हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 3 ☆ कुलदीपक नहीं हूँ पर बेटी हूँ तेरी ………. ☆ – डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(हम  डॉ. ऋचा शर्मा जी  के ह्रदय से आभारी हैं जिन्होंने हमारे  सम्माननीय पाठकों  के लिए “साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद” प्रारम्भ करने के हमारे आग्रह को स्वीकार किया. डॉ ऋचा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  मिली है.  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी . उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं.  अब आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे. आज प्रस्तुत है उनकी ऐसी ही एक  भावुक एवं अनुकरणीय लघुकथा “कुलदीपक नहीं हूँ पर बेटी हूँ तेरी ………. ”)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 3 ☆

 

☆ लघुकथा – कुलदीपक नहीं हूँ पर बेटी हूँ तेरी ……….  ☆ 

 

उल्टी गंगा मत बहाया कर गुड्डो ! मायके से लड़कियों को गहना – कपड़ा मिलना चाहिए।  लड़कियों को देते रहने से मायके का मान बना रहता है और ससुराल में लड़की की इज्जत भी बनी रहती है।  हम तो तुझे कुछ दे नहीं पाते और तेरे घर में पड़े मुफत की रोटी तोड़ रहे हैं। दामाद जी क्या सोचेंगे भला।

कुछ नहीं सोचेंगे दामाद जी। तुम इस बात की चिंता मत किया करो। और फिर तुम मेरे पास आई हो, मेरा मन भी करता है ना अपनी अम्मा के लिए कुछ करने का। तुमने मुझे अपने पैरों पर खड़ा किया, समर्थ बनाया और ये क्या लड़की–लड़का लगा रखा है ? आज के ज़माने में ये सब कोई नहीं सोचता।  लड़की है तो क्या माता–पिता के लिए कुछ करे ही नहीं ?

ये तेरी सोच है बेटी ! जमाने की नहीं। समाज में लड़की–लड़के में अंतर कभी मिट ही नहीं सकता।  दो महीने से लड़की–दामाद के घर का खाना खा रही हूँ। लेने–देने के नाम पर ठन–ठन गोपाल। तू मेरे सिर पर बोझ लाद रही है ये कपड़े, मिठाई देकर।

गुड्डो कितना चाहती थी कि अम्मा भी सास–ससुर की तरह ठसके से रहे उसके पास, जो चाहिए वो मंगाए, जो कुछ ठीक ना लगे वह मुझे बताए। लेकिन कहाँ, वह तो मानों झिझक और संकोच से अपने में ही सिकुड़ती चली जा रही है।  इलाज के लिए वह गुड्डो के पास चली तो आई लेकिन ‘ये लड़की का घर है। लड़की के माँ–बाप लड़की के ससुराल जाकर नहीं रहते’ – यह बात उसके मन से हटती ही नहीं थी।  खाने–पीने से लेकर उसकी हर बात में हिचकिचाहट दिखाई देती।  हाथ में रुपए–पैसे का ना होना भी उसे दयनीय बना देता था।

गुड्डो समझ रही थी कि अम्मा किसी उलझन में है। तभी झुकी हुई पीठ को सीधी करने की कोशिश करते हुए कमर पर हाथ रखकर अम्मा बोली – “ऐसा कर गुड्डो तू ये रुपए रख बच्चों के लिए मिठाई मंगवा ले,  यह कहकर वह ब्लाउज में बड़ी हिफाजत से रखा बटुआ निकालने लगीं।“

बटुआ निकालकर अम्मा उसे खोलकर देखे इससे पहले ही गुड्डो ने उसका हाथ पकड़ लिया – “रहने दो अम्मा ! मैं तुम्हारे पास आऊंगी तब दे देना।”

“तब ले लेगी तू ?”

