हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा – भाग-६ ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। आज से प्रत्यक शनिवार प्रस्तुत है  यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा)

? यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा – भाग-६ ☆ श्री सुरेश पटवा ?

सुग्रीव गुफा के सामने खूब खुला मैदान है। यहाँ कभी इंद्र पुत्र वानर राज बाली का दरबार लगता होगा। गुफा के ऊपर-नीचे वानरों का हुजूम जमा रहता होगा। इसी मैदान में श्रीराम ने पेड़ों की ओट से बालि को मारा होगा। हम सभी लोग उसी मैदान पर कदमताल करके तुंगभद्रा नदी के तीर पहुँचे। वहाँ किनारे पर कुछ नाव ढिली हैं। जो बाली को श्राप देने वाले मतंग ऋषि की गुफा तक ले जाने का एक सवारी का 500/- रुपये लेती है। नौका विहार हेतु किसी की इच्छा नहीं जागी। सभी लोग फोटोग्राफी का शौक पूरा करने में व्यस्त हो गए। हमने उत्सुक लोगों को तुंगभद्रा नदी का भूगोल समझाया।

‘तुंग’ और ‘भद्रा’ नामक दो नदियों के संगम से जन्म लेने वाली तुंगभद्रा नदी दक्षिण भारत की प्रमुख नदियों में से एक है। नदी का उद्गम पश्चिम घाट पर कर्नाटक के ‘गंगामूल’ नामक स्थान से होता है। प्रमुख रूप से तुंगभद्रा नदी की पांच सहायक नदियां हैं, औकबरदा, कुमुदावती,  वरदा, वेदवती व हांद्री तुंगभद्रा में आकर मिलती हैं। पश्चिमी घाट के अलग-अलग पर्वत श्रृंखलाओं से निकलने वाली तुंग और भद्रा नदियां कर्नाटक के शिमोगा नामक स्थान से ‘तुंगभद्रा’ के रूप में अपनी यात्रा की शुरूआत करती है। कर्नाटक के विभिन्न क्षेत्रों से बहते हुए तेलगांना व आंध्र प्रदेश राज्य के अलग-अलग जिलों में प्रवाहित होकर अपनी यात्रा के अंतिम पड़ाव में आंध्र प्रदेश के कर्नूल जिले में कृष्णा नदी में मिलने के साथ ही अपना सफ़र समाप्त करती है। कृष्णा नदी आगे जाकर बंगाल की खाड़ी में विलीन हो जाती है।

श्रीराम ने हम्पी में तुंगभद्रा के जल का आचमन किया था। यहीं श्री हनुमान पैदा हुए। महाभारत में इसे तुंगवेणा कहा गया है। पद्म पुराण में हरिहरपुर को तुंगभद्रा के तट पर स्थित बताया गया है। बाल्मीकि रामायण में तुंगभद्रा को पंपा के नाम से जाना जाता है।  श्रीमदभागवत् में भी तुंगभद्रा का उल्लेख मिलता है,

चंद्रवसा ताम्रपर्णी  अवटोदा  कृतमाला  वैहायसी,

कावेरी वेणी पयस्विनी शर्करावर्ता तुंगभद्रा कृष्णा।

आदि गुरू शंकराचार्य ने आठवीं सदी में इसी नदी के तट पर ‘श्रृंगेरी मठ’ की स्थापना की थी। 14वीं शताब्दी में प्रसिद्ध राजा कृष्णदेवराय का विजयनगर साम्राज्य इसी नदी के किनारे बसा हुआ था। उसका बुद्धिमान मंत्री तेनालीराम इसी राज्य में था।

यह समूचा क्षेत्र गोलाकार और अंडाकार चट्टानों से पटा है। लगता है इन्ही चट्टानों से बाली और सुग्रीव में लड़ाइयाँ होती होंगी। वानर सेना के सैनिक इन्ही पत्थरों से कसरत करते होंगे। इसी तरह का एक पत्थर सुग्रीव ने गुफा के मुहाने पर रखकर उसका मुँह बंद कर दिया होगा। गुफा के सामने से एक रास्ता तुंगभद्रा के किनारे तक जाता है। उससे नदी किनारे पहुँचे। वहाँ बाँस की गोल नौकाओं में छै-आठ लोगों को बिठाकर आधा घंटे का नौकायन भी कराया जाता है। एक व्यक्ति का किराया पाँच सौ रुपये बताया। किसी ने भी नौकायन करने की हिम्मत नहीं जुटाई। रामायण केंद्र के बैनर के साथ एक घंटा फोटोग्राफी और सेल्फी का खेल चलता रहा। साथियों ने सैकड़ों फोटो लिए। उनका मोबाईल का स्टोरेज भर गया। मेमोरी के लिए मोबाईल ख़ाली किए जाने लगे। अगला पड़ाव विजयनगर साम्राज्य का गौरव विरूपाक्ष गोपुरम था। जिसे देखने के पहले थोड़ा सा विजयनगर साम्राज्य की उत्पत्ति, विकास और विनाश की कहानी जानना उपयुक्त रहेगा। विजयनगर साम्राज्य के इतिहास को जाने बगैर हम्पी की महत्ता नहीं समझ सकते हैं।

गाइड हमें पाँच-दस मिनट में हज़ार सालों का ग़लत सलत इतिहास बताते हैं और हम आँखें फाड़ उन्हें देखते रहते हैं क्योंकि हमें इतिहास पता नहीं होता है। हम्पी के इतिहास को समझने हेतु हमें विजयनगर साम्राज्य और बहमनी साम्राज्य के उद्भव तदुपरांत विखंडन को जानना होगा।

दक्षिण में इस्लाम का प्रवेश अलाउद्दीन ख़िलजी के देवगिर आक्रमण से होता है। उसका चाचा और ससुर जलालुद्दीन ख़िलजी 1290 से 1296 तक दिल्ली का सुल्तान था, उसने 1295 में अलाउद्दीन को भेलसा अर्थात् विदिशा को लूटने की अनुमति दी थी। उस समय विदिशा पाटलिपुत्र से सूरत बंदरगाह के बीच एक महत्वपूर्ण कारोबारी ठिकाना था। वहाँ कई अरबपति कारोबारियों का निवास था। अलाउद्दीन भेलसा नगर को लूटने के बाद संतुष्ट न हुआ। उसने कारोबारियों के बच्चों को गुदड़ी से लपेट कर आग से भूनने का आदेश दिया तो कारोबारियों ने हंडों में भरकर बेतवा नदी के तल में गाड़े धन का पता बता  दिया।  करोड़ों का सोना चाँदी हीरा जवाहरात लूटकर संतुष्ट न हुआ। अलाउद्दीन की निगाह दक्षिण के देवगिर हिंदू राज्य पर थी। वहाँ से लूटे धन का उपयोग दिल्ली का सुल्तान बनने में करना चाहता था।

उसने सुल्तान जलालुद्दीन ख़िलजी से भेलसा को पुनः लूटने की अनुमति ली, और सीधा देवगिर पर धावा बोला। देवगिर से अकूत संपत्ति लूटकर मानिकपुर-कारा में गंगा नदी के इस पर डेरा डाल सुल्तान जलालुद्दीन को पैग़ाम भिजवाया कि लूट का माल इतना अधिक है कि वह एकसाथ दिल्ली नहीं पहुँचा पा रहा है। सुल्तान यहीं आकर माल ले जायें। जलालुद्दीन गंगा पार करके इस पार उतरा, तब अलाउद्दीन ने उसे क़त्ल करके दिल्ली की सल्तनत हथिया ली। 

सुल्तान बनने के बाद अलाउद्दीन द्वारा 1296 ई. में देवगिरि (वर्तमान औरंगाबाद) के विरुद्ध किये गये अभियान की सफलता पर, वहाँ के शासक रामचन्द्र देव ने प्रतिवर्ष एलिचपुर की आय भेजने का वादा किया। परंतु रामचन्द्र देव के पुत्र शंकर देव के हस्तक्षेप से वार्षिक कर का भुगतान रोक दिया गया। अतः उसने मलिक काफ़ूर के नेतृत्व में एक सेना देवगिरि पर धावा बोलने के लिए भेजी। रास्ते में राजा कर्ण को युद्ध में परास्त कर काफ़ूर ने उसकी पुत्री देवल देवी को दिल्ली भेज दिया, जहाँ उसका विवाह ख़िज़्र ख़ाँ से कर दिया गया। रास्ते भर लूट पाट करता हुआ काफ़ूर देवगिरि पहुँचा और पहुँचते ही उसने देवगिरि पर आक्रमण कर दिया। भयानक लूट-पाट के बाद रामचन्द्र देव ने आत्मसमर्पण कर दिया। काफ़ूर अपार धन-सम्पत्ति, ढेर सारे हाथी एवं राजा रामचन्द्र देव के साथ वापस दिल्ली आया। रामचन्द्र ने सुल्तान के समक्ष प्रस्तुत होने पर सुल्तान ने उसके साथ उदारता का व्यवहार करते हुए ‘राय रायान’ की उपाधि प्रदान की। उसे सुल्तान ने गुजरात की नवसारी जागीर एवं एक लाख स्वर्ण टके देकर वापस भेज दिया। कालान्तर में राजा रामचन्द्र देव अलाउद्दीन का मित्र बन गया। जब मलिक काफ़ूर द्वारसमुद्र विजय के लिए जा रहा था, तो रामचन्द्र देव ने उसकी भरपूर सहायता की थी।

