हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #15 ☆ बेबस ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा  “बेबस ”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #15 ☆

 

☆ बेबस ☆

 

धनिया इस बार सोच रही थी कि जो 10 बोरी गेहू हुआ है उस से अपने पुत्र रवि के लिए कॉपी, किताब और स्कूल की ड्रेस लाएगी जिस से वह स्कूल जा कर पढ़ सके. मगर उसे पता नहीं था कि उस के पति होरी ने बनिये से पहले ही कर्ज ले रखा है .

वह आया. कर्ज में ५ बोरी गेहू ले गया. अब ५ बोरी गेहू बचा था. उसे खाने के लिए रखना था. साथ ही घर भी चलाना था. इस लिए वह सोचते हुए धम से कुर्सी पर बैठ गई कि वह अब क्या करेगी ?

पीछे खड़ा रवि अवाक् था. बनिया उसी के सामने आया. गेहू भरा . ले कर चला गया. वह कुछ नहीं कर सका.

“अब क्या करू ? क्या इस भूसे का भी कोई उपयोग हो सकता है ?” धनिया बैठी- बैठी यही सोच रही थी .

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – सृजन ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

☆ संजय दृष्टि – सृजन ☆

(माँ शारदा की अनुकम्पा से जन्मी एक लघुकथा)

जल शांत था। उसके बहाव में आनंदित ठहराव था। स्वच्छ, निरभ्र जल और दृश्यमान तल। यह निरभ्रता उसकी पूँजी थी, यह पारदर्शिता उसकी उपलब्धि थी।

एकाएक कुछ कंकड़ पानी में आ गिरे। अपेक्षाकृत बड़े आकार के कुछ पत्थरों ने भी उनका साथ दिया। हलचल मची। असीम पीड़ा हुई। लहरें उठीं। लहरों से मंथन हुआ। मंथन से सृजन हुआ।

कहते हैं, उसकी रचनाओं में लहरों पर खेलता प्रवाह है। पाठक उसकी रचनाओं के प्रशंसक हैं और वह कंकड़-पत्थर फेंकनेवाले हाथों के प्रति नतमस्तक है।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं – # 15 – सच्ची मोहब्बत ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी एक बेहतरीन लघुकथा “सच्ची मोहब्बत”।  श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ़ जी की कलम को इस बेहतरीन लघुकथा के माध्यम से  युवाओं को वैवाहिक निर्णय लेने के समय भावनाओं का सम्मान रखने का अभूतपूर्व संदेश देने के लिए  बधाई ।)

 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं # 15 ☆

 

☆ सच्ची मोहब्बत ☆

 

मोहब्बत कहते ही लगता है कि एक दूसरे के प्रति अटूट प्यार विश्वास और समर्पण की भावना। मोहब्बत किसी से कहीं भी हो सकती है, बस दिल पर गहरा असर हो। गांव के मोहल्ले में एक छोटा सा परिवार सभी के साथ रहता था। माँ-बाप मजदूरी करते और बिटिया नंदिनी  और हाथ पैर से अपंग भाई। नंदिनी  बहुत सुंदर पढ़ाई लिखाई में तेज और समझदार थी। कहते हैं मजबूरी सब सिखा देती है, ऐसे ही नंदिनी  समय से पहले समझदार और अपने कर्तव्य समझने लगी थी। भाई की कमजोरी और माँ-बाप की लाचारी से नंदिनी को सब सीखना पड़ा। स्कूल के साथ-साथ थोड़ा बहुत सबका काम करती थी। पैसे और खाने का सामान मिलने पर उनका खर्च चलने लगा था। शिक्षा पूरा होते ही नंदिनी  एक स्कूल की टीचर बन गई। अब थोड़ी राहत हुई। मां बाप भी खुश भाई के इलाज के लिए थोड़े पैसे भी बचा लेती थी। पर मन ही मन नंदिनी  भाई को लेकर बहुत परेशान रहती थी। पास पड़ोस में सभी नंदिनी  से कहते शादी कर लो नंदिनी  पर वह तो घर से बंधी हुई थी। कहती मेरी जिम्मेदारी को देखते हुए कौन मुझसे शादी करेगा। परंतु कहीं ना कहीं सब बातों से आहत होती थी। एक दिन अचानक पिताजी को लकवा यानि कि पैरालिसिस लग गया और बिस्तर पर आ लगे। माँ बेचारी बेटी को लेकर रो-रोकर दिन काटने लगी। एक दिन स्कूल से नंदिनी आई घर में कुछ मेहमान बैठे थे। पता चला नंदिनी की शादी की बात चल रही है। बिल्कुल सादे लिबास में भी नंदिनी का रूप चमक रहा था। मेहमानों के जाने के बाद पिताजी इशारे से बेटी को कहने लगे लड़का अच्छा है, शादी कर ले। नंदिनी ने गुस्से से कहा आप सब के कारण में शादी नहीं कर पाऊंगी। रात में सोचते सोचते नंदिनी के पिता जी सदा-सदा के लिए शांत हो गए। अब तो जैसे घर में बेचैनी का माहौल बनने लगा। भाई भी बहन की परिस्थिति को समझ सकता था। पर हाथ पैर से लाचार कुछ नहीं कर पा रहा था। बस रो लेता था। एक दिन नंदिनी स्कूल से लौटी। माँ  ने चाय के साथ उसको एक रजिस्टर्ड लिफाफा पकड़ा दिया। खोलकर नंदिनी ने पढ़ी। आँखों से आँसू गिरने लगे। स्टांप पेपर पर लिखा था –

