हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ ≈ मॉरिशस से ≈ – लघुकथा – कोना कोई और… – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव  जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे।

आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय एवं सशक्त लघुकथा “– कोना कोई और… –” ।

~ मॉरिशस से ~

☆ कथा कहानी  ☆ — कोना कोई और…  — ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

जो भी प्राणी धरती पर जन्म ले उसे साँस लेने के लिए हवा, पीने के लिए पानी और खाने के लिए भोजन मिल ही जाता है। न मिलता है तो संतोष। राजा के महल में जन्म लेने वाले बालक का मन धूल में खेलने के लिए मचलता है। उसे संभाल कर महल में बंद किया जाता है और सिखाया जाता है कि धूल से खतरनाक और कुछ नहीं। धूल में तरह – तरह के कीटाणु होते हैं जो अनेक रोगों के जन्म दाता होते हैं। पर बालक को इस दलील से संतोष नहीं होता, लेकिन महल में बंद हो जाने पर भागने के लिए कोई चारा न होने से उसे मन मार कर वहीं रह जाना पड़ता है।

उधर एक बालक होता है जो गरीब माँ – बाप के धूल धूसरित घर में जन्म लेता है। वह महल का स्वप्न देखता है, लेकिन उसे समझाया जाता है धूल ही उसकी सुबह है, धूल ही उसकी शाम। अत: धूल से संतोष करना वह सीखे। धूल से भागे तो भागता ही रहेगा, लेकिन उसे हर मोड़ पर धूल ही मिलेगी, महल नहीं। तो क्यों न पहले कदम पर ही धूल का संतोष कर ले, तब भागने की तृष्णा ही मिट जाएगी।

एक बालक हुआ जिसने पूरे संसार के लोगों के असंतोष का प्रतिनिधित्व किया। पूरा संसार होने से बालक का दायरा धरती से ले कर आकाश तक विस्तृत हुआ। उस बालक ने धूल में जन्म लेने पर संतोष नहीं किया और किसी तरह आगे बढ़ कर महल तक पहुँचा। पर महल में उसे संतोष नहीं हुआ, क्योंकि वह असंतोष की परिभाषा जानता ता। उसने अब ऊपरी आकाश की ओर रुख किया और वहाँ पहुँच कर रहा। वहाँ न धूल थी, न महल था। पर वह मनुष्य था इसलिए आकाश में भी उसके साथ असंतोष निबद्ध हुआ।

असंतोष की वजह से और आगे बढ़ने पर वह तारों के जमघट में खो गया। तारों की अपनी समझ यह हुई उसकी यही मंजिल थी, अत: यहाँ खो जाना ही उसके जीवन का सार तत्व हुआ। यदि तारों को मनुष्य के अनंत असंतोष की परिभाषा मालूम होती तो उसे अपने में विलय करने की अपेक्षा अभयदान देते कि वह अपनी यात्रा जारी रखे और संतोष की कामना में ब्रह्मांड के किसी और कोने के लिए कूच करे।

 © श्री रामदेव धुरंधर

15 – 03 — 2025

संपर्क : रायल रोड, कारोलीन बेल एर, रिविएर सेचे, मोरिशस फोन : +230 5753 7057   ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 149 ☆ लघुकथा – आस ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक हृदयस्पर्शी एवं विचारणीय लघुकथा ‘आस। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 149 ☆

☆ लघुकथा – आस ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

“सर! अनाथालय से एक बच्ची का प्रार्थना पत्र आया है।”

“अच्छा, क्या चाहती है वह?”

“पत्र में लिखा है कि वह पढ़ना चाहती है।”

यह तो बड़ी अच्छी बात है। क्या नाम है उसका?

रेणु।

“रेणु? अरे! वही जो अभी तक स्कूल आने के लिए तैयार ही नहीं थी ? कितना समझाया था हम लोगों ने उसे लेकिन वह पढ‌ना ही नहीं चाहती, स्कूल आना तो दूर की बात है। हम सब कोशिश करके थक गए पर वह बच्ची टस से मस नहीं हुई। अब अचानक वह स्कूल आने के लिए कैसे मान गई , ऐसा क्या हो गया? — वह अचंभित थे।”

“सर! आप रेणु का यह प्रार्थना- पत्र पढ़िए” – स्कूल की शिक्षिका ने पत्र एक उनके हाथ में देते हुए कहा।

