हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ पैबंद ☆ श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

(सुप्रसिद्ध, ओजस्वी,वरिष्ठ साहित्यकार श्रीमती हेमलता मिश्रा “मानवी”  जी  विगत ३७ वर्षों से साहित्य सेवायेँ प्रदान कर रहीं हैं एवं मंच संचालन, काव्य/नाट्य लेखन तथा आकाशवाणी  एवं दूरदर्शन में  सक्रिय हैं। आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय स्तर पर पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित, कविता कहानी संग्रह निबंध संग्रह नाटक संग्रह प्रकाशित, तीन पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद, दो पुस्तकों और एक ग्रंथ का संशोधन कार्य चल रहा है। आज प्रस्तुत है श्रीमती  हेमलता मिश्रा जी  की एक शिक्षाप्रद एवं प्रेरक लघुकथा पैबंद)

 

लघुकथा – पैबंद  ☆

 

बरात बिदा हुई। रोती रोती नई दुल्हन श्यामा कब नींद में खो  गई पता ही नहीं चला।

एकाएक नींद खुली,  पता लगा बरात ससुराल  द्वारे पहुंच चुकी है। परछन के लिए सासु माँ दरवाजे पर आ खडी हुईं। ज्यों ही हाथ उठाया बहू को परछन कर  टीका लगाने के लिए—कि ब्लाउज की  बाँह के पास पैबंद दिखाई पड़ा नई बहू को।

कठोर पुरातनपंथी दादी सास और  माँ के पुछल्ले लल्ला–अपने ससुर जी के बारे में बहुत सुन रखा था आने वाली बहू ने। उसी समय मन ही मन संकल्प लिया कि बस  अब पैबंद और नहीं, कभी नहीं । आज सासु माँ नये कपड़ों में – परछन की नई साड़ी नये बलाउज में मेरी अगवानी करेंगी और आगे से पैबंद कभी नहीं !

– – – और अगली सुबह रिश्तेदारों ने देखा कि एक नहीं दो दो नई नई बहुएं नजर आ रहीं हैं घर में— सासजी भी कितने वर्षों में आज पहली बार बहू जैसी सजी सँवरी हैं और – – दादी सासु माँ के लाडले लल्ला नई बहू के महाकंजूस  ससुरजी—एक कोने में उखड़े उखड़े से बैठे हैं और अपनी पूजनीय माताजी से  बतरस का आनंद ले रहे हैं।

पास खड़ी – – दूल्हा भाई से छोटी चार  ननदें कृतज्ञ नजरों से  ही मानों भाभी की आरती उतार रहीं हैं और भविष्य उनका भी सुधर गया है वे सभी  आश्वस्त हैं।

 

© हेमलता मिश्र “मानवी ” 

नागपुर, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 27 – प्रेम ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी एक भावप्रवण लघुकथा  “ प्रेम ”। 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 27 ☆

☆ लघुकथा – प्रेम ☆

 

रेल की पटरियों के किनारे, स्टेशन के प्लेटफार्म से थोड़ी दूर, ट्रेन को आते जाते  देखना रोज ही, मधुबनी का काम था। रूप यौवन से भरपूर, जो भी देखता  उसे मंत्रमुग्ध हो जाता था। कभी बालों को लहराते, कभी गगरी उठाए पानी ले जाते। धीरे-धीरे वह भी समझने लगी कि उसे हजारों आंखें देखती है। परंतु सोचती ट्रेन में बैठे मुसाफिर का आना जाना तो रोज है। कोई ट्रेन मेरे लिए क्यों रुकेगी।

एक मालगाड़ी अक्सर कोयला लेकर वहां से निकलती। कोयला उठाने के लिए सभी दौड़ लगाते थे। उसका ड्राइवर जानबूझकर गाड़ी वहां पर धीमी गति से करता या फिर मधुबनी को रोज देखते हुए निकलता था। मधुबनी को उसका देखना अच्छा लगता था। परंतु कभी कल्पना करना भी उसके लिए चांद सितारों वाली बात थी।