“हाँ।”

“मना मत करना यह कहकर कि बस ग्यारह रुपए से टीका कर दो।”

“नहीं करूंगी बाबा ! अभी रखो अपना बटुआ संभालकर।”

अम्मा अपना बटुआ जतन से संभालकर रख लेती इस बात से अनजान कि बटुए में रुपए हैं भी या नहीं। बढ़ती उम्र के कारण वह अक्सर बहुत – सी बातें भूल जाती थी।  गुड्डो को मालूम था कि बटुए में सिर्फ दो सौ रुपए पडे हैं। बटुआ खोलने के बाद दो सौ रुपए देखकर उसके चहरे पर जो बेचारगी का भाव आएगा गुड्डो उसे देखना नहीं चाहती थी इसलिए वह हर बार कुछ बहाना बनाकर ऐसी स्थिति टाल देती। माँ का मन बहलाने के लिए वह बोली – “अम्मा ! तुम्हें कलकत्ता की ताँतवाली साड़ी बहुत पसंद है, ना चलो दिलवा दूँ।”

“हाँ चल, पर साड़ी के पैसे मैं ही दूंगी।”

“हाँ – हाँ, तुम्हीं देना, चलो तो।”

ताँत की रंग – बिरंगी साड़ियों को देखकर अम्मा खिल उठी।  अपने लिए उसने हल्के हरे रंग की साड़ी पसंद की।  मुझसे बोली – “गुड्डो ये पीली साड़ी तू ले ले।  बहुत जंचेगी तुझ पर।  सूती साड़ी की बात ही कुछ और है।  मैं तेरे लिए कुछ नहीं लाई, यह साडी तू मेरी तरफ से ले लेना।  आज मना मत करना। लड़की को कुछ दो ना, उससे लेते रहो, ऐसा पाप ना चढाओ बेटी मेरे सिर।”  ये कहते – कहते अम्मा ने बटुआ निकाल लिया।  बटुए में सौ – सौ के सिर्फ दो नोट देखकर उसका चेहरे का रंग उतर गया।  दबी आवाज में बोली – “गुड्डो बिल कितना हुआ ? ” गुड्डो झिझकते हुए बोली – इक्कीस सौ रुपए अम्मा।”

“अच्छा” – उसने एक बार हाथ के दो नोटों की ओर देखा,  उसके चेहरे पर दयनीयता झलकने लगी।  घबराए से स्वर में बोली – “तू – तू — ये दो सौ तो रख ले बाकी मैं तुझे बाद में दे दूंगी।”

“ठीक है अम्मा, मैंने दिया, तुमने दिया, एक ही बात है।” गुड्डो अपने घर में माँ को जिस स्थिति से बचाना चाह रही थी अब वह मुँह पसारे खडी थी। अम्मा हँस रही थी पर उदासी उसके चेहरे पर साफ झलक रही थी।  अपनी उदासी को छुपाने का उसका यह बहुत पुराना तरीका था।

घर पहुँचते ही अम्मा ने साड़ी के बैग एक तरफ डाले और जल्दी से रसोई में जाकर सिंक में पड़े कप – प्लेट धोने लगी।  वह अपने – आप से बोले जा रही थी – “गुड्डो दो महीने से तेरे घर में पड़ी खटिया तोड़ रही हूँ।  तेरे किसी काम की नहीं।  तुझे जो – जो काम करवाने हों मुझे बता।  गरम मसाला, हल्दी, लाल मिर्च सब मंगवा ले।  मैं कूट, छानकर रख दूंगी।  साल भर काम देंगे।  बाजार की हल्दी तो कभी ना लेना।  पता नहीं दुकानदार कैसा रंग मिलाते हैं उसमें।  घर की हल्दी हो तो बच्चों को रात में दूध में डालकर दो, सर्दी में बहुत आराम देती है।  तू भी पियाकर हड़डियों के लिए अच्छी होती है।  खूब आराम कर लिया मैंने।  तबियत भी ठीक हो गई है।  सब काम कर सकती हूँ मैं अब।”

