हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 5 ☆ लघुकथा ☆ टूटते मकान ☆ – श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’  

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’ जी  एक आदर्श शिक्षिका के साथ ही साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे गीत, नवगीत, कहानी, कविता, बालगीत, बाल कहानियाँ, हायकू,  हास्य-व्यंग्य, बुन्देली गीत कविता, लोक गीत आदि की सशक्त हस्ताक्षर हैं। विभिन्न पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत एवं अलंकृत हैं तथा आपकी रचनाएँ आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित होती रहती हैं। आज प्रस्तुत है  एक लघुकथा   “टूटते मकान ”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य  # 5 ☆

☆ लघुकथा – टूटते मकान   ☆

अभी-अभी नजूल की जमीन सरकार  ने खाली करवानी शुरू की. यह तो अच्छा हुआ कि पहले नोटिस और समय देकर फिर मकान तोड़े जा रहे थे.

पहाड़ी पर बने मकानों को पूरी तरह से पहाड़ ही रहना है सुन्दरता को बरकरार रखने हेतु यह कार्य किया जा रहा था.

बहुत समय पहले हमारा मकान बनाने आये कुछ मजदूरों में एक सुखिया भी आई थी. सुन्दर, धीमी आवाज, उसका मधुर स्वभाव और काम जी तोड़कर करना. ईमानदारी भी कूट कूटकर भरी थी.उसका यह स्वभाव हम सभी को बहुत पसंद आया था. मकान तैयार होने पर  काम खतम हुआ तो उसने घर पर काम करने की इच्छा जाहिर की. हमने उसे रख लिया. वह बहुत खुश होकर काम करती. पति ईंट गारा का काम और सुखिया घर-घर जाकर बर्तन पोंछा करती थी.

आज अभी-अभी दोनों पति-पत्नी हमारे घर आये और बड़े दुखी स्वर में बताने लगे “बाई जी बड़ी मेहनत मजदूरी से घर का सामान बनाया है. बोल्डर चलवा रहे हैं. हम कहाँ जायें बाईजी गाँव छोड़कर काम की तलाश में इहाँ आ गये. फ्रिज, कूलर, अलमारी पेट काट, काटकर बनाये हैं. हम सभी को उन पर दया आई. पहमने उनसे कहा. हमारे एक कमरे में अपना सभी सामान रख लो. जब तक सरकार तुम्हारा पूरी तरह रहने-खाने का इन्तजाम नहीं कर देती तुम यहीं रहो और काम करते रहो. जब तुम्हारा घर बन जाये तब कमरा खाली कर देना. इतना सुनते ही उन दोनों की आँखे भर आईं थी. वे हमें पल भर के लिए इतनी पवित्र लगी कि जैसे यह हमारे किये अच्छे काम का फल था या भ्रम…. उस समय इतनी पवित्र, प्यार और अहसान मंद थी आँखे  कि हम सभी भावुक हो गये. मैने कमरे की चाबी दी सुखिया की आँखों से खुशियाँ झलकने लगी थी. इतमीनान था, शान्ति थी. शायद यह उसकी अच्छाई का नतीजा था.

 

© श्रीमती कृष्णा राजपूत  ‘भूमि ‘

अग्रवाल कालोनी, गढ़ा रोड, जबलपुर -482002 मध्यप्रदेश

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – ‘मेरे’/’मैं ‘ उत्थान और पतन ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  –  ‘मेरे’/’मैं ‘ उत्थान और पतन  

बेहद गरीबी में जन्मा था वह। तरह-तरह के पैबंदों पर टिकी थी उसकी झोपड़ी। उसने कठोर परिश्रम आरम्भ किया। उसका समय बदलता चला गया। अपनी झोपड़ी से 100 गज की दूरी पर आलीशान बिल्डिंग खड़ी की उसने। अलबत्ता झोपड़ी भी ज्यों की त्यों बनाए रखी।

उसकी यात्रा अब चर्चा का विषय है। अनेक शहरों में उसे आईकॉन के तौर पर बुलाया जाता है। हर जगह वह बताता है, “कैसे मैंने परिश्रम किया, कैसे मैंने लक्ष्य को पाने के लिए अपना जीवन दिया, कैसे मेरी कठोर तपस्या रंग लाई, कैसे मैं यहाँ तक पहुँचा..!”