अलाउद्दीन द्वारा दक्षिण भारत के राज्यों को जीतने के उद्देश्य के पीछे धन की चाह एवं विजय की लालसा थी। वह इन राज्यों को अपने अधीन कर वार्षिक कर वसूल करना चाहता था। अलाउद्दीन ख़िलजी के समकालीन दक्षिण भारत के इस क्षेत्र में सिर्फ़ तीन महत्त्वपूर्ण शक्तियाँ थीं-

* देवगिरि के यादव,

* दक्षिण-पूर्व तेलंगाना के काकतीय और

* द्वारसमुद्र के होयसल।

देवगिरी के बाद, अलाउद्दीन ख़िलजी के शासन काल में उसने दक्षिण में सर्वप्रथम 1303 ई. में तेलंगाना पर आक्रमण किया गया। तत्कालीन तेलंगाना का शासक प्रताप रुद्रदेव था, जिसकी राजधानी वारंगल थी। नवम्बर, 1309 में मलिक काफ़ूर तेलंगाना के लिए रवाना हुआ। रास्ते में रामचन्द्र देव ने काफ़ूर की सहायता की। काफ़ूर ने हीरों की खानों के इलाक़े असीरगढ़ (मेरागढ़) के मार्ग से तेलंगाना में प्रवेश किया। 1310 ई. में काफ़ूर अपनी सेना के साथ वारंगल पहुँचा। प्रताप रुद्रदेव ने अपनी सोने की मूर्ति बनवाकर गले में एक सोने की जंजीर डालकर आत्मसमर्पण स्वरूप काफ़ूर के पास भेजी, साथ ही 100 हाथी, 700 घोड़े, अपार धन राशि एवं वार्षिक कर देने के वायदे के साथ अलाउद्दीन ख़िलजी की अधीनता स्वीकार कर ली। इसी अवसर पर उसने मलिक काफ़ूर को संसार प्रसिद्ध कोहिनूर हीरा दिया था। वह कोहिनूर हीरा इंग्लैंड के राजमुकुट की शान बढ़ाता है।

होयसल का शासक वीर बल्लाल तृतीय था। इसकी राजधानी द्वारसमुद्र थी। 1310 ई. में मलिक काफ़ूर ने होयसल के लिए प्रस्थान किया। इस प्रकार 1311 ई. में साधारण युद्ध के पश्चात् बल्लाल देव ने आत्मसमर्पण कर अलाउद्दीन की अधीनता ग्रहण कर ली। उसने माबर के अभियान में काफ़ूर की सहायता भी की। सुल्तान अलाउद्दीन ने बल्लाल देव को ‘ख़िलअत’, ‘एक मुकट’, ‘छत्र’ एवं दस लाख टके की थैली भेंट की। अलाउद्दीन उन राज्यों का हराकर उनसे वार्षिक कर लेने तक ही सीमित रहा। हिंदुओं को मुसलमान बनाने का काम अभी आरम्भ होना था। इस प्रकार दक्षिण भारत के तीनों समृद्ध राज्यों में इस्लाम का प्रवेश हुआ। इसका श्रेय मलिक काफ़ूर को जाता है।

हमारी बस जिस मार्ग से हम्पी की ओर जा रही है।  इसी जगह से लंकेश सीता जी को आकाश मार्ग से ले जा रहा था। तब सीता जी ने उत्तरीय वस्त्र यहाँ गिराया था। चारों तरफ़ बड़े-बड़े गोल शिलाखंड किसी अनोखे लोक का भान करा रहे हैं। शिलाखंडों के बीच में कहीं-कहीं पोखर दिख जाते हैं। इधर-उधर पेड़ों पर वानर किलोल करते हैं। यह इलाका किष्किंधा नाम से जाना जाता था। दक्षिण भारत के इतिहास में कभी अनेगुंडी सुना था। अभी जिस जगह से गुजर रहे हैं। यह वही अनेगुंडी है, जिसे पहले किष्किंधा कहा जाता था, कर्नाटक के कोप्पल जिले के गंगावती में एक गाँव है। यह हम्पी से भी पुराना है, जो तुंगभद्रा नदी के उत्तरी तट पर स्थित है। पास के एक गाँव निमवापुरम में राख का एक पहाड़ है, जिसके बारे में माना जाता है कि यह राजा बाली के दाह संस्कार के अवशेष हैं। अलाउद्दीन खिलजी तक उस इलाक़े में विजयनगर साम्राज्य की स्थापना नहीं हुई थी। यह इलाका हरिहर-बुक्का भाइयों का इंतज़ार कर रहा था। चौदहवीं सदी दिल्ली में ख़िलज़ी वंश  का अंत हुआ और तुर्को-अफ़ग़ान तुगलकों का समय शुरू हुआ।

क्रमशः…

© श्री सुरेश पटवा 

भोपाल, मध्य प्रदेश

*≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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English Literature – Travelogue ☆ New Zealand: A Reflective Travelogue: Takapuna’s Timeless Embrace # 4 ☆ Mr. Jagat Singh Bisht ☆

Shri Jagat Singh Bisht

☆ Travelogue – New Zealand: A Reflective Travelogue: Takapuna’s Timeless Embrace # 4 ☆ Mr. Jagat Singh Bisht ☆

The traveller and the tourist are oft at odds in their purposes. The tourist, with hurried steps and an agenda inscribed in hours, seeks to conquer destinations as a general conquers lands—swiftly, superficially, and with a lingering restlessness to move on. The traveller, by contrast, seeks communion—a lingering, unspoken dialogue between self and place. It is this communion that brought me, time and again, to Takapuna Beach on Auckland’s North Shore, drawn not merely by its surface allure but by an ineffable pull that seemed to emanate from the depths of time itself.

On an evening that glowed faintly with the blush of the setting sun, I first arrived at this beach, the vast expanse of the Hauraki Gulf stretching before me. Across the waters stood Rangitoto Island, its volcanic summit gazing back at me with an intent that felt almost sentient. It was not merely a geographical feature; it was a silent chronicle of ancient eruptions, of lava flows that had once roared fiercely and unrelentingly. To imagine this serene guardian of the sea as a maelstrom of fire and fury is to marvel at the transformative power of nature. Rangitoto’s last volcanic stirrings, some 400 to 600 years ago, whisper to us of the Earth’s indomitable spirit—a reminder that peace is not the absence of turmoil but its eventual transcendence.

A short distance from the beach lies Lake Pupuke, a heart-shaped jewel nestled in the verdant folds of the land. It, too, owes its existence to volcanic fervour—a crater once seething with molten fire, now a freshwater haven of tranquillity. As I stood at its edge, the water mirrored the twilight sky, creating a tableau so serene that it seemed to offer an eternal reprieve from the harried pace of the modern world.

But it is Takapuna Beach itself that holds me captive, time after time. The volcanic past that forged the land now serves as its foundation for joy and solace. The sands, once kissed by fiery lava, now embrace countless feet—youngsters chasing waves, families building castles of sand and memory, and solitary wanderers like myself, seeking something nameless yet profound. The cool breeze that drifts across the shore feels like a benediction, a soothing contrast to the fiery origins of the place. The waves, playful yet unyielding, embody life itself—capricious, untamed, but endlessly inviting.

And after the beach has worked its magic, there lies the modern charm of Takapuna’s bustling heart. The cafes and markets offer a different kind of nourishment. At the Jam Organic Café, I delight in a hearty vegetarian breakfast, its flavours as wholesome as the air I had breathed by the shore. On Hurstmere Road, Mövenpick tempts with its Swiss chocolate ice cream—a simple pleasure, yet profound in its ability to anchor one in the present moment.

There is a farmers’ market every Sunday, a vibrant mingling of tradition and community. Here, amidst the fresh produce and cheerful chatter, one senses the unbroken link between people and the land. It is this interplay of the ancient and the contemporary, the fiery and the serene, that makes Takapuna Beach a destination not merely for the senses but for the soul.

The past here is not a distant whisper; it is a companion. The volcanic history of Takapuna and its surroundings speaks not of destruction but of renewal, a cycle of endings that births beginnings. And in this, I find a metaphor for life itself. We are all, in some measure, shaped by our own eruptions—by moments of chaos and trial that mould us into something more profound, more resilient.

Takapuna is not merely a place to visit; it is a place to be. It invites reflection, not merely admiration; presence, not merely attendance. And so, like the tide that returns unfailingly to the shore, I too shall return, drawn by a beauty that is as much about the spirit as it is about the sight. In Takapuna, the tourist may find a pleasant memory, but the traveller finds an enduring truth.

#takapuna #takapunabeach #newzealand #auckland

© Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

Founder:  LifeSkills

A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.

The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga. We conduct talks, seminars, workshops, retreats and training.

