हिन्दी साहित्य – यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं -1 – नैनीताल ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. पर्यटन आपकी एक अभिरुचि है। इस सन्दर्भ में श्री अरुण डनायक जी हमारे  प्रबुद्ध पाठकों से अपनी कुमायूं यात्रा के संस्मरण साझा कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है “कुमायूं -1 – नैनीताल ”)

☆ यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं -1 – नैनीताल ☆

पहली मर्तबा, मैं कुमायूं अचानक ही, बिना किसी पूर्व योजना के चला गया था।हुआ यों कि  सितम्बर 2018 में चारधाम यात्रा  का विचार मन में उपजा और यात्रा की सारी तैयारियां हो गई थी, टिकिट खरीड लिए गए, क्लब महिन्द्रा-मसूरी में ठहरने हेतु आरक्षण करवा लिया गया था और यात्रा  की अन्य व्यवस्थाओं के लिए एजेंट से भी बातचीत पक्की हो गई थी कि अचानक उसने  फ़ोन पर बताया  कि चारधाम से चट्टाने खिसकने व भू स्खलन की खबरें आ रही है आप अपना टूर कैंसिल कर दें। लेकिन यात्रा का मन बन चुका था सो हम चल दिए। थोड़ा परिवर्तन हुआ और हमने अगले दस दिन तक मसूरी, करनताल, नौकुचियाताल, नैनीताल, कौसानी और हरिद्वार की यात्रा की।

नैनीताल की सुंदरता का केंद्र बिंदु यहॉ पर स्थित सुंदर नैनी झील है और झील के किनारे स्थित नैनादेवी का पौराणिक मंदिर। नैनी झील के स्‍थान पर देवी सती की बायीं आँख गिरी थी और  मंदिर में दो नेत्र हैं जो नैना देवी को दर्शाते हैं। कोरोना काल में मंदिर खाली था तो पंडितजी ने जजमान को सपरिवार देख, पूर्ण मनोयोग से पूजन अर्चन कराया। ऐसी ही पूजा हमने एक दिन पहले हिम सुता नंदा देवी, की अल्मोड़ा स्थित मंदिर में भी की और लगभग पन्द्रह मिनट तक पूजन और दर्शन का आनन्द लिया। कभी संयुक्त प्रांत (आज का उत्तर प्रदेश) की ग्रीष्म कालीन राजधानी रहा नैनीताल चारों ओर से सात पहाडियों से घिरा है और इस शहर के तीन हिस्से तालों के नाम पर हैं ऊपर की ओर मल्ली ताल, बीच में नैनीताल और आख़री छोर तल्ली ताल। अब मल्लीताल और तल्ली ताल, सपाट मैदान हैं और यहाँ बाज़ार सजता है और नैनीताल का स्वच्छ जल शहरवासियों की प्यास बुझाता है। शायद यही कारण है कि इसमें शहर का गंदा पानी नालों से बहकर नहीं आता। सुना था कि रात होते होते जब  पहाडों के ऊपर ढलानों पर जलते बल्बों तथा झील के किनारे लगे हुए अनेक बल्बों की रोशनी नैनीताल  के पानी पर पड़ती है तो माल रोड के किनारे घूमते हुए खरीददारी करने, चाट पकोड़ी खाने  और इस बड़ी झील को निहारने का मजा कुछ और ही होता  है। लेकिन हमें तो शाम ढले नौकुचियाताल, जहाँ हम ठहरे थे, वापस जाना था इसलिए हम इस आनंद को तब न ले सके और फिर जब नवम्बर 2020  के अखीर में हम पुन: कुमायूं की यात्रा पर गए तो इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए एक रात कडकडाती ठण्ड में नैनीताल में रुके और पहले मल्ली ताल का तिब्बती बाज़ार घूमा और फिर  देर शाम तक  माल रोड पर चहलकदमी करते हुए, खरीददारी और बीच बीच में  नैनी ताल की जगमगाहट से भरी सुन्दरता  को देखते रहे और फिर देर रात तक होटल से इस नयनाभिराम दृश्य को देखने का सुख रात्रिभोज के साथ लेते रहे।  हमने दोनों बार शाम ढले हल्की ठण्ड  के बीच चप्पू वाली नाव से नौकायान का मजा भी लिया, नौका चालक और घोड़े वाले मुसलमान हैं लेकिन बातें वे साफगोई से करते हैं और अपने ग्राहक का दिल जीतने का भरपूर प्रयास करते हैं।

नैनीताल की सबसे ऊँची और आकर्षक चोटी है नैना पीक। इसे चीना पीक भी कहते हैं और यहाँ से डोरथी सीट से शहर व हिमालय के दर्शन होते हैं, पहली बार जब हम वहाँ गए तो  धुंध व बादलों के कारण हमारे भाग्य में यह विहंगम दृश्य नहीं था। पर दूसरी बार हमें  अंग्रेज कर्नल की पत्नी  के नाम से प्रसिद्द डोरोथी सीट से आसपास की पहाड़िया और पूरे क्षेत्र का विहंगम दृश्य हमने देखा। देवदार और चीड के घने जंगल वाली  ऊँची चड़ाई का मजा हमने घुड़सवारी कर लिया। पहली बार भले हम हिमालय को न निहार सके हों पर जब दूसरी बार गए तो पहले हिमालय दर्शन व्यू प्वाइंट से और फिर डोरोथी सीट से नंदा देवी पर्वत माला के दृश्य को अपनी दोनों आँखों में समेटा। दूध जैसी बर्फ से ढका हिमालय मन को लुभा लेनेवाला दृश्य आँखों के सामने  आजीवन तैरता रहता रहेगा । समुद्र तल से 2270 मीटर ऊँचा यह बिंदु यात्रियों के बीच बेहद लोकप्रिय स्थान है। नैनीताल से मैंने 100 किलोमीटर दूर स्थित हिमालय पर्वत की नंदा देवी पर्वतमाला के दर्शन किए। त्रिशूल पर्वत से शुरू यह लंबी पर्वत श्रृंखला मनमोहक है और लगभग 300 किलोमीटर लम्बी है । त्रिशूल पर्वत के बायीं ओर गंगोत्री, बद्रीनाथ, केदार नाथ आदि पवित्र तीर्थ स्थल हैं तो दाई ओर नंदा कोट- जिसे माँ पार्वती का तकिया भी कहा जाता है, नंदा देवी  तथा इसके बाद पंचचुली की खूबसूरत चोटियाँ है जो नेपाल की सीमा तक फ़ैली हुई हैं। नंदादेवी पर्वत शिखर की उंचाई 25689 फीट है और कंचनचंघा के बाद यह भारत की सबसे ऊँची चोटी है। मैंने कश्मीर की पहलगाम वादियों से लेकर हिमाचल, उत्तराखंड और कलिम्पोंग व दार्जलिंग से हिमालय को अनेक बार निहारा है। साल 2018 के सितंबर माह में तो मसूरी और फिर कौसानी से भी हिम दर्शन का अवसर मिला। भाग्यवश कौसानी से मैंने नंदा देवी हिम शिखर व कलिमपोंग से कंचनचंघा को सूर्योदय के समय रक्तिम सौंदर्य में नहाते हुए भी देखा है। पर दुधिया रंग के चांदी से चमकते  हिमशिखर के जो  दर्शन मैंने नवंबर 2020 की कड़कड़ाती ठंड नैनीताल से किए वैसे कहीं और से देखने न मिले। यह विहंगम दृश्य मन को लुभाने वाला था। मैं भावविभोर होकर देखता ही रह गया। और जब चोटियों के बारे में समझ में न आया तो मजबूरन टेलीस्कोप वाले का सहारा लिया तथा सारे शिखरों के बारे में पूंछा, बिना टेलीस्कोप की सेवाएं लिए वह कहां बताने वाला था। उसने भी अपनी रोजी-रोटी वसूली और हमने भी न केवल हिमदर्शन किए वरन उससे फोटो भी खिंचवाई। मैं इस घड़ी को सौभाग्य का क्षण इसलिए मानता हूं कि 23नवंबर से लगातार बिनसर, अल्मोड़ा में मैं हिमालय को निहार रहा था पर पर्वत राज तो 27नवंबर को ही दिखाई दिए, मेरे पुत्र को वधु मिलने की वर्षगांठ के ठीक एक दिन पहले। डोरथी सीट के अलावा धोडी निचाई पर एक और स्थल है जहाँ से खुर्पाताल और हरे भरे दीखते हैं इन  खेतों में उम्दा किस्म का आलू पैदा होता है।पहाड़ पर एक जीरो पॉइंट भी हैं जहाँ सर्दियों में बर्फ जम जाती है तब डेढ़ महीने तक नौजवान जोड़े इस स्थान तक आते हैं क्योंकि डोरथी सीट तक जाने का रास्ता बंद हो जाता है। नीचे जहा घोड़े खड़े होते हैं वहाँ सड़क के उस पार एक और मनमोहक स्थल है लवर्स प्वाइंट जहाँ से  नैनीताल शहर की सुन्दरता देखी जा सकती है। इन पहाड़ियों से नैनी झील के अद्भुत नज़ारे दीखते हैं।

नैनीताल की खोज की भी अद्भुत कहानी है। पहाड़ी वाशिंदे, नए अंग्रेज हुकुमरानों को, अपनी इस पवित्र झील, जिसे तीन पौराणिक ऋषियों, अत्रेय,पुलस्त्य व पुलह ने अपनी प्यास बुझाने के लिए जमीन में एक छेद कर निर्मित किया था, का पता बताने के इच्छुक नहीं थे। तब अंग्रेज अफसर ने, एक पहाड़ी के सर पर भारी पत्थर रखकर, उसे नैनादेवी के मंदिर तक ले जाने का दंड दिया। कई दिनों तक अंग्रेज अफसर व उसकी टीम के अन्य सदस्यों को वह व्यक्ति, सर पर भारी पत्थर का बोझ ढोते हुए इधर उधर भटकाता रहा। अंततः हारकर अंग्रेजों की टोली को नैनीझील की ओर ले गया और इस प्रकार नैनीताल का पता उन्हें चला। अंग्रेजों को यह स्थल इतना पसंद आया कि उन्होंने इसे अपनी ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाया और उनके गवर्नर का निवास, आज भी उस वैभव की याद दिलाता है।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 78 ☆ यात्रा संस्मरण – गांधी के ये गांव ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है । आज प्रस्तुत है एक सार्थक  “यात्रा संस्मरण – गांधी के ये गांव“। ) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 78

☆ यात्रा संस्मरण – गांधी के ये गांव ☆

लोकनायक जय प्रकाश नारायण की जयंती पर 11 अक्टूबर 2014 को “आदर्श ग्राम योजना” लांच की गई थी इस मकसद के साथ कि सांसदों द्वारा गोद लिया गांव 11 अक्टूबर 2016 तक सर्वांगीण विकास के साथ दुनिया को आदर्श ग्राम के रूप में नजर आयेगा परन्तु कई जानकारों ने इस योजना पर सवाल उठाते हुए इसकी कामयाबी को लेकर संदेह भी जताया था जो आज सच लगने लगा है।

शहरों में रहने वाले जो घूमने के शौकीन हैं उन्हें कभी सांसदों के द्वारा गोद लिए गांवों की यात्रा भी करना चाहिए। आम आदमी के अंदर उन गांवों की सूरत देखकर योजना के क्रियान्वयन पर चिंता की लकीरें उभरेगीं तो शायद कुछ विकास होगा। ये बात सही है कि सरकार का मकसद इस योजना के जरिए देश के छै लाख गांवों को उनका वह हक दिलाना था जिसकी परिकल्पना स्वाधीनता संग्राम के दिनों में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने की थी। गांधी की नजर में गांव गणतंत्र के लघु रूप थे, जिनकी बुनियाद पर देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था की इमारत खड़ी है।

