हिन्दी साहित्य – यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं #75-10 – बिनसर वन अभ्यारण ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. पर्यटन आपकी एक अभिरुचि है। इस सन्दर्भ में श्री अरुण डनायक जी हमारे  प्रबुद्ध पाठकों से अपनी कुमायूं यात्रा के संस्मरण साझा कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है  “कुमायूं -10 – बिनसर वन अभ्यारण”)

☆ यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं #75-10 – बिनसर वन अभ्यारण ☆ 

बिनसर वन अभ्यारण, अल्मोड़ा जिले में स्थित है । एक ऊंची पहाड़ी चोटी में हरे भरे वृक्षों से आच्छादित यह स्थल लगभग 200 प्रजातियों की वनस्पतियों और 150 किस्म के पक्षियों का घर है । स्थानीय भाषा में इस पहाड़ी को झांडी ढार  कहते हैं लेकिन बिनसर का अर्थ है नव प्रभात और इस पहाड़ी से सुबह सबरे नंदा देवी पर्वत शिखर में सूर्योदय देखना अनोखा अनुभव प्रदान करता है । सूर्य की प्रथम किरण जब नंदा देवी पर पड़ती है तो 300 किलोमीटर की यह पर्वतमाला गुलाबी रंग से सरोबार हो उठती है और फिर ज्यों ज्यों सूर्य की रश्मियाँ अपने यौवन की ओर बढ़ती हैं तो पूरी पर्वत श्रंखला रजत हो उठती है । यद्दपि हमने पिछली बार कौसानी से सूर्योदय के समय गुलाबी होते हिम शिखर के दर्शन किये थे पर इस सौभाग्य से हम बिनसर में तीन दिन तक रुकने के बाद भी वंचित ही रहे । प्रकृति के एक अन्य रूप, जल शक्ति के प्रतीक वरुण देवता ने धुंध और बादलों का ऐसा जाल बिछाया कि हिम शिखर का दिखना तो दूर , हिमालय की निचली पहाड़ियां भी लुकाछिपी का खेल खेलती रही । इस ऊँची पहाड़ी पर कुमायूं विकास मंडल ने एक सुन्दर होटल का निर्माण किया है । मेरी पुत्री को इंटरनेट के माध्यम से कुछ कार्य करना था और वाई-फाई की आशा में हम इस होटल के प्रबंधक से मिले । उन्होंने हमारे आग्रह को स्वीकार कर लिया । हमारे ड्राइवर महाशय होटल का एक चक्कर लगा आये और उनसे हमें पता चला कि यहाँ से हिम दर्शन हो रहे हैं, फिर क्या था हम होटल द्वारा निर्मित व्यू पॉइंट की ओर चले गए और वहाँ से हिमालय को निहारते रहे । बर्फ की श्वेत चादर से ढका  नंदा देवी पर्वत माला की चोटियों हमें  रुक रुक कर दिखने लगी । जब कभी बादलों के बीच से सूर्य देव अपनी छटा इन चोटियों पर बिखेरते तो अचानक ही हिम शिखर चांदी जैसा चमकने लगता । हम इस अद्भुत दृश्य को निहार ही रहे थे कि होटल प्रबंधक ने हमारे लिए गर्मागर्म चाय भिजवा दी । चाय की ट्रे लिए बेयरे ने हमारे अनुरोध को अनमने ढंग से स्वीकार करते हुए त्रिशूल से लेकर नेपाल तक फैली हिम चोटियों की दिशा बताई और साथ ही यह सूचना भी दी की मुख्य  शिखर बादलों की ओट में छिपे हुए हैं यह सब कुछ पर्वत माला का निचला हिस्सा है । लेकिन हमें इस सूचना से कोई सरोकार न था हम तो चाय की चुस्कियों के साथ हिमालय को निहारते रहे । कोई आधे घंटे में पुत्री ने  भी अपना काम निपटा लिया और हम सब बिनसर वन अभ्यारण में ट्रेकिंग के लिए निकल गए । मौसम खराब होने के कारण पर्यटक भी नहीं थे और गाइड भी गायब थे । मैंने वनस्पति शास्त्र के अपने अल्प ज्ञान का प्रयोग कर कुछ वनस्पतियों जैसे देवदार, चीड़, ओक आदि की पहचान की तो वाहन चालक ने हमें बांज, उतीस, बुरांश  के पेड़ दिखाए । देवदार एक सीधे तने वाला ऊँचा शंकुधारी पेड़ है, जिसके पत्ते लंबे, हरे रंग के और कुछ लाली लिए हुए होते है और कुछ गोलाई लिये होते हैं तथा लकड़ी मजबूत किन्तु हल्की और सुगंधित होती है। संस्कृत साहित्य में इसका बड़ा गुणगान किया गया है और इसका प्रयोग  औषधि व यज्ञादि में होता है । ओक या सिल्वर ओक की खासियत यह है कि इसके पत्ते खाँचेदार होते हैं। पेड़ की पहचान इसके पत्तों और फलों से होती है। सिल्वर ओक की लकड़ी सुन्दर होती  है और उससे बने फर्नीचर उत्कृष्ट कोटि के होते हैं। एक समय जहाजों के बनाने में इस्सका काष्ठ ही प्रयुक्त होता था। बुरांश, जिसे हमारे वाहन चालक ने पहचाना,  हिमालयी क्षेत्रों में 1500 से 3600 मीटर की मध्यम ऊंचाई पर पाया जाने वाला सदाबहार वृक्ष है। बुरांस के पेड़ों पर मार्च-अप्रैल माह में लाल सूर्ख रंग के फूल खिलते हैं। बुरांस के फूलों का इस्तेमाल दवाइयों में किया जाता है, वहीं पर्वतीय क्षेत्रों में पेयजल स्रोतों को यथावत रखने में बुरांस महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। बुरांस के फूलों से बना शरबत हृदय-रोगियों के लिए बेहद लाभकारी माना जाता है। बुरांस के फूलों की चटनी और शरबत बनाया जाता है, वहीं इसकी लकड़ी का उपयोग कृषि यंत्रों के हैंडल बनाने में किया जाता है। हमें ऐसी जानकारी थी कि बिनसर वन्य जीव अभयारण्य में तेंदुआ पाया जाता है। इसके अलावा हिरण और चीतल तो आसानी से दिखाई दे जाते हैं। पर अभ्यारण्य में एक भी पशु नहीं दिखा हाँ लौटते वक्त एक लंगूर अवश्य दिख गया । यहां 150 से भी ज्यादा तरह के पक्षी पाये जाते हैं। इनमें उत्तराखंड का राज्य पक्षी मोनाल सबसे प्रसिद्ध है पर इन विभिन्न पक्षियों की  मधुर आवाज तो हमें सुनाई दी पर दर्शन किसी के न हुए ।  इस दो किलोमीटर की ट्रेकिंग का अंत जीरो प्वाइंट पर होता है । यह इस पहाड़ी की  सबसे उंचा शिखर है और यहाँ से हिम शिखर के दर्शन होते हैं ।  अधिक सर्दी पड़ने पर यहाँ बर्फबारी भी हो जाती है ।

