हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 06 ☆ गुरुद्वारों की मेरी अद्भुत यात्रा – भाग दो – नांदेड़ ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आप प्रत्येक मंगलवार, साप्ताहिक स्तम्भ -यायावर जगत के अंतर्गत सुश्री ऋता सिंह जी की यात्राओं के शिक्षाप्रद एवं रोचक संस्मरण  आत्मसात कर सकेंगे। आपका यात्रा संस्मरण – मेरी डायरी के पन्ने से… गुरुद्वारों की मेरी अद्भुत यात्रा… का भाग दो – नांदेड़

☆ साप्ताहिक स्तम्भ –यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 06 ☆  

? मेरी डायरी के पन्ने से… गुरुद्वारों की मेरी अद्भुत यात्रा – भाग दो – नांदेड़ ?

(अगस्त 2014)

बीड़ जिले का एक छोटा सा शहर है, नाम है परलीवैजनाथ (परळीवैजनाथ)। इस शहर में BHEL का एक बड़ा विद्यालय है। मुझे इस विद्यालय में खेलों द्वारा भाषा सिखाने की विधि इस विषय से संबंधित वर्कशॉप लेने के लिए आमंत्रित किया गया था। कार्यक्रम पाँच दिन का था। एक अधिक दिन हाथ में रखकर रात की बस से मुझे छठवें दिन पुणे लौट आना था।

जाते समय रात के 7.30 बजे मैं स्लीपिंग वोल्वो बस में सवार हुई। रात भर का सफ़र था। सुबह 5.30 बजे बस परलीवैजनाथ पहुँचनेवाली थी। पुणे से परलीवैजनाथ का अंतर 372 कि.मी है। मैं आराम से ड्राइवर के पीछेवाली स्लीपिंग सीट में बैठ गई। बस चल पड़ी। यह जुलाई का अंतिम सप्ताह था। बाहर वर्षा हो रही थी।

हम कुछ पचास कि.मी. ही सफ़र कर पाए थे कि ज़ोर से एक झटका लगा। बस में सोए कुछ बच्चे झटका खाकर धम्म से बस की फ़र्श पर गिरे और ज़ोर से रोने लगे। बस डिवाइडर पर चढ़ गई थी। बस के दोनों ओर के ऑटोमेटिक दरवाज़े लॉक हो गए थे। खूब प्रयास के बाद जब दरवाजे नहीं खुले तो पीछे के एमरजेंसी द्वार से सबको नीचे उतारा गया।

मेरे लिए छलाँग मारकर नीचे उतरना किसी सर्कस से कम न था। वह दृश्य आज भी याद करने पर मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं। मेरे हाथ पैर छिल गए पर अब पीछे मुड़कर देखना न था तो अन्य यात्रियों के साथ तेज़ बारिश में भीगती हुई अपना सामान लेकर मैं भी रास्ते के किनारे खड़ी रही। कहीं कोई शेड न था, हाई वे पर रोशनी तो होती नहीं तो अंधकार में ही ईश्वर को स्मरण करते हुए खड़ी रही।

थोड़ी देर में कुछ और वोल्वो बस आईं तो किसी को कहीं तो किसी को कहीं बिठा दिया गया। मुझे एक लालवाली एस.टी में बिठाया और कन्डक्टर ने कहा कि नगर में आपको स्लीपिंग कोच मिल जाएगी। इस बस की भी सारी सीटें भरी थीं।

कुछ घंटे दरवाज़े के पास वाली सीट पर बैठकर रात के कोई ग्यारह बजे नगर पहुँची तो वहाँ से फिर एक दूसरे वोल्वो में मुझे बिठा दिया गया और कहा कि शिरडी से फिर बस बदलनी पड़ेगी।

अब आगे बढ़ते रहने के अलावा कोई चारा न था। रात के एक बजे के करीब शिर्डी पहुँची तो वहाँ से परलीवैजनाथ जाने के लिए शेयरिंग में स्लीपिंग सीट मिली। मरता क्या न करता। एक बूढ़ी महिला के साथ कभी बैठकर तो कभी ढुलकी लेती हुई सुबह साढ़े सात बजे हम परलीवैजनाथ पहुँचे।

मुझे लेने के लिए एक शिक्षिका और दो शिक्षक आए हुए थे। शहर में एक छोटा रेल्वे स्टेशन है। रेल्वे स्टेशन के बाहर ही एक होटल में रहने की व्यवस्था थी। थोड़ा फ्रेश होकर दस बजे से वर्कशॉप प्रारंभ हुआ। न जाने कौन-सी शक्ति आ गई थी जो सारे दर्द भूल गई और जोश के साथ काम प्रारंभ किया।

छोटे शहर के सीधे -साधे सरल लोग, आनंद आया उन सबके साथ पाँच दिन वर्कशॉप लेते हुए। सबके साथ नीचे फर्श पर बैठकर महाराष्ट्रीय भोजन करते हुए आनंद आया। सत्तर शिक्षक थे। उन सबमें आत्मीयता थी, कोई दिखावा नहीं। मैं भी सबके साथ घुलमिल गई।

पाँचवे दिन कार्यक्रम समाप्त हुआ। विद्यालय ने धनराशि के चेक के साथ अनपेक्षित कई प्रकार के अन्य उपहार भी दिए, यह उनका बड़प्पन था। वे वर्कशॉप से अत्यंत प्रसन्न थे तथा छह माह बाद पुनः आने का लिखित आमंत्रण भी दिया।

वर्कशॉप के दौरान ही मैंने यों ही कहा था कि मुझे नांदेड जाने की बड़ी इच्छा है और लो! उसी दिन शाम को एक इनोवा गाड़ी और दो शिक्षक नांदेड जाने के लिए तैयारी करके आए।

हमें 105 कि.मी का फासला तय करना था। रास्ता भी खराब था। हम शाम को साढ़े चार बजे रवाना हुए और तीन घंटे में नांदेड पहुँचे।

यहाँ का परिसर अमृतसर के गुरुद्वारे से भी बड़ा है। स्वच्छ तथा आकर्षक गुरुद्वारा! सब कुछ सफेद संगमरमर का बना हुआ। परिसर में प्रवेश करते ही साथ एक अद्भुत शांति और आनंद का अनुभव हुआ।

इस गुरुद्वारे को हज़ूर साहब सचखंड कहा जाता है। यह भारत के मुख्य पाँच गुरुद्वारों में से एक है। यह गोदावरी नदी के किनारे बसा हुआ है।

1708 में सिक्खों के अंतिम तथा दसवें गुरु गुरु गोविंद सिंह जी अपने कुछ अनुयायियों के साथ पंजाब से नांदेड सिक्ख धर्म के प्रचार -प्रसार के लिए आए थे। वे यहीं पर कुछ काल तक रहे। कहा जाता है कि कुछ धार्मिक कारणों से नवाब वजीर शाह ने गुरु गोविंद सिंह की हत्या करवाने के लिए हमला करने दो आदमियों को भेजा था। एक हमलावर की गर्दन तो गुरु गोविन्द सिंह जी ने ही अपनी तलवार से छाँट दी और दूसरे को अनुयायियों ने मारा। 7 अक्टूबर 1708 गुरुगोविंद सिंह जी ने देह त्याग किया था। उनके साथ उनके प्रिय घोड़े ने भी अपनी जान दे दी थी। घोड़े का नाम दिलबाग था।

अपनी मृत्यु से पूर्व उन्होंने अपने अनुयायियों से कहा था कि वे अब किसी उत्तराधिकार को गुरु चुनने के बजाए अपने पवित्र धर्म ग्रंथ को ही गुरु मानें। तब से ग्रंथ साहिब को गुरु ग्रंथ साहिब कहा जाने लगा। आपने ही इस शहर को अवचल नगर नाम दिया था।

आज जिस स्थान पर गुरुद्वारा बनाया गया है उस स्थान को सच खंड कहा जाता है। इसी स्थान पर गुरु गोविन्द सिंह जी की आत्मा पवित्र ज्योत में विलीन हो गई थी।

गुरुद्वारे का भीतरी कमरा अंगीठा साहिब कहलाता है। इसी स्थान पर गुरु गोविन्द सिंह जी का दाह संस्कार किया गया था। सौ साल से भी अधिक समय बीतने के बाद 1830 में पंजाब के प्रसिद्ध राजा रणजीत सिंह जी ने इस गुरुद्वारे का निर्माण करवाया था।

यह केवल धार्मिक स्थल ही नहीं अपितु हर भारतीय के लिए एक ऐतिहासिक दर्शनीय स्थल भी है।

मराठी भाषा के तीन प्रसिद्ध कवि विष्णुपंत सेसा, रघुनाथ सेसा और वामन पंडित का जन्म भी इसी शहर में हुआ था।

महाराष्ट्र पंजाब से बहुत दूर है, इसलिए अपनी मृत्यु से पूर्व गुरुगोविंद सिंह जी ने एक अनुयायी संतोक सिंह को छोड़कर बाकी सभी को पंजाब लौट जाने के लिए कहा था और संतोक सिंह को लंगर चलाते रहने की ज़िम्मेदारी सौंपी थी। पर उनके अनुयायी पंजाब न लौटे और नांदेड़ में ही बस गए।

अनुयायियों ने अपने गुरु की याद में एक छोटा- सा मंदिर बनाया था जो सच खंड कहलाया। आज यहाँ बड़ी संख्या में सिक्ख समुदाय के लोग इस शहर में रहते हैं। प्रति वर्ष गुरु गोविन्द सिंह की जयंती मनाई जाती है। लाखों की संख्या में सभी भक्त आते हैं। यह शहर सिक्ख संप्रदायों का महत्त्वपूर्ण तीर्थ स्थान है।

गुरुगोविंद सिंह जी अपने घावों के ठीक न हो पाने की वजह से मृत्यु के ग्रास बनें थे।

1666 में जन्में इस महान गुरु ने 41 वर्ष की आयु तक मुगलों द्वारा हिंदुओं पर किए गए अत्याचार का सामना किया। उनके पिता गुरु तेगबहादुर सिंह (जो नौवें गुरु भी थे) और उनके चार पुत्र भी औरंगज़ेब के हाथों कष्ट पाकर शहीद हो गए थे। यही कारण था कि उन्होंने खालसा पंथ का निर्माण किया। इनका काम था मुग़लों के विरुद्ध हथियार उठाना। सभी सिक्ख संप्रदाय जो खालसापंथी थे वे कट् टरता से सभी धार्मिक नियमों का पालन करते थे। यहाँ आज भी भक्तों के माथे पर चंदन का टीका लगाए जाने की प्रथा है।

मंदिर के भीतरी भाग के एक कमरे में गुरुगोविंद सिंह जी के अस्त्र -शस्त्र तथा उनके द्वारा उपयोग में लाई गई वस्तुएँ हैं। यहाँ किसी का भी प्रवेश निषिद्ध है।

हम मंदिर के परिसर में पहुँचे तो जब अपने जूते चप्पल रखने एक निर्धारित स्टैंड पर गए तो एक सिक्ख सज्जन ने न, न कहने पर भी हमारे जूते -चप्पलों को अपने हाथ से उठाकर शेल्फ पर रखा और हमें टोकन दिया।

हम मंदिर में माथा टेककर जब लौट रहे थे तो उस समय रात के कुछ दस बजे होंगे। वे सज्जन जो जूते रख रहे थे अब मंदिर की ओर जा रहे थे। हमें देखकर सतश्रीआकाल कहा और मुस्कराहट के साथ आगे बढ़ गए। साथियों से पूछने पर पता चला कि वे नांदेड़ शहर के जाने-माने व्यापारी थे, जिनकी शहर में कई दुकानें थीं। वे प्रतिदिन सुबह सात से दस और शाम को सात से दस कार सेवा के लिए आते हैं। शायद यही सेवा की भावना उन्हें अहंकार से दूर रखती है। मिट्टी से जोड़े रखती है।

यहाँ रोज़ लंगर चलता है। रोटी, सब्जी,चावल कढ़ी, छोले ,राजमा आदि नियमित बनाए जाते हैं। लोग अपने समयानुसार आकर कार सेवा करते हैं। कोई सब्जी काटता है तो कोई रोटियाँ सेंक देता है। हज़ारों लोग रोज भोजन करने आते हैं। हज़ारों हाथ सेवाजुट भी रहते हैं।

यहाँ तस्वीर खींचने की मनाही है।

गुरुद्वारा एकमात्र ऐसा स्थान है जहाँ हर जाति धर्म, वर्ण का व्यक्ति दर्शन के लिए तथा लंगर का प्रसाद पाने के लिए जा सकता है।

रात के समय संगमरमर से बना विशाल मंदिर बहुत ही आकर्षक दिखाई दे रहा था।

मैं भावविभोर हो उठी। अपनी आँखों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था कि मैं उस पवित्र भूमि पर खड़ी थी जहाँ गुरु गोविंद सिंह जी का पार्थिव शरीर कभी रखा गया था। यह मेरा सौभाग्य ही था जो मैंने चाहा और मुझे मिला। शायद यही कारण था कि बस से उतरते समय जो चोटें लगी थीं वे सब ठीक हो गईं और सफल कार्यक्रम के बाद मैं दर्शन के लिए भी पहुँच गई।

रात को डेढ़ बजे हम वहाँ से रवाना हुए और प्रातः पाँच बजे होटल पहुँच गई।

आज जब अपनी इस अद्भुत यात्रा की बात सोचती हूँ तो यह विश्वास करने को विवश होती हूँ कि हमें ऐसी जगहों से बुलावा आता है और पहुँचने के मार्ग प्रशस्त हो जाते हैं जहाँ जाने का कभी ख्याल भी नहीं करते हैं हम। पर प्रभु के बुलावे की महिमा ही अद्भुत है।

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 05 ☆ गुरुद्वारों की मेरी अद्भुत यात्रा – भाग एक ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आप प्रत्येक मंगलवार, साप्ताहिक स्तम्भ -यायावर जगत के अंतर्गत सुश्री ऋता सिंह जी की यात्राओं के शिक्षाप्रद एवं रोचक संस्मरण  आत्मसात कर सकेंगे। इस श्रृंखला में आज प्रस्तुत है आपका यात्रा संस्मरण – मेरी डायरी के पन्ने से… गुरुद्वारों की मेरी अद्भुत यात्रा… का प्रथम भाग )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ –यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 05 ☆  

? मेरी डायरी के पन्ने से… गुरुद्वारों की मेरी अद्भुत यात्रा – भाग एक ?