एक बड़े प्रकाशक ने उसकी आत्मकथा प्रकाशित की। झोपड़ी और बिल्डिंग दोनों के फोटो पुस्तक के मुखपृष्ठ पर प्रकाशित किए। आत्मकथा का शीर्षक था, ‘मेरे उत्थान की कहानी।’

कुछ समय बीता। वह इलाका भूकम्प का शिकार हुआ। आलीशान बिल्डिंग ढह गई। आश्चर्य! झोपड़ी का बाल भी बांका नहीं हुआ। उसने फिर यात्रा शुरू की, फिर बिल्डिंग खड़ी हुई।

प्रकाशक ने आत्मकथा के नए संस्करण में झोपड़ी, पुरानी बिल्डिंग का मलबा और नई बिल्डिंग की फोटो रखीं। स्वीकृति के लिए पुस्तक उसके पास आई। झुकी नज़र से उसने नई बिल्डिंग के फोटो पर बड़ी-सी काट मारी। अब मुखपृष्ठ पर झोपड़ी और पुरानी बिल्डिंग का मलबा था। कलम उठा कर शीर्षक में थोड़ा-सा परिवर्तन किया। ‘मेरे उत्थान की कहानी’ के स्थान पर नया शीर्षक था ‘मेरे ‘मैं’ के पतन की कहानी।’

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

(6.57 बजे, 23.12.2019)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 29 – बिदाई ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं  गंगा जमुनी तहजीब की मिसाल पेश करती एक अतिसुन्दर प्रेरक लघुकथा  “बिदाई”। 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 29 ☆

☆ लघुकथा – बिदाई ☆

 

माना अम्मा का बाड़ा शहर के कोने पर मशहूर है। गरीब दुखी परिवार जिनके पास रहने सर छुपाने की जगह नहीं। सभी माना अम्मा के बाड़ा में आकर रहते थे।

माना अम्मा को कोई नहीं जानता था कि कहां की है और किस जात बिरादरी की है। सभी उसे मानते थे। और सभी उनका कहना मानते थे। इसलिए उनका नाम माना अम्मा पड़ गया था।

उसी बाड़े में फातिमा और शकुन दोनों का परिवार रहता था। मेहनत मजदूरी कर अपना अपना परिवार चला रहे थे। एक मुस्लिम परिवार और दूसरा हिंदू परिवार परंतु कहीं कोई भेदभाव नहीं।

दीपावली, होली भी साथ-साथ तो ईद, बकरीद भी मिलकर मनाते थे। फातिमा को गर्भ था। फातिमा बच्चा प्रसव के समय बहुत ही परेशान थी। उसका पति बार-बार डॉक्टर से हाथ जोड़कर कह रहा था… “मेरी फातिमा को बचा लीजिए” परंतु डॉक्टर ने कहा… “इनका शरीर बहुत ही कमजोर हो चुका है और खून की बहुत कमी हो गई है। हमारी कोशिश की जा रही है।” परंतु जो होना था वही हुआ नन्हीं सी बच्ची को जन्म देकर फातिमा शांत हो गई ।

शकुन पास में थी अस्पताल में कुछ उसको समझ में नहीं आ रहा था कि अब क्या करें?? बच्ची को सीने से लगा एक संकल्प लेकर उसे घर ले आए। सभी कहने लगे… कि मुसलमान की लड़की को क्यों पालने जा रही हो! परंतु शकुन को किसी बात की चिंता नहीं थी। और किसी की बात को उसने नहीं सुना ।

अपने पति, पुत्र और उस नन्हीं सी जान को लेकर सदा सदा के लिए बाड़ा से निकलकर दूसरे शहर को चली गई।