जब हम पहाड़ी से नीचे उतर रहे थे तो एक पुरानी कोठरी पर मेरी निगाह पड गई । पत्थरों  से निर्मित    यह जल स्त्रोत 120 वर्ष पुराना है जिसका जीर्णोदार कैम्पा योजना के तहत अभी कोई दो बर्ष पहले किया गया था । सदियों पुरानी पेयजल की यह व्यवस्था कुमाऊं के गांवों में नौला व धारे के नाम से जानी जाती है। यह  नौले और धारे यहां के निवासियों के पीने के पानी की आपूर्ति किया करते थे। इस व्यवस्था को अंग्रेजों ने भी नहीं छेड़ा था। नौला भूजल से जुड़ा ढांचा है। ऊपर के स्रोत को एकत्रित करने वाला एक छोटा सा कुण्ड है। इसकी सुंदर संरचना देखने लायक होती है। ये सुंदर मंदिर जैसे दिखते हैं। इन्हें जल मंदिर कहा जाय तो ज्यादा ठीक होगा। मिट्टी और पत्थर से बने नौले का आधा भाग जमीन के भीतर व आधा भाग ऊपर होता है।नौलों का निर्माण केवल प्राकृतिक सामग्री जैसे पत्थर व मिट्टी से किया जाता है।नौला की छत चौड़े किस्म के पत्थरों  से ढँकी रहती है। नौला के भीतर की दीवालों पर किसी-न-किसी देवता की मूर्ति विराजमान रहती है।  हमारे वाहन चालक ने हमें बताया कि शादी के बाद जब नई बहू घर में आती है तो वह घर के किसी कार्य को करने से पहले नौला पूजन के लिए जाती है और वहां से अपने घर के लिए पहली बार स्वच्छ जल भरकर लाती है। यह परंपरा आज तक भी चली आ रही है। विकास की सीढ़ियों को चढ़ते हुए अब लोगों ने इस व्यवस्था को भुला देना शुरू कर दिया है।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ जीवधन गड आणि नाणेघाट…भाग 1 ☆ श्री विनय माधव गोखले

 ☆ विविधा ☆ जीवधन गड आणि नाणेघाट…भाग 1 ☆ श्री विनय माधव गोखले ☆ 

३० जानेवारी २०२१ रोजी मी रात्री १०:३० वाजता ‘गिरीदर्शन’ च्या ‘जीवधन’ गड ट्रेक साठी ‘व्याडेश्वर’ समोर पोहोचलो. परंतु नेहमीची बस आलेली नव्हती आणि त्याऐवजीची ठरवलेली बस उशिरा येत आहे असे शुभवर्तमान कळले. पुढे जवळजवळ तासभर मागील ट्रेकच्या एकमेकांच्या रंजक गप्पा मारण्यात / ऐकण्यात वेळ कसा गेला ते मात्र कळले नाही. बदली बस मात्र छोटी होती त्यामुळे सर्वजण सामानासह जेमतेमच मावले. नारायणगाव येथे रात्री १:३० ला चहा घ्यायला थांबली तेवढीच नंतर एकदम पायथ्याच्या घाटघर गावातील मुक्कामाच्या घरीच थांबली.

घराबाहेर हवेतून एक “चर्र चर्र” असा आवाज ऐकू येत होता तो कुठून येतोय हे कळेना.  परंतु तेव्हा पहाटेचे ३:३० वाजलेले असल्याने आधी मिळेल तेवढी झोप घ्यावी आणि आवाजाचे कोडे सकाळी सोडवूयात असे ठरवून पथारी पसरल्या. पण थोड्याच वेळात मी जिथे झोपलो होतो त्याशेजारील बंद दरवाजाच्या फटीतून थंड हवा झुळुझुळू यायला सुरुवात होऊन थंडी वाजायला लागली. सकाळी तारवटलेल्या चेहेर्‍याने उठलो पण खिडकी उघडल्याउघडल्या ‘गुलाबी’ सूर्यदर्शन झाले आणि थकवा पार पळून गेला.  गरमागरम पोहे आणि काळा चहा प्यायल्यावर सर्व तेवीस जण ट्रेकसाठी सुसज्ज होऊन निघालो. त्याआधी थोडे जीवधन गडाबद्दल…

सातवाहन काळात म्हणजे इ. स. पू. पहिले शतक ते तिसरे शतक ह्या काळात बांधलेला हा एक अतिप्राचीन गड आहे. ह्यांच्या काळातच ‘नाणे घाट’ हा व्यापारी मार्ग बांधून काढण्यात आला. घाटाच्या माथ्याशी गुहा असून त्यात ब्राह्मी लिपीत मजकूर कोरला आहे. गुंफेत काही प्रतिमाही होत्या ज्यांचे आज फक्त पायच पहायला मिळतात. जीवधन हा ह्या नाणेघाटचा संरक्षक दुर्ग! चला तर पुढे… बघूयात वर्तमान काळात काय काय पाहायला मिळतंय जीवधन गडावर!

आमच्या आजच्या चमूमध्ये एक मनाने तरुण, गड-इतिहास-प्रेमी तसेच मोडी लिपी तज्ञ असे लळींगकर काका खास नवी मुंबईहून ट्रेकसाठी आले होते. मुक्कामच्या ठिकाणाहून गडाच्या पायथ्याजवळ बस आम्हाला घेऊन निघाली तेव्हापासूनच त्यांनी उत्साहाने आजूबाजूला दिसणार्‍या गडांची माहिती द्यायला सुरुवात केली होती.

त्यांनी बोट दाखवलेल्या दिशेला पहिले तर आम्हाला ‘नवरा-नवरी-करवली-भटोबा’ सुळके दिसले आणि त्यामागे काही ‘वराती’ सुळके दिसले. ह्या सगळ्यांना मिळून  ‘वर्‍हाडी  डोंगर’ असे गमतीशीर नाव आहे.

जंगलातील चढाई सुरुवातीला वाटली तितकी सोपी नव्हती. दगड घट्ट नसल्याने व उंच असल्याने त्यावर पाय जपून ठेवावे लागत होते. तरी बर्‍याच ठिकाणी दगडांवर पाय ठेवायला लोखंडी जाळ्या लावलेल्या दिसल्या.

साधारण ८० टक्के चढाई झाल्यावर श्वास चांगलाच फुलला होता. हयामागे कोरोना लोकडाऊन पोटी घ्यावी लागलेली अनेक महिन्यांची ‘सक्तीची विश्रांती’ कारणीभूत होती. पुढील २० टक्के वाटचालीत दगडी पायर्‍या चढून जाणे होते तसेच एका प्रस्तरावरून पुरातत्वखात्याने टाकलेली शिडी चढून जाण्याचा रोमांचक अनुभवही सर्वांना मिळाला.

साधारण अडीच तासात वर चढून आल्यावर उजव्या हातास थोडे खालच्या अंगास लपलेली धान्याची एक दगडी कोठी दिसते. आतमध्ये पायर्‍या उतरून जवळजवळ चार खोल्या असलेले अंधारे कोठार बघायला तुम्हाला टॉर्चच्या प्रकाशाचा आधार घ्यावाच लागतो. आत पायाला सर्वत्र मऊ माती लागते. कोरलेले  दरवाजे आणि कोनाडे असलेले व प्रवेशद्वाराच्या उंबरठावजा पायरीखालून पाण्याची पन्हाळ असलेली ही जागा “पूर्वी एखादे मंदीर असावे का?” अशी एक शंका मनात आल्यावाचून रहात नाही.

क्रमशः ….

© श्री विनय माधव गोखले

भ्रमणध्वनी – 09890028667

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिन्दी साहित्य – यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं #74-9 – चितई गोलू मंदिर ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. पर्यटन आपकी एक अभिरुचि है। इस सन्दर्भ में श्री अरुण डनायक जी हमारे  प्रबुद्ध पाठकों से अपनी कुमायूं यात्रा के संस्मरण साझा कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है  “कुमायूं -8 – बिनसर ”)

☆ यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं #74-9 – चितई गोलू मंदिर ☆ 

चितई गोलू मंदिर बिनसर से कोई तीस किलोमीटर दूर है । अल्मोड़ा से  यह ज्यादा पास है और आठ किलोमीटर दूर पिथौरागढ़ हाईवे पर है। यहां गोलू देवता का आकर्षक मंदिर है। मंदिर के बाहर अनेक प्रसाद विक्रेताओं की दुकानें है जिनमें तरह तरह की आकृति व आकार के घंटे मिलते हैं। मुख्य गेट से लगभग तीन सौ मीटर की दूरी पर एक छोटे से मंदिर के अंदर सफेद घोड़े में सिर पर सफेट पगड़ी बांधे गोलू देवता की प्रतिमा है, जिनके हाथों में धनुष बाण है।