“टीचर जी! मुझे बताया गया है कि विदेश से कोई मुझे गोद लेना चाहते हैं| मुझे मम्मी पापा मिलने वाले हैं| मुझे अंग्रेजी नहीं आएगी तो मैं अपने मम्मी पापा से बात कैसे करूंगी ? कब से इंतजार कर रही थी मैं उनका, मुझे उनसे बहुत सारी बातें करनी हैं ना! मुझे स्कूल आना है, खूब पढ़ना है।”

——

© डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 13 ☆ लघुकथा – फोटो… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆

डॉ सत्येंद्र सिंह

(वरिष्ठ साहित्यकार डॉ सत्येंद्र सिंह जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत। मध्य रेलवे के राजभाषा विभाग में 40 वर्ष राजभाषा हिंदी के शिक्षण, अनुवाद व भारत सरकार की राजभाषा नीति का कार्यान्वयन करते हुए झांसी, जबलपुर, मुंबई, कोल्हापुर सोलापुर घूमते हुए पुणे में वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी के पद से 2009 में सेवानिवृत्त। 10 विभागीय पत्रिकाओं का संपादन, एक साझा कहानी संग्रह, दो साझा लघुकथा संग्रह तथा 3 कविता संग्रह प्रकाशित, आकाशवाणी झांसी, जबलपुर, छतरपुर, सांगली व पुणे महाराष्ट्र से रचनाओं का प्रसारण। जबलपुर में वे प्रोफेसर ज्ञानरंजन के साथ प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े रहे और झाँसी में जनवादी लेखक संघ से जुड़े रहे। पुणे में भी कई साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। वे मानवता के प्रति समर्पित चिंतक व लेखक हैं। अप प्रत्येक बुधवार उनके साहित्य को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय लघुकथा – “फोटो“।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 13 ☆

✍ लघुकथा – फोटो… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆

मुझे जीवन में एक पत्रिका का संपादक बनने का अवसर मिला। मैं तो बल्लियों उछल गया। लोकतंत्र के तीसरे स्तंभ का हिस्सा। वाह, वाह अपनी ही पीठ थपथपाने लगा। मेरा जो भी सहयोगी सामने आता तो मैं उससे उम्मीद करता कि वह मुझे बधाई दे, मुझसे नमस्ते करे, पर ऐसा कुछ हुआ नहीं।

एक बात अवश्य हुई कि जिन लोगों की लिखने में रुचि थी, उनका मेरे प्रति नजरिया अवश्य बदला और मुझसे संबंध बनाने के प्रयास करने लगे। जो उच्च श्रेणी के थे वे जहाँ मेरा नाम देखते किसी प्रस्ताव आदि पर तो सहमति व्यक्त कर देते। जो बराबर के थे, वे चाय पिलाने की पहल करने लगे, जबकि पहले पूछते भी नहीं थे। और जो नीचे की श्रेणी के थे वे पहले जो काम टाल जाया करते थे, अब प्राथमिकता से करने लगे। रचनाएं आने लगीं। संपादन क्या होता है, मैं अधिक नहीं जानता था। बस लेख आदि के शब्द, वाक्यों को ठीक करना, विषय के अनुरूप भाषा को बनाए रखना और जो विषय से मेल न खाती हो, उसे काट देना। काफी अच्छा लिखने वाले जुड़ते गए और पत्रिका के अच्छे अंक निकलने लगे। चूंकि सरकारी विभाग की पत्रिका थी इसलिए मुझे कड़े निर्देश थे कि सरकार, मंत्री आदि की आलोचना संबंधी कोई लेख आदि नहीं होना चाहिए। एक लेखक, कवि की एक ही रचना प्रकाशित होनी चाहिए।

एक बार एक कवि महाशय आए और अपनी दो कविताएँ एक ही अंक में प्रकाशित करने का अनुरोध करने लगे। कहने लगे कि इस पत्रिका में छपी अपनी कविताएँ लोगों को दिखाता हूँ तो खुश होते हैं और मुझे कवि सम्मेलन में भी बुलाते हैं। मैं यह जानता था कि वे अधिक पढ़े लिखे नहीं हैं और चतुर्थ श्रेणी में काम करते हैं परंतु लेखन और हिंदी के प्रति उनकी रुचि देखकर मन में आया कि प्रकाशित कर दूँ लेकिन यह नियम विरुद्ध था परंतु उनकी जी हजूरी भी कचोट रही थी। जी हुजूरी करने वाले को मैं एक मजबूर लाचार व्यक्ति समझता था इसलिए मैंने बॉस से अनुमति लेकर उस अंक में उनकी दो कविताएं ले लीं। उसके बाद तो वे उसे ही नज़ीर बना कर हर अंक में दो कविताएँ प्रकाशित करने पर बल देने लगे। उनके व्यवहार में परिवर्तन आ गया। कवि होने का दंभ भरने लगे।