(दिसंबर 2017)

पंजाबी संस्कृति  से मेरा परिचय विवाहोपरांत ही हुआ। इस क्षेत्र की  भाषा , खान-पान , तीज -त्योहार आदि से मेरा नज़दीक से  साक्षात्कार हुआ। इससे पूर्व बाँग्ला संस्कृति,साहित्य और भाषा के बीज हमारे माता-पिता द्वारा  हृदय की बड़ी गहराई में बो दिए गए थे।

ससुराल में सभी से भरपूर स्नेह मिला साथ ही ससुर जी जिन्हें हम सब बावजी (बाबूजी शब्द का अपभ्रंश) कहते थे,पंजाब की जानकारी और नानक साहब के जीवन की लघु कथाओं से मुझे परिचित करवाते रहे।

धीरे – धीरे गुरुद्वारे के वातावरण को देख मेरे मन में विश्वास और आस्था घर करती गई ।साथ ही विभिन्न गुरुद्वारों के दर्शन की इच्छा मन में पनपती रही। यह  स्वर्णिम अवसर भी अपने जीवन में मुझे समय – समय पर मिलता रहा।

अपने इस संस्मरण में विभिन्न गुरुद्वारों की यात्रा का विवरण उपस्थित कर रही हूँ।

हम कुछ सहेलियाँ  रान ऑफ कच्छ फेस्टिवल  देखने के लिए रवाना हुए। कच्छ के कई दर्शनीय स्थल जैसे विजय विलास महल, मांडवी, कालोडुंगर, सफेद रेगिस्तान, प्राग महल  और कुछ छोटे- गाँव देखने के बाद तथा फेस्टिवल के चार दिन तक भरपूर  आनंद लेने के बाद हम भुज पहुँचे। दूसरे दिन सुबह हम सब लखपत  के लिए रवाना हुए।

लखपत भुज से 134 कि. मी के अंतर पर है।यह कच्छ का अंतिम छोर है।

आज लखपत में  एकांत है। दूर तक एक लंबी चौड़ी दीवार फैली है जो किसी समय किला का हिस्सा थी। भीषण भूंकप के कारण सब कुछ नष्ट हो गया। किले की दीवार भी दरारों से पटी पड़ी है।वहाँ से जब हवा गुज़रती है तो डरावनी आवाज़ आती है इसलिए इस गाँव को उजड़ा भूतिया गाँव कहा जाता है।

जिस लखपत में एक समय 10,000 लोग रहते थे , बारंबार भूकंप के बाद धीरे -धीरे आबादी घटती गई और आज यहाँ गिनकर शायद सौ लोग रहते हैं।

आज यहाँ संपूर्ण वीरानगी है। गुरुनानक के समय इसे बस्ता बंदर कहा जाता था क्योंकि यह व्यापार का एक बड़ा बंदरगाह था। खूब व्यस्त जगह हुआ करती थी ।समुद्री मार्ग से कई देशों से माल आता था और फिर ऊँटों की सहायता से गुजरात , सौराष्ट्र तथा कच्छ तक व्यापारी माल ले जाते थे। व्यापारी  वर्ग बड़ी संख्या में यहाँ रहा करते थे। बंदरगाह में हलचल रहती थी। काफी लोग यहाँ व्यापार करके धनी लखपति  बन गए थे इसीलिए बस्ता बंदर आगे चलकर लखपत  के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

यहाँ आकर भारत की सीमा समाप्त होती है। इसके बाद आपको विशाल अरब सागर दिखाई देगा। किले की दीवार पर चढ़कर अगर आप समुद्र की ओर देखें तो यहाँ चलती साँए -साँए करती हुई हवा और किले की दीवारों से टकराती -लौटती लहरें संपूर्ण एकांतवास की कथा सुनाती हैं। आज यहाँ शायद ही कोई  पर्यटक आता है। आज यहाँ कुछ नहीं है पर फिर भी सिक्ख समुदाय के लिए यह एक पुण्य भूमि है।

सन 1506 -1513 और  1519-1521 –  यह उस समय की बात है जब नानक साहब विश्व भ्रमण करने और अपने सिद्धांतों से संसार को परिचित करवाने निकले थे।

 उनकी इस यात्रा को उदासी कहा जाता है। जिसका अर्थ है संपूर्ण रूप से संन्यास ग्रहण करना। यद्यपि नानक साहब का परिवार था,संतानें थीं  पर वे भीतर ही भीतर समाज में एक अलग प्रकार से जागरूकता लाना चाहते थे। उस समय हमारा समाज न केवल मुगलों को झेल रहा था,बल्कि लोगों का  धर्म परिवर्तन भी बड़ी संख्या में  किया जा रहा था। शूद्र जाति के साथ छुआछूत के तहत समाज में उथल -पुथल भी मची हुई थी।

नानक साहब अपने जीवन के बीस वर्ष  पैदल ही चलकर यात्रा करते रहे। उनके साथ उनके कुछ शिष्य भी थे।

लखपत वही स्थान है जहाँ से गुरु नानक अपनी दूसरी और चौथी उदासी यात्रा  के दौरान यहाँ पर कुछ दिन रहे थे फिर यहीं से वे मक्का के लिए रवाना हुए थे। उन दिनों मक्का में आज की तरह इतनी सुरक्षा की तीव्रता नहीं थी।

आज यहाँ एक सुंदर साफ़ -सुथरा सफेद रंग से पुता हुआ गुरुद्वारा है।साथ में छोटा सा बगीचा भी है। गुरुद्वारे में दो छोटे कमरे हैं। एक कमरे में ,कमरे के बीचोबीच  ग्रंथसाहब चौकी पर है। इस कमरे के द्वार की ऊँचाई  बहुत कम है। झुककर ही कमरे में प्रवेश कर सकते हैं।संभवतः यात्रियों को स्मरण दिलाने के लिए कि ईश्वर के दरबार में सिर झुकाकर ही प्रवेश करना है।

हम सभी सखियों ने सिर ढाँककर कमरे में प्रवेश कर ग्रंथ साहिब को नमन किया।इसी कमरे से बाहर निकलने पर बाईं ओर और एक छोटा कमरा है जहाँ नानक साहब की पादुका और पालकी रखी गई  है। सोलह सौ शताब्दी की पूजनीय वस्तुओं के दर्शन से हम सभी भावविभोर हो उठीं। कमरे के बाहर एक छोटा सा लकड़ी के नक्काशीदार खंभों का बरामदा है, हम सब थोड़ी देर वहीं पर बैठे।मन को बहुत सुकून का अहसास हुआ।

मुझे एक अलग प्रकार का रोमांच प्रतीत हुआ। मैं अपने इस पंजाबी सिक्ख मिड्डा  परिवार की प्रथम सदस्य थी  जिसे नानक साहब की पादुका का और उनकी यात्रा का साधन  पालकी के दर्शन करने का सुअवसर मिला।

हम महिलाओं को देखकर वहाँ के पाठी सामने आए, सतश्रीकाल कहकर हमारा अभिवादन किया और कहा कि हम लंगर में शामिल हों।

स्वच्छ परिसर , सब तरफ लाल टाट के बने गलीचे लगे हुए थे।एक सिक्ख पाठी, एक सहायक और एक मुसलमान स्त्री ये ही गुरुद्वारे की सेवा में रहते हैं। हमने धुली  हुई थाली ,चम्मच उठा ली और हमें बहुत स्नेह और आतिथ्य के साथ दाल रोटी और सब्जी का प्रसाद मिला। हमने भोजन के बाद बर्तन नल के  बहते पानी से माँजकर रखे। हर गुरुद्वारे का यही नियम है।

आज यह स्थान स्थानीय सिक्ख समुदाय तथा गुरुद्वारा श्री गुरु नानक सिंह सभा गाँधीधाम की देखरेख में है। भीषण भूंकप के बाद भी इस गुरुद्वारे को सुरक्षित रखे जाने की वजह से  सन 2004 में UNESCO Asia-Pacific Award भी इस स्थान को मिला है।।

नानक साहब सिमरन, अरदास और समुदाय में बैठकर भोजन अर्थात लंगर इनका महत्त्व समझा गए हैं। जाति, धर्म ,वर्ण आदि में किसी प्रकार का कोई  भेद न रखते हुए सबको अपना समझ सबके साथ भोजन करने की शिक्षा दे गए थे।

नानक जी ने करतारपुर गाँव में प्रथम गुरुद्वारे की स्थापना की थी। अपने जीवन के अठारह वर्ष वे यहीं रहे। सत्तर वर्षीय की अयु में उन्होंने इसी गाँव में देह त्याग दी।

एक ओंकार, शबद अर्थात ग्रंथसाहब में लिखी गुरुवाणी ही उनकी सबसे बड़ी देन है। किसी पंडित या पूजा की आवश्यकता नहीं।हर व्यक्ति अपनी तरह से ईश्वर का स्मरण कर सकता है, ईश्वर एक है। उसकी स्तुति में गीत गा सकता है।समाज में कारसेवा और सबके साथ बाँटकर साँझे चूल्हे पर भोजन पकाकर मिलकर खाना ताकि कोई भूखा न सोए यही आज तक चलती आई नानक साहब की सीख है।

 करतारपुर जाना तो एक सपना ही रहेगा पर लखपत की यात्रा अविस्मरणीय है।

 क्रमशः…

© सुश्री ऋता सिंह

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 04 ☆ स्पेन, पुर्तगाल और मोरक्को… भाग – 3 ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आप प्रत्येक मंगलवार, साप्ताहिक स्तम्भ -यायावर जगत के अंतर्गत सुश्री ऋता सिंह जी की यात्राओं के शिक्षाप्रद एवं रोचक संस्मरण  आत्मसात कर सकेंगे। इस श्रृंखला में आज प्रस्तुत है आपका यात्रा संस्मरण – मेरी डायरी के पन्ने से…स्पेन, पुर्तगाल और मोरक्को… का अगला भाग )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ –यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 04 ☆  

? मेरी डायरी के पन्ने से… स्पेन, पुर्तगाल और मोरक्को… भाग – 3 ?

(2015 अक्टोबर – इस साल हमने स्पेन, पुर्तगाल और मोरक्को  घूमने का कार्यक्रम बनाया। पिछले भाग में आपने पुर्तगाल यात्रा वृत्तांत पढ़ा। )

यात्रा वृत्तांत (स्पेन से जिबरॉल्टर) – भाग तीन 

मलागा में चार दिन बिताने के बाद हम तीन दिन के लिए मोरक्को जानेवाले थे परंतु वहाँ उन दिनों राजनैतिक उथल-पुथल प्रारंभ हो गई थी। कुछ बम विस्फोट की भी खबरें मिली, इसलिए हमने वहाँ जाने का कार्यक्रम स्थगित किया। हमारी सारी बुकिंग कैंसल की गई,आर्थिक नुकसान हुआ पर कहते हैं न जान बची लाखों पाए -हमारे लिए उस समय यह निर्णय आवश्यक था। यह मुस्लिम बाहुल्य देश है। यहाँ ईसाई भी हैं पर माइनॉरिटी में और दो धर्मों के बीच कुछ विवाद छिड़े हुए थे।अतः इस उथल -पुथल में हमने मोरक्को न जाने का फैसला लिया। हमने रिसोर्ट में तीन दिन अधिक रहने के लिए व्यवस्था की। सौभाग्य से हमें जगह मिल गई ।अब हमारे पास तीन दिन हाथ में अधिक आ गए थे। हमने मलागा में रहकर कुछ और जगहें देखने का मन बना लिया।

कनाडा की शिक्षिकाओं ने दूसरे दिन जिबरॉल्टर जाने का कार्यक्रम बनाया था। इस स्थान की जानकारी मुझे उन दिनों हुई थी जब मैं अपने नाती को  इतिहास पढ़ाते समय  द्वितीय विश्वयुद्ध की जानकारी दे  रही थी। इससे पूर्व मुझे इस स्थान की कोई जानकारी न थी। हमारा नाती तो जिबरॉल्टर जाने की बात सुनकर उछल पड़ा। हमने अपने रिसोर्ट के ग्रंथालय से जिबरॉल्टर की और अधिक ऐतिहासिक जानकारी हासिल की और ट्रैवेल डेस्क पर बैठे एजेंट से जाने की व्यवस्था भी की।

हमारे पास शैंगेन वीज़ा थी। जिबरॉल्टर यू.के. के अधीन आता है। वहाँ शैंगेन वीज़ा नहीं चलता। पर हमारी तकदीर अच्छी थी कि ट्रैवेल एजेंट ने बताया कि हमारी यात्रा के छह दिन पूर्व ही यह घोषणा की गई थी कि भारतीय जिबरॉल्टर पहुँचकर वीज़ा प्राप्त कर सकते हैं।

अठारह लोगों की बस में तीन सीटें मिल ही गईं और दूसरे दिन सुबह हम सात बजे जिबरॉल्टर के लिए रवाना हुए।

गाड़ी में हम तीन ही एशियाई और वह भी भारतीय थे। इससे पूर्व सभी एशियाई देशों को पहले से वीज़ा लेने की आवश्यकता होती रही है। अब यह बाध्यता का समाप्त होना अर्थात भारत के साथ स्पेन के सुदृढ़ आपसी संबंधों पर प्रकाश डालता है।

मलागा से जिबरॉल्टर की दूरी 135 किलोमीटर है। जिबरॉल्टर समुद्री तट पर बसा छोटा सा शहर है। जिबरॉल्टर छोटा सा शहर तो  है पर साथ ही, यह ब्रिटेन के सशस्त्र सैनिकों और नौसेना का एक सशक्त आधार भी है। यह चट्टानी प्रायद्वीप से घिरा इलाका है साथ ही यहाँ कई गुफाएँ भी हैं।

यह पृथ्वी का एक ऐसा एयरप्लेन रनवे है जहाँ गाड़ियाँ और विमान दोनों  ही चलते हुए दिखाई देते हैं। यात्रा के दौरान अचानक हमारी बस रुक गई और सामने ही विमान चलता दिखाई दिया। कुछ समय बाद विमान हमारे सिर के ऊपर से उड़ता दिखाई दिया। हमारे लिए यह एक अद्भुत अनुभव था!

