थीं। वारंगल का शासक कापाया नायक तथा उसका मित्र प्रोलय वेम और वीर बल्लाल तृतीय उसके विरोधी थे। देवगिरि का तुगलक सूबेदार कुतलुग खाँ भी विजयनगर के स्वतंत्र अस्तित्व को नष्ट करना चाहता था। हरिहर ने सर्वप्रथम बादामी, उदयगिरि तथा गुटी के दुर्गों को सुदृढ़ किया। उसने कृषि की उन्नति पर भी ध्यान दिया जिससे साम्राज्य में समृद्धि आयी।

होयसल साम्राट वीर बल्लाल मदुरै के विजय अभियान में लगा हुआ था। इस अवसर का लाभ उठाकर हरिहर ने होयसल साम्राज्य के पूर्वी भाग पर अधिकार कर लिया। आंध्र का वीर बल्लाल तृतीय मदुरा के सुल्तान द्वारा 1342 में मार डाला गया। बल्लाल के पुत्र तथा उत्तराधिकारी अयोग्य थे। इस मौके को भुनाते हुए हरिहर ने होयसल अर्थात् आंध्र साम्राज्य पर अधिकार कर लिया। आगे चलकर हरिहर ने कदम्ब के शासक तथा मदुरा के सुल्तान को पराजित करके अपनी स्थिति सुदृढ़ कर ली।

हरिहर के बाद बुक्का राजा बना हालांकि उसने ऐसी कोई उपाधि धारण नहीं की। उसने तमिलनाडु का राज्य विजयनगर साम्राज्य में मिला लिया। कृष्णा नदी को विजयनगर तथा बहमनी की सीमा तय कर दी। कृष्णा के उत्तर में बहमनी और दक्षिण में विजयनगर साम्राज्य। बुक्का के बाद उसका पुत्र हरिहर द्वितीय सत्तासीन हुआ। हरिहर द्वितीय एक महान योद्धा था। उसने अपने भाई के सहयोग से कनारा, मैसूर, त्रिचनापल्ली, कांची, चिंगलपुट आदि प्रदेशों पर अधिकार कर लिया।

दक्षिण भारत के इतिहास में विजयनगर अत्यंत समृद्ध साम्राज्य बन गया था। जिसकी तुलना उस समय के साम्राज्यों से की जाये तो रोमन साम्राज्य उस समय पतन के गर्त में जा रहा था। अंततः उसका 1453 में पतन हो ही गया। उसकी कोख से इंग्लैंड, फ़्रांस और जर्मनी सहित यूरोप के अन्य देश अस्तित्व में आना शुरू हुए थे। उत्तर भारत में ग़ुलाम, ख़िलजी, तुग़लक़, सैयद और लोधी वंश लड़खड़ा कर पतन के गर्त में जा रहे थे। जिनकी अस्थियों पर बाबर 1526 में मुग़ल साम्राज्य की नींव रखने वाला था। इतिहास के उसी कालखंड में विजयनगर का हिंदू साम्राज्य चरम समृद्धि पर पहुँचा हुआ था।

विजयनगर साम्राज्य की स्थापना संगम वंश के हरिहर एवं बुक्का ने 1336 ईस्वी में की थी। हरिहर और बुक्का के पिता का नाम संगम था। उन्हीं के नाम पर इस वंश का नाम संगम वंश पड़ा। इस वंश का प्रथम शासक हरिहर प्रथम (1336 – 1356 ईस्वी) हुआ, जिसने 1336 ईस्वी में विजयनगर साम्राज्य कि स्थापना कर हम्पी को अपनी राजधानी बनाया। विजयनगर साम्राज्य ने चार अलग-अलग राजवंशों का शासन देखा गया: संगम के बाद सलुवा, तुलुवा और अराविदु राजवंश का शासन रहा।

दो अमरीकी विद्वानों ने डारोन एसेमोग्लू और जेम्स ए. रॉबिन्सन मिलकर ‘व्हाई नेशन्स फेल’ इस सवाल पर केंद्रित पुस्तक लिखी है, जिसे कुछ समय पूर्व पड़ा था। विश्व इतिहास के उदाहरण देकर यह बताया गया है कि कोई भी राजनीतिक इकाई तीन-चार पीढ़ियों में नये राजवंश या नये समीकरण में हस्तांतरित हो जाती है। विजयनगर के मामले में भी यही सिद्धांत प्रभावी नज़र आता है।

दूसरा राजवंश सालुव नाम से प्रसिद्ध था। इस वंश के संस्थापक सालुब नरसिंह ने 1485 से 1490 ई. तक शासन किया। उसने शक्ति क्षीण हो जाने पर अपने मंत्री नरस नायक को विजयनगर का संरक्षक बनाया। वही तुलुव वंश का प्रथम शासक माना गया है। उसने दक्षिण में कावेरी के सुदूर तलहटी भाग पर भी विजयदुन्दुभी बजाई। इसके बाद तुलुव वंश के राजा नरस नायक ने 1491 से 1503 तक राज किया। फिर क्रमश: वीरनरसिंह राय (1503-1509), कृष्ण देवराय (1509-1529), अच्युत देवराय (1529-1542) और सदाशिव राय (1542-1570) ने शासन किया।

उनके कृष्णदेव राय सबसे प्रतापी राजा हुए। कृष्णदेव राय ने 1509 से 1539 ई. तक शासन किया और विजयनगर को भारत ही नहीं दुनिया का उस समय का सबसे बड़ा समृद्ध साम्राज्य बना दिया। दिल्ली में उस समय लोधी वंश (1451-1516) का शासन चल रहा था। 1526 में मुगल बाबर आने वाला था।

कृष्ण देव राय के शासन में आने के बाद उन्होंने अपनी सेना को इस स्तर तक पहुँचाया कि जिसमें  88,000 पैदल सैनिक, 1.50 लाख घुड़सवार सैनिक, 20,000 रथ, 64,000 हाथी और 15,000 तोपखाना सैनिक थे। वे महान प्रतापी, शक्तिशाली, सर्वप्रिय, सहिष्णु और व्यवहारकुशल शासक थे। उन्होंने विद्रोहियों को दबाया, उड़ीसा पर आक्रमण किया और उत्तर भारत के कुछ भूभाग पर अपना अधिकार स्थापित किया। सोलहवीं सदी में यूरोप से पुर्तगाली भी पश्चिमी किनारे पर आकर डेरा डाल चुके थे। उन्होंने कृष्णदेव राय से व्यापारिक सन्धि करने की विनती की जिससे विजयनगर राज्य की श्रीवृद्धि हो सकती थी लेकिन कृष्ण देव राय ने मना कर दिया और पुर्तगालियों सहित विदेशी शक्तियों को राज्य से खदेड़ कर बाहर किया। वे गोवा दमन ड्यू के निर्जन भाग पर जम गये।