 ऐसे ही एक नवोदित लेखक थे। बड़े ही सुंदर अक्षरों में एकदम व्यवस्थित ढंग से निबंध लिखते थे।‌ अपने निबंध में एक अक्षर का भी संशोधन उन्हें बर्दास्त नहीं था। हर निबंध के साथ अपना फोटो और बायो डाटा अवश्य भेजते थे। पत्रिका में लेखक का नाम, पदनाम और पता प्रकाशित करने का नियम था। ऐसा लेखक बहुत बड़ा होता है जिसके निबंध, कविता आदि में कोई भी गलती न हो ऐसा निबंध होना बड़ा मुश्किल था कि उसमें एक वर्तनी भी ग़लत न हो। वर्तनी ठीक करने पर वे लेखक शिकायत करते कि मैं मनमाने ढंग से संपादन करता हूँ। एक बार उनसे किसी बहाने मुलाकात हो गई। मैंने उनके फोटो देखे थे तो उन्हें पहचान गया। पर वे नहीं पहचान पाए। केवल कार्यालय का नाम सुनते ही पत्रिका के संपादक की बुराई करने लगे कि वह अहंकारी और मूर्ख है। हर निबंध के साथ मैं नया फोटो खिंचवा कर अपना आकर्षक फोटो भेजता हूँ पर वह छापता ही नहीं। अब क्या मैं, इतना बड़ा लेखक खुद कहूंगा फोटो छापने के लिए। मेरी ओर से कोई विशेष प्रतिक्रिया न देखकर, उन्हें याद आया कि उन्होंने मेरा परिचय तो जाना ही नहीं सो सामान्य होते हुए मुझसे कह बैठे कि क्षमा कीजिए मैं अपनी ही बातों में बह गया, आपका तो परिचय पूछा ही नहीं। मैंने कहा जी मैं वही नाचीज़ मूर्ख इंसान हूं जिसकी अभी आप तारीफ कर रहे थे। उनके चेहरे का रंग उड़ गया।‌ और जरूरी काम होने का बहाना बना कर चले गए। मैं सोचने लगा कि व्यक्ति में फोटो छपवाने की इतनी लालसा क्यों है?

© डॉ सत्येंद्र सिंह

सम्पर्क : सप्तगिरी सोसायटी, जांभुलवाडी रोड, आंबेगांव खुर्द, पुणे 411046

मोबाइल : 99229 93647

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा # 63 – मां की कीमत… ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – मां की कीमत।)

☆ लघुकथा # 63 – मां की कीमत  श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

मां हम ऑफिस से आते हुए होली के लिए बाजार से गुजिया और सामान ले आएंगे तुम घर में परेशान मत होना तुम बेकार बनाती हो पास में एक अच्छी दुकान है वहां भी एकदम घर जैसी गुजिया मिलती है अरुण ने अपनी मां को कहा।

बेटा तुम और बहू दोनों व्यस्त रहते हो मैं घर में सारा दिन क्या करूं तो सुबह तुम्हारा टिफिन बनाने के बाद मैं बनाकर रख लूंगी फालतू पैसे क्यों खर्च कर रहे हो।

माँ तुम पैसों की चिंता मत करो आखिर हम दोनों काम क्यों रहे हैं?