एक दिन उस मालगाड़ी से कुछ सज्जन पुरुष- महिला उतरे और मधुबनी के घर की ओर आने लगे। साथ में ड्राइवर साहब भी थे। सभी लोग पगडंडी से चलते मधुबनी के घर पहुंचे और एक सज्जन जो ड्राइवर के पिताजी थे। उन्होंने मधुबनी के माता पिता से कहा – हमारा बेटा सतीश मधुबनी को बहुत प्यार करता है। उससे शादी करना चाहता है क्या आप अपनी बिटिया देना चाहेंगे। सभी आश्चर्य में थे, परंतु मधुबनी बहुत खुश थी और उसका प्रेम, इंतजार सभी जीत गया। सोचने लगी आज आंखों के प्रेम ने ज़िन्दगी की चलती ट्रेन को भी कुछ क्षण रोक लिया।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 9 ☆ लघुकथा – छठवीं उंगली ☆ – डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है.  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी . उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं.  अब आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे.  आज प्रस्तुत है उनकी एक  सामयिक, सार्थक एवं  मानसिक रूप से विकृत पुरुष वर्ग के एक तबके को स्त्री शक्ति से सतर्क कराती  सशक्त लघुकथा “छठी उंगली ”. डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को ऐसी रचना रचने के लिए सादर नमन। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 9 ☆

☆ लघुकथा – छठी उंगली ☆ 

 

एक डिग्री कॉलेज में संगोष्ठी के लिए निमंत्रण आया था। कुछ एक घंटे की दूरी पर था वह शहर। बस से जाना था। बस का सफर मैं टालती हूँ पर आयोजकों का आग्रह अधिक था सो चल पड़ी। साथ में मैत्रेयी पुष्पा का उपन्यास ‘झूला नट’ ले लिया। बस में मैं खिड़की के पासवाली सीट ही लेती हूँ। वहाँ बैठकर मैं बाहर की हवा को अधिक से अधिक अपनी साँस में भरने की कोशिश कर रही थी जिससे पेट्रोल की गंध मुझ पर बेअसर रहे।

अगले बस स्टॉप से एक सज्जन (पुरुष कहना ज्यादा उचित है) बस में चढ़े और मेरी सीट पर आकर बैठ गए। सफर के दौरान साथ में सीट पर कोई महिला हो तो चैन से आँखें बंदकर के भी बैठा जा सकता है। पर सोचा ये सीट तीन लोगों के लिए है तो कोई असुविधा नहीं होगी।

मैंने एक चोर नजर उस व्यक्ति पर डाली चेहरे से तो भला लग रहा था लेकिन चेहरे से भलमनसाहत का पता चलता तो बात ही क्या थी ? सफेदपोश भेड़ियों से हमारी ना जाने कितनी बच्चियाँ बच जातीं ? दुराचार की शिकार लडकियों को हम निर्भया नाम दे देते हैं पर उस समय उन पर जो गुजरती है उस भय तथा पीडा की कल्पना भी रोंगटे खडे कर देती है ।

मैं उपन्यास पढ़ने लगी। उपन्यास की नायिका शीलो का अपनी छठी उँगली काटना मुझे सन्न कर गया। उसके साथ जो हुआ उसकी दोषी वह अपनी अपशकुनी छठी उँगली को मान रही थी। उपन्यास की इस घटना ने मुझे झकझोर दिया। मैं अपनी उँगलियाँ धीरे से सहलाने लगी कि आवाज सुनाई दी –

“आप टीचर हैं ?”

मैने सिर उठाकर देखा। बगल में बैठा व्यक्ति प्रश्न कर रहा था।

“जी।“

“हिंदी विषय है ?” उसने मेरी पुस्तक की ओर देखते हुए पूछा

“जी।“

“महाराष्ट्र की हैं आप ?”

“मूल रूप से उत्तर – प्रदेश की रहने वाली हूँ”, मैंने संक्षिप्त उत्तर दिया।

उपन्यास रोचक लग रहा था। शीलो का आगे क्या होगा, इसकी उत्सुकता थी कि एक और प्रश्न – “तो महाराष्ट्र में कैसे ?”

