हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 18 ☆ लघुकथा – साजिश ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी . उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं. अब आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी एक लघुकथा  “साजिश”।  समाज में व्याप्त इस कटु सत्य को पीना इतना आसान नहीं है किन्तु,  सत्य आखिर सत्य तो है और नकारा नहीं जा सकता।  डॉ ऋचा जी की रचनाएँ अक्सर यह अहम्  भूमिकाएं निभाती हैं । डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को ऐसी रचना रचने के लिए सादर नमन। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 18 ☆

☆ लघुकथा –साजिश 

बुढ़ापा … उम्र के इस दौर में वे दोनों किसी तरह जी रहे थे। एक बेटी और दो बेटों का भरा-पूरा परिवार था। वह घर जिसमें हमेशा चहल-पहल, हो-हल्ला मचा रहता था अब सन्नाटे में डूबा रहता। वृद्ध  दंपति के पास करने को कुछ नहीं था, करते क्या, शरीर भी तो साथ नहीं देता। सोचने को था बहुत कुछ बच्चों की बेशुमार यादें। पहले बेटी फिर ढ़ेरों मन्नतों के बाद दो बेटे  — कुलदीपक ?

जीवन पर्यंत जिम्मदारियों का निर्वाह, यथासंभव ……जी तोड़ कोशिश कर और अब …. अमावस की घोर कालिमा-सी वृद्धावस्था।

शुक्ल जी बड़े ही स्वाभिमानी व्यक्ति थे। बेटी को तो पराया धन मानते ही थे। बेटों के आगे भी कभी हाथ नहीं फैलाया। यह बात दूसरी है कि बेटी की शादी और बेटों को पढाने-लिखाने में तन और धन दोनों से खाली हो चुके थे। संतान के लिए जितना करो उतना कम।

अब बारी बेटों की। गेंद उनके पाले में – देखें कैसी खेलते हैं जीवन की यह पारी। दिनेश तो पढाई पूरी होते ही विदेश चला गया था। राहुल शहर में होकर भी पास नहीं था। कई बार शुक्ल जी ने फोन करके कहा – एक बार देख जा माँ को, दिन-पर-दिन तबियत बिगड़ती जा रही है। तुझे देखने को तरसती है। व्यस्त हूँ, जरूर आऊँगा – जैसे टालू उत्तर फोन पर शुक्ल जी सुनते रहे। मोबाईल युग है – सुख-दुःख फोन पर बँटते हैं। आवाजें पास, दिल दूर-दूर।

शुक्ल जी की बेटी रंजना को आज भी याद हैं पापा के वे शब्द – ‘बेटी ! हम पति-पत्नी मर जाएंगे लेकिन बेटों के सामने दया की भीख नहीं मांगेगे।’ माँ की भीगी आँखों की निरीहता भूली नहीं जाती। कैसी अकथनीय वेदना छिपी थी उन बूढी आँखों में।

माँ के अंतिम संस्कार की तैयारी चल ही रही थी कि ‘पापा नहीं रहे’ – वाक्य उसके कानों में पड़ा, दो उल्टियां हुई और सब खत्म। वह सन्न रह गयी।

पड़ोस की स्त्रियां बोली – ‘कितनी सौभाग्यशाली है सुहागिन मरी’ पुरुष बोले – ‘अच्छा हुआ शुक्ल जी पत्नी के जाते ही चल दिए, बहुओं का राज नहीं देखना पड़ा’, रंजना सच जानती थी। स्वाभिमान से जीने की इच्छा रखनेवाले माता-पिता को उनके बेटों ने बेमौत मार डाला।

रंजना अपना दुःख कहे भी तो किससे ???

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं # 33 – व्यवहार  ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी  मानवीय आचरण के एक पहलू को दर्शाती लघुकथा  “व्यवहार  । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #33☆

☆ लघुकथा – व्यवहार ☆

माँ बेटी से परेशान थी और बेटी माँ. दोनों को एक दूसरे की आदतें नहीं सुहाती थी. इस से दोनों को नींद में चलने व बोलने की बीमारी हो गई थी.

“यह बूढ़िया भी न जाने कब तक जीएगी. यह मर क्यों नहीं जाती. ताकि इस की टोका टोकी से मुक्ति मिलें. यह जब तब मेरे मोबाइल में तांक झांक करती रहती है. मैं किस से बात करती हूँ,  क्या करती हूँ. कहां जाती हूँ. इसे मुझसे से क्या लेना देना है. ………..’’ यह बड़बड़ाते हुए बेटी बरामदें में टहल रही थी.