उन्होंने युद्ध के बाद युद्ध जीतकर विशाल विजयनगर साम्राज्य का विस्तार किया। उन्होने पूरे दक्षिण भारत को अधिकार में किया और आज के उड़ीसा के हिस्सों को तक राज्य में मिलाया, जिसमें गजपति शासक, प्रतापरुद्र को हराया था। वो एक महान योद्धा और सेनापति के रूप में अपने कौशल के अलावा बहुत महान विद्वान और कवि थे। दक्षिण भारत की कृष्णा नदी की सहायक तुंगभद्रा को इस बात का गर्व है कि विजयनगर साम्राज्य हम्पी स्थित राजधानी के साथ उसी गोद में पला, जिसमें हनुमान जी का बाल्यकाल बीता था।

क्रमशः…

© श्री सुरेश पटवा 

भोपाल, मध्य प्रदेश

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English Literature – Travelogue ☆ New Zealand: A Land of Curiosities: Wildlife Wonders in Aotearoa: # 9 ☆ Mr. Jagat Singh Bisht ☆

Shri Jagat Singh Bisht

☆ Travelogue – New Zealand: A Land of Curiosities: Wildlife Wonders in Aotearoa: # 9 ☆ Mr. Jagat Singh Bisht ☆

Did you know that in the enchanting realm of New Zealand, there slither no snakes, no crocodiles lurk in the waters, and fearsome predators are conspicuous by their absence? This land, blessed with an isolation that has fostered a unique evolutionary path, boasts a menagerie of creatures that would make even the most seasoned naturalist raise an eyebrow. And did you know that in this verdant paradise, the woolly sheep outnumber the human inhabitants?

Our sojourn in Aotearoa, as the Maori call New Zealand, began with the melodious symphony of native birdsong. Each morning, we were serenaded by the cheerful chirping of unseen avian artists, their vibrant plumage catching the morning light as they perched upon our deck. As we wandered through the lush Unsworth Reserve, the crystal-clear streams whispered secrets of their inhabitants – the occasional glimpse of an eel, the graceful glide of a Mallard duck.

The pastoral landscapes unfolded before us, a tapestry of rolling hills carpeted in emerald green. At Shakespear Regional Park, we encountered flocks of sheep grazing peacefully, while the vast grasslands of the journey to Paihia played host to herds of cattle. And then, a truly unforgettable spectacle: as our vessel glided through the majestic Milford Sound, a colony of seals, basking languidly on the shore, greeted us with their inquisitive gazes.

This land of enchantment, prior to the arrival of humans from the Pacific Islands and Europe, was a sanctuary for a unique cast of creatures. Land mammals, with the exception of bats, were virtually absent. However, the skies were alive with the vibrant hues of the tui, its iridescent plumage shimmering like a jewel, and the melodic calls of the kea, the mischievous alpine parrot renowned for its intelligence. The elusive kiwi, the country’s national bird, remained a tantalising whisper, its nocturnal habits making it a creature of legend.

The oceans surrounding Aotearoa teem with life, a testament to the pristine marine environment. The diminutive Hector’s dolphin, the smallest of all dolphins, playfully navigates the coastal waters, while the majestic fur seals and the endearing little blue penguins add to the marine spectacle.

New Zealand is not merely a land of breathtaking scenery; it is a treasure trove of unique wildlife. To truly experience this extraordinary land, one must venture beyond the well-trodden paths and embark on a quest to encounter these remarkable creatures. The national parks, forests, and reserves offer unparalleled opportunities for wildlife viewing.

For the discerning traveller, a journey to Kaikoura promises encounters with dolphins, whales, and seals, while the Marlborough Sounds provide a haven for birdwatching enthusiasts. So, come, immerse yourself in the magic of Aotearoa, and discover a world of wonders that awaits your exploration.

#newzealand #kiwi #dolphins

© Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

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≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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English Literature – Travelogue ☆ New Zealand: A Kiwi Touch of India: Unraveling the Mystery Behind Indian-Inspired Place Names:  # 8 ☆ Mr. Jagat Singh Bisht ☆

Shri Jagat Singh Bisht

☆ Travelogue – New Zealand: A Kiwi Touch of India: Unraveling the Mystery Behind Indian-Inspired Place Names: # 8 ☆ Mr. Jagat Singh Bisht ☆

We had planned a day-long round trip to the Coromandel Peninsula. We were pleasantly surprised to discover Bombay on the outskirts of Auckland.

Could you hazard a guess to tell us where these places and streets are located – Madras Street, Kerala Way, Cashmere Avenue, Simla Crescent, Amritsar Street, Delhi Crescent, Agra Crescent, Nagpur Terrace, Calcutta Street, Mysore Street, Lucknow Terrace, Baroda Street, Benares Street, Punjab Street and Bengal Street?

Where possibly would you find Gavaskar Place and Kapil Grove?

And: Khandallah, Berhampore, Dehra Doon Road, Darjeeling Lane, Ganges Road, Kanpur Road, Jaunpur Crescent, Birla Terrace, Rajkot Terrace, Surat Bay, Delhi Place, Rama Crescent, Karori Borough, Miramar Borough, Indira Place, Shastri Place, Sita Way, Lakshmi Place… You name it!

These intriguing place names offer a glimpse into a fascinating chapter of New Zealand’s history. Scattered across the country, particularly in cities like Wellington, Christchurch, and Auckland, you’ll encounter a surprising number of streets and places with names of Indian origin.

A Wellington Wander:

 * The Indian Quarter: This historic area once thrived with Indian traders and shopkeepers. You’ll find remnants of this vibrant past in street names like Madras Street, Calcutta Street, and Benares Street.

 * A Touch of the Raj: Echoes of British India resonate in names like Delhi Crescent, Agra Crescent, and Simla Crescent.

 * Modern Echoes: Gavaskar Place and Kapil Grove likely honor legendary cricketers, suggesting a more recent wave of Indian influence.

Christchurch Chronicles:

 * The Spice Route: Streets like Mysore Street and Lucknow Terrace hint at the rich cultural exchange that once flourished.

 * A Touch of Royalty: Baroda Street and Punjab Street further add to the tapestry of Indian-inspired names.

 * Cashmere Avenue: It may allude to the famous Cashmere (Kashmir) shawls, reflecting trade connections.