“मैं पढाती हूँ।”

प्रश्नों के सिलसिले को टालने के लिए मैंने फिर से आँखें पुस्तक में गढ़ा ली। वैसे भी मैं बस के सफर में किसी से अधिक बात करना पसंद नहीं करती। परंतु उधर से बातचीत का सिलसिला जारी रखने की पूरी कोशिश –

“ओह ! तो उत्तर प्रदेश की रहने वाली हैं और महाराष्ट्र में नौकरी करती हैं।“

“मेरी पोस्टिंग भी आजकल लखनऊ में है। लखनऊ अच्छा शहर है।”

“जी।”

“पर उत्तर प्रदेश में महिलाओं के लिए वातावरण सुरक्षित नहीं है। मैं अपनी पत्नी और बेटी को अपने साथ लखनऊ ले गया था लेकिन वापस ले आया। आपको कुछ अंतर महसूस हुआ महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश के माहौल में स्त्रियों की सुरक्षा की दृष्टि से ?”

“हाँ, महाराष्ट्र काफी सुरक्षित है महिलाओं के लिए। खैर आजकल तो पूरे देश में हालात बहुत खराब हैं, किसी एक राज्य की बात नहीं है। मासूम बच्चियों और स्त्रियों पर हर जगह अत्याचार हो रहे हैं। शेल्टर होम जैसी जगह भी सुरक्षित नहीं रह गई। रक्षक ही भक्षक हो गए हैं अब तो, क्या कहा जाए ?”

“आप चाहे जो कहिए पर हमारा राज्य बहुत सुरक्षित है।”

वैसे इस बात से मैं भी सहमत थी इसलिए मैंने इस विषय पर ज्यादा बात करना उचित नहीं समझा। मैंने किताब बंद कर पर्स में डाली और ऑंखें मूंदकर बैठ गई। आँखें बंद थीं पर दिमाग नहीं। महिलाओं की छठी इंद्रिय सक्रिय हो जाती है जब कोई अनजान पुरुष सफर में साथ बैठा हो| अभी तमुझे कुछ ऐसा महसूस होने लगा कि उस व्यक्ति का हाथ मेरे शरीर के बहुत नजदीक आ गया है। तीन यात्रियों की सीट पर दो यात्री बहुत आराम से दूर – दूर बैठ सकते हैं। मैने सोचा शायद गल्ती से हाथ लग गया होगा। हर वक्त किसी पुरुष के बारे में गलत सोचना भी ठीक नहीं है। लेकिन मेरा सोचना सही था,  उसका हाथ मुझे सिर्फ छू ही नहीं रहा बल्कि मैं अपने शरीर पर उसके शरीर का दबाव महसूस कर रही थी जैसे कि कोई मुझे खिड़की की ओर धकेल रहा हो।

मुझे मन ही मन क्रोध आने लगा। थोड़ी देर पहले ही यह आदमी महिलाओं की सुरक्षा की बात कर एक राज्य के वातावरण को उनके लिए असुरक्षित बता रहा था। अब ये खुद क्या कर रहा है ? आँखें बंद किए मैं सोच रही थी कि क्या करूं ? बचपन से ही एक लड़की ऐसी स्थिति में अपने को सुरक्षित करने के लिए जो हथकंडे अपनाती है वही करूं ? सिमट जाऊँ ? दोनों के बीच में पर्स रखूं या उठकर एक जोरदार थप्पड़ रसीद कर दूं? कंडक्टर को बुलाऊँ क्या ?

दिमाग में उथल पुथल थी। झूला नट उपन्यास की नायिका शीलो की कटी हुई छठी उंगली मेरे सामने दर्द से छटपटा रही थी। गलती ना तो छठी उंगली की थी ना शीलो की, दोषी शीलो का पति था जिसने एक पत्नी के रहते हुए शीलो से दूसरा विवाह कर लिया था। दंड का भागी वह था, ना शीलो, ना अपशकुनी मानी जाने वाली उसकी छठी उंगली, उसे दंड क्यों मिले ?

