सुरेश पटवा
((श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। अभी हाल ही में नोशन प्रेस द्वारा आपकी पुस्तक नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) प्रकाशित हुई है। इसके पूर्व आपकी तीन पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी एवं पंचमढ़ी की कहानी को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है। आजकल वे हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग की फिल्मों एवं कलाकारों पर शोधपूर्ण पुस्तक लिख रहे हैं जो निश्चित ही भविष्य में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज साबित होगा। हमारे आग्रह पर उन्होंने साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मोंके स्वर्णिम युग के कलाकार के माध्यम से उन कलाकारों की जानकारी हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना स्वीकार किया है जो आज भी सिनेमा के रुपहले परदे पर हमारा मनोरंजन कर रहे हैं । आज प्रस्तुत है हिंदी फ़िल्मों के स्वर्णयुग के अभिनेता : अशोक कुमार ….1 पर आलेख ।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्म के स्वर्णिम युग के कलाकार # 4 ☆
☆ हिंदी फ़िल्मों के स्वर्णयुग के अभिनेता : अशोक कुमार ….1 ☆
अशोक कुमार (1911-2001) हिन्दी फ़िल्मों के एक अभिनेता थे। हिन्दी फ़िल्म इंडस्ट्री में दादा मुनि के नाम से मशहूर अशोक कुमार उर्फ़ कुमुद लाल गांगुली का जन्म एक मध्यम वर्गीय बंगाली परिवार में 13 अक्टूबर 1911 को हुआ था। इनके पिता कुंजलाल गांगुली पेशे से वकील थे। उनके तीन पुत्र कुमुद ( अशोक कुमार), आभास (किशोर कुमार) और कल्याण (अनूप कुमार) एवं एक पुत्री सती देवी थी। अशोक कुमार ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा मध्यप्रदेश के खंडवा शहर में प्राप्त की, बाद मे स्नातक की शिक्षा इलाहाबाद विश्वविद्यालय से पूरी की लेकिन क़ानून की परीक्षा में फ़ेल हो गए तो बहन के पास बम्बई पहुँच गए। उनका विवाह बंगाली लड़की शोभा से कलकत्ता में हुआ था। इस दौरान उनकी दोस्ती शशधर मुखर्जी से हुई। भाई बहनो में सबसे बड़े अशोक कुमार की बचपन से ही फ़िल्मों मे काम करके शोहरत की बुंलदियो पर पहुंचने की चाहत थी, लेकिन वह अभिनेता नहीं बल्कि निर्देशक बनना चाहते थे। अपनी दोस्ती को रिश्ते मे बदलते हुए अशोक कुमार ने अपनी इकलौती बहन की शादी शशधर मुखर्जी से कर दी, जो उस समय बांबे टॉकीज में काम कर रहे थे। सन 1934 मे न्यू थिएटर कलकत्ता मे बतौर लेबोरेट्री असिस्टेंट काम कर रहे अशोक कुमार को उनके बहनोई शशधर मुखर्जी ने बाम्बे टॉकीज में अपने पास बुला लिया।
जीवन नैया’ की शूटिंग के दौरान हिमांशु राय की बीवी यानी फिल्म की हीरोइन देविका रानी हीरो नजमुल हसन के साथ भाग गईं. बाद में दोनों में झगड़ा हो गया तो लौट आईं. राय ने अशोक कुमार से हीरो बनने के लिए कहा. लेकिन वे नहीं माने. बहुत समझाया और राय ने कहा कि वे ही उन्हें इस मुसीबत से निकाल सकते हैं. उन्हें यकीन दिलाया कि उनके यहां अच्छे परिवारों वाले, शिक्षित लोग ही एक्टर होते हैं तब अशोक माने और ये उनकी डेब्यू फिल्म साबित हुई.
जब अशोक हीरो बने तो उनके घर खंडवा में कोलाहल मच गया. उनकी तय शादी टूट गई. मां रोने लगीं. उनके पिता नागपुर गए. वहां अपने कॉलेज के दोस्त रवि शंकर शुक्ला से मिले जो तब मुख्य मंत्री थे. उन्होंने स्थिति बताई और अपने बेटे को कोई नौकरी देने की बात कही. शुक्ला ने दो नौकरियों के ऑफर लेटर दिए. एक था आय कर विभाग के अध्यक्ष का पद जिसकी महीने की तनख्वाह 250 रुपये थी.