उत्तराखंड में गोलू देवता को स्थानीय संस्कृति में सबसे बड़े और त्वरित न्याय के लोक देवता के तौर पर पूजा जाता है। उन्हें  शिव और कृष्ण दोनों का अवतार माना जाता है। उत्तराखंड ही नहीं बल्कि देश  विदेश से भी लोग गोलू देवता के इस मंदिर में लोग न्याय मांगने के लिए आते हैं। वे मनोकामना पूरी होने के लिए इस मन्दिर में अर्जी लिखकर आवेदन देते हैं और मान्यता पूरी होने पर पुनः आकर मंदिर में घंटियां चढ़ाते हैं। असंख्य घंटियों को देखकर  इस बात का अंदाजा लगता है  कि भक्तों की इस लोक देवता पर अटूट आस्था है, यहां मांगी गई  भक्त की मनोकामना कभी अधूरी नहीं रहती। अनेक लोग मन्नत के लिए स्टाम्प पेपर पर भी आवेदन पत्र लिखते हैं।आवेदन पत्र चितई गोलू देव, न्याय  के देवता, अल्मोड़ा को संबोधित करते हुए लिखते हैं। ऐसा वे इसलिए करते हैं क्योंकि कोर्ट में उनकी सुनवाई नहीं हुई या न्याय नहीं मिला। राजवंशी देवता के रुप में विख्यात गोलू देवता को उत्तराखंड में कई नामों से पुकारा जाता है। इनमें से एक नाम गौर भैरव भी है। गोलू देवता को भगवान शिव का ही एक अवतार माना जाता है। अद्भुत और अकल्पनीय देश में लोक मान्यताओं और विश्वास की परमपराएं सदियों पुरानी है। न्याय की आशा तो ग्रामीण जन करते ही हैं लेकिन न्याय उन्हें राजसत्ता से शायद कम ही मिलता है। और अगर न्याय न मिले तो गुहार तो देवता से ही करेंगे। इसी विश्वास और आस्था ने गोलू देवता को मान्यता दी है। हो सकता है वे कोई राजपुरुष रहे हों या राबिनहुड जैसा चरित्र रहे हों और सामान्यजनों के कष्टहरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई हो तथा ऐसा करते-करते वे लोक देवता के रुप में पूजनीय हो गए।

मेरा ऐसा सोचना सही भी है लोक कथाओं के अनुसार गोलू देवता चंद राजा, बाज बहादुर ( 1638-1678 ) की सेना के एक जनरल थे और किसी युद्ध में वीरता प्रदर्शित करते हुए उनकी मृत्यु हो गई थी । उनके सम्मान में ही अल्मोड़ा में चितई मंदिर की स्‍थापना की गई।

कोरोना काल में मंदिरों में लोगों का आना-जाना, काफी हद तक रोकथाम व पूजा-पाठ में निर्देशों का कड़ाई से पालन करने के कारण, कम हुआ है। इसलिए हमें इस मंदिर में ज्यादा समय नहीं लगा।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं – 8 – बिनसर ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. पर्यटन आपकी एक अभिरुचि है। इस सन्दर्भ में श्री अरुण डनायक जी हमारे  प्रबुद्ध पाठकों से अपनी कुमायूं यात्रा के संस्मरण साझा कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है  “कुमायूं -8 – बिनसर ”)

☆ यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं -8 – बिनसर ☆ 

बिनसर एक छोटा सा गाँव है और यहीँ क्लब महिंद्रा के वैली रिसार्ट में हम तीन दिन रुके और प्रत्येक दिन सुबह सबेरे पहाड़ी क्षेत्र में सैर का आनन्द लिया । ऐसी ही सुबह की सैर करते समय दो पांडेय बंधु मिल गए। मेहुल पांचवीं में पढ़ते हैं तो उनके चचेरे भाई वैभव पांडे जवाहर नवोदय विद्यालय की सातवीं कक्षा में पढ़ते हैं। मेहुल वैज्ञानिक बनने का इच्छुक है और वैभव बड़ा होकर गणित का शिक्षक बनने का सपना संजोए हुए है। वैभव कहता है सफल जीवन के लिए गणित में प्रवीणता जरुरी है, वैज्ञानिक भी वही बन सकता है जिसकी गणित अच्छी हो। मुझे उसकी बातें अच्छी लगी और थोड़ी आत्मग्लानि भी हुई, कारण मुझे तो गणित से शुरू से, बचपन से ही डर लगता था। गणित की कमजोरी ने मुझे जीवन में मनोवांछित सफलता से दूर रखा और दुर्भाग्य देखिए मुझे रसायनशास्त्र में स्नातकोत्तर अध्ययन भी भौतिक रसायन में करना पड़ा जिसे गणित ज्ञान के बिना समझना मुश्किल है फिर नौकरी भी बैंक में की जहां गणित का गुणा-भाग बहुत जरुरी है।  मैंने भी अपने अनुभव के आधार पर उसकी बात का समर्थन किया। पर्यावरण के विषय में दोनों बच्चों से चर्चा हुई, पर जितना स्कूल की किताबों में उन्होंने पढ़ा वे उसे स्पष्ट तौर से बता तो न सके लेकिन मोटा मोटी-मोटी जानकारी उन्हें थी। शायद गांव के बच्चे ऐसे ही होते हैं, उनमें संवाद क्षमता का अभाव होता है। मैंने अपना थोड़ा सा ज्ञान उन्हें दिया। मैंने बताया कि कैसे हिरण आदि जंगली जानवर पर्यावरण की रक्षा करते हैं। उनके द्वारा खाई गई घांस के बीज दूर दूर तक फैलते हैं और  दौड़ने से खुर पत्थर को मुलायम कर देता है इससे जमीन की पानी सोखने की क्षमता बढ़ती है। बच्चों ने मुझे बिनसर वाइल्ड लाइफ सेंचुरी देखने की सलाह दी और अनेक जंगली जानवरों, बार्किंग डियर, जंगली बकरी आदि के बारे में बताया। उन्होंने बताया की देवदार का पेड़ काफी उपयोगी है। लकड़ी जलाने के काम आती है और फर्नीचर भी बनता है। बच्चों से मैंने सुंदर लाल बहुगुणा के बारे में पूंछा । उन्हें  एकाएक याद तो नहीं आया पर जब मैंने पेड़ों की कटाई रोकने के योगदान की बात छेड़ी तो मेहुल बोल पड़ा हां चिपको आन्दोलन के बारे में उसने सुना है।

बच्चों को गांधी जी के बारे में भी मालूम है।  गांधी जी के नाम से लेकर उनके माता पिता कानाम, जन्म तिथि, जन्म स्थान, भारत की स्वतंत्रता में उनका योगदान आदि सब वैभव ने एक सांस में सुना दिया। अब मेहुल की बारी थी, उसने गांधी जी की हत्या की कहानी सुनाई कि 30 जनवरी को उन्हें तीन गोलियां मारी गई थी। मैंने पूंछा गांधी जी के बारे में इतना कुछ कैसे जानते हो, वे बोले हम तो गांधीजी के बारे में पुस्तकों में तो पढ़ते ही हैं फिर हमारे   परदादा स्व.श्री हर प्रसाद पाण्डेय (1907-1978 ) स्वतंत्रता सेनानी थे और अल्मोड़ा जेल में भी बंद रहे। हालांकि बच्चों ने उन्हें गांधी जी के साथ जेल में बंद होना बताया पर शायद वे नेहरू जी के साथ बंद रहे। उनकी मूर्ति भी गांव में लगाई गई है। पर मूर्त्ति में लगा उनका नाम पट्ट  छोटा है और उद्घाटनकर्ताओं की पट्टिका बहुत लंबी चौड़ी है।