मैं सीट से उठ खड़ी हुई। लोगों को सुनाते हुए मेरी सीट पर बैठे उस व्यक्ति से जोर से बोली – “यहाँ से उठ जाइए या तमीज से दूर बैठिए। ये तीन व्यक्तियों की सीट है। बस के धक्कों के नाम पर गलती से भी आपका हाथ मेरे शरीर को छूना नहीं चाहिए। एक सलाह और देती हूँ अपनी बेटी को लखनऊ से तो वापस ले आए हैं, ऐसा तो नहीं कि वह अपने घर में ही असुरक्षित हो ? ?”

आसपास बैठे यात्री मेरा तमतमाया चेहरा देख रहे थे। उनमें खुसपुसाहट शुरू हो गई थी।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #26 ☆ प्रेरणा ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी  एक अतिसुन्दर लघुकथा  “प्रेरणा”। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #26 ☆

☆ प्रेरणा ☆

खुद कमा कर पढ़ाई करने वाले एक छात्र की सिफारिश करते हुए कमलेश ने कहा, “यार योगेश! तू उस छात्र की मदद कर दें. वह पढ़ने में बहुत होशियार है. डॉक्टर बन कर लोगों की सेवा करना चाहता है.”

“ठीक है मैं उस की मदद कर दूंगा.  उस से कहना कि मेरी नई नियुक्त संस्था से शिक्षाऋण का फार्म भर कर ऋण प्राप्त कर लें.” योगेश ने कहा तो कमलेश बोला, “मगर, मैं चाहता हूं कि तू उस की निस्वार्थ सेवा करें. उसे सीधे अपने नाम से पैसा दान दें.”

“नहीं यार! मैं ऐसा नहीं करना चाहता हूं ?”  योगेश ने कहा तो कमलेश बोला, “इस से तेरा नाम होगा ! लोग तूझे जिंदगी भर याद रखेंगे.”

“हाँ यार. तू बात तो ठीक कहता है. मगर,  मैं नहीं चाहता हूं कि उस छात्र की मेहनत कर के पढ़ने की जो प्रेरणा है वह खत्म हो जाए.”

“मैं उसे जानता हूं, वह बहुत मेहनती है. वह ऐसा नहीं करेगा”, कमलेश ने कुछ ओर कहना चाहा मगर, योगेश ने हाथ ऊंचा कर के उसे रोक दिया.

“भाई कमलेश ! यह उस के हित में है कि वह मेहनत कर के पढाई करें”, कह कर यौगेश ने अपनी आंख में आए आंसू को पौंछ लिए, “तुम्हें तो पता है कि दूध का जला छाछ भी फूंक—फूंक कर पीता है.”

यह सच्चाई सुन कर कमलेश चुप हो गया.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 26 – गुलाबी  गुड़िया ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी एक अत्यंत भावुक लघुकथा    “गुलाबी  गुड़िया ”। 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 26 ☆

☆ लघुकथा – गुलाबी  गुड़िया ☆

 

‘आरुषि’ अपने मम्मी-पापा की इकलौती संतान। उसे बहुत ही प्यार से रखा था। सब कुछ आरुषि के मन का होता था। कहीं आना-जाना  क्या पहनना, क्या खाना। छोटी सी आरुषि की उम्र 6 साल थी। खिलौने से दिनभर खेलना और मम्मी पापा से दिन भर बातें करना। सभी को अच्छा लगता था। खिलौने में सबसे प्यारी उसकी एक गुड़िया थी। प्यार से उसका नाम उसने गुलाबी रखा था। दिन भर गुड़िया से बातें करना, उसको कपड़े पहनाना, कभी छोटी सी साइकिल पर बिठा कर चलाना। गुलाबी से मोह इतना कि रात में भी उसे अपने साथ सुलाती थी।