Please feel free to call/WhatsApp us at +917389938255 or email [email protected] if you wish to attend our program or would like to arrange one at your end.

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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English Literature – Travelogue ☆ New Zealand: A Morning Ritual in the Land of the Flat White # 3 ☆ Mr. Jagat Singh Bisht ☆

Shri Jagat Singh Bisht

☆ Travelogue – New Zealand: A Morning Ritual in the Land of the Flat White # 3 ☆ Mr. Jagat Singh Bisht ☆

During our extended stay in New Zealand, a cherished morning ritual has taken root in our daily lives. Each day begins with a long walk through the serene neighborhoods, the crisp air carrying a hint of the sea and the promise of a new day. Along the way, we’ve adopted the delightful habit of pausing at a local café for a leisurely cup of coffee, a moment of calm amidst our explorations.

New Zealand’s coffee culture is nothing short of a revelation. These cozy neighborhood cafes, each with its unique charm, beckon with their warm and inviting atmospheres. The friendly baristas, often brimming with infectious Kiwi cheer, greet us as though we’re old friends. Inside, the scene is a delightful blend of the old and the new: elderly patrons sipping their morning brews, sharing stories, or indulging in a crossword puzzle, while younger professionals dart in to grab their takeaway cups before heading to work. We often find ourselves thumbing through local newspapers or glossy magazines, adding a touch of nostalgia to our mornings.

When we first arrived, our coffee choices leaned toward familiar favorites like cappuccinos and mochas. But it wasn’t long before the locals’ love for the Flat White intrigued us. A perfect harmony of velvety milk and robust espresso, the Flat White is a testament to New Zealanders’ passion for coffee, and it has since become our drink of choice. Occasionally, we pair it with a warm cheese scone or a sweet muffin, elevating the experience into something almost ceremonial.

Interestingly, cafes here open early, around 7 am, to cater to the early risers and close by 3:30 pm, making evenings without a café outing feel a tad incomplete. How we wish these delightful spots stayed open late, offering the joy of a quiet evening coffee!

Our favorites include Vero Café in Unsworth Shops, Lulu Café in Wairau Valley, and Tob Café in Rosedale. Each has its signature touch, yet they all share a commitment to crafting a superb cup of coffee. Further afield, the coastal charm of Devonport and the bustling energy of Takapuna have provided memorable coffee moments, blending the aromas of fresh brews with the stunning views of the surrounding landscapes.

New Zealand’s coffee culture is steeped in its people’s dedication to quality and community. The Flat White, with its origins hotly debated between Kiwis and Australians, is more than just a drink—it’s a cultural emblem. The sheer number of independent cafes here speaks to a nation that takes its coffee seriously. In fact, New Zealand has more cafes per capita than even New York City, underscoring its status as a global coffee hotspot.

As our days here continue, the morning ritual of walking and pausing for coffee has become more than a habit—it’s a connection to the heart of New Zealand’s culture. Whether in the bustling streets of Auckland or a quiet suburban nook, these moments, and the exceptional coffee that accompanies them, are memories we’ll savor long after we leave.

#coffee #auckland #newzealand

© Jagat Singh Bisht

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≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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English Literature – Travelogue ☆ New Zealand: Beyond the Bucket List # 2 ☆ Mr. Jagat Singh Bisht ☆

Shri Jagat Singh Bisht

☆ Travelogue – New Zealand: Beyond the Bucket List # 2 ☆ Mr. Jagat Singh Bisht ☆ 

Every traveler dreams of visiting New Zealand—a land of dramatic landscapes, endless adventures, and serene escapes.

From the adrenaline-pumping activities in Queenstown to the geothermal wonders of Rotorua, and the breathtaking beaches of the Coromandel Peninsula, this country offers experiences that feed the soul.

Milford Sound’s fiordland landscapes inspire awe, while Dunedin delights with its mix of wildlife, heritage, and stunning scenery.

These well-known destinations have rightfully earned their place on countless bucket lists.

Yet, New Zealand’s charm doesn’t end with its famous landmarks. Beneath its iconic attractions lies a treasure trove of lesser-known, serene spaces waiting to be discovered.

These hidden gems, often tucked away in suburban corners or off the beaten path, provide a different kind of magic—one that soothes the spirit and fosters a deep connection with nature.

Discovering New Zealand’s Hidden Reserves:

With about 10,000 protected areas covering a third of the country, New Zealand is a haven for conservation and nature lovers.

From expansive national parks to pocket-sized reserves, these sanctuaries support the country’s incredible biodiversity while offering visitors a peaceful retreat.

During my stay in Auckland, I stumbled upon one such gem—Unsworth Reserve, nestled in Unsworth Heights in the North Shore.

It was serendipity at its finest; a leisurely walk along Caribbean Drive revealed an inviting pathway leading to this modest suburban oasis.

Unsworth Reserve may not boast the grandeur of Tongariro or Abel Tasman National Parks, but its charm lies in its simplicity.

Winding trails meander through lush greenery, accompanied by the gentle murmur of streams and the melody of birdsong.

The experience feels like a modern take on the Japanese practice of Shinrin-Yoku or forest bathing—a mindful immersion in nature that leaves you refreshed and grounded.

Reviews from fellow explorers echo my sentiments. Families and solo adventurers alike rave about the reserve’s peaceful ambiance, easy accessibility, and the joy of spotting native flora and fauna.

Unsworth Reserve isn’t an isolated marvel, either. Nearby, other suburban sanctuaries like Exeter Reserve, Rewi Alley Reserve, Adah Reserve, Devonshire Reserve, Rosedale Park, and Kauri Glen Reserve offer equally therapeutic escapes.

Each has its own unique character, yet all share the common thread of tranquility.

A Personal Takeaway:

If I had to name the most valuable discovery of my New Zealand journey, it wouldn’t be a sweeping mountain vista or a thrilling bungee jump.

Instead, it would be these small, hidden reserves scattered across the country.

They are accessible, unspoiled, and free from the usual crowds—perfect for moments of solitude and introspection.

Whether you’re looking to escape the hustle of city life or seeking a deeper connection with nature, these reserves offer a quiet, restorative experience.

They remind us that sometimes the most meaningful encounters with a destination happen not at its famous landmarks, but in its overlooked corners.

Protecting the Land:

As we explore these peaceful sanctuaries, we must remember the importance of preserving them.

New Zealand’s protected areas not only safeguard its unique ecosystems but also provide havens for wildlife and future generations of travelers.

Responsible tourism—staying on designated paths, avoiding littering, and respecting local flora and fauna—goes a long way in ensuring these spaces remain untouched.

An Invitation to Wander:

New Zealand invites you to explore its grand landscapes and humble sanctuaries alike.

While the iconic destinations should undoubtedly grace your itinerary, don’t miss the opportunity to step off the tourist trail.

Wander through small reserves, listen to the whispers of the trees, and feel the weight of the world melt away.

These hidden gems may not dominate travel brochures, but they just might leave the deepest imprint on your heart.

#newzealand #naturereserve #auckland #unsworthreserve

© Jagat Singh Bisht

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 38 – संस्मरण – समुद्रतट और लहरों में खोता बचपन ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  – संस्मरण – समुद्रतट और लहरों में खोता बचपन)

? मेरी डायरी के पन्ने से # 38 – संस्मरण – समुद्रतट और लहरों में खोता बचपन ?

सागर का जल और उफ़नती लहरें मेरे लिए सदा आकर्षण का केंद्र रही हैं। देश -विदेश में कई स्थानों पर समुद्र तट देखने का आनंद मिला है पर जो सुख अपने देश के समुद्रतट पर खड़े रहकर आनंद मिलता है वह अतुलनीय है, वह अन्यत्र कहीं नहीं। हम भारतवासी भाग्यशाली हैं जो देश की तीन सीमाएँ समुद्र से घिरी हुई हैं ।

इस बार फिर एक बार गोवा आने का अवसर मिला। इस बार मन भरकर सागर के अथाह जल का आनंद लेने के लिए ही हम तीस वर्ष बाद फिर यहाँ लौट आए हैं। जवानी में गोवा आने पर हिप्पियों के दर्शन हुए थे पर अब ढलती उम्र में आनंद की सीमा कुछ और थी। इस बार पूरा परिवार साथ में गोवा आया था। बेटियाँ, दामाद और नाती -नातिन! अहा कैसा सुखद अनुभव ! कहीं और नज़र न गई।

मैं अथाह जल को निहार रही थी । अस्ताचल सूर्य की किरणें जल में प्रतिबिंबित होकर जल को सुनहरा बना रही थीं। फ़ेनिल लहरें तट की ओर तीव्र गति से कदमताल करती हुई बढ़ती आ रही थीं जैसे स्कूल की घंटी बजते ही उत्साह और उमंग से परिपूर्ण होकर छात्र अपने घर की दिशा में दौड़ने लगते हैं। तट को छूकर लहरें मंद गति से समुद्र की ओर इस तरह लौटती हैं मानो गृह पाठ न करने की गलती का छात्र को अहसास है और उसने अपनी गति धीमी कर दी है। इन लौटती लहरों का सामना उफ़नती दौड़ती लहरों से होती है और वे फिर उनके साथ तट की ओर द्रुत गति से बढ़ने लगती हैं मानों गृहपाठ पूर्ण कर देने का मित्रों ने भार ले लिया हो! मन इस दृश्य से प्रसन्न हो रहा था। शिक्षक का मन सदा चहुँ ओर छात्रों को ही देखता है। मैं अपवाद तो नहीं।