आज बिटिया की शादी हो रही है। बिदाई के समय मां के बहते हुए आंसू को बच्ची समझ नहीं पा रही थी। दोनों भाई बहन मां से लिपटे हुए थे और मां कह रही थी.. “बेटे अपनी बहन का अपने से ज्यादा ध्यान रखना। कभी उसे अकेला नहीं करना। हमेशा सुख दुख में उसका साथ देना और कभी मायके की कमी महसूस नहीं होने देना।” बेटा भी मां को अपलक देख रहा था। बहन ने हंसकर कहा… “यह छोड़ेगा तो भी मैं इसे पकड़ कर रखूंगी। आप चिंता ना करें।”

माना अम्मा भी उस शादी में शामिल थी। पुरानी राज की बात को जानकर बहुत ही मंद मंद मुस्कुरा रही थी और अपने आप में गर्व महसूस कर रही थी कि … आज मेरे बाड़े की अहमियत क्या है।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – आमंत्रित  ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – आमंत्रित 

समारोह के आमंत्रितों की सूची बनकर तैयार थी। जुगाड़ लगाकर प्रदेश के एक राज्यमंत्री को बुला लिया था। शहर के प्रमुख अखबार के संपादक और एक चैनल के एक्जिक्यूटिव एडिटर थे। सूची में कलेक्टर थे, डीएसपी थे। कई बड़े उद्योगपति, जाने-माने वकील थे। अभिनेत्री को तो बाकायदा पेमेंट देकर ‘सेलिब्रिटी इनवाइटी’ बनाया था।

‘वे सब लोग आ रहे हैं जिनके दम पर दुनिया चलती है..’ लोअर डिवीजन की क्लर्की से रिटायर हुए अपने वयोवृद्ध पिता को लिस्ट दिखाते हुए इतरा कर साहब ने कहा।

‘ देखूँ ज़रा.., पर इसमें ईश्वर का नाम तो दिखता ही नहीं कहीं जिसके दम पर..,’ पिता ने चश्मे की गहरी नजर से एक-एक शब्द ध्यान से पढ़ते हुए अधूरा वाक्य कहकर अपनी बात पूरी की थी।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 11 ☆ लघुकथा – ग्रहण ☆ – डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है.  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी . उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं.  अब आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे.  आज प्रस्तुत है उनकी एक  सामयिक, सार्थक एवं  मानसिक रूप से विकृत पुरुष वर्ग के एक तबके को स्त्री शक्ति से सतर्क कराती  सशक्त लघुकथा “ग्रहण ”. डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को ऐसी रचना रचने के लिए सादर नमन। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 11 ☆

☆ लघुकथा – ग्रहण ☆ 

 

बहू! दोपहर १२ बजे से सूर्यग्रहण लग रहा है। आज ऑफिस में ही कुछ खा लेना। ग्रहण में कुछ खाते नहीं है।

अम्माजी, मैं ये सब नहीं मानती, ऑफिस से आकर ही खाना खाऊँगी।

सासू माँ को उसका उत्तर पसंद नहीं आया। सास-ससुर दोनों उसकी निंदा में उलझ गए। ये आजकल की बहुएँ थोड़ा पढ़-लिख क्या गई अपने सामने किसी को कुछ समझती नहीं। बहू की निंदा से जो सिलसिला शुरू हुआ वह परिवार के कई सदस्यों को टटोलता हुआ बहुत देर तक चलता रहा—– भगवान ! सुजाता जैसी लड़की किसी को न दे, ब्राह्मण की लड़की कायस्थों में चली गई, नाक कटा दी हमारी। अरे, अपने महेश को देखो। रिश्तेदारों से माँग-माँगकर लड़की की शादी निपटा ली। जाते समय मिठाई का एक टुकड़ा भी नहीं दिया। छोटा भाई है तो क्या? माना एक लड़की और है शादी के लिए, बेटा भी अभी पढ़ ही रहा है- तो क्या? हमारी तो बेकदरी हुई शादी में। घराती क्या खाना नहीं खाते, शादी ब्याह में?