झुकी पीठ लिए अम्मा जल्दी‌ – जल्दी काम निपटाना चाह रही थी।  गुड्डो दूर खड़ी  अम्मा के मन में उपजे अपराध – बोध को महसूस कर रही थी।  वह उसे समझाना चाहती थी कि अम्मा ! तुम अपनी बेटी के घर में हो, तुमने यहाँ आकर कुछ गलत नहीं किया।  तुम मुझे साड़ी नहीं दिला सकी तो कोई बात नहीं।  बचपन में कितनी बार तुमने मुझे अच्छे कपड़े दिलवाए और अपने लिए कुछ नहीं लिया।  कितनी बार मेरी जरूरतें पूरी करके ही तुम खुश हो जाती थीं।  मैं बेटा नहीं हूँ, कुलदीपक नहीं हूँ तुम्हारे परिवार का ? पर बेटी तो हूँ तुम्हारी।  मेरे पास उतने ही अधिकार से रहो, जितना तुम्हारे अगर बेटा होता तो तुम उसके पास रहतीं।  किस अपराध बोध से इतना झुक रही हो अम्मा ?

गुड्डो की आँखों से झर – झर आँसू बह रहे थे। वह कुछ कह ना सकी।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा,

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य- दीपावली विशेष – बुंदेली लघुकथा – ☆ आस का दीपक ☆ – डॉ . प्रदीप शशांक

डॉ . प्रदीप शशांक 

 

(डॉ प्रदीप शशांक जी द्वारा रचित एक भावुक बुंदेली लघुकथा  “आस का दीपक”.)

 

☆ लघुकथा – आस का दीपक  

 

“आए गए कलुआ के बापू, आज तो अपन का काम होइ गओ हुईए –” कहत भई कमली  बाहर आई  तो आदमी के मुँहपर छाई मुर्दनी देखी तो किसी अज्ञात खुशी से खिला उसका चेहरा पीलो पड़ गओ।

रघुवा ने उदास नजरों से अपनी बीवी को देखा और बोला – “इत्ते दिना से जबरनई तहसीलदार साहब के दफ्तर के चक्करवा लगाए रहे, आज तो ऊ ससुरवा ने हमका दुत्कार दियो और कहि कि तुमको मुआवजा की राशि मिल गई है, ये देखो तुम्हारा अंगूठा लगा है इस कागज़ पर और लिखो है कि  रघुवा ने 2500 रुपया प्राप्त किये।”

जिस दिन से बाबू ने आकर रघुवा से कागद में अंगूठा लगवाओ हतो  और कहि हती कि सरकार की तरफ से फसल को भये नुकसान को मुआवजा मिल हे, तभई से ओकी बीवी और बच्चे  के मन में दिवाली मनावे हते एक आस का दीपक टिमटिमाने लगा था, लेकिन बाबुओं के खेल के कारण उन आंखों में जो आस का दीपक टिमटिमा रहा था  वह जैसे दिए में तेल सूख जाने के कारण एकाएक ही बुझ गया।

 

© डॉ . प्रदीप शशांक 
37/9 श्रीकृष्णपुरम इको सिटी, श्री राम इंजीनियरिंग कॉलेज के पास, कटंगी रोड, माढ़ोताल, जबलपुर ,मध्य प्रदेश – 482002

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #20 ☆ पुनरावृत्ति ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा  “पुनरावृत्ति”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #20 ☆

 

☆ पुनरावृत्ति ☆

 

मंगलेश ने कमल की ओर देख कर मन ही मन कहा, “एक बार, रिश्तेदार की शादी में इस ने मुझे अपनी कार में नहीं बैठाया था, आज मैं इसे अपनी कार में नहीं बैठाऊंगा. ताकि इसे अनले किए का मजा चखा सकूँ.”

जैसा वह चाहता था वैसा ही हुआ. शादी में आए रिश्तेदार उस की कार में झटझट बैठ गए.  जैसे एक दिन मंगलेश बाहर खड़ा था वैसे ही आज कमल कार के बाहर खड़ा था. तभी मंगलेश की निगाहें अपने जीजाजी पर गई. वे भी कार के बाहर खड़े थे.