Auckland Adventures:

 * Bombay Hills: This name directly links to Mumbai (formerly Bombay), highlighting historical connections.

 * Coromandel Peninsula: The Coromandel Coast in India shares a similar name, perhaps due to early European explorers making the connection.

Unveiling the Indo-Kiwi Connection:

Why are there so many Indian names adorning the streets and places of New Zealand? What intriguing stories lie behind these names? This is where the real adventure begins! Delve deeper, explore local archives, and uncover the fascinating history that connects India and New Zealand.

© Jagat Singh Bisht

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा – भाग-७ ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। आज से प्रत्यक शनिवार प्रस्तुत है  यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा)

? यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा – भाग-७ ☆ श्री सुरेश पटवा ?

बस में बैठे, किष्किंधा कांड याद आ रहा है। यह वही क्षेत्र है, जहाँ तुलसीदास ने तारा को विकल देख

तारा बिकल देखि रघुराया।

दीन्ह ग्यान हरि लीन्ही माया॥

श्रीराम से कहलाया है,

छिति जल पावक गगन समीरा।

पंच रचित अति अधम सरीरा

तारा को व्याकुल देखकर श्री रघुनाथजी ने उसे ज्ञान दिया और उसकी माया (अज्ञान) हर ली। पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश और वायु- इन पाँच तत्वों से यह अत्यंत अधम शरीर रचा गया है। शरीर तो प्रत्यक्ष तुम्हारे सामने है, और जीव नित्य है। फिर तुम किसके लिए रो रही हो? जब ज्ञान उत्पन्न हो गया, तब वह भगवान् के चरणों लगी और उसने परम भक्ति का वर माँग लिया।

अब हम हम्पी के खंडहरों के नज़दीक पहुँचने लगे हैं। थोड़ा इतिहास समझ लें। उत्तर भारत से दक्षिण भारत का भूगोल अलग तरह का रहा है। जब उत्तर में सोलह महाजनपद के माध्यम से राज्य आकार लेने लगे थे। उस समय दक्षिण में चेर, चोल, पांड्यन, त्रावणकोर, कोचीन, ज़ामोरिन, कोलाथुनाडु, चालुक्य, पल्लव, सातवाहन, राष्ट्रकूट अस्तित्व में थे।

दक्षिण भारत में इस्लाम प्रवेश उपरांत ख़िलजी वंश का अंत हो गया। तब गयासुद्दीन ने तुग़लक़ वंश की नींव रखी। गयासुद्दीन तुगलक के शासनकाल में ही जूना खां जो बाद में मुहम्मद तुगलक (1325-1351) के नाम से सुल्तान बना, उसने दक्षिण भारतीय राज्य वारंगल पर आक्रमण कर अधिकार जमा लिया। इस प्रकार वारंगल की स्वतंत्रता समाप्त हो गयी और वह दिल्ली सल्तनत का अंग बन गया।

मुहम्मद बिन तुगलक की विस्तारवादी नीति से  दक्षिण भारत का इतना भाग सल्तनत के आधिपत्य में आ गया कि उसमें और अधिक विस्तार करने की इच्छा स्वाभाविक रूप से जाग उठी। मुहम्मद तुगलक ने दक्षिण भारत के द्वासमुद्र, मावर तथा अनैगोडी राज्यों के विरुद्ध अभियान किए और इस प्रकार दक्षिण का पूरा पश्चिमी तट उसके अधिकार में आ गया। परन्तु वह जीत अस्थायी सिद्ध हुई। जल्द ही इस क्षेत्र में में भयंकर विद्रोह हुए और अंत में दक्षिण के सम्पूर्ण क्षेत्र दिल्ली सल्तनत से स्वतंत्र हो गये।

सरहिंदी के अनुसार मुहम्मद तुगलक के शासनकाल का प्रथम विद्रोह सुल्तान के चचेरे भाई बहाउद्दीन ने किया जो दक्षिण में उसका हाकिम था। इब्नबतूता के अनुसार गयासुद्दीन की मृत्यु के बाद बहाउद्दीन ने मुहम्मद तुगलक के प्रति स्वामि-भक्ति की शपथ लेने से इंकार कर दिया। किन्तु इसामी का कहना है कि मुहम्मद तुगलक ने उसे गुर्शप की उपाधि दी और उसे फिर दक्षिण भेजा। जहां उसने बड़ा यश प्राप्त किया।

इसके अतिरिक्त राजधानी से दूर एक सम्पन्न व धन-धान्य से परिपूर्ण सूबे का शासक होना एक महत्त्वाकांक्षी सैनिक के लिए स्वतंत्र होने का समुचित प्रलोभन है। गुर्शप ने युद्ध की पूरी तैयारी की, बहुत सा धन जमा किया और दक्षिण के शक्तिशाली सामंतों को अपनी ओर मिलाया पराजय की संभावना से उसने अपने परिवार की रक्षा के लिए कंपिली के हिन्दू राजा से मित्रता कर ली। उसने ख़ुदमुख़्त्यारी घोषित करके उसने निकटवर्ती सामंतों से भूमि कर वसूलना आरंभ कर दिया।

मुहम्मद तुग़लक़ ने सूचना पाते ही गुजरात के सूबेदार ख्वाजा-ए-जहाँ अहमद अय्याज को प्रस्थान के लिए आदेश दिया। गुर्शप ने तुरंत गोदावरी पार की और देवगिरि से पश्चिम की ओर बढ़ा। अय्याज ने देवगिरि पर कब्जा कर लिया। अंत में गुर्शप ने पराजित होकर कंपिली के हिन्दू शासक के यहां शरण ली। कंपिली एक छोटा सा राज्य था जिसमें आधुनिक रायचूर, धारवाड़ बेल्लारी (हम्पी) तथा इसके आसपास के क्षेत्र सम्मिलित थे। प्रारम्भ में कंपिली के राजा देवगिरि के यादवों के अधीन उनके मित्र थे।

तुग़लक़ ने कंपिली पर विरुद्ध तीन बार आक्रमण किए। प्रथम आक्रमण में मुस्लिम सेना को पराजित होकर भागना पड़ा और कंपिली की सेना को अत्यधिक लूट का माल प्राप्त हुआ। सुल्तान की सैनिक पराजय से उसके गौरव को क्षति पहुंची और पहली बार हिन्दू जनता का यह भय समाप्त हो गया कि मुस्लिम सेना अजेय है। यह विदित हो गया कि दक्षिण के हिन्दू काफी शक्तिशाली है जिनको दबाना इतना सरल नहीं है। कंपिली के राजा ने भी राज्य की रक्षा की पूर्ण तैयारियाँ की और हुसदुर्ग तथा कूमर के किलों को पूरी तरह युद्ध सामग्री से भर दिया। दूसरी  बार भी मुस्लिम् सेना कुतुबुल्मुल्क के साथ जान बचाकर भाग गयी।