मन-मस्तिष्क के भीतर भी तीव्र गति से कुछ हलचल- सा हो रहा था। मन लहरों के साथ दौड़ रहा था।

अचानक किसी ने कहा आओ न पानी में चलें… और मैंने अपने बचपन को पानी की ओर बढ़ते देखा। लहरें तीव्रता से आईं मेरे नंगे पैरों को टखने तक भिगोकर लौट गईं। पैरों के नीचे मुलायम, स्निग्ध, गीली रेत थी। लहरों के लौटते ही वे रेत खिसकने लगीं और ऐसा लगा जैसे मैं भी चल रही हूँ। यह मन का भ्रम था। मैं अब भी तटस्थ वहीं खड़ी थी पर मेरा मन मीलों दूर पहुँच चुका था।

मेरा बचपन मेरी आँखों के सामने नृत्य कर रहा था। कभी पानी में लहरों के आते ही बैठ जाता तो कभी छलाँग मारने लगता। कभी सूखी लकड़ी के टुकड़ों को पानी में फेंकता तो कभी मरे हुए छोटे स्टार फिश को जीवित करने के उद्देश्य से लहरों की ओर फेंक देता। बचपन की सारी हरकतें आँखों के सामने रीप्ले हो रही थीं और मैं मोहित -सी खड़ी उसे निहार रही थी।

अचानक एक मधुर सी आवाज़ ने मेरा ध्यान भंग किया और पास में रेत से मेरे ही पैर के चारों ओर किला बनने लगा। नन्हे हाथ रेत को हल्के हाथों से थपथपा रहे थे जैसे माँ अपने नन्हे बच्चे को थपथपाकर सुलाती है। फिर उस पर कुछ सूखी रेत डाली गई। आस- पास से छोटे बड़े शंख चुनकर सजाए गए। नारियल के पेड़ की एक सूखी डंठल को किले पर पताका के रूप में सजाया गया। मैं मूर्तिवत काफी समय तक वैसी ही खड़ी रही। फिर बड़ी सावधानी से मैंने अपना पैर निकाल लिया। किला मजबूत खड़ा था। दो नन्हे हाथ तालियाँ बजाने लगीं। एक मीठी सी किलकारी सुनाई दी।

सूर्यास्त हो रहा था, आसमान नारंगी छटा से भर उठा, फिर बादलों के टुकड़ों के बीच से हल्का गुलाबी रंग झाँकने लगा। फिर सब श्यामल हो उठा। अथाह सागर का जल कहीं अदृश्य- सा हो उठा केवल भीषण नाद करती हुई श्वेत लहरें निरंतर चंचल बच्चों की तरह इधर -उधर दौड़ती दिखाई देने लगीं। अचानक सागर की लहरें अंधकार में और अधिक द्रुत गति से तट की ओर बढ़ने लगीं, सफ़ेद, फ़ेनिल जल सुंदर और आकर्षक दिखने लगा थोड़ा भयावह भी! समस्त परिसर को कालिमा ने ग्रस लिया।

अब तक जिस तट पर ढेर सारे बच्चे व्यस्त से नज़र आ रहे थे, गुब्बारेवाले, रंगीन बल्ब, जलने बुझनेवाले लाल, पीले, हरे उछालते खिलौनेवाले, घंटी बजाकर साइकिल पर आइसक्रीम बेचनेवाले वे सब लौटकर चले गए। अब तट पर रह गई थी मैं और ढेर सारे किले। एकांत – सा छा गया। वातावरण ठंडी हवा से भर उठा और तेज़ लहरों की ध्वनि नाद मंथन करती हुई और स्पष्ट हो उठी।

अचानक एक ऊँची लहर ने मेरे घुटने तक आकर मुझे तो भिगा ही दिया साथ ही साथ मेरी तंद्रा भी टूटी और नन्हे हाथ से बने उस किले को लहरें बहाकर ले गईं। अब रात भर ढूँढ़-ढूढ़कर लहरें तट पर बनी बाकी सभी किलों को तोड़ देंगी। कितना कुछ लिखा, बनाया गया था रेत की इस समतल भूमि पर ! कितनी आकृतियों ने अपना सौंदर्य बिखेर दिया था यहाँ ! अब सब मिट जाएगा। दूसरे दिन प्रातः फिर एक स्वच्छ सपाट तट यात्रियों को फिर तैयार मिलेगा।

किसी मधुर, मृदुल स्वर ने मुझे पुकारा, नानी चलो न अंधेरा हो गया ……

मेरे बचपन ने फिर एक बार मेरी उँगलियाँ थाम लीं। सुखद, भावविभोर करनेवाले अनुभव संजोकर मैं होटल के कमरे में लौट आई।

नीरवता से कोलाहल के जगत में। संभवतः जीवित रहने के लिए इन दोनों की आवश्यकता होती है। वरना जीवन नीरस बन जाता है।

© सुश्री ऋता सिंह

8/11/21, 8pm

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा – भाग-५ ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। आज से प्रत्यक शनिवार प्रस्तुत है  यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा)

? यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा – भाग-५ ☆ श्री सुरेश पटवा ?

सुबह का नाश्ता और रात्रिभोज होटल के पैकेज में शामिल है। सभी एक साथ नाश्ता और रात्रिभोज करते हैं। वहीं अगली कार्ययोजना तय हो जाती है। राजेश जी का संदेश रात को ही प्राप्त हो गया था कि सुबह आठ बजे होटल के डाइनिंग एरिया में नाश्ता लेकर साढ़े आठ बजे बस में सवार होना है। नाश्ते में स्पंजी डोसा, इडली, बड़ा, पूड़ी, सब्ज़ी के अलावा ब्रेड बटर ऑमलेट भी थे। मीठे में सूजी का हलवा स्वादिष्ट लगा। नाश्ते के समय यह ध्यान रखना ज़रूरी होता है कि यदि सभी आइटम चखते जाएँ तो अति भोजन होना ही है। मुफ्त से लगने वाले यानी पैकेज में शामिल नाश्ता करते समय पर्यटक एक गलती अक्सर करते हैं। तुरंत पैसे तो देने नहीं हैं या पैसे तो दे ही चुके हैं। इसलिए खींच कर खा लेते हैं। जिसका परिणाम एक तो हाज़मा ख़राब और दूसरा जब बस में बैठकर नज़ारे देखना है तब सीट पर खर्राटे भरते हैं। हम तो खाने और सोने आए हैं। भूगोल-इतिहास किताबी बातें हैं। पर्यटन के दौरान इस प्रवृत्ति से बचेंगे तो घूमने का आनंद उठा पाएंगे। 

समूह में परस्पर स्नेहिल संबंध कायम हो गए हैं। समूह के सभी सदस्य सकारात्मक सोचधारी हैं। क्षुद्र स्वार्थ का द्वेषपूर्ण भाव या शिकायती लहजा किसी में भी नहीं दिखता। इस कारण पूरी यात्रा में अनबन जैसी बातें जो कि समूह प्रबंधन में अक्सर दिखती हैं, अब तक की यात्रा के दौरान नदारत हैं। सब हनुमान भक्ति में डूबे हैं। बस में सुबह की यात्रा अभिष के सस्वर हनुमान चालीसा गायन से शुरू होती है। बाक़ी सभी यात्री उनसे स्वर मिलाकर भक्तिपूर्वक गायन में हिस्सा लेते हैं। उसके बाद बीच-बीच में मज़ाक़ ठिठोलियों की फुहारें छूटती रहती हैं। कोई व्यक्तिगत निजी टिप्पणी नहीं होती है।

ड्राइवर के बराबर सीट पर बैठ ख़ुद डॉ.राजेश श्रीवास्तव समूह को नेतृत्व प्रदान करते हैं। उन्होंने गाइड चंदू को भी साथ बिठा लिया है। जिससे उन्हें पर्यटन स्थलों पर पहुँचने, रुकने और आगे बढ़ने में सुभीता है। उनके पीछे सिंगल सीट पर कंडक्टर की भूमिका में सुरेश पटवा सीटी बजाकर समूह को नियंत्रित करते हैं। उनके समानांतर कवियत्री रूपाली अपनी शिक्षिका मम्मी श्रीमती मंजु श्रीवास्तव के साथ हैं। उनके पीछे डॉ. जवाहर कर्णावत और अनुभूति शर्मा विराजमान हैं। उसके बाद घनश्याम मैथिल और अभिष श्रीवास्तव बैठे हैं। सिंगल सीट पर अरुण गुप्ता और उनके पीछे डॉक्टर दिनेश श्रीवास्तव जमे हैं। पिछली सीट पर श्री विजय शंकर चतुर्वेदी, श्री सनोज तिवारी, डॉ जयशंकर यादव और गोपेश बाजपेयी बैठे हैं।