आज फिर वहीं स्थिति थी. जैसी मंगलेश जीजाजी और कमल साले जी के साथ हुई थी. फर्क इतना था कि आज मंगलेश ड्राइवर सीट पर बैठा था जब कि उस दिन कमल ड्राइवर सीट पर बैठा था. उस के सालेजी की जगह वह खड़ा था.

आज उसे भी वही खतरा सता रहा था जो किसी दिन कमल को सताया होगा. उस के जीजाजी बाहर खड़े थे. कार में जगह नहीं थी. यदि मंगलेश उन्हें कार में नहीं बैठाता तो वे नाराज हो सकते थे. कार से किसी रिश्तेदार को उतारा नहीं जा सकता था. असमंजस की स्थिति थी. क्या करें ? उसे कुछ समझ में नहीं आया.

तभी उस ने कार से उतर कर कमल की ओर चाबी बढ़ा दी.

“सालेसाहब ! आप इन्हें ले कर विवाह समारोह तक जाइए. मैं और मेरे जीजाजी किसी ओर साधन से वहाँ तक आते हैं.”

यह सुन कर कमल चकित और किकर्तव्यविमूढ़ खड़ा था.  उस के मुँह से हूँ हाँ के सिवाय कुछ नहीं निकला.

मंगलेश का मन दुखी होने की जगह प्रसन्न था कि उस का बदला पूरा नहीं हुआ मगर मन बदल गया था. उस ने एक और पुनरावृति को होने से रोक लिया था.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – ☆ लघुकथा ☆ पहचान ☆ – डॉ चंद्रेश कुमार छतलानी

डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

(डॉ चंद्रेश कुमार छतलानी जी  लघुकथा, कविता, ग़ज़ल, गीत, कहानियाँ, बालकथा, बोधकथा, लेख, पत्र आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं.  आपकी रचनाएँ प्रतिष्ठित राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं. हम अपेक्षा करते हैं कि हमारे पाठकों को आपकी उत्कृष्ट रचनाएँ समय समय पर पढ़ने को मिलती रहेंगी. आज प्रस्तुत है आपकी लघुकथा  “पहचान”.)

 

 ☆  पहचान ☆ 

 

उस चित्रकार की प्रदर्शनी में यूं तो कई चित्र थे लेकिन एक अनोखा चित्र सभी के आकर्षण का केंद्र था। बिना किसी शीर्षक के उस चित्र में एक बड़ा सा सोने का हीरों जड़ित सुंदर दरवाज़ा था जिसके अंदर एक रत्नों का सिंहासन था जिस पर मखमल की गद्दी बिछी थी।उस सिंहासन पर एक बड़ी सुंदर महिला बैठी थी, जिसके वस्त्र और आभूषण किसी रानी से कम नहीं थे। दो दासियाँ उसे हवा कर रही थीं और उसके पीछे बहुत से व्यक्ति खड़े थे जो शायद उसके समर्थन में हाथ ऊपर किये हुए थे।

सिंहासन के नीचे एक दूसरी बड़ी सुंदर महिला बेड़ियों में जकड़ी दिखाई दे रही थी जिसके वस्त्र मैले-कुचैले थे और वो सर झुका कर बैठी थी। उसके पीछे चार व्यक्ति हाथ जोड़े खड़े थे और कुछ अन्य व्यक्ति आश्चर्य से उस महिला को देख कर इशारे से पूछ रहे थे “यह कौन है?”

उस चित्र को देखने आई दर्शकों की भीड़ में से आज किसी ने चित्रकार से पूछ ही लिया, “इस चित्र में क्या दर्शाया गया है?”

चित्रकार ने मैले वस्त्रों वाली महिला की तरफ इशारा कर के उत्तर दिया, “यह महिला जो अपनी पहचान खो रही है….. वो हमारी मातृभाषा है….”