हम अपनी छोटी-सी बस से जिबरॉल्टर पहुँचे। फिर वहाँ से आगे गुफाओं में जाने के लिए वहाँ की निर्धारित बसों में बैठकर हम ऊपरी गुफाओं में पहुँचे। ये संकरी और घुमावदार पहाड़ी रास्तों से गुजरती सड़कों पर की गई  अद्भुत यात्रा थी। बस में लगी काँच की खिड़कियाँ बहुत बड़े आकार थीं जिस कारण मार्ग के आगे, पीछे, ऊपर ,नीचे की सड़कें स्पष्ट नज़र आ रही थी।

जैसे बस ऊपर चढ़ती सड़क संकरी महसूस होने लगती। एक भय भी मन में घर करता रहा। हम सबकी हालत देख गाइड ने तुरंत कहा कि सड़क घुमावदार,संकरी और चढ़ाईवाली  होने के कारण ही विशेष प्रशिक्षित चालकों के साथ यात्रियों को वहाँ ले जाया जाता है। वहाँ गाड़ी या बस चलाना सबके बस की बात नहीं। एकबार में एक ही बस ऊपर जाती है। दो घंटे गाइड के साथ गुफाएँ देखकर बस नीचे उतरती है और तब दूसरी बस रवाना होती है।बस चालक ही गाइड के रूप में काम करता है। इस कारण प्रत्येक ट्रिप में अलग चालक होते हैं। चालक का गाइड होना अर्थात  उस स्थान के प्रति लगाव, समर्पण की भावना भी जुड़ी रहती है।

बसें ऑटोमोटिक होती हैं और समय का पूरा ध्यान रखा जाता है। दूसरी बस प्रस्थान के लिए नीचे यात्रियों के साथ तैयार रहती है। इतना परफेक्ट समय की पाबंदी और अनुशासन देखकर यात्री होने के नाते हमारा मन अत्यंत प्रसन्न हो उठा।

ऊपर गुफाओं में हमें घुमाया गया।यहाँ द्वितीय विश्व युद्ध के समय तकरीबन बीस हज़ार लोग रहते थे।बच्चों के लिए छोटा सा स्कूल बनाया गया था ताकि उन्हें युद्ध के भय से दूर रखा जाए तथा वे व्यस्त रहें। बेकरी थी। सैनिकों के सोने के लिए लोहे के बेड रखे गए थे। दिन में कुछ युद्ध करते तो कुछ सोते और रात को कुछ तैनात रहते तो दिन में ड्यूटी करनेवाली सेना आराम करती। गुफाएँ काफी गहरी थीं। कुछ  गुफाओं में आज भी सैनिक रहते हैं।

गाइड ने हमें यह भी बताया कि जिबरॉल्टर में बड़ी संख्या में सिंधी भाषी रहते हैं।ये लोग आज के पाकिस्तान के सिंध इलाका से व्यापार करने के लिए गए थे तब भारत का विभाजन नहीं हुआ था। और आज भी वे वहीं बसे हैं।वहाँ हिंदू मंदिर भी है।

कई अच्छी जानकारी और ऐतिहासिक स्थान देखकर हम मलागा लौट आए।

आज स्पेन के विभिन्न शहरों  में भी बड़ी संख्या में सिंधी व्यापारी वर्ग रहता है।

सभी स्थानों पर भारतीयों का बोलबाला और सम्मान देखकर मन गदगद हो उठा।

हमारी यह यात्रा सुखद, जानकारी पूर्ण और आनंददायी रही। ढेर सारे अनुभवों के साथ हम अपने नाती के साथ स्वदेश लौट आए।

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 03 ☆ मेरी डायरी के पन्ने से… स्पेन, पुर्तगाल और मोरक्को… भाग – 2 ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आप प्रत्येक मंगलवार, साप्ताहिक स्तम्भ -यायावर जगत के अंतर्गत सुश्री ऋता सिंह जी की यात्राओं के शिक्षाप्रद एवं रोचक संस्मरण  आत्मसात कर सकेंगे। इस श्रृंखला में आज प्रस्तुत है आपका यात्रा संस्मरण – मेरी डायरी के पन्ने से…स्पेन, पुर्तगाल और मोरक्को… का अगला भाग )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ –यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 03 ☆  

? मेरी डायरी के पन्ने से… स्पेन, पुर्तगाल और मोरक्को… भाग – 2 ?

(2015 अक्टोबर – इस साल हमने स्पेन, पुर्तगाल और मोरक्को  घूमने का कार्यक्रम बनाया। पिछले भाग में आपने पुर्तगाल यात्रा वृत्तांत पढ़ा। )

यात्रा वृत्तांत (स्पेन) – भाग दो

एक सप्ताह पुर्तगाल में रहने के बाद हम यूरोरेल द्वारा अल्बूफेरिया से मैड्रिड आए। यह दूरी 328 किमी की है, यात्रा के लिए साढ़े तीन घंटे लगते हैं। यूरोरेल की यात्रा आनंददायी रही। समुद्र तट से होते हुए जंगलों के बीच से गुज़रती रेलगाड़ी सुंदर दृश्य उपस्थित करती जाती है और समय का पता ही नहीं चलता। मैड्रिड शहर से पहले विशाल काले साँड की मूर्ति दिखाई दी, जिसे देखकर विश्वास ही नहीं हो रहा था कि वह नकली साँड है। साँड का खेल इस देश का राष्ट्रीय खेल रहा है। इसे बुल फाइट कहते हैं।

रेल द्वारा यात्रा करते समय हम तीनों को एक बात का अहसास हुआ कि रेलगाड़ी में कितने ही लोग थे पर शोर कहीं नहीं था। फोन पर बात करनेवाला हर व्यक्ति अत्यंत धीमी आवाज में बातचीत करता दिखाई दिया। यह उनकी संस्कृति का एक अहम पहलु है। इसकी तुलना में एशियाई बहुत ऊँची आवाज़ में बोलते हैं। उन्हें देखकर तो हम तीनों भी फुसफुसाहट का सहारा लेकर बातें करने लगे।

मैड्रिड योरोप का सबसे हराभरा शहर है। यह स्पेन की राजधानी होने के कारण सदा अपनी सुंदरता और सजावट के लिए प्रसिद्ध है। प्लाजा मेयर एक विशाल इमारत है जहाँ कला, चित्रकारी, इतिहास, संग्रहालय आदि सभी के दर्शन संभव हैं। इस स्थान को देखने के लिए दो दिन तो लगते ही हैं। हम सबसे पहले उस मैदान का दर्शन करने गए जहाँ से बुल फाइट का राष्ट्रीय खेल प्रारंभ होता था। आज उस पर प्रतिबंध लगाया गया है। पर सारी व्यवस्थाएँ अब भी वैसी ही हैं।

इतिहास में झाँकें तो यह शहर पाषाण युग से अपने अस्तित्व में रहा है। यहाँ मनुष्य की विभिन्न जातियाँ झुंड में रहा करती थीं। आधुनिक युग में यह एक खूबसूरत शहर है। फुटबॉल का मुख्य केंद्र मैड्रिड ही था, आगे चलकर अब बार्सेलोना बन गया। आमेर मोहम्मद के आने पर 9वीं शताब्दी में यहाँ अरब निवासियों की अधिकता थी और लंबे समय तक शासक भी रहा। ईसाई राज्य स्थापना के बाद यहाँ योरोपियन स्टाइल का विकास हुआ।

यहाँ ही संसार का सबसे पुराना रेस्तराँ आपको देखने के लिए मिलेगा। कई दर्शनीय संग्रहालय भी हैं यहाँ। प्रैडो संग्रहालय है जहाँ कई नामवंत चित्रकारों की कलाकृतियाँ देखने को मिलती हैं। शहर स्वच्छ तथा नई-पुरानी इमारतों से पटा हुआ है।

शहर भर घूमने के लिए हॉप ऑन हॉप ऑफ बस की सुविधा उपलब्ध है। लाल, हरी, पीली बसें सुबह 8 से शाम 8 तक शहर भर घूमती हैं। लाल बस सभी संग्रहालयों का दर्शन कराती हैं, हरी बस ऐतिहासिक स्थलों की और पीली बस इंडस्ट्रियल बेल्ट की। सैलानी अपनी इच्छानुसार दो दिन या तीन दिन के लिए बस की टिकट खरीदकर सुबह से शाम तक घूमने का आनंद ले सकते हैं। जिस स्थान को देखना चाहते हैं वहाँ उतर जाएँ फिर किसी भी बस में बैठ जाएँ। यह अत्यंत सुविधाजनक व्यवस्था है। दो या तीन दिन के लिए टिकट खरीदने पर वह सस्ता भी पड़ता है। बसें चढ़ते ही साथ बस चालक इयरफोन देता है, बस में इयरफोन कनेक्ट करने की सुविधा होती है जिस कारण हर स्थान की जानकारी कई भाषाओं में निरंतर मिलती रहती है। हमने तीन दिन के लिए टिकट ले लिए और अपनी उत्सुकता, रुचि और जिज्ञासा के अनुसार दर्शनीय स्थानों को देखते रहे।

अब यहाँ ठंडी हवा चलने लगी थी और हमें होटल में वार्मर लगाने की आवश्यकता पड़ी।

तापमान 9° पर उतर आया था और हमारे लिए शाम के समय घूमना कठिन हो रहा था।

हमारा अगला पड़ाव था ग्रैनाडा।

यह यात्रा हमने यूरोरेल द्वारा पूरी की। मैड्रिड से ग्रैनाडा 360 कि.मी. की दूरी है। हमें ग्रैनाडा पहुँचने में साढ़े तीन घंटे लगे।

यहाँ एक बात बताना चाहूँगी कि आप भारत से निकलने से पूर्व योरोरेल की टिकट खरीद सकते हैं, इससे आपको यात्रा करने में आसानी होती है।

हम ग्रानाडा पहुँचे यह नवाडा पहाड़ी की तराई में बसा शहर है। यह शहर स्पेन के अंडालूसिया रिजन में छोटा शहर है। खूबसूरत शहर। बाग -बगीचे और फव्वारों से सजे पुराने किले, महल देखने को मिलते हैं। यह शहर सुंदर विशाल चर्च और अपनी वास्तुकला के लिए प्रसिद्ध है। यहाँ लोकल की संख्या से अधिक सैलानियों की भीड़ साल भर देखने को मिलती है। अलहम्ब्रा और नासिर्द पैलेस, कैथेड्रिल, रॉयल चैपल ऑफ ग्रानाडा आदि दर्शनीय स्थल हैं। सभी जगहों पर दो से तीन हज़ार भारतीय मुद्राओं के टिकट खरीदने पड़ते हैं जिसकी भुगतान यूरो में करने की बाध्यता होती है। यहाँ सभी महल, बाग-बगीचे, चर्च आदि के लिए प्रवेश शुल्क देने की आवश्यकता होती है। इसलिए पहले से ही तय कर लेना चाहिए कि क्या -क्या देखना है। हम यहाँ तीन दिन रहे। और चौथे दिन हम मलागा के लिए रवाना हुए।

हमने ग्रानाडा से मलागा तक का सफर बस द्वारा तय किया क्योंकि हमें रोड ट्रिप का भी आनंद लेना था।। अत्यंत आरामदायक बस की यात्रा रही। रास्ते भी बहुत अच्छे। बस एक -दो बार रुकी। चाय -कॉफी और शौचालयों की सुविधा मिली। शौचालय के लिए दो यूरो देना अनिवार्य है। जो यात्रा करते हैं वे इस बात से सहमत भी होंगे कि अगर साफ सफाई रखनी हो, टॉयलेट पेपर, हैंड वॉश, हैंड ड्रायर की सुविधा हो तो उसकी कीमत भी ली जानी चाहिए।

इस यात्रा के दौरान हमारा परिचय दो रिटायर्ड शिक्षिकाओं से हुआ जो केनाडा से स्पेन घूमने आए थे। बातों ही बातों में पता चला कि वे भी उसी मलागा गॉल्फ रिसोर्ट में रहने जा रहे थे जहाँ हमने अपने रहने की व्यवस्था की थी। हमने साथ में दो टैक्सी की रिसोर्ट पहुँचे।

रिसोर्ट एक विशाल फैली हुई जगह पर स्थित था। सभी सुविधाएँ उपलब्ध थीं। मौसम अब धीरे -धीरे बदल रहा था। अब यहाँ गर्म कपड़ों की आवश्यकता प्रतीत नहीं हुई क्योंकि यह शहर समुद्री तट पर बसा है।

हम दूसरे ही दिन नेरहा केव्स देखने के लिए रवाना हुए। इस गुफा की खोज 1959 में पाँच बच्चों ने की थी, ये बच्चे चिड़ीमार थे और इस गुफा के पास पहुँचे तो कुआँ जैसी जगह दिखाई दी, जिसमें नरकंकाल, बर्तन, दीवारों पर चित्रकारी और चमगादड़ों की भरमार मिली। बच्चे डरकर भाग खड़े हुए। बच्चों ने माता-पिता, शिक्षक, मित्र आदि से इस विषय की चर्चा की और बात ऊपर तक पहुँची। छान बीन प्रारंभ हुई तो पता चला कि यह बयालीस हज़ार पुरानी आदिमानवों की रहने की जगह थी। भीतर विशाल स्टैलेकटाइट के दर्शन हुए। ये कैल्शियम डिपोजिशन हैं। इन्हें बनने के लिए हज़ारों वर्ष लगते हैं। ऊपर से टपकती जल की बूँदें ज़मीन पर गिरकर खनिज पदार्थों की परतें निर्माण करती हैं और हजारों वर्ष में एक खम्भे का रूप ले लेती हैं। पूरी गुफा में ऐसे हज़ारों प्राकृतिक खंभे दिखाई दिए।

यह गुफा बहुत विशाल है। अपने समय में इसने एक पूरे शहर के निवासियों को आश्रय दिया होगा। भीतर कई स्तर (लेवल)बने हुए हैं और आज उन्हें नाम भी दिया गया है। भीतर ठंडक है। आज यहाँ बिजली के हल्के प्रकाश में गुफा के कई स्तरों का दर्शन संभव है जिनकी सुंदरता देख सच में आँखें चमक उठती हैं। आज भी इस केव के कुछ हिस्से बंद हैं जहाँ रिसर्च चल रहा है। उनकी तस्वीरें खींचने की भी मनाही है।

दूसरे दिन हम शहर की सुंदरता और मेडिटेरेनियन समुद्र पर सैर करने निकले। साथ में दोनों शिक्षिकाएँ भी हो लीं। यात्रा के दौरान कहते हैं कंपनी मैटर्स और इस बात का हमें अच्छा अनुभव भी मिला। समुद्री सैर के दौरान हमने अपने अपने देश की विशेषताओं और संस्कृतियों पर चर्चा की। कनाडा में नेटिव अमेरिकन्स के साथ जो दुर्व्यवहार और ज्यादती हो रही है उसकी भी जानकारी उन दोनों शिक्षिकाओं से मिली। अब हम तीन शिक्षिकाएँ थीं तो ज़ाहिर है इस विषय पर गहन चर्चा भी प्रारंभ हुई। समुद्र के किनारे कई रेस्तराँ थे हमने साथ में भोजन का आनंद लिया और देर रात साथ ही रिसोर्ट लौट आए।

