हिंदी साहित्य – फिल्म/रंगमंच ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग के कलाकार # 5 – अशोक कुमार ….2 ☆ श्री सुरेश पटवा

सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।  अभी हाल ही में नोशन प्रेस द्वारा आपकी पुस्तक नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास)  प्रकाशित हुई है। इसके पूर्व आपकी तीन पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी एवं पंचमढ़ी की कहानी को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है।  आजकल वे  हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग  की फिल्मों एवं कलाकारों पर शोधपूर्ण पुस्तक लिख रहे हैं जो निश्चित ही भविष्य में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज साबित होगा। हमारे आग्रह पर उन्होंने  साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मोंके स्वर्णिम युग के कलाकार  के माध्यम से उन कलाकारों की जानकारी हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा  करना स्वीकार किया है  जो आज भी सिनेमा के रुपहले परदे पर हमारा मनोरंजन कर रहे हैं । आज प्रस्तुत है  हिंदी फ़िल्मों के स्वर्णयुग के अभिनेता : अशोक कुमार ….2 पर आलेख ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्म के स्वर्णिम युग के कलाकार # 5 ☆ 

☆ हिंदी फ़िल्मों के स्वर्णयुग के अभिनेता : अशोक कुमार ….2 ☆ 

अपने समय में (1940 के बाद के वर्षों में) अशोक कुमार का क्रेज़ ऐसा था कि वे कभी-कभार ही घर से निकलते थे और जब भी निकलते तो भारी भीड़ जमा हो जाती और ट्रैफिक रुक जाता था. भीड़ दूर करने के लिए कभी-कभी पुलिस को लाठियां चलानी पड़ती थीं. रॉयल फैमिलीज़ और बड़े घरानों की महिलाएं उन पर फिदा थीं और लाइन मारती थीं.

अशोक कुमार को 1943 मे बांबे टाकीज की एक अन्य फ़िल्म किस्मत में काम करने का मौका मिला। इस फ़िल्म में अशोक कुमार ने फ़िल्म इंडस्ट्री के अभिनेता की पांरपरिक छवि से बाहर निकल कर अपनी एक अलग छवि बनाई। इस फ़िल्म मे उन्होंने पहली बार एंटी हीरो की भूमिका की और अपनी इस भूमिका के जरिए भी वह दर्शको का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने मे सफल रहे। किस्मत ने बॉक्स आफिस के सारे रिकार्ड तोड़ते हुए कोलकाता के चित्रा सिनेमा हॉल में लगभग चार वर्ष तक लगातार चलने का रिकार्ड बनाया।

बांबे टॉकीज के मालिक हिमांशु राय की मौत के बाद 1943 में अशोक कुमार बॉम्बे टाकीज को छोड़ फ़िल्मिस्तान स्टूडियों चले गए। वर्ष 1947 मे देविका रानी के बाम्बे टॉकीज छोड़ देने के बाद अशोक कुमार ने बतौर प्रोडक्शन चीफ बाम्बे टाकीज के बैनर तले मशाल, जिद्दी और मजबूर जैसी कई फ़िल्मों का निर्माण किया। इसी दौरान बॉम्बे टॉकीज के बैनर तले उन्होंने 1949 में प्रदर्शित सुपरहिट फ़िल्म महल का निर्माण किया। उस फ़िल्म की सफलता ने अभिनेत्री मधुबाला के साथ-साथ पार्श्वगायिका लता मंगेश्कर को भी शोहरत की बुंलदियों पर पहुंचा दिया था।

पचास के दशक मे बाम्बे टॉकीज से अलग होने के बाद उन्होंने अपनी खुद की कंपनी शुरू की और जूपिटर थिएटर को भी खरीद लिया। अशोक कुमार प्रोडक्शन के बैनर तले उन्होंने सबसे पहली फ़िल्म समाज का निर्माण किया, लेकिन यह फ़िल्म बॉक्स आफिस पर बुरी तरह असफल रही। इसके बाद उन्होनें अपने बैनर तले फ़िल्म परिणीता भी बनाई। लगभग तीन वर्ष के बाद फ़िल्म निर्माण क्षेत्र में घाटा होने के कारण उन्होंने अपनी प्रोडक्शन कंपनी बंद कर दी। 1953 मे प्रदर्शित फ़िल्म परिणीता के निर्माण के दौरान फ़िल्म के निर्देशक बिमल राय के साथ उनकी अनबन हो गई थी। जिसके कारण उन्होंने बिमल राय के साथ काम करना बंद कर दिया, लेकिन अभिनेत्री नूतन के कहने पर अशोक कुमार ने एक बार फिर से बिमल रॉय के साथ 1963 मे प्रदर्शित फ़िल्म बंदिनी मे काम किया । यह फ़िल्म हिन्दी फ़िल्म के इतिहास में आज भी क्लासिक फ़िल्मों में शुमार की जाती है। 1967 मे प्रदर्शित फ़िल्म ज्वैलथीफ में अशोक कुमार के अभिनय का नया रूप दर्शको को देखने को मिला। इस फ़िल्म में वह अपने सिने कैरियर मे पहली बार खलनायक की भूमिका मे दिखाई दिए। इस फ़िल्म के जरिए भी उन्होंने दर्शको का भरपूर मनोरंजन किया। अभिनय मे आई एकरुपता से बचने और स्वंय को चरित्र अभिनेता के रूप मे भी स्थापित करने के लिए अशोक कुमार ने खुद को विभिन्न भूमिकाओं में पेश किया। इनमें 1968 मे प्रदर्शित फ़िल्म आर्शीवाद खास तौर पर उल्लेखनीय है। फ़िल्म में बेमिसाल अभिनय के लिए उनको सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इस फ़िल्म मे उनका गाया गाना रेल गाड़ी-रेल गाड़ी बच्चों के बीच काफी लोकप्रिय हुआ।

1984 मे दूरदर्शन के इतिहास के पहले शोप ओपेरा हमलोग में वह सीरियल के सूत्रधार की भूमिका मे दिखाई दिए और छोटे पर्दे पर भी उन्होंने दर्शको का भरपूर मनोरंजन किया। दूरदर्शन के लिए ही दादामुनि ने भीमभवानी, बहादुर शाह जफर और उजाले की ओर जैसे सीरियल मे भी अपने अभिनय का जौहर दिखाया।

अशोक कुमार को दो बार सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के फ़िल्म फेयर पुरस्कार से भी नवाजा गया। पहली बार राखी 1962 और दूसरी बार आर्शीवाद 1968, इसके अलावा 1966 मे प्रदर्शित फ़िल्म अफसाना के लिए वह सहायक अभिनेता के फ़िल्म फेयर अवार्ड से भी नवाजे गए। दादामुनि को हिन्दी सिनेमा के क्षेत्र में किए गए उत्कृष्ठ सहयोग के लिए 1988 में हिन्दी सिनेमा के सर्वोच्च सम्मान दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उन्हें 1999 में पद्म भूषण और 2001 में  उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा अवध सम्मान प्रदान किया गया। अशोक कुमार भारतीय सिनेमा के एक प्रमुख अभिनेता रहे हैं। प्रसिद्ध गायक किशोर कुमार भी आपके ही सगे भाई थे। लगभग छह दशक तक अपने बेमिसाल अभिनय से दर्शकों के दिल पर राज करने वाले अशोक कुमार का निधन 10 दिसम्बर 2001 को हुआ।

 

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

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हिंदी साहित्य – फिल्म/रंगमंच ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग के कलाकार # 4 – अशोक कुमार ….1 ☆ श्री सुरेश पटवा

सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।  अभी हाल ही में नोशन प्रेस द्वारा आपकी पुस्तक नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास)  प्रकाशित हुई है। इसके पूर्व आपकी तीन पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी एवं पंचमढ़ी की कहानी को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है।  आजकल वे  हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग  की फिल्मों एवं कलाकारों पर शोधपूर्ण पुस्तक लिख रहे हैं जो निश्चित ही भविष्य में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज साबित होगा। हमारे आग्रह पर उन्होंने  साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मोंके स्वर्णिम युग के कलाकार  के माध्यम से उन कलाकारों की जानकारी हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा  करना स्वीकार किया है  जो आज भी सिनेमा के रुपहले परदे पर हमारा मनोरंजन कर रहे हैं । आज प्रस्तुत है  हिंदी फ़िल्मों के स्वर्णयुग के अभिनेता : अशोक कुमार ….1 पर आलेख ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्म के स्वर्णिम युग के कलाकार # 4 ☆ 