आज हम्पी भ्रमण है। भूगोल इतिहास किसी भी पर्यटन की जान होते हैं। यदि इनका ज्ञान और भान न हो तो पर्यटन “ये खाया-वो खाया” और ‘ये खरीदा-वो खरीदा’ का मुरब्बा बनकर रह जाता है। हमने दक्षिण भारत का राजनीतिक भूगोल याद किया। दक्षिण भारत में पाँच राज्य आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु और तेलंगाना के साथ तीन केंद्र शासित प्रदेश अंडमान निकोबार, पुडुचेरी और लक्षद्वीप शामिल हैं। जहाँ की आबादी की भाषाएँ द्रविड़ परिवार की हैं। हिंदी सभी जगह समझी जाती है। हालाँकि राजनीति ने बहुत नीबू निचोया पर हिन्दुस्तानी कढ़ाई में हिंदी का खालिस दूध मद्धिम आँच में मलाईदार होता जा रहा है। राज्य की सीमाएँ आम तौर पर भाषाई आधार पर हैं।

श्रीराम ने भ्राता लक्ष्मण और सीता जी के साथ नासिक के पास पंचवटी में आरण्यक समय बिताया था। वहीं से रावण ने सीता जी का अपहरण किया था। जिनकी खोज में वे भटकते हुए श्रीराम-लक्ष्मण किष्किन्धा खंड के पम्पा क्षेत्र पहुँचे थे, जहाँ उनकी भेंट हनुमान जी से हुई थी। हम उसी स्थान पर हैं। श्री राम सेना सहित यहाँ से मदुरा होते हुए रामेश्वरम पहुँचे थे। रामायण काल में यह क्षेत्र बियाबान जंगल था। वानर मति और गति से ही इस क्षेत्र में पार पाया जा सकता था। गोदावरी, कृष्णा और कावेरी नदियों पूर्व से पश्चिम बहती हैं।

श्रीमती मंजू श्रीवास्तव और उनकी पुत्री रूपाली सबसे आगे की दोहरी सीट पर हैं। उनके बाजू वाली सिंगल सीट पर हम जमे हैं।  मंजू जी हमको पटवा भाई साहब बुलाने लगी हैं तो इस हिसाब से रूपाली ने हमसे मामाजी का रिश्ता बना लिया है। रूपाली ने पूछा – मामा जी, दक्षिण भारत का भूगोल-इतिहास  बताइए न। छेड़ने भर की देर थी। अपना रिकॉर्ड चालू हो गया।

सुनो रूपाली, दक्षिण भारत में छह  पारंपरिक भौगोलिक क्षेत्र हैं।

पीछे से आवाज आई, यह नहीं चलेगा। थोड़ा जोर से बोलिए, हम भी सुनेंगे। हमने तिरछा होकर वॉल्यूम तेज कर बोलना शुरू किया।

महाराष्ट्र से नीचे दक्षिण में उतरते ही कर्नाटक में- दक्कन के पठार का मैदानी क्षेत्र बयालुसीमे, केनरा या करावली तट, समुद्री तट और पठार के बीच सह्याद्रि पहाड़ियाँ मालेनाडु, गोदावरी नदी के उत्तर में स्थित क्षेत्र, मैसूर के आसपास दक्षिण कर्नाटक मुलकानाडु। धारवाड के आसपास उत्तरी कर्नाटक, जिस क्षेत्र में हम्पी स्थित है। कोंकण तटीय क्षेत्र, जिसमें तटीय महाराष्ट्र, गोवा और तटीय कर्नाटक का हिस्सा शामिल है। रायचूर दोआब, जिसमें ज्यादातर उत्तरी कर्नाटक, कृष्णा और तुंगभद्रा नदियों के बीच का क्षेत्र तुलु नाडु, उडुपी और दक्षिण केनरा के तटीय जिले आते हैं।

जब हमने थोड़ी सांस ली तो अनुभूति बोलीं – आपको इतना याद कैसे रहता है। हमने कहा- हम भूलते नहीं है इसलिए याद रहता है। सब ठहाकर हँस दिए।

हमारे प्रवचन फिर शुरू हुए, आंध्र प्रदेश में- कम्मनडु – कृष्णा नदी के दक्षिण में नेल्लोर तक का क्षेत्र, कोनसीमा – गोदावरी जिले में गोदावरी नदी की सहायक नदियों के बीच का तटीय क्षेत्र, कोस्टा – आंध्र प्रदेश के तटीय जिले, रायलसीमा – जिसमें कुरनूल, कडप्पा, अनंतपुरम और चित्तूर जिले शामिल हैं। उत्तरांध्र – आंध्र प्रदेश का उत्तरी भाग, जिसमें तीन जिले श्रीकाकुलम, विजयनगरम और विशाखापत्तनम  शामिल हैं। वेलानाडु – अर्थात् गुंटूर से श्रीशैलम तक कृष्णा नदी के तट पर स्थित स्थान।

चलिए अब तमिलनाडु चलते हैं वहाँ- चेरा नाडु – पश्चिमी तमिलनाडु और अधिकांश आधुनिक केरल, कोंगु नाडु – कोयंबटूर के आसपास पश्चिमी तमिलनाडु, चेट्टिनाडु – शिवगंगा के आसपास दक्षिणी तमिलनाडु, चोल नाडु – तंजावुर के आसपास मध्य तमिलनाडु,  पलनाडु – उत्तरी तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश के दक्षिणी जिले, पंड्या नाडु – मदुरै के आसपास दक्षिणी तमिलनाडु, उत्तरी सरकार – ब्रिटिश भारत में मद्रास राज्य में मुस्लिम प्रशासनिक इकाइयाँ, अर्थात् चिकाकोले, राजमुंदरी, एलोर, कोंडापल्ली और गुंटूर, टोंडाई नाडु – कांचीपुरम के आसपास उत्तरी तमिलनाडु, तिरुविथमकूर या त्रावणकोर- दक्षिणी केरल और तमिलनाडु का कन्याकुमारी जिला, दक्षिण मालाबार – केरल का उत्तर-मध्य क्षेत्र, जो कोरापुझा और भरतप्पुझा नदियों के बीच स्थित है।

इतने कठिन क्षेत्रों का नाम सुनते-सुनते कुछ साथी बाहर झांकने लगे थे। तब तक हमारा वर्णन केरल तटीय नाडू पर पहुँच चुके थे।

केरल- कोचीन – केरल का क्षेत्र जो भरतप्पुझा और पेरियार नदियों के बीच स्थित है, कभी-कभी पम्बा तक फैला हुआ है। उत्तरी मालाबार – जो मैंगलोर और कोझिकोड के बीच स्थित है, यह एझिमाला साम्राज्य, मुशिका राजवंश और कोलाथुनाडु की पूर्व त्रावणकोर रियासत थी।

अब सुनिए उस क्षेत्र को जिसे अंग्रेजों और फ्रांसीसियों ने सबसे पहले दबोचा था। अर्थात कोरोमंडल तट – दक्षिण तटीय आंध्र प्रदेश, उत्तरी तटीय तमिलनाडु और पुडुचेरी केंद्र शासित प्रदेश दक्कन पठार – आंतरिक महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश और कर्नाटक को कवर करने वाला पठारी क्षेत्र। इसमें मराठवाड़ा, विदर्भ, तेलंगाना, रायलसीमा, उत्तरी कर्नाटक और मैसूर क्षेत्र शामिल हैं।

अब चलते हैं द्वीप समूह- अंडमान और निकोबार द्वीप समूह भारत के पूर्वी तट से बहुत दूर, बर्मा के तेनासेरिम तट के पास स्थित है। भारत की मुख्य भूमि का सबसे दक्षिणी छोर हिंद महासागर पर कन्याकुमारी (केप कोमोरिन) है। लक्षद्वीप के निचले मूंगा द्वीप भारत के दक्षिण-पश्चिमी तट से दूर हैं। श्रीलंका दक्षिण-पूर्वी तट पर स्थित है, जो पाक जलडमरूमध्य और श्रीराम के पुल के नाम से जाने जाने वाले निचले रेतीले मैदानों और द्वीपों की श्रृंखला द्वारा भारत से अलग किया गया है।

आज की योजना कुछ इस तरह है कि पहले तुंगभद्रा नदी किनारे गुफा दर्शन फिर हम्पी भ्रमण। अतः सबसे पहले कमलापुर पहुँचे, जहाँ तुंगभद्रा नदी के किनारे एक गुफा है। किंवदंती है कि लंका अभियान के बाद इसी गुफा में विजयी सेना की सभा में श्रीराम ने सुग्रीव का किष्किन्धा की गद्दी पर राज्यारोहण किया था। बाली का पुत्र अंगद भी दल बदल करके सुग्रीव की पार्टी से रक्षामंत्री बना था। गुफा में अंदर जाकर देखा कि शायद सुग्रीव वंश का कोई सांसद या विधायक अनुयायियों को जातिगत और वंशगत राजनीतिक समीकरण समझा रहा हो। परंतु वहाँ बोर्ड लगा था। सावधान, भारत की राजनीतिक गुत्थियों से भरी इस गुफा में आगे जाना मना है। कारोबार में लेनदेन बराबर होना चाहिए। धर्म के शोकेस मे धन का घुन लग चुका है।

क्रमशः… 

© श्री सुरेश पटवा 

भोपाल, मध्य प्रदेश

*≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा – भाग-४ ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। आज से प्रत्यक शनिवार प्रस्तुत है  यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा)

? यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा – भाग-४  ☆ श्री सुरेश पटवा ?