मां रोमा तो ऑफिस चली गई है अब मैं जा रहा हूं।

शाम को रोमा और अरुण दोनों गुजिया, गुलाल और होली के लिए ढेर सारा  सामान लेकर घर आए।

अरुण – “पास में जो दुकान खोली है वहां कितना अच्छा सामान मिलता है मां जी आप खा कर देखो। एकदम तुम्हारे हाथों का स्वाद लग रहा है मुझे बहुत आश्चर्य हो रहा है।”

कमला ने कहा – “मैं तो बनाती हूं तो तुम लोग नाक मुंह सिकुड़ते हो और अच्छा नहीं लगता अब बाजार से लाए हो तो कह रहे हो कि घर जैसा है।”

तभी अचानक दुकान का मालिक घर में आता है।

“कमला आंटी आप तो बिल्कुल मेरी मां की तरह हो आपके कारण मेरी दुकान चल निकली । होली के लिए कुछ और गुजिया  बनाना है मैं माफी चाहता हूं आपको आकर तकलीफ दे रहा हूं आप चाहे तो मेरी दुकान में आकर बस आपकी निगरानी में  दुकान में काम करने वाले लोग बना देंगे। क्या-क्या सामान चाहिए ? आप पूरी लिस्ट बना दो आंटी।”

“अरे आप लोग तो अभी थोड़ी देर पहले ही मेरी दुकान में आए थे आपने यह क्यों नहीं बताया कि आप आंटी के बच्चे हो। और हंसते हुए कहा हर बच्चों का यही हाल है अपनी मां की कीमत नहीं जानते।”

बहू नाराज होकर बोली – “मां आपको यदि काम करना ही था कुछ तो हमें बताया होता।  इस तरह बेइज्जती तो ना करती सबके सामने । क्या हम आपको अच्छे से नहीं रखते ?

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 220 – पतझड़ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित विचारणीय लघुकथा “पतझड़”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 220 ☆

🌻लघु कथा🌻 🍂पतझड़ 🍂

फागुन की रंग बिरंगी मस्ती के साथ जहाँ सभी उत्साह, उमंग, गाते बजाते, आती – जाती टोली। वहीं सड़क के किनारे फुटपाथ पर कतारों में लगे वृक्ष और थोड़ी-थोड़ी दूरी पर रखी टूटी- फूटी कुर्सियाँ।

उम्र का पड़ाव और मानसिक सोच के साथ-साथ गुलाब राय मन ही मन कुछ बात कर रहे थे। सड़क सफाई करने वाला स्वीपर झाड़ू लेकर पेड़ के गिरे पत्तों को एकत्रित कर रहा था। राम राम बाबु जी 🙏🙏कैसे हैं?

देखिए न इस मौसम में हम लोगों का काम बढ़ गया। अब यह सारी सूखी पत्तियाँ किसी काम की नहीं रही। सरसराती गिरती जा रही हैं। आप सुनाएं – – – आप होली के दिन यहाँ चुपचाप क्यों बैठे हैं। घरों में आसपास पड़ोसी या परिवार के संग होली नहीं खेल रहे।

गुलाब राय जैसे नींद से जाग उठे। झुरझुरी आँखे और कपकपाते हाथों से डंडे का सहारा लेकर उठ कहने लगे – –  यही तो सृष्टि का नियम है!! बेटा पतझड़ होता ही इसीलिए है कि नयी कपोले अपनी जगह बना सके।

हृदय की टीस दर्द को दबाते हुए कहना चाहते थे कि परिवार वाले ने तो उन्हें कब का पतझड़ समझ लिया है। शायद उस ढेर का इंतजार है जिसमें माचिस की तीली लगे और पतझड़ जलकर हवा में उड़ने लगे।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा- सोंध ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – लघुकथा- सोंध ? ?

इन्सेन्स- परफ्यूमर्स ग्लोबल एक्जीबिशन’.., इत्र बनानेवालों की यह यह दुनिया की सबसे बड़ी प्रदर्शनी थी। लाखों स्क्वेयर फीट के मैदान में हज़ारों दुकानें। हर दुकान में इत्र की सैकड़ों बोतलें। हर बोतल की अलग चमक, हर इत्र की अलग महक। हर तरफ इत्र ही इत्र।

अपेक्षा के अनुसार प्रदर्शनी में भीड़ टूट पड़ी थी। मदहोश थे लोग। निर्णय करना कठिन था कि कौनसे इत्र की महक सबसे अच्छी है।

तभी एकाएक न जाने कहाँ से बादलों का रेला आसमान में आ धमका। गड़गड़ाहट के साथ मोटी-मोटी बूँदें धरती पर गिरने लगीं। धरती और आसमान के मिलन से वातावरण महकने लगा।

दुनिया के सारे इत्रों की महक अब अपना असर खोने लगी थीं। माटी से उठी सोंध सारी सृष्टि पर छा चुकी थी।

?