☆ हिंदी फ़िल्मों के स्वर्णयुग के अभिनेता : अशोक कुमार ….1 ☆ 

अशोक कुमार (1911-2001) हिन्दी फ़िल्मों के एक अभिनेता थे। हिन्दी फ़िल्म इंडस्ट्री में दादा मुनि के नाम से मशहूर अशोक कुमार उर्फ़ कुमुद लाल गांगुली का जन्म एक मध्यम वर्गीय बंगाली परिवार में 13 अक्टूबर 1911 को हुआ था। इनके पिता कुंजलाल गांगुली पेशे से वकील थे। उनके तीन पुत्र कुमुद ( अशोक कुमार), आभास (किशोर कुमार) और कल्याण (अनूप कुमार) एवं एक पुत्री सती देवी थी। अशोक कुमार ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा मध्यप्रदेश के खंडवा शहर में प्राप्त की, बाद मे स्नातक की शिक्षा इलाहाबाद विश्वविद्यालय से पूरी की लेकिन क़ानून की परीक्षा में फ़ेल हो गए तो बहन के पास बम्बई पहुँच गए। उनका विवाह बंगाली लड़की शोभा से कलकत्ता में हुआ था। इस दौरान उनकी दोस्ती शशधर मुखर्जी से हुई। भाई बहनो में सबसे बड़े अशोक कुमार की बचपन से ही फ़िल्मों मे काम करके शोहरत की बुंलदियो पर पहुंचने की चाहत थी, लेकिन वह अभिनेता नहीं बल्कि निर्देशक बनना चाहते थे। अपनी दोस्ती को रिश्ते मे बदलते हुए अशोक कुमार ने अपनी इकलौती बहन की शादी शशधर मुखर्जी से कर दी, जो उस समय  बांबे टॉकीज में काम कर रहे थे। सन 1934 मे न्यू थिएटर कलकत्ता मे बतौर लेबोरेट्री असिस्टेंट काम कर रहे अशोक कुमार को उनके बहनोई शशधर मुखर्जी ने बाम्बे टॉकीज में अपने पास बुला लिया।

जीवन नैया’ की शूटिंग के दौरान हिमांशु राय की बीवी यानी फिल्म की हीरोइन देविका रानी हीरो नजमुल हसन के साथ भाग गईं. बाद में दोनों में झगड़ा हो गया तो लौट आईं. राय ने अशोक कुमार से हीरो बनने के लिए कहा. लेकिन वे नहीं माने. बहुत समझाया और राय ने कहा कि वे ही उन्हें इस मुसीबत से निकाल सकते हैं. उन्हें यकीन दिलाया कि उनके यहां अच्छे परिवारों वाले, शिक्षित लोग ही एक्टर होते हैं तब अशोक माने और ये उनकी डेब्यू फिल्म साबित हुई.

जब अशोक हीरो बने तो उनके घर खंडवा में कोलाहल मच गया. उनकी तय शादी टूट गई. मां रोने लगीं. उनके पिता नागपुर गए. वहां अपने कॉलेज के दोस्त रवि शंकर शुक्ला से मिले जो तब मुख्य मंत्री थे. उन्होंने स्थिति बताई और अपने बेटे को कोई नौकरी देने की बात कही. शुक्ला ने दो नौकरियों के ऑफर लेटर दिए. एक था आय कर विभाग के अध्यक्ष का पद जिसकी महीने की तनख्वाह 250 रुपये थी.

पिता अशोक से मिले और एक्टिंग छोड़ने को कहा. अशोक हिमांशु राय के पास गए और उन्हें नौकरी के कागज़ दिखाए और कहा कि उनके पिता बाहर खड़े हैं और उनसे बात करना चाहते हैं. राय ने अकेले में उनके पिता से बात की. थोड़ी देर बाद उनके पिता उनके पास आए और नौकरी के कागज़ फाड़ दिए. उन्होंने अशोक से कहा, “वो (हिमांशु राय) कहते हैं कि अगर तुम यही काम करोगे तो बहुत ऊंचे मुकाम तक पहुंचोगे. तो मुझे लगता है तुम्हें यहीं रुकना चाहिए.”

1936 मे बांबे टॉकीज की फ़िल्म (जीवन नैया) के निर्माण के दौरान फ़िल्म के अभिनेता नजम उल हसन ने इसी कारणवश फ़िल्म में काम करने से मना कर दिया। इस विकट परिस्थिति में बांबे टॉकीज के मालिक हिमांशु राय का ध्यान अशोक कुमार पर गया और उन्होंने उनसे फ़िल्म में बतौर अभिनेता काम करने की पेशकश की। इसके साथ ही ‘जीवन नैया’ से अशोक कुमार का बतौर अभिनेता फ़िल्मी सफर शुरू हो गया।

उन्होंने न तो थियेटर किया था, न एक्टिंग का कोई अनुभव था. ऐसे में अशोक कुमार के अभिनय में पारसी थियेटर का लाउड प्रभाव नहीं था. यही उनकी खासियत बनी. वे हिंदी सिनेमा के पहले सुपरस्टार थे और उनकी एक्टिंग एकदम नेचुरल थी. जो आज तक एक्टर्स हासिल करने की कोशिश करते हैं. इसके अलावा हिमांशु राय और देविका रानी ने भी उन्हें सबकुछ सिखाया. वे उन्हें अंग्रेजी फिल्में देखने के लिए भेजते थे. हम्प्री बोगार्ट जैसे विदेशी एक्टर्स को देखकर और उनकी स्टाइल व अपने विश्लेषण से अशोक ने अभिनय सीखा.

सुबह का नाश्ता वे ठाठ से करते थे. उनका कहना था कि एक्टर लोग पूरे दिन कड़ी मेहनत करते हैं और ब्रेकफास्ट दिन का सबसे महत्वपूर्ण भोजन है. इसी से पूरे दिन दृश्यों को करते हुए उनमें ऊर्जा बनी रहती थी.

1937 मे अशोक कुमार को बांबे टॉकीज के बैनर तले प्रदर्शित फ़िल्म ‘अछूत कन्या’ में काम करने का मौका मिला। इस फ़िल्म में जीवन नैया के बाद ‘देविका रानी’ फिर से उनकी नायिका बनी। फ़िल्म मे अशोक कुमार एक ब्राह्मण युवक के किरदार मे थे, जिन्हें एक अछूत लड़की से प्यार हो जाता है। सामाजिक पृष्ठभूमि पर बनी यह फ़िल्म काफी पसंद की गई और इसके साथ ही अशोक कुमार बतौर अभिनेता फ़िल्म इंडस्ट्री मे अपनी पहचान बनाने में क़ामयाब हो गए। इसके बाद देविका रानी के साथ अशोक कुमार ने कई फ़िल्मों में काम किया। इन फ़िल्मों में 1937 मे प्रदर्शित फ़िल्म इज्जत के अलावा फ़िल्म सावित्री (1938) और निर्मला (1938) जैसी फ़िल्में शामिल हैं। इन फ़िल्मों को दर्शको ने पसंद तो किया, लेकिन कामयाबी का श्रेय बजाए अशोक कुमार के फ़िल्म की अभिनेत्री देविका रानी को दिया गया।

इसके बाद अशोक कुमार ने 1939 मे प्रदर्शित फ़िल्म कंगन, बंधन 1940 और झूला 1941 में अभिनेत्री लीला चिटनिश के साथ काम किया। इन फ़िल्मों मे उनके अभिनय को दर्शको द्वारा काफी सराहा गया, जिसके बाद अशोक कुमार बतौर अभिनेता फ़िल्म इंडस्ट्री मे स्थापित हो गए।

 

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

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हिंदी साहित्य – फिल्म/रंगमंच ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग के कलाकार # 3 – नज़ीर हुसैन ☆ श्री सुरेश पटवा

सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।  अभी हाल ही में नोशन प्रेस द्वारा आपकी पुस्तक नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास)  प्रकाशित हुई है। इसके पूर्व आपकी तीन पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी एवं पंचमढ़ी की कहानी को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है।  आजकल वे  हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग  की फिल्मों एवं कलाकारों पर शोधपूर्ण पुस्तक लिख रहे हैं जो निश्चित ही भविष्य में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज साबित होगा। हमारे आग्रह पर उन्होंने  साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मोंके स्वर्णिम युग के कलाकार  के माध्यम से उन कलाकारों की जानकारी हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा  करना स्वीकार किया है  जो आज भी सिनेमा के रुपहले परदे पर हमारा मनोरंजन कर रहे हैं । आज प्रस्तुत है  हिंदी फ़िल्मों के स्वर्णयुग के चरित्र अभिनेता : नज़ीर हुसैन पर आलेख ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्म के स्वर्णिम युग के कलाकार # 3☆ 