कोप्पल नगर के इतिहास की जानकारी शतवाहन, गंग, होयसल और चालुक्य राजवंशों के साम्राज्यों से मिलती है। “कोप्पल” का उल्लेख राजा नृपथुंगा के शासनकाल के दौरान महान कन्नड़ कविराजमार्ग (814-878 ईस्वी) की काव्य कृति “विद्या महा कोपना नगर” में मिलती है। मौर्य काल में इस क्षेत्र में जैन धर्म का विकास हुआ। चंद्रगुप्त मौर्य के पुत्र और अशोक के पिता बिंदुसार ने जैन धर्म अपना लिया और दक्षिण भारत में पहुँच इसी क्षेत्र में आकर प्राण त्यागे। इसलिए, इसे “जैनकाशी” भी कहा जाता है। बारहवीं शताब्दी में समाज सुधारक बसवेश्वर का वीरशैववाद लोकप्रिय हुआ। स्थानीय लोगों में कोप्पल के वर्तमान गवी मठ का बड़ा आकर्षण है।

कोप्पल में गंगावती तालुक का अनेगुंडी नामक स्थान महान विजयनगर राजवंश की पहली राजधानी था। पुराना महल और किला अभी भी मौजूद है जहाँ हर साल “अनेगुंडी” वार्षिक उत्सव मनाया जाता है। कोप्पल जिले के अन्य महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्थान हुलिगी, कनकगिरी, इटागी, कुकनूर, मदीनूर, इंद्रकीला पर्वत, पुरा, चिक्काबेनाकल और हिरेबेनाकल हैं।

आज़ादी से पहले कोप्पल हैदराबाद के निज़ाम के अधीन था। यद्यपि भारत को 15 अगस्त 1947 को आज़ादी मिली, चूँकि कोप्पल हैदराबाद क्षेत्र का हिस्सा था, इसलिए क्षेत्र के लोगों को हैदराबाद निज़ाम के चंगुल से आज़ादी पाने के लिए और संघर्ष करना पड़ा। वल्लभभाई पटेल और व्ही.पी. मेनन के भागीरथी प्रयासों के बाद 18 सितम्बर 1948 को हैदराबाद-कर्नाटक को निज़ाम से आज़ादी मिल गयी। तब से 01-04-1998 तक, कोप्पल जिला गुलबर्गा राजस्व प्रभाग के रायचूर जिले में था। अब खुद एक ज़िला मुख्यालय है। सभी साथी थके हैं। बस में एक दूसरे से टिक कर हल्कीफुल्की नींद निकाल रहे हैं। बस सिक्स लेन सड़क पर सरपट भाग रही है। हमारी नज़र ड्राइवर की नज़र पर है। वह पलक नहीं झपक रहा है। उससे इलाक़े की जानकारी लेते चल रहे हैं।

भौगोलिक दृष्टि से कोप्पल ज़िले के एक तरफ चट्टानी भूभाग है और दूसरी तरफ कई एकड़ सूखी भूमि है, जिसमें ज्वार बाजरा मक्का और मूंगफली की फसलें उगाई हैं। किसानी मुख्य रूप से मानसून पर निर्भर है, अभी भी यहाँ जुताई के तरीकों में  बैल-हल का उपयोग करते दिखते हैं। हालाँकि, बैलगाड़ी के पहियों में लोहे की जगह टायर लग गए  हैं। हाल ही में उनमें से कुछ ने उच्च तकनीक सिंचाई प्रणाली में कदम रखा है, खासकर पड़ोसी शहर मुनीराबाद से एक विशाल बांध से थुंगा-भद्रा नदी के पानी को मोड़ने के बाद शहर अपनी जल समस्या का समाधान करने लगा है, फलस्वरूप वर्तमान में अनार, अंगूर और अंजीर यहाँ से निर्यात किया जाता है। थुंगा-भद्रा नदियाँ मिलकर हिन्दी में तुंगभद्रा नदी का निर्माण करती हैं।

रास्ते में शाम गहराने लगी तो बादलों के विभिन्न रंगों से आसमान सजने लगा। दक्षिण भारत में इन दिनों बादलों की छटा बिलकुल अनोखी होती है। हिंदी फ़िल्मों में यहीं के बादलों की रील उपयोग की जाती थी। इसीलिए मद्रास की जैमिनि फ़िल्म कंपनी की फ़िल्मों में बादलों की मनभावन छटा देखने को मिलती थी। हमने बस से नीचे उतर कर और चलती बस में सफ़ेद और काले बादलों पर डूबते सूर्य की गुलाबी रोशनी में अद्भुत दृश्य देखे। गुलाबी बादलों की उड़ान को नज़रों में बसाते हुए हम्पी पहुँचने लगे।

हुबली से हॉस्पेट पहुँचते-पहुँचते रात के नौ बज गए। होटल हम्पी इंटरनेशनल में डेरा डाला। यहाँ मुंबई से छात्रों का एक बड़ा समूह रुका है। खूब चहल-पहल है। उनकी मस्ती और धमाल माहौल को जीवंत बनाए है। हमारे कुछ साथियों को शोर पसंद नहीं है, वे नाक-भों सिकोड़ रहे हैं। हमने बच्चों से बातें कीं तो उन्होंने खुश होकर हिस्सा लिया। वे मुंबई से स्टडी टूर पर यहाँ घूमने आए हैं। सभी टीनेजर्स हैं, इसलिए नाच-गाना, उधम-सुधम होना लाज़िमी है। नहीं तो, मातापिता के नियंत्रण से बाहर होने का क्या मतलब है। भोजन के बाद 15 मिनट की एक बैठक हुई जिसमें रामायण सम्मेलन के आयोजन और भ्रमण के विषय में आवश्यक दिशा निर्देश दिए गए। हम्पी इस हॉस्पेट नामक तालुक़ा बस्ती से 12 किलोमीटर दूर है। कल वहाँ घूमना है। साथियों के निवेदन पर हम्पी के बारे में उनको बताया।

क्रमशः… 

© श्री सुरेश पटवा 

भोपाल, मध्य प्रदेश

*≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 35 – उत्तराखंड – भाग – 2 ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  – संस्मरण – उत्तराखंड – भाग – 2)

? मेरी डायरी के पन्ने से # 35 – उत्तराखंड – भाग – 2 ?

इस बार उत्तराखंड के कुछ हिस्सों की सैर करने का मन बनाया और बिटिया के पास देहरादून आ गए।

हम कानाताल से लैंडोर जा रहे हैं। सड़क पर बहुत भीड़ थी। गाड़ियाँ तो थीं ही साथ में पैदल चलने वाले और मोटरबाइक से यात्रा करनेवाले सभी सड़क पर ही थे।

शनिवार -रविवार को इन जगहों पर बड़ी भीड़ होती है। आज तो सोमवार का दिन है तो फिर इतनी जमकर भीड़ क्यों है भला? ड्राइवर ने बताया कि अब चार पाँच दिन सब जगह दीवाली की छुट्टी है। आस -पास रहनेवाले रोज़मर्रा के जीवन से थोड़ा हटकर आनंद लेने के लिए लैंडोर के लिए निकल पड़ते हैं।

सड़क पर खचाखच भीड़ है। गाड़ियाँ हिल ही नहीं रही हैं। जाम लगने का एक और कारण था, सड़क की दाईं ओर किसी घर में पिछली रात शायद शादी का कार्यक्रम था। आस -पास के घरों को भी दो रंगों के सैटिन के कपड़ों से सजाया गया था। घर के आस पास न केवल घर वालों की भीड़ थी बल्कि गाने-बजाने वालों की स्पीकर लगाई गाड़ी भी खड़ी कर दी गई थी जिसके कारण यातायात में व्यवधान उत्पन्न हो रहा था पर पहाड़ी जगह के लोग न तो ऊँची आवाज़ में बोलते हैं न गालीगलौज ही करते हैं।

अक्सर सुनने में आता है कि भारतीयों में सहिष्णुता का अभाव है। अगर किसी को सच्चे अर्थ में सहिष्णुता की परिभाषा जानने की इच्छा हो तो वह पहाड़ी लोगों के बीच आ जाएँ।

अब हमारी गाड़ी ठीक विवाह वाले घर से थोड़ी दूर हटकर रुक गई। मेरा ध्यान बाहर की ओर गया। मोटरबाइक वाले चढ़ाई की ओर जा रहे थे और गाड़ी रुकी हुई थी तो वे निरंतर गाड़ी रेज़ कर रहे थे ताकि गाड़ी बंद न पड़ जाए। इस वजह से काफी धुआँ निकल रहा था। हमारी गाड़ी की खिड़कियाँ बंद करवा दी गईं। इस पुरी यात्रा में हमने ए.सी का उपयोग किया ही न था क्योंकि पहाड़ी शुद्ध हवा का आनंद ही कुछ और है। फिर पहाड़ों को प्रदूषित करने से भी बचना था।