दोनों बच्चों से मिलकर मुझे बहुत प्रसन्नता हुई। वे सवर्ण समुदाय के हैं और तरक्की करना चाहते हैं। उनकी यह सोच मुझे सबसे अच्छी  लगी, अद्भुत व अद्वतीय लगी। ऐसी सोच का मुझे मध्य प्रदेश के सवर्ण छात्रों में अभाव दिखा है और उन्हें भी शनै शनै धार्मिक कट्टरवाद की ओर ढकेला जा रहा है। वैभव को जवाहर नवोदय विद्यालय में , प्रतियोगिता से प्रवेश मिला था, पूरे ब्लाक से उसका अकेला चयन हुआ। दोनों के पिता साधारण कर्मचारी हैं और उन्होंने अपने बच्चों के उज्जवल भविष्य का जो सपना संजोया है उसे पूरा करने में अपनी ओर से कोताही नहीं बरती है।अब सरकार की जिम्मेदारी है कि उनके सपने ध्वस्त न होने दें। अगर वैभव सरीखे बच्चे आगे बढ़ेंगे तो देश का भविष्य संवरेगा और यह बच्चे आगे बढ़ें, खूब पढ़ें , तरक्की करें इसकी जिम्मेदारी समाज की है, हम सबकी भी है।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ रायगड प्रवास वर्णन…भाग 3 ☆ श्री विनय माधव गोखले

 ☆ विविधा ☆ रायगड प्रवास वर्णन…भाग 3 ☆ श्री विनय माधव गोखले ☆ 

इथून पुन्हा जगदीश्वरच्या मंदीराकडे येताना एका महत्वाच्या पायरीकडे लक्ष जाते, ते म्हणजे ‘हिरोजी इंदूळकर’ ह्यांच्या. हिरोजींनी मोठ्या हिकमतीने, निष्ठेने रायरीच्या डोंगराचा ‘रायगड’ असा कायापालट केला आणि महाराजांनी त्यांच्यावर जो विश्वास दाखवला होता तो सार्थ केला. महाराज जेव्हा हा दुर्ग बघायला आले तेव्हा हिरोजींनी सोन्यासारखा घडवलेला बेलाग ‘रायगड’ पाहून प्रसन्न झाले. त्यांनी हिरोजींना विचारले “तुम्हाला काय इनाम हवे?” त्यावर हिरोजी म्हणाले “मला सोने नाणे इनाम काही नको. फक्त मंदिराकडे येणार्‍या भक्तांस माझ्या नावाची पायरी दिसेल अशी ठिकाणी ती बांधण्याची परवानगी द्यावी!”

स्वामीनिष्ठ हिरोजींना मानाचा मुजरा करून पुढे आम्ही गाठले ते टकमक टोक! स्वराज्यातील गुन्हेगारांना, विश्वासघातक्यांना इथून कडेलोटाची कठोर शिक्षा दिली जात असे. पण इथेही काही पर्यटकांनी प्लास्टिकच्या बाटल्यांचा कडेलोट करून कड्याच्या टोकावरच कचरा केला आहे. असो.

इथेच घडलेली एक ऐकायला मजेशीर पण प्रत्यक्षात थरारक कथा नेहमी सांगितली जाते. ती म्हणजे, महाराज ‘टकमक’ टोकावर आले असताना त्यांच्यावर छत्री धरणारा एक सेवक वार्‍याच्या झंझावातबरोबर हवेत उडाला. सुदैवाने त्याने छत्री घट्ट पकडून ठेवल्याने तो हवेवर तरंगत, भरकटत, अलगदपणे शेजारील निजामपूर गावात सुखरूप उतरला. तेव्हापासून त्या गावाचे नाव निजामपूर छत्रीवाले असे ठेवण्यात आले. बसने पुण्यास परतीच्या मार्गावर असताना मला ह्या गावाचे नावंही एका फाट्यावर वाचायला मिळाले.

टकमक टोकावरून आमची वरात पुन्हा होळीच्या माळावर आली आणि तिथून महाराजांच्या पुतळ्यामागे असलेल्या राजदरबार, सदर पाहायला निघाली. हा परिसर मात्र चांगलाच भव्य आहे. दरबारात सिंहासनावर बसलेल्या महाराजांचा मेघडंबरी पुतळाही आहे. पण इथे काही फुटांवरून दर्शन घ्यावे लागते, अगदी जवळ जायला आता मनाई आहे. ह्याला कारण म्हणजे काही वर्षांपूर्वी कुणा समाजकंटकांनी तलवारीचा तुकडा तोडून पळविला होता.

त्यामागे आले असता दिसतात ते म्हणजे महाराजांचा राजवाडा, राण्यांचे महाल, शयनगृह इ. इथे मात्र सर्व भग्नावशेष पाहून मन खिन्न झाले. नुसतीच जोती पाहून महालांची ऊंची कशी कळणार? आपण नुसत्या कल्पनेचे महाल उभारायचे. राजवाड्याची एकंदर भव्यता मात्र जाणवल्यावचून राहत नाही. येथील एका बाजूच्या मेणा दरवाजाने तुम्हाला गंगासागर तलाव आणि मनोर्‍यांकडे जाता येते तर दुसर्‍या बाजूने धान्य कोठार व तसेच पुढे उतरून ‘रोप वे’च्या वरच्या स्थानका कडे जाता येते.

एव्हाना दोन वाजल्यामुळे जनतेला भूक लागली होती. सर्वजण जेवणाची आतुरतेने वाट पाहत होते जे थोड्याच वेळात ‘रोप वे’ ने दोघे जण घेऊन आले. मेणा दरवाज्याच्या बाहेरील मोकळ्या जागेत अंगतपंगत मांडून पोळी, फ्लॉवर-मटार-बटाटा अशी तिखट रस्सा भाजी, बटाट्याची सुकी भाजी, पापड आणि ‘गिरीदर्शन’ क्लबतर्फे ‘चितळे’ श्रीखंड अशा चविष्ट जेवणावर यथेच्छ ताव मारून झाल्यावर गंगासागर तलावाचे मधुर पाणी पिऊन आम्ही ‘दुर्गदुर्गेश्वर रायगडा’चा निरोप घेतला.

आता उर्वरीत दोन-तृतीयांश ‘रायगडा’चे दर्शन कधी मिळते आहे ह्याची मी रांगेत उभा राहून वाट पाहतो आहे. जगदीश्वर मजवर कृपा करो आणि हा योगही लवकर जुळून येवो, हीच प्रार्थना!

© श्री विनय माधव गोखले

भ्रमणध्वनी – 09890028667

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिन्दी साहित्य – यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं -7 – कसार देवी मंदिर – अलमोड़ा ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. पर्यटन आपकी एक अभिरुचि है। इस सन्दर्भ में श्री अरुण डनायक जी हमारे  प्रबुद्ध पाठकों से अपनी कुमायूं यात्रा के संस्मरण साझा कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है  “कुमायूं -7 – कसार देवी मंदिर– अलमोड़ा”)

☆ यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं -7 – कसार देवी मंदिर – अलमोड़ा  ☆

अल्मोड़ा बागेश्वर हाईवे पर “कसार” नामक गांव में स्थित कश्यप पहाड़ी की चोटी पर एक गुफानुमा जगह पर दूसरी शताब्दी के समय निर्मित कसार देवी का मंदिर है । इस मंदिर में माँ दुर्गा के आठ रूपों में से एक रूप “देवी कात्यायनी” की पूजा की जाती है  । लोक मान्यताओं के अनुसार इसी  स्थान पर  “माँ दुर्गा” ने शुम्भ-निशुम्भ नाम के दो राक्षसों का वध करने के लिए “देवी कात्यायनी” का रूप धारण किया था

कहते है कि स्वामी विवेकानंद 1890 में ध्यान के लिए कुछ महीनो के लिए इस स्थान में आये थे । और अल्मोड़ा से कुछ दूरी पर स्थित  काकडीघाट में उन्हें विशेष ज्ञान की अनुभूति हुई थी और उसके बाद ही उन्होंने पीड़ित  मानवता की सेवा का वृत संन्यास के साथ लिया ।   इसी तरह बौद्ध गुरु “लामा अन्ग्रिका गोविंदा” ने गुफा में रहकर विशेष साधना करी थी |

