डॉ. ऋचा शर्मा
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है. किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी . उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं. अब आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे. आज प्रस्तुत है उनकी एक भावप्रवण लघुकथा “ आईने में माँ ”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 8 ☆
☆ लघुकथा – आईने में माँ ☆
आईने के सामने खड़ी होती हूँ तो मुझे उसमें माँ का चेहरा नजर आता है, ये आँखें देखो…..माँ की ही तो हैं — वही ममतामयी पनीली आँखें, कुछ सूनापन लिए हुए। बार-बार पीछे पलटकर देखती हूँ – नहीं, कहीं नहीं है माँ आसपास, फिर ?
फिर देखा आईने की ओर, आँखें कुछ कह रही थीं मुझसे – रह गई न तुम भी अकेली अपने घर में ? बच्चे पढ़ लिखकर अपने काम में लग गए होंगे, किसी दूसरे शहर में या क्या पता विदेश में? आजकल तो एजूकेशन लोन लेकर बड़े गर्व से तुम लोग बच्चों को विदेश भेज देते हो। बच्चे विदेश पढने जाते हैं और वहीं बस जाते हैं फिर जिंदगी भर राह तकते बैठे रहो उनके आने की।
आँखें बिना रुके निरंतर बोल रही थीं मानों आज सब कुछ कहे बिना चुप ही न होंगी – जय तो शाम को ही आता होगा ? उसके आने के बाद तुम बहुत कुछ कहना चाहती होगी, दिन भर की बातें, जो तुमने मन ही मन बोली हैं अकेले में, लेकिन वह सुनता है क्या ?
हमारे समय में तो मोबाईल भी नहीं था फिर भी तेरे पिता के पास समय नहीं होता था मेरी बातें सुनने का। क्या पता इच्छा ही न होती हो मेरी बात सुनने की ? चाय-नाश्ता करके फिर निकल पड़ते थे अपने दोस्त यारों से गप्पे मारने। अरे हाँ ! अब तो व्हाट्सअप का समय है। खासतौर से पतियों को इसने अपनी गिरफ्त में ले लिया है। अच्छा लगता है उन्हें अपनी दूर की भाभियों को मैसेज फारवर्ड करते रहना, पत्नी की क्या सुने ? घर में ही तो है कहाँ जाने वाली है? फारवर्डेड मैसेज से दूसरों पर इम्प्रेशन डालना जरुरी है, भई।
बोलते-बोलते आँखें आँसुओं से लबालब हो रही थीं। शादी के बाद बच्चों और परिवार में औरतें अपने को भूल ही जाती हैं और जब उसका पूरा अस्तित्व परिवार में समा जाता है तब उसे अकेला छोड़ दिया जाता है यह कहकर – बहुत शिकायत करती थीं ना ‘समय नहीं मिलता अपने लिए’ ? अब लो समय ही समय है ? करो, क्या करना चाहती थीं अपने लिए ?
औरत मूक भाव से देखती रह जाती है पति और बच्चों के चेहरों को किसी अबूझ पहेली की तरह। जब परिवार को जरूरत थी एक माँ की, पत्नी की, तब सब कुछ भूलकर जुट रही, जरूरत खत्म होने पर आदेश- अब जियो जैसे जीना चाहती हो। कैसे बताए कि जिम्मेदारियों की बेड़ियों ने खुलकर जीने की आदत ही नहीं रहने दी अब। ऐसे में घर के हर कमरे में बिखरा समय, सिर्फ सन्नाटा और सजा है एक औरत के लिए।
खाली घर में चादर की सलवटें ठीक करती, कपड़े सहेजती, डाइनिंग टेबिल साफ करती बंद होठों वाली औरत कभी बुदबुदाती है अपने आप से, कभी पाती है अपने सवालों के जवाब खुद से, कभी कमरों में बिखरी बच्चों की खट्टी मीठी यादों के साथ मुस्कुराती है तो कभी आँसुओं की झड़ी गालों को तर कर देती है – पर कोई नहीं है इसे देखने वाला, ना आँसू पोंछनेवाला, ना साथ बैठ यादों को ताजा कर मुस्कुराने वाला।
आईने में दिखती आँखें मानों गुस्से में बरस पड़ीं – ना – ना रोना मत, बतियाना मत अकेले में खुद से, बाहर निकल इस सन्नाटे से, अकेलेपन से वरना तेरे अपने तुझे पागल करार देंगे।
बेसिन में पानी बह रहा था, हाथों में लेकर मुँह पर ठंडा पानी डाला, छपाक – आईने में मेरा चेहरा था, मेरी आँखें ?
कहाँ गई माँ ? उसकी पनीली आँखे ? मैंने फिर पलटकर देखा, वह कहीं नहीं थी।
मेरे चेहरे पर माँ की आँखें उग आई थीं ?
© डॉ. ऋचा शर्मा
अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.
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