अगली पंक्ति कहने से पहले वह कुछ क्षण चुप हो गया, उसे पता था अब प्रदर्शनी कक्ष लगभग खाली हो जायेगा।

 

डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

3 प 46, प्रभात नगर, सेक्टर-5, हिरण मगरी, उदयपुर (राजस्थान) – 313 002

ईमेल:  [email protected]

फ़ोन: 9928544749

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं – # 20 – अधूरा ख्वाब ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी एक अतिसुन्दर लघुकथा “अधूरा ख्वाब”।  श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ़ जी  ने  इस लघुकथा के माध्यम से  एक सन्देश दिया है कि – ख्वाब देखना चाहिए। यह आवश्यक नहीं की सभी ख्वाब अधूरे ही होते हों । कभी कभी अधूरे ख्वाब भी  पूरे हो जाते हैं। ईमानदारी से प्रयास का भी अपना महत्व है।) 

 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं # 20 ☆

 

☆ अधूरा ख्वाब ☆

 

जीवन लाल और धनिया दोनों मजदूरी करते थे। दिन भर काम करने के बाद जो मिल जाता उसे बड़े प्रेम से ग्रहण कर भगवान को धन्यवाद करते थे। उनकी एक छोटी सी बिटिया थी। वह भी बहुत धीरज वाली थी। कभी किसी चीज के लिए परेशान नहीं करती थी। बहुत कम उम्र में ही उसने अपने आप को संभाल लिया और सहनशक्ति, संतोष की धनी बन गई। उसके दिन भर इधर-उधर चहकने और खेलने कूदने के कारण जीवन लाल और धनिया अपनी बेटी को ‘चिरैया’ कहते थे।

चिरैया धीरे-धीरे बड़ी होने लगी आसपास के घरों में मां के साथ जाती। बड़े बड़े झूले लगे देख उसके बाल मन में बहुत खुशी होती कि, उसका अपना भी कोई बड़ा सा झूला हो, जिसमें बैठकर वह पढ़ाई करती, गाना गाती और माँ-बापू को भी झूला झूलाती। पर किसी के घर उसको झूले में बैठने की अनुमति नहीं मिलती थी।

गार्डन में लगा झूला देख मन  ही मन प्रसन्न हो जाती थी। कभी-कभी बापू के साथ झूल आया करती थी। पर उसका ख्वाब उसके मन में घर बना चुका था।

चिरैया बड़ी हो गई पास में ही एक अच्छे परिवार के लोग किराए से रहने आए। उनका सरकारी स्थानांतरण हुआ था। चिरैया की माँ उनके घर काम पर जाती थी। पर अब चिरैया बड़ी हो गई थी। उसे किसी के यहाँ जाना अच्छा नहीं लगता था।

एक बार बाहर से उनका पुत्र आया, रास्ते में जाते हुए चिरैया को देख उसे पसंद कर अपने मम्मी पापा से शादी की इच्छा बताई। पूछने पर पता चला वह तो अपनी धनिया की बिटिया है। मम्मी पापा अपने इकलौते बेटे की खुशी को तोड़ना नहीं चाह रहे थे। उन्होंने धनिया से उसकी लड़की का पसंद जानना चाहा। परन्तु, गरीब की क्या पसंद और क्या नापसंद।

चिरैया तैयार हो गई। घर में ही सगाई हो गई, और जीवनलाल ने हाथ जोड़कर समधी जी से कहा “मेरी बिटिया को बड़े झूले में बैठने का बहुत शौक है। अब आपके घर पूरा होगा। मैं आपको कुछ भी नहीं दे सकता। अब बिटिया आपकी बहू हो गई।” शहर में शादी होनी थी। जीवनलाल धनिया और चिरैया सभी को लेकर शहर आ गए।

उनका आलीशान बंगला देख कर इन लोगों का मन भर आया। सभी आसपास पूछने लगे कि लड़की के घर से क्या आया है। सज्जन व्यक्ति ने सभी से कहा “शाम को आइए घर  पर सब दिख जाएगा।”  माँ बापू दोनों एक कमरे में बैठे थे बंगला चारों तरफ से सजा हुआ था। शाम को बड़े से गार्डन के बीच बहुत बड़ा झूला लगा था। बहुत कीमती उस पर सोने चांदी, हीरो की हार पहने चिरैया बैठी थी। किसी राजकुमारी की तरह कीमती पोशाक पहन। दुल्हन को कीमती झूले पर बैठे देख सबकी आंखें देखती रह गई।

