☆ पर्यटक की डायरी से – मनोवेधक मेघालय – भाग-२ ☆ डॉ. मीना श्रीवास्तव ☆
(मनमोहिनी मॉलीन्नोन्ग, डिव्हाईन, डिजिटल डिटॉक्स (divine, digital detox))
प्रिय पाठकगण,
कुमनो! (मेघालय की खास भाषामें नमस्कार, हॅलो!)
फी लॉन्ग कुमनो! (कैसे हैं आप?)
यहाँ प्राकृतिक रूप से बसे बांस के बनों का कितना और कैसे बखान करें! मुझे तो बांस इस शब्द से बेंत से ज्यादातर रोज खाई मार(रोज कम से कम ५) ही याद आती है| उसमें से ९९. ९९% बार मार पड़ती थी, स्कूल में देरी से पहुँचने के लिए| (मित्रों, ऐसा कुछ खास नहीं, स्कूल की घंटी घर में सुनाई देती थी, इसलिए, जाएंगे आराम से, बगल में ही तो है स्कूल, यह कारण होता था!) यहाँ बांस का हर तरफ राज है! कचरा डालने हेतु जगह जगह बांस की बास्केट, यानी खोह (khoh), उसकी बुनाई इतनी सुंदर, कि, उसमें कचरा डालने का मन ही नहीं करेगा! यहाँ लोगोंके लिए धूप तथा बारिश से बचाव करने के लिए भी फिर बांस के अत्यंत बारीकी और खूबसूरती से बने प्रोटेक्टिव्ह कव्हर होते हैं! अनाज को सहेज कर रखने, मछली पकड़ने और आभूषण बनाने के लिए बांस ही काम आता है ! बांस की अगली महिमा अगले भाग में!
सवेरे सवेरे यहाँ की स्वच्छता-सेविकाएं कचरा इकठ्ठा करने के काम में जुट जाती हैं, प्लास्टिक का उपयोग नहीं के बराबर, क्यों कि पॅकिंग के लिए हैं छोटे मोटे पत्ते! प्राकृतिक रूप से जो भी उपलब्ध हो उसी साधन संपत्ती का उपयोग करते हुए यहाँ के घर बनाये जाते हैं(फिर बांस ही तो है)! जैविक कचरा इकठ्ठा कर यहाँ खाद का निर्माण होता है| यहाँ है open drainage system परन्तु क्या बताएं, उसका पानी भी प्रवाही और स्वच्छ, गटर भी कचरे से बंद नहीं(प्रत्यक्ष देखें और बाद में विश्वास करें!) सौर-ऊर्जा का उपयोग करते हुए यहाँ के पथदीप स्वच्छ रास्तोंको प्रकाश से और भी उज्जवल बना देते हैं| अलावा इसके हर घर में सौर-दिये(बल्ब) और सौर-टॉर्च होते ही हैं, बारिश के कारण बिजली गायब हो तो ये चीजें काम आती हैं! प्रिय पाठकगण, ध्यान दीजिये, यह मेघालय का गांव है, यहाँ मेघोंकी घनघोर घटाएं नित्य ही छाई रहती, तब भी सूर्यनारायण के दर्शन होते ही सौर-ऊर्जा को सहेज कर रखा जाता है! और यहाँ हम सूर्य कितनी आग उगल रहा है, यह गर्मी का मौसम बहुत ही गर्म है भैय्या, इसी चर्चा में मग्न हैं! यहाँ होटल नहीं हैं, आप कहेंगे फिर रहेंगे कहाँ और खाएंगे क्या? क्यों कि पर्यटक के रूप में यह सुविधा अत्यावश्यक होनी ही है! यहाँ है होम् स्टे(home stay) , आए हो तो चार दिन रहो भाई और फिर चुपचाप अपने अपने घर रवाना हो जाओ, ऐसा होता है कार्यक्रम! यहाँ आप सिर्फ मेहमान होते हैं या किरायेदार! मालिक हैं यहाँ के गांव वाले! हमें अपनी औकात में रहना जरुरी है, ठीक है न? कायदा thy name! किसी भी प्रकारका धुआँ नहीं, प्लास्टिक का उपयोग नहीं साथ ही पानी का प्रबंधन है ही(rain harvesting). अब तो “स्वच्छ गांव” यहीं इस गांव का USP (Unique salient Point), सन्मान निर्देशांक तथा प्रमुख आकर्षण बन चुका है! गांवप्रमुख कहता है कि इस वजह से २००३ से इस गांव की ओर पर्यटकों की भीड़ में बढ़ौतरी होती ही जा रही है! गांववालों की आय में ६०%+++ वृद्धि हुई है और इस कारण से भी यहाँ की स्वच्छता को गांव वाले और भी प्रेमपूर्वक निभाते हैं, सारा गांव जैसे अपना ही घर हो ऐसी आत्मीयता और ऐसा भाईचारा देखने को मिलते हैं यहाँ! मित्रों,यह विचार करने योग्य चीज है! स्वच्छ रास्ते और घर इतने दुर्लभ हो गए हैं, यहीं है कारण कि हम लज्जा के मारे सर झुका लें!
मावलीन्नोन्ग(Mawlynnong) इस दुर्घट नाम का कोई गांव पृथ्वीतल पर मौजूद है , इसका मुझे दूर दूर तक अता-पता नहीं था! वहां जाने के पश्चात् इस गांव का नाम सीखते सीखते चार दिन लग गए (१७ ते २० मई २०२२), और गांव को छोड़ने का वक्त भी आ गया! शिलाँग से ९० किलोमीटर दूर बसा यह गांव| वहां पहुँचने वाली राह दूर थी, घाट-घाट पर वक्राकार मोड़ लेते लेते खोजा हुआ यह दुर्गम और “सुनहरे सपनेसा गांव” अब मन में बांस का घर बसाकर बस चुका है! उस गांव में बिताये वो चार दिन न मेरे थे न ही मेरे मोबाइल के! वो थे केवल प्रकृति के राजा और उनके साथ झूम झूम कर खिलवाड़ करती बरसात के! मैंने आज तक कई बरसातें देखी हैं! अब तक मुंबई की बरसात मुझे सबसे अधिक तेज़ लगती थी! लेकिन इस गांव के बारिश ने मुंबई की घनघोर बारिश की “वाट लगा दी भैय्या”! और यहाँ के लोगों को इस बरसात का कुछ खास कुतूहल या आश्चर्य नहीं होता! शायद उनके लिए यह सार्वजनिक स्नान हमेशा का ही मामला है! अब मेघालय मेघों का आलय (hometown ही कह लीजिये) फिर यह तो उसीका घर हुआ न, और हम यहाँ मेहमान, ऐसा सारा मामला है यह! वह यहाँ एंट्री दे रहा है यहीं उसके अहसान समझ लें, अलावा इसके लड़कियां झूले और लुकाछुपी खेल कर थक जाती हैं और थोड़ी देर के लिए विश्राम लेती हैं, वैसे ही वह बीच बीच में कम हो रहा था| हमारा नसीब काफी अच्छा था, इसलिए उसके विश्राम की घड़ियाँ और हमारी वहां के प्राकृतिक स्थलों को भेंट देने की घड़ियाँ पता नहीं पर कैसे चारों दिन खूब अच्छी तरह मॅच हुईं! परन्तु रात्रि के समय उसकी और बिजली की इतनी मस्ती चलती थी, कि उसे धूम ५ का ही दर्जा देना होगा और गांव की बिजली (आसमानी नहीं) को धराशायी करने वाले इस जबरदस्त आसमानी जलप्रपात के आक्रमण के नूतन नामकरण की तयारी करनी होगी!
मॉलीन्नोन्ग सुंदरी: सैली!
खासी समाज में मातृसत्ताक पद्धति अस्तित्व में है! महिला सक्षमीकरण तो यहाँ का बीजमंत्र ही है| घर, दुकान, घरेलु होटल और जहाँ तक नजर पहुंचे वहीँ महिलाऐं, उनकी साक्षरता का प्रमाण ९५-१००%. आर्थिक गणित वे ही सम्हालती हैं! बाहर काम करने वाली प्रत्येक स्त्री के गले में स्लिंग बॅग(पैसे के लेनदेन के लिए सुविधाजनक व्यवस्था)| हमने भी एक दिन एक घर में और तीन दिन एक अन्य घर में वास्तव्य किया! वहां की मालकिन का नाम Salinda Khongjee, (सैली)! यह मॉलीन्नोन्ग सुंदरी यहाँ के क्यूट, नटखट और चंचल यौवन की प्रतिनिधि समझिये! फटाफट, द्रुत लय में काम निपटने वाली, चेहरे पर कायम मधुर हास्य! यहाँ की सकल स्त्रियों को मैंने इसी तरह काम निपटते देखा! मैंने और मेरी लड़की ने इस सुन्दर सैलीसे छोटासा साक्षात्कार किया| (इस जानकारी को प्रकाशित करने की अनुमति उससे ली है) वह केवल २९ वर्ष की है! ज्यादातर उसके पल्लू अर्थात जेन्सेम में छुपी (खासी पोशाक का सुंदर आविष्कार यानी जेन्सेम, jainsem) दो बेटियां, , ५ साल और ४ महीने की, उनके पति, , Eveline Khongjee (एवलिन), जिनकी उम्र केवल २५ साल है! हमने जिस घर में होम स्टे कर रहे थे वह घर था सैलीका और हमारे इस घर के बाएं तरफ वाला घर भी उसीका है, जहाँ वह रहती है! हमारे घर के दाहिने तरफ वाला घर उसके पति का मायका, अर्थात उसकी सास का और बादमें विरासत के हक़ के कारण उसकी ननद का! उसकी मां थोड़े ही अंतर पर रहती है|सैली की शिक्षा स्थानिक स्कूल और फिर सीधे शिलाँग में जाकर बी. ए. द्वितीय वर्ष तक हुई|(पिता का निधन हुआ इसलिए अंतिम वर्ष रहा गया!) विवाह सम्पन्न हुआ चर्च में (धर्म ख्रिश्चन)| यहाँ पति विवाह के बाद अपनी पत्नी के घर में जाता है! अब उसके पति को हमारे घर के सामने से(उसके और सैली के)मायके और ससुराल जाते हुए देखकर बड़ा मज़ा आता था| सैली को भी अगर किसी चीज की जरुरत हो तो फटाफट अपनी ससुराल में जाकर कभी चाय के कप तो कभी ट्रे जैसी चीजें जेन्सेम के अंदर छुपाकर ले जाते हुए मैं देखती तो बहुत आनंद आता था! सारे आर्थिक गणित अर्थात सैली के हाथ में, समझे न आप! पति ज्यादातर मेहनत के और बाहर के काम करता था ऐसा मैंने निष्कर्ष निकाला! घर के ढेर सारे काम और बच्चियों की देखभाल, इन सब के रहते हुए भी सैलीने हमें साक्षात्कार देने हेतु समय दिया, इसके लिए मैं उसकी ऋणी हूँ ! इस साक्षात्कार में एक प्रश्न शेष था, वह मैंने आखिरकार, उसे आखरी दिन धीरेसे पूछ ही लिया, “तुम्हारा विवाह पारम्परिक या प्रेमविवाह? इसपर उसका चेहरा लाज के मारे गुलाबी हुआ और “प्रेमविवाह” ऐसा कहकर सैली अपने घर में तुरंत भाग गई!
प्रिय पाठकगण, मॉलीन्नोन्ग का महिमा-गीत अभी शेष है, तो, बस अभी के लिए खुबलेई! (khublei यानी खासी भाषा में खास धन्यवाद!)
☆ पर्यटक की डायरी से – मनोवेधक मेघालय – भाग-१ ☆ डॉ. मीना श्रीवास्तव ☆
(मनमोहिनी मॉलीन्नोन्ग, डिव्हाईन, डिजिटल डिटॉक्स (divine, digital detox))
इस जगत की सबसे सुंदर चित्रकला का कक्ष है, हर दिन नवीनतम चित्र लेकर आनेवाली प्रकृति !
प्रिय पाठकगण,
कुमनो! (मेघालय की खास भाषामें नमस्कार, हॅलो!)
फी लॉन्ग कुमनो! (कैसे हैं आप?)
हर वर्ष पाच जून इस तारीख को हम विश्व पर्यावरण दिन मनाते हैं| युनायटेड नेशन्स युनो (United Nations Organization, UNO) की तरफ से इस अवसर की थीम है “सिर्फ एकही पृथ्वी” (Only One Earth) स्वीडन में इस वर्ष ५ जून के जागतिक पर्यावरण दिन के लिए मुख्य चर्चा का विषय था, प्रकृति से समन्वय साधकर शाश्वत हरित जीवनशैलीका स्वीकार करना, उसे वृद्धिंगत करना और उसका प्रचार करना! (to adopt, enhance and propagate sustainable greener life style in harmony with nature) इस वर्ष के ५ जूनको जागतिक पर्यावरण दिनकी पचासवीं वर्षगांठ थी! सुवर्णजयंती ही कह लीजिये!
५ जून १९७२ को स्टोकहोम (Stockholm) यहाँ आयोजित युनो की परिषद में जागतिक पर्यावरण दिन मनाने का निर्णय लिया गया| “सिर्फ एक ही पृथ्वी” इसी विषय पर तब चर्चा हुई. उसके बाद प्रत्येक वर्ष इसी तारीख को जागतिक पर्यावरण दिन मनाया जा रहा है! इस दिन का मुख्य उद्देश है, पर्यावरण के बारे में अखिल विश्व में जागरूकता तथा वह सदाहरित कैसे रहे, उसके लिए परिणाम प्रदान करने वाली कार्यक्षम कृतिशीलता! मित्रों, पर्यावरण यानि हमारे आसपास का प्रान्त!
१) प्राकृतिक पर्यावरण अर्थात प्रकृति के तत्व (पौधे, पशु, पक्षी, मनुष्य) यह ईश्वर की देन और उपहार है|
२) मानवनिर्मित/कृत्रिम पर्यावरण अर्थात मानवनिर्मित वस्तुएं (घर, कार, बिजली के उपकरण, आदि)
यह प्रकृति पर मानव द्वारा किए गए अत्याचारों के कारण सर पर चढ़ा कर्जा है!
जैसे बालक की जननी एक ही होती है, वैसी ही हमारी परम प्रिय लाडली पृथ्वी भी एक ही है! अगर उसका कोई विकल्प नहीं है, तो क्या उसे बचाना आवश्यक नहीं? अगर वहीँ मुँह फेर ले तो हमें सर छुपाने के लिए भी कहीं जगह नहीं बचेगी! संयुक्त राष्ट्रसंघ के (यूएन) पर्यावरणविषय से सम्बंधित कार्यक्रम का मुख्य उद्दिष्ट है, प्राकृतिक पर्यावरण का संरक्षण और संवर्धन, इसे साध्य करने के लिए राजकीय, औद्योगिक और सामान्य नागरिकोंका सक्रिय सहभाग अत्यावश्यक है| यह कार्य कुछ कालावधि तक सीमित नहीं है, बल्कि प्रत्येक क्षण के लिए है| इसीका अर्थ है कि इसे अपनी जीवनशैली में शाश्वतरूप में समाहित किया जाए| फिर हम एक दिन के लिए ही यह पर्यावरण दिन क्यों मनाएं? मित्रों, हमारी उम्र हर क्षण बढ़ती है, परन्तु क्या हम अपना जन्मदिन एक ही दिन नहीं मनाते? चाहे तो वैसा ही समझ लीजिये! अलावा इसके विविध कार्यक्रमों के कारण नए उत्साह का संचार होता है, नवीन कल्पनाओं के सुझाव दिए जाते हैं और उन्हें साकार करने के नए मार्ग भी दृष्टिगोचर होते हैं!
सच में पूछा जाए तो इस पृथ्वीवर अनगिनत जीव जंतू, पंछी, प्राणी, पौधे, वृक्ष और कीड़े सुख चैन से निवास कर रहे हैं, इनमें सबसे महत्व पूर्ण घटक है मानव प्राणी! प्रकृतिसे बेईमानी में अव्वल, पर्यावरण का सर्वाधिक सर्वनाश करनेवाला! परन्तु जिम्मेदारी लेने में सबसे पीछे रहने वाला यहीं मानव! केवल स्वयं का विचार करने वाला, स्वार्थी, जरुरत हो या ना हो, लापरवाही से प्रकृति की समृद्धि को लूटने कर उसे लहूलुहान करने वाला यहीं है बेईमान मानव! उसे प्राकृतिक सजीव सृष्टि से कोई लेना देना नहीं है| किसी एक ज़माने में अनाज पकाते समय हल्कासा धुआँ निकला था, वह बढ़ा और कंपाउंडिंग ब्याज की तरह बढ़ता ही रहा! औद्योगिक क्रांति के पश्चात् कारख़ानोंका यहीं काला-कलूटा धुआँ नाक और मुँह में कब गया यह पता ही नहीं चला! मानव का दिमाग विकसित होता रहा और पर्यावरण के प्रदूषण का आलेख चढ़ता हुआ आकाशभेद करता रहा! क्या यहीं विकास है? हम इसकी भारी कीमत अदा कर रहे हैं| जगत के सबसे अधिक प्रदूषित शहर हमारे देश में हैं, यह हमारी प्रगति है या अधोगति? ऐसा कहते हैं कि, सोते हुए को जगाना आसान है, परन्तु जागते हुए भी सोने का स्वांग भरने वाले को जगाना बिलकुल नामुमकिन है!
परन्तु हमारे देश में क्या हर तरफ यहीं भीषण परिस्थिति है? क्या कालेकाले बादलों को कहीं प्रकाश का श्वेत किनारा है? इसका उत्तर हैं हाँ, यह अत्यंत हर्ष की बात है! मुझे यह उत्तर मिल गया मेघों के गृह (आलय), अर्थात मेघालय यहाँ पर बसे हुए, एक प्रकृति के झूले पर आनंद की लहरों के हिंडोले लेनेवाले मनोहर, मनोरम तथा मनमोहिनी मॉलीन्नोन्ग (Mawlynnong) इस गांव में!