“मैं अपने होशो हवास से लिख रहा हूं। मैं नंदिनी के माँ और भाई को आजीवन अपने साथ रखूंगा। और किसी प्रकार का कोई कष्ट नहीं होने दूंगा। बस नंदिनी मेरी जीवन साथी बन जाओ।”

*तुम्हारा सुधांशु*

नंदिनी बार-बार पढ़ रही थी *तुम्हारा सुधांशु* जैसे उसकी सच्ची मोहब्बत हो। खुशी से आँसू गिर रहे थे। चेहरे पर बहुत प्यारी हँसी। माँ और भाई समझ नहीं पा रहे थे। नंदिनी ने आँसू पोंछ कर माँ से कहा शादी की तैयारी करो। माँ और भाई ने कोई सवाल नहीं किया। बस खुशी के मारे मोहल्ले में बताने दौड़ चली। भाई अपनी खुशी गाना गाकर कर रहा था। सुधांशु को *सच्ची मोहब्बत* मिल गई।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार – # 14 – लघुकथा – बालवर्ष का लाभ ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

 

(आपसे यह  साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  e-abhivyakti के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं । अब हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे।  आज प्रस्तुत है  उनकी  लघुकथा  “बालवर्ष का लाभ”।  यदि हमारे भीतर मानवता जीवित है तो हम आज ऐसे  परजीवी न होते . यह  भी मत भूलिए  कि  जरूरतों और समय ने बच्चों को समय पूर्व ही वयस्क बना दिया है.)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 14 ☆

 

☆ लघुकथा – बालवर्ष का लाभ ☆

 

और फोटोग्राफर भरी दुपहरिया में पसीना-पसीना हुए घूम रहे थे। उद्देश्य था बालवर्ष के सिलसिले में कुछ खस्ताहाल, संघर्षशील बच्चों के इंटरव्यू और चित्र छापना। ढाबे में काम करने वाले एक छोकरे का इंटरव्यू लेकर लौटे थे और दूसरे की तलाश में थे। दूसरा भी मिल गया, चौराहे पर बूट-पॉलिश करता हुआ।। लेखक का चेहरा खिल गया।

लेखक ने उसके सामने बैठकर अपना खाता खोला, दुनिया-भर के प्रश्न पूछ डाले। नाम? उम्र? कहाँ से आये हो? कहाँ रहते हो? कैसे रहते हो? कितना कमा लेते हो? माँ-बाप की याद आती है? भाई-बहन की याद आती है? घर की याद आती है?