यह क्रैंक रिज के लिये भी प्रसिद्ध है , जहाँ 1960-1970 के दशक में “हिप्पी आन्दोलन” बहुत प्रसिद्ध हुआ था । इस  मंदिर में  1970 से 1980 के बीच अनेक तक डच संन्यासियों ने भी साधना की । हवाबाघ की सुरम्य घाटी में स्थित इस  मंदिर के पीछे एक विशाल चट्टान है जो देखने में शेर की मुखाकृति जैसी दिखती है ।

उत्तराखंड देवभूमि का यह  स्थान भारत का एकमात्र और दुनिया का तीसरा ऐसा स्थान है , जहाँ ख़ास चुम्बकीय शक्तियाँ  उपस्थित है ।दुनिया के तीन पर्यटन स्थल ऐसे हैं जहां कुदरत की खूबसूरती के दर्शनों के साथ ही मानसिक शांति भी महसूस होती है। जिनमें अल्मोड़ा स्थित “कसार देवी मंदिर” और दक्षिण अमरीका के पेरू स्थित “माचू-पिच्चू” व इंग्लैंड के “स्टोन हेंग” में अद्भुत समानताएं हैं । ये अद्वितीय और चुंबकीय शक्ति के केंद्र भी हैं। यह क्षेत्र ‘चीड’ और ‘देवदार’ के जंगलों का घर है । यह पर्वत शिखर  अल्मोड़ा शहर के  साथ साथ हिमालय के मनोरम दृश्य भी प्रदान करता है।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ रायगड प्रवास वर्णन…भाग 2 ☆ श्री विनय माधव गोखले

 ☆ विविधा ☆ रायगड प्रवास वर्णन…भाग 2 ☆ श्री विनय माधव गोखले ☆ 

ह्यापुढे आम्ही पोहोचलो ते एका अतिशय ऐतिहासिक महत्वाच्या जागी तो म्हणजे होळीचा माळ. इथे गडावरील होळीचा सण साजरा व्हायचा आणि इथेच महाराजांचा राज्याभिषेकाचा सोहळा पार पडला होता. तिथल्या छत्रपतींच्या भव्य पुतळ्यापुढे नतमस्तक झाल्यावर जन्माचे सार्थक झाल्यासारखे वाटले. ‘स्वराज्य’ मिळवण्यासाठी स्वत:चे अवघे आयुष्य ओवाळून टाकणार्‍या, जिवाची बाजी लावून परक्या शत्रूचा तसेच घरभेद्यांचाही नि:पात करणार्‍या, प्रसंगी महाघोर संकटांना शौर्याने तोंड देऊन स्वत:ची, अवघ्या रयतेची, स्वदेशाची आणि स्वधर्माची अस्मिता जपणारे आणि उजळवून टाकणारे श्रीमान योगी जिथे राजसिंहासनावर बसले त्याच भूमीवर आपण उभे आहोत ही जाणीव मनाला गहिवर आणि डोळ्यांत कृतज्ञतेचे अश्रू आणते.

होळीच्या माळावरून चालत पुढे आम्ही बाजारपेठ मध्ये आलो. आता ह्या ठिकाणी घरांची फक्त जोती शिल्लक आहेत. इथे घोड्यांवरून मालाची खरेदी-विक्री चालायची असे म्हणतात. काही इतिहासतज्ञ असेही म्हणतात की ही बाजारपेठ नसून गडावर मुक्कामास असलेल्या सरदारांची / भेटीस आलेल्या खाशांच्या राहण्याची सोय म्हणून बांधलेली घरे आहेत.

बाजारपेठेतून पुढे आल्यावर एका मावशींकडे कोकम सरबत पिण्याचा मोह आवरला नाही. मावशींकडे “तुमचे गाव कोणते? आता धंदा’पाणी’ कसे सुरू आहे?” अशी विचारणा केल्यावर “पायथ्याचं हिरकणवली आमचं गाव. अजून पूर्वीइतके पर्यटक येत नाहीत.” म्हणाल्या. “इथून भवानीकडा किती लांब आहे?” असे विचारण्याचाच अवकाश त्यांनी गडाची सगळी कुंडलीच माझ्यासमोर मांडली.  ? “गड पूर्ण बघायला किमान तीन दीस लागतील, गडावर इतकी तळी आहेत, तितकी टाकं आहेत”,

त्याचजोडीला “दारूगोळ्याच्या कोठारावर इंग्रजांचा तोफगोळा पडून मोठा स्फोट झाला आणि पुढे बारा दिवस गड जळत होता”, अशी काही दारुण ऐतिहासिक माहिती बाईंकडून ऐकायला मिळाली. त्यांचा नवरा किंवा घरातील कुणीतरी गाईडचे काम करणारे असावे अशी मला शंका येते न येतेस्तोवरच एक कुरळ्या केसांचा पुरुष तिच्याकडे आला आणि म्हणाला “चल, लवकर पाणी पाज”. हयालाच मी थोड्या वेळापूर्वी पर्यटकांच्या एका चमूला माहिती देताना पहिले होते. सुशिक्षित काय किंवा अशिक्षित काय बायकोच शेवटी नवर्‍यास पाणी पाजणार!!  ?? असो.

इथून पुढे थोडे चालत आम्ही जगदीश्वर मंदिरापाशी आलो. महाराज रोज पूजेसाठी इथे येत असत. त्यामुळे मंदीराच्या बाहेर पादत्राणे उतरवूनच आत जावे. थोड्या भग्नावस्थेतील नंदीचे दर्शन घेऊन गाभार्‍यात प्रवेश करावा. शंकराच्या पिंडीचे दर्शन घ्यावे आणि आजूबाजूची गर्दी विसरून दोन मिनिटे डोळे मिटून शांत बसावे.

चिरेबंदी मंदिराची रचना भव्य असून एका चिर्‍यावर संस्कृत श्लोक कोरलेला आहे. हा चिरा भिंतीमधील इतर चिर्‍यांपेक्षा वेगळा दिसतो त्यामुळे असेही म्हणतात की हा चिरा मूळ घडणीतील नसून नंतरच्या काळात बसवण्यात आला असावा.

मंदिराच्या मागील बाजूसच छत्रपती शिवाजी महाराजांचे समाधीस्थळ आहे. ह्या पवित्र जागी माथा टेकवून सर्व भक्तमंडळी धन्यधन्य होतात. रणजीत देसाईंच्या पुस्तकातील ‘श्रीमान योगी’ इथे समाधीस्थ असले तरी सर्व हिंदूंच्या हृदयसिंहासनावर अजून जागृत राज्य करीत आहेत ह्याची जाणीव होते. महाराजांच्या समाधीमागेच वाघ्या कुत्र्याची समाधी आहे. इथूनच थोड्या दूर अंतरावर लिंगाण्याचा सुळका आव्हान देत उभा दिसतो. त्याच्या मागेच राजगड-तोरणा ही दुर्गजोडी अस्पष्ट का होईना पण दिसते. सूर्योदय किंवा सूर्यास्ताच्या वेळी मात्र स्पष्टपणे दिसते. समाधीच्या डाव्या बाजूस पहिले तर ‘कोकणदिवा’ दृष्टीस पडतो.