इसके बाद सुल्तान ने अपने विश्वसनीय मित्र मलिकजादा, ख्वाजा-ए-जहान की अध्यक्षता में विशाल सेना कंपिली राज्य के विरूद्ध भेजी। कंपिली के राजा ने एक महीने तक शत्रु का डटकर सामना किया। परन्तु जब बचने की कोई स्थिति न रही तो गुर्शप को द्वारसमुद्र के राजा बल्लाल तृतीय की रक्षा में परिवार सहित भिजवा दिया और शत्रु से अंतिम युद्ध करने का संकल्प किया गया। उसने जौहर सम्पन्न किया और अपनी समस्त सम्पत्ति, स्त्रियां और पुत्रियां अग्नि में भस्म कर दीं। स्वयं शस्त्र धारण करके शत्रु पर टूट पड़ा। कंपिली नरेश ने भयंकर युद्ध के बाद रणक्षेत्र में ही वीरगति प्राप्त की। मुहम्मद तुग़लक़ सेना का किले पर अधिकार हो गया।

दूसरी तरफ़ बल्लाल ने मलिक के आक्रमण के बाद थोड़े समय में सुल्तान मुहम्मद तुग़लक़ की प्रभुसत्ता से विद्रोह कर वार्षिक कर भेजना बंद कर दिया और इसी अवधि में कंपिली के राज्य को भी जीतने का विचार किया। उसकी तीव्र इच्छा थी कि होयसल राज्य का भाग जो सुदूर दक्षिण के पांड्य राजाओं के अधिकार में है, वापस ले लिया जाए। इसी उद्देश्य से 1316 ई. में पांड्य राजाओं से युद्ध आरम्भ किया। जब वह इस प्रकार आसपास के राजाओं के साथ युद्ध में व्यस्त था। इसी बीच मोहम्मद तुगलक की सेना ने द्वारसमुद्र की सेना पर आक्रमण कर दिया। मुहम्मद तुग़लक़ ने दक्षिण में देवगिरि को दौलताबाद का नाम देकर राजधानी बना लिया। इसे दक्षिण में एक प्रभावशाली प्रशासन केन्द्र स्थापित करने का प्रयास कहा जा सकता है। प्रो. हबीब के अनुसार “मुहम्मद तुगलक अपने किसी भी समकालीन से अधिक दक्षिण को जानता था।” उसका दक्षिणी प्रयोग एक विशेष सफलता थी। यद्यपि उत्तर को दक्षिण से विभाजित करने वाले अवरोध टूट गए थे तथापि दिल्ली सल्तनत की प्रशासनिक शक्ति दक्षिण में प्रसार में सफल सिद्ध नहीं हुई।

हम्पी विश्व विरासत क्यों है। इसे समझने हेतु हमें दक्षिण भारत की संक्षिप्त इतिहास को देखना आवश्यक है कि किस तरह धार्मिक उन्माद ने एक फलती फूलती सभ्यता को नेस्तनाबूद करने का पाप किया लेकिन फिर भी उसके अवशेष आज उन आततायियों के जुल्मों की कहानी कहते खड़े हैं। हम्पी के पचास किलोमीटर वर्गकिलोमीटर ने बिखरे क़िला, महल, मकान, दुकान, बाज़ार, बावड़ी, मंदिर और मूर्तियों के खंडित अवशेष गौरवशाली हिंदू सभ्यता की कहानी कहते खड़े हैं।

मुहम्मद तुगलक ने दक्षिण प्रदेशों की पांच प्रांतों में विभक्त कर दिया। (1) देवगिरि, (2) तेलंगाना, (3) माबर, (4) द्वारसमुद्र और (5) कंपिली। दिल्ली साम्राज्य के इन दक्षिण प्रदेशों में विंध्य पर्वत के दक्षिण से लगभग मदुरा तक की समस्त भूमि सम्मिलित थी। तेलंगाना को अनेक भागों में विभक्त करके उनके लिए अलग-अलग सूबेदार नियुक्त कर दिए गए। धीरे-धीरे इन हाकिमों ने स्थानीय हिन्दू राजाओं से संपर्क स्थापित करके अपना प्रभाव बढ़ाने की चेष्टा की। दक्षिण की दूरी दिल्ली से इतनी अधिक थी कि सुल्तान इच्छा रखते हुए भी दक्षिणी प्रांतों पर पूर्ण नियंत्रण नहीं रख सकता था इसलिए दक्षिण के प्रांतपति अधिक स्वतंत्र रहे। दक्षिण के हाकिमों एवं स्थानीय हिन्दू शासकों के हृदय में सुल्तान के प्रति स्वाभाविक आज्ञाकारिता की भावना बहुत कम थी। अतः तुर्की सरदार स्वतंत्र शासक होने का स्वप्न देखा करते थे। केवल सुविधा और स्वार्थ का ध्यान रखकर ही वे अपनी राजभक्ति की मात्रा स्थिर करते थे। राजधानी परिवर्तन के पीछे यह भी एक महत्वपूर्ण कारण था। दुर्भाग्यवश सुल्तान अपनी नई राजधानी में उत्तरी भारत के विद्रोहों और अकालों के कारण अधिक समय तक नहीं टिक सका। दक्षिण के हिन्दू राजा अपने वंश तथा धर्म के अभिमान को भूले नहीं थे तथा अपनी स्वतंत्रता को प्राप्त करने के लिए सदा अवसर की तलाश में रहा करते थे। यही कारण है कि दक्षिण समस्या का समाधान उचित ढंग से नहीं हो पाया और कालांतर में  कम्पिली स्वतंत्र हो गया।

अंत में मुहम्मद बिन तुगलक ने दक्षिण में साम्राज्य विस्तार के उद्येश्य से कम्पिली पर फिर आक्रमण कर दिया और कम्पिली के दो काबिल मंत्रियों हरिहर तथा बुक्का को बंदी बनाकर दिल्ली ले आया। इन दोनों भाइयों द्वारा इस्लाम धर्म स्वीकार करने के बाद इन्हें दक्षिण विजय के लिए भेजा गया। माना जाता है वे दोनों विद्यारण्य नामक सन्त के प्रभाव में आकर पुनः हिन्दू धर्म को अपना लिया। इस तरह हरिहर तथा बुक्का मुहम्मद बिन तुगलक के शासनकाल में ही भारत के दक्षिण पश्चिम तट पर विजयनगर साम्राज्य की स्थापना कर दी। उसी विजयनगर की समृद्ध राजधानी के खंडहर हम्पी में हैं। विजयनगर की विरासत पर ही अठारहवीं सदी में शिवाजी ने हिन्द स्वराज की स्थापना की थी। हम्पी के विनाश तक पहुँचने हेतु बहमनी साम्राज्य की उत्पत्ति और विनाश से उपजे पाँच मुस्लिम राज्यों गोलकोण्डा, बीजापुर, बीदर, बिरार और अहमदनगर की कहानी भी समझनी होगी।