तीसरे दिन हमने दिन के समय आराम किया और शाम को फ्लैमिन्को नृत्य प्रदर्शन का आनंद लेने गए। यह स्पेन का पारंपरिक नृत्य प्रदर्शन होता है। आधुनिक युग में यह परंपरा समाप्त होती जा रही है। स्त्री-पुरुष दोनों एक साथ इस नृत्य को प्रस्तुत करते हैं। लकड़ी की फर्श पर पैर चलाकर संगीत के साथ ताल देकर अपने जूते से ध्वनि उत्पन्न कर यह नृत्य किया जाता हैं। एक प्रकार से टैप डान्स जैसा होता है। हमारे देश के कत्थक नृत्य की तरह यहाँ पैर निरंतर चलाना पड़ता है। साथ ही चेहरे पर कई हाव-भाव अभिव्यक्त करते हैं। यह नृत्य थाकानेवाला नृत्य है।

यह विभिन्न उत्सवों और परंपराओं की शृंखलाबद्ध प्रस्तुति होती है। उनके देश में भी विवाह उत्सव पर, फसल काटे जाने के अवसर पर गीत और नृत्य होते रहे हैं अब आधुनिक युग में यह उत्सव मृतप्राय है। कुछ मध्यम वयस्क कलाकार इस नृत्य के प्रदर्शन द्वारा अपनी कला और परंपरा को जीवित रखने का प्रयास कर रहे हैं।

दो घंटे का कार्यक्रम होता है, बीच में पंद्रह मिनिट के लिए विराम भी होता है। उस दौरान दर्शकों को शराब, ड्राय फ्रूट का पैकेट दिया जाता है। इसकी कीमत टिकट के साथ वसूली जाती है। इसलिए ऐसे प्रदर्शनों की कीमत बहुत ऊँची होती है। शराब न पीनेवालों को नींबू पानी दिया जाता है। ऐसे कार्यक्रमों को देखकर ही किसी देश की परंपराओं का परिचय मिलता है।

हमारा परिवार एक मात्र भारतीय परिवार था जो वहाँ कार्यक्रम देखने के लिए उपस्थित था। कार्यक्रम की समाप्ति पर कलाकारों के साथ तस्वीरें खींचने की इजाजत होती है।

उत्साहवश हम भी उनके साथ तस्वीरें खींचने के लिए मंच के पास उपस्थित हुए। मुझे साड़ी और बड़ी बिंदी में देखकर उन्होंने तुरंत पूछा कि क्या हम भारतीय हैं ?और यह जानने के बाद कलाकारों की एक बड़ी भीड़ हमारे इर्द-गिर्द उपस्थित हो गई। पहले तो कलाकारों ने हम से हाथ मिलाया फिर उन्होंने हमें एक ऐतिहासिक तथ्य बताया। उन्होंने हमसे कहा कि यह जो फ्लैमिंको नृत्य है यह मूल रूप से हमारे देश के राजस्थान के जिप्सी जिसे हम बंजारा कहते हैं उनका नृत्य है। यह जाति भारत से स्पेन में नौवीं शताब्दी के आस -पास पहुँची थी। अपनी यात्रा के द्वारा इस नृत्य को वहाँ पर वे ले गए और उसे प्रस्थापित किया था। धीरे -धीरे उसमें कई विभिन्न देशों के खास करके बंजारों की परंपरागत नृत्य उत्सव आदि सम्मिलित होते गए। वहाँ के बंजारों को रोमा कहा जाता था। यह जाति अंडालूसिया हिस्से में बस गई थी। आज भी हर कलाकार अपने इस नृत्य का मूल भारत को ही मानता है और गर्व महसूस करता है। इस नृत्य में लहराते हुए वस्त्र पहने जाते हैं और गिटार के साथ कभी अकेले या समूह में नृत्य प्रस्तुत किया जाता है। हमारे प्रति कलाकारों का यह सम्मान देखकर हमें बहुत खुशी हुई। एक कलाकार तो मेरा हाथ पकड़ कर मंच पर ही अपने घुटने पर बैठ गया और उसने मेरे हाथ को चूमकर कहा “मैं भाग्यशाली हूँ कि भारत देश के व्यक्ति के साथ हमारी मुलाकात हुई” हमें भी बहुत आनंद आया और गर्व महसूस हुआ कि हमारे देश की संस्कृति और परंपराओं के लिए आज विदेशों में भारत कितना प्रसिद्ध है।

क्रमशः…

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 02 ☆ मेरी डायरी के पन्ने से… स्पेन, पुर्तगाल और मोरक्को… भाग – 1 ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आप प्रत्येक मंगलवार, साप्ताहिक स्तम्भ -यायावर जगत के अंतर्गत सुश्री ऋता सिंह जी की यात्राओं के शिक्षाप्रद एवं रोचक संस्मरण  आत्मसात कर सकेंगे। इस श्रृंखला में आज प्रस्तुत है आपका यात्रा संस्मरण – मेरी डायरी के पन्ने से…स्पेन, पुर्तगाल और मोरक्को… का पहला भाग )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ –यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 02 ☆  

? मेरी डायरी के पन्ने से… स्पेन, पुर्तगाल और मोरक्को… भाग – 1 ?

 2015 अक्टोबर इस साल हमने स्पेन, पुर्तगाल और मोरक्को  घूमने का कार्यक्रम बनाया।

इस बार हम तीन सप्ताह हाथ में लेकर निकले थे।यात्रा के आने – जाने के दो दिन अलग ताकि पूरे इक्कीस दिनों का पूरा आनंद लिया जा सके। हमने  बहुत सोच-समझकर तीनों देशों की भौगोलिक  सुंदरता और ऐतिहासिक  विशेषताओं को ध्यान में रखकर देखने योग्य स्थानों का चयन किया।

सच पूछिए तो किसी भी देश में अगर हम अच्छी तरह से घूमना चाहें तो दो महीने तो  अवश्य ही लग जाएँगे पर यह हमेशा संभव नहीं होता। अगर हमारे देश के समान या उससे भी बड़ा देश हो तो और अधिक समय लग जाएगा। इसलिए विदेशों में घूमते समय सबसे पहले अपनी खर्च करने की आर्थिक क्षमता को जाँचना आवश्यक होता है फिर रुचि अनुसार शहरों का चयन किया जाना चाहिए। चूँकि हमारे पास इक्कीस दिन थे तो हमने भी अपनी रुचि अनुसार दर्शनीय स्थानों की सूचि बना ली थी और उसी के आधार पर सभी जगह रहने की सुविधानुसार व्यवस्था भी कर रखी थी। विदेश यात्रा के दौरान सुनियोजित बजट बना लेना उपयोगी और आवश्यक होता है क्योंकि हम विदेशी मुद्रा पर निर्भर करते हैं।

हमारी पहली मंजिल थी पुर्तगाल या पोर्त्युगल। हम पुर्तगाल की राजधानी लिस्बन पहुँचे। हम यहाँ तीन दिन रहे। हमारा अधिक उत्साह उस पोर्ट को देखने का था जहाँ से 1497 में  वास्को डगामा चार जहाजों के साथ भारत के लिए रवाना हुए थे और पहली बार योरोप और भारत के बीच समुद्री मार्ग खुल गए थे। साथ ही हमारे देश में योरपीय दासता का इतिहास का अध्याय भी प्रारंभ हुआ था।

हम दोपहर तक उस विशाल पोर्ट पर रहे, पत्थरों से बने पुराने ज़माने के लाइट हाउस पर चढ़कर दूर तक समुद्र को निहारने का आनंद लिया। आस पास कई छोटी -छोटी जगहें हैं उन्हें देखने का आनंद उठाया।

लिस्बन शहर समुद्री तट पर बसा है। यहाँ के कई  संग्रहालयों से हमें काफी जानकारी मिली। यहाँ पर अधिकतर दर्शनीय स्थल विभिन्न क्रूज़ द्वारा ही किए जाते हैं। कुछ प्रसिद्ध किले भी हैं । इस शहर के अन्य दर्शनीय स्थानों का भ्रमण कर हम उनके बाज़ार देखने गए।

कई अलग प्रकार के फल, शाक और सब्ज़ियाँ देखी जो हमारे देश से अलग हैं। छोटी -छोटी लाल तेज़ गुच्छों में मिर्ची देखने को मिली।इसे यहाँ पिरिपिरि कहते हैं।

इस पिरिपिरि के साथ हमारे देश का एक पुराना इतिहास भी जुड़ा है।हमारे देश में पुर्तगालियों के आने से पूर्व केवल कालीमिर्च की पैदावार होती थी ,हरीमिर्च जिसका उपयोग  नित्य अपने भोजन में आज हम करते हैं वह पुत्रगालियों की ही देन है। वे मिर्च पहले गोवा में ले आए और 17वीं शताब्दी में शिवाजी की सेना इसे देश के  बाकी हिस्सों में ले जाने में सफल हुई।आज हमारे देश में कई प्रकार की मिर्चियाँ उगाई जाती हैं।

लिस्बिन देखकर हम प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण शहर अल्बूफेरिया देखने के लिए रवाना हुए। यह यात्रा हमने यूरोरेल द्वारा की क्योंकि इन दोनों शहरों के बीच का अंतर 255 कि.मी.है और अढ़ाई घंटे का समय लगता है।यहाँ बसें भी चलती हैं पर समय अधिक लग सकता है।

हम अल्बूफेरिया में हम चार दिन रहे। यह सुंदर शहर समुद्र और पहाड़ों के बीच बसा है।

यहाँ हमने कई किले देखे जो अपने समय का इतिहास बयान करते हैं। पुरानी छोटी-बड़ी तोपें अब भी किले की शोभा बनी हुई हैं। यह ऐतिहासिक शहर है।पहाड़ी इलाका होने के कारण सड़कें संकरी और टाइल्स लगी हुई हैं। छोटी -छोटी बसें इन सड़कों पर चलती हैं पर किले तक जाने वाली  चढ़ाई चलकर ही चढ़नी पड़ती है।

किले के  प्रारंभ में सोवेनियर की दुकानें हैं।चाय-नाश्ता कॉफी की छोटी -छोटी सुसज्जित टपरियाँ हैं। यहीं पर पहली बार क्रॉसें खाने का स्वाद मिला।

दूसरे दिन हमने  एक बड़े जहाज़ द्वारा समुद्र पर सैर करने का आनंद लिया।इस बड़े जहाज से उतरकर समुद्र के बीच हमें छोटे लाइफबोट में बिठाया गया और समुद्र में स्थित गुफाओं का दर्शन कराया गया। यह एक अनूठा अनुभव था। छोटे मोटर बोट या लाइफबोट आसानी से  गुफाओं के भीतर प्रवेश कर सकते हैं। यहाँ की गुफाएँ ऊपर से खुली -सी हैं जहाँ से सूरज का प्रकाश स्वच्छ जल पर आ गिरता है।मोटर बोट से जहाज़ पर चढ़ना एक भारी कठिन काम था। विशेषकर जब जल से मन में भय हो! इन गुफाओं के पास हमें ऊदबिलाव के अनेक परिवार दिखे।ये बहुत शर्मीले प्राणी हैं तथा झुंड में ही रहते हैं।इन्हें तकलीफ न हो या वे डिस्टर्ब न हों इसलिए लाइफबोट का उपयोग किया जाता है जो चप्पू द्वारा चलाया जाता है।

इस शहर का  एक पहाड़ी हिस्सा भी है  जो अपनी प्राकृतिक सुंदरता के लिए प्रसिद्ध है,हम तीसरे दिन यहाँ के बहुत खूबसूरत जंगल देखने के लिए निकले। यह पहाड़ी इलाका है और यहाँ बड़ी तादाद में वे वृक्ष उगते हैं जिनसे कॉर्क बनाया जाता है। हमें कॉर्क बनाने की फैक्ट्री, शराब बनाई जाने वाली फैक्ट्री आदि देखने का यहाँ मौका भी मिला। हमारे स्वदेश लौटने के कुछ माह बाद इस विशाल सुंदर जंगल में भीषण आग लगी और जंगल के राख हो जाने का समाचार मिला।हम इस बात से बहुत आहत भी  हुए।

इस शहर में कई  संग्रहालय भी हैं जहाँ अनेक प्रकार की मूर्तियाँ और पेंटिंग्स देखने को मिले। निरामिष भोजन के लिए हमें थोड़ी तकलीफ अवश्य हुई अन्यथा यह खूबसूरत देश है। सुंदर चर्च हैं।लोग देर से उठना और देर रात तक खाने -पीने में विश्वास करते हैं, जिस कारण यहाँ के लोगों की सुबह देर से प्रारंभ होती है। पुर्तगाल के पुराने शहरों को देखकर आपको हमारे देश का खूबसूरत गोवा अवश्य स्मरण हो आएगा।

क्रमशः…

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – मी प्रवासिनी ☆ मी प्रवासिनी क्रमांक 33 – भाग-3 – सुंदर, शालीन आणि अभिमानी जपान ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆

सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

☆ मी प्रवासिनी क्रमांक 33 – भाग- 3 ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆ 

✈️ सुंदर, शालीन आणि अभिमानी जपान ✈️

रात्री अकराच्या बसने टोकियोला जायचे होते. आमचा जपान रेल्वे पास या बससाठी चालत होता. तीस जणांची झोपायची सोय असलेली डबल डेकर मोठी बस होती. बसण्याच्या जागेचे आरामदायी झोपण्याच्या जागेत रूपांतर केले आणि छान झोपून गेलो. पहाटे साडेपाच-सहाला जाग आली. सहज बाहेर पाहिले. अरे व्वा! बसमधून दूरवर फुजियामा पर्वत दिसत होता. निळसर राखाडी रंगाच्या त्या भव्य पर्वताच्या माथ्यावर बर्फाचा मुकुट चकाकत होता. सारे खूश झाले. ट्रॅफिक जॅममुळे टोक्यो स्टेशनला पोहोचायला नऊ वाजले. स्टेशनवरच सारे आवरले. आज आम्ही फुजियामाला जाणार होतो व उद्याची टोक्यो दर्शनची तिकीटं काढली होती. आजची रात्र आम्ही टोक्योचे एक उपनगर असलेल्या कावासकी इथे सीमा आणि संदीप लेले यांच्याकडे राहणार होतो. त्यामुळे जवळ थोडे सामान होते.