भारत के उत्तरपूर्व सीमा पर बस्ती करने वाली सात बहनें अर्थात “सेव्हन सिस्टर्स” में से एक बहन मेघालय! दीर्घ हरित पर्वतश्रृंखला, कलकल प्रवाहित निर्झर तथा पर्वतोंपर ही कहीं कहीं बसे हुए छोटे बड़े गांव! अर्थात, मेघालय की राजधानी शिलाँग को आधुनिकता का स्पर्श है! (मित्रों,शिलाँग सहित मेघालय के चुनिन्दा स्थानों का सफर कीजिये मेरे साथ अगले भाग में!) आज का प्रवास अविस्मरणीय और अनुपमेय ही होगा मित्रों, यह भरोसा रखिये! बिलकुल तिनके-सा छोटासा गांव और मॉलीन्नोन्ग यह नाम! इस गांव का यह नाम थोडासा विचित्र ही लगता है न? ७० या उससे भी अधिक वर्षों पूर्व यह गांव जलकर राख हुआ था, गांव के लोग दूसरे स्थान पर चले गए, परन्तु जल्द ही वापस आकर उन्होंने नए जोश के साथ यह गांव फिर से बसाया! खासी भाषा में “maw”, का अर्थ है पत्थर और “lynnong” का अर्थ है बिखरे हुए! यहाँ के घरोंतक ले जाने वाली पथरीली गलियां इसकी साक्षी हैं|
किसी भी महानगर की एकाध गगनचुंबी इमारत में रहनेवाले लोगों की संख्या से भी कम (२०१९ के रिकॉर्ड के अनुसार जनसंख्या केवल ९००) गांववालों की बस्ती का यह गांव (पर्यटकों को भूलिए, क्यों कि वे आते रहते हैं और {मजबूरी में} जाते रहते हैं!) “पूर्व खासी पर्वतश्रृंखला” इस खास नाम के जिलेमें आनेवाला! (in Pynursla community development block)! पर्यावरण के साथ सुंदर समन्वय साधते हुए मानव उतना ही सुंदर जीवन कैसे व्यतीत कर सकता है, इसका मैंने अबतक देखा हुआ सर्वोत्तम उदाहरण है यह गांव! इसीलिए जागतिक पर्यावरण दिन के अवसर पर यह भाग केवल इस मनमोहिनी के कदमोंपे निछावर! क्या है ऐसा इस गांव में कि “तारीफ करूँ क्या उसकी, जिसने इसे बसाया!!!” ऐसा (शर्मिला सामने न होते हुए भी) गाने का दिल करता है! स्वच्छ और पवित्र गांव कैसा हो, तो ऐसा हो! मासिक पत्रिका डिस्कवरी इंडिया ने इसे एशिया खंड का सबसे स्वच्छ गांव (२००३), भारत का सबसे स्वच्छ गांव (२००५), करार देकर गौरवान्वित करने के बाद बहुत अवसरोंपर यह गांव प्रसिद्धी के शिखर पर विराजमान रहा! फिलहाल मेघालय के सबसे सुंदर तथा स्वच्छ गांव के रूप में इसका गुणगान हो रहा है! कहीं भी हमारी परिचित जोर-जबरदस्ती नहीं, कागजी फाइलों का व्याप नहीं। यहाँ के बहुसंख्य लोग ख्रिश्चन धर्मी और “खासी” जनजाति के हैं|(मेघालय में तीन मुख्य जनजातियां हैं, Khasis, Garos व Jaintias) यहाँ ग्राम पंचायत है, चुनाव में गांव का मुखिया चुना जाता है| फ़िलहाल श्री थोम्बदिन (Thombdin) ये इस गांव के मुखिया हैं| (उनके व्यस्त होने के कारण उनसे भेंट नहीं हो पाई!) यहाँ है एक बोर्ड, स्वच्छता का आवाहन करने वाला! स्वयं-अनुशासन (हमारे पास सिर्फ स्वयं है), अर्थात, सेल्फ डिसिप्लिन क्या होती है (भारत में भी)यह यहीं अपने आंखोंसे देखना होगा, ऐसा मैं आवाहन करती हूँ! सामाजिक पहल से गांव का हर व्यक्ति गांव की सफाई-अभियान में शामिल है। यह सफाई-अभियान प्रत्येक शनिवार को स्फूर्ति से अनायास चलाया जाता है। प्रत्येक स्थानीय की उपस्थिति अनिवार्य है एवं ग्राम प्रधान की जुबानी है निर्णायक! इसकी जड़ गांव वालों की नस-नस में समायी है, यह किसी राजनीतिक दल या नेता के बस का काम नहीं! जबतक पर्यटक गांव में रहें कम से कम तबतक, इसी प्रवृत्ति की आशा गांववाले पर्यटकों से करते हैं|
यहाँ प्राकृतिक रूप से बसे बांस के बनों का कितना और कैसे बखान करें! मुझे तो बांस इस शब्द से बेंत से ज्यादातर रोज खाई मार(रोज कम से कम ५) ही याद आती है| उसमें से ९९. ९९% बार मार पड़ती थी, स्कूल में देरी से पहुँचने के लिए| (मित्रों, ऐसा कुछ खास नहीं, स्कूल की घंटी घर में सुनाई देती थी, इसलिए, जाएंगे आराम से, बगल में ही तो है स्कूल, यह कारण होता था!) यहाँ बांस का हर तरफ राज है! कचरा डालने हेतु जगह जगह बांस की बास्केट, यानी खोह(khoh), उसकी बुनाई इतनी सुंदर, कि, उसमें कचरा डालने का मन ही नहीं करेगा! यहाँ लोगोंके लिए धूप तथा बारिश से बचाव करने के लिए भी फिर बांस के अत्यंत बारीकी और खूबसूरती से बने प्रोटेक्टिव्ह कव्हर होते हैं! अनाज को सहेज कर रखने, मछली पकड़ने और आभूषण बनाने के लिए बांस ही काम आता है ! बांस की अगली महिमा अगले भाग में!
सवेरे सवेरे यहाँ की स्वच्छता-सेविकाएं कचरा इकठ्ठा करने के काम में जुट जाती हैं, प्लास्टिक का उपयोग नहीं के बराबर, क्यों कि पॅकिंग के लिए हैं छोटे मोटे पत्ते! प्राकृतिक रूप से जो भी उपलब्ध हो उसी साधन संपत्ती का उपयोग करते हुए यहाँ के घर बनाये जाते हैं(फिर बांस ही तो है)! जैविक कचरा इकठ्ठा कर यहाँ खाद का निर्माण होता है| यहाँ है open drainage system परन्तु क्या बताएं, उसका पानी भी प्रवाही और स्वच्छ, गटर भी कचरे से बंद नहीं(प्रत्यक्ष देखें और बाद में विश्वास करें!) सौर-ऊर्जा का उपयोग करते हुए यहाँ के पथदीप स्वच्छ रास्तोंको प्रकाश से और भी उज्जवल बना देते हैं| अलावा इसके हर घर में सौर-दिये(बल्ब) और सौर-टॉर्च होते ही हैं, बारिश के कारण बिजली गायब हो तो ये चीजें काम आती हैं! प्रिय पाठकगण, ध्यान दीजिये, यह मेघालय का गांव है, यहाँ मेघोंकी घनघोर घटाएं नित्य ही छाई रहती, तब भी सूर्यनारायण के दर्शन होते ही सौर-ऊर्जा को सहेज कर रखा जाता है! और यहाँ हम सूर्य कितनी आग उगल रहा है, यह गर्मी का मौसम बहुत ही गर्म है भैय्या, इसी चर्चा में मग्न हैं! यहाँ होटल नहीं हैं, आप कहेंगे फिर रहेंगे कहाँ और खाएंगे क्या? क्यों कि पर्यटक के रूप में यह सुविधा अत्यावश्यक होनी ही है! यहाँ है होम् स्टे (home stay), आए हो तो चार दिन रहो भाई और फिर चुपचाप अपने अपने घर रवाना हो जाओ, ऐसा होता है कार्यक्रम! यहाँ आप सिर्फ मेहमान होते हैं या किरायेदार! मालिक हैं यहाँ के गांव वाले! हमें अपनी औकात में रहना जरुरी है, ठीक है न? कायदा thy name! किसी भी प्रकारका धुआँ नहीं, प्लास्टिक का उपयोग नहीं साथ ही पानी का प्रबंधन है ही(rain harvesting). अब तो “स्वच्छ गांव” यहीं इस गांव का USP (Unique salient Point), सन्मान निर्देशांक तथा प्रमुख आकर्षण बन चुका है! गांवप्रमुख कहता है कि इस वजह से २००३ से इस गांव की ओर पर्यटकों की भीड़ में बढ़ौतरी होती ही जा रही है! गांववालों की आय में ६०%+++ वृद्धि हुई है और इस कारण से भी यहाँ की स्वच्छता को गांव वाले और भी प्रेमपूर्वक निभाते हैं, सारा गांव जैसे अपना ही घर हो ऐसी आत्मीयता और ऐसा भाईचारा देखने को मिलते हैं यहाँ! मित्रों,यह विचार करने योग्य चीज है! स्वच्छ रास्ते और घर इतने दुर्लभ हो गए हैं, यहीं है कारण कि हम लज्जा के मारे सर झुका लें!
मावलीन्नोन्ग (Mawlynnong) इस दुर्घट नाम का कोई गांव पृथ्वीतल पर मौजूद है , इसका मुझे दूर दूर तक अता-पता नहीं था! वहां जाने के पश्चात् इस गांव का नाम सीखते सीखते चार दिन लग गए (१७ ते २० मई २०२२), और गांव को छोड़ने का वक्त भी आ गया! शिलाँग से ९० किलोमीटर दूर बसा यह गांव| वहां पहुँचने वाली राह दूर थी, घाट-घाट पर वक्राकार मोड़ लेते लेते खोजा हुआ यह दुर्गम और “सुनहरे सपनेसा गांव” अब मन में बांस का घर बसाकर बस चुका है! उस गांव में बिताये वो चार दिन न मेरे थे न ही मेरे मोबाइल के! वो थे केवल प्रकृति के राजा और उनके साथ झूम झूम कर खिलवाड़ करती बरसात के! मैंने आज तक कई बरसातें देखी हैं! अब तक मुंबई की बरसात मुझे सबसे अधिक तेज़ लगती थी! लेकिन इस गांव के बारिश ने मुंबई की घनघोर बारिश की “वाट लगा दी भैय्या”! और यहाँ के लोगों को इस बरसात का कुछ खास कुतूहल या आश्चर्य नहीं होता! शायद उनके लिए यह सार्वजनिक स्नान हमेशा का ही मामला है! अब मेघालय मेघों का आलय (hometown ही कह लीजिये) फिर यह तो उसीका घर हुआ न, और हम यहाँ मेहमान, ऐसा सारा मामला है यह! वह यहाँ एंट्री दे रहा है यहीं उसके अहसान समझ लें, अलावा इसके लड़कियां झूले और लुकाछुपी खेल कर थक जाती हैं और थोड़ी देर के लिए विश्राम लेती हैं, वैसे ही वह बीच बीच में कम हो रहा था| हमारा नसीब काफी अच्छा था, इसलिए उसके विश्राम की घड़ियाँ और हमारी वहां के प्राकृतिक स्थलों को भेंट देने की घड़ियाँ पता नहीं पर कैसे चारों दिन खूब अच्छी तरह मॅच हुईं! परन्तु रात्रि के समय उसकी और बिजली की इतनी मस्ती चलती थी, कि उसे धूम ५ का ही दर्जा देना होगा और गांव की बिजली (आसमानी नहीं) को धराशायी करने वाले इस जबरदस्त आसमानी जलप्रपात के आक्रमण के नूतन नामकरण की तयारी करनी होगी!
मॉलीन्नोन्ग सुंदरी: सैली!
खासी समाज में मातृसत्ताक पद्धति अस्तित्व में है! महिला सक्षमीकरण तो यहाँ का बीजमंत्र ही है| घर, दुकान, घरेलु होटल और जहाँ तक नजर पहुंचे वहीँ महिलाऐं, उनकी साक्षरता का प्रमाण ९५-१००%. आर्थिक गणित वे ही सम्हालती हैं! बाहर काम करने वाली प्रत्येक स्त्री के गले में स्लिंग बॅग(पैसे के लेनदेन के लिए सुविधाजनक व्यवस्था) | हमने भी एक दिन एक घर में और तीन दिन एक अन्य घर में वास्तव्य किया! वहां की मालकिन का नाम Salinda Khongjee, (सैली)! यह मॉलीन्नोन्ग सुंदरी यहाँ के क्यूट, नटखट और चंचल यौवन की प्रतिनिधि समझिये! फटाफट, द्रुत लय में काम निपटने वाली, चेहरे पर कायम मधुर हास्य! यहाँ की सकल स्त्रियों को मैंने इसी तरह काम निपटते देखा! मैंने और मेरी लड़की ने इस सुन्दर सैलीसे छोटासा साक्षात्कार किया| (इस जानकारी को प्रकाशित करने की अनुमति उससे ली है) वह केवल २९ वर्ष की है! ज्यादातर उसके पल्लू अर्थात जेन्सेम में छुपी (खासी पोशाक का सुंदर आविष्कार यानी जेन्सेम, jainsem) दो बेटियां, ५ साल और ४ महीने की, उनके पति, Eveline Khongjee (एवलिन), जिनकी उम्र केवल २५ साल है! हमने जिस घर में होम स्टे कर रहे थे वह घर था सैलीका और हमारे इस घर के बाएं तरफ वाला घर भी उसीका है, जहाँ वह रहती है! हमारे घर के दाहिने तरफ वाला घर उसके पति का मायका, अर्थात उसकी सास का और बादमें विरासत के हक़ के कारण उसकी ननद का! उसकी मां थोड़े ही अंतर पर रहती है|सैली की शिक्षा स्थानिक स्कूल और फिर सीधे शिलाँग में जाकर बी. ए. द्वितीय वर्ष तक हुई|(पिता का निधन हुआ इसलिए अंतिम वर्ष रहा गया!) विवाह सम्पन्न हुआ चर्च में (धर्म ख्रिश्चन)| यहाँ पति विवाह के बाद अपनी पत्नी के घर में जाता है! अब उसके पति को हमारे घर के सामने से(उसके और सैली के)मायके और ससुराल जाते हुए देखकर बड़ा मज़ा आता था| सैली को भी अगर किसी चीज की जरुरत हो तो फटाफट अपनी ससुराल में जाकर कभी चाय के कप तो कभी ट्रे जैसी चीजें जेन्सेम के अंदर छुपाकर ले जाते हुए मैं देखती तो बहुत आनंद आता था! सारे आर्थिक गणित अर्थात सैली के हाथ में, समझे न आप! पति ज्यादातर मेहनत के और बाहर के काम करता था ऐसा मैंने निष्कर्ष निकाला! घर के ढेर सारे काम और बच्चियों की देखभाल, इन सब के रहते हुए भी सैलीने हमें साक्षात्कार देने हेतु समय दिया, इसके लिए मैं उसकी ऋणी हूँ ! इस साक्षात्कार में एक प्रश्न शेष था, वह मैंने आखिरकार, उसे आखरी दिन धीरेसे पूछ ही लिया, “तुम्हारा विवाह पारम्परिक या प्रेमविवाह? इसपर उसका चेहरा लाज के मारे गुलाबी हुआ और “प्रेमविवाह” ऐसा कहकर सैली अपने घर में तुरंत भाग गई!
सैली से मिली जानकारी कुछ इस तरह थी:
गांव के लोग स्वच्छता के नियमों का सख्ती से पालन करते हैं| यूँ सोचिये कि स्वच्छता अभियान में भाग नहीं लिया तो क्या? गांव के नियमों का भंग करने के कारण गांवप्रमुख की ओर से अनुशासनात्मक कार्रवाई की जाती है! उसने बताया, “मेरी दादी और माँ ने गांव के नियम पालने का पाठ मुझे बचपन से ही पढ़ाया है”| यहाँ के घर कैसे चलते हैं, इस प्रश्न पर उसने यूँ उत्तर दिया, “होम स्टे” अब आमदनी का अच्छा साधन है! अलावा इसके, शाल और जेन्सेम बनाना या बाहर से लेकर बिकना, बांस की आकर्षक वस्तुएं पर्यटकों को बेचना| यहाँ की प्रमुख फसलें हैं, चावल, सुपारी और अन्नानास, संतरा, लीची तथा केले ये फल! प्रत्येक स्त्री समृद्ध, खुदका घर, जमीन और बागबगीचे! परिवार खुद ही धान और फल निर्माण करता है| वहां एकबार (तथा कई बार) फल बेचनेवाली स्त्री ने ताज़ा अन्नानास काटकर हमें झाड़ के तने की परत में सर्व्ह किया, वह अप्रतिम जायका अब तक तक जुबान पर चढ़ा है! इसका कारण है,”जैविक खेती”! फलों को निर्यात करके भी पैसे कमाए जाते हैं, अलावा इसके, पर्यटक “बारो मास” रहते ही हैं! (परन्तु लॉकडाऊन में पर्यटन काफी कम था|)
इस गांव में सबसे खूबसूरत चीज़ क्या है, यह सोचें तो वह है, यहाँ की हरितिमा, यह रंग यहाँ का स्थायी भाव समझिये! प्राकृतिक पेड़पत्ते और फूलों से सुशोभित स्वच्छ रास्तों पर मन माफिक और जी भर चहल कदमी करें! हर घर के सामने रमणीय उपवन का एहसास हो, ऐसे विविध रंगों के पत्ते और सुमनों से सुसज्जित बागबगीचे, घरों में छोटे बड़े प्यारे बच्चे! उनके लिए पर्यटकों को टाटा करना और फोटो के लिए पोझ देना हमेशा का ही काम है! मित्रों, यह समूचा गांव ही फोटोजेनिक है, अगर कैमरा हो तो ये क्लिक करूँ या वो क्लिक करूँ यह सोचने की चीज़ है ही नहीं! परन्तु मैं यह सलाह अवश्य दूँगी कि पहले आँखों के कैमेरे से इस प्रकृति के रंगों की रंगपंचमी को जी भरकर देखें और बादमें निर्जीव कॅमेरे की ओर प्रस्थान करें! गांव के किनारोंको छूता हुआ एक जल प्रवाह है (नाला नहीं!) उसके किनारों पर टहलने का आनंद कुछ और ही है! पानी में खिलवाड़ करें, परन्तु अनापशनाप खाकर कहीं भी कचरा फेंका तो? मुझे पूरा विश्वास है कि, बस अभी अभी सुस्नात सौंदर्यवतीके समान प्रतीत हो रहे इस रमणीय स्थान का अनुभव लेने के पश्चात् आप तिल के जितना भी कचरा फेकेंगे नहीं! यहाँ एक “balancing rock” यह प्राकृतिक चमत्कार है, तस्वीर तो बनती है, ऐसा पाषाण! ट्री हाउस, अर्थात पेड़ के ऊपर बना घर, स्थानीय लोगों द्वारा उपलब्ध सामग्री से निर्मित, टिकट निकाओ और देखो, बांस से बने घुमावदार घनचक्कर के ऊपर जाते चक्कर ख़त्म होते पेड़ के ऊपर बने घर में जाकर हम कितने ऊपर आ पहुंचे हैं इसका एहसास होता है! नीचे की और घर की तस्वीरें तो बनती ही हैं जनाब! शहरों में भी घरों के लिए जगह न हो तो यह उपाय विचारणीय है, परन्तु, मित्रों क्या शहर में ऐसे पेड़ हैं? यहाँ तीन चर्च हैं, उसमें से एक है “चर्च ऑफ द एपिफॅनी”, सुंदर रचना और निर्माण, वैसे ही पेड़ पौधे और पुष्पों की बहार से रंगीनियां बिखेरता संपूर्ण स्वच्छ वातावरण| अंदर से देखने का अवसर नहीं मिला क्यों कि, चर्च निश्चित दिनों में और निश्चित समय पर खुलता है!