क्रमशः… 

© श्री सुरेश पटवा 

भोपाल, मध्य प्रदेश

*≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – मी प्रवासी ☆ हिमालयः शरणं गच्छति !! लेखक : श्री अवधूत जोशी ☆ प्रस्तुती : सौ. सुनीता अवधूत जोशी ☆

सौ. सुनीता जोशी 

🌸 मी प्रवासी 🌸

हिमालयः शरणं गच्छति !! लेखक : श्री अवधूत जोशी ☆ प्रस्तुती : सौ. सुनीता अवधूत जोशी 

साधारण दुपारचे चार वाजले होते. मुंबई एअरपोर्टवर ब-यापैकी गर्दी होती. काही कारणास्तव फ्लाईट थोडी लेट झाली. चंदिगढला पोहोचलो तेंव्हा संध्याकाळचे साडेसात झाले होते. नोव्हेंबरचा गारठा हुडहुडी भरत होता. सिमला-मनाली टुर पॅकेजचा टॅक्सी ड्रायव्हर मात्र अशा थंडीतही वेळेवर विमानतळावर गाडी घेऊन हजर होता. फ्लाईट लेट असलेल्याचा थोडासा ताण त्याला तिथे पाहून काहीसा कमी झाला. नव्याने एकमेकांची ओळख करून घेत, गप्पा मारत आम्ही सुमारे तीन तासात १२० किमी अंतर पार करून सिमल्याला पोहोचलो. रात्रीच्या अंधारात आजूबाजूच्या द-याखो-यांचा अंदाज येत नव्हता. वळणावळणाचे गल्ली बोळ पार करत आम्ही खाली उतरत होतो. दुचाकी जाणेही अवघड इतक्या अरुंद म्हणजे पुण्याच्या मंडईत जायचा भाऊ महाराज बोळदेखील प्रशस्त म्हणावा लागेल अशा उतरत्या वाटेवरून ड्रायव्हर शिताफीने आम्हाला घेऊन एका तीन मजली हॉटेलजवळ पोहोचला. ‘हॉटेल विवा इन’ ही खरं तर प्रत्येक मजल्यावर ३ ते ४ रुम्स असणारी तीन मजली बिल्डिंग होती. रात्री साडेअकरा वाजताही त्यांनी आम्हाला गरम जेवण व गरम पाणी दिले, की ज्याची त्यावेळी सर्वात जास्त आवश्यकता होती. जेवण करून आम्ही थंडीने गारठलेल्या त्या रुममधील बेडवरील रजईला आपल्या अंगावर न ओढता, आपणहून त्याच्या आत गेलो आणि क्षणात झोपीही गेलो.

सकाळी गरमागरम पराठा आणि दही व मोठा कपभरून वाफाळता चहा! हॉटेलच्या एका भिंतीला पूर्ण काच होती. त्यातून दूरवर पसरलेली सिमला व्हॅली दिसत होती. सगळीकडे दरी, झाडे, त्यातच काठा-काठावर उभी असलेली घरे, हॉटेल्स. खूपच विलोभनीय दृश्य होते ते.

आम्ही नऊ वाजता खाली आलो. टॅक्सी तयार होती. कोवळे ऊन पडले असले तरी हवेत बोचरा गारठा भरून राहिला होता. मुंबईत जसे बाहेर पाऊस कोसळत असला तरी आतमध्ये घामाच्या धारा येतच राहतात तसे स्वेटर, टोपी घालूनही थंडी वाजतच होती. कुफ्रीला जाऊन फनफेअरच्या गेम खेळणं हा पहिला कार्यक्रम. हे गेम्स म्हणजे धाडसाचे काम. शरिर आणि मन मजबूत व थोडसं वेडंपणही हवं. बी. पी. च्या गोळ्या असल्याने मी आपलं बायको आणि मुलगा यांना पुढे करून ‘तुम लढो !’ चा सल्ला देऊन ढिगभर केस अंगावर घेऊन शांतपणे उभ्या असलेल्या भल्या मोठ्या ‘याक’वर बसून फोटो काढण्यात धन्यता मानली.

त्यानंतर बरेचसे गेम्स खेळून व काही नुसते खेळलेले बघूनच आम्ही तेथून बाहेर पडलो. सफरचंद हे मुख्य आकर्षण असलेल्या बागा तिथे होत्या पण सफरचंदा शिवाय. ती उघडी बोडकी झाडे उगाचच सफरचंदांनी लगडलेल्या झाडांशी तुलना करत आहेत असे दृश्य डोळ्यासमोर आणले. एकसारख्या आकारात कापून ठेवलेल्या गोड, रसाळ सफरचंदावर मीठ, तिखट, चाट मसाला घालून दिलेली प्लेट आम्ही एका फटक्यात आस्वाद घेत रिकामी केली.

अलिकडेच लोकांसाठी खुला केलेला ‘राष्ट्रपती निवास’ ही ब्रिटीशांनी बांधलेली वास्तू खरंच बघण्याजोगी आहे. पूर्ण सिक्युरिटी असलेल्या त्या ठिकाणी चेकींग करून प्रत्येकाला आत सोडले जात होते. संपूर्ण दुमजली बांधकाम काळ्या शिसवी लाकडात केलेले. ब्रिटिशांकडून आपण हे न शिकता सिमेंट, कॉंक्रिटचा हव्यास का धरतो कुणास ठाऊक? एक महिन्यासाठी आपले राष्ट्रपती या ठिकाणी निवासास येतात. अतिशय जुना ठेवा असूनही आजही चांगल्या पध्दतीने जतन करून ठेवला आहे.