एक दिन मम्मी-पापा के साथ घूमने निकली। आरुषि अपनी गुड़िया को भी ले गई थी। रास्ते में अत्यधिक भीड़ होने की वजह से मम्मी ने कहा “आरू, गुड़िया हम रख लेते हैं। आप संभल कर गाड़ी (दुपहिया वाहन) पर बैठो”। आरुषि गुड़िया को मम्मी को पकड़ा कर पापा के सामने जा बैठी। सब खुश होकर गाना गाते हुए चले जा रहे थे। अचानक सामने से आती ट्रक की चपेट में तीनों बुरी तरह घायल हो गए। अस्पताल में आरुषि और पापा तो बच गए परंतु मम्मी का देहांत हो गया। कुछ समझ नहीं आ रहा था कि आरुषि को कैसे समझाया  जाए। अंतिम विदाई के समय सभी की आंखें नम थी। परंतु आरुषि चुपचाप सब कुछ देख रही थी। सभी ने कहा मम्मी भगवान के घर चली गई। जब अर्थी ले जाने लगे, तभी आरुषि दौड़कर अपने कमरे में गई और अपनी प्यारी गुड़िया को लेकर आई और मम्मी के पास रखते हुए बोली “भगवान घर मम्मी अकेले जाएगी, मैं नहीं रहूंगी तो कम से कम गुलाबी के साथ बात करेंगी। सभी शांत और भाव विभोर थे आखिर इस नन्ही बच्ची को कैसे समझाएं।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – चयन ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  –  चयन

 

‘न रूप न रंग, न स्टाइल न स्मार्टनेस, न हाई पैकेज न गवर्नमेंट जॉब, न खानदानी रईस, न जागीरदार..,’ खीजकर उसकी सहेली बोले जा रही थी।..’कैसे हाँ कह दी? आख़िर क्या देखा तुमने इस लड़के में?’

 

‘…साथ चलने और साथ जीने की संभावना..,’  मुस्कराते हुए उसने उत्तर दिया।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

सुबह 10.45 बजे,27.11.19

 

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – ☆ लघुकथा ☆ नीरव प्रतिध्वनि ☆ – डॉ चंद्रेश कुमार छतलानी

डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

 

(डॉ चंद्रेश कुमार छतलानी जी  लघुकथा, कविता, ग़ज़ल, गीत, कहानियाँ, बालकथा, बोधकथा, लेख, पत्र आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं.  आपकी रचनाएँ प्रतिष्ठित राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं. हम अपेक्षा करते हैं कि हमारे पाठकों को आपकी उत्कृष्ट रचनाएँ समय समय पर पढ़ने को मिलती रहेंगी. आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर सार्थक  लघुकथा   “नीरव प्रतिध्वनि”.)

 

☆ लघुकथा – नीरव प्रतिध्वनि ☆ 

 

हॉल तालियों से गूँज उठा, सर्कस में निशानेबाज की बन्दूक से निकली पहली ही गोली ने सामने टंगे खिलौनों में से एक खिलौना बतख को उड़ा दिया था। अब उसने दूसरे निशाने की तरफ इशारा कर उसकी तरफ बन्दूक उठाई। तभी एक जोकर उसके और निशानों के बीच सीना तान कर खड़ा हो गया।

निशानेबाज उसे देख कर तिरस्कारपूर्वक बोला, “हट जा।”

जोकर ने नहीं की मुद्रा में सिर हिला दिया।

निशानेबाज ने क्रोध दर्शाते हुए बन्दूक उठाई और जोकर की टोपी उड़ा दी।

लेकिन जोकर बिना डरे अपनी जेब में से एक सेव निकाल कर अपने सिर पर रख कर बोला “मेरा सिर खाली नहीं रहेगा।”

निशानेबाज ने अगली गोली से वह सेव भी उड़ा दिया और पूछा, “सामने से हट क्यों नहीं रहा है?”