मैं मन ही मन मोटर साइकिल से निकलनेवाले काले धुएँ को देख असंतुष्ट हो रही थी कि किस तरह स्वच्छ पर्यावरण को दूषित किया जा रहा है। मैंने जब खिड़की बंद करने से रोका क्योंकि ए.सी चलाना भी तो पर्यावरण को दूषित करने का ही एक दूसरा माध्यम है तो बाप -बेटी ( हम सब साथ सफ़र कर रहे थे)बोल पड़े “तुमको ही तकलीफ़ होगी फिर दमा ज़ोर पकड़ेगा। ” मैं चुप हो गई।

कभी -कभी अपने उसूलों और सिद्धांतों के साथ समझौता करना पड़ता ही पड़ता है और तब अपनी अवसरवादी वृत्ति सामने खड़ी हो जाती है यह स्मरण कराने के लिए कि कुछ हद तक हम सभी स्वार्थी हैं। मैं अपवाद नहीं बन सकती।

खैर गाड़ी रुकी हुई थी। भीतर एक विचारों का जंग चल रहा था और नयन बाहर के दृश्यों पर नज़रें टिकाए हुए थे।

शादीवाले घर का उत्सव समाप्त हो गया। एक सजा सजाया मिट्टी का घड़ा रखा था। एक दुबला पतला कुत्ता अपने सामने के पैरों को घड़े के किनारे पर टिकाकर कुछ खा रहा था। शायद घड़े में रखे गए भोजन की उसे गंध आ गई थी। मुँह निकालकर जीभ से उसने अपने जबड़े चाटे। पुनः मुंडी उसने घड़े में घुसा दी।

घड़ा शायद विवाह में किसी काम के लिए रखा गया था। अब उसकी ज़रूरत पूरी हो गई तो उसमें बचा हुआ भोजन डाल दिया गया था।

कुत्ता भोजन का भरपूर आनंद ले रहा था। भोजन अब घड़े के आधे हिस्से तक पहुँच गया और कुत्ता गर्दन तक उसमें घुस गया। घड़ा सामने की ओर लुढ़क गया। अब कुत्ते का दम घुटने लगा तो वह घड़े से सिर निकालने के लिए छटपटाने लगा। काफ़ी समय तक वह छटपटाता रहा। मैं सुन्न -सी असहाय उसकी ओर अपलक दृष्टि गड़ाए बैठी उसे देख रही थी। इतने में एक चौदह-पंद्रह वर्ष का बालक एक मोटा डंडा लाया और कपाल क्रिया करने जैसा उस घड़े पर एक वार किया।

घड़ा टूटकर तीन भागों में विभक्त हो गया। भूखा कुत्ता अचानक घड़े पर डंडे की चोट लगने और उसके फूटने पर भयभीत हुआ। अपनी पिछली टाँगों के बीच पूँछ दबाकर थोड़ी दूर वह हट गया। पर वह निरंतर अभी भी जीभ निकाले जबड़ा चाट रहा था।

घड़े के फूटने पर उसमें पड़ा भोजन बाहर झाँकने लगा और दो कुत्ते अब उसका आनंद लेने उस पर टूट पड़े। भयंकर पीड़ा सहन कर जो कुत्ता अब तक अपनी मुंडी उस घड़े में फँसाए बैठा था उसकी तंद्रा टूटी। वह भूख और अधिकार के भाव से उन दोनों कुत्तों पर टूट पड़ा। वे दोनों वहाँ से थोड़ी दूरी पर जाकर खड़े हो गए और ललचाई दृष्टि से भोजन को देखने लगे।

कुत्ता तीव्र गति से भोजन खाता रहा। सम्पूर्ण भोजन पर वह अब अपना अधिकार समझता रहा। दूसरे कुत्ते पूँछ हिलाते हुए पास भी आते तो वह गुर्राता। अब इस मटके पर वह हेकड़ी जमाए बैठा था। पेट तो भर गया था शायद पर कल के लिए भी भोजन संचित करके रखने की वृत्ति अब कुत्ते में भी दिखने लगी। लोभ तो अपरिमित है और तृष्णा दुष्पूर!

गाड़ी अब आगे बढ़ने लगी। मन यह सब देखकर अशांत तो हुआ पर एक बात से प्रसन्नता हुई कि मनुष्य प्राणियों के कष्ट के प्रति आज भी सजग है वरना भोजन के लालच में कुत्ता दम घुटकर परलोक सिधार जाता।

© सुश्री ऋता सिंह

27/10/24, 6.40pm

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा – भाग-३ ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। आज से प्रत्यक शनिवार प्रस्तुत है  यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा)

? यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा – भाग-३  ☆ श्री सुरेश पटवा ?

सतपुड़ा पर्वतमाला दक्कन पठार के उत्तरी विस्तार को और हिन्द महासागर दक्षिणी छोर को परिभाषित करती है। पश्चिमी घाट, पश्चिमी तट से मिलकर दक्षिणी पठार की एक सीमा को चिह्नित करते हैं। पश्चिमी घाट और अरब सागर के बीच हरी-भरी भूमि की संकीर्ण पट्टी कोंकण क्षेत्र है; वही दिखने लगा है। पश्चिमी घाट दक्षिण की ओर बढ़ते हुए, कर्नाटक तट के साथ मालनाड (केनरा) क्षेत्र का निर्माण करते हैं, और नीलगिरि पहाड़ों पर समाप्त होते हैं, जो पश्चिमी घाट का पूर्वी विस्तार है। नीलगिरी लगभग उत्तरी केरल और कर्नाटक के साथ तमिलनाडु की सीमाओं पर एक अर्धचंद्राकार रूप में फैली हुई पर्वत श्रृंखलाएँ हैं, जिसमें पलक्कड़ और वायनाड पहाड़ियाँ और सत्यमंगलम पर्वतमालाएँ शामिल हैं। तमिलनाडु- आंध्र प्रदेश सीमा पर तिरूपति और अनाईमलाई पहाड़ियाँ इस श्रेणी का हिस्सा हैं। इन सभी पर्वत श्रृंखलाओं द्वारा सी-आकार से घिरा विशाल ऊंचा क्षेत्र है। पूर्व में पठार की सीमा पर कोई बड़ी ऊंचाई नहीं है। धरातल पश्चिमी घाट से पूर्वी तट तक धीरे-धीरे ढलान पर है। इसीलिए कृष्णा और कावेरी नदियाँ पश्चिम से पूर्व दिशा में बहकर बंगाल की खाड़ी में समाहित होती हैं।

हवाई जहाज़ ने पश्चिमी तट को अलविदा कह दक्कन के पठार का रुख़ किया है। आसमान साफ़ होने से हरीभरी भूमि पर जलाशय और नदियाँ सूर्य की तीखी किरणों से चमकती दिख जाती हैं। बीच में कुछ छोटी बस्तियाँ और खेतों की रंगोली भी दिखती हैं। दक्कन का पठार महाराष्ट्र, कर्नाटक और तमिलनाडु राज्यों के बड़े हिस्से को परिभाषित  करता है, जबकि केरल, तेलंगाना और आंध्र समुद्र तटीय क्षेत्र हैं। भूगोलवेत्ता बताते हैं कि दक्कन के इस विशाल ज्वालामुखीय बेसाल्ट बेड का निर्माण विशाल डेक्कन ट्रैप विस्फोट से 67 मिलियन वर्ष पहले क्रेटेशियस काल के अंत में हुआ था। कई हज़ार वर्षों तक चली ज्वालामुखीय गतिविधि से परत दर परत बनती गई। जब ज्वालामुखी शांत हो गए, तो उन्होंने ऊंचे इलाकों का एक क्षेत्र छोड़ दिया, जिसके शीर्ष पर आमतौर पर एक मेज की तरह समतल क्षेत्रों का विशाल विस्तार निर्मित हुआ। इसलिए इसे “टेबल टॉप” के नाम से भी जाना जाता है। भूविज्ञानियों ने डेक्कन ट्रैप का निर्माण करने वाला ज्वालामुखीय हॉटस्पॉट हिन्द महासागर में वर्तमान रियूनियन द्वीप के नीचे स्थित होने की परिकल्पना की है।

हमारे एक साथी ने हमसे पूछा कि हम लोग हुगली कब पहुँचेंगे। हमने उन्हें बताता कि हम हुबली जा रहे हैं, हुगली नहीं। उन्होंने फिर पूछा हुबली जा रहे हैं या हुगली, स्थान का सही नाम क्या है। उनको बताया कि भैया हुबली दक्षिण भारत में एक जगह का नाम है जहां हम जा रहे हैं। वहाँ से वातानुकूलित बस में बैठ कर बेल्लारी ज़िले के हॉस्पेट पहुँचेंगे। जबकि हमारी गंगा मैया मुर्शिदाबाद से आगे कलकत्ता पहुँच कर हुगली नाम से जानी जाती हैं। उनके दिमाग़ की बत्ती जली तो बोले- हाँ मुझे पता था, कन्फर्म कर रहा था।