सकाळचा नाश्ता हा जेवणासारखाच भरपेट झाला असल्याने दुपारी थोडा व्हेज फ्राईड राईस आणि चॉमिन नूडल्स यावर क्षुधा शांती केली आणि आम्ही जख्खूचे मारूती मंदिर पाहण्यास सज्ज झालो. ऊंच टेकडीवर रोप-वे ने जाण्यात गंमत होतीच पण वर गेल्यावर हनुमानाची प्रचंड उंच, गगनचुंबी मुर्ती पाहताना समर्थांनी वर्णिल्याप्रमाणे पुराणात हनुमान हा ‘अणुपासोनी ब्रह्मांडाएवढा’ होत असला पाहिजे याची खात्री पटली. रोप-वे चा अनुभव खूपच सुखद होता. काचेच्या पेटीत आपण खोल दरीतून चाललो आहोत, मनात एक भीती पण आणि एका नविन अनुभवाची उत्स्कुकताही असा वेगळाच अनुभव आला.

तिन्हीसांज कधी झाली कळलेच नाही. आम्ही जख्खू येथून खाली उतरलो होतो. चर्चजवळील चौक अर्थात् उंचावरचा सनसेट पॉईंट पर्यटकांनी गजबजून गेला होता. हिंदी चित्रपटांतील ब-याचशा चित्रपटांचा हा शूटींग पॉईंट होता. गाजलेल्या थ्री ईडियट्स पिक्चर मधील दृश्ये ज्या ठिकाणी चित्रीत झाली होती त्या ठिकाणी आम्ही तीन वेड्यांनीही आपले फोटो काढले. मोठ्या थर्मासमधून चहा विकणारे, व्यावसायिक फोटोग्राफर हे सगळीकडे फिरत होतेच पण चक्क व्यवसाय कशाचाही करू शकतो हे पटवून देण्यासाठी बाबागाडी घेऊन फिरणारे गरजू व्यावसायिकही या ठिकाणी दिसत होते. पर्यटन हाच इथला मुख्य वय्वसाय असल्याने त्या अनुषंगाने येणारे नवनवीन उद्योग जन्मास येत होते.

बाकी मॉल रोडवर फिरणे म्हणजे पुण्याच्या लक्ष्मीरोडवर फिरण्यासारखेच होते. पण महत्त्वाचा फरक इतकाच होता कि एकीकडे प्रचंड ट्रॅफिक, तर दुसरीकडे वाहनांसाठी No Entry!! बाकी माणसांची गर्दी आणि खरेदीतली घासाघीस हा भारतीयांचा हक्क दोन्हीकडे अबाधितच दिसत होता.

खूप सुंदर असे शिमला हे शहर पाहून दुस-या दिवशी सकाळी मनालीकडे प्रयाण केले. वाटेत आपल्या बरोबरीने दरी खो-यातून मनाली येईपर्यंत सोबतीने खूप सारे लहान मोठे दगड-गोटे आणि मध्यातून वाहणारे गार असे पाणी घेऊन बियास म्हणजे व्यास नदी वहात होती. दुपारी जेवण्यासाठी थांबलेल्या एका हॉटेलच्या बाजूने वाहणा-या त्या नदीत माझ्या बायकोने जाऊन आपले पाय त्या थंडगार पाण्यात बुडवून येण्याचे धाडसी काम हळूच उरकून घेतले होते. तिला त्या नदीचे वेड लागले होते.

नंतर वाटेत कुल्लू हे शहर लागले. त्या ठिकाणी शाल, स्वेटर्स यांच्या फॅक्टरींचे आऊटलेटस् होते. आणि ओळीने गजबजलेली ड्रायफ्रुटसची दुकानेही होती. रस्त्यांवर सगळीकडे हातात छोट्या डबीतून कमी किमतीत शिलाजीत आणि केशर विकणारे विक्रेते जागोजागी होते. पण आम्ही तो मोह टाळला. नंतर स्थानिक लोकांकडून समजले की ते डुप्लिकेट माल विकतात. थोडक्यात ‘कुल्लूला’ येऊन आपण ‘उल्लू’ न बनल्याचे समाधान वाटले. मनालीला पोहोचेपर्यंत संध्याकाळ झालेली व हवेत गारठा -२ डिग्री तापमान दाखवत होता.

दोन दिवस होऊनही अजून बर्फ पहायला न मिळाल्याची खंत लागून राहिली होती. थंडीत जास्त बर्फ असेल हा माझा तर्क चुकीचा ठरला होता. एक विशिष्ट पहाडी, पंजाबी स्टाईलने ‘हॉंजी, हॉंजी’ असे दोनदा उच्चारण्याची सवय असलेला आमचा तरूण ड्रायव्हर आमच्या मदतीला धावून आला. ‘‘सर आप ऊपर रोहतांगपास चलिये। आपको बर्फ देखने को मिलेगा।” आमच्या पॅकेजमध्ये ते ठिकाण नसल्याने आम्ही एक्स्ट्रा चार्जेस देऊन सकाळीच रोहतांगकडे निघालो. दोन तासाचा उंचावरचा तो प्रवास अवर्णनीय होता. वळणा वळणाच्या रस्त्याने वर वर जात आम्ही १३००० फूट उंचीवर पोहोचलो होतो आणि समोर सगळीकडे पांढरे शुभ्र बर्फ आमच्या स्वागताला हजर होते. आनंदात उघड्या हातांनी बर्फाचा चुरा उचलल्यावर आलेल्या थंड झिणझिण्या गौण ठरल्या. बर्फात मनसोक्त खेळून आम्ही जगातील सर्वात लांब सुमारे ९ कि. मी. लांबीच्या ‘अटल टनेल’ या बोगद्यातून मनालीकडे परत आलो. सोलांग व्हॅली बघितली. हिडिंबा टेंपल पाहिले. मात्र तिथे बोर्डवर लिहिलेले घटोत्कच मंदिर लवकर सापडले नाही. कदाचित् मायावी घटोत्कचचे मंदिर देखील मायावी असावे. रामायण, महाभारताचे नव्हे तर प्राचीन आध्यात्माचे अनेक संदर्भ या परिसरात सापडतात. इतक्या उंचावर वसिष्ठ मंदिरात कमालीच्या थंड प्रदेशात चक्क गरम पाण्याचे कुंड पहायला मिळतात आणि निसर्गाचा चमत्कार बघायला मिळतो.

मनालीचा मॉल रोड बघितला. सिमला आणि मनालीच्या मॉल रोडमध्ये फारसा फरक नाही. पुण्याच्या लक्ष्मी रोड आणि सारसबाग रोड इतकाच बहुधा असावा. वाफाळणारे मोमोज, मोहजाळात ओढणारे नूडल्स, पिवळे धमक ब्रेड पॅटीस, चपटी आलू टिक्की, गरमागरम जिलेबी, सिडू, मसाला दूध यांची रेलचेल होती.