इधर माँ कह रही थी, “इस लड़की को न जाने क्या रोग लग गया. न जाने किस किस से बातें करती रहती है. कहीं किसी लड़के के साथ भाग गई या उस से मुंह काला करवा लिया तो मेरी नाक कट जाएगी. भगवान ! मैं क्या करूं ताकि इस नासपीटी को इस बीमारी से छुटकारा मिल जाए”,  कहते हुए माँ भी बरामदे में टहलते टहलते आ गई.

दोनों नींद में टहल रही थी. तभी दोनों एक दूसरे से टकरा गई.

अचानक हड़बड़ा कर माँ बेटी की नींद खुल गई.

“मां ! तू यहाँ क्या कर रही है? ”

“अरे ! तू यहां क्या कर रही है ?”’’ दोनों हड़बड़ा कर एक दूसरे से बोली.

“माँ! मैं तो जल्दी उठ कर पानी भरना चाहती थी ताकि तू परेशान न हो. तुझे आराम मिले. हर माँ की सेवा करना बेटी का फर्ज होता है.”

“अच्छा नासपीटी”, माँ ने मन ही मन बड़बड़ाते हुए कहा,  “बेटी ! तू सो जा चिंता मत कर. मैं पानी भर लूंगी. तू दिन भर पढ़ लिख कर थक जाती है. इसलिए तू आराम कर.” मां ने बुरा सा मुंह बना कर कहा. मगर, यह ध्यान रखा कि उस का मुंह बेटी न देख ले.

“अच्छा  माँ,  मेरी प्यारी माँ,  “बुरासा मुंह बनाते हुए बेटी अपनी मां से लिपट गई. मगर,  दोनों नींद में कही गई अपनी अपनी भावनाएं दबा गई. आखिर व्यवहारिकता का यही सलीका है.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 34 – जूही का श्रृंगार ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं  – एक भावप्रवण लघुकथा  “जूही का श्रृंगार”।  बचपन की स्मृतियाँ आजीवन हमारे साथ चलती रहती हैं और कुछ स्मृतियाँ भविष्य में  यदा कदा भावुकतावश नेत्र सजल कर देती हैं। श्रीमती सिद्धेश्वरी जी  का कथा शिल्प कथानक को सजीव कर देता है। इस अतिसुन्दर लघुकथा के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई। 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 34 ☆

☆ लघुकथा – जूही का श्रृंगार

जूही अपने घर परिवार में बहुत प्यारी बिटिया। सभी उसका ध्यान रखते और जूही भी सबका दिल जीत लेती।

घर के पास में ही फूल मंडी थी। इसलिए मम्मी पापा ने बिटिया के जन्म होते समय बहुत प्यार से बिटिया का नाम ‘जूही’ रख दिया। धीरे-धीरे जूही बड़ी होने लगी।

स्कूल पढ़ने जाने लगी। समय बीतता गया फूल मंडी में एक दादू बैठ, अपनी दुकान लगाते थे। जहां पर बचपन से वह पापा के साथ जाकर, फूल खरीद कर लाया करती थी। दादू भी जूही की बाल लीला को देखते देखते जाने कब उसे अपने स्नेह से अपना बना लिए कि बिना दुकान जाए जूही का मन नहीं लगता था।

दादू कहते… देखना जूही तेरी शादी के समय मैं इतना सुंदर फूलों का श्रृंगार बनाऊंगा कि सब देखते रह जाएंगे। दादू के मजाक करने की आदत और उनका अपनापन जूही को बहुत भाता था।

कालेज पढ़ने जूही दूसरे शहर गई हुई थी। जब भी आती दादू से जरूर मिल कर जाती थी। अब दादू सयाने हो चले थे।

एक दिन बातों ही बातों में उन्होंने कहा…. जूही मैं देखना किसी दिन चला जाऊंगा दुनिया से और तू मुझे बहुत याद करेगी।

जूही का मन बहुत व्याकुल हो उठता था, उनकी बातों से। अब दादू के दुकान पर उनका बेटा बैठने लगा था।