☆ हिंदी फ़िल्मों के स्वर्णयुग के चरित्र अभिनेता : नज़ीर हुसैन ☆ 

नज़ीर हुसैन भारतीय फ़िल्म उद्योग के एक नामी चरित्र अभिनेता, निर्माता, निर्देशक और पटकथा लेखक थे, जिन्होंने 500 से अधिक हिंदी फ़िल्मों में काम किया था। उनका जन्म 15 मई 1922 को ब्रिटिश इंडिया के संयुक्त प्रांत में स्थित ग़ाज़ीपुर ज़िले के उसिया गाँव में एक रेल्वे ड्राइवर शाहबजद ख़ान के घर हुआ था। वे भोजपुरी फ़िल्मों के पितामह माने जाते हैं।

उनका लालन पालन लखनऊ में हुआ था, उन्होंने कुछ समय रेल्वे में फ़ायरमेन की नौकरी भी की थी फिर ब्रिटिश आर्मी में भर्ती होकर दूसरे विश्वयुद्ध में हिस्सा लेने सिंगापुर और मलेशिया में पदस्थ रहे जहाँ उन्हें जापानी फ़ौज ने बतौर युद्धबंदी गिरफ़्तारी में रखा था। वे सुभाष चंद्र बोस के प्रभाव से आज़ाद होकर इंडीयन नेशनल आर्मी में भर्ती  होकर रंगून होते हुए कलकत्ता पहुँच गए। कलकत्ता में स्वतंत्रता संग्राम के सक्रिय कार्यकर्ता होने से उन्हें स्वतंत्रता संग्राम सेनानी का दर्जा हासिल हुआ था।

आज़ादी के उपरांत उन्हें बी एन सरकार के न्यू थिएटर में नौकरी मिल गई। उन्होंने विमल रॉय के सहायक के तौर पर काम करते हुए इंडीयन नेशनल आर्मी के अनुभवों से प्रेरित “पहला आदमी” फ़िल्म की न सिर्फ़ पटकथा लिखी अपितु उसमें काम भी किया। फ़िल्म के 1950 में प्रदर्शन के साथ ही नज़ीर हुसैन पर कामयाब कलाकार का ठप्पा लग गया और वे विमल रॉय की सभी फ़िल्मों के हिस्से बने।

दो बीघा ज़मीन, देवदास और नयादौर के बाद वे मुनीम जी फ़िल्म से देवानंद और एस डी बर्मन की टीम के हिस्से बन कर पेइंग गेस्ट से लेकर देवानंद की सभी फ़िल्मों में भूमिकाएँ अदा कीं। उन्होंने दिलीप कुमार, राजकपूर, देवानंद और राजेंद्र कुमार से लेकर राजेश खन्ना तक सभी नायकों के साथ काम किया।

राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने नज़ीर हुसैन को बुलाकर भोजपुरी भाषा में फ़िल्म बनाने की सम्भावना तलाशने को कहा। उन्होंने “गंगा मैया तोहे पियरी चढ़ईवो” “हमार संसार” और “बलम परदेशिया” नामक फ़िल्मों का निर्माण करके भोजपुरी फ़िल्मों की शुरुआत की, वे भोजपुरी फ़िल्मों के पितामह कहे जाते हैं।

 

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

 

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हिंदी साहित्य – फिल्म/रंगमंच ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग के कलाकार # 2 – के एन सिंह ☆ श्री सुरेश पटवा

सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।  अभी हाल ही में नोशन प्रेस द्वारा आपकी पुस्तक नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास)  प्रकाशित हुई है। इसके पूर्व आपकी तीन पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी एवं पंचमढ़ी की कहानी को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है।  आजकल वे  हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग  की फिल्मों एवं कलाकारों पर शोधपूर्ण पुस्तक लिख रहे हैं जो निश्चित ही भविष्य में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज साबित होगा। हमारे आग्रह पर उन्होंने  साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मोंके स्वर्णिम युग के कलाकार  के माध्यम से उन कलाकारों की जानकारी हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा  करना स्वीकार किया है  जो आज भी सिनेमा के रुपहले परदे पर हमारा मनोरंजन कर रहे हैं । आज प्रस्तुत है  हिंदी फ़िल्मों के स्वर्णयुग का खलनायक: के.एन.सिंह पर आलेख ।)

 ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्म के स्वर्णिम युग के कलाकार # 2 ☆ 

☆ हिंदी फ़िल्मों के स्वर्णयुग का खलनायक: के.एन.सिंह ☆ 

बरसात की रात (1960), वो कौन थी (1964), मेरा साया (1966), मेरे हुज़ूर (1968), दुश्मन, हाथी मेरे साथी(1971), लोफ़र, कच्चे धागे (1973) बढ़ती का नाम दाढ़ी (1974) जैसी भारतीय सिनेमा की यादगार फ़िल्मों की एक लंबी सूची है, जिनमें एक बात सामान्य है और वह है इन फ़िल्मों में के एन सिंह का अभिनय।

धीरे-धीरे के एन का मन इस नई फिल्मी दुनिया से खिन्न होने लगा। अमिताभ बच्चन स्टारर कालिया (1983) तक पहुंचते पहुंचते केएन का मन अभिनय से उचाट हो गया। तभी उनके साथ एक हादसा यह हुआ कि वे जिन आँखों  से अभिनय में रहस्य घोलते थे, उन आंखों की रोशनी जाती रही। और जीवन के संध्याकाल में केएन कैमरा, लाइट, एक्शन और कट की दुनिया से पूरी तरह कट गए। 1987 में उनकी पत्नी का निधन हो गया।

के.एन की कोई संतान नहीं हुई इसलिए उन्होंने अपने भतीजे पुष्कर को बेटे की तरह पाला। पत्नी के निधन के बाद केएन की आवाज़ में तो पहले जैसी ही खनक बरकरार रही, लेकिन अंदर से टूट से गए। 1999 में वे फिसल कर गिर गए जिससे उनके पैर की हड्डी टूट गयी तब से वे 31 जनवरी 2000 में मृत्यु होने तक पलंग पर ही पड़े रहे। उनकी रिलीज़ होने वाली अंतिम फ़िल्म अजूबा (1991) थी।

कुदरत ने उन्हें गरजदार आवाज दी थी, भाव भंगिमाओं को खास आकार देने की शैली उन्होंने खुद विकसित की और इन दो चीजों के मेल ने भारतीय फ़िल्म जगत को बेमिसाल खलनायक दिया। सुअर के बच्चों, कमीने या इसी तरह की गालियां दिए बिना और चीखे चिल्लाए बग़ैर केएन सिंह भय और घृणा की भावना दर्शकों के मन में पैदा कर देने का हुनर रखते थे। न कभी अभिनय का शौक़ रहा न फ़िल्मों में काम करने की तमन्ना लेकिन बिन मांगे मोती मिले, मांगे मिले ना भीख की कहावत ने के एन सिंह के जीवन में महत्वपूर्ण रोल अदा किया।

के. एन. सिंह की पत्नी प्रवीण पाल भी सफल चरित्र अभिनेत्री थीं। उनकी अपनी कोई संतान नहीं थी। उनके छोटे भाई विक्रम सिंह थे, जो मशहूर अंग्रेज़ी पत्रिका फ़िल्मफ़ेयर के कई साल तक संपादक रहे। उनके पुत्र पुष्कर को के.एन. सिंह दंपति ने अपना पुत्र माना था।

 

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल मध्य प्रदेश

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हिंदी साहित्य – फिल्म/रंगमंच ☆ अलविदा ऋषि कपूर – एक और अंक का पटाक्षेप ☆ श्री वसंत काशीकर और श्री सुरेश पटवा

स्व ऋषि कपूर 

जन्म – 4 सितम्बर 1952

मृत्यु – 30 अप्रैल 2020

श्री वसंत काशीकर,  वरिष्ठ  रंगकर्मी, जबलपुर  

? अलविदा ऋषि कपूर ?