ट्रीपचा शेवटचा दिवस उजाडला व आम्ही चंदिगढला पोहोचलो. वाटेत एका ठिकाणी अस्सल पंजाबी जेवणाची माझी इच्छा एका पंजाबी माणसाच्या दिलदार स्वभावाप्रमाणे आलिशान असणा-या अशा ढाब्यावर पूर्ण झाली. मक्के की रोटी, पनीर टिक्का, पापड, पुलाव आणि मोठा पाणी प्यायचा जगभरून दिलेली लस्सी. वाह!!

फ्लाईटला वेळ असल्याने आम्ही तोपर्यंत चंदिगढ शहर देखील थोडेसे पाहून घेतले. नेहरूंनी नियोजनबद्द वसवलेला हा केंद्रशासित प्रदेश! उत्तम रचना असलेले भव्य आणि प्रशस्त शहर म्हणून भारतात प्रथम क्रमांकावर चंदिगढ आहे. रॉक गार्डन, रोझ गार्डन, सुखना लेक सारेच भव्य आहे. लोकसंख्या जास्त असूनही मुंबई-पुण्याप्रमाणे वाहनाला वाहने घासून जात नाहीत. सारे कसे मोकळे आणि प्रशस्त व शिस्तबध्द.

थोडक्यात काय, वातावरणाप्रमाणे आपला खिसा देखील थंड पडत असला तरी हिमालयाची शान असणारी सिमला कुलू मनालीची ही ट्रीप आयुष्यात आपल्याला एक वेगळेच समाधान देऊन जाते हे नक्की आणि मग सहजच नतमस्तक होवून मनात आले की ‘‘हिमालयः शरणं गच्छति!!”

लेखक : श्री अवधूत जोशी

मोबाईल : ९८२२४५६८६३

प्रस्तुती : सौ. सुनीता अवधूत जोशी. 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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English Literature – Travelogue ☆ New Zealand: A Journey Through Aotearoa: Memoirs of New Zealand:  # 7 ☆ Mr. Jagat Singh Bisht ☆

Shri Jagat Singh Bisht

☆ Travelogue – New Zealand: A Journey Through Aotearoa: Memoirs of New Zealand:  # 7 ☆ Mr. Jagat Singh Bisht ☆

My love affair with the Land of the Long White Cloud, Aotearoa – New Zealand – began a few years ago, and my fondness for this enchanting country has only grown with time. This travelogue captures glimpses from our first unforgettable adventure in Kiwi Land.

Having previously explored destinations like the Andaman and Nicobar Islands, Thailand, and Malaysia during brief holidays, we yearned for a long, leisurely escape. That wish materialized when Anurag sent us tickets to Auckland. The flight with Air New Zealand was seamless, and we were greeted warmly by Sneha and Anurag at the Auckland International Airport. Their cozy home at North Shore became our haven during the trip.

Settling into the Kiwi Rhythm:

Jet lag was surprisingly absent, and the next morning started with chai. While Sneha and Radhika visited the Countdown supermarket, Anurag and I spent time catching up as he washed his bike. In the evening, a long, circular walk from Birkdale to Beach Haven set the tone for our stay – a mix of exploration, nature, and bonding.

Queenstown: Adventure in Paradise:

A flight to Queenstown in the South Island unveiled a world of alpine beauty. Nestled on the shores of Lake Wakatipu and surrounded by dramatic ranges, the town captivated us. Highlights included savoring the iconic Fergburger, exploring serene walking trails, and enjoying panoramic views from Bob’s Peak via a gondola ride. A coach trip to Milford Sound was the pinnacle of our journey, with its awe-inspiring cliffs, cascading waterfalls, and Kipling-worthy vistas.

Cricket, Beaches, and Regional Parks:

The thrill of watching a T20 cricket match between Pakistan and New Zealand at close quarters was an unforgettable experience. Weekend drives to the Coromandel Peninsula revealed golden beaches and lush rainforests, while evenings at Shakespear Regional Park were filled with laughter and tranquility.

Volunteering and Spiritual Connection:

Volunteering at Dhamma Medini, a Vipassana meditation center in Kaukapakapa, added depth to the trip. Surrounded by a picturesque valley, my days were spent gardening, maintaining the premises, and meditating. A laughter yoga session with dhamma servers from across the globe brought smiles and joy.

Rotorua: A Geothermal Wonderland:

Rotorua’s unique geothermal activity gave it an otherworldly charm. From the vibrantly colored Champagne Pool to a Maori cultural show complete with Haka dance and traditional dinner, every moment in this lakeside city was extraordinary.

Daily Adventures and Laughter Clubs:

Daily walks through Kauri parks and along the coast became cherished routines. A newfound yoga spot by the sea at Beach Haven Wharf was Radhika’s sanctuary. Meanwhile, the laughter yoga community welcomed us warmly, sharing their practices and camaraderie during gatherings arranged by Louise Stevens.

Exploring Auckland’s Gems:

Auckland’s vibrant mix of attractions kept us enthralled – from the War Memorial Museum and Botanic Gardens to a walk from Britomart to Mission Bay Beach. Watching the sunrise from Mount Eden and sunset from Devonport provided bookends to days filled with exploration.

Culinary Delights and Cultural Etiquette:

From Thai and Mediterranean cuisine to indulgent chocolates, ice cream, and Manuka honey, our taste buds were in for a treat. Two simple yet powerful words, “kia ora,” epitomized the Kiwi spirit of warmth and respect.

Reflections on Aotearoa:

As we boarded our flight home, one thought lingered: if citizens everywhere followed rules and embraced kindness as the Kiwis do, every country could be as peaceful as New Zealand. This journey was more than a trip; it was an immersion into a way of life that left us inspired and longing to return.

© Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

Founder:  LifeSkills

A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.

The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga. We conduct talks, seminars, workshops, retreats and training.

Please feel free to call/WhatsApp us at +917389938255 or email [email protected] if you wish to attend our program or would like to arrange one at your end.

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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English Literature – Travelogue ☆ New Zealand: A Journey Through New Zealand’s Natural and Cultural Masterpieces: # 6 ☆ Mr. Jagat Singh Bisht ☆

Shri Jagat Singh Bisht

☆ Travelogue – New Zealand: A Journey Through New Zealand’s Natural and Cultural Masterpieces: # 6 ☆ Mr. Jagat Singh Bisht ☆

The day began with a serene morning drive along the Thermal Explorer Highway from Taupō to Rotorua. The highway, aptly named, offers breathtaking vistas of geothermal activity and lush landscapes that beckon travellers to pause and admire their beauty. Before setting off, we indulged in a quick but delightful breakfast at the Cozy Corner Café in Taupō—a charming vegan café with gracious hosts. Ordering Indian vegetarian food in New Zealand can be a quirky experience, as the definition of “vegetarian” often includes eggs or fish sauce. However, the café’s understanding approach made the meal a delight.