“मरावे परी कीर्तीरूपी उरावे”

© श्री विनय माधव गोखले

भ्रमणध्वनी – 09890028667

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

 

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ रायगड प्रवास वर्णन…भाग 1 ☆ श्री विनय माधव गोखले

 ☆ विविधा ☆ रायगड प्रवास वर्णन…भाग 1 ☆ श्री विनय माधव गोखले ☆ 

२०१९ च्या दिवाळीत पंढरपूर क्षेत्री जाऊन जवळजवळ दीड तास दर्शनाच्या रांगेत उभा राहिलो असताना मी विचार करीत होतो की ‘इतका वेळ रांगेत घालवणे उचित आहे का? देवालयाला बाहेरूनच नमस्कार करायला काय हरकत आहे?’ पण मग विचार केला की देवाचे दर्शन हे सहजपणे न होता हे असेच कष्टसाध्य असले पाहिजे. नुसते पैसे भरून काही मिनिटांत होणारे सुलभ दर्शन “देखल्या देवा दंडवत!” सारखे झटपट समाधान देईलही कदाचित पण त्याने देवदर्शनाची आस फिटेल का? सरतेशेवटी एकदा पांडुरंगाच्या सगुण मूर्तीसमोर उभा राहिलो आणि मात्र डोळ्याचे पारणे फिटून धन्यधन्य झालो! कदाचित मंदिरातील, गाभार्‍यातील वातावरणाचा, आवाजाचा कुठेतरी मनावर खोलवर परिणाम होत असावा. “स्थानं खलु प्रधानं” असे म्हटले आहे ते काय उगीच नव्हे. थोडाफार असाच परिणाम नुकताच पुन्हा एकदा अनुभवास आला जेव्हा मी रायगडावरील ‘महाराजां’च्या स्फूर्तिदायक मूर्तीसमोर उभा राहिलो तेव्हा.

१६ जानेवारी २०२१ रोजी मी रात्री 10:30 वाजता ‘गिरीदर्शन’च्या ‘रायगड’ ट्रेकच्या बसमध्ये उत्साहाच्या भरात चढलो आणि लक्षात आले की मी मास्क आणि उन्हाळी टोपी ह्या दोन्ही आवश्यक गोष्टी घरीच विसरलो आहे. JJ असो. बस हलली असल्याने आता काही करणेही शक्य नव्हते. बसमध्ये मात्र सर्वत्र तरुणाई भरली होती त्यामुळे उत्साहाचे वारे संचारले होते. मग माझ्या शेजारी बसलेल्या मेकॅनिकल इंजींनीयरिंगच्या तिसर्‍या वर्षाला शिकत असलेल्या चिंचवडच्या सर्वेश बरोबर ओळख काढून गप्पा सुरू केल्या. “कोविद मुळे लेक्चर्स ऑफलाइन झाली नाहीत आणि ऑनलाइनही नियमितपणे होत नाहीत” असे गार्‍हाणे गात बिचारा जेरीस आलेला होता. कुठेतरी आयुष्यात बदल हवा म्हणून तो ट्रेकला आला होता. असो.

रात्री साधारण साडेतीन वाजता पाचाड गावातील एकांच्या मुक्कामस्थळी पोहोचलो. लगेचच घरच्या सारवलेल्या ओसरीवर पसरून सर्व पुरुषांनी ताणून दिली आणि मुली घरातील एका खोलीमध्ये विसावल्या. पुढील तीन-चार तासच जेमतेम झोपायला मिळणार होते. पण तासभर झाला असेल नसेल, आमच्या शेजारीच कांबळी टाकून झाकलेल्या एका दुरडीखाली ठेवलेल्या कोंबड्याने बांग द्यायला सुरुवात केली. त्याला आजूबाजूच्या त्याच्या साथीदारांनी सुरात सूर मिसळून साथ द्यायला सुरुवात केली. त्याच जोडीला दुरडीमध्येच असलेल्या कोंबड्याच्या पिल्लांनीही चिवचिवायला सुरुवात केली. एखाद्याच्या “झोपेचे खोबरे होणे” ह्याऐवजी झोपेचे कुकुच्च्कू होणे असा वाक्प्रचार प्रचलित करून ‘अखिल कोंबडे पक्ष्या’चा निषेध करावा असे ठरवून मी झोपेची आराधना करायला लागलो.

सकाळी साडेसहाला उठून पहिले तर ‘रोप वे’च्या पाळण्याच्या ट्रिप सुरू झालेल्या दिसल्या. लगेच आवरून आम्ही हॉटेल ‘मातोश्री’ मध्ये पोहे-चहाचा भरपूर नाश्ता करून पायथ्याशी पोहोचलो आणि आमच्या दुहेरी ‘लेग वे’ ने चढाईस प्रारंभ केला.

रविवारची सुट्टी असल्याने पर्यटकांची भरपूर गर्दी लोटली होती. त्यामुळे गडाची संपूर्ण माहिती देणार्‍या गाईडनाही काम मिळत होते. पायथ्याची सर्व दुकाने एव्हाना सजली असल्याने मला उन्हाळी टोपी लगेच विकत घेता आली. मास्क मात्र कोणीच घातलेला नव्हता, त्यामुळे मीही तो घेण्याच्या फंदात पडलो नाही. काही पायर्‍या चढून पहिल्या बुरूजापाशी थांबलो. स्वराज्याची दुसरी राजधानी असलेल्या रायगडच्या दर्शनाला आलेल्या भक्तांच्या भावना अनावर होऊन “छत्रपती शिवाजी महाराज की जय”, “जय भवानी, जय शिवाजी” अशा उत्स्फूर्त घोषणा सतत उठत होत्या. तिथल्या दुकानातच महाराजांची प्रतिमा असलेला ‘जाणता राजा’ लिहिलेला भगवा झेंडा मिळत होता. त्यासोबत फोटो काढून घेण्याची सर्वजण धडपड करीत होते. काहीजण तो झेंडा हातात घेऊन धावत गड चढून जात होते.

आपल्या आवडत्या राजाला मानाचा मर्दानी मुजरा देण्याची व भेटण्याची केवढी विलक्षण आतुरता!!

मजल दरमजल करीत चढत असताना आमच्या मध्येच पाठीवर पायरीचे तासीव अवजड दगड लादलेली गाढवे ही गड चढत होती. एका पाथरवटाला विचारले तर कळले की एका दिवसात एक गाढव तीन फेर्‍या मारते. हे ऐकून मात्र ह्या कष्टाळु प्राण्याचे भारीच कवतिक वाटले. इथे आम्ही कसाबसा एकदा हा गड चढउतार करून मोठा पराक्रम गाजवणार होतो! अर्थात रायगडच्या पायर्‍यांचे वैशिष्ट्य म्हणजे सकाळी चढाईच्या वेळेत उन्ह अजिबात लागत नव्हते व त्यामुळे थकवा जाणवत नव्हता. एक पर्यटक मोबाईलवर मोठयाने गाणी ऐकत गड उतरत होता त्याला आमच्या चमूतील एकाने ताबडतोब बंद करायला लावला. सुमारे दोन-सव्वादोन तासांत आम्ही वर पोहोचलो.

प्रथम दर्शन झाले ते महादरवाज्याचे. काही वर्षांपूर्वीच बसवलेला हा 16 फूटी भव्य दरवाजा खरोखर बघण्यासारखा आहे. त्यानंतर स्वागत करतो ते ‘हत्ती तलाव’. “हत्ती तलावात शिरला तर कसं बाहेर येईल?” तर ह्याचे उत्तर “ओला होऊन!” हा विनोद मला आठवला. पण रायगडावरील ह्या तलावात जर हत्ती शिरला तर तो खात्रीने पायाचे तळवेही न ओलावता कोरडा ठणठणीत बाहेर येईल इतका हा शुष्क पडला आहे. पावसाचे पाणीही गळतीमुळे ह्यात टिकत नाही. पूर्वी केलेल्या गळती-प्रतिबंधक योजना पूर्णपणे अयशस्वी ठरल्या आहेत. इथून थोडे वर आल्यावर ‘शिरकाई’ देवीचे मंदिर लागते.