प्रधानमंत्री की अभिनव आदर्श ग्राम योजना में अधिकांश ग्रामों को गोद लिए तीन साल से ज्यादा गुजर गया है पर कहीं कुछ पुख्ता नहीं दिख रहा है ये भी सच है कि दिल्ली से चलने वाली योजनाएं नाम तो प्रधानमंत्री का ढोतीं हैं मगर गांव के प्रधान के घर पहुंचते ही अपना बोझा उतार देतीं हैं। एक पिछड़े आदिवासी अंचल के गांव की सरपंचन घूंघट की आड़ में कुछ पूछने पर इशारे करती हुई शर्माती है तो झट सरपंच पति पानी की विकट किल्लत की बात करने लगता है – नल नहीं लगे हैं, हैंडपंप नहीं खुदे और न ही बिजली पहुंची। आदर्श ग्राम योजना के बारे में किसी को कुछ नहीं मालुम…… ।

आदर्श ग्राम योजना के तहत गांव के विकास में वैयक्तिक, मानव, आर्थिक एवं सामाजिक विकास की निरंतर प्रक्रिया चलनी चाहिए। वैयक्तिक विकास के तहत साफ-सफाई की आदत का विकास, दैनिक व्यायाम, रोज नहाना और दांत साफ करने की आदतों की सीख, मानव विकास के तहत बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाएं, लिंगानुपात संतुलन, स्मार्ट स्कूल परिकल्पना, सामाजिक विकास के तहत गांव भर के लोगों में विकास के प्रति गर्व और आर्थिक विकास के तहत बीज बैंक, मवेशी हॉस्टल, मिट्टी हेल्थ कार्ड आदि आते हैं।

मध्यप्रदेश के सुदूर प्रकृति की सुरम्य वादियों के बीच बैगा बाहुल्य गांव  के पड़ोस से कल – कल बहती पुण्य सलिला नर्मदा और चारों ओर ऊंची ऊंची हरी भरी पहाडि़यों से घिरा ये गांव एक पर्यटन स्थल की तरह महसूस होता है परन्तु गरीबी, लाचारी, बेरोजगारी गांव में इस कदर पसरी है कि उसका कलम से बखान नहीं किया जा सकता है।गोद लिये गांव में साक्षरता का प्रतिशत बहुत कमजोर और चिंतनीय होता है।

प्रधानमंत्री की इस योजना में गांव के लोगों को कहा गया था कि वे अपने सांसद से संवाद करें। योजना के माध्यम से लोगों में विकास का वातावरण पैदा हो, इसके लिए सरकारी तंत्र और विशेष कर सांसद समन्वय स्थापित करें, पर बेचारे सांसद दुनिया भर के ऊंटपटांग कामों में व्यस्त रहते हैं तो गोद लिए गांव की कौन परवाह करेगा। प्रधानमंत्री ज्यादा उम्मीद करते हैं बेचारे सांसद साल डेढ़ साल तक ऐसे गांव नहीं पहुंच पाते तो इसमें सांसदों का दोष नहीं हैं उनके भी तो लड़का बच्चा और घरवाली है। ऐसे गांवों में जनधन खाते थोड़े बहुत खोले जाने की खबर यत्र तत्र मिलती है पर उससे कोई फायदा नहीं दिखा। प्रधानमंत्री सुरक्षा बीमा से कोई फायदा किसी को मिला नहीं। ऐसे गांव में बैंक ऋण के सवाल पर कुछ

लोग बताते हैं कि एक बार लोन से कोई कंपनी 5000 रुपये का बकरा लोन से दे गई ब्याज सहित पूरे पैसे वसूल कर लिए और बकरा भी मर गया, गांव भर के कुल नौ गरीबों को एक एक बकरा दिया गया था, बकरी नहीं दी गई। सब बकरे दिए गए जो कुछ दिन बाद मर गए।

ऐसे गांव में खुशीराम मिल जाते हैं जो पांचवीं फेल होते हैं और भूखे रहकर भी हंसते हैं। कोई रोजगार के लिए प्रशिक्षण नहीं मिला मेहनत मजदूरी करके एक टाइम का पेट भर पाते हैं, चेंज की भाजी में आम की अमकरिया डालके “पेज “पी जाते हैं। सड़क के सवाल पर तुलसी बैगा ने बताया कि गांव के मुख्य गली में सड़क जैसी बन गई है कभी कभार सोलर लाइट भी चौरस्ते में जलती दिखती है। कभी-कभी पानी भी नल से आ जाता है पर नलों में टोंटी नहीं है।

दूसरी पास फगनू बैगा जानवर चराने जंगल ले जाते हैं खेतों में जुताई करके पेट पालते हैं जब बीमार पड़ते हैं तो नर्मदा मैया के भजन करके ठीक हो जाते हैं।

ऐसे गांव में प्रायमरी, मिडिल और हाईस्कूल की दर्ज संख्या के अनुसार स्कूल में शिक्षकों का भीषण अभाव देखा गया है। ऐसे स्कूलों में बच्चों से बातचीत करो तो सब कहते हैं  कि वे बड़े होकर देश के प्रधानमंत्री बनेंगे पर वर्तमान में कौन प्रधानमंत्री है इस बात पर ठहाके लगाकर हंसने लगे।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765
ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ कोरीगड ☆ श्री विनय माधव गोखले

☆ विविधा ☆कोरीगड ☆ श्री विनय माधव गोखले ☆ 

रविवार १७ मार्च २०१९ रोजी आम्ही कोरीगडचा ट्रेक ‘केला’ असे म्हणण्यापेक्षा तो ‘घडला’ असे म्हणणे अधिक संयुक्तिक ठरेल. काही गोष्टी आपण करायच्या म्हणून ठरवतो पण त्या तशा न होता घडते काही भलतेच! इतिहासात आपल्याला अशी अनेक उदाहरणे सापडतील. असे म्हणतात की ख्रिस्तोफर कोलंबस खरे तर निघाला होता इण्डिज बेटांच्या आणि मसाले व्यापाराच्या शोधात पण अपघाताने पोहोचला अमेरिकाला. त्या दिवशी आमच्याही बाबतीत थोड्याफार फरकाने असाच प्रकार घडला होता. म्हणजे “जाना था जापान, पहुंच गये चीन। समझ गये ना?”  नसेल समजले तरी हरकत नाही, पुढील वर्णन वाचा म्हणजे “समझ में आयेगा”! JJ

मोहन बरोबर पहाटे ५:४५ वाजता माझ्या घरी कार घेऊन पोहोचला. तिथून आम्ही हायवे ने पोहोचलो म्हाळुंगे गावात संदीपला घ्यायला. मोहन दातार, संदीप पाटील आणि मी असा आम्हा त्रिकुटाचा बेत होता ‘घनगड’ चा ट्रेक करण्याचा. म्हाळुंगेहून एका भलत्याच खडबडीत रस्त्याने नांदे-चंदे गावातून घोटावडे फाट्याला पोहोचलो. तेथून पुढे पौड-कोळवण रोड ने हाडशीला पोहोचलो. तिथे आम्हाला एक हिरवी मारुती जिप्सी पुढून येताना दिसली ज्यामध्ये विक्रम गोखले गाडी चालवताना दिसले. कदाचित ‘गिरीवन’ मधून परत येत असावेत. असो. तिथून तुंगा-तिकोना ह्या दोन गडांच्या मार्गाने पुढे निघालो. काही परदेशी पाहुणे सकाळसकाळी तुंगी गावाच्या त्या जंगलात जॉगिंग करताना दिसले. तुंगच्या बाजूने पुढे गेल्यावर असे लक्षात येत गेले की आम्ही मार्ग कुठे तरी चुकतोय. मग वाटेत एक-दोन जणांना घनगडाचा मार्ग विचारला तर त्यांनी “सरळ जात रहा!” असे सांगितले. एका फाट्याला डावीकडे वळलो तर पुढे ‘अम्बी व्हॅली क्लब’चे गेट लागले पण तिथे गेट असल्याने मार्ग बंद झाला. मग पुन्हा उलटे फिरून  फाट्यापाशी आलो व उजवीकडे वळून निघालो. वाटेत आम्हाला चार-पाच Harle Davidson मोटरसायकलस्वार प्रचंड वेगाने आडवे गेले तेव्हा हळूहळू लक्षात आले की आम्ही लोणावळ्या कडे निघालो आहोत. वाटेत एकाला विचारले तर तो म्हणाला “घनगड कुठाय माहीत नाही. पण तुम्हाला ‘कोरीगड’ ला जायचे का? इथून सरळ गेलात तर पेठ शहापूर गाव लागेल तिथे ‘कोरीगड’ दिसेल. आम्ही तिघांनी तसाही ‘कोरीगड’ पहिला नव्हताच. मग सरळ तिकडेच ट्रेक करायचा तडकाफडकी निर्णय घेतला. सरतेशेवटी कोरीगड दिसला. गडाच्या पायथ्याशी कार लावून आम्ही चौकशी केली तेव्हा कळाले की घनगड तिथून पुढे १६ किमी दूर आहे. असो. पण तो विषय आता संपला होता.

आता ’कोरीगडा’ कडे वळूयात… हा गड कोराईगड, शहागड (गडाची पेठ शहापूरला असल्याने)ह्या नावानेही ओळखला जातो. पायथ्याच्या गावाचे नाव ‘आंबवणे’ आहे. ह्या नावावरूनच त्याच्या भोवतीने सहारा ग्रुपने वसवलेल्या अतिश्रीमंतांच्या वसाहतीचे नाव ‘अंबी व्हॅली’ पडले आहे. त्याबद्दल अधिक माहिती पुढे…

प्रथमदर्शनी कोरीगडाचा आकार आकाशात तिरप्या गेलेल्या  सुळक्यांमुळे थोडा विचित्र दिसतो. पण माथ्यावर मात्र चांगलेच विस्तीर्ण पठार आहे. गड तसा खूप उंच नसला तरी रेखीव तटबंदीने मढवलेला आहे. आंबवणे गावातून चढण्याची वाट जरा जिकिरीची आहे पण मुख्य वाटेने चढल्यास पाऊणेक तासात सहज चढाई होते. सुरुवातीलाच पुरातत्वखात्याने उभारलेला गडाचा इतिहास सांगणारा फलक आपले लक्ष वेधून घेतो. पुढील वाट एका घळीतून आणि नंतर जंगलातून जाते. वळसा घालून गेल्यावर एक छोटी सपाटी लागते.

निम्या वाटेच्या वरपासून तर पायर्‍याही बांधल्या आहेत.  उजवीकडे एक प्राचीन गुहा आणि गणपतीची मूर्ती दिसते.

वरती पोहोचल्यावर गणेश दरवाजा लागतो आणि मग तुम्ही गडाच्या माथ्यावर पोहोचता.

सभोवतालचा परिसर एकदम विलोभनीय दिसला, पावसाळ्यात गेले तर खरेच हिरवेगार दृष्य पाहायला मिळेल, हे नक्की. आम्ही गडाच्या उजव्या तटबंदीवरून चालायला सुरुवात केली तेव्हा तटबंदीची डागडुज्जी करण्याचे व चिरे बसवण्याचे काम चालू पाहून सुखद धक्का बसला.

गडाच्या मध्यावर श्रीकोराईदेवीचे ना छत, ना भिंती असे प्राचीन पण उजाड अवस्थेतील मंदीर आहे. दोन मोठी पाण्याची तळीही दिसली. एका तळ्याजवळ दगडांच्या ढिगार्‍यामध्ये एक भग्न मूर्ती पाहून वाईट वाटले. मंदिराचा गुरव आमची चाहूल घेऊन बाहेर आला व गडावर काय पाहण्यासारखे आहे त्याची माहिती दिली. गडावरील भगवे निशाण असलेल्या बुरूजावरून पहिले तर खूप मोठा टापू नजरेस दिसला. समोर तिकोना, मोरगड, तोरणा ओळखता आले.