The journey itself was an adventure, with mesmerising hotspots tempting us to stop and soak in the scenery. Rotorua awaited us with its unique charm, and at its heart lay the Redwoods Forest, or as the locals call it, Whakarewarewa Forest. This towering expanse of Californian Redwoods is simply otherworldly. The moment we stepped into the forest, a phrase came to mind: wah, kya re, wah re waah! A playful nod for Indian visitors, this phrase echoes the wonderment of seeing such grandiose trees in this faraway land. And doesn’t it remind one of New Zealand’s warm greeting, Kia Ora? Perhaps, in light-hearted banter, we might quip back, Kya hora?—a testament to the linguistic ties that make these two distant nations seem a little closer.

 

We opted for the Redwoods Treewalk, an enchanting experience that lets you wander amidst these majestic giants from an elevated perspective. It was here that Wordsworth’s lines sprang to mind:

 

“For oft, when on my couch I lie

In vacant or in pensive mood,

They flash upon that inward eye

Which is the bliss of solitude;

And then my heart with pleasure fills,

And dances with the daffodils.”

 

Only this time, the daffodils were replaced by the serene redwoods, towering with timeless grace. The tranquillity of the forest filled our hearts with the bliss Wordsworth so beautifully captured.

 

Lunch was a vibrant affair at El Mexicano Zapata Cantina, where we were treated to some of the finest Mexican cuisine we had tasted during our New Zealand sojourn. The flavours were authentic, and the traditional Jarritos drink transported us straight to Mexico with its nostalgic charm.

 

Time slipped away quickly, and we made our way to Hamilton, eager to explore the famed Hamilton Gardens. This was not just a garden but a kaleidoscope of cultures and history brought to life through meticulous landscaping. Walking through the themed gardens felt like stepping into a dream—an immersion into worlds crafted with incredible artistry. It is no wonder the Hamilton Gardens are regarded as one of the country’s crown jewels.

 

As twilight descended, we rounded off the day with a hearty meal at Beeji Ka Dhaba, a haven for lovers of Indian cuisine. The oversized parathas, served with a generous dollop of white butter, were a culinary embrace that reminded us of home.

 

The journey back to Auckland was long, but our hearts were light with the memories of a day steeped in natural splendour and cultural discovery. From the towering redwoods of Rotorua to the enchanting gardens of Hamilton, New Zealand revealed itself as a land of wonders, where every corner holds a story waiting to be discovered.

#redwoods #hamiltongardens #newzealand #redwoodstreewalk #rotorua

© Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

Founder:  LifeSkills

A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.

The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga. We conduct talks, seminars, workshops, retreats and training.

Please feel free to call/WhatsApp us at +917389938255 or email [email protected] if you wish to attend our program or would like to arrange one at your end.

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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English Literature – Travelogue ☆ New Zealand: Journey Through Middle-earth: A Two-Week New Zealand Itinerary: # 5 ☆ Mr. Jagat Singh Bisht ☆

Shri Jagat Singh Bisht

☆ Travelogue – New Zealand: Journey Through Middle-earth: A Two-Week New Zealand Itinerary: # 5 ☆ Mr. Jagat Singh Bisht ☆

As my time in New Zealand drew to a close, I found myself captivated by The Lord of the Rings—an epic masterpiece widely regarded as one of the greatest film series ever made. Shot entirely amidst the breathtaking landscapes of director Peter Jackson’s homeland, New Zealand, the trilogy transported me to a realm of awe-inspiring beauty and timeless adventure.

Let us embark on a journey through New Zealand that mirrors the epic landscapes of Middle-earth, following the footsteps of the fellowship in The Lord of the Rings. This two-week itinerary takes you through breathtaking filming locations, immersing you in the spirit of the trilogy while sampling the country’s rich culture, cuisine, and adventure.

Day 1-2: Auckland and Matamata (Hobbiton)

Begin in Auckland, the City of Sails, where you can explore its harbour and vibrant culinary scene. From there, travel to Matamata to visit the Hobbiton Movie Set, where the charming Shire comes to life. Wander the lush hills and enjoy a feast at the Green Dragon Inn.

Day 3-4: Tongariro National Park (Mount Doom)

Venture south to Tongariro National Park, home to the volcanic landscapes of Mount Doom (Mount Ngauruhoe). Embark on the Tongariro Alpine Crossing, a stunning trek through dramatic scenery featured in Mordor. Relax in nearby Taupō with hot springs and lakeside views.

Day 5-6: Wellington (Rivendell)

Arrive in the nation’s capital, Wellington, where Weta Workshop offers a behind-the-scenes look at the trilogy’s creation. Discover Rivendell’s enchanting setting in Kaitoke Regional Park. Don’t miss Te Papa Museum to learn about New Zealand’s heritage.

Day 7-8: Nelson and Marlborough (Chetwood Forest)

Fly to Nelson on the South Island, gateway to Abel Tasman National Park. Visit the Chetwood Forest filming site and enjoy wine tasting in Marlborough’s vineyards, famed for their Sauvignon Blanc.

Day 9-10: West Coast and Franz Josef Glacier

Travel along the West Coast to Franz Josef Glacier, with its ethereal ice formations. Nearby, you’ll find the beacon lighting scenes filmed against spectacular alpine backdrops.

Day 11-12: Queenstown and Glenorchy (Isengard and Lothlórien)

Head to Queenstown, the adventure capital, and explore Glenorchy, where Isengard, Lothlórien, and Fangorn Forest were brought to life. Ride horseback through these iconic locations or take a jet boat on Dart River.

Day 13-14: Fiordland National Park (Fangorn Forest and Anduin River)

Conclude your journey in Fiordland, with a cruise through the majestic Milford Sound, resembling the Anduin River. Soak in the tranquility of this wilderness before returning to Queenstown.

Throughout the journey, indulge in local cuisine like pavlova, lamb, and green-lipped mussels. Stay in boutique lodges, cosy cabins, or even hobbit-themed accommodations. By road, rail, and air, you’ll traverse a landscape that feels as mythical as Tolkien’s tales themselves. Let this itinerary be your map to Middle-earth—an unforgettable adventure awaits!

#newzealand #thelordoftherings #itenerary #travel #milfordsound #franzjosefglacier

© Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

Founder:  LifeSkills

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≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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