ऋषि कपूर (जन्म: 4 सितंबर 1952, मृत्यु – 30 अप्रैल 2020) एक फ़िल्म अभिनेता, फ़िल्म निर्माता और निर्देशक थे। वह एक बाल कलाकार के रूप मे काम कर चुके है। उन्हें बॉबी के लिए 1974 में सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के लिए फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार और साथ ही 2008 में फ़िल्मफेयर लाइफटाइम अचीवमेंट पुरस्कार सहित अन्य पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चूका है। उन्होंने उनकी पहली फ़िल्म में शानदार भूमिका के लिए 1971 में राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार प्राप्त किया। दिनांक 30/04/2020 को निधन हो गया।
कपूर का जन्म पंजाब के हिंदू परिवार में ऋषि राज कपूर के रूप में मुंबई के चेम्बूर में हुआ था। वह अभिनेता-फिल्म निर्देशक राज कपूर के दूसरे पुत्र और अभिनेता पृथ्वीराज कपूर के पोते थे। उन्होंने कैंपियन स्कूल, मुंबई और मेयो कॉलेज, अजमेर में अपने भाइयों के साथ स्कूली शिक्षा की। उनके भाई रणधीर कपूर और राजीव कपूर; मामा प्रेम नाथ और राजेंद्र नाथ; और पैतृक चाचा, शशि कपूर और शम्मी कपूर सभी अभिनेता हैं। उनकी दो बहनें हैं, बीमा एजेंट रितु नंदा और रिमा जैन।
परम्‍परा के अनूसार उन्‍होने भी अपने दादा और पिता के नक्‍शे कदम पर चलते हूए फिल्‍मों में अभिनय किया और वे एक सफल अभिनेता के रूप में उभर आए। मेरा नाम जोकर उनकी पहली फिल्‍म है जिसमें उन्‍होने अपने पिता के बचपन का रोल किया। जो किशोर अवस्‍था में अपनी  शिक्षिका से ही प्‍यार करने लगता है। परन्‍तु बॉबी फिल्‍म में वे बतौर अभिनेता के रूप में दिखायी दिए। ऋषि कपूर और नीतू सींह की शादी 22 जनवरी 1980 में हुई थी।
इनके दो बच्चे हैं रणबीर कपूर जो की एक अभिनेता है और रिदीमा कपूर जो एक ड्रैस डिजाइन है। करिश्मा कपूर और करीना कपूर इनकी भतीजियां हैं।
भावभीनी श्रद्धांजली

सौजन्य – श्री वसंत काशीकर, वरिष्ठ रंगकर्मी, जबलपुर 

 

श्री सुरेश पटवा, वरिष्ठ लेखक, भोपाल

 

? स्व ऋषि कपूर – पटाक्षेप ?

 

पृथ्वी, राज, ऋषि

नाटक के किरदार

निर्देशक

खींचता डोरी

गिरता पर्दा

पटाक्षेप

****

प्यार इकरार

जोकर बाबी

प्रेम का रोग

खिंची डोर

पटाक्षेप

****

चल दिया मुसाफ़िर

सीधी डगर

अनजान नगर

लौट कर

न आने को

एक और अंक का

पटाक्षेप

कलाकार को विनम्र श्रद्धांजली

– सुरेश पटवा, सुप्रसिद्ध लेखक, भोपाल 

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हिंदी साहित्य – फिल्म/रंगमंच ☆ इरफ़ान खान – तुम कहीं नहीं जा सकते ….अभिनेता…. ☆ श्री वसंत काशीकर, श्री सुरेश पटवा और श्री अनिमेष श्रीवास्तव

पद्मश्री इरफ़ान खान

जन्म – 7 जनवरी 1967, जयपुर

मृत्यु – 29 अप्रैल 2020, कोकिलाबेन धीरूभाई अम्बानी हॉस्पिटल एंड मेडिकल रिसर्च इंस्टिट्यूट, मुंबई

श्री वसंत काशीकर,  वरिष्ठ  रंगकर्मी, जबलपुर  

? कम शब्दों में बहुत कुछ कहने वाले एक बेहतरीन अभिनेता को इस जहां ने खो दिया  ?

“ज़िंदगी में अचानक कुछ ऐसा हो जाता है, जो आपको आगे लेकर जाता है। मेरी ज़िंदगी के पिछले कुछ दिन ऐसे ही रहे हैं। मुझे न्यूरोएंडोक्राइन ट्यूमर नामक बीमारी हुई है. लेकिन, मेरे आसपास मौजूद लोगों के प्यार और ताक़त ने मुझमें उम्मीद जगाई है।”– यह ट्वीट किया था इरफान खान ने दो साल पहले मार्च 2018 में जब उन्हें अपनी बीमारी के बारे में पता चला था।

कम शब्दों में बहुत कुछ कहने वाले, उम्दा अभिनय कर दर्शकों का दिल जीतने वाले एक बेहतरीन अभिनेता, इस जहां से खो गया। पर उसका अभिनय और यादें हमेशा मौजूद रहेंगी।

इरफान खान ने लीक से हटकर काम किया। गुलज़ार के तहरीर सीरियल से लेकर इंग्लिश मीडियम तक हर किरदार में इरफान ने अपना लोहा मनवाया है। उनके चाहने वालों के लिए बेहद दु:खद धक्का पहुंचाने वाली खबर है।

अभी तो सफ़र शुरू हुआ था और अचानक विराम लग गया। उम्र भी ज्यादा नहीं थी। 53 साल कोई मरने की उम्र है।

इस दौर में जब रोज मरने वालों की खबरें नहीं आंकड़े आ रहे हैं, फिर भी प्रिय अभिनेता का इस तरह अचानक गुज़र जाना स्तब्ध करता है। अभी कुछ दिनों पहले जयपुर में मां का निधन हो गया और लाॅकडाउन के चलते मां की अंतिम यात्रा में इरफान नहीं शरीक हो पाये और परसों खबर मिली कि तबियत बिगड़ने की वजह से इरफान को मुंबई के कोकिलाबेन अस्पताल में भर्ती किया गया है।

आज कला की दुनिया ने एक बेहतर कलाकार खो दिया है।

 सादर श्रद्धांजलि 

– वसंत काशीकर, वरिष्ठ रंगकर्मी, जबलपुर 

श्री सुरेश पटवा, वरिष्ठ लेखक, भोपाल

☆  इरफ़ान खान दिवंगत ☆ 

इरफान अली खान का जन्म राजस्थान के एक मुस्लिम परिवार में बेगम खान और जगदीर खान के घर पर हुआ था। उनके माता पता टोंक जिले के पास खजुरिया गाँव से थे और टायर का कारोबार चलाते थे। इरफान और उनके अच्छे दोस्त सतीश शर्मा क्रिकेट खेलते थे तथा बाद में, उन्हें साथ में सीके नायडू टूर्नामेंट के लिए 23 साल से कम उम्र के खिलाड़ियों हेतु प्रथम श्रेणी क्रिकेट में कदम रखने के लिए चुना गया था। धन की कमी के कारण वे टूर्नामेंट में भाग लेने के लिए नहीं पहुँच सके।

उन्होंने 1984 में नई दिल्ली में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) में अध्ययन करने के लिए छात्रवृत्ति अर्जित की और वहीँ से अभिनय में प्रशिक्षण प्राप्त किया।

इरफ़ान हिन्दी अंग्रेजी फ़िल्मों व टेलीविजन के एक कुशलअभिनेता रहे हैं। उन्होने द वारियर, मकबूल, हासिल, द नेमसेक, रोग जैसी फिल्मों मे अपने अभिनय का लोहा मनवाया। हासिल फिल्म के लिये उन्हे वर्ष 2004 का फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ खलनायक पुरस्कार भी प्राप्त हुआ। वे बालीवुड की 30 से ज्यादा फिल्मों में अभिनय कर चुके हैं। इरफान हॉलीवुड मे भी एक जाना पहचाना नाम हैं। वह ए माइटी हार्ट, स्लमडॉग मिलियनेयर और द अमेजिंग स्पाइडर मैन फिल्मों मे भी काम कर चुके हैं। 2011 में भारत सरकार द्वारा पद्मश्री से सम्मानित किया  60वे राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार 2012 में इरफ़ान खान को फिल्म पान सिंह तोमर में अभिनय के लिए श्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार दिया गया।

इरफ़ान खान का निधन 29 अप्रेल को मुम्बई की कोकीलाबेन अस्पताल में हुआ था, जहाँ वे ट्यूमर के संक्रमण से भर्ती थे। वर्ष 2018 में उन्हें न्यूरोएंडोक्राइन ट्यूमर (अंत:स्रावी ट्यूमर) का पता चला था, जिसके बाद वे एक साल के लिए ब्रिटेन में इलाज हेतु रहे। एक वर्ष की राहत के बाद वे पुनः कोलोन संक्रमण की शिकायत के कारण मुम्बई में भर्ती हुए। इस बीच उन्होंने अपनी फ़िल्म अंग्रेज़ी मीडियम की शूटिंग की, जो उनकी अंतिम फिल्म थी। उन्हें अंत:स्रावी कैंसर था, जोकि हॉर्मोन-उत्पादक कोशिकाओं का एक दुर्लभ प्रकार का कैंसर है।

2008 – फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता पुरस्कार – लाइफ़ इन अ… मेट्रो

2004 – फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ खलनायक पुरस्कार – हासिल 

 कलाकार को विनम्र श्रद्धांजली

– सुरेश पटवा, सुप्रसिद्ध लेखक एवं फिल्मों के स्वर्णिम युग के शोध कर्ता, भोपाल 

 

श्री अनिमेष श्रीवास्तव, वरिष्ठ रंगकर्मी, भोपाल

? तुम कहीं नहीं जा सकते ….अभिनेता…. ?