अब यहाँ की सर्वत्र देखी जानेवाली आदत बताती हूँ, हमेशा पान खाना, वह यहाँ के लोगों के जैसा सादा, पान के टुकड़े, हलकासा चूना और पानी में भिगोकर नरम किये हुए सुपारी के बड़े टुकड़े! फलों और सब्जियों की दुकानों में सहज उपलब्ध! (फोटो देखकर समझ जाएंगे!) वह खाकर (चबाकर) यहां की सुन्दर नवयुवतियों के होंठ सदैव लाल रहते हैं! किसीभी लिपस्टिक के शेड के परे मनभावन प्राकृतिक लाल रंग! यहाँ तक कि आधुनिक स्कूल कॉलेजों की लड़कियां भी इसकी अपवाद नहीं थीं! पुरुष भी पान खानेवाले, लेकिन इसमें आश्चर्य की क्या बात है, सचमुच का आश्चर्य तो अब आगे है! मित्रों, एक चीज जो मैंने जान- बूझकर, बिलकुल मायक्रोस्कोपिक नजर से देखी, कहीं पान की पिचकारियां नज़र आ रही हैं? ! परन्तु यह गांव ठहरा स्वच्छता का पुजारी! फिर यहाँ पिचकारियां कैसे होंगी? इसका मुझे सचमुच ही अचरज भरा आनंद हुआ! यह सबकुछ आदत के कारण गांव वालों के रगरग में समाया है!
यहाँ कब पर्यटन करना चाहिए? अगर सुरक्षित तरीकेसे घूमना है और ट्रेकिंग करना है तो अक्टूबर महीना उत्तम है, परन्तु पेड़पौधों की हरियाली थोड़ी कम और निर्झरों के जलभंडार कम होंगे| परन्तु अगर हरीतिमा के रंगों से रंगे रंगीन वनक्षेत्र और जलप्रपातों से लबालब भरा मेघालय देखना हो तो मई से जुलाई ये महीने सर्वोत्तम हैं ! परन्तु ….. सावधान! घूमते समय और ट्रेकिंग करते समय बहुत सावधानी बरतना आवश्यक है! वैसे ही आकाशीय बिजली की अधिकतम व्याप्ति के कारण जमीं की बिजली का बारम्बार अदृश्य होना, यह अनुभव हमने हाल ही में लिया!
मित्रों, अगर आप को टीव्ही, इंटरनेट, व्हाट्सअँप और चॅट की आदत है (मुझे है), तो यहाँ आकर वह भूलनी होगी! हम जब इस गांव में थे, तब ९०% समय गांव की बिजली गांव चली गई थी! एकल सोलर दिये को छोड़ शेष दिये नहीं, गिझर नहीं, नेटवर्क नहीं, सैली के घर में टीव्ही नहीं! पहले मुझे लगा, अब जियेंगे कैसे? परन्तु यह अनुभव अनूठाही था! प्रकृति की गोद में अनुभव की हुई एक अद्भुत अविस्मरणीय और अनकही अनुभूती! मेरे सौभाग्य से प्राप्त डिव्हाईन, डिजिटल डिटॉक्स!
प्रिय पाठकगण, मॉलीन्नोन्ग का महिमा-गीत अभी शेष है, और मेरी उर्वरित मेघालय यात्रा में भी आप को संग ले चलूँगी, अगले भागों में!!!
तब तक मेघालय के मेहमानों, इंतज़ार और अभी, और अभी, और अभी…….!
तो, बस अभी के लिए खुबलेई! (khublei यानी खासी भाषा में खास धन्यवाद!)
(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आप प्रत्येक मंगलवार,साप्ताहिक स्तम्भ -यायावर जगत के अंतर्गत सुश्री ऋता सिंह जी की यात्राओं के शिक्षाप्रद एवं रोचक संस्मरण आत्मसात कर सकेंगे। इस श्रृंखला में आज प्रस्तुत है आपका यात्रा वृत्तांत – काज़ीरंगा)
मेरी डायरी के पन्ने से… – यात्रा वृत्तांत – मॉरिशस की मेरी सुखद स्मृतियाँ
June 2023 में पाँच अरबपतियों को लेकर टाइटैनिक दिखाने की यात्रा के लिए निकली पनडुब्बी का मलबा मिला है। एक अति उत्कृष्ट, अति उत्तम अत्याधुनिक पनडुब्बी जिसमें 96घंटे तक की ऑक्सीजन की व्यवस्था थी, फिर भी किसी कारणवश समुद्र की सतह पर यह पनडुब्बी लौटकर न आई। टाइटैनिक से चार सौ मीटर की दूरी पर पनडुब्बी में विस्फोट हुआ और भीतर बैठे लोगों के चिथड़े उड़ गए।
इस अत्यंत दुखद घटना को सुनकर, उसकी तस्वीरें देखकर, दर्दनाक घटना का विस्तार पढ़कर मैं भीतर तक सिहर उठी।
मुझे अपनी एक अद्भुत यात्रा आज अचानक स्मरण हो आई। यद्यपि मेरी यात्रा सुखद तथा अविस्मरणीय रही। बस दोनों में समानता पनडुब्बी द्वारा समुद्र के तल में जाने की ही है।
2002 दिसंबर
यह महीना मॉरिशस में बारिश का मौसम होता है। हमारे विवाह की यह पच्चीसवीं वर्षगाँठ थी और हम दोनों ने ही इसे मॉरिशस में मनाने का निर्णय बहुत पहले से ही ले रखा था।
मॉरिशस एक सुंदर छोटा देश है। समुद्र से घिरा हुआ यह देश अपनी प्राकृतिक सौंदर्य के लिए अत्यंत प्रसिद्ध है। यह सुंदर द्वीपों का देश हिंद महासागर में बसा है। । सभी द्वीपों पर जनवास नहीं है। कई लोग इस राज्य को भारत से दूर छोटा भारत भी कहते हैं क्योंकि यहाँ बड़ी संख्या में भारतीय रहते हैं।
मॉरिशस में अनेक भाषाएँ बोली जाती हैं। अंग्रेज़ी और फ्रेंच यहाँ की मुख्य भाषाएँ तो हैं ही साथ ही यहाँ बड़ी संख्या में रहनेवाले भारतीय भोजपुरी भी बोलते हैं जो बोली मात्र है।
सन 1800 के दशक में भारत पर ही नहीं पृथ्वी के कई देशों पर अंग्रेज़ों का आधिपत्य रहा है। हर जगह से ही काम करने के लिए मज़दूर ले जाए जाते थे। क्या अफ्रीका और क्या भारत।
उन दिनों भारत में अकाल पड़ने के कारण अन्न का भयंकर अभाव था। लोग भूख के कारण मरने लगे थे। ऐसे समय पाँच वर्ष के एग्रीमेंट के साथ मजदूरों को जहाज़ द्वारा मॉरिशस ले जाया जाता था।
ये मजदूर अनपढ़ थे। एग्रीमेंट को वे गिरमिट कहा करते थे। आगे चलकर अफ़्रीका और अन्य सभी स्थानों पर भारत से ले जाए गए मजदूर गिरमिटिया मजदूर कहलाए। यह बात और है कि अंग्रेज़ों ने उन पर अत्याचार किए, वादे के मुताबिक वेतन नहीं देते थे। पर मजदूरों के पास लौटकर आने का कोई मार्ग न था।
मॉरिशस गन्ने के उत्पादन के क्षेत्र में बहुत आगे था। बड़ी मात्रा में यहाँ शक्कर की मिलों में शक्कर बनाई जाती थी। खेतों में गन्ने उगाने, कटाई करने, मिल तक गन्ने ले जाने और शक्कर उत्पादन करने तक भारी संख्या में मजदूरों की आवश्यकता होती थी। यही कारण था कि बिहार से बड़ी संख्या में मजदूर वहाँ पहुँचाए गए। आज़ादी के बाद सारे मज़दूर वहीं बस गए।
आज यहाँ रहनेवाले भारतीय न केवल यहाँ के स्थायी निवासी हैं बल्कि उच्च शिक्षित भी हैं और अधिकांश होटल, जहाज, भ्रमण तथा अन्य व्यापार के क्षेत्र में भारतीय ही अग्रगण्य हैं।
हिंदू धर्म को भी मॉरीशस में भारतीयों द्वारा ले जाया गया था। आज, मॉरीशस में हिंदू धर्म सबसे अधिक पालन किया जाने वाला धर्म है।
यहाँ कई मंदिर बने हुए हैं। श्रीराम -सीता माई और लक्ष्मण का भव्य मंदिर है। राधा कृष्ण, साईबाबा का भी मंदिर है। कुछ वर्ष पूर्व बालाजी का भी मंदिर बनाया गया है।
यहाँ एक झरने के बीच एक विशाल शिव लिंग है। यहीं पर बड़ी -सी माता की मूर्ति भी है। आज सभी जगहों पर आस पास अनेक छोटे -बड़े मंदिर बनाए गए हैं। शिव लिंग पर जल चढ़ाने के लिए ऊँची सीढ़ी बनी हुई है।
मेरा यह अनुभव साल 2002 का है। आज इक्कीस वर्ष के पश्चात यह राज्य निश्चित ही बहुत बदल चुका होगा।
हम पोर्ट लुई अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड् डे पर उतरे, उन दिनों यह एक छोटा-सा ही हवाई अड् डा था। मृदुभाषी तथा सहायता के लिए तत्पर लोग मिले। हमें इस द्वीप समूह के राज्य में अच्छा स्वागत मिला।
गाड़ी से हम अपने पूर्व नियोजित होटल की ओर निकले। गाड़ी होटल की ओर से ही हमें लेने आई थी जिस कारण हमें किसी प्रकार की चिंता न थी।
सड़क के दोनों ओर गन्ने के खेत थे। बीच -बीच में लोगों के घर दिखाई देते। हिंदुओं के घर के परिसर में छोटा – सा मंदिर दिखाई देता और उस पर लगा नारंगी रंग का गोटेदार झंडा। अद्भुत आनंददायी अनुभव रहा।
हम जिस दिन मॉरिशस पहुँचे उस दिन शाम ढल गई थी इसलिए थोड़ा फ्रेश होकर होटल के सामने ही समुद्र तट था हम वहाँ सैर करने निकल गए। सर्द हवा, चलते -फिरते लोग साफ – सुथरा तट मन को भा रहा था।
दूसरे दिन सुबह हम एक क्रेटर देखने गए। यह विशाल क्रेटर एक पहाड़ी इलाके पर स्थित है। इस पहाड़ी पर खड़े होकर नीचे स्थित समुद्र, दूर खड़े पहाड़ की चोटियाँ आकर्षक दिख रहे थे।
वह विशाल क्रेटर हराभरा है। कई विशाल वृक्ष इसके भीतर उगे हुए दिखाई दिए। यह क्रेटर गहरा भी है। बारिश के मौसम में कभी – कभी इसके तल में काफी पानी जम जाता है। यहाँ के दृश्य अति रमणीय और आँखों को ठंडक पहुँचानेवाले दृश्य थे। इसे हम ऊपर से ही देख सकते थे इसमें उतरने की कोई सुविधा नहीं थी। लौटते समय हम कुछ मंदिरों के दर्शन कर लौटे। शिव मंदिर में सीढ़ी चढ़कर शिवलिंग पर जल डालने का भी सौभागय मिला।
तीसरे दिन हम कैटामरान में बैठकर विविध द्वीप देखने गए। यह कैटामरान तीव्र गति से चलनेवाली छोटा जहाज़नुमा मोटर से चलनेवाली नाव ही होती है जिसमें दोनों छोर पर जालियाँ लगी रहती हैं। इन जालियों पर लोग लेटकर यात्रा करते हैं। पीठ पर समुद्र का खारा जल लगकर पीठ की अच्छी मालिश होती है ….. बाद में पीठ में भयंकर पीड़ा होती है। हमारी नाव में छह जवान लोगों ने इसका आनंद लिया और वे उस पीड़ा को सहने को भी तैयार थे यह एक चैलेंज था।
हम दो – तीन द्वीपों पर गए। एक द्वीप पर ताज़ी मछलियाँ पकड़ी गईं और नाव पर पकाकर सैलानियों को खिलाई गईं। हम निरामिष भोजियों को सलाद से काम चलाना पड़ा।
इससे आगे एक और द्वीप पर गए जहाँ पानी में उतरकर तैरने और स्नॉकलिंग के लिए कुछ देर तट पर रुके रहे। वहाँ रेत से मैंने ढेर सारे मृत कॉरल एकत्रित किए, शंख भी चुने। वहाँ की रेत बहुत शुभ्र और महीन है। पानी अत्यंत स्वच्छ और गहरा नीला दिखता है।
चौथे दिन हम पहले एक अति वयस्क कछुआ देखने गए जिसकी उम्र तीन सौ वर्ष के करीब बताई गई थी। उस स्थान के पास सेवन लेयर्स ऑफ़ सैंड नामक जगह देखने गए। यहाँ ज़मीन पर सात रंगों की महीन रेत की परतें दिखीं। छोटी सी नलिका में ये रेत भरकर सॉविनियर के रूप में बेचते भी हैं। मॉरिशस में भी रुपया चलता है पर वह उनकी करेंसी है जो भारत की तुलना में बेहतर है। एक सौ मॉरिशस रुपये एक सौ अट्ठ्यासी भारतीय रुपये के बराबर है। (जनवरी 2023 रिपोर्ट)
इसी स्थान से थोड़ी दूरी पर हमने बड़े -बड़े धारणातीत तितलियों के झुंड देखे। ये नेटवाले एक बगीचे में दिखाई दिए। इस स्थान का नाम है ला विनाइल नैशनल पार्क यहाँ बहुत बड़ी संख्या में नाइल नदी के मगरमच्छ भी पाले जाते हैं। कुछ वर्ष पूर्व तक मगरमच्छ के चमड़े से वस्तुएँ बनाने के व्यापार चलता था। अब यह गैर कानूनी है।
इसी शहर में नाव बनाने के कारखाने भी हैं। साथ ही घर में सजाकर रखने के लिए भी छोटी-छोटी आकर्षक नावें हाथ से बनाई जाती हैं। सैलानी सोवेनियर के रूप में उन्हें खरीदते हैं। यह कुटीर उद्योग नहीं बल्कि बड़ा व्यापार क्षेत्र है। सैलानी सोवेनियर के रूप में नाव, जहाज़ आदि छोटी -छोटी सजाने की वस्तुएँ खरीदते हैं।
पाँचवे दिन हम एक और द्वीप में गए जहाँ अफ्रीका के निवासियों ने अपने ड्रम और नृत्य द्वारा हम सबका मनोरंजन किया। इस द्वीप पर ताज़ा भोजन पकाकर स्थानीय विशाल वृक्षों के नीचे मेज़ लगाकर बड़े स्नेह से सबको भोजन परोस कर खिलाया गया। मॉरिशस में आमिष भोजन ही अधिक खाते हैं। बड़ी- बड़ी झींगा मछली जिसे लॉबस्टर्स कहते हैं, खूब पकाकर खाते हैं। हम निरामिष भोजियों को
पोटेटो जैकेट विथ सलाद खिलाया गया। यह अंग्रेज़ों का प्रिय भोजन होता है। बड़े से उबले आलू के भीतर बेक्ड बीन्स और चीज़ डालकर इसे आग पर भूना जाता है। होटलों में इसे आज माईक्रोऑवेन में पकाते हैं। संप्रति लंडन में भी हमें इस व्यंजन का आनंद लेने का अवसर मिला।
छठवें दिन हम सुबह -सुबह ही एक जहाज़ में बैठकर समुद्र के थोड़े गहन हिस्से तक गए। हमें सी बेल्ट वॉकिंग का आनंद लेना था।
हमारे सिर पर संपूर्ण काँच से बनी पारदर्शी हेलमेट जैसी ऑक्सीजन मास्क पहनाई गई। फिर हम जहाज़ की एक छोर से सीढ़ी द्वारा समुद्र के तल पर उतरे। यह सीढ़ी जहाज़ के साथ ही समुद्र तल तक होती है। यह गहराई तीन से चार मीटर की होती है। हमारे हाथ में ब्रेड दिया गया और मछलियाँ उसे खाने के लिए हमारे चारों तरफ चक्कर काटने लगीं।
मछलियों के झुंड को अपने चारों ओर तैरते देख मैं भयभीत हो उठी और गाइड से मुझे ऊपर ले जाने के लिए इशारा किया। बलबीर काफी देर तक समुद्र तल में चलते रहे और मछलियों को ब्रेड भी खिलाते रहे। मौसम वर्षा का था, आसमान में मेघ छाया हुआ था जिस कारण पानी के नीचे प्रकाश भी कम था। मेरे घबराने का वह भी एक कारण था। खैर यह हम दोनों के लिए ही एक अलग अनुभव था।