पुढे वळसा घालून आंबवणे गावाच्या बाजूच्या तटबंदीवरून खाली पहिले तर दोन भग्नावस्थेतील दरवाजे एकाखाली एक असे दिसले पण तिथे उतरण्याची वाट मात्र दगड कोसळून बंद झाल्यासारखी दिसली. त्याखालील वाट मात्र घनदाट जंगलात हरवलेली दिसली. महितगाराच्या मदतीशिवाय उतरणे अवघड वाटले.

त्याच तटबंदीवर एक तोफही उत्तम स्थितीत दिसली. येथपर्यंत चालून आम्हाला कडाडून भुका लागल्या असल्याने तिथेच एका झाडाच्या सावलीत बसून डब्यांवर मनसोक्त ताव मारला.

आमच्या बसल्या जागेवरून ‘अंबी व्हॅली’चा देखावा खूप छान दिसत होता. आता हयाविषयी थोडे…

सहारा ग्रुप ने विकसीत केलेल्या ह्या छोटेखानी नगरामध्ये मुंबईतील आणि देशभरातील बडेबडे उद्योगपती, सिने-नटनट्या, क्रिकेटपटू अशा घनाढ्याची आलिशान रो-हाऊसेस आहेत. त्याची खाजगी विमानाने येण्याजाण्याची सोय व्हावी म्हणून खास धावपट्टी बांधली आहे. आतमध्ये युरोप-अमेरिकेसारखे गुळगुळीत रस्ते बनवले आहेत. पाण्याच्या मोठमोठ्या टाक्या बांधल्या असून, जलशुध्दीकरण केंद्रही उभारले आहे. मुळशी धरणाच्या पाणलोट क्षेत्रात पाण्याला बांध घालून पाण्यावर तरंगते रेस्टॉरंट उभारले आहे. बोटिंगची सोय केली आहे. आम्हाला पूर्वी आडवी गेलेली मोटरसायकलस्वार मंडळी विमानाच्या धावपट्टीवरून एका टोकाकडून दुसरीकडे गाड्या उडवीत फिरताना दिसली. एम्ब्युलंस धावपट्टीच्या बाजूने फेर्‍या मारीत होती. तिथून कोणीतरी एरोमोडेलिंगची पांढरी लांब पंख असलेली विमाने अतिशय कौशल्याने उडवीत हवाई प्रात्यक्षिके करीत होते.

‘शिवलिंग’ पॉइंट

प्रदक्षिणा पूर्ण करून 3:30 च्या सुमारास आम्ही गड उतरायला प्रारंभ केला व पाऊणेक तासात उतरून आलो सुद्धा! खाली एक सरबत विक्रेता आणि त्याची बायको भेटले. लिंबू सरबत पिता-पिता त्यांच्या कडे मी सहज चौकशी केली. त्यांना विचारले की “इथे सचिन तेंडुलकरचा बंगला आहे का? इतर कोणकोण फेमस लोकांना आलेले पाहिले आहे?” तेव्हा काही धक्कादायक माहिती त्यांच्या तोंडून ऐकायला मिळाली…. नवराबायको म्हणाले, “अहो इथे येक-दोन दिवसापुरते कोण येते अन् कोण जाते आम्हाला काही कल्पना नाही. एकतर विमानाने येतात, परस्पर विमानाने जातात. कारने आले तरी बंद काचेआड कोण बसलेले असते आम्हाला पत्याच लागत नाही. शिवाय खाजगी मालमत्ता असल्याने आम्हा स्थानिक ग्रामस्थांना आत प्रवेशच देत नाहीत. पूर्वी धुण्याभांड्याची, साफसफाईची कामे तरी मिळायची आता कोर्टाच्या आदेशाने मालमत्ता खरेदी-विक्री बंद आहे. इतकेच नव्हे तर पूर्वी केलेल्या 8-10 महिन्यांच्या कामाचे आमचे पैसेही मालकांनी बुडवले आहेत. स्थानिकांना रोजगार देत नाहीत पण मुंबई वरून बिहारी कामगारांना आणून त्यांना मात्र कामे देतात. तुम्ही सांगा हे योग्य आहे का?” कसे तरी बोलून मी आपलं त्यांचे सांत्वन केले व माहितीबद्दल आभार मानून निघालो.

परतीचा प्रवास आता लोणावळा मार्गे करायचा हे ठरवून मोहनने गाडी गियरमध्ये टाकली. परतीच्या मार्गावर ‘शिवलिंग’ पॉइंट लागला. तिथे विक्रेत्यांनी छोटीशी चौपाटी वसवलेली होती. थोडा वेळ तिथे फोटो काढून पुण्याच्या दिशेने कूच केले ते आयएनएस शिवाजीच्या बाजूबाजूने लोणावळामार्गे थेट घर येईपर्यंत विनाथांबा आलो.

एकंदरीत कोरीगडाची आमची आकस्मिक भेट श्रीकोराई मातेच्या कृपेने आनंदात पार पडली. “कोरीगड झाला, पण घनगड राहीला…” ही सल मात्र मनात बोचत आहे. आमची घनगड भेटीची पाटी अजून तरी कोरीच आहे. त्यावर “श्री गणेश” कधी लिहिला जाणार ते आता श्री गजाननाच्या घन-कृपेवरच अवलंबून आहे!

 

© श्री विनय माधव गोखले

भ्रमणध्वनी – 09890028667

 ≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिंदी साहित्य – यात्रा-संस्मरण #4 ☆ बादामी और हम्पी : भूला बिसरा इतिहास ☆ – श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(हम श्री अरुण कुमार डनायक जी द्वारा प्रस्तुत उनके यात्रा संस्मरण बादामी और हम्पी : भूला बिसरा इतिहास  को हमारे पाठकों के साथ साझा करने के लिए हृदय से आभारी हैं।  श्री अरुण जी ने इस यात्रा के  विवरण को अत्यंत रोचक एवं अपनी मौलिक शैली में  हमारे पाठकों के लिए प्रस्तुत किया है। श्री अरुण जी ने अपने ऐतिहासिक अध्ययन के साथ सामंजस्य बैठा कर इस साहित्य को अत्यंत ज्ञानवर्धक बना दिया है। अक्सर हम ऐसे स्थानों की यात्रा तो कर लेते हैं किन्तु हम उन स्थानों के इतिहास पर कभी ध्यान नहीं देते और स्वयं  को मोहक दृश्यों और कलाकृतियों के दर्शन मात्र तक सीमित कर लेते हैं।  यह यात्रा संस्मरण श्रृंखला निश्चित ही आपको एक नूतन अनुभव देगी।  आपकी सुविधा के लिए इस श्रंखला को हमने  चार भागों में विभक्त किया है जिसे प्रतिदिन प्रकाशित करेंगे। इस श्रृंखला को पढ़ें और अपनी राय कमेंट बॉक्स में अवश्य दें।)

कल सखेद तकनीकी त्रुटि के कारण यात्रा संस्मरण #3 अधूरा प्रकाशित हुआ था जिसे आप पुनः निम्न लिंक पर पूरा पढ़ सकते हैं –

☆हिंदी साहित्य – यात्रा-संस्मरण # 4 ☆ बादामी और हम्पी : भूला बिसरा इतिहास  ☆

 

☆हिंदी साहित्य – यात्रा-संस्मरण # 4 ☆ बादामी और हम्पी : भूला बिसरा इतिहास  ☆

तुंगभद्रा नदी कर्नाटक के दो जिलों बेल्लारी और कोप्पल के बीच बहती है। इन्हीं दोनो जिलों की भौगोलिक सीमा में त्रेता युग की राम कथा में वर्णित किष्किन्धा स्थित है। आज जब सुबह निकले तो सबसे पहले हम पांच सौ पचास सीढ़ियां चढकर आंजनाद्री पर्वत पहुंचे।  पर्वत शिखर पर हनुमान, उनकी माता अंजना व राम लक्ष्मण जानकी की प्रतिमा एक मंदिर में स्थापित हैं। यह रामायण के योद्धा हनुमान की जन्मस्थली है। हनुमान मंदिर में 2011से सतत अखंड रामचरितमानस का पाठ हो रहा है। इस पर्वत शिखर से तुंगभद्रा नदी की घाटी का विहंगम दृष्य दिखता है जो अत्यन्त मनोहारी है। हम्पी के अनेक मंदिर स्पष्ट दिखते हैं। यद्यपि धुंध बहुत थी तथापि हमें विरुपाक्ष मंदिर का गोपुरम व कृष्ण मंदिर दिखाई दिये।मंद मंद बहती पवन और प्रकृति के रमणीय दृश्य  ने सारी थकान दूर कर दी। आंजनाद्री पर्वत के पास ही ऋष्यमुक पर्वत है और इसी स्थल पर हनुमानजी ने सर्वप्रथम ब्राह्मण रुप धरकर राम व लक्ष्मण से भेंट की थी। यह पर्वत अंदर की ओर है वह चढ़ाई अत्यन्त कठिन है। कुछ ही दूरी पर एक और रमणीक स्थल है सनापुरा झील। पहाड़ों से घिरी इस झील से निकली नहर  आंध्र प्रदेश के खेतों की सिंचाई करती है। आगे ग्रामीण क्षेत्रों के बीच से गुजरते हुए, पर्वतों के पत्थरों और धान के खेत व केला, नारियल के वृक्षों को निहारते  हम पंपा सरोवर पहुंचे। यहीं शबरी का आश्रम है। शबरी आश्रम के आगे बाली की गुफा है और वहां से आगे बढने पर चिंतामणि गुफा है, जहां बैठकर राम, लक्ष्मण ने हनुमान व सुग्रीव से बाली वध की योजना बनाई थी। इसी स्थल के सामने काफी दूरी पर तारा पर्वत है और वहीं बाली व सुग्रीव के मध्यम मल्ल युद्ध हुआ था और राम ने इसी स्थान से तीर छोड़कर बाली वध किया था। वापस हम्पी आते समय हमने मधुवन भी देखा जहां अंगद वे हनुमान की वानर सेना ने सीता का पता लगाने के बाद किष्किन्धा प्रवेश पश्चात उत्पात मचाकर सुग्रीव के प्रिय वन को तहस नहस कर दिया था। किष्किन्धा क्षेत्र में जहां जहां श्रीराम व लक्ष्मण गये वहां देवनागरी लिपि हिन्दी के दिशापटल लगे हुए हैं। यहां उत्तर भारत से रामानंदी संप्रदाय के साधु संत भ्रमण करते काफी संख्या में दिखते हैं। इन्ही संतों ने सम्भवतया इस सूदूर दक्षिण वन प्रांत में तुलसी कृत रामचरितमानस के अंखड पाठ की परम्परा शुरू की है। अनेक स्थलों पर भोजन भंडारा का नियमित आयोजन होता है। स्थानीय निवासियों को हमने लाल रंग के वस्त्र पहनकर हनुमानजी की आराधना करते देखा। वे मान्यताएं मानकर आराधना अवधि में नियमित हनुमान चालीसा का पाठ करते हैं।

हम्पी के पास  ही माल्यवन्त पर्वत है। यहां भगवान राम ने वन गमन के समय चतुर्मास व्यतीत किया और फिर लंका की ओर सैन्य अभियान के लिए प्रस्थान किया था। कुछ स्थल व स्मृतियां  तत्संबंध में जनश्रुतियों में वर्णित हैं पर हम उन्हें न देख सके। यहां सत्रहवीं सदी में निर्मित रघुनाथ मंदिर के दर्शन किए। कुछ देर मानस का पाठ सुना और तभी दो विदेशी सैलानियों को मानस का पाठ करने वाले पंडित जी ने इशारे से बुलाया और उन्हें मंजीरा बजाने को दिए। दोनों भाव विभोर हो मंजीरा बजाने में मग्न हो उठे। सांयकाल कोई सवाल पांच बजे रघुनाथ मंदिर के पार्श्व में स्थित पहाड़ पर बैठकर हमने सूर्यास्त की मधुर झलकियां देखी। श्वेत सूर्य पहले पीला और फिर लाल रंग के गोले में देखते-देखते परिवर्तित हो गया। बादल भी दिवाकर के साथ अठखेलियां करने लगे और फिर भास्कर कहां चुप रहते वे भी मेघों को प्रसन्न करने बीच बीच में  छुप हमें आभास कराते कि वे अब पश्चिम दिशा की ओर प्रस्थान कर रहे हैं। अचानक वे फिर दिखते तो मेघ उन्हें दो हिस्सों में बांट देते। देखते देखते कोई 5.45बजे सूर्यास्त हो गया और हम अपने होटल विजयश्री रिसार्ट वापस आ गये।