मेरे लिए तुम्हारा जाना ऐसा है जैसे कोई नाराज़ हो कर, बिना बताए मेरे बहुत पास से उठ चला गया हो।

तुम कहीं नहीं जा सकते हो अभिनेता.. जानता हूँ कि मुझे खिजाने के लिए कोई स्वांग कर रहे हो.. पर बता दूं इस बार अपने अभिनय में जान नहीं डाल पाये तुम।

मरने का अभिनय करने के लिए मरा नहीं जाता है दोस्त..

चलो अब खेल बहुत हुआ वापस आ जाओ। तुम्हारी इस हरक़त से कोई नाराज़ नहीं होगा और ना ही तुम्हे कुछ बोलेगा।

जल्दी आ जाओ हम इंतज़ार कर रहे हैं मित्र..

आओ और अपनी किसी फिल्म के माध्यम से हमें रिझाओ, मनाओ, रुलाओ, घमकाओ, गरियाओ, गिड़गिड़ाओ, हंसाओ, बहकाओ, समझाओ, बतियाओ..

आओ चले आओ कि हम तुम्हे खूब याद कर रहे हैं..

विनम्र श्रद्धांजलि

– अनिमेष श्रीवास्तव, वरिष्ठ रंगकर्मी, भोपाल 

 

लंबे समय तक कैंसर से लड़ते लड़ते आखिर मशहूर अभिनेता  पदमश्री प्राप्त  इरफ़ान  खान असमय में  सिर्फ 53 वर्ष की उम्र में हम सब को अलविदा कह गए। ई-अभिव्यक्ति परिवार की और से विनम्र श्रद्धांजलि – विनम्र श्रद्धांजलि

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हिंदी साहित्य – फिल्म/रंगमंच ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग के कलाकार # 1 – ज़ानी वॉकर ☆ श्री सुरेश पटवा

सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।  अभी हाल ही में नोशन प्रेस द्वारा आपकी पुस्तक नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास)  प्रकाशित हुई है। इसके पूर्व आपकी तीन पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी एवं पंचमढ़ी की कहानी को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है।  आजकल वे  हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग  की फिल्मों एवं कलाकारों पर शोधपूर्ण पुस्तक लिख रहे हैं जो निश्चित ही भविष्य में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज साबित होगा। हमारे आग्रह पर उन्होंने  साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मोंके स्वर्णिम युग के कलाकार  के माध्यम से उन कलाकारों की जानकारी हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा  करना स्वीकार किया है  जो आज भी सिनेमा के रुपहले परदे पर हमारा मनोरंजन कर रहे हैं । आज प्रस्तुत है  हिंदी फ़िल्मों के स्वर्ण युग का मसखरा : ज़ानी वॉकर पर आलेख ।)

 ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्म के स्वर्णिम युग के कलाकार # 1 ☆ 

☆ हिंदी फ़िल्मों के स्वर्ण युग का मसखरा : ज़ानी वॉकर ☆ 

बदरुद्दीन जमालुद्दीन काज़ी, जिन्हें फ़िल्मी नाम जॉनी वाकर से जाना जाता था, एक हिंदी फ़िल्म  अभिनेता थे। जॉनी वाकर का जन्म 11 नवम्बर 1926 को ब्रिटिश भारत के खरगोन  जिले (बड़वानी) अब मध्य प्रदेश के मेहतागोव गाँव में एक मिल मजदूर के घर हुआ था। जिन्होंने लगभग 300 से अधिक फिल्मों में अभिनय किया था।

बडवानी जिले से जानी वाकर का परिवार इन्दौर आया यहां उनके वालिद कपडा मिल मे नौकरी करने लगे, यहीं उनके साथ वह  हादसा हुआ और वे घर बैठ गये, अब परिवार को पालने की जिम्मेदारी जानीवाकर पर आ गई, इन्दौर मे भी बस कन्डक्टरी करी, ठेले पर सामान बेचा, छावनी इन्दौर मे क्रिकेटर मुशताक अली उनके पडोसी व मित्र हुआ करते थे।

दुर्घटना ने उनके पिता को पंगु करके निरर्थक बना दिया और वे रोज़ीरोटी की तलाश में सपरिवार बंबई चले आए। काजी ने परिवार के लिए एकमात्र कमाऊ सदस्य के रूप में विभिन्न नौकरियां कीं, अंततः वे बृहन्मुंबई इलेक्ट्रिक सप्लाई एंड ट्रांसपोर्ट (BEST) में बस कंडक्टर बन गए। परिवार के एकमात्र कमाऊ जानी दिन भर कई मील की बसयात्रा के बाद कैंडी, फल, सब्जियां, स्टेशनरी और अन्य सामान फेरी लगाकर बेचते थे।

जॉनी वॉकर बसों में काम करते हुए यात्रियों का मनोरंजन किया करते थे। उन दिनों वामपंथी नाटक संगठन इपटा से जुड़े कलाकार एक कमरे के कम्यून में रहते और बसों से यात्रा करते थे। अभिनेता बलराज साहनी ने उन्हें बस यात्रा के दौरान एक दिन भिन्न-भिन्न भावभंगिमाओं  से चुटकुले बाज़ी और चुहल करते देख गुरुदत्त का पता देकर उनसे मिलने की सलाह दी।  बलराज साहनी और गुरुदत्त उस समय मिलकर बाजी (1951) की पटकथा लिख रहे थे। गुरुदत्त बतौर निर्देशक देवनांद, गीताबाली, कलप्ना कार्तिक और के एन सिंग को लेकर बाज़ी के लिए कलाकारों को ले रहे थे उसमें एक शराबी की भी भूमिका थी। गुरुदत्त ने काजी को शराब पीकर शराबी का अभिनय करने को कहा। काजी ने बिना शराब पिए बड़े बढ़िया अन्दाज़ में शराबी का अभिनय कर दिखाया, उन्हें बाज़ी में एक भूमिका मिली।

उस दौर में साम्प्रदायिक माहौल बिगड़ा होने से मुस्लिम कलाकारों को हिंदू नाम देने का चलन चल पड़ा था जैसे देविका रानी ने यूसुफ़ खान को दिलीप कुमार नाम दिया था वैसे ही मुस्लिम कलाकारों को मीना कुमारी, मधुबाला, नरगिस इत्यादि नाम  मिले थे। गुरुदत्त जब उसी दिन शाम को के एन सिंग के साथ जॉनीवाकर ब्रांड की स्कॉच व्हिस्की का ज़ाम चढ़ा रहे थे, उन्होंने दो पेग चढ़ाने के बाद पहले सुरूर में ही के एन सिंग के मशवरे पर क़ाज़ी को जॉनीवाकर नाम दे दिया था। इस प्रकार फ़िल्मी पर्दे पर जॉनीवाकर नामक मसखरे का आगमन हुआ।