फुजियामाला जाताना हे सामान नाचवायला नको म्हणून आम्ही ते टोक्यो स्टेशनवरील लॉकरमध्ये ठेवायचे ठरविले. जपानमध्ये सर्व रेल्वे स्टेशन्सवर लॉकर्सची व्यवस्था आहे. आपल्या सामानाच्या साइजप्रमाणे लॉकर निवडून त्यात सामान ठेवायचे. किती तासांचे किती भाडे हे त्यावर लिहिलेले असते. सामान ठेवून लॉकरला असलेली किल्ली लावून ती किल्ली आपल्याजवळच ठेवायची. मात्र सामान परत घेताना योग्य ते भाडे त्या लॉकरला असलेल्या होलमधून टाकल्याशिवाय लॉकर उघडत नाही. तिथल्या एका लॉकरमध्ये सामान ठेवून आम्ही फुजियामाला जाण्यासाठी निघालो. तीन-चार गाड्या बदलून, अनेकांना विचारत शेवटी माथेरानसारख्या छोट्या गाडीने कावागुचिकोला पोहोचलो.फुजियामा  इथे असलेल्या पाच लेक्सपैकी हा एक लेक आहे. तिथून फुजियामाचे सुंदर दर्शन होत होते. हळूहळू थंडी, बोचरे वारे वाढू लागले. तेव्हा परतीचा तसाच प्रवास करून टोक्यो स्टेशनवर आलो.

जगातले सर्वात वर्दळीचे स्टेशन म्हणून टोक्यो ओळखले जाते. जमिनीखाली आणि जमिनीवर  पाच-सहा मजले अवाढव्य रेल्वे स्टेशन्सचे जाळे पसरले आहे. दररोज लक्षावधी लोक या स्टेशन मधून जा- ये करत असतात. त्या प्रचंड वाहत्या गर्दीत आम्ही हरवल्यासारखे झालो. आम्ही ज्या प्लॅटफॉर्मवर उतरलो तिथून सकाळी आम्ही ज्या दिशेच्या गेटजवळ सामान ठेवले होते, तो लॉकर काही सापडेना. त्यात भाषेची मोठीच पंचाईत. सगळेजण त्या गर्दीत लॉकर शोधत बसायला नको म्हणून आम्ही तिघे- चौघे एका ठिकाणी बसून राहिलो. लॉकर शोधायला गेलेल्या दोघा जणांना लॉकर सापडून परत आम्ही सर्व एकमेकांना सापडण्यात चांगले दोन तास गेले.

ट्रीपचा शेवटचा दिवस टोक्योदर्शनचा होता. हवामानाच्या अंदाजाप्रमाणे पाऊस पडतच होता .आयफेलटॉवरसारख्या असणाऱ्या टोक्यो टॉवरवरून शहराचे दर्शन घडले. जपानचा पारंपारिक चहा समारंभ पाहिला. तो हिरव्या रंगाचा, भातुकलीच्या कपांमधून दिलेला कोमट चहा आपल्याला आवडत नाही पण सुंदर किमोनोमधल्या त्या बाहुल्यांसारख्या स्त्रिया, चहा बनविण्याचे हळुवार सोपस्कार वगैरे पाहायला गंमत वाटत होती. नंतर एम्परर गार्डनमध्ये थोडे फिरून जेवायला गेलो. एका मोठ्या हॉटेलात सर्वांसाठी बार्बेक्यू पद्धतीचे जेवण होते. टेबलावर प्रत्येकाजवळ छोटीशी शेगडी ठेवलेली होती. त्यावर कांदा, बटाटा, वांगी, रताळे, मशरूम, लाल भोपळा, लाल मिरची असे सारे गरम गरम भाजून दिलेले होते. जोडीला भात, हिरवा चहा, रताळ्याचा गोड पदार्थ असे आमचे शाकाहारी जेवण होते. परंतु काड्यांनी जेवायची कसरत काही जमली नाही. मग काटे- चमचेच वापरले. त्या दिवशी त्या हॉटेलात बरीच लग्नं होती. ती पाहायला मिळाली. लग्नाच्या वऱ्हाडात उंची किमोनो घालून जपानी गजगामिनी मिरवत होत्या.

आता पाऊस थांबला होता. सुमिडा नदीतून क्रूझने सहल करायची होती. बसमधून तिथे जाताना टोक्योचा आपल्या फोर्टसारखा विभाग दिसला. तेरा ब्रिजच्या खालून आमची क्रूज गेली. ब्रिजवरून कुठे रेल्वे तर कुठे रस्ते होते. इकडून तिकडे सतत वाहतूक चालू होती. बोटीतून उतरल्यावर दोन्ही बाजूंच्या खरेदीच्या दुकानांवर एक नजर टाकून नंतर पॅगोडा पाहिला. टोक्योदर्शनच्या बसमधून उतरण्यापूर्वी गाइडला “आरीगाटो गोसाईमास” म्हटले. म्हणजे जपानी भाषेत त्याचे आभार मानले.

जपानी लोक हे अत्यंत मेहनती, शिस्तप्रिय आणि शांत वृत्तीचे आहेत. आपला देश, आपली संस्कृती, आपली भाषा याचा त्यांना विलक्षण अभिमान आहे. हा देश सतत भूकंपाच्या छायेत वावरत असला तरी कुठेही भीतीचा लवलेश नसतो. सर्व नवीन बांधकामे भूकंपाला तोंड देण्यास योग्य अशीच बांधलेली आहेत. नियमाप्रमाणे प्रत्येक घरामध्ये दरवाज्याजवळ पिण्याच्या पाण्याच्या दोन बाटल्या, बॅटरी, मेणबत्त्या, काड्यापेटी, एका वेळचे घरातील सर्वांचे कपडे व थोडी बिस्किट्स, चॉकलेट्स अशी जय्यत तयारी एका बॅगमध्ये करून ठेवलेली असते. जपानमधील राहणीमान खूपच खर्चिक आहे. इथे सगळीकडे झाडे, फुले आहेत पण सारी झाडे, फुले अगदी सैनिकी शिस्तीत वाढल्याप्रमाणे आहेत. नैसर्गिकरित्या वाढलेले, फळाफुलांनी डवरलेले असे एकही झाड आढळत नाही. जपानी लोक ठरवतील तसेच झाडांनी वाढायचे, फुलांनी फुलायचे, बोन्सायरुपाने  दिवाणखाने सजवायचे! तरुण पिढीवर अमेरिकन जीवनशैलीचा फार मोठा प्रभाव आहे. व्यक्तिस्वातंत्र्याचं वेड व प्रचंड महागाई यामुळे लग्न, मुलंबाळं, एकत्र कुटुंबपद्धती हळूहळू कमी होत आहे. जपानमध्ये अतिवृद्धांची संख्या वाढते आहे तर लहान मुलांची संख्या कमी होत आहे. कोणी सांगावे, उद्या जपानी शास्त्रज्ञ यावरही काही उपाय शोधून काढतील.

आमचा परतीचा प्रवास सुरू झाला. पहाटेच्या थोड्याशा पावसाळी धुक्यातून उगवत्या सूर्यदेवाचे लांबलचक किरणांचे हात आम्हाला निरोप देत होते. डोळ्यांपुढे दिसत होते–

  प्रशांत महासागराच्या हिंदोळ्यावर झुलणारे,

  पाचूच्या कंठ्यामधल्या रत्नासारखे शोभणारे,

   आकाराने लहान, कर्तृत्वाने महान,

   फिनिक्स पक्षाप्रमाणे राखेतून उभे राहिलेले,

   अत्याधुनिक तंत्रज्ञानाच्या गरुडझेपेने,

   आकाशाला कवेत घेणारे,

    एक स्वच्छ, सुंदर ,शालीन राष्ट्र, जपान!

भाग ३ व जपान समाप्त

© सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

जोगेश्वरी पूर्व, मुंबई

9987151890

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 01 ☆ मेरी डायरी के पन्ने से… नागालैंड… ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

संक्षिप्त परिचय

सुश्री ऋता सिंह जी शिक्षिका हैं। पिछले चालीस -पैंतालीस वर्षों से हिंदी अध्ययन कर रही हैं। हिंदी के साथ -साथ मराठी, अंग्रेज़ी ,पंजाबी तथा मातृभाषा बाँगला भाषा पर  भी अच्छी पकड़ है। पिछले सोलह वर्षों से लैंग्वेज कन्सल्टेंट ऍन्ड टीचर ट्रेनर के रूप में भी सेवा प्रदान करती आ रही हैं। बच्चों के मन में हिंदी भाषा के प्रति प्रेम निर्माण करने हेतु भाषा पर  विविध खेलों द्वारा अपनी छोटी – सी संस्था चलाती हैं। छात्रों को भाषा सीखने में आसानी हो इसलिए कई खेलों का निर्माण  किया है। आपने देश -विदेश का प्रचुर भ्रमण किया है। यात्रा वर्णन पर लेख लिखने में आनंद लेती हैं। कहानी, कविता ,संस्मरण आदि सभी क्षेत्र में लिखने में रुचि रखती हैं। हिंदी आंदोलन परिवार, पुणे द्वारा हिंदी श्री से 2021 में सम्मानित की गई हैं।

प्रकाशित पुस्तकें –

  • खेल -खेल में सीखें हिंदी ( भाग 1 से 5)
  • नानीमाँ की झोली से – सचित्र द्विभाषीय पुस्तकें (दो प्रकाशित हुईं हैं )
  • प्रतिबिंब – कविता संग्रह
  • पुरानी डायरी के फटे पन्ने – कहानी संग्रह
  • स्मृतियों की गलियों से – संस्मरण संग्रह
  • अनुभूतियाँ – कहानी संग्रह

(सुश्री ऋता सिंह जी का ई- अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत। आपने हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख साझा करना स्वीकार किया है। इसके लिए हार्दिक आभार। अब आप प्रत्येक मंगलवार, साप्ताहिक स्तम्भ -यायावर जगत के अंतर्गत सुश्री ऋता सिंह जी की यात्राओं के शिक्षाप्रद एवं रोचक संस्मरण  आत्मसात कर सकेंगे। इस श्रृंखला में प्रस्तुत है आपका यात्रा संस्मरण – मेरी डायरी के पन्ने से…नागालैंड… .)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ –यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 01 ☆  

? मेरी डायरी के पन्ने से… नागालैंड…  – ?

भारत तीर्थस्थलों का देश है। साथ ही अनेक राज्य अपनी संस्कृति, त्योहार खान-पान की विविधता और  विशेषता के लिए भी प्रसिद्ध है। धर्म,जाति,भाषा,आहार सब कुछ अलग अलग होने के बावजूद भी संपूर्ण देश एक अदृश्य सूत्र से बँधा है और वह है भारतीयता।

इसी सूत्र और रंगीन भूमि के त्योहारों का आनंद लेने इस वर्ष 2022 में हमारे परिवार ने नागालैंड की यात्रा का निर्णय लिया।

अब संपूर्ण भारत में यातायात के साधन भरपूर उपलब्ध हैं। पर्यटक तो अब नियमित रूप से विमान, रेलगाड़ी तथा  अपनी मोटरगाड़ी द्वारा भी यात्रा करते दिखाई देते हैं। हमारे महामार्ग अत्यंत सुलभ, सुंदर और सुविधाजनक बनाए गए हैं। सभी राज्य अब महामार्गों द्वारा जुड़े हुए भी हैं।

नागालैंड में प्रतिवर्ष हॉर्नबिल फेस्टीवल मनाया जाता है। यह त्योहार प्रति वर्ष 1 दिसंबर से 10 दिसंबर तक मनाया जाता है। इस स्थान में सत्रह आदिवासी (ट्राइबल कम्यूनिटी)  वास करते हैं। इस भूभाग पर हॉर्नबिल नामक पक्षियों की प्रजाति बहुसंख्या में पाए जाते थे। यहाँ के नागा जाति के आदिवासी अपने सिर पर हॉर्नबिल पक्षी के पंख लगाते हैं। इन पंखों को प्राप्त करने की उत्कट इच्छा ने आज इस सुंदर पक्षी की प्रजाति को प्रायः विलुप्त होने के कगार पर लाकर खड़ा कर दिया।

सन 2000 में यहाँ पर पहली बार सभी आदिवासी प्रजातियाँ एकत्रित हुईं और पहली ही बार फेस्टीवल मनाया गया। इसका मूल उद्देश्य था नागा आदिवासियों की आपसी मतभेदों को दूर करना, उनकी  संस्कृति से राष्ट्र के अन्य प्रदेशों को परिचित कराना तथा देश की मुख्य धारा से उन्हें जोड़ना। इस उत्सव ने न केवल नागा जन जातियों की संस्कृति को पुनर्जीवित किया बल्कि नागालैंड की सुंदरता से पूरे संसार को परिचित भी कराया।

नागालैंड भारत के उत्तरी -पूर्व राज्यों में से एक है। यहाँ के सभी राज्य सदा से ही उपेक्षित रहे और भारत के बाकी राज्यों से कुछ हद तक कटे भी रहे। सन 1962 में  इसे अलग राज्य का स्टेटस मिला। फिर भी राज्य उपेक्षित ही रहा।

सन 2000 से हॉर्नबिल फेस्टीवल देखने के लिए दर्शकों की संख्या बढ़ने लगीं तो होटल और होम स्टे की व्यवस्था भी होती रही। बड़ी संख्या में होटल खुले और विदेशों से भी यात्री इस रंगीन उत्सव का आनंद लेने आने लगे। नागावासियों का उत्साह बढ़ा,शहर स्वच्छ बनते रहे और लोगों को काम मिलने लगा। इस तरह वे अपनी पहचान बनाने लगे, भारत के मानचित्र ही नहीं संसार के मानचित्र पर उनकी चमक और पहचान बनी। बल्कि नागा आदिवासियों की संस्कृति फिर एक बार जागृत हुई।

आपको नागालैंड के निवासी भारत के अन्य राज्यों में कम ही दिखाई देंगे। वे सेल्फ शफीशियंट प्रजातियाँ तो हैं ही साथ ही उनसे बातचीत करने पर एक और बात सामने आई कि वे भारत के अन्य राज्यों में अपने अलग चेहरे,कद -काठी और भोजन आदि के कारण सहर्ष स्वीकृत नहीं हैं। यह अत्यंत दुख की बात है।

कोहीमा  नागालैंड की राजधानी है। पर यह शहर पहाड़ों से घिरा होने के कारण यहाँ पर रेलवे और हवाई अड्डे की व्यवस्था नहीं है। इस शहर से सत्तर किलोमीटर की दूरी पर दीमापुर नामक शहर है। यहाँ एक छोटा -सा हवाई अड्डा है, रेलगाड़ी की सुविधा उपलब्ध है। यह नागालैंड का सबसे बड़ा शहर है। ऑटोरिक्शा, टैक्सियाँ और प्राइवेट टैक्सियाँ भी उपलब्ध हैं। सभी पर्यटक दीमापुर तक आते हैं और आगे की यात्रा टैक्सियों द्वारा पूरी करते हैं।