हम्पी कैसे पहुंचे :- निकटतम  हवाई अड्डा बंगलोर से हम्पी  335 किलोमीटर दूर है व निकटतम रेलवे स्टेशन होसपेट है। बंगलौर से सड़क मार्ग से बस द्वारा भी 6-7 घंटे में हम्पी पहुंचा जा सकता है। गोवा से यह लगभग 500 किलोमीटर दूर है।

हम्पी यात्रा के लिए अक्टूबर से मार्च का समय सबसे बेहतर है। ग्रीष्म काल में तापमान 45डिग्री सेल्सिअस तक पहुँच जाता है।

हम्पी में ठहरने के लिए अच्छे होटल हैं। मंदिरों व तीर्थ स्थल होने के कारण माँसाहार प्राय अनुपलब्ध है। स्थानीय शाकाहारी भोजन में दक्षिण भारत के  विभिन्न व्यंजन का स्वाद अवश्य लेना चाहिए। यहाँ केले की सब्जी, विभिन्न प्रजातियों के केले व नारियल पानी का स्वाद अलग ही है

मंदिर व विजयनगर साम्राज्य के भग्नावशेष, रामायण कालीन किष्किन्धा नगरी और चालुक्य साम्राज्य की बादामी के अलावा यहाँ देखने के लिए अनेक स्थल जैसे अनेगुंडी का किला, काला भालू अभ्यारण्य दरोजी, तुंगभद्रा बाँध, कूडल संगम ( कृष्ण, घटप्रभा व मलप्रभा नदी का संगम स्थल ) आदि दर्शनीय स्थल हैं।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

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हिंदी साहित्य – यात्रा-संस्मरण #3 ☆ बादामी और हम्पी : भूला बिसरा इतिहास ☆ – श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(हम श्री अरुण कुमार डनायक जी द्वारा प्रस्तुत उनके यात्रा संस्मरण बादामी और हम्पी : भूला बिसरा इतिहास  को हमारे पाठकों के साथ साझा करने के लिए हृदय से आभारी हैं।  श्री अरुण जी ने इस यात्रा के  विवरण को अत्यंत रोचक एवं अपनी मौलिक शैली में  हमारे पाठकों के लिए प्रस्तुत किया है। श्री अरुण जी ने अपने ऐतिहासिक अध्ययन के साथ सामंजस्य बैठा कर इस साहित्य को अत्यंत ज्ञानवर्धक बना दिया है। अक्सर हम ऐसे स्थानों की यात्रा तो कर लेते हैं किन्तु हम उन स्थानों के इतिहास पर कभी ध्यान नहीं देते और स्वयं  को मोहक दृश्यों और कलाकृतियों के दर्शन मात्र तक सीमित कर लेते हैं।  यह यात्रा संस्मरण श्रृंखला निश्चित ही आपको एक नूतन अनुभव देगी।  आपकी सुविधा के लिए इस श्रंखला को हमने  चार भागों में विभक्त किया है जिसे प्रतिदिन प्रकाशित करेंगे। इस श्रृंखला को पढ़ें और अपनी राय कमेंट बॉक्स में अवश्य दें।)

☆हिंदी साहित्य – यात्रा-संस्मरण # 3 ☆ बादामी और हम्पी : भूला बिसरा इतिहास  ☆

हम्पी, होसपेट रेल्वे स्टेशन से कोई छह किलोमीटर दूर स्थित विश्व धरोहर है। यहां जगह जगह विजयनगर साम्राज्य के भग्नावशेष बिखरे पड़े हैं। इसे पूरी तरह से देखने के लिए तो कम से कम चार पांच दिन चाहिए। हमने एक दिन में जो देखा उसमें विरूपाक्ष मंदिर, तुंगभद्रा नदी का तट, सरसों गणेश, चना गणेश, अनेक पुषकरणी, मंदिरों के सामने अवस्थित बाजारों के भग्नावशेष, विट्ठल मंदिर, पत्थर से निर्मित रथ, संगीत सुनाते खम्भें, नरसिंह मूर्त्ति व निर्धन स्त्री द्वारा निर्मित शिव मंदिर देखे। हमें लोटस महल, जनाना महल, हाथियों का अस्तबल,राजा का महल, महानवमी का विशाल स्टेज, रानियों का स्नानागार आदि देखने का अवसर  मिला।

विजयनगर साम्राज्य  दो सौ तीस के बाद 1565 में दक्षिण भारत के मुस्लिम शासकों की संयुक्त सेना से पराजित हो पराभव को प्राप्त हुआ। यह साम्राज्य धन धान्य व विद्या से परिपूर्ण था। बहमनी विजेताओं ने  मूर्तियों व महलों को आग लगाकर नष्ट कर दिया किन्तु सभामंडप व खम्भों पर उकेरी गई कलाकृति शिल्प तथा मुस्लिम शिल्प से प्रभावित  कुछ इमारतें नष्ट नहीं हुई। इनके अवलोकन से तत्तकालीन साम्राज्य के वैभव, सामाजिक स्थिति, व्यापार व विदेशों से विजयनगर साम्राज्य के संबंधों  उनके प्रभाव का पता चलता है। सर्वाधिक नुकसान नरसिंह मूर्त्ति व चना गणेश को हुआ है। शेष मंदिरों में मूर्तियां नहीं हैं शायद उन्हें अन्यत्र ले जाया गया होगा। हमने जो स्थल देखें उनमें तुंगभद्रा नदी के तट पर स्थित विरुपाक्ष मंदिर बहुत सुंदर है।इस विशाल मंदिर में अनेक राजाओं ने निर्माण कराया। सबसे पहले हरिहर ने शिव मंदिर बनाया तो कृष्णदेव राय ने अपने राज्याभिषेक की स्मृति में गोपुरम बनवाया। इस गोपुरम का उल्टा चित्र मंदिर के अंदर एक कमरे में दिखता है।यह पिन होल कैमरे के सिद्धांत का कमाल है। मुख्य मंदिर की छत पर ब्रह्मा, विष्णु व  शिव से संबंधित सुंदर पेंटिंग्स है तो स्तम्भों पर शिव  के विभिन्न स्वरूपों की और महिषासुरमर्दिनी की सुंदर शिल्पकारी है। मंदिर प्रांगण में पम्पा देवी (पार्वती) व भुवनेश्वरी देवी का मंदिर है। यह दोनों देवस्थल कल्याण चालुक्य राजाओं दर्शाया बारहवीं सदी में बनवाये गये थे। मंदिर प्रांगण के सामने की सड़क के दोनों ओर बाजार स्थित था जिसके खम्भें आज भी दृष्टिगोचर हैं। ऐसे बाजार हम्पी के सभी विशाल मंदिरों के सामने बनाये गये थे।

विरुपाक्ष मंदिर के पहले चना गणेश का मंदिर है। गणेश की विशालकाय मूर्ति की सूंड दाहिने हाथ में रखे लड्डू पर टिकी हुई है। इस मंदिर के स्तम्भों पर शंख बजाता हिंदू हैं तो ढपली बजाता मुस्लिम भी है। पगड़ी धारी हिंदू जहां पालथी मारकर बैठा है वहीं सिर पर तिकोनी टोपी और नुकीली दाड़ी धरे ढपली बजाते समय वज्रासन की मुद्रा में है। एक अन्य स्तम्भ पर बंदर को हाथ से सांप पकड़े हुए दिखाया गया है। एक अन्य स्तम्भ पर विदेशी महिला को उकेरा गया है जिसे उसकी केश सज्जा से अलग ही पहचाना जा सकता है। चना गणेश के पास ही सरसों गणेश विराजे हैं। गणेश की मूर्ति के पीछे पार्वती का शिल्प है और कलाकार ने ऐसी कल्पना की है कि पुत्र गणेश अपनी मां पार्वती की गोद में बैठे हुए हैं।

दक्षिण सुलतानों के संयुक्त आक्रमण में सर्वाधिक नुकसान नरसिंह मूर्त्ति को हुआ था। तथापि ध्वस्त मूर्त्ति को देखकर इसके अनूठे शिल्प का अंदाज आसानी से लगाया जा सकता है। नरसिंह मकरतोरण के साथ शेषनाग की कुंडली पद्मासन पर बैठे हैं।उपर सात फनो का नाग है । नरसिंह की  बायें ओर गोद में लक्ष्मी विराजित थी जो अब नष्ट होने के कारण दृष्टव्य नहीं है। हम्पी के विशाल मंदिरों में विट्ठल स्वामी का मंदिर प्रसिद्ध है।इस मंदिर परिसर में संगीत की ध्वनि सुनाने वाले पत्थर के खम्भे व अनेक मंडप हैं। सर्वाधिक महत्वपूर्ण कल्याण मंडप है जहां स्तम्भों पर रामायण-महाभारत की कहानियां सुनाते अनेक शिल्प उकेरे गये हैं। इसके अलावा महिलाओं, नर्तकियों, पक्षियों वे कमल दल को भी विभिन्न मंडपों के स्तम्भों में उकेरा गया है। मुख्य मंदिर में एक ओर घोड़े बेचते हुये अरबी, चीनी, मंगोल व पुर्तगाली व्यापारी अपनी भेष-भूषा से अलग ही पहचाने जा सकते हैं।इसी प्रागंण में काष्ट रथ की अनुकृति प्रस्तर रथ के रुप बनाई गई है। चार पहियों वाले इस रथ को दो हाथी खींच रहे हैं और रथ के अंदर विष्णु के वाहन गरुड़ विराजे हैं। रथ में सुंदर व सूक्ष्म शिल्पकारी है। इसके उपर का हिस्सा जो ईंट से बना था अब गिर गया है। मंदिर के मुख्य प्रवेश द्वार के ऊपर ईंट का निर्माण है जिसमें  कृष्णदेव राय के ओडिशा विजय को दर्शाया गया है। राजाओं के निवास स्थल में सर्वाधिक ऊंचाई पर नवमी टिब्बा है। इस मंच पर विभिन्न उत्सवों पर राजा अपने स्वर्ण सिंहासन पर विराजमान होते थे। इस मंच में हाथी, घोड़े, उंट, शिकार, युद्ध आदि दृश्यों का सुंदर शिल्प है। एक प्रस्तर खंड में रानी नाराज होकर उंगली दिखा रही है तो उसके बगल में राजा रानी से प्रेमालाप कर रहा है।जनाना महल में भवनों के अवशेष बचे हैं मूल महल नष्ट हो चुके हैं। यह परिसर चारों ओर से ऊंची पिरामिड नूमा दीवाल से घिरा हुआ है जिस पर तीन वाच टावर बने हुये हैं। यहीं लोटस महल है जो इन्डो इस्लामिक शैली में बना हुआ है। जनाना महल में ही एक भवन ठीक ठाक अवस्था में है इसे कोषागार कहा जाता है। हाथियों का अस्तबल गुंबदनुमा इमारत है और उसके बगल में महावतों का निवास स्थान बना हुआ है। इसके अलावा हम्पी में अनेक छोटे बड़े मंदिर व भवन हैं तथा मंतग पर्वत व हेमकूट पर्वत भी है।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