उसके  बाद ज़ानी वाकर गुरुदत्त की सभी फ़िल्मों में दिखाई दिए। वे मुख्य रूप से हास्य भूमिकाओं के अभिनेता थे लेकिन पटकथा में उनकी भूमिका कथानक को आगे बढ़ाने वाली होती थी न कि ज़बरजस्ती ठूँसने वाले बेहूदा हँसोडियों जैसी।  राजेंद्र कुमार के साथ मेरे महबूब, देवानंद के साथ सीआईडी, गुरुदत्त के साथ प्यासा, दिलीप कुमार के साथ मधुमती और राजकपूर के साथ चोरी-चोरी जैसी फिल्मों ने उन्हें स्टार बना दिया। वे 1950 और 1960 के दशक में नायक  के साथ फ़िल्म सुपर हिट होने की गारंटी हुआ करते थे।  1964 में गुरुदत्त की मृत्यु से उनका केरियर  प्रभावित हुआ। फिर उन्होंने बिमल रॉय और विजय आनंद जैसे निर्देशकों के साथ काम किया लेकिन 1980 के दशक में उनका करियर फीका पड़ने लगा। वे कहते थे कि “उन दिनों हम साफ-सुथरी कॉमेडी करते थे। हम जानते थे कि जो व्यक्ति सिनेमा में आया है, वह अपनी पत्नी और बच्चों के साथ आया है … कहानी सबसे महत्वपूर्ण हुआ करती थी। कहानी चुनने के बाद ही अबरार अल्वी और गुरुदत्त उपयुक्त अदाकार  ढूंढते थे, अब यह सब उल्टा हो गया है … वे एक बड़े नायक के लिए एक कहानी लिखाते हैं जिसमें फिट होने के लिए हास्य अभिनेता एक चरित्र बनना बंद कर दिया है, वह दृश्यों के बीच फिट होने के लिए कुछ बन गया है। कॉमेडी अश्लीलता की बंधक बन गई थी। मैंने 300 फिल्मों में अभिनय किया और सेंसर बोर्ड ने कभी भी एक लाइन भी नहीं काटी।”

 

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल मध्य प्रदेश

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रंगमंच स्मृतियाँ ☆ जबलपुर में साझा रंगमंच ☆ – प्रस्तुति – श्री वसंत काशीकर एवं श्री दिनेश चौधरी

श्री वसंत काशीकर

( ई- अभिव्यक्ति के माध्यम से रंगमंच स्मृतियों स्तम्भ में सहयोग के लिए  वरिष्ठ नाट्यकर्मी  एवं अग्रज श्री वसंत काशीकर जी  का हृदय से आभार। श्री वसंत काशीकर  जी को उनकी हाल ही में स्थापित की गई  कला, साहित्य  एवं संस्कृति पर आधारित संस्था ‘जिज्ञासा ‘ की सफलता के लिए हार्दिक शुभकामनाएं। जबलपुर में साझा रंगकर्म की नींव रखने में अन्य रंगकर्म संस्थाओं के संस्थापकों में आपका महत्वपूर्ण योगदान रहा है। वैचारिक मतभेदों के पश्चात इतनी रंगकर्म संस्थाओं का एक मंच पर आना एक ऐतिहासिक घटना है । इस सद्कार्य  के लिए सभी संस्थाओं को ई -अभिव्यक्ति का साधुवाद )

(यह विडम्बना है कि  – हम सिनेमा की स्मृतियों को तो बरसों सँजो कर रखते हैं और रंगमंच के रंगकर्म को मंचन के कुछ दिन बाद ही भुला देते हैं। रंगकर्मी अपने प्रयास को आजीवन याद रखते हैं, कुछ दिन तक अखबार की कतरनों में सँजो कर रखते हैं और दर्शक शायद कुछ दिन बाद ही भूल जाते हैं। कुछ ऐसे ही क्षणों को जीवित रखने का एक प्रयास है “रंगमंच स्मृतियाँ “। यदि आपके पास भी ऐसी कुछ स्मृतियाँ हैं तो आप इस मंच पर साझा कर सकते हैं।)

इस प्रयास में  सहयोग के लिए  श्री वसंत काशीकर जी एवं श्री दिनेश चौधरी जी का आभार।  साथ ही भविष्य में सार्थक सहयोग की अपेक्षा के साथ   

– हेमन्त बावनकर

☆ रंगमंच स्मृतियाँ – जबलपुर में साझा रंगमंच – श्री वसंत काशीकर ☆

स्थानीय रंगसंस्थाओं विवेचना रंगमंडल, समागम रंगमंडल, जिज्ञासा, रचना, विमर्श, नाट्यलोक, रंगाभरण, इलहाम, द्वारा जारी साझा वक्तव्य

“जबलपुर रंगमंच के लंबे शानदार इतिहास के केंद्र में ,साझा रंगमंच की कल्पना ,उसकी बुनियादी शुरुवात एक नई और बड़ी घटना है।नगर की रंग संस्थाएं, रंगकर्मी  और रंग आंदोलनों के सक्रिय साथियों ने इस साझा रंगमंच को मूर्तरूप देने में अपनी सहमति प्रदान की है।यह कोई नई संस्था नहीं है, देशकाल की चुनोतियों को देखते हुए एक ताजा सहकारी आंदोलन का सूत्रपात है।कला ,साहित्य,संस्कृति की विविध धाराओं में अपनी पहचान और संस्थागत पहचानों को पूरी स्वायत्तता के साथ बनाये रखते हुए यह साझा रंगमंच एक समानांतर रूप में उत्प्रेरक का काम करेगा।यह सहकारिता, सामूहिकता और सार्वजनिक चेतना के साथ सहमत लोगों का एक बड़ा प्लेटफॉर्म होगा जिसमें भागीदारी और योगदान का हम संकल्प लेते हैं।”

अरुण पांडे,वसंत काशीकर,आशीष पाठक,समर सेनगुप्ता,डॉ प्रशांत कौरव,सत्येंद्र रावत,संजय गर्ग,आयुष राय,बृजेन्द्र राजपूत,विनोद विश्वकर्मा ,आशुतोष द्विवेदी द्वारा 23 जनवरी 2020 को तरंग प्रेक्षागृह में विवेचना रंगमंडल के नाट्य समारोह रंगपरसाई 2020 के अवसर पर जारी।

 

प्रस्तुति –  श्री वसंत काशीकर, जबलपुर, मध्यप्रदेश

श्री दिनेश चौधरी

संक्षिप्त परिचय –  रंगकर्म व लेखन-कार्य में सक्रिय। नाटकों की किताब व पुस्तिकाओं का सम्पादन व कुछ नाटकों का देश के विभिन्न नगरों में सफल मंचन। लेख, फीचर, रपट, संस्मरण, व्यंग्य-आदि देश की अनेक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित। संस्मरण और  व्यंग्य संग्रह शीघ्र-प्रकाश्य।

☆ रंगमंच स्मृतियाँ – जबलपुर का साझा रंगकर्म बनाम स्टेम सेल – श्री दिनेश चौधरी ☆

वैचारिक मतभेद के मूल में विचार ही होते हैं। इसका होना समाज के लिए शुभ-संकेत होता है। इसके बरक्स जहाँ विचार शून्यता होती है, वहाँ सारे फसाद अहम को लेकर होते हैं। ऐसी संस्थाएँ बहुत दिनों तक अपनी रचनात्मकता कायम नहीं रख पातीं और उन अवसरों की तलाश में होती हैं  जहाँ ‘शत्रु पक्ष’ को उखाड़ा जा सके और इस तरह उनके छद्म-अहम को खुराक मिलती रहे। यों थो बल्किड़ा-बहुत अहम होना भी कोई खराब बात नहीं होती, बशर्ते यह आपको आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करे और आत्म-सम्मान को बचाने के लिए कवच की तरह काम करे। यह मसला अलबत्ता विशुद्ध वैयक्तिक है और सामूहिक कार्यों इसके लिए कोई जगह नहीं होती।

जबलपुर में रंगमंच और रंगकर्म की एक लंबी और समृद्ध परंपरा रही है। नगर में अनेक नाट्य-संस्थाएं काम कर रही हैं और ये एक-दूसरे के समानांतर नहीं, बल्कि साथ-साथ हैं। भौतिकी का सर्वमान्य सिद्धांत है कि समानांतर क्रम में जुड़ने पर परिणामी प्रतिरोध कम हो जाता है और श्रेणी क्रम में यह इंडिजुअल्स के योग के बराबर हो जाता है। प्रतिरोध क्षमता बढ़ जाती है। सामने लहर बहुत बड़ी हो तो लोग हाथ जोड़कर श्रृंखलाबद्ध हो जाते हैं। समय के इस मोड़ पर जबलपुर की रंग संस्थाओं ने यही किया है।