दीमापुर शहर की भीतरी सड़कें खास ठीक नहीं क्योंकि उपेक्षित राज्य होने के कारण रास्तों की मरम्मत संभवतः कभी की ही न गई होगी। लेकिन हॉर्नबिल फेस्टीवल के चलते दीमापुर से कोहीमा तक का रास्ता बहुत ही सुंदर और शानदार बनाया गया है जिस कारण डेढ़ -दो घंटों में टैक्सी द्वारा कोहीमा पहुँचा जा सकता है। यहाँ सड़कों के किनारे लोकल फलों की दुकानें दिखाई देती हैं। मीठे और सस्ते अनन्नास का हमने भरपूर स्वाद लिया। यहाँ लंबे -लंबे अनन्नास काटकर, मसाले लगाकर एक पतली बाँस की सलाख  उसमें ठूँस देते हैं जिससे इसे खाने में सुविधा हो जाती है। हमने बचपन को याद करते हुए इसका आनंद लिया।

हॉर्नबिल फेस्टीवल  कोहिमा में आयोजित किया जाता है। कोहिमा से 12 किलोमीटर की दूरी पर किसामा नामक छोटा -सा कस्बा है जहाँ पिछले 22 वर्षों से उत्सवों का उत्सव हॉर्नबिल फेस्टीवल मनाया जाता  आ रहा है।

यहाँ की आबादी  ईसाई धर्म को मानती है। 2022 का  वर्ष इस दृष्टि से भी महत्वपूर्ण रहा कि इस राज्य में  ईसाई धर्म की नींव रखे 150 वर्ष पूरे हुए हैं। इसका भी हर्षोल्लास सुसज्जित शहर को देखकर लगाया जा सकता है। क्रिसमस इनका सबसे बड़ा त्योहार है।

हर भारतीय को नागालैंड आने से पूर्व ILP ( Internal line of permit) लेने की अनिवार्यता होती है। यह ऑनलाइन उपलब्ध है। अगर आप इस उत्सव का हिस्सा बनना चाहते हैं तो जुलाई के महीने में ही बुकिंग कर लें कारण ऑक्तूबर माह से सभी होटल और होम स्टे बुक हो जाते हैं। हमने सितंबर में बुकिंग की थी और हमें ऊँची कीमत भरनी पड़ी। पाँच हज़ार वाले कमरे पंद्रह हज़ार में बुक होते हैं। इससे बचा जा सकता है।

हमारी यात्रा पुणे से प्रारंभ हुई,दिल्ली होते हुए  हम दीमापुर पहुँचे। लोग अपने शहरों से गुवाहाटी पहुँचकर भी रेल द्वारा दीमापुर पहुँच सकते हैं।

 दीमापुर लकड़ी और बेंत से बननेवाले वस्तुओं के कुटीर उद्योगों का शहर  है जो अपने आप में देखने लायक स्थान है। इसके आसपास कुछ गाँव भी हैं। इन गाँवों की महिलाएँ घर-घर में  सुंदर, आकर्षक, टिकाऊ विविध प्रकार की टोकरियाँ, फल रखने के बास्केट और हाथ करघे पर कई प्रकार की वस्तुएँ बुनती हैं। इन्हें बनाने में बहुत समय लगता है। यह इस क्षेत्र का सबसे बड़ा उद्योग है। हॉर्नबिल फेस्टीवल के दौरान बड़ी मात्रा में इन वस्तुओं और बेंत के फर्नीचर आदि की बिक्री होती है। हम इन्हीं गाँवों को देखना चाहते थे। हम जब गाँवों में पहुँचे तो तैयार माल हॉर्नबिल फेस्टीवल के लिए पैक किए जा रहे थे।

दीमापुर के बाज़ार में  घूमने पर ही  यहाँ के लोगों के  खानपान के तौर – तरीकों से हम परिचित हुए। नागा जाति के लोग दुबले-पतले तथा कद के छोटे होते हैं। शारीरिक श्रम तथा जलवायु के कारण हाई प्रोटीन डायट इनकी आवश्यकता होती है। इस कारण बाज़ार में आपको कई प्रकार के जीवित कीड़े, इल्लियाँ,रेशम कीड़े, मछलियाँ, मेंढक, टिड्डे, घोंघें,  केंचुएँ,आदि दिखाई देंगे। साथ ही यहाँ के निवासी सुअर तथा कुत्ते के माँस का भी बड़ी मात्रा में सेवन करते हैं। इसे डेलिकेसी कहते हैं। कुत्ते का माँस होटलों में नहीं दिए जाते परंतु सुअर का माँस बहुप्रचलित है। यह उनका भोजन है अतः उसका सम्मान करना हम सबका धर्म है।

हम दो सखियाँ शाकाहारी हैं, हमें शाकाहारी भोजन आसानी से ही प्राप्त हुए हैं। लोग अफवाह फैलाते हैं कि शाकाहारी भोजन की यहाँ व्यवस्था नहीं है। यह ग़लत है। हमें शाक सब्ज़ियाँ और कई प्रकार के फल बाज़ार में दिखाई  दिए। होटलों ने उत्तम शाकाहारी भोजन, सूप,सलाद आदि की व्यवस्था की और हम दोनों सखियों ने इसका भरपूर आनंद लिया।

यहाँ के लोग भात खाना पसंद करते हैं। भोजन में मसाले के रूप में कई जड़ी-बूटियों तथा शाक का उपयोग करते हैं। यहाँ शराब की दुकानें नहीं हैं। यहाँ के लोग घर -घर में राइस बीयर बनाते हैं। यह उनकी बहुप्रचलित मदिरा है।

तीन दिन दीमापुर में रहने के बाद हम लोगों ने खोनोमा होते हुए कोहिमा जाने का फैसला लिया।

खोनोमा एक छोटा –  सा गाँव है जिसे  एशिया का ग्रीनेस्ट विलेज कहा जाता है। वास्तव में यहाँ रहनेवाले गाँव वासी इस बात से वाकिफ़ हैं और वे अपने गाँव को बहुत साफ़ -सुथरा रखते हैं। जगह -जगह पर बेंत से बने कूड़ेदान के रूप में  टोकरियाँ रखी दिखाई दी। इस गाँव को देखने के लिए बड़ी संख्या में लोग आते हैं जिस कारण यहाँ एक गाइड सेंटर भी खोला गया है, जहाँ पर प्रति सदस्य दो सौ रुपये देकर पैंतालीस मिनट में पूरा गाँव चलकर दिखाए जाने की व्यवस्था की गई है। गाँव में तीन हज़ार लोग रहते हैं। सभी ईसाई धर्म को मानते हैं। यह अंग्रेज़ों की देन है। आदिवासियों को वे अपने धर्म का जामा पहना कर गए और वे अपनी प्राकृतिक पूजा-पाठ से विमुख हो गए। खैर यहाँ धर्मों पर विवाद या झगड़े नहीं। यहाँ एक विशाल गिरिजाघर है और सभी उत्साह से क्रिसमस मनाते हैं। इस छोटे से गाँव में छह पाठशालाएँ हैं। शाम होते होते चार बजे बादल नीचे उतर आए और हरियाली से भरे जंगलों के पेड़ पौधों को ओस की बूँदों से सजाने लगे। यहाँ चार साढ़े चार तक अंधकार हो जाता है। ठीक उसी तरह यहाँ प्रातः भी साढ़े चार बजे सूर्यदेव दर्शन देते हैं। यहाँ से आगे हम छह किलोमीटर की दूरी पर कोहिमा पहुँचे।

कोहिमा छोटा सा शहर है, यहाँ खास दर्शनीय स्थल नहीं है। सुभाषचंद्र बोस इस शहर में कभी रहे थे और नागाओं का उन्हें साथ मिला था,इस इतिहास का वहाँ कहीं उल्लेख नहीं है। इस बात का हमें बहुत दुख हुआ। यहाँ  एक विशाल वॉर सेमिट्री है जहाँ ब्रिटिश सैनिकों के कब्र बने हुए हैं। पर्यटक इस स्थल को देखने जाते हैं। यहाँ दुकानें सात बजे तक खुल जाती है और चार बजे तक सब बंद भी कर दिए जाते हैं।

अर्ली टू बेड,अर्ली टू राइज़ यहाँ का मूल मंत्र है। लोग स्वस्थ,परिश्रमी तथा हँसमुख हैं।

हमें पूरे पर्यटन के दौरान एक भी भिखारी नज़र नहीं आया। यह एक बहुत बड़ी बात है। यहाँ आज भी संयुक्त परिवार की प्रथा है। घर के बड़े बूढ़ों का सम्मान सभी करते हैं। बुजुर्ग अपने घर के छोटे बच्चों के साथ काफी समय व्यतीत करते हैं।

हॉर्नबिल फेस्टीवल इस राज्य का आकर्षण बिंदु है, सभी वस्तुएँ बहुत कीमती हो जाती हैं। पाँच -छह किलोमीटर की यात्रा के लिए पाँचसौ रुपये लोकल टैक्सियाँ लेती हैं।

यहाँ मेरू,उबेर या ओला टैक्सियाँ नहीं चलतीं बल्कि काली-पीली टैक्सियाँ शेयर में चलती हैं। ये सुविधा सर्वत्र उपलब्ध है। यही लोकल ट्रान्सपोर्ट है। सड़कें पहाड़ी और संकरी हैं जिस कारण छोटी गाड़ियाँ बहुसंख्यक हैं। यहाँ गाड़ी पर कैरियर लगाने की इज़ाज़त नहीं है।

हॉर्नबिल फेस्टीवल

1 दिसंबर से यह पर्व प्रारंभ हुआ। पर्व प्रारंभ होने के कई माह पूर्व तैयारी शुरू होती है। यहाँ हर नागा आदिवासी अपने तौर-तरीके और खानपान की व्यवस्था के साथ अपने आवास की व्यवस्था का रेप्लिका प्रस्तुत करता है इसे मोरॉन्ग कहते हैं। इस वर्ष 17 प्रजातियों में से छह प्रजातियों ने हिस्सा नहीं लिया है। ये छह प्रजातियाँ मुख्य नागालैंड राज्य से अलग होने की माँग रखते हैं।

किसामा में पहुँचकर पर्यटक नागा जातियों के मोरॉन्ग पर जाकर समय व्यतीत कर सकते हैं। उनके साथ बातचीत कर तस्वीरें खींच सकते हैं। उनके भोजन का आनंद ले सकते हैं। वस्त्र तथा आभूषण भी खरीद सकते हैं। नागा अत्यंत मिलनसार जाति हैं। वे पर्यटकों के साथ समय बिताना भी पसंद करते हैं।

इस वर्ष देश के उपराष्ट्रपति श्री धनकड़ जी सपत्नीक इस उत्सव के लिए उपस्थित हुए। शाम को चार बजे कार्यक्रम प्रारंभ हुआ। विशाल मैदान के एक तरफ मंच बना हुआ है तथा तीनों ओर पर्यटकों के बैठने की सुविधाजनक व्यवस्था है। स्वच्छ शौचालय की भी व्यवस्था है। ऑस्ट्रेलिया, फ्रांस और इंग्लैंड के राजनीतिक उच्च पदाधिकारी तथा राज्यपाल इस वर्ष आमंत्रित थे। शहर के प्रमुख चर्च के मुख्य पादरी ने सभी को शुभकामनाएँ दी तथा प्रार्थना से कार्यक्रम प्रारंभ हुआ। नागालैंड के मुख्यमंत्री, पर्यटन विभाग के मंत्री, मान्यवर धनकड़ जी तथा विदेश से आए आमंत्रित सदस्यों ने अपने विचार प्रकट किए।

1 तारीख को कुछ ही नृत्य प्रस्तुत किए गए। एक नागा छात्रा ने गिटार पर राष्ट्रगीत बजाकर सबको मंत्र मुग्ध कर दिया।

2 तारीख सुबह 10 बजे से दर्शक एकत्रित होने लगे। 11.30 बजे तक विविध नागा प्रजातियों ने अपने नृत्य प्रदर्शन किए। फिर मोरॉन्ग दर्शन तथा नागा भोजन के लिए 1.30 बजे तक समय दिया गया। फिर कुछ नृत्य प्रदर्शन हुए और फिर शाम को 3बजे से अंग्रेज़ी और बॉलीवुड संगीत पर वहाँ के निवासियों ने नृत्य प्रदर्शित किए। इस तरह दस दिन कार्यक्रम चलते रहे।

नागाप्रजातियों के वस्त्र अत्यंत रंगीन होते हैं। लाल, काला और सफेद मूल रंग हैं। इन कपड़ों की बुनाई भी अलग तरीके से होती है। हर प्रजाति के स्त्री -पुरुष के सिर पर मुकुट जैसा पहना जाता है इसे हेडगीयर कहते हैं। हरेक के अस्त्र-शस्त्र अलग होते हैं। उनके गीत और उनकी पुकार भी अलग होती है। वे नृत्य प्रस्तुत करते समय खूब आवाज़ करते हुए आते हैं। वे नंगे पैर चलते हैं तथा पुरुषों का ऊर्ध्वांग वस्त्रहीन होता है। स्त्री -पुरुष के वस्त्र घुटने तक ही होते हैं। कुछ प्रजातियाँ अपने पैरों पर पेंटिंग करते हैं। सभी खूब आभूषण पहनते हैं।

हर प्रजाति अत्यंत अनुशासित दिखाई देती है।

प्रतिदिन जो नृत्य प्रस्तुत किए गए उनमें उनके जीवन के विविध पहलुओं को दर्शाया गया।

फसल काटे जाने, खलिहान में रखे जाने की कथा नृत्य द्वारा प्रस्तुत की गई।

नवविवाहित दंपत्ति विवाह में आए मेहमानों को उपहार देकर विदा करते हैं इस प्रचलन को नृत्य के रूप में प्रस्तुत किया गया।

अपने अस्त्र-शस्त्र का प्रयोग युद्धाभ्यास में किस तरह उपयोग में लाया जाता था तथा वॉर क्राय कैसी ध्वनि होती थी यह भी दर्शाया गया। कुल मिलाकर यह आनंददायी उत्सव रहा है।