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हिंदी साहित्य – यात्रा-संस्मरण #2 ☆ बादामी और हम्पी : भूला बिसरा इतिहास ☆ – श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(हम श्री अरुण कुमार डनायक जी द्वारा प्रस्तुत उनके यात्रा संस्मरण बादामी और हम्पी : भूला बिसरा इतिहास  को हमारे पाठकों के साथ साझा करने के लिए हृदय से आभारी हैं।  श्री अरुण जी ने इस यात्रा के  विवरण को अत्यंत रोचक एवं अपनी मौलिक शैली में  हमारे पाठकों के लिए प्रस्तुत किया है। श्री अरुण जी ने अपने ऐतिहासिक अध्ययन के साथ सामंजस्य बैठा कर इस साहित्य को अत्यंत ज्ञानवर्धक बना दिया है। अक्सर हम ऐसे स्थानों की यात्रा तो कर लेते हैं किन्तु हम उन स्थानों के इतिहास पर कभी ध्यान नहीं देते और स्वयं  को मोहक दृश्यों और कलाकृतियों के दर्शन मात्र तक सीमित कर लेते हैं।  यह यात्रा संस्मरण श्रृंखला निश्चित ही आपको एक नूतन अनुभव देगी।  आपकी सुविधा के लिए इस श्रंखला को हमने  चार भागों में विभक्त किया है जिसे प्रतिदिन प्रकाशित करेंगे। इस श्रृंखला को पढ़ें और अपनी राय कमेंट बॉक्स में अवश्य दें।)

☆हिंदी साहित्य – यात्रा-संस्मरण # 2 ☆ बादामी और हम्पी : भूला बिसरा इतिहास  ☆

दक्षिण भारत में चौदहवीं शताब्दी में हरिहर और बुक्का दो भाईयों ने मिलकर एक शक्तिशाली साम्राज्य की स्थापना की जिसे विजयनगर के नाम से जाना गया। इस साम्राज्य की स्थापना को लेकर अनेक कहानियां हैं पर विभिन्न ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि कुरुबा जाति के दो भाई,  जो वारंगल के राजा के यहां महत्त्वपूर्ण पदों पर कार्यरत थे, वारंगल पर 1323 में मुस्लिम आक्रमण फलस्वरुप पराभव के कारण वहां से निकलकर अनेगुन्डी के हिन्दू राजा के दरबार में नियुक्त हो गये।1334 में अनेगुन्डी के राजा ने दिल्ली के सुलतान मुहम्मद तुगलक के भतीजे बहाउद्दीन को अपने यहां शरण दे दी जिसके कारण वहां सुल्तान ने आक्रमण किया। अनेगुन्डी की पराजय हुई और दिल्ली के सुलतान ने मलिक काफूर को यहां का गवर्नर नियुक्त किया ( मालिक काफूर गुजरात का था और धर्म परिवर्तित कराकर उसे मुसलमान बनाया गया था) । चूंकि मलिक यहां के शक्तिशाली निवासियों पर नियंत्रण न कर सका अतः दिल्ली के सुलतान ने यह क्षेत्र पुनः हिन्दू राजा को सौंप दिया। जनश्रुति के अनुसार  दोनों भाई हम्पी के जंगलों में शिकार कर रहे थे तब उन्हें  संत माधवी  विद्यारण्य ने राजा बनने का आशीर्वाद दिया और इस प्रकार हरिहर व बुक्का ने विजयनगर साम्राज्य की स्थापना सन 1335 में की। उधर सन 1347 में दक्षिण भारत में एक और मुस्लिम राज्य बहमनी सल्तनत (1347-1518) में,तुर्क-अफगान  सूबेदार अलाउद्दीन बहमन शाह द्वारा  स्थापित हुई।  1518 में इसके विघटन के फलस्वरूप गोलकोण्डा, बीजापुर, बीदर, बीरार और अहमदनगर के राज्यों का उदय हुआ। इन पाँचों को सम्मिलित रूप से दक्कन सल्तनत कहा जाता था। बहमनी सुल्तान व बुक्का के बीच अनेक युद्ध हुए।कभी बुक्का जीतता तो कभी बाजी सुलतान के हाथ लगती रही अन्ततः 1375 में विजयनगर साम्राज्य विजेता बन गया और दक्षिण भारत में उसका प्रभुत्व स्थापित हो गया।

अरब,इटली,फारस और रुस के विभिन्न इतिहासकारों व यात्रियों ने समय समय पर विजयनगर की यात्रा की और इसकी रक्षा प्रणाली, सात दीवारों से घिरे दुर्गों, विशाल दरवाजों,  संपदा व समृद्धि,राज्य द्वारा आयोजित  चार प्रमुख उत्सवों (नव वर्ष, दीपावली, नवमी व होली) , व्यापार व  व्यवसाय,लंबे चौड़े बाजार, उसमें विदेशों से आयातित  सामान जैसे घोड़े व मोती तथा भारत से निर्यात की जाने वाली सामग्री मसाले, सोने चांदी के जेवर, हीरा माणिक आदि रत्नों का विस्तार से उल्लेख किया है।
विजयनगर साम्राज्य में सर्वाधिक नामी शासक कृष्णदेव राय थे जिन्होंने 1509 से 1529 तक शासन किया। उन्होंने अनेक सैन्य अभियानों का नेतृत्व किया जिसमें ओडिसा के राजा गजपति राजू व बीजापुर के सुल्तान आदिलशाह पर रायचुर विजय प्रमुख है। रायचुर में मिली पराजय से आदिलशाह इतना घबरा गया कि उसकी दोबारा विजयनगर साम्राज्य की ओर देखने की हिम्मत भी न हुई। दूसरी ओर इन विजयों के बाद कृष्ण देवराय दक्षिण का शक्तिशाली सम्राट बन बैठा और आदिलशाह पर  उसका क्षेत्र लौटाने के लिए बहुत ही कठोर व  अपमान भरी शर्ते, जैसे पराजित सुलतान उसके चरण चूमकर माफी मांगे आदि रखी। अपमान से भरी हुई इन शर्तों ने भविष्य में मुस्लिम सुलतानों के संगठित होकर विजयनगर पर आक्रमण का रास्ता खोला। कृष्ण देवराय के समय विजयनगर में अनेक मंदिरों वे भवनों का निर्माण हुआ। उसने विरुपाक्ष मंदिर का विशाल गोपुरम, कृष्ण मंदिर, हजारा राम मंदिर, विट्ठल स्वामी मंदिर आदि बनवाये। विट्ठल स्वामी मंदिर में स्थित पत्थर का रथ भी उन्ही के राज में ओडिशा विजय के पश्चात कोर्णाक के सूर्य मंदिर की तर्ज पर बनाया गया है।

(प्रस्तर रथ विजयनगर विट्ठल मंदिर)

कृष्ण देवराय के शासनकाल में अनेक व्यापारियों व आमजनों द्वारा भी विशालकाय निर्माण कराये गये इसमें नरसिंह मूर्त्ति, बडवी शिव लिंग, सरसों बीज गणेश, चना गणेश आदि प्रसिद्ध हैं। कृष्ण देवराय ने सिंचाई प्रणाली का भी काफी विस्तार किया व अनेक तालाबों व नहरों का निर्माण कराया। उनके समय में बनाई गई कुछ नहरों से अभी भी सिंचाई होती है।

1565 में तालीकोटा  की लड़ाई के समय, सदाशिव राय विजयनगर साम्राज्य का शासक था। लेकिन वह एक कठपुतली शासक था। वास्तविक शक्ति उसके मंत्री राम राय के हाथ थी। सदाशिव राय नें दक्कन की इन सल्तनतों के बीच मतभेद पैदा करके उन्हें आपस में लड़वाने और इस लड़ाई में बीजापुर की मदद से उन्हे  कुचलने की कोशिश की। बाद में इन सल्तनतों को विजयनगर की इस कूटनीतिक चाल का पता चल गया  और उन्होंने एकजुट होकर एक गठबंधन का निर्माण कर विजयनगर साम्राज्य पर हमला बोल दिया था। दक्कन की सल्तनतों ने विजयनगर की राजधानी में प्रवेश करके उनको बुरी तरह से लूटा और सब कुछ नष्ट कर दिया। मंदिरों भवनों में आग लगा दी।विजयनगर की हार के कुछ  कारणों में दक्कन की सल्तनतों की तुलना में  विजयनगर के सेना में घुड़सवार सेना की कमी,  विजयनगर के राजा का दंभी थ होना, अन्य हिन्दू राजाओं से उनके अच्छे संबंध न होना आदि हैं।दक्कन की सल्तनतों की तुलना में  विजयनगर के सेना के हथियार पुराने थे व अधिक परिष्कृत नहीं थे। दक्कन की सल्तनतों के तोपखाने युद्ध में बेहतर थे। तालीकोटा की लड़ाई के पश्चात् दक्षिण भारतीय राजनीति में विजयनगर  राज्य की प्रमुखता समाप्त हो गयी। मैसूर के राज्य, वेल्लोर के नायकों और शिमोगा में केलादी के नायकों नें विजयनगर से अपनी स्वतंत्रता की घोषणा की। यद्यपि दक्कन की इन सल्तनतों नें विजयनगर की इस पराजय का लाभ नहीं उठाया और पुनः पहले की तरह एक दूसरे से लड़ने में व्यस्त हो गए और अंततः मुगलों के आक्रमण के शिकार हुए।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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हिंदी साहित्य – यात्रा-संस्मरण ☆ बादामी और हम्पी : भूला बिसरा इतिहास #1 ☆ – श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(हम श्री अरुण कुमार डनायक जी द्वारा प्रस्तुत उनके यात्रा संस्मरण बादामी और हम्पी : भूला बिसरा इतिहास  को हमारे पाठकों के साथ साझा करने के लिए हृदय से आभारी हैं।  श्री अरुण जी ने इस यात्रा के  विवरण को अत्यंत रोचक एवं उनकी मौलिक शैली में  हमारे पाठकों के लिए उपलब्ध किया है। श्री अरुण जी ने अपने ऐतिहासिक अध्ययन के साथ सामंजस्य बैठा कर इस साहित्य को अत्यंत ज्ञानवर्धक बना दिया है। अक्सर हम ऐसे स्थानों की यात्रा तो कर लेते हैं किन्तु हम ऐसे स्थानों के इतिहास पर कभी ध्यान नहीं देते और मोहक दृश्यों और कलाकृतियों के दर्शन मात्र तक सीमित कर लेते हैं।  यह यात्रा संस्मरण श्रृंखला निश्चित ही आपको एक नूतन अनुभव देगी।  आपकी सुविधा के लिए इस श्रंखला को हमने  चार भागों में विभक्त किया है जिसे प्रतिदिन प्रकाशित करेंगे। इस श्रृंखला को पढ़ें और अपनी राय कमेंट बॉक्स में अवश्य दें।)

☆हिंदी साहित्य – यात्रा-संस्मरण  ☆ बादामी और हम्पी : भूला बिसरा इतिहास  ☆

बंगलौर प्रवास पर हूं। मेरे भतीजे अनिमेष के पास पुस्तकों का अच्छा संग्रह है। मुझे प्रसन्नता है कि पुस्तकें पढ़ने की जो परिपाटी मेरे माता-पिता ने साठ के दशक में शुरु की थी, वह परम्परा तीसरी पीढ़ी में भी जारी है। मेरे पुत्र अग्रेश, पुत्री निधि और भतीजे अनिमेष के संग्रह में मुझे हमेशा कुछ नया पढ़ने को मिलता है, पर यह सब क़िताबें अंग्रेजी में हैं और उन्हें मैं धीमें धीमें पढ़ता हूं। अब अच्छा है कि मोबाइल में शब्दकोश है सो कठिन व अनजान अंग्रेजी शब्दों के अर्थ खोजने में ज्यादा श्रम नहीं करना पड़ता। अनिमेष ने इतिहास में मेरी रुचि को ध्यान में रखते हुए अमेरिकी शोधकर्ता जान एम फ्रिट्ज व जार्ज मिशेल दर्शाया लिखित ‘Hampi Vijayanagara’ पुस्तक पढ़ने को दी। किसी विदेशी लेखक भारतीय पुरातत्व व इतिहास पर पुस्तक पढने का यह मेरा प्रथम प्रयास है। इस पुस्तक को पढ़ने के बाद मेरी प्रबल इच्छा आंध्र प्रदेश की सीमा पर तुंगभद्रा नदी के तट पर स्थित हम्पी जाने की हो रही है।