अचानक जूही की शादी तय कर दी गई। कुछ दिनों से जूही बाहर थी। घर आई शादी का कार्यक्रम शुरु हो चुका था। बहुत खुश जूही आज जल्दी से अपने दादू के पास जाने को बेकरार हो रही थी। क्योंकि दादू ने कहा था… शादी में फूलों का श्रृंगार बनाऊंगा। घर से निकलकर जूही दुकान पर पहुंची बेटे से पूछा…. कि दादू कहां है… उन्होंने एक पत्र निकाल कर दिया। पत्र पढ़ते ही धम्म से जूही पास की बेंच पर बैठ गई। क्योंकि उसके दादू तस्वीर में कैद हो चुके थे, और उनकी अंतिम इच्छा थी कि जब भी जूही आए, मुझे गुलाब के फूलों की माला पहनाकर मेरा श्रृंगार करें।

जूही को लगा आज सारे फूलों की खुशबू दादू के साथ चली गई है और जूही बिना सुगंध के रह गई। जूही ने भरे मन से तस्वीर पर माला पहनाया और घर वापस लौट आई।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ सच्ची सुहागन ☆ श्रीमती सविता मिश्रा ‘अक्षजा’

श्रीमती सविता मिश्रा ‘अक्षजा’

( आदरणीय श्रीमती सविता मिश्रा ‘ अक्षजा’ जी का ई- अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। आप हिंदी साहित्य की विभिन्न विधाओं  (लघुकथा, कहानी, व्यंग्य, छंदमुक्त कविता, आलेख, समीक्षा, जापानी-विधा हायकु-चोका आदि)  की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आप एक अच्छी ब्लॉगर हैं। कई सम्मानों / पुरस्कारों  से सम्मानित / पुरस्कृत / अलंकृत हैं। आपकी कई रचनाएँ राष्ट्रिय स्टार की पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं एवं आकाशवाणी के कार्यक्रमों में प्रसारित हो चुकी हैं।  ‘रोशनी के अंकुर’ लघुकथा एकल-संग्रह प्रकाशित| आज प्रस्तुत है उनकी एक लघुकथा ‘ सच्ची सुहागन ‘.   हम भविष्य में आपकी चुनिंदा रचनाएँ अपने पाठकों से साझा करने की अपेक्षा करते हैं । )

 ☆ लघुकथा – सच्ची सुहागन ☆

पूरे दिन घर में आवागमन लगा था। दरवाज़ा खोलते, बंद करते, श्यामू परेशान हो गया था। घर की गहमागहमी से वह इतना तो समझ चुका था कि बहूरानी का उपवास है। सारे घर के लोग उनकी तीमारदारी में लगे थे। माँजी के द्वारा लाई गई साड़ी बहूरानी को पसंद न आई थी, वो नाराज़ थीं। अतः माँजी सरगी की तैयारी के लिए श्यामू को ही बार-बार आवाज दे रही थीं। सारी सामग्री उन्हें देने के बाद, वह घर के सभी सदस्यों को खाना खिलाने लगा। सभी काम से फुर्सत हो, माँजी से कह अपने घर की ओर चल पड़ा।

बाज़ार की रौनक देख अपनी जेब टटोली, महज दो सौ रूपये । सरगी के लिए ही ५० रूपये तो खर्च करने पड़ेंगे। आखिर त्योहार पर, फल इतने महँगे जो हो जाते हैं। मन को समझा, उसने सरगी के लिए आधा दर्जन केले खरीद ही लिए। वह भी अपनी दुल्हन को सुहागन रूप में सजी-धजी देखना चाहता था, अतः सौ रूपये की साड़ी और

शृंगार सामग्री भी ले ली।

सौ रूपये की लाल साड़ी को देख सोचने लगा, मेरी पत्नी तो इसमें ही खुश हो जायेगी। उसकी धोती में बहत्तर तो छेद हो गए हैं। अब कोठी वालों की तरह न सही, पर दो-चार साल में तन ढ़कने का एक कपड़ा तो दिला ही सकता हूँ। बहूरानी की तरह मुँह थोड़े फुलाएगी। कैसे माँजी की दी हुई साड़ी पर बहूरानी नाक-भौंह सिकोड़ रही थीं। छोटे मालिक के साथ बाजार जाकर, दूसरी साड़ी ले ही आईं।

मन में गुनते हुए ख़ुशी-ख़ुशी सब कुछ लेकर घर पहुँचा। अपने छोटे साहब की तरह ही, वह भी अपनी पत्नी की आँख बंद करते हुए बोला- “सोच-सोच क्या लाया हूँ मैं?”