आज नागालैंड के आदिवासी शिक्षित हैं, वे अलग अलग जगह पर नौकरी करते हैं। इसकारण अलग -अलग प्रकार के नृत्य के लिए अलग अलग अकादमी बनी हुई हैं जहाँ आज के छात्र-छात्राएँ नृत्य सीखने जाते हैं।

यहाँ की लिखित भाषा अंग्रेज़ी है। बाकी सबकी बोलियाँ अलग हैं। यहाँ के निवासी ऊँची आवाज़ में बात नहीं करते। पर्यटकों का सम्मान करते हैं तथा स्वभाव से अत्यंत मिलनसार होते हैं।

हमारी आगे आसाम और मेघालय की यात्रा तय थी इसलिए तीन दिन हम दीमापुर में रहे फिर तीन दिन हमने हॉर्नबिल फेस्टीवल का आनंद लिया और फिर अगली यात्रा के लिए रवाना हुए। अगली यात्रा काजीरंगा, शीलाँग, चेरापूंजी आदि स्थानों  की ओर थी। अतः हम पुनः दीमापुर लौट आए। एक रात रहकर अगली यात्रा प्रारंभ की।

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – मी प्रवासिनी ☆ मी प्रवासिनी क्रमांक 33 – भाग-2 – सुंदर, शालीन आणि अभिमानी जपान ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆

सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

☆ मी प्रवासिनी क्रमांक 33 – भाग- 2 ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆ 

✈️ सुंदर, शालीन आणि अभिमानी जपान ✈️

क्योटो इथे  एक बौद्ध मंदिर पाहिले. जगातले सगळ्यात मोठे लाकडी बांधकाम असे त्याचे वर्णन केले जाते. बौद्ध धर्माच्या प्रसारासाठी सहाव्या शतकात तिथे भारतातून नागार्जुन आणि वसुबंधू नावाचे बौद्ध भिक्षू आले होते, असे तिथे लिहिले होते. नंतर बुद्धाचे १००० सोनेरी पुतळे असलेले व मधोमध भगवान बुद्धाची शांत भव्य मूर्ती असलेले देऊळ पाहिले. त्या मूर्तीपुढील पुतळ्यांची नावे इंद्र, गंधर्व, नारायण, विष्णू, लक्ष्मी अशी आहेत पण त्यांचे चेहरे विचित्र दिसतात. एका पॅगोडामध्ये छताला भव्य सोनेरी कमळांची नक्षी आहे. पाऊस सुरू झाल्याने उरलेले क्योटो  दुसऱ्या दिवशी बघण्याचे ठरले.

क्योटो रेल्वे स्टेशनवर जायला म्हणून एका बसमध्ये चढलो. पण सकाळी जिथे उतरलो होतो ते स्टेशन कुठे दिसेना. कसे दिसणार? कारण आम्ही अगदी विरुद्ध दिशेच्या बसमध्ये बसलो होतो. आमची काहीतरी गडबड झाली आहे हे आजूबाजूच्या जपानी लोकांच्या लक्षात आले पण भाषेची फार अडचण! अगदी थोड्या जणांनाच इंग्रजी समजते. पण तत्परतेने मदत करण्याची वृत्ती दिसली. एका जपानी माणसाला थोडेफार समजले की आम्हाला क्योटो स्टेशनवर जायचे आहे. बस, डेपोमध्ये गेल्यावर त्याने खाणाखुणा करून सांगितल्याप्रमाणे आम्ही धावत पळत त्याच्या मागे गेलो. त्याने आम्हाला योग्य बसमध्ये बसवून दिले.

दुसऱ्या दिवशी क्योटोला जाऊन  गोल्डन टेम्पलला गेलो. एका तळ्याच्या मध्यावर संपूर्ण सोन्याच्या पत्र्याने मढविलेला पॅगोडा आहे. सभोवतालच्या तळ्यात त्याचे सोनेरी प्रतिबिंब चमकत होते. चारी बाजूंनी झाडीने वेढलेल्या पर्वतराजीत राजघराण्याचे हे देऊळ आहे .नंतर जवळच असलेल्या सिल्व्हर  टेम्पलला गेलो. असंख्य फुलझाडांच्या आणि शिस्तीने राखलेल्या झाडांमध्ये हे देऊळ आहे .डोंगरातून वरपर्यंत जाण्यासाठी वृक्षराजींनी वेढलेल्या पाऊलवाटा आहेत. स्वच्छ झऱ्यांमधून सोनेरी, पांढरे ,तांबूस रंगांचे मासे सुळकन इकडे तिकडे पळत होते.

जेवण आटोपून नारा इथे जाण्यासाठी छोट्या रेल्वे गाडीत बसलो. स्वच्छ काचांची छोटी, सुबक गाडी छोट्या छोट्या गावांमधून चालली होती. हिरवी, पोपटी डोलणारी शेती, आखीवरेखीव भाजीचे मळे, त्यात मन लावून कामं करणारी माणसं, टुमदार  घरं, घरापुढे छान छान मोटारगाड्या, रंगसंगती साधून जोपासलेला बगीचा असे चित्रातल्यासारखे दृश्य होते. नारा येथील हरीण पार्क विशेष आकर्षक नव्हते. जवळच असलेल्या लाकडी, भव्य तोडाजी टेम्पलमध्ये ७० फूट उंचीची भगवान बुद्धाची दगडी मूर्ती आहे. या मूर्तीच्या दोन्ही बाजूला तशाच भव्य पंचधातूच्या, पण सोनेरी मुलामा दिलेल्या बुद्धमूर्ती आहेत.देवळाचे प्रचंड लाकडी खांब दोन कवेत न मावणारे आहेत . जुन्या पद्धतीची जपानी बाग पाहिली. झुळझुळणाऱ्या झऱ्याच्या मध्यावर अगदी आपल्या कोकणातल्यासारखा लाकडी रहाट फिरत होता. पूर्वी ही रहाटाची शक्ती वापरून धान्य दळण्यासाठी त्याचा उपयोग करीत असत. बागेमध्ये अनंत व जास्वंदीची झाडे सुद्धा होती.

आज  मियाजिमा व हिरोशिमा इथे जायचे होते. शिनकानसेनने म्हणजेच बुलेट ट्रेनने हिरोशिमा इथे उतरून मियाजिमा  इथे गेलो. तिथून छोट्या बोटीने जाऊन पाण्यावर तरंगणारा पाच मजली शिंटो पॅलेस पाहिला.हे छोटेसे बेट पर्वतराजींनी वेढलेले आहे. त्यावरील घनदाट वृक्ष फॉल सीझनच्या रंगाने सजू लागले होते.

क्रूझने परत मिआजिमा स्टेशनला येऊन जपान रेल्वेने हिरोशिमाला आलो. जगातला पहिला अणुबॉम्ब जिथे टाकला गेला ते ठिकाण! मानवी क्रौर्याचे अस्वस्थ करणारे स्मारक! अगदी खरं सांगायचं तर तेथील म्युझियम, तिथे दाखवत असलेला माहितीपट  आम्ही फार वेळ बघू शकलो नाही. लोकांचे आक्रंदन, जळणारे देह, कोसळणाऱ्या इमारती यातील काहीही फार वेळ बघवत नाही. मानवतेवर कलंक लावणारे असे ते विदारक चित्र पाहून डोळ्यातून अश्रूधारा वाहू लागतात. मनुष्य इतका क्रूर बनू शकतो यावर विश्वास ठेवणं कठीण जातं. तिथल्या लहान मुलांच्या स्मारकाजवळ काचेच्या मोठ्या चौकोनी पेट्या ठेवल्या होत्या. अणुबॉम्बला विरोध आणि जागतिक शांततेला पाठिंबा दर्शविण्यासाठी  आपण तिथे ठेवलेल्या पांढऱ्याशुभ्र कागदांचे पक्षांचे आकार करून त्या पेट्यांमध्ये टाकायचे. आम्हीही तिथे नाव पत्ता लिहून आमचा शांततेला पाठिंबा दर्शवीत कागदाचे काही क्रेन्स करून त्या काचेच्या पेटीत टाकले. तत्परता म्हणजे एवढी, की आम्ही जपानहून परत येण्याच्या आधीच आम्ही शांततेला पाठिंबा दर्शविल्याबद्दल हिरोशिमाच्या मेयरचे आभारदर्शक पत्र घरी येऊन पडले होते.

आज हिमेजी कॅसल बघायला जायचे होते. कोबेच्या सान्योमिया स्टेशनवरून हिमेजीला जाताना अकाशी येथील सस्पेन्शन ब्रिज पहिला.अमेरिकेतील सॅनफ्रान्सिसकोच्या गोल्डन ब्रीजपेक्षासुद्धा हा ब्रीज लांबीने जास्त आहे.  हिमेजी स्टेशनला उतरून तिथला भव्य, संपूर्ण लाकडी राजवाडा बघायला गेलो. त्याच्या बाहेरील प्रांगणात बोन्सायचे आणि सुंदर फुलांचे मोठे प्रदर्शन भरले होते. मोठ्या वृक्षांची हुबेहूब छोटी प्रतिकृती करण्याची ही जपानी कला!  अगदी छोट्या, सुंदर आकारांच्या कुंड्यांमधून वाढवलेले छोटे वृक्ष, त्यांना आलेली छोटी फळं, छोटी जंगलं, दगडातील डोंगरातून वाहणारे झरे सारे पाहात रहावे असे होते. डेलिया, जरबेरा, सूर्यफुलांचे विविधरंगी ताटवे होते.

आज  सकाळी कोबेमध्येच घराजवळील रोपवे स्टेशनला जायचे होते. आम्ही राहात होतो, तिथून दहा मिनिटांच्या अंतरावर ओरिएंटल हॉटेल नावाची भव्य वास्तू होती. हॉटेलमधल्याच रस्त्याने बुलेट ट्रेनच्या शिनकोबे स्टेशनला जाण्याचा मार्ग होता. हॉटेलच्या लॉबीमध्ये दोन्ही बाजूला फर्निचर, कपडे, खेळण्यांची आकर्षक दुकाने होती. शिनकोबे क्लब होता. लहान मुलांना खेळायची जागा होती. छोटे पब, रेस्टॉरंट होते. जमिनीखालील दोन मजल्यांवर ग्रोसरी व फळे फुले यांची दुकाने होती. तिथून भुयारी रेल्वेच्या स्टेशनला जाता येत होते आणि आमचा रोपवेला जाण्याचा मार्ग हॉटेलच्या रस्त्यामधून एका बाजूला होता. एखाद्या जागेचा जास्तीत जास्त, अत्यंत सोयीस्कर व नेटका उपयोग कसा करून घ्यायचा याचे हे एक उत्तम उदाहरण वाटले.

रोपवेने डोंगरमाथ्यावर गेलो.फुजिसान म्हणजे फुजियामा पर्वत सोडला तर इथे कुठचाही डोंगर उघडा- बोडका नाहीच. वृक्षांची लागवड करून, ते जोपासून सारे हिरवे राखले आहे. डोंगर माथ्यावरील हर्ब पार्कमध्ये औषधी वनस्पती, भाज्या वाढविल्या आहेत. त्यात गवती चहा, पुदिना, तुळस, माका, ब्राह्मी, आले, मिरी वगैरे झाडे जोपासली होती. मोठ्या काचगृहातून केळीची लागवड केली होती. कारंजी ,झरे ,फुलांचे गालिचे होते. डोंगर माथ्यावरून साऱ्या कोबे शहराचा नजारा दिसत होता.

जपान भाग २ समाप्त

© सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

जोगेश्वरी पूर्व, मुंबई

9987151890

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

 

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मराठी साहित्य – मी प्रवासिनी ☆ मी प्रवासिनी क्रमांक 33 – भाग-1 – सुंदर, शालीन आणि अभिमानी जपान ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆

सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

☆ मी प्रवासिनी क्रमांक 33 – भाग-1 ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆ 

✈️ सुंदर, शालीन आणि अभिमानी जपान ✈️

सूर्यदेवांची उबदार किरणं पृथ्वीवर जिथे पहिली पावलं टाकतात तो देश जपान! किमोनो आणि हिरव्या रंगाच्या चहाचा देश जपान! हिरोशिमाच्या अग्नीदिव्यातून झळाळून उठलेला देश जपान! साधारण पंधरा-सोळा वर्षांपूर्वी या जपानला जायचा योग आला. आम्ही मुंबईहून हॉंगकॉंगला विमान बदलले आणि चार तासांनी ओसाका शहराच्या कंसाई विमानतळावर उतरलो. आधुनिक जपानी तंत्रज्ञानाचा आविष्कार इथूनच पहायला मिळाला. जपानने कंसाई हे मानवनिर्मित कृत्रिम बेट भर समुद्रात बांधले आहे व त्यावर भलामोठा विमानतळ उभारला आहे. हे कृत्रिम बेट सतत थोडे थोडे पाण्याखाली जाते आणि दरवर्षी हजारो जॅक्सच्या सहाय्याने ते वर उचलले जाते. विमानातून उतरून कस्टम्स तपासणीसाठी दाखल झालो. शांत, हसऱ्या चेहऱ्यांच्या जपानी मदतीमुळे विनासायास त्या भल्यामोठ्या विमानतळाबाहेर आलो तेव्हा रात्रीचे दहा वाजले होते. आमचे मित्र श्री.अरुण रानडे यांच्याबरोबर टॅक्सीने त्यांच्या घरी कोबे इथे जायचे होते.

त्या मोठ्या टॅक्सीच्या चारही बाजूंच्या स्वच्छ काचांमधून बाहेरची नवी दुनिया न्याहाळत चाललो होतो. एकावर एक असलेले चार-पाच एक्सप्रेस हायवे झाडांच्या, फुलांच्या, दिव्यांच्या आराशीने नटले होते. रस्त्याच्या दोन्ही बाजूला सारख्या आकाराच्या दहा मजली इमारती होत्या. त्यांच्या पॅसेजमध्ये एकसारखे, एकाखाली एक सुंदर दिवे लागले होते. असं वाटत होतं की, एखाद्या जलपरीने लांबच लांब रस्त्यांची पाच पेडी वेणी घातली आहे. त्यावर नाना रंगांच्या पानाफुलांचा गजरा माळला आहे. दोन्ही बाजूंच्या दिव्यांच्या माळांचे मोत्याचे घोस केसांना बांधले आहेत. कंसाई ते कोबे हा शंभर मैलांचा, सव्वा तासाचा प्रवास रस्त्यात एकही खड्डा नसल्याने अलगद घरंगळल्यासारखा झाला.