अपने आप में राम व बानरराज सुग्रीव की मित्रता संबंधित अनेक कहानियां समेटे यह पर्यटक स्थल कभी विजयनगर राज्य की राजधानी था। वहीं विजयनगर जिसे हम राजा कृष्णदेव राय के दरबारी तेनालीराम की चतुराई के कारण जानते हैं। पहले अंग्रेजों ने और फिर भारत सरकार के पुरातत्व विभाग द्वारा 1970 के दशक में इस स्थल का  पुरातत्ववेत्ताओं की उपस्थिति में उत्खनन किया गया।  यह बैंगलोर से  केवल 376 किलोमीटर  दूर स्थित है और होसपेट निकटतम रेलवे स्टेशन  है। मैंने होटल आदि की बुकिंग के लिए  क्लब महिंद्रा के सदस्य होने के लाभ लिया और विजयश्री रिसोर्ट एवं हेरिटेज विलेज, मलपनगुडी , हम्पी रोड होसपेट में एक हेरिटेज कुटिया चार दिन के लिए आरक्षित करवा ली। घूमने के लिए टैक्सी और गाइड तो जरुरी थे ही और इनकी व्यवस्था हम्पी पहुचने के बाद हो गई।  रात भर बंगलौर से हम्पी की बस यात्रा के बाद जब हम रिसोर्ट पहुंचे तो पहला दिन तो आराम की बलि चढ गया। हाँ, शाम जरुर आनंददायक रही क्योंकि रिसार्ट के संचालक राजस्थान के हैं और उन्होंने अपने आगंतुकों के मनोरंजनार्थ राजस्थान के सांस्कृतिक कार्यक्रमों की व्यवस्था की हुई है।हमने  दुलदुल घोड़ी के स्वागत नृत्य से लेकर मेहंदी लगाना, ग्रामीण ज्योतिष, स्वल्पाहार, जादूगर के कारनामे, राजस्थानी नृत्य व गीत-संगीत, ऊँट, घोड़े व बैलगाड़ी की सवारी के साथ साथ लगभग चौबीस  राजस्थानी व्यंजन से भरी थाली के भोज का भरपूर  आनंद सर पर राजस्थानी पगड़ी पहन कर  लिया।

अपने मार्गदर्शक की सलाह पर हमने तय किया कि पहले दिन बादामी फिर दुसरे दिन हम्पी और तीसरे दिन कोप्पल जिले में रामायण कालीन स्थलों को देखा जाय। दूसरे दिन हम बादामी के गुफा मंदिर देखने गए। बादामी चालुक्य वंश की राजधानी रही है। ब्रम्हा की चुल्लू से उत्पन्न होने  की  जनश्रुति वाले चालुक्य साम्राज्य का दक्षिण भारत के राज वंशों में प्रमुख स्थान है। पुलकेशिन प्रथम (ईस्वी सन 543- 566) से प्रारंभ इस राजवंश के शासकों ने लगभग 210 वर्षों तक कर्नाटक के इस क्षेत्र में राज्य किया और एहोली, पट्टदकल तथा बादामी में अनेक गुफा  मंदिरों व प्रस्तर इमारतों का निर्माण कराया।  कर्नाटक के बगलकोट जिले की ऊंची पहाडियों में स्थित बादामी गुफा का आकर्षण अद्भुत है। बादामी गुफा में निर्मित हिंदू और जैन धर्म के चार मंदिर अपनी खूबसूरत नक्‍काशी, मानव निर्मित अगस्त्य  झील और शिल्‍पकला के लिए प्रसिद्ध हैं। चट्टानों को काटकर बनाई गई गुफा का दृश्‍य इसके शिल्‍पकारों की कुशलता का बखान करता है। बादामी गुफा में दो मंदिर भगवान विष्‍णु, एक भगवान शिव को समर्पित है और चौथा जैन मंदिर है। गुफा तक जाती सीढियां इसकी भव्‍यता में चार चांद लगाती हैं।6 वीं शताब्दी में चालुक्य राजवंश की राजधानी, बादामी, ऐतिहासिक ग्रंथों में वतापी, वातपीपुरा, वातपीनगरी और अग्याति तीर्थ के रूप में भी प्रसिद्द है। दो खड़ी पहाड़ी चट्टानों के बीच मलप्रभा  नदी के उद्गम स्थल के नजदीक है । बादामी गुफा मंदिर पहाड़ी चट्टान पर नरम बादामी बलुआ पत्थर से तैयार किए गए हैं।बादाम का रंग लिए हुए बादामी के पहाड़ पर चार गुफा मंदिर हैं।

बादामी हम्पी से लगभग 160 किलोमीटर की दूरी पर है लेकिन एकल सड़क मार्ग होने के कारण यहाँ पहुचने में तीन घंटे से भी अधिक का समय लगता है। मार्ग में बनशंकरी देवालय है जोकि एक विशाल और आकर्षक मानव निर्मित सरोवर के किनारे अवस्थित है। कतिपय स्थल अब भग्नावस्था में है पर द्रविड शैली में निर्मित देवालय के अन्दर अष्टभुजी बनशंकरी देवी, जिसे शाकाम्बरी देवी भी कहा जाता है, की मूर्ति स्थापित है। बनशंकरी वस्तुतः वन देवी या वनस्पति की देवी है और विभिन्न धार्मिक यात्राओं के आयोजन पर देवी का श्रंगार शाक सब्जियों से किया जाता है।   बनशंकरी देवी को दुर्गा भी माना गया है और इसलिए   देवी के दाहिने हाथ में तलवार, बिगुल,त्रिशूल और  फंदा है तो बायाँ हाथों में कपाल, मानव का कटा हुआ शीष,ढाल व डमरू सुसज्जित है। मंदिर में उपलब्ध शिलालेख के आधार पर मार्गदर्शक ने हमें बताया कि यह मंदिर बादामी के राज्य के पहले से है और राष्ट्रकूट राजाओं ने भी इसका जीर्णोद्वार समय समय पर करवाया।

बादामी का प्रथम गुफा मंदिर  शिव के लिंग रूप  को समर्पित है। प्रवेश मंडप, सभा मंडप व गर्भगृह से युक्त इस गुफा मंदिर का निर्माण काल ईस्वी सं 543 माना गया है।गुफा के प्रवेश द्वार पर शैव द्वारपाल की प्रतिमा है जिसके नीचे गज बृषभ का शिल्प है जो  शिल्प कला के चरमोत्कर्ष का अनूठा उदाहरण है। इस कलाकृति में शिल्पकार ने दोनों प्राणियों का  मुख व देह  इस प्रकार उकेरे हैं की केवल ध्यान से देखने पर ही गजमुख व बृषभ मुख अलग अलग दिखते हैं।।  इस गुहालय में अठारह हाथ के नटराज की आकर्षक मूर्ति है, जो नृत्य  कला की चौरासी संयोजनों को दर्शाता है। सर्पों के अलावा शिव के हाथों में विभिन्न वाद्य यंत्र हैं जो तांडव नृत्य की विभिन्न मुद्राओं को दर्शाते हैं। इसके अतिरिक्त भैंसासुर का वध करती हुई महिषासुर मर्दिनि का शिल्प अति सुन्दर है। इसी गुफा में शिव-पार्वती के अर्धनारीश्वर स्वरुप व शिव और विष्णु के हरिहर स्वरुप का आकर्षक शिल्प देखने योग्य है। इस शिल्प में शिव अर्ध चन्द्र, कपाल, बाघचर्म और अपनी सवारी नंदी से पहचाने जा सकते हैं तो विष्णु को शंख ,चक्र मुकुट धारण किये हुए दिखाया गया है। दोनों देवताओं के पार्श्व में उनकी अर्धांगनी पार्वती व लक्ष्मी भी शिल्पकार ने बड़ी खूबी के साथ उकेरी है।नंदी की सवारी करते शिव पार्वती व उनकी तपस्या में लीन कृशकाय  भागीरथ की प्रतिमा बहुत ही आकर्षक है ।

(बादामी में त्रिविक्रम शुक्राचार्य बुद्ध के रूप में )

बादामी की दूसरे नम्बर की गुफा विष्णु को समर्पित है और इसका निर्माण छठवी शती ईस्वी में किया गया था। यहाँ द्वारपाल के रूप में जय विजय प्रवेश द्वार में खड़े हुए उत्कीर्ण हैं। इस गुफा का आकर्षण बामन अवतार की कथा दर्शाती त्रिविक्रम की मूर्ति है। इस शिल्प में विष्णु की  अपनेबामन फिर  विराट स्वरुप में तीन पाद से भूमंडल नापते हुए, राजा बलि उनकी पत्नी विन्ध्यवली, पुत्र नमुची व गुरु शुक्राचार्य की कलाकृति उत्कीर्ण की गई है। विष्णु के तीसरे अवतार नर वराह व कमल पुष्प पर खडी हुई भूदेवी का शिल्प भी दर्शनीय है। इसके अतिरिक्त इस गुफा मंदिर में समुद्र मंथन की कथा के माध्यम से विष्णु के  कच्छप अवतार, कृष्ण लीला कथा  के द्वारा कृष्ण अवतार व मत्स्य अवतार को भी बख़ूबी दर्शाया गया है। हमारे मार्गदर्शक से पता चला कि कहीं कहीं शिल्पियों ने अपने नाम भी मूर्तियों के मुखमंडल के पास उकेरे हैं। स्तंभों व गुफा की छत पर भी अनेक पुष्पों, जीव जंतुओं, देवी देवताओं के शिल्प दर्शनीय हैं।

बादामी गुफा के चारों मंदिरों में से तीसरे मंदिर का स्‍वरूप अत्‍यंत ही मनोहारी एवं विशाल है। इस गुफा मंदिर का निर्माण ईस्वी सं 578 में चालुक्य नरेश मंगलेश ने अपने बड़े भाई व पूर्व नरेश कीर्तिवर्मा की स्मृति में करवाया था।  इस मंदिर में शिव और विष्‍णु दोनों के विभिन्‍न रूपों को नक्‍काशी में उकेरा गया है। इसमें त्रिविक्रम, शंकरनारायण (हरिहर),  वराह अवतार को ओजपूर्ण शैली में उत्‍कीर्ण किया गया है। शेषनाग पर राजसी मुद्रा में बैठी हुई विष्णु की प्रतिमा बहुत ही आकर्षक है।इसके अतिरिक्त हिरण्यकश्यप का संहार करते नरसिह व बामन अवतार में विष्णु की प्रतिमा दर्शनीय है। बामन अवतार की मूर्ति सज्जा में बलि के गुरु शुक्राचार्य को बुद्ध के रूप में दर्शाया गया है। इसके अतिरिक्त महाभारत व अन्य पौराणिक कथाओं, विभिन्न वैदिक देवी देवताओं , नृत्य करती स्त्रियाँ को भी सुन्दर शिल्प कला के द्वारा दर्शया गया है। गुफा 3 छत पर भित्तिचित्र भी है जो अब समय की मार झेलते झेलते धूमिल व फीके पड़ गए हैं। यहाँ के  भित्ति चित्र भारतीय  चित्रकला के सबसे पुराने ज्ञात प्रमाणों में से हैं। ब्रह्मा को भित्ति चित्र में हंस  वाहन पर दर्शाया गया है। शिव और पार्वती के विवाह में सम्मिलित विभिन्न हिंदू देवताओं के चित्र भी यहाँ दिखाई देते हैं।।