जोकर ने उत्तर दिया, “क्योंकि… मैं तुझसे बड़ा निशानेबाज हूँ।”

“कैसे?” निशानेबाज ने चौंक कर पूछा तो हॉल में दर्शक भी उत्सुकतावश चुप हो गए।

“इसकी वजह से…” कहकर जोकर ने अपनी कमीज़ के अंदर हाथ डाला और एक छोटी सी थाली निकाल कर दिखाई।

यह देख निशानेबाज जोर-जोर से हँसने लगा।

लेकिन जोकर उस थाली को दर्शकों को दिखा कर बोला, “मेरा निशाना देखना चाहते हो… देखो…”

कहकर उसने उस थाली को ऊपर हवा में फैंक दिया और बहुत फुर्ती से अपनी जेब से एक रिवाल्वर निकाल कर उड़ती थाली पर निशाना लगाया।

गोली सीधी थाली से जा टकराई जिससे पूरे हॉल में तेज़ आवाज़ हुई – ‘टन्न्न्नन्न…..’

गोली नकली थी इसलिए थाली सही-सलामत नीचे गिरी। निशानेबाज को हैरत में देख जोकर थाली उठाकर एक छोटा-ठहाका लगाते हुए बोला, “मेरा निशाना चूक नहीं सकता… क्योंकि ये खाली थाली मेरे बच्चों की है…”

हॉल में फिर तालियाँ बज उठीं, लेकिन बहुत सारे दर्शक चुप भी थे उनके कानों में “टन्न्न्नन्न” की आवाज़ अभी तक गूँज रही थी।

 

डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

3 प 46, प्रभात नगर, सेक्टर-5, हिरण मगरी, उदयपुर (राजस्थान) – 313 002

ईमेल:  [email protected]

फ़ोन: 9928544749

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 8 ☆ लघुकथा – आईने में माँ ☆ – डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है.  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी . उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं.  अब आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे. आज प्रस्तुत है उनकी एक भावप्रवण  लघुकथा “ आईने  में माँ ”)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 8 ☆

☆ लघुकथा – आईने में माँ  ☆ 

 

आईने के सामने खड़ी होती हूँ तो मुझे उसमें माँ का चेहरा नजर आता है, ये आँखें देखो…..माँ की ही तो हैं — वही ममतामयी पनीली आँखें, कुछ सूनापन लिए हुए। बार-बार पीछे पलटकर देखती हूँ – नहीं, कहीं नहीं है माँ आसपास, फिर ?

फिर देखा आईने की ओर, आँखें कुछ कह रही थीं मुझसे – रह गई न तुम भी अकेली अपने घर में ? बच्चे पढ़ लिखकर अपने काम में लग गए होंगे, किसी दूसरे शहर में या क्या पता विदेश में? आजकल तो एजूकेशन लोन लेकर बड़े गर्व से तुम लोग बच्चों को विदेश भेज देते हो। बच्चे विदेश पढने जाते हैं और वहीं बस जाते हैं फिर जिंदगी भर राह तकते बैठे रहो उनके आने की।

आँखें बिना रुके निरंतर बोल रही थीं मानों आज सब कुछ कहे बिना चुप ही न होंगी – जय तो शाम को ही आता होगा ? उसके आने के बाद तुम बहुत कुछ कहना चाहती होगी, दिन भर की बातें, जो तुमने मन ही मन बोली हैं अकेले में,  लेकिन वह सुनता है क्या ?

हमारे समय में तो मोबाईल भी नहीं था फिर भी तेरे  पिता के पास समय नहीं होता था मेरी बातें सुनने का। क्या पता इच्छा ही न होती हो मेरी बात सुनने की ? चाय-नाश्ता करके फिर निकल पड़ते थे अपने दोस्त यारों से गप्पे मारने। अरे हाँ ! अब तो व्हाट्सअप का समय है। खासतौर से पतियों को इसने अपनी गिरफ्त में ले लिया है। अच्छा लगता है उन्हें अपनी दूर की भाभियों को मैसेज फारवर्ड करते रहना,  पत्नी की क्या सुने ? घर में ही तो है कहाँ जाने वाली है? फारवर्डेड मैसेज से दूसरों पर इम्प्रेशन डालना जरुरी है, भई।

बोलते-बोलते आँखें आँसुओं से लबालब हो रही थीं। शादी के बाद बच्चों और परिवार में औरतें अपने को भूल ही जाती हैं और जब उसका पूरा अस्तित्व  परिवार में समा जाता है तब उसे अकेला छोड़ दिया जाता है यह कहकर – बहुत शिकायत करती थीं ना ‘समय नहीं मिलता अपने लिए’ ? अब लो समय ही समय है ? करो, क्या करना चाहती थीं अपने लिए ?