और अपनी दया बहन जी। पति का शुगर बढ़ा हुआ है- तो क्या आफत आ गई? आलू नहीं खायेंगे, भिंडी बनाओ। अपना बैठी रहेंगी हमें काम पर लगा देंगी…… पर निंदा चलती रही। दोपहर १२ बजे से ग्रहण था। उसके पहले ही भरपेट नाश्ता करके दोनों बैठे थे। चार बजे के बाद ही कुछ खाना था। दोनों को कोई काम था नहीं और भरपेट निंदा में बहुत बल था- ‘पर निंदा परं सुखम्।‘

दूरदर्शन पर सूर्यग्रहण पर निरंतर चर्चा चल रही थी। ग्रहण से जुडे मिथकों की वास्तविकता बतायी जा रही थी। अंधविश्वासों का ग्रहण से कोई संबंध नहीं है। गंगा स्नान से पाप धुल जाते तो दुनिया में पापी रह ही नहीं जाते ?

टी.वी. देखते देखते सास-ससुर की चर्चा फिर शुरू हो गयी| हम दोनों ने क्या पाप किए हैं जो बिना खाए-पिए बैठे ग्रहण हटने का इंतजार कर रहे हैं। आशा ! हम दोनों ने तो कभी किसी की बुराई भी नहीं की। कबीर का दोहा मुझे याद आ रहा था-

‘निंदक नियरे राखिये —

कबीर के निंदक को मैं तलाश रही थी। ग्रहण मुझे वहाँ स्पष्ट दिख रहा था।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – # 28 ☆ हिल मिलकर चल ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी  एक शिक्षाप्रद बालकथा “हिल मिलकर चल” बच्चों के लिए ही नहीं बड़ों के लिए भी। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #28 ☆

☆ हिल मिलकर चल ☆

जीभ अपनी धुन में चली जा रही थी. तभी उस ने देखा कि वह ट्राफिक में फंस गई. चारों ओर मोटर कार ट्रक चल रहे है. वह बीच में है. निकलने का रास्ता नहीं है. वह घबरा कर दौड़ी. अचानक एक ट्रक उस के ऊपर से गुजर गया. उस का एक भाग कट गया.

वह जोर से चींखीं,‘‘ ऊंई मां, मरी. कोई बचाओ ?’’

‘‘क्या हुआ ? क्यों चींख रही हो ?’’ दांत ने डपट कर जीभ से कहा.

जीभ चौंकी. उस ने इधर उधर नजर दौड़ाई. वह अपने मुंह में सुरक्षित थी. पास का दांत उसे डपट रहा था.

‘‘तू कहां खो गई थी. तूझे मालुम नहीं पड़ता है. मेरे दांत को बदरंग कर दिया.’’

जीभ ने नजर उठा कर दाढ़ को देखा. वह सफेद से लाल हो चुकी थी. उस का रंग बदरंग हो गया था. तभी उसे अपने कोने पर दर्द हुआ. वहां नजर दौड़ाई. जीभ का एक भाग दांत से कट गया था.

‘‘देख कर काम नहीं करती हो.’’ दाढ़ ने कहा,‘‘ अंधी हो कर चल रही थी. समझ में नहीं आता है. आखिर हम कब तक बचाते. तुम हमारे बीच आ ही गई.’’

जीभ परेशान थी. उसे दर्द हो रहा था. दाढ़ का इस तरह बोलना उसे अच्छा नहीं लगा. वह चिढ़ पड़ी,‘‘अबे अकल के लट्ठ ! कब से मुझे परेशान कर रहा है. एक तो तूने ध्यान नहीं रखा. मुझे काट दिया. फिर जोरजोर से बोल कर मुझे डरा रहा है.’’

दांत को जीभ से इस तरह बोलने की आशा नहीं थी. वह मुलायम जीभ को मुलायम लहजे में बोलने की आशा कर रहा था. दांत स्वयं कठोर था. मगर, जीभ कठोर भाषा में बोलेगी, यह वह नहीं जानता था.