उस दिन हमारे विवाह वर्षगाँठ की पच्चीसवीं सालगिरह का भी दिन था तो हमने पनडुब्बी में बैठकर समुद्र के नीचे घूमने जाने का भी कार्यक्रम बनाया था। दोपहर को एक लोकल रेस्तराँ में मन पसंद भोजन किया और दोपहर के तीन बजे पनडुब्बी सैर के लिए ब्लू सफारी सबमरीन कंपनी के दफ्तर पहुँचे।
हमसे कुछ फॉर्म्स पर हस्ताक्षर लिए गए कि किसी भी प्रकार की दुर्घटना के लिए कंपनी ज़िम्मेदार नहीं है। यह उस राज्य और कंपनी का नियम हैं। सबमैरीन के विषय में साधारण जानकारी देकर हमें पनडुब्बी में बिठाया गया। कैप्टेन एक फ्रांसिसी व्यक्ति था। उसने बताया कि हम दो घंटों के लिए सैर करने जा रहे थे। पनडुब्बी पैंतीस मीटर की गहराई तक जाएगी। थोड़ी घबराहट के साथ हम दोनों अपनी सीटों पर बैठ गए।
पाठकों को बताएँ कि इसमें केवल छह लोगों के बैठने की जगह होती है। भीतर पर्याप्त ऑक्सीजन की मात्रा होती है जो चार दिनों तक पानी के नीचे रहने में सहायक होती है। हम कुल चार लोग थे और कप्तान साथ में थे।
हम धीरे -धीरे पानी में उतरने लगे। चारों तरफ अथाह समुद्र का जल और समुद्री प्राणियों के बीच हम ! अद्भुत रोमांच की अनुभूति का क्षण था वह। आज भी उसे याद कर रोंगटे खड़े होते हैं। कई प्रकार की रंग- बिरंगी मछलियाँ हमारी खिड़कियों से दिख रही थीं। जल स्वच्छ!जब कोई बड़ी मछली रेत से निकलकर बाहर तैरती तो ढेर सारी रेत उछालकर अपनी सुरक्षा हेतु एक धुँधलापन पैदा कर देती।
धीरे -धीरे हम समुद्री तल पर उतरने लगे। हमें एक ऐसे जहाज़ के पास ले जाया गया जो कोई चालीस वर्ष पूर्व डूब गया था और अब उस पर जीवाश्म दिखाई दे रहे थे। कुछ दूरी पर एक खोह जैसी जगह पर बड़ी – सी ईल अपना मुँह बाहर किए बैठी थी। कैप्टेन ने बताया कि उसे मोरे ईल कहते हैं। वे बड़ी संख्या में हिंदमहासागर में पाए जाते हैं। उसके मुँह के छोटे छोटे दाँत स्पष्ट दिखाई दे रहे थे। अचानक एक ऑक्टोपस अपने अष्टपद संभालता हुआ झट से पास से निकल गया। हमें तस्वीर लेने का भी मौक़ा नहीं मिला। हमारी पनडुब्बी अभी नीचे ही थी कि हमें कुछ स्टिंग रे दिखे, अच्छे बड़े आकार के थे सभी।
और भी कई प्रकार की बड़ी मछलियाँ दिखाई दीं। क्या ही अद्भुत नज़ारा था। समुद्री तल में रंगीन कॉरल्स बहुत आकर्षक दिखाई दे रहे थे। नीचे कुछ बड़े आकार के केंकड़े भी दिखे।
समुद्र में कई अद्भुत वनस्पतियाँ भी थीं।
कप्तान ने बताया कि उन वनस्पतियों को ईलग्रास कहते हैं। वे पीले से रंग के होते हैं। इन वनस्पतियों पर कई जीव निर्भर भी करते हैं। कप्तान ने बताया कि चूँकि हिंद महासागर, महासागरों में तृतीय स्थान रखता है साथ ही यह पृथ्वी के तापमान और मौसम को प्रभावित भी करता है तथा कुछ हद तक उस पर अंकुश भी रखता है।
अब धीरे -धीरे हम ऊपर की ओर आने लगे। कई विभिन्न मछलियों की प्रजातियाँ पनडुब्बी को ऊपर आते देख तुरंत ही गति से दूर चली जातीं जिन्हें देखने में आनंद आ रहा था। हम जब अपनी यात्रा पूरी करके बाहर निकले तो हमें सर्टीफ़िकेट भी दिए गए। हम दोनों के लिए यह सब चिरस्मरणीय यात्रा रही।
हम होटल लौटकर आए। तो रिसेप्शन में बताया गया कि होटल के मालिक द्वारा हमारे खास दिन के लिए एक छोटा आयोजन रखा गया था। हम रात्रि भोजन करने के लिए जब होटल के रेस्तराँ में पहुँचे तो वहाँ लाइव बैंड बजाकर हमारा स्वागत किया गया। उपस्थित अतिथियों ने खड़े होकर तालियाँ बजाकर हमें शुभकामनाएँ दीं। फिर वहाँ का भारतीय मैनेजर एक बड़े से ट्रे में एक सुंदर सुसज्जित केक ले आया। केक कटिंग के समय फिर लाइव बैंड बजा और सभी अतिथि हमारी मेज़ के पास आ गए। सबने मिलकर हमारी पच्चीसवीं एनीवर्सरी का आनंद मनाया।
हम दोनों अत्यंत साधारण जीवन जीने वाले लोग हैं, इस तरह के आवभगत के हम आदि नहीं थे न हैं। देश से दूर परदेसियों के बीच अपनापन मिला तो आनंद भी बहुत आया।
अगले दिन रात को हम भारत लौटने वाले थे। देर रात हमारी मुम्बई के लिए फ्लाइट थी। होटल का मैनेजर भारतीय था। वह मुम्बई का ही मूल निवासी भी था। उसने अपने घर पर हमें डिनर के लिए आमंत्रित किया। उसकी पत्नी ने काँच की तश्तरी में पेंट करके हमें उपहार भी दिए।
इस प्रकार के अपनत्व और स्नेह सिक्त अनुभव को हृदय में समेटकर आठ दिनों की यात्रा समाप्त कर हम स्वदेश लौट आए। आज इतने वर्ष हो गए पर सारी स्मॅतियाँ किसी चलचित्र की तरह मानस पटल पर बसी हैं। सच आज भी वहाँ के भारतीय हमसे अधिक अपनी संस्कृति से बँधे और जुड़े हुए हैं।
(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आप प्रत्येक मंगलवार,साप्ताहिक स्तम्भ -यायावर जगत के अंतर्गत सुश्री ऋता सिंह जी की यात्राओं के शिक्षाप्रद एवं रोचक संस्मरण आत्मसात कर सकेंगे। इस श्रृंखला में आज प्रस्तुत है आपका यात्रा वृत्तांत – काज़ीरंगा)
मेरी डायरी के पन्ने से… – यात्रा वृत्तांत – काज़ीरंगा
कुछ घटनाएँ चिरस्मरणीय होती हैं।
हमारे बचपन में उन दिनों हर घर के नियम होते थे कि पहला सितारा दिखे तो संध्या समय पर खेलकर घर लौटना है।
खिलौने तो होते न थे सारे दोस्त मिलकर ही कोई न कोई खेल इज़ाद कर लेते थे। खेलते -खेलते समय का भान न रहता कि कब सूर्यदेव अस्त हो गए और कब आसमान सितारों की चमक से भर उठा। घर लौटते तो माँ की डाँट अवश्य पड़ती और रोज़ एक ही बहाना रहता कि आसमान की ओर देखा ही नहीं।
गर्मी के मौसम में घर के आँगन में खटिया बिछाते या लखनऊ (मेरा मायका) जाते तो हवेली की छत पर दरियाँ बिछाकर सोते और हर चमकते सितारे से परिचित होते। नींद न आती तो भाई – बहन सितारे गिनते। कभी – कभी आपस में उन्हें बाँट भी लेते। सप्तर्षि का दर्शन आनंददायी होता।
अक्सर चाँद और उसकी चाँदनी मन को मंत्र मुग्ध कर देती। चाँद में छिपे खरगोश को सभी ढूँढ़ते। कभी हल्के बादल चाँद को ढक देते तो रात और गहरा जाती और शीतल हवा के झोंके हमें नींद दे जाते।
अक्सर अपने घर के भीतर से चाँद दिखाई देता था तो न जाने मन कहाँ – कहाँ सैर कर आता।
आसमान भर सितारे बस उसी बचपन में देखने का सौभाग्य मिला था। उसके बाद मैदान क्या छूटा मानो आसमान भी छूट गया।
सितारे छूट गए और छूटे चाँद और चाँदनी।
बड़ी हुई तो विवाह होते ही फ्लैट में रहने चले आए। फ्लैट भी निचला मंज़िला जहाँ किसी भी खिड़की से कभी चाँद दिखाई ही न देता।
समय बदल चुका था। ज़िंदगी भाग रही थी। साल बदलते जा रहे थे और उम्र बढ़ रही थी।
किसी के साथ कोई स्पर्धा न थी बस जुनून था अपने कर्तव्यों की पूर्ति सफलता से करने का। कब बेटियाँ ब्याही गईं और हम साठ भी पार कर गए वक्त का पता ही न चला। ।
मन के किसी कोने से अब भी सितारों से भरा आसमान देखने की तमन्ना झाँक रही थी। बचपन का वह मैदान, माँ की बातें और उनकी डाँट अब अक्सर याद आने लगीं।
ईश्वर ने फिर एक मौका दिया। हम नागालैंड के हॉर्नबिल फेस्टीवल देखकर काजीरांगा जंगल की सैर करने गए।
दिसंबर का महीना था। हाथी की सवारी के लिए प्रातः पाँच बजे जंगल के मुख्य द्वार तक पहुँचना होता है। खुली जीप हमें होटल से लेने आई। आसमान स्वच्छ, नीला ऐसा कि बहुत बचपन में ऐसा प्रदूषण रहित आसमान देखने की बात स्मरण हो आई। चाँद अब भी चमक रहा था और सितारे जगमगा रहे थे। सर्द हवा से तन -मन रोमांचित हो रहा था। ठंडी के दिनों में भी साढ़े छह बजे तक ही सूर्यदेव अपनी ऊर्जा देने आसमान पर छा जाते हैं। तब तक पौ फटने तक सितारे दर्शन दे जाते।
हाथी पर सवारी कर लौटते -लौटते सुबह हो गई। खूब सारी जंगली भैंस चरती हुई दिखीं और दिखे गेंडे, कोई अकेले तो कोई मादा अपने नवजात के साथ तो कोई जोड़े में। भारत में यहीं पर बड़ी संख्या में गेंडों को देखने का आनंद लिया जा सकता है। बाघ देखने का सौभाग्य हमें न मिला।
शाम को खुली जीप में बैठकर जंगल की दूसरी छोर से फिर सफ़ारी पर निकले तो चीतल, जुगाली करती भैंसों का झुंड , हाथियों के झुंड और गेंडे फिर दिखाई दिए।
एक गेंडे को जंगल के एक ओर से दूसरी ओर जाना था। हमारे सतर्क जीप चालक ने जब यह देखा तो उसने तुरंत काफी दूरी पर ही जीप रोक दी। हमसे कहा कि हम शोर न करें। हम अपनी जगह पर बैठकर ही तस्वीरें लेते रहे। गेंडे की पता नहीं क्या मंशा थी, वह बीस मिनट तक सड़क के बीचोबीच खड़ा रहा। हमें भी इस विशाल और आकर्षक प्राणी को निहारने का सुअवसर मिला। फिर धीरे – धीरे रास्ता पार कर गेंडा दूसरी ओर के मैदान की लंबी घासों के बीच विलीन हो गया।
सड़क पर हमें एक जगह बड़ी मात्रा में लीद नज़र आई, पूछने पर जीप चालक ने बताया कि गेंडे की आदत होती है कि वह एक ही स्थान पर कई दिनों तक मल विसर्जित करते हैं। फिर जगह बदलते हैं और जंगल के अन्यत्र दिशा की ओर निकल जाते हैं।
ठंडी के मौसम में अँधेरा जल्दी होता है। अभी बस सूर्यास्त हुआ ही था कि जंगल में कुछ चमकता सा दिखने लगा। हम लोगों को भ्रम हुआ कि शायद जुगनू हैं , पर ठंडी के मौसम में तो जुगनू बाहर नहीं आते। ध्यान से देखने पर जीप चालक ने बताया कि वे हिरणों की आँखें थीं। वे अब सब एक जगह पर एकत्रित होकर जुगाली कर रहे थे।
जंगल में पूर्ण निस्तब्धता थी। शायद इसलिए झींगुर की आवाज़ स्पष्ट सुनाई देने लगी थी। ऊँची घास में से चर्र-मर्र की आवाज़ भी आने लगी। संभवतः हाथियों का झुंड घास तोड़ रहा था। पास में ही पतला संकरा नाला – सा बह रहा था। उसमें हाथियों का झुंड और बच्चे पानी से खेल रहे थै। आनंददायी दृश्य था। पर खास स्पष्ट न था क्योंकि बीच में लंबी घास थीं।
हमने खुली जीप से आकाश की ओर देखा तो लगा सितारे हमें बुला रहे थे। हाथ ऊपर करते तो मानो उन्हें छू लेते। आकाश भर सितारे और सरकते हल्के बादल के चादरों के नीचे छिपा चाँद और शीतल बयार ने फिर एक बार बचपन के सुप्त अनुभवों को क्षण भर के लिए ही सही आँखों के सामने साकार कर दिया। एक लंबे अंतराल के बाद सितारों को देख मन रोमांचित हो उठा।
सहसा मन में एक बात उठी कि हम प्रकृति से कितनी दूर चले गए। झींगुर की आवाज़ मधुर संगीत सा प्रतीत हुआ। जंगल के कीड़े – मकोड़ों को शायद पचास साल बाद फिर एक बार पास से देखने का अवसर मिला।
क्या वजह है कि इन छोटे -छोटे आनंद से हम वंचित हो गए!
सूर्यास्त के बाद हम वहीं ऑर्किड पार्क में दो घंटे के लिए आयोजित बीहू डान्स देखने गए। यह अत्यंत आकर्षक और आनंददायी अनुभव रहा।
दोनों हाथों में दो थालियाँ लेकर नृत्य करतीं नर्तकियाँ, बाँसों के बीच उछलकर नृत्य, हाथ में दीया लेकर नृत्य और ताल संगत में बाँसुरी ढोलक, मृदंग, खंजनी और उनके कुछ स्थानीय वाद्य -सब कुछ आकर्षक और आनंददायी रहा।
दूसरे दिन सुबह हम ऑर्किड पार्क देखने गए। यहाँ कई प्रकार के ऑरकिड फूल और कैक्टस के पौधे दिखाई दिए।
इसी स्थान पर छोटा – सा संग्रहालय है जहाँ आसाम में खेती बाड़ी और चा बाग़ानों में उपयोग में लाए जानेवाले हल कुदाल, फावड़ा, टोकरियाँ आदि की प्रदर्शनी है।
पुराने ज़माने में उनके वस्त्र, योद्धाओं के अस्त्र- शस्त्र तथा गणवेश भी रखे गए हैं। एक कमरे में हाथ करघे पर बनाए जाने वाले मेखला चादर बुनती लड़कियाँ भी बैठी होती हैं। पर्यटक खड़े होकर इन्हें बनते हुए देख सकते हैं। यह पारंपारिक वस्त्र है और इन्हें बुनने में समय लगता है।
शहर में सभी हिंदी बोलने में समर्थ हैं। लोग स्वभाव से मिलनसार हैं और सहयोग देने में पीछे नहीं हटते।
काज़ीरंगा मूल रूप से नैशनल पार्क के लिए ही प्रसिध्द है। यहाँ छोटी – सी जगह में जो जंगल का परिसर नहीं है वहाँ लोग निवास करते हैं। घरों में महिलाएँ छोटे -छोटे कुटीर उद्योग करते हैं। महिलाएँ ही चाय के बागानों में काम करती हैं। यहाँ स्त्रियाँ ही पुरुषों से अधिक श्रम करती हैं। यहाँ के निवासी पान खाने के अत्यंत शौकीन होते हैं। स्त्री -पुरुष सभी दिन में कई बार पान चबाते दिखाई देते हैं।
फिर सुखद अनुभव लिए हम आगे की यात्रा मेघालय के लिए निकल पड़े।
☆ आध्यात्मिकतेचा श्रेष्ठ अनुभव – पंढरीची पायी आषाढी वारी 2023 – भाग –3 ☆ श्री सदानंद आंबेकर☆
१७जून :: नदी तटावर – नीरा गाव : अंतर ७.४४ कि. मी.