गुफा 3 के आगे और पूर्व में स्थित, गुफा क्रमांक  4  सबसे छोटी है। यह जैन धर्म के तीर्थंकरों को समर्पित है। इस गुफा मंदिर का निर्माण काल  7 वीं शताब्दी के बाद हो सकता है। अन्य गुफाओं की तरह, गुफा 4 में विस्तृत नक्काशी और रूपों की एक विविध श्रेणी शामिल है। गुफा में पांच चौकियों वाले प्रवेश द्वार हैं, जिनमें चार वर्ग स्तंभ हैं। गुफा के अंदर बाहुबली, पार्श्वनाथ  और महावीर के साथ  अन्य तीर्थंकरों के शिल्प  हैं। बाहुबली  अपने पैर के आसपास लिपटे दाखलताओं के साथ ध्यान मुद्रा में खड़े हुए हैं। पार्श्वनाथ को पंचमुखी नाग के साथ दिखाया गया है। महावीर एक आसन पर रखे हुए है। चौबीस जैन तीर्थंकर की प्रतिमाएं भीतर के खंभे और दीवारों पर उत्कीर्ण होती हैं। इसके अलावा यक्ष, यक्ष और पद्मावती की मूर्तियां भी हैं।

बादामी से लगभग 22 किलोमीटर दूर पट्टदकल स्मारक समूह हैं, यूनेस्को द्वारा  वर्ष 1987 में पट्टदकल को ‘विश्व धरोहर’ की सूची में शामिल किया गया। चालुक्य साम्राज्य के दौरान पट्टदकल महत्वपूर्ण शहर हुआ करता था। उस दौरान ‘वातापी’ या  बादामी राजनीतिक केंद्र और राजधानी थी, जबकि पट्टदकल सांस्कृतिक राजधानी थी। यहाँ पर राजसी उत्सव और राजतिलक जैसे कार्यक्रम हुआ करते थे। द्रविड़, उत्तर भारत की नागर शैली तथा द्रविड़ व नागर के मिश्रित शैली  से बने दस   मंदिरों का यह समूह मलप्रभा नदी के किनारे स्थित है व चालुक्य नरेशों के द्वारा ईस्वी सं 733-45 के मध्य  निर्मित है।

यहाँ सबसे महत्त्वपूर्ण मन्दिर विरुपाक्ष मंदिर है, जिसे पहले ‘लोकेश्वर मन्दिर’ भी कहा जाता था। द्रविड़ शैली के इस शिव मन्दिर को विक्रमादित्य द्वितीय (734-745 ई.) की पत्नी लोक महादेवी ने बनवाया था। विरुपाक्ष मंदिर के गर्भगृह और मण्डप के बीच में भी अंतराल है। विरुपाक्ष मंदिर के चारों ओर प्राचीर और एक सुन्दर द्वार है। द्वार मण्डपों पर द्वारपाल की प्रतिमाएँ हैं। एक द्वारपाल की गदा पर एक सर्प लिपटा हुआ है, जिसके कारण उसके मुख पर विस्मय एवं घबराहट के भावों की अभिव्यंजना बड़े कौशल के साथ अंकित की गई है। मुख्य मण्डप में स्तम्भों पर श्रृंगारिक दृश्यों का प्रदर्शन किया गया है। अन्य पर महाकाव्यों के चित्र उत्कीर्ण हैं। जिनमें हनुमान का रावण की सभा में आगमन, खर दूषण- युद्ध तथा सीता हरण के दृश्य उल्लेखनीय हैं ।

विरूपाक्ष मंदिर के बगल में ही शिव को समर्पित एक और  द्रविड़ शैली की भव्य संरंचना  मल्लिकार्जुन मंदिर है, जिसकी निर्माण कला विरूपाक्ष मंदिर के ही समान है पर आकूति छोटी है। इस मंदिर का निर्माण 745 ईस्वी में चालुक्य शासक विक्रमादित्य की दूसरी पत्नी ने करवाया था।मंदिर के मुख्य मंडप में स्तंभों पर रामायण, महाभारत वैदिक देवताओं की अद्भुत नक्काशी है। एक स्तम्भ में महारानी  के दरबार के दृष्यों को भी बड़ी सुन्दरता से दिखाया गया है।

पट्टदकल के मंदिर समूह में नागर शैली के चार मंदिरों मे से हमने आठवी सदी में निर्मित काशी विश्वनाथ मंदिर को देखा। यह मदिर काफी ध्वस्त हो चुका है गर्भ गृह में काले पत्थर का आकर्षक शिव लिंग स्थापित है। मुख्य द्वार पर गरुड़ व सर्फ़ को दर्शाया गया है। अनेक स्तंभों पर विभिन्न मुद्राओं में स्त्रियों को उकेरा गया है। स्तंभों पर शिव पार्वती विवाह, कृष्ण लीला,रावण द्वारा कैलाश पर्वत को उठाने आदि का सुन्दर वर्णन प्रस्तर नक्काशी के द्वारा किया गया है।

मलप्रभा नदी के तट पर स्थित, ऐहोल या  आइहोल मध्यकालीन भारतीय कला और वास्तुकला का एक महत्वपूर्ण केंद्र है। इस गाँव को यह नाम यहाँ विद्वानों के रहने के कारण दिया गया।बादामी चालुक्य के शासनकाल में यह वास्तु  विद्या व मूर्तिकला सिखाने का प्रमुख केंद्र था।   यह कर्नाटक पर शासन करने वाले विभिन्न राजवंशों के समृद्ध अतीत को दर्शाता है, जिनमें चालुक्य भी शामिल थे। ऐहोल कुछ वर्षों तक चालुक्यों की राजधानी भी थी। यहां सैकड़ों छोटे-बड़े मंदिर हैं। ऐहोल में सबसे ज्यादा देखा जाने वाला स्थान दुर्ग मंदिर है जो द्रविड़ वास्तुकला का बेहतरीन नमूना है। कहा जाता है कि यह मंदिर एक बौद्ध रॉक-कट चैत्य हॉल के तर्ज पर बनाया गया है। मंदिर में गर्भ गृह के चारो ओर प्रदिक्षणा पथ है तथा बाहरी दीवाल मजबूत चौकोर स्तंभों से वैसी ही बनी है जैसे हमारे संसद भवन में गोल स्तम्भ हैं।बाहरी दीवारों पर नरसिंह, महिषासुरमर्दिनी, वाराह, विष्णु, शिव व अर्धनारीश्वर की सुन्दर व चित्ताकर्षक शिल्पाकृति हैं। आठवी सदी में निर्मित एक देवालय की छत छप्पर जैसी है और इसलिए इसे कुटीर देवालय कहते हैं। लाड खान मंदिर भी  है, भगवान शिव को समर्पित, इस मंदिर का नाम कुछ समय तक यहां निवास करने वाले एक मुस्लिम राजकुमार के नाम पर रखा गया है। यह  पंचायत हॉल शैली की वास्तुकला में चालुक्यों द्वाराईस्वी सं 450 के आसपास बनाया गया था। सूर्य नारायण मंदिर में सूर्य की आकर्षक मूर्ति गर्भगृह में स्थापित है। ऐहोल के सबसे दर्शनीय स्थानों में से एक रावण फाड़ी का गुफा मंदिर है जो एक चट्टानी पहाड़ी के समीप  है जहां से इसे तराशकर बनाया गया है।इस गुफा मंदिर में नटराज शिव, पार्वती, गणेश, अर्धनारीश्वर आदि की सुन्दर मुर्तिया उकेरी गई हैं।  अन्य प्रसिद्ध मंदिरों में मेगुती जैन मंदिर और गलगनाथ मंदिर के समूह हैं। आइहोल से हमें हम्पी व्वा वापस पहुंचने में लगभग ढाई घंटे का समय लगा।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 27 – भारत का आखिरी गांव माणा गांव ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  उनका अविस्मरणीय  संस्मरण  “भारत का आखिरी गांव माणा गांव”। आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।) \

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 27 ☆

☆ भारत का आखिरी गांव माणा गांव 

सरस्वती नदी का उदगम स्थल भीमपुल माणा गांव भारत का अंतिम गांव कहलाता है बहुत दिनों से भारत चीन सीमा में बसे इस गाँव को देखने की इच्छा थी जो जून 2019 में पूरी हुई। यमुनेत्री, गंगोत्री, केदारनाथ और बद्रीनाथ के दर्शन के बाद माणा गांव जाना हुआ। 20 जून 2019 को उत्तराखंड की राज्यपाल माणा गांव आयीं थीं ऐसा वहां के लोगों ने बताया। हम लोग उनके प्रवास के तीन चार दिन बाद वहां पहुंचे। हिमालय की पहाड़ियों के बीच बसे इस गांव के चारों तरफ प्राकृतिक सौंदर्य देखकर अदभुत आनंद मिलता है पर गांव के हालात और गांव के लोगों के हालात देखकर दुख होता है अनुसूचित जाति के बोंटिया परिवार के लोग गरीबी में गुजर बसर करते हैं पर सब स्वस्थ दिखे और ओठों पर मुस्कान मिली।

बद्रीनाथ से 4-5 किमी दूर बसे इस गांव से सरस्वती नदी निकलती है और पूरे भारत में केवल माणा गांव में ही यह नदी प्रगट रूप में है इसी नदी को पार करने के लिए  भीम ने एक भारी चट्टान को नदी के ऊपर रखा था जिसे भीमपुल कहते हैं। किवदंती है कि भीम इस चट्टान से स्वर्ग गए और द्रोपदी यहीं डूब गयीं थी।

कलकल बहती अलकनंदा नदी के इस पार माणा गांव है और उस पार आईटीबीपीटी एवं मिलिट्री का कैम्प हैं जिसकी हरे रंग की छतें माणा गांव से दिखतीं है।

माणा गांव के आगे वेदव्यास गुफा, गणेश गुफा है माना जाता है कि यहीं वेदों और उपनिषदों का लेखन कार्य हुआ था। माणा गांव के आगे सात किमी वासुधारा जलप्रपात है जिसकी एक बूंद भी जिसके ऊपर पड़ती है उसके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। कहते हैं यहां अष्ट वसुओं ने तपस्या की थी। थोड़ा आगे सतोपंथ और स्वर्ग की सीढ़ी पड़ती हैं जहां से राजा युधिष्ठिर सदेह स्वर्ग गये थे।

हालांकि इस समय भारत का ये आखिरी गांव बर्फ से पूरा ढक गया होगा और बोंटिया परिवार के 300 परिवार अपने घरों में ताले लगाकर चले गए होंगे पर उनकी याद आज भी आ रही है जिन्होंने अच्छे दिन नहीं देखे पर गरीबी में भी वे मुस्कराते दिखे।।

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – नर्मदा परिक्रमा – द्वितीय चरण – कविता # 5 ☆ एवरेज ☆ – श्री प्रयास जोशी

श्री प्रयास जोशी

(श्री प्रयास जोशी जी का ई- अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। आदरणीय श्री प्रयास जोशी जी भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स  लिमिटेड भोपाल से सेवानिवृत्त हैं।  आपको वरिष्ठ साहित्यकार  के अतिरिक्त भेल हिंदी साहित्य परिषद्, भोपाल  के संस्थापक सदस्य के रूप में जाना जाता है। 

ई- अभिव्यक्ति में हमने सुनिश्चित किया था कि – इस बार हम एक नया प्रयोग  करेंगे ।  श्री सुरेश पटवा जी  और उनके साथियों के द्वारा भेजे गए ब्लॉगपोस्ट आपसे साझा  करने का प्रयास करेंगे।  निश्चित ही आपको  नर्मदा यात्री मित्रों की कलम से अलग अलग दृष्टिकोण से की गई यात्रा  अनुभव को आत्मसात करने का अवसर मिलेगा। इस यात्रा के सन्दर्भ में हमने यात्रा संस्मरण श्री सुरेश पटवा जी की कलम से आप तक पहुंचाई एवं श्री अरुण कुमार डनायक जी  की कलम से आप तक सतत पहुंचा रहे हैं।  हमें प्रसन्नता है कि  श्री प्रयास जोशी जी ने हमारे आग्रह को स्वीकार कर यात्रा  से जुडी अपनी कवितायेँ  हमें,  हमारे  प्रबुद्ध पाठकों  से साझा करने का अवसर दिया है। इस कड़ी में प्रस्तुत है उनकी कविता  “ सहारा  ”। 

☆ नर्मदा परिक्रमा – द्वितीय चरण – कविता # 5 – एवरेज  ☆

 

फोटो देख,मित्र ने कहा-

अगली बार मैं भी चलूंगा

आप लोगों के साथ

—स्वागत है, बिल्कुल चलिये

हमारे साथ, किसी प्रकार की

कोई रोक-टोक और

फालतू तैयारी की

बहुत कम गुंजाइश है…

—लेकिन पहले

यह तो बताइये सर !