दांत चिढ़ गया,‘‘ अबे ओ लाल लंगूर. एक तो गलती करती हो और ऊपर से शेर बनती हो. जानती हो, तुम्हारा काम, मेरे बिना नहीं चल सकता है. इसलिए मुझ से संभल कर बातें कर करों. समझी ?’’

जीभ कब पीछे रहने वाली थी. उस का काम बातबात पर जोर ज़ोर से चलना था. कोई उसे उलटा सीधा बोले, उसे समझाएं, यह वह कैसे बर्दाश्त कर सकती थी,‘‘ अबे जा. किसी और को डराना. तेरे बिना भी मेरा काम चल सकता है.’’

दांत को भी गुस्सा आ गया,‘‘ क्या कहा. तेरा, मेरे बिना भी काम चल सकता है.’’ यह कहते हुए दांत जीभ की ओर लपका. दांत की सेना को अपने ऊपर आता देख कर जीभ तालू से चिपक गई.

जीभ जानती थी कि वह दांत के हमले से पहले ही घायल हो चुकी है. यदि वापस दांतों ने हमला कर दिया तो उस के टुकड़े टुकड़े हो जाएंगे. मगर, वह जबान चलाने में पक्की थी. इसलिए उस ने कहा,‘‘अबे ओ. बेसूरे की तान. तेरा, मेरे बिना नहीं चलना काम.’’

‘‘देखते हैं किस का, किस के बिना काम नहीं चलता है ?’’ दाढ़ ने चुनौती दी.

जीभ कब पीछे रहने वाली थी,‘‘हां हां देख ले. कौन हारता है ?’’

जीभ ने अपना काम बंद कर दिया. दांत भूखा था. उसे प्यास लग रही थी. मगर, वह बर्दाश्त करता रहा. उस के ऊपर खाने की गंदगी लगी हुई थी. उसे समझ में नहीं आया कि उसे कैसे साफ करें.

दांत ने अपने आप को जोर से हिलाया. मगर, उस पर लगी गंदगी साफ नहीं हुई. जीभ ने स्वाद भेजना बंद कर दिया था. मुंह में पानी आना बंद हो गया.

दांत पर लगी मिर्ची से दांत जलने लगे.

जीभ पर मिर्ची लगी हुई थी. वह भी जलने लगी. उस ने मुंह में पानी लाने के लिए संदेश भेजा. मुंह में पानी आ गया. मगर, वह अंदर नहीं जा रहा था. दांत ने हिलना बंद कर दिया था. जीभ की जलन कम नहीं हुई.

जीभ ने चिल्लाने की कोशिश की. मगर दांत ने हिलना बंद कर दिया था. जीभ बोल नहीं पाई. बंद मुंह में जीभ हिलती रही मगर आवाज बाहर नहीं निकल रही थी.

दांत को भूख लगी. उस ने मुंह खोल लिया. रोटी मुंह में ली. चबाई. मगर, यह क्या ? रोटी जहां पड़ी थी, वही पड़ी रही. रोटी को पलटाने वाली जीभ चुपचाप पड़ी थी. दांत रोटी को नहीं खा पाया.

दाढ़ ने कटर दांत से कहा,‘‘ भाई, रोटी काटो.’’

कटर दांत रोटी काट चुका था,‘‘ इसे कोई उलटे पलटे तो मैं दूसरी जगह से रोटी काटूं,’’ उस ने असमर्थता जताई.

दाढ़ बोली, ‘‘तब तो मैं भी रोटी को पीस नहीं पाऊंगी.’’

जीभ को प्यास लग रही थी. उस ने पानी पीने के लिए संदेश भेजा. हाथ ने गिलास उठाया. मुंह तक लाया. मगर, दांत ने काम करने से मना कर दिया. मुंह नहीं खुला. जीभ पानी नहीं पी पाई.

जीभ समझ गई कि दांत के बिना उस का काम नहीं चल सकता है. दांत को अपने को साफ करना था. वह भी चाहता था कि पानी मुंह में आ जाए. मगर, वह जीभ को सबक सीखाना चाहता था. इसलिए कुछ नहीं बोला पाया.