रोजच्यापेक्षा आज आम्हांला थोडी सवलत मिळाली कारण आजचे आमचे अंतर फार कमी होते। येथे वाल्हे नावाच्या गावांत माऊलींची पालखी विश्राम घेते. पण आमचा मुक्काम नीरा गावात एका खूप मोठया शाळेत होता। फार मोठे भवन आणि अतिशय मोठं पटांगण। आत्तापर्यत आपापसांत ओळखी झाल्या होत्या त्याचा फायदा आम्हाला आज झाला। आमच्या दिंडीतील एका वारकरीताईचे माहेरघर त्या गावात होते, दिंडीची परवानगी घेऊन आम्ही काही जण तिथे राहिलो. आज विशेष थकवा नव्हता। संध्याकाळी प्रथेनुसार हरिपाठ व जेवण झाले। आज तर मोठयाश्या अंगणात झोपायची छान सोय होती। दुसरे दिवशी गावातल्या नीरा नदीत माउलींचे स्नान होते. त्यामुळे पालखीचे दर्शन, त्यांच्या अश्वांचे दर्शन आणि स्नानाचा सोहळा पहायला मिळाला।
१८ जून :: पुढील टप्पा लोणंद : अंतर ६.३१ कि.मी.
आजपण लोणंदपर्यंतचे अंतर अगदी कमी होते। आता चालण्याची इतकी सवय झाली होती की दहा बारा किलोमीटर अगदी सोपं वाटायचं। तिथे रेल्वे स्थानकाजवळ कांदेबाजारामधे सर्व दिंडयांचे मुकाम होते। येथे आज विशेष जेवण होते। स्वादिष्ट पुरण पोळी आणि सोबत आमटी। मन भरून जेवण झाले. मग मुंबईचे प्रसिध्द अभंग गायक श्री शंतनु हिर्लेकर यांचे, तबला संगतकार श्री प्रशांत पाध्ये यांच्या साथीने गायन झाले, यांनी शेवटी ‘तीर्थ विठ्ठलक्षेत्र विठ्ठल ‘ आणि महालक्ष्मीची कानडी स्तुती – ‘भाग्यदा लक्ष्मी बारम्मा‘ ही अत्यंत सुरेख गायली, त्या नंतर हरिपाठ व प्रवचन सेवा। येथे आम्हाला माउलींच्या रथाचे चोपदार यांचे पण दर्शन झाले। त्यांच्या श्रीमुखातून वारीबद्दल ज्ञान मिळाले। येथे एक विशेष सोय पहायला मिळाली– पाणी बॉटलवाले लोक भरलेले खोके घेऊन आमच्या जवळ पाणी विकायला येत होते। गर्मी खूप असल्यामुळे त्यांची विक्री पण भरपूर झाली। १९ जूनला येथे विश्राम होता।
२०जून :: आतातरडगांव: अंतर २०.45कि.मी.
इथपासून चालायचे अंतर पुन्हा वाढले होते. पण आता कसे झाले होते की १५-२० किमी ऐकलं की असं वाटायचं ‘ बस….. इतकंच अंतर ? ‘ आज मागच्या गावातून चालून आल्यावर मधेच एक नवीन अनुभव येणार होता। आज चांदोबाचा लिंब नावाच्या ठिकाणी रिंगण होणार होतं। मी पण वेळापत्रकात हे वाचले होते पण अर्थ काही समजला नव्हता. ते आज प्रत्यक्ष पहायचा मौका आला होता। त्या ठिकाणी आम्ही सकाळी साडेदहा वाजताच पोहोचलो. पण जिथे हे रिंगण होणार होतं तिथे खूप गर्दी होऊन गेली होती। आम्ही पण वाट पहात बसलो। अखेरीस, साडेतीन वाजण्याच्या सुमारास एकदम गर्दी वाढली अन् त्यानंतर हा सोहळा सुरू झाला। यात दोन अश्व सरळ मार्गावर धावतात. त्यात एकावर स्वार असतो नि दुसरा अश्व एकटाच असतो. असे मानतात की त्यावर स्वतः माऊली असतात। दोघे अश्व खूप जोरात धावतात, दोन चकरा मारतात अन् माउलींचा अश्व पुढे निघून जातो। हा सोहळा पाहिल्यावर पालखी पुढे निघाली नि आम्हीपण पुढील मार्गावर चालू लागलो। तरडगांव हे लहान खेडयासारखं गाव, तिथे थांबायची शाळा मेनरोड वर होती। शाळेची वास्तु अगदी जुनाट होती अन त्याचं बांधकाम चालू होतं। या वेळी इथे पुरुषांकरिता राहुटी म्हणजे टेंटमधे राहायची सोय होती. पण नंतर जागा कमी पडल्याने समोर एका डॉक्टरकडे त्याच्या गैरेजमधे सोय झाली। आज रात्री जेवणांत एकदम नवीन पदार्थ होता तो म्हणजे पाव भाजी।
उद्या खूप चालायचं होतं म्हणून गैरेजसमोर अंगणात सगळयांनी आपले बिछाने लावले व झोपी गेलो। हेच ते पहिलं ठिकाण जिथे पुढल्या दिवशी जीवनांत पहिल्यांदा प्लास्टिकच्या मोबाइल शौचालयांत जावं लागलं। पण हे पूर्वीच्या तांब्या नाहीतर बाटली घेऊन शेतांत किंवा रस्त्याच्या काठी अंधारात जाण्यापेक्षा सोईचं होतं। असो, हा ही एक नवा अनुभव। बस भीती ही वाटायची की
आज सकाळी का कुणास ठाऊक, पण सगळे दिंडी-यात्री अंधार असतांनाच म्हणजे सूर्योदय होण्याआधीच मार्गी लागले। आम्ही पण चालताचालता सूर्योदय पाहिला। फलटणपर्यंत उन्हाचे चटके तर सहन केले, पण आजची विश्रांतीची जागा म्हणजे मुथोजी महाविद्यालय शोधता शोधता फार थकवा आला। प्रत्येक माणूस त्याला विचारलं की वेगळाच रस्ता सांगायचा। त्यातच पालखी येत असल्या- -मुळे रस्ताभर खूप गर्दी होती। कसेतरी आपल्या स्थळावर पोहोचलो। हेही खूप मोठे संस्थान होते। फलटण शहरसुद्धा मोठं ठिकाण आहे। तिथे शिवरायांचे सासरघर आहे। एक मोठ्ठा महाल, अनेक प्राचीन देवळं आदि असल्याचे कळले, पण वेळ कुठे होता। इथे एक दोन इतर दिंड्या अन् एन सी सी चे कैडेट्स थांबले असल्यामुळे कॉलेजच्या पटांगणातसुध्दा भरपूर लोक झोपले होते। सकाळी पुन्हा पी वी सी चे पोर्टेबल शौचालय–ते पण चांगले लांब लावले होते,अन् नंतर टैंकरखाली पाण्याच्या बॉटलने आंघोळ, कारण आपली बादली अजून कुठे तरी असायची ! नंतर स्वल्पाहार घेऊन पुढची यात्रा सुरू केली। आज पण खूप लांब चालायचे होते, अन् आता अर्धी यात्रा झाल्यामुळे लोकांनी उरलेल्या वेळेचा हिशेब करायला सुरवात केली होती।
☆ आध्यात्मिकतेचा श्रेष्ठ अनुभव – पंढरीची पायी आषाढी वारी 2023 – भाग –2 ☆ श्री सदानंद आंबेकर☆
वारीचा पहिला दिवस – पहिला अनुभव – पहिली परीक्षा
एका ओळीत चालत मुखाने हरिनाम स्मरण करीत हळू-हळू शहरातील रस्त्यांवरून वारी चालली। पुढे जाता जाता अजूनही काही दिंड्या येऊन सहभागी होऊ लागल्या …. जसे गावागावातून वहात येणाऱ्या लहान नद्या पुढे एका नदीत येऊन मिसळतात नि एक मोठी नदी निर्माण होते … तसेच काहीसे वाटून गेले. वारीचा खरा उत्साह आता दिसू लागला होता। चहुकडे नुसता नामाचा गजर, भारी गर्दी, त्यांत आता आमच्या दिंडीचे वारकरी वेगळे होऊन गेले। रांग वगैरे सगळी संपली। आता आपण फक्त एका गावचे नाही … आता संपूर्ण विश्व आपला परिवार आहे असा भाव निर्माण झाला। वारकरी आपसांत एकमेकांना माऊली हे असे संबोधतात । भक्तीची ही असाधारण भावना बघून माझे मन भारावून गेले, आणि त्याच क्षणी मी निर्णय केला की घरी गेल्यावर हे सर्व विस्ताराने लिहायचे, ज्याने श्रध्देचा हा अनुभव इतरांना घेता येईल।
आता थोडे त्यांचे वर्णन, जे स्वतः प्रत्यक्ष वारीत नव्हते पण ज्यांची भावना वारकऱ्यांपेक्षा कुठेही कमी नव्हती। शहरांत चालत असतांना पदोपदी पाण्याची बॉटल, त्या दिवशी एकादशी असल्यामुळे, राजगिरा पापडी, लाडू, केळी, चहा, शेंगदाण्याचे लाडू, साबूदाणा, असे बरेच काही घेऊन अनेक श्रध्दाळू रस्त्याच्या कडेला उभे राहून विनवणी करून वारकऱ्यांना देत होते। काही काही ठिकाणी तर एक दोन वर्षाच्या पोरांना छान धोतर किंवा छोटंस नउवारी घालून सजवून कडेवर घेऊन त्यांच्या हातून वस्तू देत होते- ‘काका याच्याहातून एक तरी घ्या‘। असा प्रेमळ आग्रह करत होते. एके ठिकाणी तर एक मध्यम वयाचे गृहस्थ हातात एक दोन रुपयांची नाणी घेऊन वारकऱ्यांना एक एक देत होते, त्यामागे भावना ही असावी की वस्तु नाही तरी अशी काही सेवा आपल्या हातून व्हावी। धन्य तेची जन, जयांचे संत चरणी मन !! पुढे मिलिट्री, डॉक्टर हे सर्वपण सेवेत हजर होते। याच ठिकाणी माऊलींच्या रथाचे पहिले दर्शन मला झाले। खूप जवळून पाहता आले।
पुणे सोडल्यावर माझी पहिली परीक्षा सुरू झाली, जेव्हा समोर दिवेघाट दिसायला लागला। याक्षणी यात्रेवर निघायच्या आधीचे सर्वांचे बोलणे मला आठवू लागले। सात महिन्यापूर्वी हृदयाघात कारणाने दोन स्टेंट घालावे लागले असल्यामुळे सगळयांनी खूप शंका व्यक्त केल्या होत्या की आता काय ही परीक्षा पास होणार का? देवाचे नाव घेतले नि सर्वांच्यासोबत घाटाच्या रस्त्यावर पहिले पाऊल ठेवले। वर सूर्यनारायण पूर्ण तेज घेऊन हजर होते। आता या मार्गी खाण्या-पिण्याची सोय जवळपास संपली होती. वर तळतळतं ऊन नि खाली ज्ञानबा-तुकाराम-एकनाथ-मुक्ताबाई चा सतत गजर। येथे मी विशेष उल्लेख करू इच्छितो की महाराष्ट्र शासनाचे पाण्याचे भरपूर टैंकर सोबत होते. त्यामुळे वारकऱ्यांची मोठी सोय होत होती। घाटात एकीकडून पायी चालणारे नि अर्ध्या भागात दिंडीची वाहनं, रुग्ण्वाहिका चालत होत्या। दर एक दीड तासांनी रस्त्याच्या काठावर थांबायचे, दोन घोट पाणी घेऊन पुढे चालायचे। एका उत्साहात बिना काही त्रासाचा आठ कि.मी. चा हा घाट अखेरी संपला आणि पुढे समतल मैदानांत डाव्या बाजूला ‘ठेवूनिया कर कटेवरी उभा तो विठोबा‘– अशी भली मोठी मूर्ति दिसली. एकदा वाटले – आलो का काय पंढरपुराला !!! पुढे पुष्कळ चालून सायंकाळी सुमारे पाच वाजता सासवडला आमच्या ठरलेल्या ठिकाणी- दादा जाधवराव मंगल कार्यालय येथे आलो।
तिथे अजून ही दिंड्या थांबल्या असल्याचे दिसून आले। संध्याकाळी सहा वाजता हरिपाठ आणि प्रवचनाचा पहिला कार्यक्रम झाला। त्या वेळी दिंडी प्रमुख डॉ भावार्थ देखणे आणि त्यांच्या भार्या सौ पूजा देखणे यांस व्यासपीठावर ऐकायची संधी मिळाली। वारकरी संप्रदायाशी पूर्वीचा काही परिचय नसल्यामुळे माझ्यासाठी हा एक नवीन अनुभव होता। या अगोदर कधीच मी हरिपाठ ऐकला नव्हता। आतापर्यत काही बंधु भगिनींशी प्राथमिक ओळख झाली होती। वारीबद्दल माहिती साठी इंटरनेटवर बरंच काही वाचलं होतं. पण माझा अनुभव त्यापेक्षा बराच वेगळा होता। प्रवचन आणि हरिपाठ अत्यंत सुरेख झाला, इथे मी देखणे दंपतिचे अभिनंदन करू इच्छितो की या तरुण वयात आणि स्वतः उच्चशिक्षित नि कॉर्पारेट क्षेत्रात उच्च पदी असूनही देवाच्या कामात येवढे कौशल्य !! मला स्तुत्य वाटले। त्यांच्या संगतीला टाळवादकांची ती एकसम पदचालना-पावली, जसे काही नृत्यच आणि पखावजाची ती उत्तम साथ, सर्व तरुण वयाचे, आनंद वाटला। आजचा दिवस सर्वात जास्त चालणे झाल्यामुळे पुढे १५ जूनला सासवडला विश्राम होता। इथे माझ्या पायाला झालेल्या छाल्यांकरिता मी औषध घेतले।
१६ जून :: येळकोट येळकोट जय मल्हार : जेजुरी तीर्थक्षेत्र अंतर २०.९४ कि.मी.