औरत मूक भाव से देखती रह जाती है पति और बच्चों के चेहरों को किसी अबूझ पहेली की तरह। जब परिवार को जरूरत थी एक माँ की, पत्नी की, तब सब कुछ भूलकर जुट रही, जरूरत खत्म होने पर आदेश- अब जियो जैसे जीना चाहती हो। कैसे बताए कि जिम्मेदारियों की बेड़ियों ने खुलकर जीने की आदत ही नहीं रहने दी अब। ऐसे में घर के हर कमरे में बिखरा समय, सिर्फ सन्नाटा और सजा है एक औरत के लिए।

खाली घर में चादर की सलवटें ठीक करती, कपड़े सहेजती, डाइनिंग टेबिल साफ करती बंद होठों वाली औरत कभी बुदबुदाती है अपने आप से, कभी पाती है अपने सवालों के जवाब खुद से, कभी कमरों में बिखरी बच्चों की खट्टी मीठी यादों के साथ मुस्कुराती है तो कभी आँसुओं की झड़ी गालों को तर कर देती है – पर कोई नहीं है इसे देखने वाला, ना आँसू पोंछनेवाला, ना साथ बैठ यादों को ताजा कर मुस्कुराने वाला।

आईने में दिखती आँखें मानों गुस्से में बरस पड़ीं – ना – ना रोना मत, बतियाना मत अकेले में खुद से, बाहर निकल इस सन्नाटे से, अकेलेपन से  वरना तेरे अपने तुझे पागल करार देंगे।

बेसिन में पानी बह रहा था, हाथों में लेकर मुँह पर ठंडा पानी डाला,  छपाक  – आईने में मेरा चेहरा था, मेरी आँखें ?

कहाँ गई माँ ? उसकी पनीली आँखे ? मैंने फिर पलटकर देखा, वह कहीं नहीं थी।

मेरे चेहरे पर माँ की आँखें उग आई थीं ?

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #25 ☆ गिरगिट ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी  एक अतिसुन्दर लघुकथा  “गिरगिट ”। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #25 ☆

☆ गिरगिट ☆

 

“सरजी! एक समय वह था जब उस ने आप से आप का कार्यालय खाली करवा कर कब्जा जमा लिया था. आज वह समय है कि जब आप के अधीन उसे काम करना पड़ रहा है.” महेश ने प्रधानाध्याक को प्राचार्य का प्रभार मिलते ही कहा, “वह अध्यापक हो एक साल तक एक प्रशासकीय अधिकारी के ऊपर रौब झाड़ता रहा था. अब उसे मालुम होगा कि नौकरी करना क्या होता है?”

“यह तो प्रशासकीय प्रक्रिया है. ऐसा होता ही रहता है,” प्रभारी प्राचार्य ने कहा तो महेश बोला, “आप उसे सबक सीखा कर रहना. उस ने आप को बहुत जलील किया था.”

“उस वक्त आप भी तो उस के साथ थे.”

“अरे नहीं साहब! उस वक्त उस की चल रही थी. अधिकारियों से उस की बनती थी. वह दलाली कर रहा था. मजबूरी में उस का साथ देना पड़ा. आप जैसे इमानदार आदमी से दुनिया चलती है. आप उस की दलाली बंद करवा ​दीजिए साहब,” यह सुनते ही प्राचार्य ने महेश को घूरा, “और उस वक्त ! आप भी तो तमाशा देख रहे थे. जब उस ने दादागिरी से मेरा कार्यालय खाली करवाया था.”

“उस वक्त चुप रहना मेरी मजबूरी थी सर,” महेश ने कहा, “मगर, इस वक्त आप साहब है. आप का हम पूरा साथ देंगे.”