एक दाढ़ बहुत बूढ़ी हो गई थी. वह गिर कर मरने वाली थी. उस ने मजबूत दाढ़ से कहा,‘‘ बेटा ! मुंह मैं रह कर जीभ से लड़ना अच्छी बात नहीं है.’’

यही बात उस ने जीभ से कही,‘‘ बेटी ! तुम्हारा काम दांत के बिना नहीं चल सकता है. दांत का काम तुम्हारे बिना नहीं चल सकता है. दोनों जब एक दूसरे की सहायता करोगे तब ही मुंह का काम चलेगा.

‘‘अन्यथा, न मुंह बोल पाएगा. न खा पाएगा. दांत भोजन को पीसेगे, मगर उसे पलटेगा कौन ? जीभ बोलेगी, मगर दांत के बिना उस का उच्चारण नहीं हो पाएगा . इसलिए बिना एकदूसरे की किसी का काम चलने वाला नहीं है.’’

जीभ यह बात समझ चुकी थी. दाढ़ को भी इस बात का पता चल गया था. दोनों का एकदूसरे के बिना काम चलने वाला नहीं है.

जीभ बोली, ‘‘हां दादा, गलती मेरी थी. मैं ध्यान से काम नहीं कर रही थी. इस कारण आप के बीच में आ गई. आपं ने अनजाने में मुझे काट लिया.’’

इस पर दांत ने कहा,‘‘ नहीं नहीं बहन, गलती तुम्हारी नहीं, हमारी है. हम ने अपने बहन की रक्षा नहीं की.’’

यह सुनते ही जीभ की आंखें भर आई. वह अपने दांतभाई के गले से लिपट कर रोने लगी,‘‘भाई, मुझे माफ कर देना. मैं इतनी सी बात समझ नहीं पाई कि हिलमिल कर रहने में ही भलाई है.’’

‘‘हां बहन, यह बात मैं भी भूल गया था,’’ कहते हुए दांत ने काम करना शुरू कर दिया.

जीभ भी चलने लगी.

दांत की सफाई हो गई. उस की प्यास बूझ गई. जीभ की जलन बंद हो गई.

जीभ और दांत दोनों चमक कर हंसने लगे.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 28 – गुदड़ी ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी  इस भौतिकवादी  स्वार्थी संसार में ख़त्म होती संवेदनशीलता पर एक शिक्षाप्रद लघुकथा  “गुदड़ी”। 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 28 ☆

☆ लघुकथा – गुदड़ी ☆

अमरनाथ और भागवती दोनों पति-पत्नी सुखमय जीवन यापन कर रहे थे। उनका एक बेटा सरकारी नौकरी पर था। बड़े ही उत्साह से उन्होंने अपने बेटे का विवाह किया। बहू आने पर सब कुछ अच्छा रहा, परंतु वही घर गृहस्थी की कहानी।  बूढ़े मां बाप को घर में रखने से इनकार करने पर बेटे ने सोचा मां पिताजी को वृद्धा आश्रम में भेज देते हैं। और कभी कभी देखभाल कर लिया करेंगे।

अमरनाथ और भागवती बहुत ही सज्जन और पेशे से दर्जी का काम किया करते थे। भागवती ने बचे खुचे कपड़ों से एक गुदड़ी बनाई थी। जिसे वह बहुत ज्यादा सहेज कर रखती थी। हमेशा अपने सिरहाने रखे रहती थी। जब वृद्ध आश्रम में जाने को तैयार हो गए तो बेटे ने कहा…. तुम्हें घर से कुछ चाहिए तो नहीं। मां ने सिर्फ इतना कहा.. बेटे मुझे मेरी गुदड़ी दे दो। जो मैं हमेशा ओढती हूं।  बेटे को बहू ने टेड़ी नजर से देखकर कहा.. वैसे भी यह गुदड़ी हमारे किसी काम की नहीं है, फेंकना ही पड़ेगा दे दो। फटी सी गुदड़ी को देख अमरनाथ भी बोल पड़े.. क्यों ले रही हो जहां बेटा भेज रहा है। वहां पर कुछ ना कुछ तो इंतजाम होगा। परंतु भागवती अपनी गुदड़ी को लेकर गई।