लड़का निर्विकार भाव से सवालों के जवाब देता रहा। माँ-बाप और भाई-बहन के बारे में पूछते हुए लेखक ने उसकी आँखों में झाँका कि शायद गीली हो गयीं हों। लेकिन लड़के की आँखें रेत जैसी सूखी और चेहरा सपाट था।

लेखक ने हाथ बढ़ाया, ‘अच्छा भई श्यामलाल, चलते हैं।’

लड़का वैसे ही निर्विकार भाव से बोला, ‘एक बात कहना है साहब।’

लेखक उत्साह से बोला, ‘बोलो, बोलो।’

लड़का बोला, ‘साहब, इसी तरह पाँच छः बाबू लोग हमसे बातचीत करके हमारा फोटो खींच ले गये। हर बार हमारा आधे घंटे का नुकसान होता है। इतनी देर में दो आदमियों को निपटा देता।’

लेखक का मुँह उतर गया। उसने जेब से बीस रुपये का नोट निकालकर बढ़ाया, कहा, ‘यह लो श्यामलाल अपना हर्जाना।’

लड़के ने नोट मोड़कर लापरवाही से कान पर खोंस लिया।

लेखक जाने के लिए मुड़ने लगा कि लड़का बोला, ‘एक बात और साहब।’

लेखक बुझे-बुझे स्वर में बोला, ‘कहो।’

लड़का बोला, ‘साहब, यह बाल बरस किसके कल्यान के लिए मनाया जा रहा है?’

लेखक ने जवाब दिया, ‘बच्चों के कल्याण के लिए, तुम्हारे कल्याण के लिए।’

लड़का बोला, ‘पर साहब, यह जो आप लिख लिखकर छपवा रहे हैं, उससे तो आपका कल्यान हो रहा है। हम तो जहाँ के तहाँ बैठे हैं।’

अब लेखक और फोटोग्राफर लड़के की तरफ पीठ करके जल्दी-जल्दी ऑटो को आवाज़ दे रहे थे।

 

©  डॉ. कुन्दन सिंह परिहार , जबलपुर (म. प्र. )

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #14 ☆ परीक्षा ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा  “परीक्षा”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #14 ☆

 

☆ परीक्षा ☆

 

मैंने परीक्षाकक्ष में जा कर मैडम से कहा, “अब आप बाथरूम जा सकती है.”

मैडम ने “थैंक्स” कहा और बाहर चली गई और मैं परीक्षा कक्ष में घूमने लगा. मगर, मेरी निगाहें बरबस छात्रों की उत्तर पुस्तिका पर चली गई थी. सभी छात्रों ने वैकल्पिक प्रश्नों के सही उत्तर कांट कर गलत उत्तर लिख रखे थे. यानी सभी छात्रों ने एक साथ नकल की थी.

छात्रों के 20 अंकों के उत्तर गलत थे. मुझसे से रहा नहीं गया. एक छात्र से पूछ लिया,  “ये गलत उत्तर किस ने बताए हैं?”

सभी छात्र आवाक रह गए. और एक छात्र ने डरते डरते कहा, “मैडम ने!”

“ये सभी उत्तर गलत हैं”  मैं जोर से चिल्लाया, “सभी अपने उत्तर काट कर अपनी मरजी से उत्तर लिखो. वरना, इस परीक्षा में सब फेल हो जाओगे.”

तभी केंद्राध्यक्ष ने आ कर कहा, “क्यों भाई ! क्यों चिल्ला रहे हो? जानते नहीं हो कि ये परीक्षा है.”

मैं चुप हो गया. क्या जवाब देता. ये परीक्षा है?

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं – # 14 – सुघड़ बहू ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी एक बेहतरीन लघुकथा “सुघड़ बहू ”।  श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ़ जी की कलम को इस बेहतरीन लघुकथा के माध्यम से  समाज  को अभूतपूर्व संदेश देने के लिए  बधाई ।)

 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं # 14 ☆

 

☆ सुघड़ बहू ☆

 

माधवी  बहुत सुशील संस्कार वान लड़की शादी से दुल्हन बन कर ससुराल आई। कुछ दिनों के बाद सभी मेहमानों के जाने के बाद घर के सदस्य बच गये। वहां एक बहुत ही खराब आदत थी, खाना खाने के बाद उसी थाली में कुल्ली कर हाथ धोने की। जो माधवी को  कहीं से भी अच्छा नहीं लग रहा था। उसने अपने पतिदेव से कही, उन्होंने भी कह दिया हमारे यहां सभी ऐसा ही करते है। तुम नया कुछ नहीं कर सकती।