चिरैया तो बस अपनी सुंदरता लिए बड़ी- बड़ी आंखों से सब देख रही थी। बेटे के पिताजी ने सबका ध्यान आकर्षित कर कहा “यह खूबसूरत सी बिटिया और यह कीमती झूला हमारे समधी साहब के यहाँ से आया है।” पास खड़े जीवनलाल और धनिया बस अपनी बिटिया को झूले पर सोलह सिंगार किए बैठे अपलक देख रहे थे।

बरसों का अधूरा ख्वाब आज पूरा हुआ दोनों की आँखों से खुशी के आँसू बहने लगे।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – लघुकथा – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – आग ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  – आग

 

दोनों कबीले के लोगों ने शिकार पर अधिकार को लेकर एक-दूसरे पर धुआँधार पत्थर बरसाए। बरसते पत्थरों में कुछ आपस में टकराए। चिंगारी चमकी। सारे लोग डरकर भागे।

बस एक आदमी खड़ा रहा। हिम्मत करके उसने फिर एक पत्थर, दूसरे पर दे मारा। फिर चिंगारी चमकी। अब तो जुनून सवार हो गया उस पर। वह अलग-अलग पत्थरों से खेलने लगा।

वह पहला आदमी था जिसने आग बोई, आग की खेती की। आग को जलाया, आग पर पकाया। एक रोज आग में ही जल मरा।

लेकिन वही पहला आदमी था जिसने दुनिया को आग से मिलाया, आँच और आग का अंतर समझाया। आग पर और आग में सेंकने की संभावनाएँ दर्शाईं। उसने अपनी ज़िंदगी आग के हवाले कर दी ताकि आदमी जान सके कि लाशें फूँकी भी जा सकती हैं।

वह पहला आदमी था जिसने साबित किया कि भीतर आग हो तो बाहर रोशन किया जा सकता है।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – लघुकथा – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – घटना नयी : कहानी वही ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  – घटना नयी : कहानी वही

 

मित्रता का मुखौटा लगाकर शत्रु, लेखक से मिलने आया। दोनों खूब घुले-मिले, चर्चाएँ हुईं। ईमानदारी से जीवन जीने के सूत्र कहे-सुने, हँसी-मज़ाक चला। लेखक ने उन सारे आयामों का मान रखा जो मित्रता की परिधि में आते हैं।

एक बार शत्रु रंगे हाथ पकड़ा गया। उसने दर्पोक्ति की कि मित्र के वेष में भी वही आया था। लेखक ने सहजता से कहा, ‘मैं जानता हूँ।’

चौंकने की बारी शत्रु की थी। ‘शब्दों को जीने का ढोंग करते हो। पता था तो जानबूझकर मेरे सच के प्रति अनजान क्यों रहे?’

‘सच्चा लेखक शब्द और उसके अर्थ को जीता है। तुम मित्रता के वेश  में थे। मुझे वेश और मित्रता दोनों शब्दों के अर्थ की रक्षा करनी थी’, लेखक ने उत्तर दिया।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

(प्रात: 4:57 बजे, 16.10.2019)

( एक पौराणिक कथासूत्र पर आधारित। अज्ञात लेखक के प्रति नमन के साथ।)

 

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 2 ☆ खरा सौदा ☆ – डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(हम  डॉ. ऋचा शर्मा जी  के ह्रदय से आभारी हैं जिन्होंने हमारे  सम्माननीय पाठकों  के लिए “साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद” प्रारम्भ करने के हमारे आग्रह को स्वीकार किया. डॉ ऋचा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  मिली है.  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी . उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं.  अब आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे. आज प्रस्तुत है उनकी ऐसी ही एक अनुकरणीय लघुकथा “खरा सौदा ”)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 2 ☆

 

☆ लघुकथा – खरा सौदा  ☆ 

 