© संजय भारद्वाज  

11:07 बजे , 3.2.2021

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️💥 श्री शिव महापुराण का पारायण सम्पन्न हुआ। अगले कुछ समय पटल पर छुट्टी रहेगी। जिन साधकों का पारायण पूरा नहीं हो सका है, उन्हें छुट्टी की अवधि में इसे पूरा करने का प्रयास करना चाहिए। 💥 🕉️ 

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – त्यौहार… ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

श्री राजेन्द्र तिवारी

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय लघुकथा त्यौहार।)

☆ लघुकथा – त्यौहार☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

चौराहे पर, अपनी छोटी बच्ची को लिए, वह गुलाल के पैकेट बेच  रही थी। जो भी कार, लाल सिग्नल पर रुकती थी, वह कार के पास पहुंच जाती और शीशे पर उंगली की दस्तक कर वह गुलाल पैकेट लेने का आग्रह करती।  जो चाहते, उससे ले लेते, कुछ लोग शीशा ही नहीं खोलते थे, और चले जाते थे।  वह फिर भी आस लगाए, हर कार वाले के पास जाकर, पैकेट गुलाल ले लो, कह कर उन्हें मनाया करती। एक परिवार कार में था, पति-पत्नी, उनकी माताजी और उनकी बेटी जो कॉलेज में पढ़ती थी। उसके पास भी गुलाल बेचने वाली ने शीशे पर दस्तक दे कर, गुलाल लेने का आग्रह किया। उनकी बेटी ने गुलाल का पैकेट लिया और उस बेचने वाली को भी क्योंकि होली के उत्सव पर जिसने गुलाल नहीं लगाई थी, उसको और उसकी बच्ची को गुलाल लगा दिया। वह महिला चिल्लाने लगी कि मुझे गुलाल लगाने की हिम्मत कैसे हुई? क्यों गुलाल लगाया मुझे? परिवार ने कहा-  आप गुलाल आप बेच रही थी, और क्योंकि आपने आज होली का गुलाल नहीं लगाया था इसलिए, आपको और आपकी  बच्ची को, जिसे आप लिए हैं उसे थोड़ा सा गुलाल लगा दिया।  वह गुस्से में चिल्लाई कि हम तुम्हारे मजहब के नहीं हैं तुमने हमें गुलाल क्यों लगाया? हमारे मजहब में गुलाल नहीं खेलते, रंग नहीं लगाते है, शोर हो गया, काफी हंगामा हो रहा था। कार में बैठे परिवार ने बाहर निकल कर उससे माफी मांगी कि-  बहन हमें माफ करो हम आपका मजहब नहीं जानते थे, मगर आप गुलाल बेच रही थी, इसलिए बिटिया ने गुलाल लगा दिया।

वो महिला कुछ शांत हुई और रोने लगी और कहने लगी- कि रंग किसी भी मजहब में बुरे नहीं होते, मगर हम नहीं खेल सकते। पति की मृत्यु के बाद हम, हर त्यौहार पर, उस त्यौहार में काम आने वाली सामग्री बेच तो सकते हैं, मगर हर त्यौहार मना नहीं सकते। कोई भी धर्म आपस में लड़ना नहीं सिखाता और… । अपने पल्लू से अपना और इन सब बातों से अनजान अपनी बच्ची का रंग पोंछते हुए रो पड़ी। उसकी आंखों से आंसू बरसने लगे।

सच है कोई भी धर्म आपस में लड़ने की बात नहीं करता, लड़ते तो वे हैं जो धर्म ग्रंथो का सार ही नहीं समझ पाए जो जीवन के लिए आवश्यक है।

© श्री राजेन्द्र तिवारी  

संपर्क – 70, रामेश्वरम कॉलोनी, विजय नगर, जबलपुर

मो  9425391435

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ ≈ मॉरिशस से ≈ – लघुकथा – अनबोलते जानवर – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव  जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे।

आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय एवं हृदयस्पर्शी लघुकथा “– अनबोलते जानवर –” ।

~ मॉरिशस से ~

☆ कथा कहानी  ☆ — अनबोलते जानवर — ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