सासवडच्या विश्रांतीनंतर नवीन उत्साह घेऊन आम्ही निघालो जेजूरीला। हे मल्हारी मार्तण्ड किंवा खंडोबाचे जागृत तीर्थस्थान आहे। एका उंच गडावर पायऱ्या चढून दर्शनाला जावे लागते। अतिशय गर्दी आणि थकवा असल्यामुळे मी दर्शनाला जाऊ शकलो नाही, किंवा खण्डोबाची मला आज्ञा नसावी असेही म्हणता येईल। येथे गावाच्या सुरुवातीला उजव्या हाताला एक प्राचीन देऊळ पाहिले, ज्या ठिकाणी रामदास स्वामींनी ‘लवथवती विक्राळा‘— ही शंकराची आरती लिहिली असा तिथे उल्लेख केला होता। देवळाला लागून एक तलाव दिसला जो अत्यंत घाण होता। आजच्या रस्त्यात पुन्हा चहा-कॉफी, वडापाव, उसाचा रस, सोडा आणि खूप काही खाय-प्यायची दुकानं होतीच. त्याशिवाय अनेक संस्थांतर्फे अन्न, पाणी, चहा याची मोफत वाटप केले जात होते। उसाच्या रसाच्या सगळया स्टॉलवर आधीच रेकॉर्ड केलेली कमेंटरी फार मजेदार होती। चंद्रभागेच्या पाण्याने जोपासलेल्या उसाचा अमृतासारखा गोड रस ‘ विठाई रसवंती ‘च्या नावाने फक्त पाच रुपयांत एक ग्लास मिळत होता, तो यात्रेत मी एक दोनदा घेतला सुध्दा। वारीला जातांना रस्ता कसा असेल याची शंका आता मिटली होती, कारण पूर्ण रस्ता रुंद हायवे होता, कुठेच उतार चढाव आणि वळण नव्हते। येथे आमचे मुक्कामाचे ठिकाण शोधायला खूप विचारावे लागले। आजचा मुक्काम श्री.आगलावे यांच्या धर्मशाळेत होता। रात्री दररोजप्रमाणे हरिपाठ ज्या ठिकाणी झाला ते एक अतिशय सुंदर राम मंदिराचे आंगण। छान गार वारा होता आणि सोबत सरस हरिपाठ। याच सत्संगात सौ. माईंची अभंग प्रस्तुति – ‘ खंडेराया तुज करिते नवसू-मरू दे रे सासू- खंडेराया ‘, आणि सोबत डॉ. भावार्थचे संबळ वादन हे मी पहिल्यांदा ऐकले। खरं तर हे वाद्य पण पहिल्यांदाच पाहिले। त्या वास्तुचे मालक पण तिथे उपस्थित होते। रात्री नऊ वाजता जेवण नि नंतर विश्रांति।
☆ आध्यात्मिकतेचा श्रेष्ठ अनुभव – पंढरीची पायी आषाढी वारी 2023 – भाग –1 ☆ श्री सदानंद आंबेकर☆
भारत – अध्यात्माची मायभूमी – जिथे सजीव आणि निर्जीव दोन्हींमधे देव बघितला जातो। श्रध्दा हा जीवनाचा आधार – त्या पार्श्वभूमीवर अनेक देवस्थानं आणि त्यांच्या विविध परंपरा। अशीच एक सुमारे ७०० वर्षांपासून चालत आलेली उच्चस्तरीय परंपरा आहे —’आषाढ आणि कार्तिक महिन्यात होणारी पंढरीची वारी।’
विठ्ठल-रखुमाईचा जागृत वास असलेली पुण्यनगरी पंढरपूर… येथे फक्त महाराष्ट्रच नाही तर इतर प्रांतातून आणि परदेशातूनसुध्दा भाविकगण वारी करायला मुख्यतः आषाढ महिन्यात येतात। ईश्वर कृपेने ही पायी वारी करण्याची संधी यंदा मला मिळाली।
सुरुवातीला या यात्रेबद्दल काहीच माहित नसल्यामुळे मनात अनेक प्रश्न काहूर माजले होते। बरेच प्रश्न – कुठं जाऊ, किती अंतर असणार, रस्ता कसा असेल, लोकं कोण नि कसे असतील, जेवणाचं, थांबायचं कसं नि कुठे, इत्यादि होते. पण यांची माहिती मिळवली नि माझ्या गृहनगर भोपाळ येथून देवाचं नाव घेऊन घराबाहेर पाऊल टाकलं।
पुण्यात माझी आतेबहिण नि भाची यांची भेट आमच्या दिंडीने ठरविलेल्या ठिकाणी – ‘गुप्ते मंगल कार्यालय, शनिवार पेठ पुणे‘ येथे झाली। खरं तर माझी यात्रा ताईंच्यामुळे शक्य झाली कारण त्यांनी कार्यक्रमाची महिती मला दिली नि मी त्यांच्यासोबत यात्रेची तयारी केली।
आमची यात्रा ‘संत विचार प्रबोधिनी’ या दिंडीसोबत होणार होती। त्याच्या संचालिका हभप सौ माईसाहेब गटणे यांनी कार्यक्रमाची संपूर्ण माहिती आधीच सर्वांना व्हाटस्एपच्या माध्यमातून दिली होती। त्या सूचनापत्रकाप्रमाणे पायी वारीसोहळा हा ११ जून ते ३० जून २०२३ पर्यंत चालणार होता।
११ जून :: पहिले पाऊल
गुप्ते मंगल कार्यालयात आमचे आवश्यक सामान, जे पुढे यात्रेत लागणार होते ते ठेवून, एका लहान बॅगमधे रस्त्यात लागणारे लहान-सहान सामान घेऊन आम्ही श्रीक्षेत्र आळंदीला निघालो। अद्याप आपल्या सह-वारकरी मंडळीशी आपसांत ओळखी झाल्या नव्हत्या।
माझी आळंदीला ही दुसरी यात्रा होती, पण या वेळेस उद्देश् वेगळा होता, त्यामुळे मनात एक वेगळा उत्साह आणि उत्सुकता होती। पुणे नगरात चहूकडे वारकरी दिसत होते. त्यात शहरापेक्षा गावची मंडळी जास्त आहेत असे वाटले, पण नंतर हे दृश्य बदललं। पायी चालत तिथे ठरलेल्या ठिकाणी- विठ्ठल कृपा मंगल कार्यालयात आम्ही सुमारे चार वाजता पोहोचलो। त्याच वास्तूत अजून एक दिंडी आली असल्यामुळे थोडा गोंधळ झाला, पण लगेच आपले ठिकाण पहिल्या माळयावर आहे हे कळले।
त्या रात्री तिथेच मुक्काम असल्यामुळे बऱ्याच लोकांनी आपली जागा ठरवून सामान लावून घेतले होते। येथे जुने वारकरी पूर्वओळख असल्याने एकत्र आले नि नवे पण हळूहळू त्यांच्यात मिसळू लागले। आमची एकूण संख्या १५० आहे हे कळविण्यात आले।
उन्हाळा खूप असल्याने पाण्याची गरज खूप जास्त भासत होती. तेव्हा वारंवार बाहेर जाऊन पाणी आणावे लागत होते। थोडयाच वेळात दिंडीच्या संचालिका सौ माईसाहेब आल्या नि मंचावर त्यांनी स्थान ग्रहण केले। सुरुवातीला वारीच्या फीचा हिशेब, पावती देणे ही किरकोळ कामं आटोपून नंतर संपूर्ण यात्रेची माहिती आणि वारीचे अनुशासन सांगितले। या मधेच सर्वांना या दिंडीचा १९८६ पासूनचा पूर्व इतिहास नि पूर्व वारीप्रमुख वै.ह.भ.प.डॉ रामचंद्र देखणे यांचा जीवन परिचय देण्यात आला। हे पूर्ण झाल्यावर त्यांची प्रवचन सेवा झाली जी सर्वांनी मनापासून ऐकली।
आजच्या दिवशी म्हणजे ११ जूनला संत ज्ञानेश्वर महाराजांची पालखी आळंदीहून संध्याकाळी निघणार होती अन् त्या दिवशी परंपरेप्रमाणे तिचा मुकाम तिथेच असल्यामुळे दिंडीच्या व्यवस्थे- -प्रमाणे पुण्यात स्वतःची सोय असणारे वारकरी पुण्याला परत जाऊ शकत होते। रात्री सुमारे आठ वाजता वाजत-गाजत भक्तजनांच्या गजरासोबत पालखीची यात्रा सुरू झाली। गर्दी खूप जास्त असल्याने मला दर्शन काही होऊ शकले नाही। पोलिसांना गर्दी सांभाळायला खूप मेहनत करावी लागत होती। नंतर रात्री नगर बस सेवेत बसून पुण्याला परत आलो।
१२ जून :: माऊली आलेत पुण्याला ..
दुसरे दिवशी १२ जूनला पालखीचे पुण्यात आगमन झाले अन् तिथे पालखीचा एक दिवस मुक्काम होता. त्यामुळे दिंडी पण १३ जूनला पुण्याला गुप्ते मंगल कार्यालयात थांबली। पुण्यातील स्थानीय वारकरी यांना आज इथे हजर होण्याबद्दल सूचना होती।
१४ जून :: वारी निघाली पंढरपुराला : पुणे – सासवड अंतर ३८.३४ कि.मी.
शेवटी १४ जूनला तो सूर्यादय झाला ज्याची सर्वांना प्रतीक्षा होती। सकाळी पाच वाजल्या- -पासून सर्व वारकरी पूर्ण उत्साहात तयार झाले। तेव्हाच सूचना झाली की सर्वांनी आपले सामान लगेजच्या ट्रकवर ठेवावे। पहिला दिवस असल्यामुळे थोडी घाई गर्दी होत होती पण अखेरीस सर्वांचे सामान चढले। इथे सांगण्यात आले की जवळच एका ठिकाणी सर्वांचा चहा इत्यादि होईल नि मग पुढे वाटचाल होईल। त्या प्रमाण तिथे चहा-नाश्ता नि दिवसाकरिता खाण्याचे पैकेट वाटप सुरू झाले। चहा-कॉफी, नाश्ता घेऊन आता पाठीवर आवश्यक तेवढे सामान, मनांत प्रचंड उत्साह, उत्सुकता घेऊन आणि मुखाने जय हरि विठ्ठल घोष करीत सर्व ओळीत लागले नि ‘ ज्ञानोबा-तुकाराम माउली ‘ असा नाद करीत आमची ‘ संत विचार प्रबोधिनी ‘ची दिंडी वारीच्या मार्गाला निघाली। येथेच ज्ञानेश्वर महाराज आणि तुकाराम महारांजाच्या पालख्या एकत्र येतात नि नंतर वेगळया मार्गावर चालू लागतात।
(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आप प्रत्येक मंगलवार,साप्ताहिक स्तम्भ -यायावर जगत के अंतर्गत सुश्री ऋता सिंह जी की यात्राओं के शिक्षाप्रद एवं रोचक संस्मरण आत्मसात कर सकेंगे। इस श्रृंखला में आज प्रस्तुत है आपका यात्रा संस्मरण – मेरी डायरी के पन्ने से…हमारी ग्रीस यात्रा – भाग 2)
मेरी डायरी के पन्ने से… – हमारी ग्रीस यात्रा – भाग 2
(अक्टोबर 2017)
क्रीट्स से एक सुखद, सुंदर, अविस्मरणीय यात्रा के पश्चात हम लोग एजीएन एयरलाइंस द्वारा एथेंस के लिए रवाना हुए। क्रीट से एथेंस का अंतर 198 माइल्स है। यहाँ पहुँचने में हमें 60 मिनट लगे होंगे लेकिन सामान लेकर बाहर आते, आते घंटा सवा घंटा हो ही गया।
यहाँ एक विषय पर विशेष प्रकाश डालना चाहूँगी कि हम जब अंतर्राष्ट्रीय एयर लाइन्स द्वारा यात्रा करते हैं तो प्रति यात्री 30/40 के.जी वज़न साथ ले जाने की इजाज़त होती है पर भीतरी स्थानीय एयर लाइन्स ज़्यादा सामान साथ ले जाने की इजाज़त नहीं देते। ऐसे समय पर कभी – कभी सामान अधिक होने पर अधिक रकम देने की आवश्यकता पड़ जाती है जो अपेक्षाकृत बहुत अधिक होती हैं। इसलिए लोकल फ्लाइट्स में जितना वजन ले जाने की सीमा निर्धारित होती है उसी के अनुपात से अपना सामान लेना चाहिए।
एथेंस में हमें कोई बड़ा रिसोर्ट नहीं मिला था जिस कारण हमने शहर के बीचो बीच एक अच्छे होटल में एक कमरा 5 दिन के लिए आरक्षित कर लिया था। यह शहर के बीच स्थित होटल था, जिसकी रिव्यू देखकर हमने भारत में रहते हुए ही बुक कर लिया था। जिस कारण हमें हर रोज़ यातायात के लिए आसानी रही। यहाँ नाश्ते के लिए बहुत अच्छी व्यवस्था थी, जिस कारण हम भरपेट नाश्ता करके ही सुबह नौ बजे घूमने के लिए निकल पड़ते थे।
होटल के बाहर निकलते ही बस की व्यवस्था थी। यहाँ बसों में सीनियर सिटीज़न के लिए बैठने की विशेष व्यवस्था होती है। जो भी दिव्यांग हैं उनके लिए भी अलग व्यवस्था होती है। लोगों में संवेदना आज भी जीवित है यह देखकर मन प्रसन्न हुआ।
स्थानीय लोग भ्रमण के लिए आए पर्यटकों के प्रति आदर भाव रखते हैं। अधिकतर लोग अंग्रेज़ी बोलने में सक्षम हैं जिस कारण हमें भ्रमण करते समय कोई असुविधा नहीं हुई।
एथेंस का इतिहास 2500 से अधिक वर्ष पुराना है। यहाँ पर रोमन्स का बड़ा प्रभाव रहा जिस कारण यहाँ रोमन्स द्वारा बनाए गए बड़े -बड़े मंदिर और मनोरंजन के स्थान दिखाई दिए।
एथेंस में घूमने की कई प्रकार की सुविधाएँ उपलब्ध हैं। सैलानी चाहें तो एक दिन चलकर शहर के विभिन्न हिस्से घूमकर देख सकते हैं, यह सस्ता होता है। एक गाइड के साथ दस -पंद्रह लोग साथ चलते हैं।
अथवा हॉप ऑन हॉप ऑफ बसों की व्यवस्था है जिसमें बैठकर शहर घूमा जा सकता है।
हॉप ऑन हॉप ऑफ बस में आपको दर्शनीय स्थानों का पेम्फ्लेट मिलता है साथ ही ईयर फोन दिया जाता है। अपनी सीट पर बैठकर प्रत्येक स्थान की जानकारी हासिल कर सकते हैं। एक बार बस में बैठ जाएँ तो आधा दिन बस में घूम लें और अपनी रुचि अनुसार जगहें मैप में चिह् नित कर लें। ये बसें गर्मी के मौसम में रात के आठ बजे तक चलती हैं और शीतकाल में छह बजे तक।
हमने पाँच दिन के लिए हॉप ऑन हॉप ऑफ की बस के टिकट ले लिए और पहले दिन बस में ही घूमते रहे। पाँच दिन के लिए टिकट लेने पर यह सस्ता पड़ता है। विदेश जाने पर एक -एक मुद्रा संभलकर खर्च करना आवश्यक होता है।
बस में बैठकर अगर सारा दिन घूमना है तो ऊपरी हिस्से में बैठें, इससे शहर अच्छी तरह से दिखाई देता है।
हम आधा दिन घूमने के बाद सबसे पहले जियस मंदिर देखने गए। विशाल परिसर में खंडित मूर्तियाँ और ऊँचे -ऊँचे खंभे दिखाई दिए। मंदिर के बाहर के हिस्से में किसी समय विशाल बगीचा रहा होगा जो अब सब तरफ से उजड़ा हुआ है। मंदिर का भीतरी परिसर बहुत विशाल है। एक साथ संभवतः हज़ार लोग प्रार्थना के लिए बैठ सकते थे। एक विशाल मंच जैसा स्थान था जिस पर जियस की कभी बहुत विशाल मूर्ति लगी हुई थी। जियस हमारे इन्द्र देव की तरह ही आकाश और बिजली के देवता माने जाते थे। ईसाई धर्म आने से पूर्व ग्रीस वासी इसी तरह मूर्तियों की पूजा करते थे।
इस विशाल और ऐतिहासिक स्थान का दर्शन कर हम बाहर आए और मंदिर के सामने वाले फुटपाथ पर कई कैफे थे हमने वहीं भोजन कर लिया। ये छोटे – छोटे रेस्तराँ होते हैं जहाँ लोकल फूड और कॉफी मिल ही जाते हैं। वहीं से बस ले ली।
हम बस की ऊपरी भाग में बैठे रहे, हम शहर देखने में मग्न थे। ठंडी बढ़ने लगी थी और अंधकार भी होने लगा था। हमें पता ही नहीं चला कि सारे लोग उतर गए और बस डीपो पर पहुँच गई। वहाँ उतरकर हम घबरा गए क्योंकि वह बिल्कुल ही अपरिचित – सी जगह थी। बस ड्राइवर ने शीतकालीन समय परिवर्तन की बात तब हमें बताई।
हम बस से उतरे और इधर -उधर देखने लगे। एक वृद् धा अपने घर लौट रही थी, उसे हमारी समस्या शायद समझ में आई। उसने तुरंत पास खड़ी टैक्सी से बात की और वह हमें होटल तक ले जाने के लिए तैयार हो गया। उस दिन हमें बड़ी रकम भी भरनी पड़ी। उस दिन शीतकालीन समय परिवर्तन का पहला ही दिन था और हम उसके शिकार हुए।
दूसरे दिन हम जल्दी नाश्ता करके बस पकड़कर हॉप ऑन हॉप ऑफ बस स्टॉप पर पहुँचे। हम उस दिन ओडेन ऑफ हीरॉडेस एलीकस देखने निकले थे। यह एक्रोपॉलिस पहाड़ी पर स्थित एक उत्सव का स्थान है। यहाँ पहुँचने के लिए काफी चलना पड़ता है। यह 174 ईसा पूर्व रोमन्स द्वारा बनाया गया मनोरंजन का स्थान था। यहाँ पाँच हज़ार लोग एक साथ बैठकर मनोरंजन के कार्यक्रम देखा करते थे। रॉयल परिवार तथा अन्य हाई ऑफिशियल के लिए खास सीटें होती थीं। सीटें संगमरमर की बनी थीं। पहाड़ी के ऊपर चढ़ने पर पूरा शहर वहाँ से देखा जा सकता है। 1955 में इस स्थान का पुनः निर्माण किया गया। पर्यटक इस स्थान को देखने अवश्य आते हैं।
इस स्थान को देखते हुए आधा दिन निकल गया। अब हमारा दूसरा लक्ष्य था ग्रीक पार्लियामेंट यहाँ चेंज ऑफ गार्ड्स प्रति घंटे होता है। इस स्थान को सिन्टेग्मा स्क्वेयर कहा जाता है। यह स्थान ग्रीस के लिए शहीद होने वाली सेनाओं की स्मृति स्थल है। यह एक अत्यंत दर्शनीय कार्यक्रम होता है। विशेष बैंड के साथ दो गार्ड्स बदले जाते हैं। ये गार्ड्स पारंपारिक वस्त्र पहनते हैं। ये गार्ड्स मूर्ति की तरह एक घंटा खड़े रहते हैं। प्रति घंटे शिफ्ट बदलती है। बड़ी संख्या में लोग इसे देखने एकत्रित होते हैं।
इस स्थान से थोड़ी दूरी पर रास्ता पार कर हम कुछ बीस -पच्चीस सीढ़ियाँ उतरे और वहाँ एक विशाल सुंदर बगीचा था। बगीचे में कई ग्रीक महान व्यक्तियों की मूर्तियाँ लगी हुई थी। बैठने के लिए भी पर्याप्त स्थान थे। शीतकाल में ग्रीस में सुंदर फूल खिलते हैं हमने उसका भी आनंद लिया।
तीसरे दिन हम प्लाका विलेज के लिए रवाना हुए। यह एक्रोपॉलिस पहाड़ के आस- पास की जगह है। यह एक छोटा गाँव नुमा स्थान है जहाँ छोटे-छोटे घर हैं। संकरी तथा पथरी पहाड़ की ओर चढ़ती हुई सड़कें हैं। मकान बहुत पुराने और कम ऊँचाई के हैं। यहाँ पर छोटा – सा चर्च है, विंडमिल है सोवेनियर के लिए दुकानें हैं और काफी पर्यटकों की भीड़ भी होती है। पहाड़ी की ऊपरी सतह की ओर छोटे-छोटे घर
अनाफियोटिका कहलाते हैं। 19वीं सदी में बड़ी संख्या में अनाफी द्वीप से मज़दूर आए थे। उन दिनों राजा का महल बनाने के लिए आए हुए मजदूरों के ये घर थे। आज भी वे घर उसी तरह बने हुए हैं पर सैलानियों के लिए एक दर्शनीय स्थल बन गया है।