दुसऱ्या दिवशी सकाळी आवरून निघालो. अनघा व अरुण रानडे यांचे कोबेमधले घर एका डोंगराच्या पायथ्याशी पण छोट्याशा टेकडीवजा उंचवट्यावर होते. तिथून रेल्वे व बस स्टेशन जवळपासच होते. आम्ही आसपासची दुकाने, घरे,  बगीचे न्याहाळत बसस्टॅंडवर पोहोचलो. कोबे हिंडण्यासाठी बसचा दिवसभराचा पास काढला. बसने एका मध्यवर्ती ठिकाणी उतरून दाईमारू नावाचे चकाचक भव्य शॉपिंग मॉल तिथल्या वस्तूंच्या किमतींचे लेबल पाहून फक्त डोळ्यांनी पाहिले. नंतर दुसऱ्या बसने मेरीकॉन पार्कला गेलो. बरोबर आणलेले दुपारचे जेवण घेऊन पार्कमध्ये ठेवलेली चारशे वर्षांची जुनी भव्य बोट पाहिली. संध्याकाळी पाच वाजताच इथे काळोख पडायला लागतो. समुद्रावर गेलो. तिथून कोबे टॉवर व समुद्राच्या आत उभारलेले सप्ततारांकित ओरिएंटल हॉटेल चमचमतांना दिसत होते. नकाशावरून मार्ग काढत इकॉल या हॉटेलच्या अठराव्या मजल्यावर जाऊन तिथून रात्रीचे लखलखणारे कोबे शहर, कोबे पोर्ट ,कोबे टॉवर पाहिले. त्यामागील डोंगरांची रांग मुद्दामहून वृक्ष लागवड करून हिरवीगार केली होती. त्या पार्श्वभूमीवर हे सारे दृश्य विलोभनीय वाटत होते.

आज रविवार.क्योटो इथे जायचे होते. मुंबईहून येतानाच आम्ही सात दिवसांचा जपानचा रेल्वे पास घेऊन आलो होतो. भारतीय रुपयात पैसे देऊन हा पास मुंबईत ट्रॅव्हल कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया, चर्चगेट इथे मिळतो. ही सोय फार छान आहे. जेव्हा आपण जपान रेल्वेने पहिला प्रवास करू त्यादिवशी हा पास तिथल्या स्टेशनवर एंडॉर्स करून घ्यायचा. त्या दिवसापासून सात दिवस हा पास जपान रेल्वे, बुलेट ट्रेन व जपान रेल्वेच्या बस कंपनीच्या बसेसनासुद्धा चालतो. आज बुलेट ट्रेनचा पहिला प्रवास आम्हाला घडणार होता. घरापासून जवळच असलेल्या शिनकोबे या बुलेट ट्रेनच्या स्टेशनवर पोहोचलो. रेल्वे पास दाखवून क्योटोच्या प्रवासाची स्लीप घेतली. स्टेशनवर बुलेट ट्रेन सटासट येत जात होत्या. आपल्याला दिलेल्या कुपनवर गाडीची वेळ व डब्याचा क्रमांक दिलेला असतो.तो क्रमांक प्लॅटफॉर्मवर जिथे लिहिलेला असेल तिथे उभे राहण्याची खूण केलेली असते. तिथे आपण सिंगल क्यू करून उभे राहायचे. आपल्या डब्याचा दरवाजा बरोबर तिथेच येतो. दरवाजा उघडल्यावर प्रथम सारी उतरणारी माणसे शांतपणे एकेरी ओळीतच उतरतात. तसेच आपण नंतर चढायचे व आपल्या सीट नंबरप्रमाणे  बसायचे. नो हल्लागुल्ला! गार्ड प्रत्येक स्टेशनला खाली उतरून प्रवासी चढल्याची खात्री करून घेऊन मगच ऑटोमॅटिक बंद होणारे दरवाजे एका बटनाने लावतो. नंतर शिट्टी देउन, ‘ सिग्नल पाहिला’ याची खूण करून गाडी सुरू करण्याची सूचना ड्रायव्हरला देतो. सारे इतक्या शिस्तीत, झटपट व शांतपणे होते की आपणही अवाक होऊन सारे पाहात त्यांच्यासारखेच वागायला शिकतो. या सर्व ट्रेन्समधील सीट्स आपण ज्या दिशेने प्रवास करणार त्या दिशेकडे वळविण्याची सहज सुंदर सोय आहे. ताशी २०० किलोमीटरहून अधिक वेगाने धावणाऱ्या या बुलेट ट्रेनचा प्रवास म्हणजे एक चित्तथरारक अनुभव होता.( या गतीने मुंबईहून पुणे एका तासाहून कमी वेळात येईल.) तिकीट चेक करायला आलेला टी.सी. असो अथवा ट्रॉलीवरून पदार्थ विकणारी प्रौढा असो, डब्यात येताना व डब्याबाहेर जाताना दरवाजा बंद करायचा आधी कमरेत वाकून प्रवाशांना नमस्कार केल्याशिवाय बाहेर पडत नाहीत.

जपान भाग १ समाप्त

© सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

जोगेश्वरी पूर्व, मुंबई

9987151890

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मी प्रवासिनी ☆ मी प्रवासिनी क्रमांक 32 – भाग-4 – साद उत्तराखंडाची ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆

सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

☆ मी प्रवासिनी क्रमांक 32 – भाग-4 ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆ 

✈️ साद उत्तराखंडाची  ✈️

केदारनाथहून जोशीमठ या ( त्या वेळेच्या )रम्य ठिकाणी मुक्काम केला. इथे श्री लक्ष्मी नृसिंहाचे सुंदर देऊळ आहे. आम्हाला नेमका नृसिंह जयंतीच्या दिवशी दर्शनाचा लाभ झाला या योगायोगाचे  आश्चर्य वाटले व आनंद झाला. जोशीमठहून एक रस्ता व्हॅली ऑफ फ्लॉवर्सला जातो. गढवाल हिमालयातील ही विविध फुलांची जादूई दुनिया ऑगस्ट महिन्यात बघायला मिळते. लक्ष्मणप्रयाग किंवा गोविंदघाट या नावाने ओळखल्या जाणाऱ्या मार्गावरून गेलं की घांगरिया इथे मुक्काम करावा लागतो. नंतर खड्या चढणीचा रस्ता आहे. वाटेत पोपटी कुरणं आहेत. हिमधवल शिखरांच्या पार्श्वभूमीवर निळी, पिवळी, गुलाबी, जांभळी, पांढरी अशा असंख्य रंगांची, नाना आकारांची अगणित फुलं मुक्तपणे फुलत असतात. घांगरीयाहून हेमकुंड इथे जाता येते. इथे गुरुद्वारा आहे. मोठा तलाव आहे. आणि अनेकानेक  रंगांची, आकारांची फुले आहेत. लक्षावधी शिख यात्रेकरू व इतर अनेक हौशी साहसी प्रवासी, फोटोग्राफर ,निसर्गप्रेमी ,वनस्पती शास्त्रज्ञ या दोन्ही ठिकाणांना आवर्जून भेट देतात.

जोशीमठ इथून रुद्रप्रयागवरून बद्रीनाथचा रस्ता आहे. रुद्रप्रयागला धवलशुभ्र खळाळती अलकनंदा आणि संथ निळसर प्रवाहाची मंदाकिनी यांचा सुंदर संगम आहे. बद्रीनाथचा रस्ता डोंगर कडेने वळणे घेत जाणारा, दऱ्याखोऱ्यांचा आणि हिमशिखरांचाच आहे. आत्तापर्यंत अशा प्रवासाची डोळ्यांना, मनाला सवय झाली असली तरी बद्रीनाथचा प्रवास अवघड, छाती दडपून टाकणारा आहे. अलकनंदा नदीच्या काठावरील बद्रीनाथाचे म्हणजे श्रीविष्णूचे मंदिर जवळ जवळ अकरा हजार फुटांवर आहे. आदि शंकराचार्यांनी नवव्या शतकात या मंदिराची स्थापना केली असे  सांगितले जाते. धो धो वाहणाऱ्या अलकनंदेच्या प्रवाहाजवळच अतिशय गरम वाफाळलेल्या पाण्याचा स्रोत एका कुंडात पडत असतो. मंदिरात काळ्या पाषाणाची श्रीविष्णूंची सुबक मूर्ती आहे. तसेच कुबेर, गणेश, लक्ष्मी, नरनारायण अशा मूर्ती आहेत. मंदिराचे शिखर पॅगोडा पद्धतीचे आहे व ते सोन्याच्या पत्र्यांनी मढविलेले आहे. मूर्तीच्या दोन हातात शंखचक्र आहे व दोन हात जोडलेल्या स्थितीत आहेत. मूर्तीला सुवर्णाचा मुखवटा आहे. डोक्यावर रत्नजडित मुकुट आहे. या मंदिराचे एक वैशिष्ट्य म्हणजे हे मंदिर लाकडी असून दरवर्षी मे महिन्यात त्याला रंगरंगोटी करतात. नवव्या शतकात आदि शंकराचार्यांनी बांधलेल्या या मंदिराचे तेराव्या शतकात गढवालच्या महाराजांनी पुनर्निर्माण केले. या मंदिराच्या शिखरावरचे सोन्याचे पत्रे इंदूरच्या राणी अहिल्याबाई होळकर यांनी चढविले असे सांगितले जाते.

आम्ही पहाटे उठून लॉजवर आणून दिलेल्या बदलीभर वाफाळत्या पाण्याने स्नान करून मंदिराकडे निघालो. बाहेर कडाक्याची थंडी होती. थोडे अंतर चाललो आणि अवाक् होऊन उभे राहिलो. निरभ्र आकाशाचा घुमट असंख्य चांदण्यांनी झळाळत होता. पर्वतांचे कडे तपश्चर्या करणाऱ्या सनातन ऋषींसारखे भासत होते. त्यांच्या हिमशिखरांवरून चांदणे ओघळत होते. अवकाशाच्या गाभाऱ्यात असीम शांतता होती. नकळत हात जोडले गेले. डोळ्यातून पाणी वाहू लागले. आत्तापर्यंतच्या प्रवासाची दगदग,श्रम साऱ्याचे सार्थक झाल्यासारखे वाटले. मनात आलं की देव खरंच मंदिरात आहे की निसर्गाच्या या अनाघ्रात, अवर्णनीय, अद्भुत सौंदर्यामध्ये आहे?

मंदिरात गुरुजींनी हातावर लावलेल्या चंदनाचा गंध अंतर्यामी सुखावून गेला. शेषावर शयन करणाऱ्या, शांताकार आणि विश्वाचा आधार असणाऱ्या पद्मनाभ श्री विष्णूंना हात जोडताना असं वाटलं की,

           या अमूर्ताची संगत सोबत

          जीवनगाण्याला लाभू दे

          गंगाप्रवाहात उजळलेली श्रद्धेची ज्योत

          आमच्या मनात अखंड तेवू दे

हा आमचा प्रवास जवळजवळ वीस बावीस वर्षांपूर्वीचा! त्यानंतर दहा वर्षांनी हे व माझे एक मेहुणे पुन्हा चारधाम यात्रेला गेले. माझा योग नव्हता. परत आल्यावर यांचे पहिले वाक्य होते, ‘आपण जो चारधामचा पहिला प्रवास केला तोच तुझ्या डोळ्यापुढे ठेव. आता सारे फार बदलले आहे. बाजारू झाले आहे. प्लास्टिकचा भयानक कचरा, वाढती अस्वच्छता, कर्णकटू संगीत, व्हिडिओ फिल्म, वेड्यावाकड्या, कुठेही, कशाही उगवलेल्या इमारती यांनी हे सारे वैभव विद्रूप केले आहे’. त्यावेळी कल्पना आली नाही की ही तर साऱ्या विनाशाची नांदी आहे.

यानंतर दहा वर्षांनी म्हणजे २०१३ मध्ये केदारनाथला महाप्रलय झाला. झुळझुळणाऱ्या अवखळ मंदाकिनीने उग्ररूप धारण केले. हजारो माणसे मृत्युमुखी पडली. शेकडो माणसे, जनावरे वाहून गेली. नियमांना धुडकावून बांधलेल्या मोठमोठ्या इमारती पत्त्याच्या बंगल्याप्रमाणे कोसळल्या, जमीनदोस्त झाल्या. मंदाकिनीच्या प्रकोपात सोनप्रयाग, गौरीकुंड, रामबाडा इत्यादी अनेक ठिकाणांचे नामोनिशाण उरले नाही. अनेकांनी, विशेषतः लष्करातील जवानांनी प्राणांची बाजी लावून अनेकांना या महाप्रलयातून सुखरूप बाहेर काढले.

मंदाकिनी अशी का कोपली? या प्रश्नाच्या उत्तरासाठी स्वतःकडेच बोट दाखवावे लागेल. मानवाचा हव्यास संपत नाही. निसर्गाला ओरबाडणे थांबत नाही. शेकडो वर्षे उभे असलेले, जमिनीची धूप थांबविणारे ताठ वृक्ष निर्दयपणे तोडताना हात कचरत नाहीत .निसर्गनियमांना धाब्यावर बसून नदीकाठांवर इमारतींचे आक्रमण झाले. त्यात प्लास्टिकचा कचरा, कर्णकर्कश आवाज, अस्वच्छता यांची भर पडली. किती सोसावे निसर्गाने?

उत्तराखंडाला उत्तरांचल असंही म्हणतात. निसर्गाने आपल्याला बहाल केलेले हे अनमोल दैवी उत्तरीय आहे. या पदराने भारताचे परकीय आक्रमणांपासून संरक्षण केले आहे. तीव्र थंडीपासून बचाव केला आहे. नैसर्गिक साधनसंपत्तीचा खजिना आपल्याला बहाल केला आहे. उत्तरांचलचे प्राणपणाने संरक्षण करणे हे आपले उत्तरदायित्व आहे.

जलप्रलयानंतर असे वाचले होते की, एक प्रचंड मोठी शिळा गडगडत येऊन केदारनाथ मंदिराच्या पाठीशी अशी टेकून उभी राहिली की केदारनाथ मंदिराचा चिरासुद्धा हलला नाही. मंदिर आहे तिथेच तसेच आहे. फक्त तिथे आपल्याला पोहोचवणारी वाट, तो मार्ग हरवला आहे. नव्हे, नव्हे. आपल्या करंटेपणाने आपणच तो मार्ग हरवून बसलो आहोत .सर्वसाक्षी ‘तो’ म्हणतो आहे,’ तुम्हा मानवांच्या कल्याणासाठी ‘मी’ इथे जागा आहे. तुम्ही कधी जागृत होणार?

 – भाग ४ व उत्तराखंड समाप्त –

© सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

जोगेश्वरी पूर्व, मुंबई

9987151890

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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