रंग-परसाई 2020 में प्रवीण गुँजन के नाटक “कथा” के मंचन से पहले कल जबलपुर की सभी रंग-संस्थाएं एक मंच पर एक साथ खड़ी दिखाई पड़ीं। प्रतिनिधियों को आमंत्रित करते हुए आशुतोष द्विवेदी ने कहा कि यह सच है कि संस्थाएँ इस बीच टूटी भी हैं, पर उनके टूटने से नई संस्थाओं का निर्माण भी हुआ है। तो यह एक तरह से विखंडन नहीं, बल्कि विस्तार है। बात सच है। इन दिनों चिकित्सा-जगत में “स्टेम सेल थेरेपी” बहुत ज्यादा प्रचलित हो रही है और यह असाध्य रोगों को भी ठीक करने के काम आ रही है। स्टेम सेल वे कोशिकाएं होती हैं जो विखंडित होकर नई बन जातीं हैं और उन कोशिकाओं को ‘रिप्लेस’ कर देती हैं जो क्षतिग्रस्त हों। हमारे समाज में भी कई किस्म के रोग पनप रहे हैं। उम्मीद की जानी चाहिए रंग-कोशिकाएं इन व्याधियों को दूर करने का प्रयास करेंगी।

रंग-संस्थाओं की ओर से वरिष्ठ निर्देशक वसंत काशीकर ने एक सयुंक्त-बयान जारी किया। यह बयान है:

” जबलपुर में रंगमंच के लंबे शानदार इतिहास के परिप्रेक्ष्य में ,साझा रंगमंच की कल्पना ,उसकी बुनियादी शुरुवात एक नई और बड़ी घटना है। नगर की रंग संस्थाएं, रंगकर्मी और रंग आंदोलनों के सक्रिय साथियों ने इस साझा रंगमंच को मूर्तरूप देने में अपनी सहमति प्रदान की है।यह कोई नई संस्था नहीं है, देशकाल की चुनोतियों को देखते हुए एक ताजा सहकारी आंदोलन का सूत्रपात है।कला , साहित्य,संस्कृति की विविध धाराओं में अपनी पहचान और संस्थागत पहचानों को पूरी स्वायत्तता के साथ बनाये रखते हुए यह साझा रंगमंच एक समानांतर रूप में उत्प्रेरक का काम करेगा।यह सहकारिता, सामूहिकता और सार्वजनिक चेतना के साथ सहमत लोगों का एक बड़ा प्लेटफॉर्म होगा जिसमें भागीदारी और योगदान का हम संकल्प लेते हैं।”

मंच को निम्न प्रतिनिधियों ने साझा किया:  विवेचना रंगमंडल-अरुण पांडे,

समागम रंगमंडल-आशीष पाठक,

जिज्ञासा- बसंत काशीकर

विमर्श –समर सेन गुप्ता

आयुध कला मंच-सत्येंद्र रावत

रंगा भरण- बृजेंद्र सिंह राजपूत

इलहाम-आयुष राय,

रंग विनोद- विनोद विश्वकर्मा

नाट्य लोक- संजय गर्ग

रंग पथिक-शुभम अर्पित

रचना – प्रशांत कौरव।

प्रस्तुति – श्री दिनेश चौधरी , जबलपुर, मध्यप्रदेश

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रंगमंच स्मृतियाँ – ☆ मौसाजी जैह‍िन्द ☆ – प्रस्तुति श्री दिनेश चौधरी

श्री दिनेश चौधरी

संक्षिप्त परिचय –  रंगकर्म व लेखन-कार्य में सक्रिय। नाटकों की किताब व पुस्तिकाओं का सम्पादन व कुछ नाटकों का देश के विभिन्न नगरों में सफल मंचन। लेख, फीचर, रपट, संस्मरण, व्यंग्य-आदि देश की अनेक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित। संस्मरण और  व्यंग्य संग्रह शीघ्र-प्रकाश्य।

यह विडम्बना है कि  – हम सिनेमा की स्मृतियों को तो बरसों सँजो कर रखते हैं और रंगमंच के रंगकर्म को मंचन के कुछ दिन बाद ही भुला देते हैं। रंगकर्मी अपने प्रयास को आजीवन याद रखते हैं, कुछ दिन तक अखबार की कतरनों में सँजो कर रखते हैं और दर्शक शायद कुछ दिन बाद ही भूल जाते हैं। कुछ ऐसे ही क्षणों को जीवित रखने का एक प्रयास है “रंगमंच स्मृतियाँ “। यदि आपके पास भी ऐसी कुछ स्मृतियाँ हैं तो आप इस मंच पर साझा कर सकते हैं।

इस प्रयास में  सहयोग के लिए श्री दिनेश चौधरी जी का आभार।  साथ ही भविष्य में सार्थक सहयोग की अपेक्षा के साथ   – हेमन्त बावनकर

☆ रंगमंच स्मृतियाँ – “मौसाजी जैह‍िन्द ” – श्री दिनेश चौधरी ☆

☆ निराले बुंदेली मौसाजी भावुक कर देते हैं ☆

साझा रंगमंच द्वारा विगत 16 जनवरी 2020 को  शहीद स्मारक, जबलपुर में  ‘मौसाजी जैह‍िन्द’ नाटक की प्रस्तुति दी गई। साझा रंगमंच नगर के रंगकर्म क्षेत्र में नया प्रयोग व अवधारणा है। साझा रंगमंच – नगर की रंग संस्थाओं जिज्ञासा, रंगाभरण एवं इलहाम का संयुक्त प्रयास है। यह प्रयोग जबलपुर में पहली बार हुआ है, जिसमें तीन संस्थाओं के रंगकर्मियों ने संयुक्त रूप से नाट्य प्रस्तुति दी। ‘मौसाजी जैह‍िन्द’ व‍ि‍ख्यात साह‍ित्यकार उदय प्रकाश की कहानी पर आधारित बुंदेली रूपांतरण है। नाटक का बुंदेली रूपांतरण, निर्देशन और मौसाजी की मुख्य भूमिका वसंत काशीकर ने निभाई।

क्या है कहानी- मौसाजी एक अद्भुत चरित्र है, जो अपनी दुनिया में जीते हैं। वे एक गरीब बुजुर्ग ग्रामीण हैं, लेकिन उनके जीने का अंदाज़ निराला है। मौसाजी बात-बात में आज़ादी की लड़ाई में अपनी ह‍िस्सेदारी के क‍िस्से सुनाते रहते हैं। वो व‍िपन्न हैं, परन्तु उनकी बातों से महसूस होता है क‍ि वे सैकड़ों एकड़ ज़मीन के मालिक हैं। प्रत्येक क‍िस्से के नायक वे स्वयं हैं। गांव वाले उनकी हालत व स्थि‍त‍ि को जानते-समझते हैं। मौसाजी ने अपना एक झूठा संसार रच लिया है। उनके हिसाब से महात्मा गांधी उनके दोस्त थे। वाइसराय जब-तब आ कर उनके चरण स्पर्श करते हैं। गांव वाले भी मौसाजी के क‍िस्से व गप्पें मजे से सुनते और यह भ्रम बनाए रखते क‍ि वे उनकी बातों को सच मानते हैं। मौसाजी के तीन पुत्र हैं, जो छोटे-मोटे काम कर गुजारा कर रहे हैं। पुत्र उनकी चिंता नहीं करते हैं, लेकिन मौसाजी हर समय उनका गुणगान करते रहते हैं। नाटक के अंत में मौसाजी के साथ एक घटना घटती है, जिससे कहानी अचानक मोड़ लेती है।

अभि‍नय व समग्र प्रस्तुति- लगभग सौ म‍िनट की अवध‍ि का ‘मौसाजी जैह‍िन्द’ बुंदेलखंड की पृष्ठभूमि का नाटक है। इसके संवाद सरल व सहज बुंदेली में है, इसलिए दर्शकों को पूरे समय मज़ा देते हैं। मौसाजी व अन्य ग्रामीण परिवेश के चरित्रों एवं क‍िस्सागोई शैली के कारण नाटक देखने में अंत तक रोचकता बनी रहती है। मौसाजी की भूमिका में वसंत काशीकर ने संवेदनशील अभ‍िनय किया। वे मौसाजी के चरित्र को आत्मसात क‍िए हुए हैं। उनके बुंदेली संवाद दर्शकों को नाटक से कनेक्ट कर देते हैं। नाटक में नमन म‍िश्रा  की थानेदार के रूप में न‍िभाई गई भूमिका अभ‍िनय व भाव भंगिमा के कारण आकर्ष‍ित करती है। अन्य भूमिकाओं में आयुष राय, शोभा उरकड़े, निम‍िषा नामदेव, ब्रजेन्द्र स‍िंह, शुभम जैन, तरूण ठाकुर, आयुष राठौर, अर्पित तिवारी, संदीप धानुक, लोकेश यादव, अमन म‍िश्रा और ह‍िमांशु पटैल न्याय करते हैुं और नाटक की गति को बढ़ाते हैं।