वृद्ध आश्रम पहुंचने पर मैनेजर ने उन दोनों को रख लिया और सभी वृद्धजनों के साथ रहने को जगह दे दी। दोनों रहने लगे।

कुछ दिनों बाद इस सदमे को अमरनाथ बर्दाश्त नहीं कर सके और अचानक उसकी तबीयत खराब हो गई। बेटे ने खर्चा देने से साफ मना कर दिया। अस्पताल में खर्च को लेकर वृद्धा – आश्रम वालों भी कुछ आनाकानी करने लगे। तब भागवती ने कहा.. आप चिंता ना करें पैसे मैं स्वयं आपको दूंगी। उन्होंने सोचा शायद  बुढ़ापे की वजह से ऐसा बोल रही हैं।

भागवती ने अपनी गुदड़ी एक तरफ से सिलाई खोल नोटों को निकालने लगी। जो उन्होंने अपने गृहस्थ जीवन में बचाकर उस गुदड़ी पर जमा कर रखी थी। सभी आश्चर्य से देखने लगे अमरनाथ जल्द ही स्वस्थ हो गए। पता चला कि खर्चा पत्नी भागवती ने अपने गुदड़ी से दिए।

उन्होंने आश्चर्य से अपने पत्नी को देखा और कहा.. तभी मैं कहूं कि रोज  गुदड़ी की सिलाई कैसे खुल जाती है और रोज उसे क्यों सिया  किया जाता है। अब समझ में आया तुम वास्तव में बहुत समझदार हो। भागवती ने  हंस कर कहा.. घर के कामों में बच  जाने के बाद जो बचत होती थी मैं भविष्य में नाती पोतों के लिए जमा कर रही थी, परंतु अब बेटा ही अपना नहीं रहा। तो इन पैसों का क्या करूंगी। यह आपकी मेहनत की कमाई आपके ही काम आ गई।

स्वस्थ होकर दोनों वृद्ध आश्रम को ही अपना घर मानकर रहने लगे। बेटे को पता चला उसने सोचा मां पिताजी को घर ले आए उसके पास और भी कुछ सोने-चांदी और रुपए पैसे होंगे। परंतु अमरनाथ और भागवती ने घर जाने से मना कर दिया उन्होंने हंसकर कहा मैं और मेरी ‘गुदड़ी’ भली।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 10 ☆ लघुकथा – दुःख में सुख ☆ – डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है.  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी . उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं.  अब आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे.  आज प्रस्तुत है उनकी एक  सामयिक, सार्थक एवं  मानसिक रूप से विकृत पुरुष वर्ग के एक तबके को स्त्री शक्ति से सतर्क कराती  सशक्त लघुकथा “दुःख में सुख”. डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को ऐसी रचना रचने के लिए सादर नमन। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 10 ☆

☆ लघुकथा – दुःख में सुख ☆ 

 

माँ की पीठ पहले की अपेक्षा अधिक झुक गयी थी । डॉक्टर का कहना है कि माँ को पीठ सीधी रखनी चाहिए वरना रीढ़ की हड्डी पर असर पड़ता है साथ ही याददाश्त भी कमजोर हो जाती है।

गर्मी की छुट्टियों में मायके गयी तो देखा कि माँ थोड़ी ही देर पहले कही बात भूल जाती है। आलमारी की चाभी और रुपए पैसे रखकर भूलना तो हर समय की बात हो गयी थी। कई बार परेशान होकर वह खुद ही कह उठती- पता नहीं क्या हो गया है ? लगता है मैं पागल होती जा रही हूँ। कुछ याद ही नहीं रहता- कहाँ- क्या रख दिया ?

झुकी पीठ के साथ माँ दिन भर काम में लगी रहती। सुबह की एक चाय ही बस आराम से पीना चाहती। उसके बाद झाड़ू, बर्तन, खाना, कपड़े-धोने का जो सिलसिला शुरू होता वह रात ग्यारह बजे तक चलता रहता। रात में सोती तो बिस्तर पर लेटते ही कराह उठती। झुकी पीठ में टीस उठती। फिर वही सिलसिला दूसरे दिन का……..