माधवी ने भी सब को अच्छी आदत डालने का बीडा उठाया।

खाना परोसने के बाद वह वहीं खड़ी रहती। एक हाथ में पानी और दूसरे हाथ पर हाथ धोने वाला बर्तन। सबको हाथ धुलाती थी। और फिर बर्तन बाहर रख कर आ जाती थी। सबको बहुत बुरा लगता था। कई बातें भी बनती थी। परन्तु जो गलत था उसे वह सुधार रहीं थीं। धीरे-धीरे सभी को समझ आने लगा। वास्तव मे जो जूठे बर्तन उठाये जिसमें सुबह शाम हाथ धोकर कुल्ला किया जाये, तो उसको कितना खराब लगता होगा।

अब तो सब बाहर एक निश्चित जगह पर जाकर हाथ धोने लगे। पतिदेव भी खुश थे कि जो अच्छा काम है। उसे अपना लेना चाहिए। अब तो देखा-देखी सभी इस का ख्याल करने लगे।

माधवी सब के लिये अब “सुघड़ बहु ‘बन गई। उसे भी एक नयी पहल पर अच्छा लगा। अपनी जीत पर मुस्कुराने लगी।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #13 ☆ हाउसवाइफ ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा  “हाउसवाइफ ”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #13 ☆

 

☆ हाउस वाइफ ☆

 

वह भरे-पूरे परिवार में रहती थी जहा उसे काम के आगे कोई फुर्सत नहीं मिलाती थी. मगर फिर भी वह उस मुकाम तक पहुच गई जिस की कोई कल्पना भी नहीं कर सकता है.

उस ने कई दिग्गजों को हरा कर “मास्टर शेफ” का अवार्ड जीता था. यह उस की जीवन का सब से बड़ा बम्पर प्राइज था.

“आप  अपनी जीत का श्रेय किसे देना चाहती है ?” एक पत्रकार ने उस से पूछा

“मैं एक  हाउस वाईफ हूँ और मेरी जीत का श्रेय मेरे भरे- पूरे परिवार को जाता है जिस ने नई-नई डिश की मांग कर-कर के मुझे एक बेहत्तर कुक बना दिया. जिस की वजह से मैं ये मुकाम हासिल कर पाई हूँ.”

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ तन्मय साहित्य – # 11 – करे कोई भरे कोई ☆ – डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  लघुकथा  “करे कोई भरे कोई। )

 

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – # 11 ☆

 

☆ करे कोई भरे कोई ☆  

 

यार रमेश, ये अंकल आँटी को क्या हो गया है, आजकल दोनों बच्चों – पिंकी व रिंकू को हम लोगों से दूर-दूर क्यों रखने लगे हैं?

हाँ  शुभम् मैं भी तो इसी बात से हैरान हूँ। मैंने जब रामदीन दद्दा से पूछा तो वे अपना ही रोना ले बैठे, बोले- कुछ दिनों से बहू बेटे, दोनों बच्चों को उनके कमरे में आने से रोकने लगे हैं।

बता रहे थे वे- आजकल सब दूर यही सब चल रहा है।

उनके एक बुजुर्ग मित्र देवीदीन को तो उनके डॉक्टर बेटे बहू ने मुँह पर ही बोल दिया कि, वे बच्चों से दूरी बना कर रखें। उनके कारण पूछने पर उन लोगों ने स्वास्थ्य का हवाला दिया कि, बड़ी उम्र में शरीर में कई अज्ञात रोगाणु छिपे रहते हैं, इसलिए……

यार रमेश क्या सटीक कारण खोजा है, डॉक्टर बहू बेटे ने अपने ही पिता को बच्चों से दूर रखने का।

वैसे शुभम्- असली कारण मुझे कुछ और ही लग रहा है जो अब कुछ कुछ समझ में भी आ रहा है।

दरअसल आये दिन अखबारों और टी.वी. चैनलों पर बाल यौन उत्पीड़न की कुत्सित घटनाओं को देख सुन कर सभी माँ-बाप अपने बच्चों की सुरक्षा को ले कर काफी भयभीत व आशंकित हैं। शायद इसी भय के चलते सब के साथ उनके अपने भी संदेह के घेरे में आने लगे हैं।

रमेश, यह तो सही है कि  ऐसे हालात में सतर्कता और सावधानी रखना जरूरी हो गया है, पर ऐसे में जो साफ़ सुथरे निश्छल मन के स्नेही स्वजन हैं उनके दिलों पर क्या गुजरेगी।