© श्री विनय माधव गोखले

भ्रमणध्वनी – 09890028667

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिन्दी साहित्य – यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं -6 – नंदा देवी – अलमोड़ा ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. पर्यटन आपकी एक अभिरुचि है। इस सन्दर्भ में श्री अरुण डनायक जी हमारे  प्रबुद्ध पाठकों से अपनी कुमायूं यात्रा के संस्मरण साझा कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है  “कुमायूं -6 – नंदा देवी – अलमोड़ा”)

☆ यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं -6 – नंदा देवी – अलमोड़ा  ☆

अल्मोड़ा नगर उत्तराखंड  राज्य के कुमाऊं मंडल  में स्थित है। यह समुद्रतल से 1646 मीटर की ऊँचाई पर लगभग  12 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैला हुआ है। यह नगर घोड़े की काठी के आकार की पहाड़ी की चोटी के दक्षिणी किनारे पर स्थित है। कोशी  तथा सुयाल नदियां नगर के नीचे से होकर बहती हैं।

अल्मोड़ा  की चोटी के पूर्वी भाग को तेलीफट, और पश्चिमी भाग को सेलीफट के नाम से जाना जाता है। चोटी के शीर्ष पर, जहां ये दोनों, तेलीफट और सेलीफट, जुड़ जाते हैं, अल्मोड़ा बाजार स्थित है। यह बाजार बहुत पुराना है और सुन्दर कटे पत्थरों से बनाया गया है। इसी नगर के बीचोंबीच उत्तराखंड राज्य के पवित्र स्थलों में से एक “नंदा देवी मंदिर” स्थित है जिसका विशेष धार्मिक महत्व है। इस मंदिर में “देवी दुर्गा” का अवतार विराजमान है । समुन्द्रतल से 7816 मीटर की ऊँचाई पर स्थित यह मंदिर चंद वंश की “ईष्ट देवी” माँ नंदा देवी को समर्पित है । माँ दुर्गा का अवतार, नंदा देवी भगवान शंकर की पत्नी है और पर्वतीय आँचल की मुख्य देवी के रूप में पूजनीय हैं । दक्षप्रजापति की पुत्री होने की मान्यता के कारण कुमाउनी और गढ़वाली उन्हें पर्वतांचल की पुत्री मानते है ।

नंदा देवी मंदिर के पीछे कई ऐतिहासिक कथाएं हैं  और इस स्थान में नंदा देवी को प्रतिष्ठित  करने का श्रेय चंद शासको का है। सन 1670 में कुमाऊं के चंद शासक राजा बाज बहादुर चंद बधाणकोट किले से माँ नंदा देवी की सोने की मूर्ति लाये और उस मूर्ति को मल्ला महल (वर्तमान का कलेक्टर परिसर, अल्मोड़ा) में स्थापित कर दिया , तब से चंद शासको ने माँ नंदा को कुल देवी के रूप में पूजना शुरू कर दिया । इसके बाद बधाणकोट विजय करने के बाद राजा जगत चंद  ने माँ नंदा की वर्तमान प्रतिमा को मल्ला महल स्थित नंदादेवी मंदिर में स्थापित करा दिया । सन 1690 में तत्कालीन राजा उघोत चंद ने पार्वतीश्वर और चंद्रेश्वर नामक “दो शिव मंदिर” मौजूदा नंदादेवी मंदिर में बनाए । सन 1815 को मल्ला महल में स्थापित नंदादेवी की मूर्तियों को कमिश्नर ट्रेल ने चंद्रेश्वर मंदिर में प्रतिष्ठित करा दिया ।

अल्मोड़ा में मां नंदा की पूजा-अर्चना तारा शक्ति के रूप में तांत्रिक विधि से करने की परंपरा है। पहले से ही विशेष तांत्रिक पूजा चंद शासक व उनके परिवार के सदस्य करते आए हैं । नंदादेवी भाद्रपद के कृष्णपक्ष में जब अपनी माता से मिलने पधारती हैं तो इसे उत्सव के रूप में मनाया जाता है और  राज राजेश्वरी नंदा देवी की यात्रा  को राजजात या नन्दाजात कहा जाता है । आठ दिन चलने वाली इस  “देवयात्रा” का समापन  अष्टमी के दिन मायके से विदा कराकर  किया जाता है । राजजात या नन्दाजात यात्रा के लिए देवी नंदा को दुल्हन के रूप में सजाकर  डोली में बिठाकर एवम् वस्त्र ,आभूषण, खाद्यान्न, कलेवा, दूज, दहेज़ आदि उपहार देकर अपने मायके से पारंपरिक रूप में विदाई देकर  ससुराल भेजते हैं । नंदा देवी राज जात यात्रा हर बारह साल के अंतराल में एक बार आयोजित की जाती है ।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं -5 – जागेश्वर धाम या मंदिर ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. पर्यटन आपकी एक अभिरुचि है। इस सन्दर्भ में श्री अरुण डनायक जी हमारे  प्रबुद्ध पाठकों से अपनी कुमायूं यात्रा के संस्मरण साझा कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है  “कुमायूं -5 – जागेश्वर धाम या मंदिर”)

☆ यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं -5 – जागेश्वर धाम या मंदिर ☆

उत्तराखंड के प्रमुख देवस्थलो में “जागेश्वर धाम या मंदिर” प्रसिद्ध तीर्थ स्थान है । उत्तराखंड का यह  सबसे बड़ा मंदिर समूह ,कुमाउं मंडल के अल्मोड़ा जिले से 38 किलोमीटर की दूरी पर देवदार के जंगलो के बीच में स्थित है । जागेश्वर को उत्तराखंड का “पाँचवा धाम” भी कहा जाता है | जागेश्वर मंदिर में 125 मंदिरों का समूह है, इसमें से 108 मंदिर शिव के विभिन्न स्वरूपों, अवतारों को समर्पित हैं व शेष मंदिर अन्य देवी-देवताओं के हैं ।  अधिकाँश मंदिरों में पूजा अर्चना नहीं होती है केवल  4-5 मंदिर ही  प्रमुख है और इनमे  विधि के अनुसार पूजन-अर्चन होता है । जागेश्वर धाम मे सारे मंदिर समूह नागर   शैली से निर्मित हैं | जागेश्वर अपनी वास्तुकला के लिए काफी विख्यात है। बड़े-बड़े पत्थरों से निर्मित ये विशाल मंदिर बहुत ही सुन्दर हैं।

प्राचीन मान्यता के अनुसार जागेश्वर धाम भगवान शिव की तपस्थली है। यहाँ नव दुर्गा ,सूर्य, हमुमान जी, कालिका, कालेश्वर प्रमुख हैं। हर वर्ष श्रावण मास में पूरे महीने जागेश्वर धाम में पर्व चलता है । पूरे देश से श्रद्धालु इस धाम के दर्शन के लिए आते है। यहाँ देश विदेश से पर्यटक भी खूब आते हैं पर कोरोना संक्रमण की वजह से अभी भीड़ कम थी  । जागेश्वर धाम में तीन मंदिरों ने हमें आकर्षित किया,  पहला “शिव” के ज्योतिर्लिंग स्वरुप का जागेश्वर मंदिर, जिसके  प्रवेशद्वार के दोनों तरफ द्वारपाल, नंदी व स्कंदी की आदमकद मूर्तियाँ  स्थापित है। मंदिर के भीतर, एक मंडप से होते हुए गर्भगृह पहुंचा जाता है। मंडप परिसर में ही शिव परिवार गणेश, पार्वती की कई मूर्तियाँ स्थापित हैं। गर्भगृह में  शिवलिंग के आकर्षक स्वरुप के दर्शन होते हैं। दूसरा  विशाल मंदिर परिसर के बीचोबीच स्थित शिव के “महामृत्युंजय रूप” का है ।  मंदिर परिसर के दाहिनी ओर अंतिम छोर पर, महामृत्युंजय महादेव मंदिर के पीछे की ओर,अपेक्षाकृत छोटे से मंदिर में  पुष्टि भगवती माँ की मूर्ति स्थापित है।

मंदिर परिसर के समीप ही एक छोटा परन्तु बेहतर रखरखावयुक्त संग्रहालय है। यहाँ संग्रहित शिल्प जागेश्वर अथवा आसपास के क्षेत्रों से प्राप्त हुए है। यहाँ शिलाओं पर तराशे अनेक  भित्तिचित्रों में  नृत्य करते गणेश, इंद्र या विष्णु के रक्षक देव अष्ट वसु, खड़ी मुद्रा में सूर्य, विभिन्न मुद्राओं में उमा महेश्वर और विष्णु , शक्ति के भित्तिचित्र चामुंडा, कनकदुर्गा, महिषासुरमर्दिनी, लक्ष्मी, दुर्गा इत्यादि के रूप दर्शनीय  हैं। इस संग्रहालय की सर्वोत्तम कलाकृति है पौन राजा की आदमकद प्रतिकृति जो अष्टधातु में बनायी गयी है। यह कुमांऊ क्षेत्र की एक दुर्लभ प्रतिमा है।