बेटियों के मायके आने पर माँ की झुकी पीठ कुछ तन जाती। अपनी आयु और स्वास्थ्य भूलकर वह और तेजी से काम में जुट जाती। उसे चिंता होती कि बेटे-बहू का कोई कड़वा बोल बेटियों के कानों में न पड़ जाए। उपेक्षा का भाव बेटियों को नजर ना आ जाए। माहौल खुशनुमा बनाने के लिए और खुद को प्रसन्न दिखाने के लिए वह गुनगुनाती, नाती-नातिन के साथ हँसती, खेलती, खिलखिलाती…….. ?

वह गर्मी की रात, थकी-हारी माँ छत पर लेटी थी। इलाहबाद की गर्मी, हवा का नाम नहीं। माँ नाती-पोतों से घिरी लेटी है। हवा चले, इसके लिए वह बच्चों से जोर-जोर से बुलवा रही है-  चिडिया ,कौआ ,तोता  सब उड़ो, उड़ो, उड़ो, हवा चलो, चलो, चलो बच्चे चिल्ला- चिल्लाकर बोल रहे थे। बच्चों के लिए अच्छा खेल था। माँ मानों अपने-आप से बोलने लगी- बेटी खुश रहा करो। बातों को भूलने की कोशिश किया करो। हम औरतों के लिए बहुत जरुरी है यह। जब से हर बात भूलने लगी हूँ मन बड़ा शांत है। किसी की तीखी कड़वी बात थोड़ी देर असर करती है फिर कुछ याद ही नहीं रहता। किसने क्या कहा, क्यों कहा, क्या ताना मारा……. कुछ नहीं। यह कहकर माँ ने लंबी साँस भरी।

बोलते-बोलते माँ कब सो गयी पता नहीं चला। चाँदनी उसके चेहरे पर पसर गयी थी। माँ के विश्वास ने ठंडी हवा भी चला दी थी। मुझे डॉक्टर की कही बात याद आ रही थी लेकिन माँ ने दु:ख में भी सुख ढूंढ लिया था।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #27 ☆ गणना ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी  एक सार्थक लघुकथा  “गणना ”। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #27 ☆

☆ गणना ☆

 

अनीता बहुत परेशान थी.  250 बच्चों की गणना करना, फिर उन्हें जातिवार बांटना, लड़का- लड़की में छांटना – यह वह अकेली कर नहीं पा रही थी . आखिर थक हर कर अपने एक शिक्षक साथी से कहा , “आप मेरी गणना करवा दीजिए.”

साथी मुंहफट था “मैं आप  का काम करवा देता हूँ, बदले मुझे क्या मिलेगा ?”

“जो आप चाहे,” कहने को अनीता कह गई, मगर बाद में उस ने बहुत सोचा और इस निष्कर्ष पर पहुंची कि घर से दूर रह कर यह गठबंधन करने में ही उसे ज्यादा फायदा है. अन्यथा वह यहाँ अकेली नौकरी नहीं कर पाएगी. इसलिए चुपचाप साथी के साथ गणना करने चल दी.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – संभावनाएं ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  –  संभावनाएं

बारिश मूसलाधार है। हो सकता है कि इलाके की बिजली गुल हो जाए। हो सकता है कि सुबह तक हर रास्ते पर पानी लबालब भर जाए। हो सकता है कि कल की परीक्षा रद्द हो जाए।

अगली सुबह आकाश निरभ्र था और वातावरण सुहाना। प्रश्नपत्र देखने के बाद आशंकाओं पर काम करने वालों की निब सूख चली थी पर संभावनाओं को जीने वालों की कलम बारफ़्तार दौड़ रही थी।

आज का दिन संभावनाओं से भरा हो।

 

संजय भारद्वाज

[email protected]

प्रात: 8:18, 7.12.2019

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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