पिता अशोक से मिले और एक्टिंग छोड़ने को कहा. अशोक हिमांशु राय के पास गए और उन्हें नौकरी के कागज़ दिखाए और कहा कि उनके पिता बाहर खड़े हैं और उनसे बात करना चाहते हैं. राय ने अकेले में उनके पिता से बात की. थोड़ी देर बाद उनके पिता उनके पास आए और नौकरी के कागज़ फाड़ दिए. उन्होंने अशोक से कहा, “वो (हिमांशु राय) कहते हैं कि अगर तुम यही काम करोगे तो बहुत ऊंचे मुकाम तक पहुंचोगे. तो मुझे लगता है तुम्हें यहीं रुकना चाहिए.”
1936 मे बांबे टॉकीज की फ़िल्म (जीवन नैया) के निर्माण के दौरान फ़िल्म के अभिनेता नजम उल हसन ने इसी कारणवश फ़िल्म में काम करने से मना कर दिया। इस विकट परिस्थिति में बांबे टॉकीज के मालिक हिमांशु राय का ध्यान अशोक कुमार पर गया और उन्होंने उनसे फ़िल्म में बतौर अभिनेता काम करने की पेशकश की। इसके साथ ही ‘जीवन नैया’ से अशोक कुमार का बतौर अभिनेता फ़िल्मी सफर शुरू हो गया।
उन्होंने न तो थियेटर किया था, न एक्टिंग का कोई अनुभव था. ऐसे में अशोक कुमार के अभिनय में पारसी थियेटर का लाउड प्रभाव नहीं था. यही उनकी खासियत बनी. वे हिंदी सिनेमा के पहले सुपरस्टार थे और उनकी एक्टिंग एकदम नेचुरल थी. जो आज तक एक्टर्स हासिल करने की कोशिश करते हैं. इसके अलावा हिमांशु राय और देविका रानी ने भी उन्हें सबकुछ सिखाया. वे उन्हें अंग्रेजी फिल्में देखने के लिए भेजते थे. हम्प्री बोगार्ट जैसे विदेशी एक्टर्स को देखकर और उनकी स्टाइल व अपने विश्लेषण से अशोक ने अभिनय सीखा.
सुबह का नाश्ता वे ठाठ से करते थे. उनका कहना था कि एक्टर लोग पूरे दिन कड़ी मेहनत करते हैं और ब्रेकफास्ट दिन का सबसे महत्वपूर्ण भोजन है. इसी से पूरे दिन दृश्यों को करते हुए उनमें ऊर्जा बनी रहती थी.
1937 मे अशोक कुमार को बांबे टॉकीज के बैनर तले प्रदर्शित फ़िल्म ‘अछूत कन्या’ में काम करने का मौका मिला। इस फ़िल्म में जीवन नैया के बाद ‘देविका रानी’ फिर से उनकी नायिका बनी। फ़िल्म मे अशोक कुमार एक ब्राह्मण युवक के किरदार मे थे, जिन्हें एक अछूत लड़की से प्यार हो जाता है। सामाजिक पृष्ठभूमि पर बनी यह फ़िल्म काफी पसंद की गई और इसके साथ ही अशोक कुमार बतौर अभिनेता फ़िल्म इंडस्ट्री मे अपनी पहचान बनाने में क़ामयाब हो गए। इसके बाद देविका रानी के साथ अशोक कुमार ने कई फ़िल्मों में काम किया। इन फ़िल्मों में 1937 मे प्रदर्शित फ़िल्म इज्जत के अलावा फ़िल्म सावित्री (1938) और निर्मला (1938) जैसी फ़िल्में शामिल हैं। इन फ़िल्मों को दर्शको ने पसंद तो किया, लेकिन कामयाबी का श्रेय बजाए अशोक कुमार के फ़िल्म की अभिनेत्री देविका रानी को दिया गया।
इसके बाद अशोक कुमार ने 1939 मे प्रदर्शित फ़िल्म कंगन, बंधन 1940 और झूला 1941 में अभिनेत्री लीला चिटनिश के साथ काम किया। इन फ़िल्मों मे उनके अभिनय को दर्शको द्वारा काफी सराहा गया, जिसके बाद अशोक कुमार बतौर अभिनेता फ़िल्म इंडस्ट्री मे स्थापित हो गए।
© श्री सुरेश पटवा
भोपाल, मध्य प्रदेश