“बड़े खुश लग रहे हो। लगता है कल के लिए, बच्चों को भरपेट खाने को कुछ लाए हो! आज तो भूखे पेट ही सो गए दोनों।”

 

© श्रीमती सविता मिश्रा ‘अक्षजा’

फ़्लैट नंबर -३०२, हिल हॉउस, खंदारी अपार्टमेंट, खंदारी, आगरा, पिन- 282002

ई-मेल : [email protected]

मो. :  09411418621

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 17 ☆ लघुकथा – बदलाव ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी . उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं. अब आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी  एक  लघुकथा  “ बदलाव ”।  समाज में व्याप्त नकारात्मक संस्कारों को भी सकारात्मक स्वरुप दिया जा सकता है। डॉ ऋचा जी की रचनाएँ अक्सर यह अहम्  भूमिकाएं निभाती हैं ।  डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को ऐसी रचना रचने के लिए सादर नमन। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 17 ☆

☆ लघुकथा – बदलाव

माँ सुबह ६ बजे उठती है। झाड़ू लगाती है, नाश्ता बनाती है, स्नान कर तुलसी में जल चढ़ाती है। हाथ जोड़कर सूर्य भगवान की  परिक्रमा करती है।  मन ही मन कुछ कहती है। निश्चित ही पूरे परिवार के  लिए मंगलकामना करती है। पति-पुत्र को अपने व्रत और पूजा-पाठ के बल पर दीर्घायु करती है। बेटा देसी घी का लड्डू भले ही हो, बेटी भी उसके दिल का टुकड़ा है। दोपहर का खाना बनाती है। बर्तन माँजकर रसोई साफ करती है। कपड़े धोती है। शाम की चाय, रात का खाना, पति की प्रतीक्षा और फिर थकी बेसुध माँ लेटी है। बेटा तो सुनता नहीं, बेटी से पैर दबवाना चाहती है वह। दिन भर काम करते-करते पैर टूटने लगते है। माँ कहती है- बेटी ! मेरे पैरों पर खड़ी हो जा, टूट रहे हैं।

बेटी अनमने भाव से एक पैर दबाकर टी.वी. देखने भाग जाना चाहती है कि माँ उनींदे स्वर में बोलती है – बेटी ! अब दूसरे पैर पर भी खड़ी हो जा, नहीं तो वह रूठ जाएगा। बेटी पैरों को हाथ लगाने ही वाली थी कि ‘अरे ना- ना’, माँ बोल पड़ती है – ‘पैरों को हाथ मत लगाना, बस पैरों पर खड़ी हो जा।  बेटियाँ माँ के पैर नहीं छूतीं।’ नर्म –नर्म पैरों के दबाव से माँ के पैरों का दर्द उतरने लगता है या दिन भर की थकान उसे सुला देती है, पता नहीं…….. ?

अनायास बेटी का ध्यान माँ के पैर की उँगलियों में निश्चेष्ट पड़े बिछुवों की ओर जाता है। काले पड़े चाँदी के बिछुवों की कसावट से उंगलियां काली और कुछ पतली पड़ गयी हैं। बेटी एक बार माँ के शांत चेहरे की ओर देखती है और बरबस उसका हाथ बिछुवेवाली उँगलियों को सहलाने लगता है। बड़े भोलेपन से वह माँ से पूछ बैठती है – माँ तुम बिछुवे क्यों पहनती हो ?

नींद में भी माँ खीज उठती है – अरे ! तूने मेरे पैरों को हाथ क्यों लगाया ? कितनी बार मना किया है ना ! और कुछ भी पूछती है तू ? पहना दिए इसलिए पहनती हूँ बिछुवे, और क्या बताऊँ……

बेटी सकपका जाती है, माँ पैरों को सिकोडकर सो जाती है।

दृश्य कुछ वही है आज मैं माँ हूँ। याद ही नहीं आता कि कब, कैसे अपनी माँ के रूप में ढ़लती चली गयी। कभी लगता है – ये  मैं नहीं हूँ, माँ का ही प्रतिरूप हूँ। आज मेरी बेटी ने भी मेरे दुखते पैरों को दबाया, बिछुवे वाली उँगलियों को सहलाया, बिछुवों की कसावट थोडी कम कर दी, उंगलियों ने मानों राहत की साँस ली।