जागेश्वर भगवान सदाशिव के बारह ज्योतिर्लिगो में से एक है । यह ज्योर्तिलिंग “आठवा” ज्योर्तिलिंग माना जाता है | इसे “योगेश्वर” के नाम से भी जाना जाता है। ऋगवेद में ‘नागेशं दारुकावने” के नाम से इसका उल्लेख मिलता है। महाभारत में भी इसका वर्णन है ।  द्वादश ज्योर्तिलिंगों   की उपासना हेतु निम्न वैदिक मंत्र का जाप किया जाता है । इसके अनुसार  दारुका वन के नागेशं को आठवे क्रम में  ज्योर्तिलिंग माना गया है ।

सौराष्ट्रे सोमनाथं च श्रीशैले मल्लिकार्जुनम्।

उज्जयिन्यां महाकालमोंकारममलेश्वरम्॥1॥

परल्यां वैद्यनाथं च डाकिन्यां भीमशंकरम्।

सेतुबन्धे तु रामेशं नागेशं दारुकावने॥2॥

वाराणस्यां तु विश्वेशं त्र्यम्बकं गौतमीतटे।

हिमालये तु केदारं घृष्णेशं च शिवालये॥3॥

एतानि ज्योतिर्लिंगानि सायं प्रात: पठेन्नर:।

सप्तजन्मकृतं पापं स्मरणेन विनश्यति॥4॥

एक अन्य मान्यता के अनुसार द्वारका गुजरात से लगभग 20-25 किलोमीटर दूर, भगवान शिव को समर्पित नागेश्वर मंदिर, शिव जी के बारह ज्योर्तिलिंग में से एक है एवं इसे भी आठवां ज्योर्तिलिंग कहा गया है । धार्मिक मान्यताओं के अनुसार  नागेश्वर का अर्थ है नागों का ईश्वर । यह विष आदि से बचाव का सांकेतिक भी है। रूद्र संहिता  में यहाँ विराजे शिव को दारुकावने नागेशं कहा गया है। मैंने अपने इसी ज्ञान के आधार पर पुजारी से तर्क किया । पुजारी ने सहमति दर्शाते हुए अपना तर्क प्रस्तुत किया कि दारुका वन का अर्थ है देवदार का वन और देवदार के घने जंगल तो सामने जटागंगा नदी के उस पार स्थित हैं । फिर पुराणों में द्वारका का उल्लेख नहीं है अत: यही आठवां ज्योतिर्लिंग है । यह भी आश्चर्य की बात है कि अल्मोड़ा शहर से  इस स्थल तक  पहुंचने के पूर्व चीड़ के जंगल हैं पर मंदिर समूह के पास केवल देवदार के वृक्ष हैं और इसके कारण सम्पूर्ण घाटी गहरे हरे रंग से आच्छादित है ।  जागेश्वर को पुराणों में “हाटकेश्वर”  के नाम से भी जाना जाता है |

यद्दपि जनश्रुतियों के अनुसार जागेश्वर नाथ के मंदिर को पांडवों ने बनवाया था तथापि इतिहासकारों ने इस समूह को 8 वी से 10 वी शताब्दी  के दौरान कत्यूरी राजाओ और चंद शासकों  द्वारा निर्मित बताया है ।

जागेश्वर के इतिहास के अनुसार उत्तरभारत में गुप्त साम्राज्य के दौरान हिमालय की पहाडियों के कुमाउं क्षेत्र में कत्युरीराजा था | जागेश्वर मंदिर का निर्माण भी उसी काल में हुआ | इसी वजह से मंदिरों में गुप्त साम्राज्य की झलक दिखाई देती है | मंदिर के निर्माण की अवधि को भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा तीन कालो में बाटा गया है “कत्युरीकाल , उत्तर कत्युरिकाल एवम् चंद्रकाल” | अपनी अनोखी कलाकृति से इन साहसी राजाओं ने देवदार के घने जंगल के मध्य बने जागेश्वर मंदिर का ही नहीं बल्कि अल्मोड़ा जिले में 400 सौ से अधिक मंदिरों का निर्माण किया था |जिसमे से जागेश्वर के आसपास  ही लगभग 150 छोटे-बड़े मंदिर है | मंदिरों के  निर्माण में  लकड़ी तथा चूने की जगह पर पत्थरो के स्लैब का प्रयोग किया गया है | दरवाज़े की चौखटे देवी-देवताओ की प्रतिमाओं से सुसज्जित हैं । इन प्रतिमाओं में शिव के द्वारपाल, नाग कन्याएं आदि प्रमुख हैं । कुछ मंदिरों में शिव के रूप भी उकेरे गए हैं । हमने शिव का तांडव नृत्य करते हुए एक प्रतिमा देखी । बीच में शिव नृत्य मुद्रा में एक हाथ में त्रिशूल तो दूसरे हाथ में सर्प लिए थिरक रहें हैं, उनके शेष दो हाथ नृत्य मुद्रा में हैं तो मुखमंडल में प्रसन्नता व्याप्त  है व नृत्य में लीं शिव के नेत्र बंद हैं । ऊपर की ओर शिव के दोनों पुत्र कार्तिकेय व गणेश विराजे हैं तो नीचे वाद्य यंत्रों के साथ गायन-वादन करती स्त्रियाँ हैं । एक अन्य प्रतिमा में शिव योग मुद्रा में बैठे हैं । उनके दो हाथों में से एक में दंड है तो दूसरा हाथ आशीर्वाद मुद्रा में है । ऊपर की ओर अप्सराएँ दृष्टिगोचर हो रहीं हैं तो नीचे पृथ्वी पर संतादी शिव का आराधना कर रहे  हैं । इन दोनों शिल्पों के ऊपर शिव की  त्रिमुखी प्रतिमाएं हैं ।

इस स्थान में कर्मकांड, संबंधी  जप, पार्थिव पूजन, महामृत्युंजय जाप, नवगृह जाप, काल सर्पयोग पूजन, रुद्राभिषेक आदि होते रहते है । इन आयोजनों के लिए जागेश्वर मंदिर प्रबंधन समिति के कार्यालय में संपर्क कर निर्धारित शुल्क जमा करना होता है । कोरोना संक्रमण काल में ऐसे आयोजन कम हो रहे थे और एक दिन पूर्व इसकी बुकिंग हो रही थी । लेकिन इस डिजिटल युग में विज्ञान अब आध्यात्म से मिल गया है और काउंटर पर बैठे सज्जन ने मुझे आनलाइन रुद्राभिषेक कराने की सलाह दी । मैंने तत्काल तो नहीं पर कुछ समय पश्चात विचार कर शुल्क जमा कर दिया व रसीद प्राप्त करली । आचार्य ललित भट्ट ने अपने व्हाट्स एप मोबाइल नंबर का आदान प्रदान किया और फिर मेरे भोपाल वापस आने पर संपर्क स्थापित कर आनलाइन रुद्राभिषेक का विधिवत पूजन दिनांक 04.12.2020 को करवाया । भोपाल में हम दोनों भाई, अमेरिका से भतीजा व कनाडा से पुत्र सपरिवार इस धार्मिक आयोजन में शामिल हुए । गणेश पूजन, गौरी पूजन, नवगृह पूजन के बाद आचार्य जी ने शिव का विधिवत पूजन अर्चन किया फिर जल से अभिषेक कर शिव का सुन्दर श्रृंगार किया । साथ ही हमें आनलाइन जागेश्वर नाथ के सम्पूर्ण मंदिर समूह के दर्शन कराए ।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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