गरीब किसानों की आत्महत्या की खबर उसे द्रवित कर देती थी।  कोई दिन ऐसा नहीं होता कि समाचार-पत्र में किसानों की आत्महत्या की खबर न हो।  अपनी माँगों के लिए किसानों ने देशव्यापी आंदोलन किया तो उसमें भी मंदसौर में कई किसान मारे गए। राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने आश्वासन दिए लेकिन उनके कोरे वादे किसानों को आश्वस्त नहीं कर पाए और आत्महत्या का सिलसिला जारी रहा।

कई बार वह सोचता कि क्या कर सकता हूँ इनके लिए ? इतना धनवान तो नहीं हूँ कि किसी एक किसान का कर्ज भी चुका सकूँ ।  बस किसी तरह दाल – रोटी चल रही है परिवार की।  क्या करूं कि किसी किसान परिवार की कुछ तो मदद कर सकूं।  यही सोच विचार करता हुआ वह घर से सब्जी लेने के लिए निकल पड़ा।

सब्जी मंडी बड़े किसानों और व्यापारियों से भरी पड़ी  थी।  उसे भीड़ में एक किनारे बैठी हुई बुढ़िया दिखाई दी जो दो – चार सब्जियों के छोटे – छोटे ढेर लगा कर बैठी थी।  इस भीड़- भाड़ में उसकी ओर कोई देख भी नहीं रहा था।  वह उसी की तरफ बढ़ गया।  पास जाकर बोला सब्जी ताजी है ना माई ?

बुढ़िया ने बड़ी आशा से पूछा-  का चाही बेटवा ?  जमीन पर बिछाए बोरे पर रखे टमाटर के ढेर पर नजर डालकर वह बोला –  ऐसा करो ये सारे टमाटर दे दो, कितने हैं ये ? बुढ़िया ने तराजू के एक पलड़े पर बटखरा रखा और दूसरे पलडे पर बोरे पर रखे हुए टमाटर उलट दिए, बोली – अभी तौल देते हैं भैया।  तराजू के काँटे को देखती हुई   बोली –  2 किलो हैं।

किलो क्या भाव लगाया माई ?

तीस रुपया ?

तीस रुपया किलो ? एकबारगी वह चौंक गया।  बाजार भाव से कीमत तो ज्यादा थी ही टमाटर भी ताजे नहीं थे।  वह मोल भाव करके सामान खरीदता था।  ये तो घाटे का सौदा है ? पता नहीं कितने टमाटर ठीक निकलेंगे इसमें, वह सोच ही रहा था कि उसकी नजर बुढ़िया के चेहरे पर पड़ी जो कुछ अधिक कमाई हो जाने की कल्पना से खुश नजर आ  रही थी।  ऐसा लगा कि वह मन ही मन कुछ हिसाब लगा रही है।  शायद उसके परिवार के लिए शाम के खाने का इंतजाम हो गया था।  उसने कुछ और सोचे बिना जल्दी से टमाटर थैले में डलवा लिए।

वह मन ही मन मुस्कुराने लगा, आज उसे अपने को ठगवाने में आनंद आ रहा था।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा,

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – ☆ लघुकथा ☆ मानव-मूल्य ☆ – डॉ चंद्रेश कुमार छतलानी

डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

(डॉ चंद्रेश कुमार छतलानी जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है. आप लघुकथा, कविता, ग़ज़ल, गीत, कहानियाँ, बालकथा, बोधकथा, लेख, पत्र आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं.  आपकी रचनाएँ प्रतिष्ठित राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं. हम अपेक्षा करते हैं कि हमारे पाठकों को आपकी उत्कृष्ट रचनाएँ समय समय पर पढ़ने को मिलती रहेंगी. आज प्रस्तुत है आपकी लघुकथा  “मानव-मूल्य”.)