मैंने पैर नहीं सिकोडे। बेटी मुस्कुरा दी।

अरे ! यह क्या, बेटी के साथ-साथ मैं भी तो मुस्कुराने लगी थी।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – भूकम्प ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – भूकम्प 

 

पहले धरती में कंपन अनुभव हुआ। फिर तने जड़ के विरुद्ध बिगुल फूँकने लगे। इमारत हिलती-सी प्रतीत हुई। जो कुछ चलायमान था, सब डगमगाने लगा। आशंका का कर्णभेदी स्वर  वातावरण में गूँजने लगा, हाहाकार का धुआँ हर ओर छाने लगा।

उसने मन को अंगद के पाँव-सा स्थिर रखा। धीरे-धीरे सब कुछ सामान्य होने लगा। अब बाहर और भीतर पूरी तरह से शांति है।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

17 जनवरी 2020, दोपहर 3:52 बजे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं # 32 – श्रद्धा ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी  मानवीय आचरण के एक पहलू पर  जीवन का कटु सत्य दर्शाती लघुकथा  “श्रद्धा । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #32☆

☆ लघुकथा – श्रद्धा☆

“तू कहती थी न कि हमारा हरीश औरत का गुलाम है. वह बड़ा आदमी हो गया. अब हमारी सेवा क्या करेगा. पर तू देख. वह मेरे हार्टअटेक की खबर सुनते ही शीघ्र चला आया. उस ने मुझे अस्पताल में भरती कराया और यह मोबाइल दे दिया.” हरीश के बापू अपने बड़े बेटे की अपनत्व से अभिभूत थे.

मगर दूसरे ही क्षण उन का यह दिव्यस्वप्न मोबाइल पर आए दोस्त के फोन को सुन कर टूट गया, “अरे भाई हरीश ! अब तो सब बंटवारा हो गया होगा. जल्दी से यहाँ चले आओ. क्या बूढ़े को जिंदगी भर रोने का इरादा है. ”

पिता के हाथ से मोबाइल छूट कर दूर जा गिरा और बेटे के प्रति श्रद्धा की अर्थी उन की अंतिम साँस के साथ निकल गई.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 9 ☆ कविता– आग के मोल ☆ श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि‘

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’  

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’ जी  एक आदर्श शिक्षिका के साथ ही साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे गीत, नवगीत, कहानी, कविता, बालगीत, बाल कहानियाँ, हायकू,  हास्य-व्यंग्य, बुन्देली गीत कविता, लोक गीत आदि की सशक्त हस्ताक्षर हैं। विभिन्न पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत एवं अलंकृत हैं तथा आपकी रचनाएँ आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित होती रहती हैं। आज प्रस्तुत है  एक प्रेरणास्पद लघुकथा  “आग के मोल।)

☆ साप्ताहक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य  # 9 ☆

☆ आग के मोल ☆

“आभा, अपने बच्चों पर ध्यान दिया करो! न तो बचपन में दिया और न ही अब दे रही हो!”  सास ने गुस्से में कहा।

“माँ जी, क्या राजुल सिर्फ मेरा बेटा है! आपका भी तो पोता है ना! बाबूजी का भी और आर्यन का तो बेटा है ना! फिर सभी मुझसे क्यों आशा करते हैं? सभी को उसका ध्यान रखना चाहिए!”

आभा सुबह उठकर सभी का नाश्ता और लंच तक का ध्यान रखती और घर के जितने भी काम सभी निपटाती। इसी आपा- धापी मे कब दोपहर हुई कब शाम, उसे पता ही नहीं चलता था।

अभी सासू माँ ने अर्णव का मासिक मूल्यांकन देखा तो उन्होंने आभा से यह शिकायत कर दी और आभा ने गुस्से में जबाब भी दे दिया पर अब पछता रही थी। माँ जी को उसने कभी पलटकर जबाब नहीं दिया था। उसने मन ही मन कुछ निर्णय लिया और अर्णव को बुलाकर पास में बैठाकर  बोली,” बेटे, मैं आपको आज से समय मिलते ही पढ़ाया करुँगी।”

अर्णव ने हाँ में सिर हिलाया और दौड़कर खेलने भाग गया।

आभा सभी काम से फुरसत हो अर्णव को आवाज देने लगी तभी सासू माँ बोली, “आभा, जरा एक बाल्टी पानी धूप में रख दो। ठंडक छूट जायेगी तो नहा लेती हूँ।” बुजुर्ग होने के कारण वे हर काम आराम से करती थी।