उस की बात सुन कर प्राचार्य हंसे, “वाकई सही कहते हो. जब समय किसी से डांस करवाता है तो गाने बजाने वाले अपने ही होते हैं.”

यह सुन कर महेश चौंका, “क्या कहा साहब जी!” यह बोल कर वह चुप हो गया. शायद इस का आशय उस के दिमाग ने पकड़ लिया था.

इधर प्रधानाध्यापक उस की चेहरे का रंग बदलते देख उस में कुछ ढूंढने का प्रयास कर रहे थे.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – ☆ ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य  # 1 ☆लघुकथा ☆ सामाजिकता ☆ – श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’  

( श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’ जी  एक आदर्श शिक्षिका के साथ ही साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे गीत, नवगीत, कहानी, कविता, बालगीत, बाल कहानियाँ, हायकू,  हास्य-व्यंग्य, बुन्देली गीत कविता, लोक गीत आदि की सशक्त हस्ताक्षर हैं। विभिन्न पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत एवं अलंकृत हैं तथा आपकी रचनाएँ आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित होती रहती हैं। आज प्रस्तुत है इस  कड़ी में आपकी एक लघुकथा “सामाजिकता ”।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य  # 1 ☆

☆ लघुकथा – सामाजिकता ☆ 

“माँ… मा्ँ ….सुनो ना तुम मुझसे इतना नाराज मत हो। उस आदमी ने मेरे साथ गलत काम किया।  मै क्या करुँ? माँ बताओ न.” माँ…..दुखी.

माँ अपने सिर पर बार हाथ मारकर रो रही थी उसके आँखो में आँसुओं की झड़ी सी लगी थी। बेबस लाचार गरीबी से त्रस्त अपने और बेटी के भाग्य को कोस रही थी।

एक संभ़ात सी महिला उस छोटे से गांव, जो शहर का मिल जुला रुप था, वहां आकर बेटियों को उनके रहन सहन और नयी-नयी जानकारी देती थी। वह बेटियों को उन बातों की जानकारी भी देती थी जो माँ भी नहीं बता पाती।

“माँ….मीरा अंटी आई हैं चलो ना वे बुला रही हैं वे बहुत अच्छी हैं।” बेटी माँ को समझाने लगी। माँ ने बात छुपाने के लिए बेटी को समझाया – “उनसे कुछ भी मत कहना वरना हमारी बहुत बदनामी होगी।“

बेटी ने चुप रहने के संकेत में सिर हिला दिया। वहां की सभी माँ और बेटियाँ एकत्रित हुई सभी को समझाइस देकर सेविका जाने लगी तभी उसने इन दोनो माँ बेटी को उदास और हताश देख समाज सेविका मीरा जी  ने समझने मै देर न की और एकांत में उन्हें ले जा कर पूछ ही लिया।

सच्चाई जानकर उन्हें एक मंत्र दे गई। वह माँ से बोली …”देखो किसी ने अपनी भूख मिटाई और उसमें बच्ची का क्या दोष। वह तो दरिंदा था पर बेटी तो यह नहीं जानती थी न कि उसके साथ यह किया जा रहा है। वह सहज सरल थी, ठीक उस पूजा की थाल में रखे फूल की तरह जो भगवान के चरणो में अर्पित किया जाना था और कोइ बीच में ही उठाकर पैरों तले कुचल गया तो इसमें फूल का क्या कसूर वह तो पवित्र ही हुआ न?”

माँ की समझ में उनकी बातें आ गई और उसने अपने सीने से बेटी को लगा कर कहा “…तेरा कोई कसूर नहीं बेटी, मै तुझे क्यों गलत कहुँ। गलत तो वह है जिसने यह किया उसे  ईश्वर से सजा अवश्य मिलेगी।”  और पुरानी दकियनूसी बातें और समाज के डर को दिमाग से झटक कर घर की ओर चल दी..

 

© श्रीमती कृष्णा राजपूत  ‘भूमि ‘

अग्रवाल कालोनी, गढ़ा रोड, जबलपुर -482002 मध्यप्रदेश

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