कि पैदल चलने में आदमी

अच्छा ऐवरेज

किस कारण से देता है

—अच्छे जूतों के कारण

—लाठी के कारण

—या फिर

कम बजन के कारण?

—इस बिषय में

हमारा अनुभव तो यह कहता है

कि इन सब के साथ

अगरआदमी / आनंद से भरी

इस कठिन यात्रा में

ड्रायफ्रुट की बजाए

दूध के साथ पोहा खाए तो

सुबह जल्दी उठने में

आना-कानी नहीं करता..

और अगर दूध में/बासी रोटी

गुड़ में मीड़ कर खाए

तो हर हाल में आदमी

18 किलो मीटर से

अधिक का ही/ ऐवरेज देगा…

 

©  श्री प्रयास जोशी

भोपाल, मध्य प्रदेश

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हिंदी साहित्य – यात्रा-संस्मरण ☆ नर्मदा परिक्रमा – द्वितीय चरण # ग्यारह ☆ – श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(ई- अभिव्यक्ति में हमने सुनिश्चित किया था कि – इस बार हम एक नया प्रयोग  कर रहे हैं।  श्री सुरेश पटवा जी  और उनके साथियों के द्वारा भेजे गए ब्लॉगपोस्ट आपसे साझा  करने का प्रयास करेंगे।  निश्चित ही आपको  नर्मदा यात्री मित्रों की कलम से अलग अलग दृष्टिकोण से की गई यात्रा  अनुभव को आत्मसात करने का अवसर मिलेगा। इस यात्रा के सन्दर्भ में हमने कुछ कड़ियाँ श्री सुरेश पटवा जी एवं श्री अरुण कुमार डनायक जी  की कलम से आप तक  पहुंचाई ।  हमें प्रसन्नता है कि यात्रा की समाप्ति पर श्री अरुण जी ने तत्परता से नर्मदा यात्रा  के द्वितीय चरण की यात्रा का वर्णन ग्यारह  कड़ियों में उपलब्ध किया था और यह अंतिम कड़ी है।

श्री अरुण कुमार डनायक जी द्वारा इस यात्रा का विवरण अत्यंत रोचक एवं उनकी मौलिक शैली में हम आपको उपलब्ध करा रहे हैं। विशेष बात यह है कि यह यात्रा हमारे वरिष्ठ नागरिक मित्रों द्वारा उम्र के इस पड़ाव पर की गई है जिसकी युवा पीढ़ी कल्पना भी नहीं कर सकती। आपको भले ही यह यात्रा नेपथ्य में धार्मिक लग रही हो किन्तु प्रत्येक वरिष्ठ नागरिक मित्र का विभिन्न दृष्टिकोण है। हमारे युवाओं को निश्चित रूप से ऐसी यात्रा से प्रेरणा लेनी चाहिए और फिर वे ट्रैकिंग भी तो करते हैं तो फिर ऐसी यात्राएं क्यों नहीं ?  आप भी विचार करें। इस श्रृंखला को पढ़ें और अपनी राय कमेंट बॉक्स में अवश्य दें। )

ई-अभिव्यक्ति की और से वरिष्ठ नागरिक मित्र यात्री दल को नर्मदा परिक्रमा के दूसरे चरण की सफल यात्रा पूर्ण करने के लिए शुभकामनाएं। 

☆हिंदी साहित्य – यात्रा-संस्मरण  ☆ नर्मदा परिक्रमा – द्वितीय चरण # ग्यारह ☆ – श्री अरुण कुमार डनायक ☆

 

हम जब नर्मदा की द्वितीय यात्रा पर चले तो मन में श्रद्धा और भक्ति के साथ साथ कुछ सामाजिक सरोकारों को पूरा करने की इच्छा भी थी। हमने तय किया था कि रास्ते में पड़ने वाले विद्यालयों में छात्र छात्राओं से गांधी चर्चा और चरित्र निर्माण की चर्चा करेंगे। हम अपने अनुभवों से उन्हें शैक्षणिक उन्नति हेतु मार्गदर्शन देने का प्रयास करेंगे।स्कूलों में गांधी साहित्य की पुस्तकें यथा रचनात्मक कार्यक्रम, मंगल प्रभात, रामनाम और आरोग्य1 की कुंजी बाटेंगे। किसी एक आंगनबाड़ी केंद्र में बच्चों की कविता संग्रह ‘अनय हमारा’ भेंट करेंगे।बरमान घाट पर हम सभी सहयात्री अपने अपने पुरखों की स्मृति में दो दो पौधे रोपेंगे।आम जन को कूरीतियों के बारे में चेतायेंगे।

वेगड़ जी की किताब से हमने घाट की सफाई का प्रण लिया तो श्री उदय सिंह टुन्डेले के आग्रह पर गांवों में छुआ-छूत की बुराई को समझने का प्रयास भी किया।

हमारे समूह के लोग अलग-अलग विचारों के हैं, आप कह सकते हैं कि यह heterogeneous समूह है।

प्रयास जोशी, भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स से सेवानिवृत्त 67 वर्षीय कवि है और भावुकता से भरे हुए हैं। शायद ट्रेड यूनियन गतिविधियों से जुड़े रहे होंगे। उनकी रुचि महाभारत और मानस की कथा सुनने सुनाने में नहीं है। पटवाजी को पुराणादि की कहानियां सुनाने में आन्नद का अनुभव होता है। जोशी जी मानते हैं कि रामायण-महाभारत की कहानियां रोजगारपरक नहीं हैं। वे गांधी जी के रचनात्मक कार्यक्रम के हिमायती हैं। जब कभी मैं स्कूली बच्चों के साथ गांधी चर्चा करता हूं जोशीजी मेरे बगल में बैठ कुछ न कुछ जोड़ते हैं। तेहत्तर वर्षीय  जगमोहन अग्रवालजी के पिता स्वतंत्रता-संग्राम सेनानी थे, अपने गांव कौन्डिया के सरपंच रहे और गांधीजी के सिद्धांतों के अनुसार गांव के विकास में संलिप्त रहे। पर जगमोहन अग्रवाल को संघ की विचारधारा अधिक आकर्षक लगती हैं। अनेक बार वे गांधीजी की आलोचना करने लगते हैं पर तर्कों का अभाव उन्हें चुप रहने विवश कर देता है। श्री अग्रवाल बवासीर से पीड़ित हैं फिर भी यात्रा कर रहे हैं। यह कमाल शायद अमृतमयी नर्मदा पर गहरी आस्था का परिणाम है‌। मां नर्मदा की कृपा से उनकी इस व्याधि के कारण हमारी यात्रा में विचरने न पड़ा। सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया से सेवानिवृत्त अविनाश दवे मेरे हम उम्र हैं। उनके पिता, स्व नारायण शंकर दवे, त्रिपुरी अधिवेशन में सुभाषचंद्र बोस की सेवा में थे तो दमोह निवासी ससुराल पक्ष के लोग गांधीजी की विचारधारा विशेषकर खादी ग्रामोद्योग को बढ़ावा देने वाले।गांधी साहित्य से मेरा पहला परिचय अविनाश के स्वसुर स्व ज्ञान शंकर धगट के निवास पर ही हुआ था। मुंशीलाल पाटकर पेशे से एडव्होकेट सबकी सहमति से चलते हैं और मदद के लिए सदैव तत्पर रहते हैं। कभी कभी लगता है कि सुरेश पटवा और मुंशीलाल पाटकार  के बीच गुरु शिष्य सा संबंध है। पटवा जी तो बैंक में आने से पहले पहलवान थे अतः शिष्य बनाने में उन्हें महारत हासिल है। ग्रामीणों के बीच उन्हीं के तौर-तरीकों से बातचीत करने में वे निपुण हैं। कभी कभी वे लट्ठ घुमाकर सबका मनोरंजन भी करते रहते हैं।

हम सबने मतवैभिन्य के साथ  निष्काम भाव से यह यात्रा आंनद के साथ संपन्न की। यात्रा के दौरान लोगों से हमें भरपूर स्नेह मिला। कहीं हमें बाबाजी तो कहीं मूर्त्ति का संबोधन मिला। हम अनायास ही लोगों के बीच श्रद्धा का पात्र बन गये। जबकि हमारी यात्रा तो मौज-मस्ती से भरी हुई उम्र के इस पड़ाव का एडवेंचर ही है।

हमें नर्मदा तट पर केवल करहिया स्कूल में जाने का अवसर मिला क्योंकि शेष गांव तट से दूर थे या सुबह सबेरे निकलने की वजह से स्कूल बंद। फिर भी जहां कहीं अवसर मिला गांधी चर्चा हुई। गांव के लोग आज भी गांधीजी को जानते हैं, मानते हैं वे श्रद्धा रखते हैं। बापू का नाम सुन उनकी आंखों में चमक आ जाती है। अविनाश ने प्रायमरी स्कूल के बच्चों से राजीव गांधी की फोटो दिखाकर पूंछा क्या यह गांधीजी हैं, बच्चों ने ज़बाब दिया नहीं गांधी जी आपके पर्स में हैं। छुआ-छूत तो अभी भी है। बस यह है कि अब दलित असहजता महसूस नहीं करते। प्रदूषण कम है, नर्मदा जल साफ है पर खतरा तो है। शिवराज सिंह ने  नमामि देवी नर्मदे यात्रा की थी,  उम्मीद जागी कि नर्मदा प्रदूषण से बचेगी, नर्मदा पथ का निर्माण होगा, पेड़ पौधे लगेंगे, गांव बाह्य शौच से मुक्त होंगे, स्वच्छता कार्यक्रम, जैविक खेती बढ़ेगी तो गांवों में खुशहाली जल्द ही देखने को मिलेगी। यात्रा पूरी हुये अरसा बीत गया। कहीं पेड़ पौधे लगे नहीं दिख रहे हैं। नर्मदा में रेत उत्खनन तो अब पहले से ज्यादा हो रहा है, इसलिए शायद गांव के  लोगों को नमामि देवी नर्मदे यात्रा की बातें बेमानी लगने लगी हैं। तट की सफाई को लेकर जागरूकता कुछ ही लोगों में दिखी। हमें सफाई करता देख कोई आगे न आया बस हमारी प्रसंशा कर वे आगे बढ़ गये। रासायनिक खाद का प्रयोग करते किसान न दिखे पर कीटनाशकों का छिड़काव होता कहीं कहीं दिखाई दिया तो कहीं उसकी गंध ने हमें परेशान भी किया। यद्यपि घरों में शौचालय बने हैं तथापि तट पर खुले में शौंच आज भी जारी है। वृक्षारोपण तो अब शायद सरकार की जिम्मेदारी रह गई है। आश्रम में पेड़ लगे हैं लेकिन गांव के टीले, डांगर वृक्ष विहीन हैं। शासन और आश्रम  अगर परिक्रमा मार्ग में नर्सरी संचालित करें तो शायद वृक्षारोपण को बढ़ावा मिलेगा। कुल मिलाकर नौ दिवसीय यह एक सौ पांच किलोमीटर की यात्रा कहीं-कहीं आशा का संचार भी करती है तो दिल्ली और भोपाल से आती खबरें मन को उत्साहित नही करती। हमारी यात्रा के दौरान ही अयोध्या पर फैसला आया लेकिन कहीं भी हमें अतिरेक न दिखा। शांति सब चाहते हैं। यह सूकून देने वाली बात है।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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