गुजरना तो है शुभम्- गुजर भी रही है, तभी तो हम इस पर चर्चा कर रहे हैं। क्या करें समाज का ताना बाना ही ऐसा है, सुनी है ना वे सारी कहावतें – कि “एक पापी पूरी नाव को डूबा देता है”,

“दूध का जला छांछ भी फूँक कर पीता है”  या “करे कोई भरे कोई”

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं – # 13 – मेहंदी ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

सुश्री सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी एक बेहतरीन लघुकथा “मेहंदी”यह रंग बिरंगा जीवन जीने का दूसरा अवसर नहीं मिलता, जिसे जीने का सबको बराबर हक है। श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ़ जी की कलम को इस बेहतरीन लघुकथा के माध्यम से  समाज  को अभूतपूर्व संदेश देने के लिए  बधाई ।)

 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं # 13 ☆

 

☆ मेहंदी ☆

 

कंचन अपने माता-पिता की इकलौती संतान । गोरा रंग और सुंदरता के कारण उसका नाम कंचन रखा गया। कंचन के पिताजी की रंगो और मेहंदी की छोटी सी दुकान । उन रंगों से खेलना कंचन को बहुत भाता था। हमेशा मेहंदी से हाथ रचाई रखना उसकी दिनचर्या में शामिल हो गई थी। बहुत शौकीन सजने संवरने की।

समय बीतता गया, कंचन बड़ी हुई। घर में शादी की बात चलने लगी। कंचन जो अब तक मेहंदी – महावर लगा रही थी। अब उसके माथे मांग सिंदूर लगने जा रहा था।

शादी बहुत ही साधारण तौर पर हुई क्योंकि कंचन के पिताजी ज्यादा खर्च करने के लायक नहीं थे। कंचन के रूप- गुण के कारण ससुराल वाले उनका भी खर्चा उठाने के लिए तैयार हो गए। बस और क्या चाहिए। कंचन शादी विदा होकर अपने ससुराल पहुंच गई। पर उसके मन में बार-बार शंका हो रही थी कि आखिर क्यों इतना एहसान किया जा रहा है।

ससुराल पहुंचने पर कंचन को धीरे-धीरे पता चला कि उसका अपना पति बहुत ही बीमार रहता है। डॉक्टर ने उसे जवाब दे दिया है। पर कंचन बेचारी क्या करती। दूसरे दिन ही पति की बीमारी शुरू हुई और मौत हो गई।

कंचन मौन मूक से देखती रही। अभी तो उसने ठीक से पति को देखा भी नहीं और विधवा हो गई।

खैर सब अपने कर्मो का फल है ऐसा सब  कहने लगे। परंतु कंचन समझ ना पा रही थी कि इसमें उसका क्या कसूर।

दूसरे ही दिन से कंचन को सफेद साड़ी दे दिया गया। जिस कंचन को सब रंगों से इतना लगाव था वह तो पूरी सफेद बन चुकी।

महीने भर बाद माता-पिता जी ले गए अपनी बिटिया को अपने घर। जैसे खुशियां उनके घर से कोसों दूर चली गई है। कंचन अब अपनी दुकान पर भी नहीं बैठती थी। गुमसुम से एक जगह बैठी मिलती। बस अपने आप में खोई हुई। पास में ही कंचन के साथ पढ़ाई करने वाला लड़का कौशल पढ़ाई कर बाहर नौकरी पर चला गया था। जो कंचन को बहुत प्यार करता था। इसका पता उसे तब चला जब वह फिर लौट कर अपने घर आया हुआ था।

एक दिन पिताजी किसी काम से शहर से बाहर गए थे। कंचन की माँ अपने घर का काम कर रही थी। और कंचन दुकान पर बैठी, सफेद साड़ी में। उसी समय वह आया और लाल रंग और मेहंदी देने को कहा। पर कंचन ने मना कर दिया की वह रंगों को हाथ नहीं लगाएगी। कौशल ने फिर कहा “मुझे लाल रंग चाहिए।” कंचन ने गुस्से से कहा “तो फिर खुद ले लो और लगा लो।” बस कौशल को तो इसी की प्रतीक्षा थी। उसने लाल रंग निकाला और कंचन की सफेद साड़ी को सर से पांव तक लाल कर दिया। “ये क्या किया?” कंचन घबराहट से उठ खड़ी हुई।