संक्षिप्त  परिचय 

शिक्षा: पीएच.डी. (कंप्यूटर विज्ञान)

सम्प्रति: सहायक आचार्य (कंप्यूटर विज्ञान)

सम्मान :

  • प्रतिलिपि लघुकथा सम्मान 2018,
  • ब्लॉगर ऑफ़ द ईयर 2019 सहित कई अन्य पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत

 

 ☆  मानव-मूल्य ☆ 

वह चित्रकार अपनी सर्वश्रेष्ठ कृति को निहार रहा था। चित्र में गांधीजी के तीनों बंदरों को विकासवाद के सिद्दांत के अनुसार बढ़ते क्रम में मानव बनाकर दिखाया गया था।

उसके एक मित्र ने कक्ष में प्रवेश किया और चित्रकार को उस चित्र को निहारते देख उत्सुकता से पूछा, “यह क्या बनाया है?”

चित्रकार ने मित्र का मुस्कुरा कर स्वागत किया फिर ठंडे, गर्वमिश्रित और दार्शनिक स्वर में उत्तर दिया, “इस तस्वीर में ये तीनों प्रकृति के साथ विकास करते हुए बंदर से इंसान बन गये हैं, अब इनमें इंसानों जैसी बुद्धि आ गयी है। ‘कहाँ’ चुप रहना है, ‘क्या’ नहीं सुनना है और ‘क्या’ नहीं देखना है, यह समझ आ गयी है। अच्छाई और बुराई की परख – पूर्वज बंदरों को ‘इस अदरक’ का स्वाद कहाँ मालूम था?”

आँखें बंद कर कहते हुए चित्रकार की आवाज़ में बात के अंत तक दार्शनिकता और बढ़ गयी थी।

“ओह! लेकिन तस्वीर में इन इंसानों की जेब कहाँ है?” मित्र की आवाज़ में आत्मविश्वास था।

चित्रकार हौले से चौंका, थोड़ी सी गर्दन घुमा कर अपने मित्र की तरफ देखा और पूछा, “क्यों…? जेब किसलिए?”

मित्र ने उत्तर दिया, “ये केवल तभी बुरा नहीं देखेंगे, बुरा नहीं कहेंगे और बुरा नहीं सुनेगे जब इनकी जेबें भरी रहेंगी। इंसान हैं बंदर नहीं…”

 

डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

3 प 46, प्रभात नगर, सेक्टर-5, हिरण मगरी, उदयपुर (राजस्थान) – 313 002

ईमेल:  [email protected]

फ़ोन: 9928544749

 

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #19 ☆ नाम ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा  “नाम”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #19 ☆

 

☆ नाम ☆

 

पति को रचना पर पुरस्कार प्राप्त होने की खबर पर पत्नी ने कहा,  “अपना ही नाम किया करों. दूसरों की परवाह नहीं है.”

“ऐसा क्या किया है मैंने?” पति अति उत्साहित होते हुए बोला, “तुम्हें तो खुश होना चाहिए कि तुम्हारे पति को पुरस्कार के लिए चुना गया है.”

“हूँ”, उस ने गहरी सांस लेकर कहा,  “यह तो मैं ही जानती हूँ. दिनरात मोबाइल और कंप्युटर में लगे रहते हो. मेरे लिए तो वक्त ही नहीं है आप के पास. क्या सभी साहित्यकार ऐसो ही होते हैं. उन की पत्नियां भी इसी तरह दुखी होती है.”’ पत्नी ने पति के उत्साह भाप पर गुस्से का ठंडा पानी डालने की कोशिश की.

“मगर, जब हम लोग साहित्यिक कार्यक्रम में शिलांग घुमने गए थे, तब तुम कह रही थी कि मुझे इन जैसा पति हर जन्म में मिलें.”

“ओह ! वो बात !” पत्नी ने मुँह मरोड़ कर कहा,  “कभी-कभी आप को खुश करने के लिए कह देती हूं. ताकि…”

“ताकि मतलब…”

“कभी भगवान आप को अक्ल दे दें और मेरे नाम से भी कोई रचना या पुरस्कार मिल जाए. ” पत्नी ने अपने मनोभाव व्यक्त कर दिए.

यह सुनते ही पति को पत्नी के पेटदर्द की असली वजह मालुम हो गई.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

Please share your Post !

Shares
image_print