बछिया गौशाला के एक किनारे में बंधी होती थी। दूसरे किनारे में वह गाय बंधी हुई थी जो वर्षों से दूध देती आयी। यह बछिया उसी से पैदा हुई थी। गाय दूध से खाली हो गयी और उसे कसाई के हाथों बेच दिया गया। तत्काल बछिया को उस किनारे से खोल कर गाय की खूँट से बांध दिया गया। बछिया ने खूँट के इस अंतर से जाना वह दूध देगी और फिर उसका हश्र उसकी माँ जैसा होगा।

— समाप्त  —

© श्री रामदेव धुरंधर

15 – 03 – 2025

संपर्क : रायल रोड, कारोलीन बेल एर, रिविएर सेचे, मोरिशस फोन : +230 5753 7057   ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 12 ☆ लघुकथा – भुवन… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆

डॉ सत्येंद्र सिंह

(वरिष्ठ साहित्यकार डॉ सत्येंद्र सिंह जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत। मध्य रेलवे के राजभाषा विभाग में 40 वर्ष राजभाषा हिंदी के शिक्षण, अनुवाद व भारत सरकार की राजभाषा नीति का कार्यान्वयन करते हुए झांसी, जबलपुर, मुंबई, कोल्हापुर सोलापुर घूमते हुए पुणे में वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी के पद से 2009 में सेवानिवृत्त। 10 विभागीय पत्रिकाओं का संपादन, एक साझा कहानी संग्रह, दो साझा लघुकथा संग्रह तथा 3 कविता संग्रह प्रकाशित, आकाशवाणी झांसी, जबलपुर, छतरपुर, सांगली व पुणे महाराष्ट्र से रचनाओं का प्रसारण। जबलपुर में वे प्रोफेसर ज्ञानरंजन के साथ प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े रहे और झाँसी में जनवादी लेखक संघ से जुड़े रहे। पुणे में भी कई साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। वे मानवता के प्रति समर्पित चिंतक व लेखक हैं। अप प्रत्येक बुधवार उनके साहित्य को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख  – “भुवन“।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 12 ☆

✍ लघुकथा – भुवन… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆

उसकी खबर मिलती रहती, कभी वाट्सएप पर, कभी फेसबुक पर। खबरों में ज्यादा तर अपनी तारीफ रहती जैसे उस पर पत्रिका में मेरी कविता छप गई, कहानी छप गई।  मेरे लिखे हुए नाटक का मंचन हुआ और बहुत सराहा गया। जब जब उसकी खबर पढता तो भुवन याद आ जाता। भुवन मेरा दोस्त और नीता का पति। भुवन बहुत अच्छा रचनाकार था। कविता कहानी नाटक उपन्यास सब कुछ लिखता। उसके हर बोल में कविता होती, हर बात में कहानी। सबको इतना हँसाता कि पूछो मत। और उसकी जुबान पर अदब जैसे आसन जमा कर बैठा था।

भुवन के अवसान की खबर आई तो मैं एकदम रो पड़ा। हालांकि हम पास नहीं रहते पर उसकी मौजूदगी हमेशा बनी रहती। ऐसा लगता कि वह बाजू में खड़ा हँस रहा है। फोन पर तो घंटों बीत जाते पर बातें खत्म नहीं होतीं। उसके न रहने की खबर ने मुझे हिला कर रख दिया और नीता, उसका क्या होगा। उसकी दो छोटी छोटी बेटियाँ, क्या होगा। मैं लखनऊ गया था। नीता से मिला था। अपनी बेटियों को गोद में लेकर कह रही थी कि तुम दोनों मेरे होनहार बेटे हो। बेटा न होने का दंश मैंने महसूस किया।  मैंने धीरे से पूछा था कि भुवन की रायल्टी वगैरह…. और नीता ने वाक्य पूरा नहीं होने दिया, काहे की रायल्टी, कौन देता है है रायल्टी? जब वो थे तो सब पूछते थे। अब वो नहीं हैं तो कोई पहचानता भी नहीं। उनके मित्र लेखक, कवि, पत्रकार सब मुझे देख कर दूर से ही कट जाते हैं। मैं तो उनके लिए किसी काम की नहीं हूँ न, उनकी रचनाएँ नहीं छपवा सकती, आकाशवाणी पर प्रसारण नहीं करवा सकती। बैंक में जो था बीमारी में लग गया। कोई बीमा नहीं, बैलेंस नहीं, पेशन नहीं। सपाट नजरों से पूछा था कि लेखकों के लिए सुरक्षित भविष्य की कोई योजना क्यों नहीं है ? मैं क्या उत्तर देता!  रस्म अदायगी करके वापस आ गया।