माँ पीछे से मंद-मंद मुस्कुराते हुए बाहर आई और कौशल से बोली “ले जा मेरी कंचन को, मेहंदी महावर और लाल सिंदूर लगा कर। मेरी कंचन को रंगों से बहुत प्यार है।”

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार – # 13 – लघुकथा – एक पुरस्कार समारोह ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

 

(आपसे यह  साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  e-abhivyakti के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं । अब हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे।  आज प्रस्तुत है  उनकी  लघुकथा  “एक पुरस्कार समारोह”।  ईमानदारी वास्तव में  नीयत से जुड़ी  है। समाज में व्याप्त ईमानदारी के स्तर को डॉ परिहार जी ने बेहद खूबसूरत अंदाज में प्रस्तुत किया है। हम आप तक ऐसा ही  उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 13 ☆

 

☆ लघुकथा – एक पुरस्कार समारोह  ☆

कलेक्टरेट के चपरासी दुखीलाल को दस हजार रुपये से भरा बटुआ एक बेंच के पास पड़ा मिला। उसने उसे खोलकर देखा और सीधे जाकर उसे कलेक्टर साहब की टेबिल पर रखकर छाती तानकर सलाम ठोका। कलेक्टर साहब ने दुखीलाल की बड़ी तारीफ की।

दुखीलाल की ईमानदारी की खबर पूरे कलेक्टरेट में फैल गयी। जिस तरफ भी वह जाता, लोग शाबाशी देते। कुछ लोग उसकी तरफ इशारा करके दूसरों को बताते, ‘यही दुखी लाल है, दस हजार का पर्स लौटाने वाला।’ दुखी लाल का सीना एक दिन में तीन इंच बढ़ गया।

सिर्फ उसके साथी झगड़ू ने उसके आत्मगौरव के गुब्बारे में सुई टोंचने की कोशिश की। झगड़ू बोला, ‘वाह रे बुद्धूलाल! हाथ में आये दस हजार सटक जाने दिये। तुमसे नईं संभलते थे तो हमें दे देते, हम संभालकर रख लेते।’ दुखी लाल ने उसे डपटा, ‘चुप बेईमान!’ और झगड़ू ताली पीटकर हँसा, ‘जाओ जुधिष्ठिर, जाओ।’

उसी दिन नगर के प्रसिद्ध समाज सेवक चतुर लाल जी पर्स पर अपना दावा पेश करके, प्रमाण देकर रुपया ले गये। दूसरे दिन नगर की सामाजिक-सांस्कृतिक संस्था ‘फुरसत’ की ओर से दुखी लाल का अभिनंदन किया गया। चतुर लाल भी उसमें हाज़िर हुए।

समारोह में दुखी लाल की ईमानदारी की खूब प्रशंसा हुई। उसे माला पहनायी गयी और अभिनंदन-पत्र दिया गया। चतुर लाल भी बोले। उन्होंने कहा, ‘दुखी लाल के काम से साबित होता है कि हमारे देश में अभी भी ईमानदार और सही रास्ते पर चलने वाले लोग हैं। दुखी लाल का काम लाखों को ईमानदारी की प्रेरणा देगा। भाई दुखी लाल ने मुझे बड़े नुकसान से बचाया है, इसलिए मैं उन्हें एक हजार रुपये की राशि की तुच्छ सी भेंट देना चाहता हूँ। मेरा अनुरोध है कि वे इसे स्वीकार करें।’

उन्होंने राशि निकालने के लिए जेब में हाथ डाला कि इतने में दरवाज़े पर खाकी वर्दी दिखायी पड़ी और एकाएक चतुर लाल सब छोड़छाड़ कर अपनी धोती की लाँग संभालते हुए दूसरे दरवाज़े से भाग खड़े हुए। समारोह में अव्यवस्था फैल गयी।

दरवाज़े में से खुद पुलिस अधीक्षक हॉल में आये। उन्होंने कमरे में नज़र दौड़ायी और पूछा, ‘कहाँ गया वह समाज सेवक का बच्चा? बदमाश ने झूठा दावा पेश करके दूसरे का रुपया ले लिया।’

दुखीलाल मुँह फाड़े सब देख रहा था।

 

©  डॉ. कुन्दन सिंह परिहार , जबलपुर (म. प्र. )

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