इस पहाड़ी पर चढ़कर और उतर कर आते-आते आधा दिन निकल गया फिर हम बस में बैठकर नेशनल म्यूजियम देखने के लिए रवाना हुए।
यह आर्कियोलॉजिकल म्यूजियम था। पुरातत्व संग्रहालय। 8000 स्क्वेयर मीटर जमीन पर फैला विशाल संग्रहालय। देखने के लिए बहुत कुछ था। कई पुराने ढाल- तलवार, सेनाओं के अस्त्र – शस्त्र तथा पुराने युग में योद्धाओं को मरने पर गाड़ने की जो व्यवस्था थी वे बर्तननुमा पत्थर के कॉफिन भी रखे हुए थे। इन बर्तनों का आकार आज के जमाने के बाथटब जैसे हैं। उसी में मृत सेना को बिठाकर गाड़ देते थे। पुराने जमाने के सुंदर अलंकार यहाँ देखने को मिले। हजारों साल पहले के बर्तन घड़े, विभिन्न पीतल, तांबे के बर्तन आदि वस्तुएँ देखने को मिलीं। संगमरमर की तराशी गई मूर्तियाँ भी थीं।
चौथे दिन हम एक्रोपॉलिस संग्रहालय देखने के लिए गए। विशाल परिसर में फैला भव्य आधुनिक संग्रहालय। यह संग्रहालय 2009 में ही बनाया गया। इसकी फर्श संपूर्ण पारदर्शी काँच की बनी है। जब हम उस पर चलते हैं तो नीचे उत्खनन के समय मिला 2500 वर्ष पुराना शहर दिखाई देता है। उसे अलग से देखने जाने की आवश्यकता नहीं होती, न ही कोई व्यवस्था है। इन शहरों को काँच की फ़र्श से ही देखा जा सकता है। कई मंजिली इस विशाल संग्रहालय में हज़ारों वर्ष पूर्व की सभ्यता की निशानी दिखाई देती है। ग्रीक निवासी कई देवताओं की पूजा करते थे उनकी मूर्तियाँ हैं।
मेड्यूसा नामक एक अंधी स्त्री की कथा हम लोग बचपन में पढ़े थे, जिसके सिर पर सौ सर्प थे और वह जिसकी ओर अपना सिर घुमाती वह पत्थर का बन जाता। उस मूर्ति के कटे सिर को वहाँ देखकर मन हर्षित हुआ। कहा जाता है कि मेड्यूसा की मृत्यु एक विशिष्ट प्रकार की तलवार से धड़ से गर्दन अलग करके ही करना संभव था। वह लोगों को पत्थर में बदल डालती थी। उस देश के प्रसिद्ध राजाओं की मूर्तियाँ भी वहाँ देखने को मिलीं।
अगले दिन हम हार्डियेन्स आर्च देखने के लिए गए। इसे हार्डियेन्स गेट भी कहा जाता है। यहीं से सीधी सड़क जीएस के मंदिर तक भी जाती है। यहाँ सड़कें अति सुंदरहोती हैं। रास्ते में कहीं -कहीं पर पौधे लटकाए हुए दिखते हैं। लोग अनुशासन प्रिय हैं। मिलनसार भी।
कहा जाता है कि हार्डियेन्स नामक राजा जो रोमन था उसने एथेंस राज्य की स्थापना की थी। हार्डियेन्स राजा के प्रति सम्मान दर्शाने हेतु इस आर्च का निर्माण किया गया था। इसका निर्माण ईसा पूर्व 131 – 132 में किया गया था। हार्डियेन्स ने एथेंस शहर में कई मंदिर भी बनवाए थे। वह शांति प्रिय राजा था। यह घटना ईसाई धर्म के पूर्व की है जब मंदिर निर्माण को सभी राजा महत्व दिया करते थे। कहा जाता है कि इस आर्च के बनने से बाहर से आने वाले अन्य आतताइयों का आक्रमण बंद हो गया था। यह संगमरमर से बना हुआ है। इसकी ऊंचाई 18 मीटर है।
दोपहर के बाद हम पोसाएडन मंदिर देखने गए। आज इसका भग्नावशेष ही है पर पर्यटकों के लिए आकर्षण का केन्द्र है। पोसायडन समुद्र के देवता माने जाते थे। ग्रीक्स और रोमन के व्यापार, यातायात जल मार्ग से ही विशेष रूप से होता था। अतः वे इस देवता का दर्शन करना उचित समझते थे।
यहाँ एक बात का विशेष उल्लेख करना चाहूँगी कि हमारे देश में चंद्रगुप्त मौर्य के समय से भी पहले से ग्रीक्स के निवासियों का व्यापार-व्यवसाय के लिए भारत में आना -जाना प्रचलित रहा। इन्हें हम यूनानी कहा करते थे और ग्रीस यूनान के नाम से जाना जाता था। आज हमारे पास पोरस का कोई इतिहास उपलब्ध नहीं है। मगर यूनान में पोरस के युद्ध की जानकारी उपलब्ध है। साथ ही इस यातायात के कारण यूनानियों ने हमसे अर्थात भारतीयों से मंदिर बनाने की कला तथा अलग-अलग देवताओं को पूजने की कला भी सीखी थी, जिस कारण उनके देश में भी इंद्र जैसे देवता, समुद्र देवता, वरुण देवता, अग्निदेवता आदि की कल्पना की गई थी। आज भले ही सब ईसाई धर्म के अनुयायी हों लेकिन अगर हम इतिहास के पन्नों को पलट कर देखें और इन स्थानों का दर्शन करें तो इसमें भारतीय संस्कृति के पुट स्पष्ट नज़र आते हैं।
पोसाएडन मंदिर के परिसर में खड़े होकर समुद्र में डूबते सूर्य का दर्शन अत्यंत आकर्षक होता है। भारत में हम कन्याकुमारी में ऐसे अद्भुत दृश्य का आनंद ले सकते हैं।
सूर्यास्त के पश्चात हम होटल लौटकर आए। थोड़ी देर विश्राम करके वहीं भोजन करके हम रात के दस बजे होटल के सामने से ही चलने वाली बस में अपना सामान लेकर बैठे और डेढ़ घंटे के बाद रात के समय ग्रीस शहर की जगमगाहट का दर्शन करते हुए अंतरराष्ट्रीय हवाई अड् डा एलेफथेरियोस वेनिज़ेलोस पहुँचे। होटल से बस द्वारा हवाईअड् डे तक कम खर्च में पहुँचना हमारे लिए तो बिन माँगे मोती मिले जैसा आनंद था। अगर टैक्सी से जाते तो भारी रकम यूरो के रूप में देना पड़ता। हम बारह बजे तक चेक इन कर बेफ़िक्र हो चुके थे। हमारी फ्लाइट प्रातः चार बजे थी।
आज जब अपनी इन यात्राओं को याद करती हूँ तो रोमांचित हो उठती हूँ। सारे दृश्य चलचित्र की भाँति आँखों के सामने उभर उठते हैं। हम फिर उनका आनंद ले लेते हैं।
(ग्रीस की इस सजीव रोमांचक यात्रा के पश्चात अगले सप्ताह पढ़िये उत्तर-पूर्व के प्राकृतिक स्थल काजीरंगा यात्रा का सजीव वर्णन…)
(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आप प्रत्येक मंगलवार,साप्ताहिक स्तम्भ -यायावर जगत के अंतर्गत सुश्री ऋता सिंह जी की यात्राओं के शिक्षाप्रद एवं रोचक संस्मरण आत्मसात कर सकेंगे। इस श्रृंखला में आज प्रस्तुत है आपका यात्रा संस्मरण – मेरी डायरी के पन्ने से…हमारी ग्रीस यात्रा – भाग 1)
मेरी डायरी के पन्ने से… – हमारी ग्रीस यात्रा – भाग 1
(अक्टोबर 2017)
हमारी ग्रीस की यात्रा – ज़मीं से जुड़े लोग
हम अपने नाती को साथ लेकर इटली और ग्रीस की यात्रा पर निकले थे। इटली की सैर पूरी हो गई तो हम ग्रीस के लिए रवाना हुए। हमारी पहली मंजिल क्रीट थी।
क्रीट ग्रीस का एक सुंदर और सबसे बड़ा द्वीप है। एक तरफ पहाड़ का सुंदर हरा-भरा दृष्य है और दूसरी तरफ आकर्षक शांत, गहरे नीले रंग का समुद्र। क्रीट का हवाई अड्डा भी समुद्र किनारे से सटा हुआ है।
आसमान में उड़ते – उड़ते, सागर पर चलते जहाज़ों को निहारते रहे और अचानक हवाई जहाज़ के पहियों ने धरा को छू लिया। मेरी नज़रें अब भी स्थिर होकर शांत नीले समंदर को निहार रही थी। अचानक तंद्रा टूटी। अनाउंसमेंट ने बेल्ट न खोलने और बैठे रहने की हिदायत दी। थोड़ी देर बाद एयरो ब्रिज से विमान जा लगा और उतरने की इजाज़त दी।
सारा दृष्य मन को आह्लादित कर रहा था।
हमारे रहने की व्यवस्था भी ऐसे ही एक रमणीय स्थल पर था। बस हर वक़्त दिल बाग – बाग हो उठता, हर दृष्य मनमोहक ही था। मुझे प्रकृति से बहुत लगाव है, पेड़ – पौधे, पहाड़, समुद्र, बाग- बगीचे मुझे बहुत भाते हैं। बलबीर मेरी इन छोटी – छोटी बातों का ध्यान रखते हैं। इसलिए क्रीट में भी हमारी बुकिंग ‘ विलेज हाईट गॉल्फ रिज़ोर्ट में किया गया था जो पहाड़ पर, समुद्र के किनारे स्थित था।
इस रिज़ोर्ट तक पहुँचने के लिए रिज़ोर्ट की ही गाड़ी हमने भारत में बैठकर ही ऑनलाइन बुक की थी। गाड़ी हमें एयरपोर्ट पर लेने आई। ड्राइवर अंग्रेजी बोलने में समर्थ था। वह प्लैकार्ड लेकर ही खड़ा था। रोम से क्रीट की दूरी 1299 किमी.है। यात्रा दिन के समय और सुखद रही। हम रिज़ोर्ट पहुँचे।
विशाल परिसर, आला दर्ज़े की व्यवस्थाएँ, छोटे -छोटे दो बेडरूम हॉल, किचन, डाइनिंग रूमवाले यात्रियों के लिए बनाए गए अस्थायी निवास स्थान।
रिज़ोर्ट से मुख्य शहर तक शटल चलती है, निःशुल्क। अतएव सैलानी शहर जाकर आवश्यक भोजन सामग्री खरीद लाते और अपने निवास स्थान पर भोजन पकाने की व्यवस्था होने के कारण भोजन पकाकर ही खाते। मैं स्वयं निरामिषभोजी हूँ अतएव यह व्यवस्था हमारे परिवार के लिए अत्यंत सटीक बैठती है।
यह बताना यहाँ आवश्यक है कि विदेश में बाहर भोजन खाना बहुत महँगा पड़ता है। हमारे रुपये को विदेशी मुद्रा में परिवर्तित करने पर इस बात का अहसास होता है। योरोप में इंग्लेंड को छोड़कर अधिकांश स्थानों में यूरो ही प्रचलित है। एक यूरो 84 भारतीय रुपये के बराबर हैं। ये समय- समय पर ऊपर नीचे होते रहते हैं।
हम भी सात दिन वहाँ रहने के लिए आवश्यक वस्तुएँ बाज़ार से खरीद लाए। रिज़ोर्ट के भीतर भी एमरजेंसी में आवश्यक सामान मिलते हैं जैसे ब्रेड, मक्खन, चीज़, अंडे, ज्यूस, स्थानीय फल आदि। इस स्थान को टक इन कहते हैं।
पहले दिन तो हमने रिज़ोर्ट का आनंद लिया। सुंदर लायब्रेरी, फिल्म देखने के लिए सी.डी उपलब्ध थे। शाम के समय मनोरंजन के कार्यक्रम होते हैं। उस दिन ग्रीक जादूगर मनोरंजन के लिए आया था। उसने हमारा न केवल मनोरंजन किया बल्कि हमें खूब हँसाया। हम भारतीयों को देखकर वह भी बहुत ही खुश हो रहा था।
दूसरे दिन हम शहर घूमने निकले। शटल से हम शहर के मुख्य भाग तक पहुँचे और वहाँ छोटी लाइन की धीरे चलनेवाली ट्रेन में बैठे। यह ट्रेन सारा शहर घुमाता है। वैसे क्रीट कोई बहुत बड़ा शहर नहीं है।
शहर घूमने के बाद हमने अन्य द्वीपों का सैर प्रारंभ किया। हम जिस दिन ‘सिसी’ नामक द्वीप में जाने के लिए रवाना हुए तो पता चला वह इस साल के सीज़न का आखरी दिन था। दूसरे दिन से छोटे द्वीपों के भ्रमण हेतु जहाज़ बंद होने जा रहे थे।
अब वहाँ ठंडी भी बढ़ने लगी थी।
क्रीट ग्रीस द्वीप समूह का सबसे बड़ा और घनी आबादीवाला द्वीप है। यह एजीयन सागर के दक्षिण में स्थित है। यह संसार का अट्ठ्यासीवाँ सबसे विशाल द्वीप है।
कहा जाता है कि मेडिटेरियन सागर का यह पाँचवा विशाल द्वीप है। सिसिली, सार्डीनिया साइप्रस, और कॉरसिका आदि स्थानों के बीच यह क्रीट द्वीप बसा है।
हम जहाज़ से सिसी जाने के लिए टिकट खरीदकर समुद्र किनारे स्थित एक काॅफ़ी शाॅप में आकर बैठ गए। वहाँ की काॅफ़ी का आनंद लेते रहे और आपस में वहाँ की प्राकृतिक सुंदरता की चर्चा भी करते रहे। समुद्र में उठती लहरें और पछाड़ खाकर पत्थर की दीवारों से उसका टकराना अत्यंत मोहक दृश्य था।
पास की मेज़ पर एक परिवार बैठा था। यद्यपि वे भारतीय दिखते थे परंतु आपस में इंग्लिश में बातचीत कर रहे थे। उनकी ज़बान में विदेशीपन का ऐक्सेंट था। ज़ाहिर था वे काफ़ी समय से देश से बाहर थे।
अचानक अनाउंसमेंट हुआ कि पंद्रह मिनिट में जहाज़ रवाना होनेवाला था। आसपास बैठै सभी यात्री उठने को उद्यत हुए।
विदेशों में अक्सर बहुत बड़े से मग में काॅफ़ी देते हैं, हम भी उसका मज़ा ले रहे थे।
अनाउंसमेंट सुनते ही हम भी शीघ्रता से काॅफ़ी गटकने लगे। मैंने काॅफ़ी के कप में एक बूंद काॅफ़ी न छोड़ी। मेरा नाती ज़ोर से हँसकर बोला, ” नानी, कप में एक बूंद काॅफ़ी न छोड़कर साढ़े चार यूरो वसूल कर रही हो!!” यह सुनकर हम तीनों ज़ोर से हँस पड़े। हम हिंदी में बातचीत कर रहे थे, शायद हँसी मज़ाक़ करते हुए हमारी आवाज़ थोड़ी बढ़ गई जो पड़ोस की मेज़ तक पहुँची। यहाँ स्मरण कराना उचित है कि समस्त योरोप में लोग बहुत धीमे स्वर में बातचीत करते हैं। मोबाइल पर भी उनकी आवाज़ धीमी ही होती है। पास खड़ा व्यक्ति भी कुछ नहीं सुन सकता। भारतीयों का स्वभाव इसके विपरीत है। हम सबकी आवाज़ ऊँची है, शायद हम लोग अधिक सुरीले भी हैं। हमारा परिवार कोई अपवाद नहीं।
हमारी बातचीत सुनकर पड़ोस में बैठै भारतीय परिवार के सज्जन हमारे पास आए और बोले, आप पंजाबी हो? मेरे पति महोदय रीऍक्ट करते उससे पूर्व ही मैंने हामी भर दी। और जनाब ठेठ पंजाबी में शुरू हो गए। बलबीर सिंह ऐसे मौकों पर ज़रा गश खाने लगते हैं क्योंकि उन्हें अपनी मातृभाषा नहीं आती तब मुझे ही मैदान संभालने के लिए आगे आना पड़ता है। हालाँकि यह मेरी भी मातृभाषा नहीं बल्कि ससुराली भाषा है। ख़ैर जनाब ने पंजाबी में अपना परिचय दिया। मैं उनसे बातें करती रही।
अब जहाज़ छूटने का वक्त हो रहा था। शिवेन हमारा नाती टॉयलेट गया था। टॉयलेट का उपयोग करने के लिए 2 यूरो देने पड़ते हैं। उसने बाहर आकर बताया कि टॉयलेट के अंदर प्रवेश करते ही सारा कमरा अंधकारमय हो गया। पॉट के पास खड़े होने पर ऊपर लगे सेंसर के कारण बत्ती जल उठी। फ्लश करने की आवश्यकता नहीं होती, वह स्वयं कुछ समय बाद फ्लश चलने लगता है तथा पॉट स्वच्छ होता हैं। उसके इस अनुभव से हमने भी नई टेक्नोलॉजी के बारे में जानकारी हासिल की। यह बिजली की और पानी की बचत की दृष्टि से की गई व्यवस्था होती है। लोग अक्सर टॉयलेट में बत्ती जलाकर ही लौट जाते हैं।
हम सब जहाज़ में बैठे, वे जनाब हमारे साथ ही बैठ गए। फिर से बातचीत का सिलसिला जारी रहा। उनका परिवार हमारी बातचीत में कोई रुचि नहीं ले रहा था। बनिस्बत वे जहाज़ी सैर का मज़ा ले रहे थे। पर ये जनाब फर्राटे से ग्रामीण भाग में बोली जानेवाली लहज़े में पंजाबी बोल रहे थे। बलबीर सिंह बीच – बीच में मुस्कराते और सिर हिलाते रहे। कभी – कभी इंग्लिश में जवाब देते पर जनाब बस पंजाबी में यों बोल रहे थे मानो ज़बान को किसी ने वर्षों से बाँध रखा था जो आज खुल गई।
बातचीत से ज्ञात हुआ कि जनाब का नाम था हरविंदर सिंह, नौ साल की उम्र में वे अपने पिता के साथ लंदन चले गए थे। वे जालंधर के निवासी थे। उनकी उम्र पचपन के करीब थी पर चेहरे पर झुर्रियों का ऐसा जाल बिछा था कि वे पैंसठ के ऊपर लग रहे थे। ! अपनी पत्नी, तीन बेटियाँ और एक चार वर्षीय नातिन को लेकर लंदन से सप्ताह भर छुट्टी मनाने तथा पत्नी की पचासवीं वर्षगांँठ मनाने ग्रीस आए थे।
जहाज़ में बैठै वे निरंतर बातचीत करते रहे। कभी – कभी खुशी से भर उठते और बलबीर का हाथ अपने हाथ में ले लेते और बड़ी देर तक सहलाते रहते। कहते रहे कि लंडन में तो जी बड़ी संख्या में पंजाबी रहते हैं, पर वे हमारे जैसे परदेसी हैं जो वहीं उनकी तरह पीढ़ियों से रहते आ रहे हैं पर हम तो आज भी भारतीय हैं, उनकी नज़रों में हम ख़ास पंजाबी हैं।
उनके बर्ताव से मुझे एक बात स्पष्ट हो रही थी कि इतने वर्षों के बाद भी उनके भीतर अपनी मिट्टी की खुशबू और भाषा की ललक किस क़दर घर किए हुए थी। उनकी पत्नी कीनिया में जन्मी, पली बढ़ी पंजाबी महिला थीं पर उन्हें केवल इंग्लिश और टूटी -फूटी हिंदी आती थी। हरविंदर सिंह मोने थे अर्थात सरदारों की तरह पगड़ी नहीं बाँधते थे पर थे सिक्ख संप्रदायी के। उन्होंने दो घंटे की यात्रा के दौरान अपने सारे इतिहास – भूगोल की जानकारी दे दी। उनके चेहरे पर एक लालिमा सी छाने लगी थी। चेहरे की झुर्रियाँ कुछ चमकने लगी थी। आँखों में एक अलग सी आभा दिखाई देने लगी थी। क्या इंसान के हृदय में देश से दूर रहने पर देशवासियों के लिए इतना स्नेह उमड़ता है ? मैं सोच रही थी कि यदि ऐसा है तो हम देश से दूर क्यों जाकर बसते हैं!