बैक स्टेज- मौसाजी जैह‍िन्द में अक्षय ठाकुर की प्रकाश परिकल्पना और न‍िमि‍ष माहेश्वरी का संगीत नाटक को प्रभावी बनाने में मदद करता है। मेकअप, कास्ट्यूम और सेट विषयवस्तु को समेटे हुए रहे। वैसे ही सेट की परिकल्पना रही। नाट्य प्रस्तुति में सुहैल वारसी, निम‍िष माहेश्वरी और ब्रजेन्द्र सिंह राजपूत का व‍िशेष सहयोग रहा।

☆ मौसाजी के जन्नत की हकीकत ☆

सच हमेशा सुंदर नहीं होता। अक्सर यह क्रूर या डरावने भेस में सामने आता है। जब भी कोई सपना टूटता है, हमेशा यही सामने होता है। हिंस्र पशु की तरह। डराता-चिढ़ाता हुआ-सा। यह बहुत ईर्ष्यालु होता है और इससे किसी की थोड़ी-सी भी खुशी बरदाश्त नहीं होती!

मौसाजी सारे जगत के मौसाजी हैं। उनका यह सम्बोधन इतना लोकप्रिय है कि उनके अपने बेटे उन्हें मौसाजी कहते हैं। बेटे उनके साथ नहीं हैं। मंच पर भी नहीं। उनका बस जिक्र आता है। दो ठीक-ठाक हैं और तीसरा आवारा है। उसकी यही आवारगी मौसाजी द्वारा निर्मित उस किले को ध्वस्त कर देती है, जो भले ही छद्म है पर उनके जीने का सहारा है।

मौसाजी क़िस्सागो हैं। बड़बोले हैं। लम्बी-लम्बी हाँकते हैं। गाँधीजी उनके बड़े नजदीकी रहे। मुख्यमंत्री से वे फोन पर ही बतिया लेते हैं। डिस्ट्रिक्ट कलेक्टर उनके साथ शिकार पर जाता है और बेटे की शादी में इतने बराती आए कि कुँए में ही शर्बत घोलनी पड़ी। मौसाजी जानते हैं कि वे झूठ बोल रहे हैं। गाँव वाले भी जानते हैं कि वे झूठ बोल रहे हैं। जनगणना अधिकारी को भी पता है कि मौसाजी झूठ बोल रहे हैं और अब दर्शकों को भी मालूम पड़ गया है कि मौसाजी अव्वल नम्बर के झुठल्ले हैं। पर सबकी सहानुभूति मौसाजी के साथ है। यही इस कथा की खूबसूरती है।

जैसे सच हमेशा सुंदर नहीं होता, वैसे ही झूठ की शक्ल हमेशा खराब नहीं होती। कभी-कभी ये अपनी शक्लें आपस में बदल लेते हैं। एक बूढ़ा आदमी है। अकेला है। पत्नी को गुजरे दशकों बीत चुके हैं। बेटे साथ नहीं हैं। उसने अपने लिए एक सपनों की दुनिया बुन ली है, तो किसी का क्या जाता है? वह खुश हो लेता है और गाँव वाले मजे ले लेते हैं। बस इतनी-सी बात!

खतरनाक झूठ तो वह होता है जो आंकड़ों के रूप में सरकारी फाइल में दर्ज होता है। रोटियों के लिए तरस रहे इंसान की ‘कैलोरी इंटेक” बढ़ा-चढ़ाकर बताई जाती है। इंसान को गरीबी रेखा से ऊपर लाने के लिए रेखा को घसीटकर नीचे ले आया जाता है। यह उस लड़ाई के बाद और उसके बावजूद है, जिसका जिक्र मौसाजी बार-बार करते हैं। वे गाँधी के आखिरी आदमी से सूखी रोटी का एक टुकड़ा तक छीन लेना चाहते हैं। मौसाजी यह होने नहीं देते और उन्हें सचमुच ही जैहिन्द करने का मन करता है और थोड़े सर्द हो गए इस मौसम में उनके साथ चाय पीने का!

वसन्त काशीकर अभिनय और निर्देशन दोनों के लिए बधाई के पात्र हैं। वे सचमुच के मौसाजी लगते हैं। प्रस्तुति की डोर को कसकर थामे रहते हैं-कहीं कोई झोल नहीं। गाँव वालों के रूप में बाकी अभिनेताओं की संगत अच्छी है। सभी बेहद सहज लगते हैं, कोई बनावट नहीं।  बुंदेली में होने के कारण नाटक की रंजकता और बढ़ जाती है। सबसे दिलचस्प दृश्यों में मौसाजी और ‘डुकरो’ के बीच होनी वाली नोंक-झोंक है। “वैष्णव जन तो तेने कहिए’ का एक टुकड़ा बेहद प्रभावशाली है। इसमें प्रयुक्त रोशनी भी। ‘अंधे अभिनेता’ का गला बड़ा सुरीला है।

मौसाजी दर्शकों को अपने साथ ‘कनेक्ट’ कर लेते हैं, इसलिए उनका अपमान दर्शकों को अपना अपमान लगता है। धक्का लगता है। काश की वह भरम बना रहता जो मौसाजी ने बड़े जतन से बनाया था! यह संवेदना और सह-अनुभूति ही नाटक का हासिल है।

 

मूल कथा : उदयप्रकाश

नाट्य रूपांतरण व निर्देशन : वसन्त काशीकर

मंडली : साझा रंगमंच

स्थान : शहीद स्मारक, जबलपुर

दिनांक : 16 जनवरी 20

आलेख एवं प्रस्तुति : श्री दिनेश चौधरी, जबलपुर 

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रंगमंच स्मृतियाँ – ☆ डॉ श्रीराम लागू – विनम्र श्रद्धांजलि ☆

स्व डॉ श्रीराम लागू 

 ☆ सुप्रसिद्ध अभिनेता डॉ श्रीराम लागू नहीं रहे ☆ 

जन्म  – 16 नवम्बर 1927 ( सातारा )

निधन – 17 दिसंबर 2019 ( पुणे )

 

सुप्रसिद्ध फ़िल्म अभिनेता और रंगकर्मी श्रीराम लागू का 92 साल की उम्र में निधन हो गया. सातारा में जन्मे श्रीराम लागू पिछले कुछ समय से बीमार चल रहे थे. उन्हें मराठी थिएटर के 20वीं सदी के सबसे बेहतरीन कलाकारों में गिना जाता है. उन्होंने 100 से अधिक हिंदी और मराठी फ़िल्मों में काम किया था तथा वे मराठी, हिंदी और गुजराती रंगमंच से भी जुड़े रहे. श्रीराम लागू ने 20 से अधिक मराठी नाटकों का निर्देशन भी किया.

पेशे से ENT  विशेषज्ञ डॉ श्रीराम लागू  जी ने 42 साल की उम्र में थिएटर और फ़िल्मों की दुनिया में कदम रखा और  1969 में वह पूरी तरह मराठी थिएटर से जुड़ गए.

‘नटसम्राट’ नाटक में उन्होंने गणपत बेलवलकर की भूमिका निभाई थी जिसे मराठी थिएटर के लिए मील का पत्थर माना जाता है.  नटसम्राट के इस रोल के बाद डॉक्टर लागू को भी दिल का दौरा पड़ा था.

कई पुरस्कारों से सम्मानित / अलंकृत  थे.  उन्हें घरौंदा के लिए उन्हें फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ सहअभिनेता का अवॉर्ड मिला था. उन्होंने नटसम्राट, सिंहासन, सामना, पिंजरा जैस मराठी फिल्मों और चलते-चलते, मुक़दर का सिंकदर, सौतन और लवारिस जैसे कई हिंदी और मराठी फ़िल्मों में  काम किया. रिचर्ड एटनब्रा की फ़िल्म गांधी में गोपाल कृष्ण गोखले  की उनकी छोटी सी भूमिका को हमेशा याद रखा जायेगा।  उनकी आत्मकथा ‘लमाण’ प्रत्येक अभिनेता के लिए प्रेरणा स्त्रोत से कम नहीं है.

 

ई- अभिव्यक्ति की ओर से उन्हें सादर विनम्र श्रद्धांजलि

 

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