घर आकर अपने काम में व्यस्त हो गया। जब कोई खबर नीता की देखता तो यह सब याद आ जाता। लाइक कमेंट भी करता। उसकी हिम्मत की सराहना भी मन ही मन करता पर उससे बात करने का साहस न होता। आज जब अखबार में पढा कि नीता को अपने उपन्यास पर बहुत बड़ा साहित्यिक पुरस्कार मिला है जिसके साथ अच्छी धनराशि भी है तो फिर आँखों से दो आँसू टपक पड़े। आसमान में देखा तो भुवन का चेहरा था जैसे कह रहा हो, यार यही जि़ंदगी है। उतार चढ़ाव आते रहते हैं और रास्ते भी निकलते रहते हैं। सोच रहा हूँ नीता को बधाई दे दूँ, पर पहले कभी हालचाल तक नहीं पूछे तो अब कैसे हिम्मत होगी। फिर एक मुस्कान आकर कह गई कि उसकी सफलता से खुश हो न, यही काफी है। भुवन तो देख रहा है न!

© डॉ सत्येंद्र सिंह

सम्पर्क : सप्तगिरी सोसायटी, जांभुलवाडी रोड, आंबेगांव खुर्द, पुणे 411046

मोबाइल : 99229 93647

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा # 62 – अनोखा रिश्ता… ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – अनोखा रिश्ता।)

☆ लघुकथा # 62 – अनोखा रिश्ता ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

 

“रवि आज सुबह-सुबह कहां जा रहे हो इतनी जल्दी-जल्दी तैयार होकर?” पत्नी  सुनंदा ने पूछा।

“तुम भी तैयार हो जाओ। आज हमें वृद्धा आश्रम चलना है। मां को घर लेकर आना है। विदेश से आए एक महीना हो गया है।”

“तुम जाओ मैं नहीं जाऊंगी?”

रवि ने वृद्धाश्रम पहुंचकर अपनी मां के बारे में पूछा तो पता चला कि उसकी मां यहां आई थी पर थोड़ी देर के बाद ही चली गई थी ?

“हमने आपके नंबर पर फोन करके आपको सूचित तो किया था। क्या आपको पता नहीं चला? आपने कभी कोई खबर भी नहीं की इन दो सालों में?”

“लेकिन मेरी पत्नी तो मां की खबर लेती थी और पैसे भी भेजती थी!”

“देखिए आप झूठ मत बोलिए ? हम लोगों को रखते हैं और सुविधा देते हैं तो पैसे लेते हैं। आप कोई रसीद हो तो दिखाइए? आप अपने मां-बाप को संभाल नहीं पाते हो और हमारे ऊपर इल्जाम लगा रहे”

वह अपने पुराने घर जाता है जिसे उसने बेच दिया था। वहां उसे अपनी मां नजर आती है और वह उसे घर में काफी खुश दिख रही थी।

उसे मकान मालिक (अजय) ने उसे अपने घर के अंदर घुसने से मना कर दिया और कहा कि-  “जब तुम यह घर बेचकर चले गए तो यहाँ क्यों आए हो?”

उसने कहा “मां को लेने के लिए…।“

“बरसों बाद तुम्हें मां की कैसे याद आई?  तुम्हारी मां अब तुम्हारी नहीं हैं? घर के साथ-साथ अब यह मेरी मां हो गई। हमें तो पता ही नहीं था कि आपकी मां है यह बेचारी इस घर के बाहर बैठे रो रही थी। पड़ोसियों से पता चला कि इस घर की मालकिन है। हमने अपने घर में  रहने दिया। वे  पूरे घर का काम कर देती थी और तरह-तरह के अचार पापड़ भी बना देती थी। हम इसे अपने रिश्तेदार और पड़ोसी को बेचने लगे। इतना मुनाफा कमाया जो कुछ भी है यह सब इनके कारण ही है। तुमने इन्हें बेसहारा कर दिया था और हम बेसहारों को मां मिल गई। अच्छा है कि मां को कुछ याद नहीं रहता। मुझे ही अपना बेटा मानती  है। भगवान की कृपा से मुझे यह अटूट रिश्ता मिला है। तुम्हें सब कुछ मिला था पर तुमने खो दिया लालच में अब तुम जा सकते हो।”

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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