अभी आभा ने बेटे को बुलाया और तुरन्त माँ जी की फरमाइश शुरु हो गई।

आभा को क्रोध आ गया पर कोई फायदा नहीं। यही दिनचर्या चलती रही आभा को समय ही नहीं मिल पाता बेटे को पढ़ाने के लिये।

पतिदेव चाहते तो पढ़ा सकते थे पर सारी जिम्मेदारी आभा पर लाद दी गई थी। एक तरफ पढ़ाई की चिंता दूसरी तरफ बेटे का भविष्य, आभा को ये सभी आग के मोल लग रहा था।

बढ़ती उमर का बेटा घर की सारी जिम्मेदारी आभा को आग का मोल ही लग रही थी।  सेवा  में कमी तो बड़े नाराज और काम की अधिकता से बेटे से बेपरवाह का खिताब । ये सब आग के मोल के समान ही हो गये थे।

मगर आभा कब तक बेपरवाह रह सकती थी। एक दिन सुबह माँ जी जब रसोई में गई तो एक अपरिचित महिला रसोई में आभा का हाथ बंटाती दिखी। कुछ देर बाद घर के अन्य कार्यों में भी वह मदद करती नजर आई तो माँ जी से रहा नहीं गया, “ये कौन है?”

“माँ जी, ये ललिता है। आज से मैंने इसे घर के कामों में अपनी मदद के लिए रख लिया है ताकि मैं बेटे पर ध्यान देने के लिए समय निकाल सकूँ।”

“क्या! लेकिन इतने पैसे…!”

“चिंता न करें माँजी, मैंने पूरा बजट बनाकर ही इसे रखा है। कुछ बेकार के खर्च कम करके हम अपना बजट यथावत रख सकते हैं। माँ जी, आग के मोल चुकाने से बेहतर मुझे यही रास्ता लगा।” कहती हुई आभा बेटे को पढ़ाने के लिए मुस्कुराती हुई कमरे में चली गई।

 

© श्रीमती कृष्णा राजपूत  ‘भूमि ‘

अग्रवाल कालोनी, गढ़ा रोड, जबलपुर -482002 मध्यप्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 33 – मित्रता ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं  – एक  भावप्रवण लघुकथा  “मित्रता”।  मित्रता किसी से भी हो सकती है।  यह एक ऐसा रिश्ता है जिसमें भावना प्रधान है जो पूर्णतः विश्वास पर टिका है। इस सन्दर्भ में मुझे मेरी गजल की  दो पंक्तियाँ याद आ रही हैं ।

सारे रिश्तों के मुफ्त मुखौटे मिलते हैं जिंदगी के बाजार में 

बस अच्छी दोस्ती के रिश्ते का कोई मुखौटा ही नहीं होता

अतिसुन्दर लघुकथा के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 32 ☆

☆ लघुकथा – मित्रता ☆

अचानक तबीयत खराब होने से मीना को तत्काल अस्पताल पहुंचाने वाला, उसका अपना मित्र ही था सुधांशु।

दो परिवार आस-पास रहते हुए हमेशा दुख सुख में साथ निभाते थे। कुछ भी ना हो पर दिन में एक बार जरूर बात करना मीना और उसके दोस्त सुधांश की दिनचर्या थी। दोनों का अपना परिवार था परंतु मीना की दोस्ती सुधांश से ज्यादा थी क्योंकि, दोनों के विचार मिलते-जुलते थे। आस पड़ोस में भी लोग इन दोनों की निश्छल दोस्ती की मिसाल देते थे।

अस्पताल में पेट का ऑपरेशन हुआ। ठीक होने के बाद छुट्टी होने पर घर आने के लिए मीना तैयार हुई अस्पताल से निकलकर गाड़ी तक आने के लिए बहुत परेशान हो रही थी क्योंकि, अभी पेट में टांके लगे हुए थे और दर्द भी था। धीरे-धीरे चल कर वह बाहर निकल कर आई।  पतिदेव भी साथ ही साथ चल रहे थे,,हाथों का सहारा देकर। सामने खड़ी गाड़ी पर बैठना था।

परंतु यह क्या?? अतिक्रमण के कारण सभी बाउंड्री और अस्पताल के बाहर बना दलान तोड़ दिया गया था। और सड़क और अस्पताल के फर्श के बीच बहुत ऊंचाई अधिक थी।