हम साढ़े चार बजे हुबली पहुँच गए । समूह के दो यात्री हैदराबाद उड़ान से पहुँच रहे थे। उनकी उड़ान शाम को पाँच बजे हुबली पहुँची। उनके पहुँचने पर साढ़े पाँच बजे हुबली से हम्पी के लिए रवाना हुए। दक्षिण के टेबल टॉप पर खिली धूप में चमकते नज़ारे देखते बनते हैं। हुबली से चले क़रीब एक घंटा हो चला है। दोपहर के बाद की चाय की याद सताने लगी है। कुछ साथी नींद निकालकर अंगड़ाई लेने लगे हैं। हुबली से चालीस किलोमीटर चलकर शीरगुप्पी नामक स्थान पर भारत फ़ैमिली रेस्टोरेंट पर निस्तार से फ़ारिग हो चाय निपटाई। फोटो और सेल्फी के ज़रूरी काम निपटा बस में सवार हो फिर चल दिए।

रास्ते में बाजरा, ज्वार, कपास और मूँगफली के हरे भरे खेत दिखाई देते हैं। चारों तरफ़ हरियाली का आलम है। यह इलाक़ा मराठों और हैदराबाद रियासत के बीच लंबे समय तक झगड़े की जड़ रहा। बीच-बीच में गढ़ियो के खंडहर दिखते हैं। हमारी हुबली से हम्पी यात्रा के रास्ते में ज़िला मुख्यालय कोप्पल आया, जिसे बाईपास से पार किया। कोप्पल जिला कर्नाटक का सर्वश्रेष्ठ बीज उत्पादन केंद्र है। यहां कई राष्ट्रीय बीज कंपनियों के फूल, फल, सब्जियों और दालों के बीज उत्पादन केंद्र स्थापित किए गए हैं।

क्रमशः… 

© श्री सुरेश पटवा 

भोपाल, मध्य प्रदेश

*≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 34 – उत्तराखंड – भाग – 1 ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  – संस्मरण – उत्तराखंड – भाग – 1 )

? मेरी डायरी के पन्ने से # 34 – उत्तराखंड – भाग – 1 ?

ईश्वर की अनुकंपा ही समझूँ या इसे मैं अपना सौभाग्य ही कहूँ कि जिस किसी विशिष्ट स्थान के दर्शन के बाद जब मेरा मन तृप्त हो उठता है तो एक लंबे अंतराल के बाद पुनः वहीं लौट जाने का तीव्र मन करता है और मैं वहाँ पहुँच भी जाती हूँ। इसका श्रेय भी मैं बलबीर को ही देती हूँ जो मेरी इन इच्छाओं को पूर्ण करते हैं। एक ही स्थान पर पुनः जाने का यह अनुभव मुझे कई बार हुआ।

सात वर्ष के अंतराल में दो बार लेह -लदाख जाने का सौभाग्य मिला। काज़ीरांगा, मेघालया तथा चेरापुँजी चार वर्ष के अंतराल में जाने का मौका मिला। हम्पी-बदामी ग्यारह वर्ष के अंतराल में, कावेडिया – स्टैच्यू ऑफ यूनिटी तीन वर्ष के अंतराल में पौंटा साहिब, कुलू मनाली, शिमला, चंडीगढ़, अमृतसर और माता वैष्णोदेवी के दर्शन के अनेक अवसर मिले। इन स्थानों पर लोगों को जीवन में एक बार जाने का भी मुश्किल से मौके मिलते होंगे वहीं ईश्वर ने मुझे एक से अधिक बार इन स्थानों के दर्शन करवाए। मेरे भ्रमण की तीव्र इच्छा को मेरे भगवान अधिक समझते हैं। इसलाए इसे प्रभु की असीम कृपा ही कहती हूँ।

एक और स्थान का ज़िक्र करना चाहूँगी वह है मसूरी का कैम्प्टी फॉल। अस्सी के दशक में हम पहली बार मसूरी गए थे। तब यह उत्तराखंड नहीं बल्कि उत्तरप्रदेश था। फिर दोबारा 1994 में चंडीगढ़ में रहते हुए मसूरी जाने का सौभागय मिला।

फॉल या झरने के नीचे पानी में खूब भीगकर बच्चियों ने गर्मी के मौसम में झरने के शीतल जल का आनंद लिया था वे तब छोटी थीं। वहीं पास में कपड़े बदलकर गरम चाय और गोभी, आलू, प्याज़ की पकौड़ियों के स्वाद को आज भी वे याद करती हैं। वास्तव में जब कभी पकौड़ी खाते तो केम्प्टी फॉल की पकौड़ियों का ज़िक्र अवश्य होता। बच्चियों की आँखें उस स्वाद के स्मरण से आज भी चमक उठतीं हैं।

इस वर्ष मुझे तीस वर्ष के बाद पुनः केम्प्टी फॉल जाने का अवसर मिला। सड़क भर मैं स्मृतियों की दुनिया में मैं सैर करती रही। संकरी सड़कें, पेड़ -पौधों की रासायानिक विचित्र गंध युक्त हवा, दूर से बहते झरने की सुमधुर ध्वनि और सरसों के तेल में तली गईं पकौड़ियों की गंध! अहाहा !! मन मयूर इन स्मृतियों के झूले में पेंग लेने लगा।

हम काफी भीड़वाली संकरी सड़क से आगे बढ़ने लगे। पूछने पर चालक बोला यही सड़क जाती है फॉल के पास। अभी तो बहुत भीड़ भी होती है और गंदगी भी।

अभी कुछ कि.मी की दूरी बाकी थी। सड़क तो आज भी संकरी ही थी पर हवा में पेड़ -पौधों की गंध न थी बल्कि विविध कॉफी शॉप की दुकानों की, गरम पराठें तले जाने की, लोगों द्वारा लगाए गए परफ्यूम की गंध हवा में तैरने लगी। ये सारी गंध मुझे डिस्टर्ब करने लगी क्योंकि मेरे मस्तिष्क में तो कुछ और ही बसा है!

मेरा मन अत्यंत विचलित हुआ। हमने लौटने का इरादा किया और गाड़ी मोड़ने के लिए कहा। मेरे मानसपटल पर जिस खूबसूरत मसूरी के पहाड़ों का चित्र बसा था वहाँ आज ऊँची इमारतें खड़ी हैं। दूर तक कॉन्क्रीट जंगल!थोड़ी ऊँचाई पर गाड़ी रोक दी गई और वहाँ से वृक्षों के झुरमुटों के बीच से फॉल को देखा। झरना पतली धार लिए उदास बह रहा था। आस पास केवल इमारतें ही इमारतें थीं। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि इमारतों के बीच में से किसी ने पाइप लगा रखी है और जल बह रहा है।

1994 का वह प्रसन्नता और ऊर्जा से कुलांचे मारकर नीचे गिरनेवाला तेज प्रवाहवाला जल पतली – सी धार मात्र है। प्रकृति का भयंकर शोषण हुआ है। जल प्रवाह की ध्वनि विलुप्त हो गई। जिस तीव्र प्रवाह से सूरज की किरणों के कारण इंद्रधनुष निर्माण होता था वहाँ आज प्रकृति रुदन करती- सी लगी। उफ़! मेरे हृदय पर मानो किसीने तेज़ छुरा घोंप दिया। मैं जिस केम्प्टी फॉल की स्मृतियों से पूरित उत्साह से उसे देखने चली थी आज वह केवल एक आँखों को धोखा मात्र है। अगर इसे पहले कभी न देखा होता तो इस धार को देख मन विचलित न होता। पर स्मृतियों के जाल को एक झटके से फाड़ दिया गया।

हम बहुत देर तक उस पहाड़ी पर गाड़ी से उतरकर खड़े रहे। हम सभी मौन थे क्योंकि सामने जो दिखाई दे रहा था वह अविश्वसनीय दृश्य था। तीस वर्षों में एक प्राकृतिक झरने की यह दुर्दशा होगी यह बात कल्पना से परे थी। एक विशाल जल स्रोत की तो हत्या ही हो गई थी यहाँ।

मनुष्य कितना स्वार्थी और सुविधाभोगी है यह ऐसी जगहों पर आने पर ज्ञात होता है। बंदरों की बड़ी टोली रहती है यहाँ के जंगलों में। उन्हें वृक्ष चाहिए, जल चाहिए पर कहाँ! यहाँ तो मनुष्यों की भीड़ है। प्रकृति को इस तरह से नोचा -खसोटा गया कि उसका सौंदर्य ही समाप्त हो गया।

हम उदास मन से देहरादून लौट आए।

अब कभी किसी से हम केम्प्टी फॉल का उल्लेख नहीं करेंगे। पर मैं अपने मानस पटल पर चित्रित अभी के इन दृश्यों को कैसे मिटाऊँ और पुरानी सुखद स्मृतियों को पुनर्जीवित किस विधि करूँ यही सोच रही हूँ।

© सुश्री ऋता सिंह

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