हम सिसी पहुँचे। यह मछुआरों का गाँव था पर कहीं कोई दुर्गंध नहीं, कूड़ा – कचरा नहीं बल्कि साफ़ सुथरे पाॅश रेस्तराँ बने हुए थे। हमने उस छोटे से द्वीप में एक चक्कर लगाया। सुंदर छोटे -छोटे घर बने हुए थे। खिड़कियों के बाहर सुंदर मौसमी फूल गमलों में लगे आकर्षक दिखाई रहे थे। घर की खिड़कियों पर लेस के पर्दे लगे थे जो सुंदर और मोहक दिख रहे थे।
समुद्र से थोड़ी दूरी पर कई छोटे- बड़े रेस्तराँ थे। दोपहर का समय था। हमें भी कहीं भोजन कर लेने की आवश्यकता थी। यहाँ के अधिकांश रेस्तराँ में बीयर के साथ फिशफ्राय या मछली के ही अन्य व्यंजन प्रसिद्ध हैं।
एक सुंदर से रेस्तराँ में हम तीनों भी बैठ गए मैन्यूकार्ड देखते ही मैं चकरा गई। ऐसा लगा जैसे पास रखा बटुआ भी काँप उठा। बारह -पंद्रह यूरो के नीचे कोई डिश न थी। पर खाना तो था। हम लोगों की एक अजीब मानसिकता है कि हम अनजाने में ही विदेशी मुद्राओं को देशी मुद्रा में कन्वर्ट करते हैं और ख़र्च से पूर्व हृदय की गति बढ़ जाती है।
आप पाठकों से यही निवेदन करूँगी कि आप जब विदेश घूमने जाएँ तो करेंसी कन्वर्ट कर तुलना न करें। ऐसा करने पर घूमने का आनंद कम हो जाता है।
खैर हम तीनों ने यही बात आपस में चर्चा की फिर मन को वश में किया और क्या खाएँ इस पर तीनों विचार करने लगे!
इतने में हरविंदर सिंह का परिवार भी वहीं आ गया। उन्होंने हम सबके साथ बैठकर खाने की इच्छा व्यक्त की। ‘ मोर द मेरियर ‘ इस सिद्धांत में हम लोग भी विश्वास रखते हैं। चार टेबल जोड़े गए और सब साथ में बैठे। अब सभी बातचीत करने लगे। कुछ इंग्लिश कुछ हिंदी और कुछ पंजाबी में। हँसी – ठट्ठे भी होने लगे। इतने में हरविंदर जी खड़े हो गए, बलबीर उनके बाँई ओर बैठे थे। उन्होंने बलबीर का हाथ पकड़ा और कहा – ” अब सारा भारतीय परिवार एक साथ खाना खाएगा, यह हमारा सौभाग्य है कि आप मेरे भाई हो, आज का बिल मैं पे करूँगा। “
यह सुनकर हम दोनों पति-पत्नी हतप्रभ हो गए। हम इसके लिए प्रस्तुत नहीं थे। अबकी बलबीर ने मैदान संभालकर कहा, ” हम आपके शुक्रगुज़ार हैं, आप भारत आइए हमें मेहमान नवाज़ी का मौक़ा दीजिए। हम भी आपके पास लंडन ज़रूर आएँगे तब आप अपनी इच्छा पूरी कर लेना। आज माफ़ करें। साथ में खाएँगे ज़रूर पर डच करेंगे। “( अपना ख़र्च उठाना) बलबीर के ज़रा ज़ोर देने पर वे थोड़ी उदासीनता के साथ मान गए। भोजन के पश्चात रेस्तराँ के टिश्यू पेपर पर एक दूसरे को पूरा पता, फोन नं, ई-मेल आई डी आदि दिए गए।
रेस्तराँ में लोकलगीत बज रहे थे और वहाँ पर आए हुए सैलानी खूब पीकर झूम रहे थे। सब अपनी मेज़ से उठ – उठकर नाचने लगे।
सारा माहौल उत्सव – सा बन गया। उपस्थित लोगों के चेहरे पर बेफ़िक्री की छाप थी। जीवन का हर पल आनंद लेने की यह वृत्ति हमें भी अच्छी लगी।
रेस्तराँ के मालिक के साथ उसके दोस्त ने शर्त लगाई तो संगीत के ताल पर वह नृत्य करने लगा और नृत्य करते हुए एक खाली तथा गोलाकार मेज़ को पहले अपने एक हाथ में उठा लिया फिर उसे अपनी उँगलियों पर गोल – गोल घुमाने लगा और नृत्य करने लगा। संगीत समाप्त होने पर रेस्तराँ के मालिक को उसके दोस्त ने पचास यूरो दिए जो शर्त की रकम थी। हमें लोकल लोगों ने बताया कि इस तरह के मनोरंजन ग्रीस में आम बात है। वे जीवन के हर दिन का आनंद लेने में विश्वास करते हैं। हमें उनकी यह जीवन के प्रति दृष्टिकोण अच्छा लगा। फिर बातचीत करते हुए हम जहाज़ पर लौट आए।
ज्यादातर बातचीत हम दोनों ही कर रहे थे क्योंकि जनाब हरविंदर सिंह जी ने तो उस दिन मानो पंजाबी बोलने का व्रत ले रखा था। किसी को बोलने का ख़ास मौका नहीं दे रहे थे। उनके घर के सदस्य उनका उत्साह देखकर बगले झाँकने लगे। पर हमें उनके उत्साह और उमंग देखकर अंदाजा आ रहा था कि वे क्यों इतने उतावले हो रहे थे। सैर करके अपने -रिज़ोर्ट लौट आए।
तीसरे दिन हमने लोकल मार्केट, और साधारण जगहों की सैर की। उस दिन शाम को रिसोर्ट में ब्राज़िलियन नृत्य का आयोजन था। यह नृत्य ब्राज़िलियन ही कर रहे थे। इसे सांबा नृत्य कहते हैं। इनके वस्त्र काफ़ी अलग होते हैं, खूब रंगीन भी होते हैं। नृत्य में शरीर का लचीलापन स्पष्ट दिखाई देता है। नृत्यांगनाएँ बहुत ही दुबली -पतली होती हैं। सिर पर लंबे और रंगीन पंखों जैसी पतली -पतली बेंत लगी रहती हैं। साथ में लाइव म्यूज़िक भी था। हमने दो घंटे के इस कार्यक्रम का खूब आनंद लिया।
चौथे दिन हमें रिसोर्ट में ब्रेकफास्ट के लिए आमंत्रण मिला साथ ही फ्री पैर के मसाज का कुपन दिया गया। यह रिसोर्ट की ओर से कॉम्लीमेंटरी था।
दो दिन हम आस – पास की कुछ और जगहों के दर्शन कर एथेंस के लिए रवाना हो गए।
हद तो तब हो गई जब पूरी छुट्टियाँ काटकर हम अपने घर लौटे। अभी हम टैक्सी से उतरकर लिफ्ट में कदम रखे ही थे कि मेरा फ़ोन बज उठा। उधर से हरविंदर सिंह जी हमारे कुशल पूर्वक घर पहुँचने की बात पूछने के लिए लंडन से फोन कर रहे थे।
सच में लोग परदेसी तो बन जाते हैं पर देश और भाषा दिलो- दिमाग़ में सुप्त रूप से बसे रहती हैं। सच में ऐसे लोग अपनी ज़मीं से जुड़े लोग होते हैं!!!!
(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आप प्रत्येक मंगलवार,साप्ताहिक स्तम्भ -यायावर जगत के अंतर्गत सुश्री ऋता सिंह जी की यात्राओं के शिक्षाप्रद एवं रोचक संस्मरण आत्मसात कर सकेंगे। इस श्रृंखला में आज प्रस्तुत है आपका यात्रा संस्मरण – मेरी डायरी के पन्ने से…हमारी इटली यात्रा – भाग 4)
मेरी डायरी के पन्ने से… – हमारी इटली यात्रा – भाग 4
(अक्टोबर 2017)
हमारा चौथा पड़ाव था वेनिस।
रोम से वेनिस सुपर फास्ट ट्रेन द्वारा चार घंटे का सफर है। कैरोलीन और डेनिस भी साथ थे। वास्तव में कैरोलीन के कहने पर ही हम भी चल पड़े थे। वे दोनों वहाँ से तेईस दिनों की क्रूज़ पर निकलने वाले थे। जिस होटल में वे रहने जा रहे थे, हमें भी वहाँ एक कमरा मिल गया। ट्रेन से जाते हुए हमें वहाँ की हरियाली और कन्ट्रीसाइड तथा गाँवों की छवि देखने को मिलीं।
यह शहर शेक्सपियर की पुस्तक द मर्चेंट ऑफ वेनिस के कारण और भी जग प्रसिद्ध है।
हम वेनिस पहुँचे। होटल में सामान रखकर गंडोला से सैर करने निकल पड़े। पूरे शहर में बहती नहर वेनिस शहर का सबसे बड़ा आकर्षक और दर्शनीय स्थल है! कुछ साठ कैनेल हैं और सौ से अधिक सुंदर छोटे -छोटे पुलों से यह शहर सजा हुआ है।
गंडोला काठ की बनी सुंदर सजी हुई लाल -काली नौकाएँ हैं जिसे माँझी चलाता है और एक घंटे भर नहर की सैर कराता है। ये कैनेल समुद्र के जल से भरते हैं। सारा शहर कैनेल के किनारे स्थित है जो सात सौ साल पुराना माना जाता है। यह प्राचीन काल में व्यापार का केंद्र था। जैसे हमारे देश में लखपत, बूँदी या लोथल में हज़ारों साल पहले व्यवस्था थी।
हम गंडोले में बैठे, मेरे माथे पर लगी बड़ी बिंदी देख नाविक ने पूछा ” इंडिया?” हमने भी मुस्कराकर हामी भर दी। उसने तुरंत अपना मोबाइल निकाला और अमिताभ बच्चन का गाना सुनाया – दो लफ्जों की है दिल की कहानी… वह बड़ा प्रसन्न था कि भारतीय फ़िल्मों की शूटिंग करने वहाँ जाते हैं। बातों ही बातों में एक घंटे की सैर पूरी हो गई।
कैरोलीन और डेनिस ने कहा कि सेंट मार्क स्क्वेअर ज़रूर जाना है। वह समुद्र का किनारा है और बहुत ख़ूबसूरत भी। हम गंडोले की सैर पूरी करके पैदल चलकर सेंट मार्क स्क्वेअर के लिए निकले।
वहाँ की सड़कें बहुत सँकरी सी हैं। वहाँ चलकर ही जाया जाता है। किसी प्रकार की गाड़ियाँ नहीं चलती। बीच -बीच में छोटे – छोटे पुल पार करने पड़ते हैं। सड़क के किनारे सोवेनियर की सुंदर दुकानें हैं।
वेनिस में काँच के सामान बनाने की कई छोटी-छोटी फैक्ट्रियाँ हैं। काँच को फूँक मारकर किस तरह फुलाते हैं और आकार देते हैं यह दृश्य देखने लायक होता है। जिसे देखने के लिए भारी संख्या मैं सैलानी जाते हैं। काँच की बड़ी- बड़ी मूर्तियाँ भी बनते हुए हमने देखे।
सड़क के किनारे कॉफ़ी, वाइन, बीयर, ज्यूस आदि की छोटी – छोटी दुकानें हैं। ये दुकानें रास्ते के किनारे बने फुटपाथ पर हैं।
हमने भी वहाँ कॉफी का मज़ा लिया और साथ बातचीत करते हुए सेंट मार्क स्क्वेअर पहुँचे।
एक विशालकाय इमारत के बीच बड़ा – सा खुला आँगन दिखाई दिया। पुराने ज़माने में विभिन्न व्यापारी वर्ग वहाँ एकत्रित होते थे तथा अपनी वस्तुओं को अन्य व्यापारियों को बेचते थे। उस आँगन में चार – पाँच हज़ार लोग एक साथ खड़े हो सकते हैं इतनी बड़ी जगह है। चारों तरफ आज रेस्तराँ हैं जहाँ शाम को लाइव म्यूज़िक का कार्यक्रम चलता है। एक पुराना पर सुंदर चर्च भी है।
छह बजे घंटा घर में ज़ोर से घंटा बजने लगा। अँधेरे के झुरमुट में अचानक सारी बत्तियाँ जल उठीं और सारी जगह अचानक जगमगा उठी। सब सैलानी नाचते – झूमते से दिखाई देने लगे, हमने भी हाथ-पैर, कमर हिलाने का प्रयास किया और आपस में हँसते रहे। हमारा नाती बाबू हमें नाचते देख बड़ा खुश हुआ क्योंकि उसने हमें कभी नाचते हुए नहीं देखा था।
अचानक हमें अहसास हुआ कि कैरोलीन और डेनिस वहाँ से गायब हो गए थे।
थोड़ी दूर जब हम समुद्र की ओर बढ़े तो देखा दोनों पति-पत्नी एक दूसरे के कँधे पर हाथ रखकर, समुद्र की ओर एक टक निहार रहे थे। हम उनके निकट पहुँचे तो उन दोनों की तंद्रा टूटी।
कैरोलीन ने बताया कि उस दिन उनके विवाह को छप्पन वर्ष पूर्ण हुए थे। कैरोलीन सत्रह वर्ष की थीं और डेनिस उन्नीस वर्ष के जब उनका विवाह हुआ था। वे यहीं पर हनीमून मनाने के लिए आए थे। आज फिर एक बार अपनी यादों को रंग भरने और उन्हें फिर से जीने के लिए वे इतनी दूर लौट आए। कितना ख़ूबसूरत अनुभव रहा होगा! कितनी सुंदर और सुखद यादें उभर आई होंगीं!
उन्हें देख कर हमें प्रसन्नता हुई कि कितने सावन और पतझड़ साथ बिताने के बाद आज भी उनमें उमंग है, प्रेम है, साथ – साथ घूमने का जुनून है। सप्ताह भर घूमते समय हमने यह भी ग़ौर किया कि वे एक दूसरे का हाथ थामें ही चलते थे। हम भारतीयों को कितनी गलत फ़हमी है कि पाश्चात्य देशों में लोग कई विवाह करते हैं और तलाक़ भी ले लेते हैं। उनमें परिवार के प्रति प्रेम नहीं। पर वास्तविकता कितनी अलग और खूबसूरत है!
हम जब वेनिस से रोम लौट रहे थे तो वे स्टेशनपर हमें अलविदा कहने के लिए भी आए। ई-मेल और फोन नंबर लिया। ऑस्ट्रेलिया आने और उनके पास रहने का आमंत्रण भी दिया। हमने भी उन्हें सुंदर भारत देखने का निमंत्रण दिया। ईश्वर इस दंपति को लंबी उम्र दें हम यही प्रार्थना करते हुए एक दूसरे से विदा लिए।
रोम में और दो -तीन दिन रहकर लोकल बस हॉप ऑन हॉप ऑफ में बैठकर हम लोकल रोम घूमते रहे। इन बसों की खासियत यह है कि एक बार टिकट खरीद लें तो दिन भर अलग अलग जगह पर चढ़ते – उतरते रहिए और दर्शनीय स्थलों का आनंद लीजिए।
दस दिन रोम और उसके आस-पास की जगहें देखने के बाद हम ग्रीस के लिए रवाना हुए।
इस यात्रा के दौरान एक बात खुलकर सामने आई कि प्रेम, अपनत्व, रिश्ते आदि निभाने की बात जाति, धर्म, देश से संबंधित नहीं है।
यह व्यक्तिगत बातें हैं जिसे हम आम लोग समझते नहीं या यों कहें समझना नहीं चाहते। इस विशाल संसार में हमने दो दोस्त और बना लिए।
हम दस दिन ग्रीस में रहकर भारत लौट आए।
दिसंबर का महीना था कि एक दिन कैरोलीन का फोन आया और उसने बताया कि वे केवल सात दिनों का क्रूज़ कर लंडन पहुँचे थे कि डेनिस बहुत बीमार पड़े और पाँच दिनों तक अस्पताल में रहने के बाद वे चल बसे। कहते हुए कैरोलिन का गला भर आया। मैं सांत्वना देने के लिए शब्द ही नहीं जुटा पा रही थी।
मन ही मन मैं सोचती रही कि विवाह की छप्पनवीं वर्षगाँठ देश से दूर वेनिस में आकर मनाई और एक जीवन समाप्त हो गया। ईश्वर किसकी मौत कहाँ तय करते हैं यह कहना मुश्किल है।