मीना ने कहा… मैं इतने ऊपर से नहीं उतर पाऊंगी। पतिदेव थोड़ी देर रुक कर बोले….. कोशिश करो तुम उतर सकती हो। मीना ने नहीं में सिर हिला दिया। पतिदेव ने कहा.. रुको मैं इंतजाम करता हूं, और इधर-उधर देखने लगे । मीना का दोस्त सुधांशु भी साथ में था। वह मीना को बहुत परेशान और दर्द में देख कर दुखी था।

तुरंत दोनों घुटने मोड़ कर बैठ गया और कहा….. तुम मेरे पैर पर पैर रखकर सड़क पर उतर जाओ। मीना ने धीरे से सुधांश के मुड़े पैरों पर अपना पांव रखा और सड़क पर उतर गई। फिर धीरे धीरे गाड़ी तक पहुंच गई। पतिदेव देख रहे थे।

आज मीना को अपने दोस्त पर बहुत गर्व था और सुधांश के आंखों में खुशी के आंसू। सच्ची मित्रता कभी भी कहीं भी गलत नहीं होती।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 33☆ लघुकथा – बेईमान आदमी ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता  और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं . आज  की लघुकथ  ‘बेईमान आदमी ‘।  यह कथा ईमानदार आदमी के बेईमान बनने और बनाने की कथा  है।  कोई नौकरी के किसी पड़ाव पर बेईमान बन जाता है तो कोई पाक साफ़ नौकरी कर के रिटायर हो जाता है।  किन्तु , सुकून की जिंदगी कौन जीता है यह तो आपका अनुभव ही बताता है।  ऐसी सामाजिक  समस्या पर एक सार्थक रचना के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को नमन। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 33 ☆

☆ लघुकथा – बेईमान आदमी  ☆

 

गुल्लूभाई और कल्लूभाई कई दिन से दफ्तर के चक्कर काट रहे थे। मकान का नक्शा अटका था। बाबू सुनता ही नहीं था। कहता था, ‘नक्शे में नियमों का पालन नहीं हुआ है। यह पास नहीं होगा। दूसरा नियम के हिसाब से पेश करें।’

गुल्लूभाई और कल्लूभाई को यही नक्शा पास कराना है। आजकल कोई काम असंभव नहीं है। बाबू को इशारा दे चुके हैं कि उसकी सेवा का शुल्क चुकाया जाएगा। लेकिन बाबू विचित्र है ।चारा देखकर मुँह फेर लेता है। रट लगाये है, ‘दूसरा नक्शा पेश कीजिए।’

दोनों भाई दफ्तर के दूसरे लोगों से बात करते हैं तो जवाब मिलता है, ‘नया लड़का है। किसी की नहीं सुनता। उसूल बताता है। टाइम लगेगा। लाइन पर आ जाएगा।’

गुल्लूभाई कल्लूभाई दुनियादार आदमी हैं। पैसे की ताकत जानते हैं, इसलिए हिम्मत नहीं हारते। बार बार बाबू के सामने प्रलोभन लटकाते हैं। भरोसा है कि मज़बूत से मज़बूत दीवार भी बार बार की चोट से दरक जाती है।

गुल्लूभाई कल्लूभाई हर बार बाबू को ऊँच नीच समझाते हैं। समझाते हैं कि ईमानदारी अनेक कष्टों की जननी है, कि ईमानदारी से अन्ततः पछतावे के सिवा कुछ भी हासिल नहीं होता।

गुल्लूभाई कल्लूभाई देखते हैं कि उनकी बातों का असर हो रहा है। बाबू का प्रतिरोध धीरे धीरे कमज़ोर हो रहा है। आवाज़ में पहले जैसा दम नहीं रहा।

तापमान अनुकूल पाकर एक दिन गुल्लूभाई कुछ नोट बाबू के हाथ में खोंस देते हैं। प्यार से कहते हैं, ‘भैया, इसे रिश्वत मत समझना। यह आपके लिए हमारा आशीर्वाद है।’

बाबू झिझकते हुए नोट दबा लेता है। कहता है, ‘ठीक है। दो तीन दिन में आ जाइएगा। आपका काम हो जाएगा।’

बाहर निकलकर गुल्लूभाई कल्लूभाई के हाथ पर हाथ मारते हैं। कहते हैं, ‘मैंने कहा था न, कि सब ईमानदारी का ढोंग करते हैं। भीतर से साले सब बेईमान होते हैं।’

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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