हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – गोटेदार लहंगा ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

पुनर्पाठ-

? संजय दृष्टि –  लघुकथा – गोटेदार लहंगा ??

..सुनो।

…हूँ।

…एक गोटेदार लहँगा सिलवाना है.., कुछ झिझकते, कुछ सकुचाते हुए उसके बच्चों की माँ बोली।

 ….हूँ……हाँ…फिर सन्नाटा।

…अरे हम तो मज़ाक कर रहीं थीं। अब तो बच्चों के लिए करेंगे, जो करेंगे।…तुम तो यूँ ही मन छोटा करते हो…।

प्राइवेट फर्म में क्लर्की, बच्चों का जन्म, उनकी परवरिश, स्कूल-कॉलेज के खर्चे, बीमारियाँ, सब संभालते-संभालते उसका जीवन बीत गया। दोनों बेटियाँ अपने-अपने ससुराल की हो चलीं। बेटे ने अपनी शादी में ज़िद कर बहू के लिए जरीवाला लहंगा बनवा लिया था। फिर जैसा अमूमन होता है, बेटा, बहू का हो गया। आगे बेटा-बहू अपनी गृहस्थी की गाड़ी खींचने लगे।

बगैर पेंशन की ज़िंदगी कुछ ही सालों में उसे मौत के दरवाज़े ले आई। डॉक्टर भी  घर पर ही सेवा करने की कहकर संकेत दे चुका था।

उस शाम पत्नी सूनी आँखों से छत तक रही थी।

….डागदर-वागदर छोड़ो। देवी मईया तुम्हें ठीक रखेंगी। तुम तो कोई अधूरी इच्छा हो तो बताओ.., सच को समझते हुए धीमे-से बोली।

अपने टूटे पलंग की एक फटी बल्ली में बरसों से वह कुछ नोट खोंसकर जमा करता था। इशारे से निकलवाए।

….बोलो क्या मंगवाएँ? पत्नी ने पूछा।

….तुम गोटेदार लहंगा सिलवा लो..! वह क्षीण आवाज़ में बोला।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ महादेव साधना- यह साधना मंगलवार दि. 4 जुलाई आरम्भ होकर रक्षाबंधन तदनुसार बुधवार 30 अगस्त तक चलेगी 🕉️

💥 इस साधना में इस बार इस मंत्र का जप करना है – 🕉️ ॐ नमः शिवाय 🕉️ साथ ही गोस्वामी तुलसीदास रचित रुद्राष्टकम् का पाठ  🕉️💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा –  पागल ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 450 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं बारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपने लघु कथा को लेकर कई  प्रयोग किये हैं।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है, जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय लघुकथा “पागल“.)

☆ लघुकथा –  पागल ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल

बचपन के संगी – साथी तो कोई मिले नहीं – मिले ये दो पेड़। एक जामुन का दूसरा बेल का, इन दोनों के, फलने पर मैं इन पर कई कई बार चढ़ता – उतरता रहा हूं। दिनभर इन के इर्द-गिर्द घूमता रहता। चढ़ने – उतरने में अक्सर हाथ – पैर की चमड़ी छिल जाया करती।

दादी गुस्सा कर गालियां देती – ‘नासपीटे तू तो इन पेड़ों पर ही खटिया डाल ले, वही सो जाया कर – तुझे सोने के लिए घर तो नहीं आना पड़ेगा। वहीं ऊपर ही ऊपर टंगे रहियो। ‘

दादा हंसकर चिढ़ाते – ‘ठीक ही तो कहती है तेरी दादी। साफ-सुथरी हवा में नींद भी खूब आएगी। पेड़ होना अपने आप में एक अच्छी बात है। तिस पर उस पर सोना, सोने में सुहागा। ‘

मैं शर्मा कर रह जाता। शहर पढ़ने जाने लगा तो मैंने दादा जी से एक दिन कहा – ‘दादा, मेरे साथ इन पेड़ों को भी भेज दो ना। ‘ हा हा हा दादा जोर से हंसे। अपने पोपले मुंह से दादी भी क्या कम हंसी थी।

सेवानिवृत्ति के बाद पहली बार घर आया तो टूटे – बिखरे घर को देखकर रोना आ गया। घर की जगह – जगह से आसमान दिखने लगा था। गांव भर के गाय – बैलों का रेस्ट हाउस बन गया था यह। ट्रकों से गोबर भरा पड़ा था।

घर से घोर निराशा हुई तो खलिहान पहुंच गया। जहां दोनों पेड़ सही सलामत दिखे। भावावेश में, मैं इन पर चढ़ने उतरने की कोशिश करने लगा। हाथ पैर छिल गए, दूर कहीं गालियां बकती दादी का चेहरा दिखाई दे रहा था। …. नासपीटे पेड़ों पर ही खटिया डाल ले… वहीं ऊपर ही ऊपर टंगे रहियो…. हा हा हा ठठाकर दादा भी हंसते दिखाई दिए…. मैं भी ठठाकर हंसने लगा, हा हा हा गांव वाले मेरी इस हरकत पर मुझे पागल समझ रहे थे।

🔥 🔥 🔥

© डॉ कुँवर प्रेमिल

संपादक प्रतिनिधि लघुकथाएं

संपर्क – एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मध्यप्रदेश मोबाइल 9301822782

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ दो लघुकथाएं – “दरार” और “वर्चस्व” ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 450 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं बारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपने लघु कथा को लेकर कई  प्रयोग किये हैं।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है, जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत है आपकी दो लघुकथाएं “दरार” और “वर्चस्व”.)

☆ दो लघुकथाएं – “दरार” और “वर्चस्व” ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल

ये दो लघुकथाएं ‘दरार’ और ‘वर्चस्व’ बंगला भाषा में अनुवाद कर संपादक बेबी कारफोरमा ने अपनी संपादित कृति ‘निर्वाचित हिंदी अनुगल्प’ में प्रकाशित किया है। मूल लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए उपहार स्वरूप सादर प्रस्तुत हैं

कुंवर प्रेमिल

☆ लघुकथा एक – दरार ☆

एक मां ने अपनी बच्ची को रंग बिरंगी पेंसिलें लाकर दीं तो मुन्नी फौरन चित्रकारी करने बैठ गई। सर्वप्रथम उसने एक प्यारी सी नदी बनाई। नदी के दोनों किनारों पर

हरे भरे दरख़्त, एक हरी भरी पहाड़ी, पहाड़ी के पीछे से उगता सूरज और एक प्यारी सी झोपड़ी। बच्ची खुशी से नाचने लगी थी। तालियां बजाते हुए उसने अपनी मम्मी को आवाज लगाई।

‘ममा देखिए न मैंने कितनी प्यारी सीनरी बनाई है।’

चौके से ही मम्मी ने प्रशंसा कर बच्ची का  मनोबल बढ़ाया। कला जीवंत हो उठी।

थोड़ी देर बाद मुन्नी घबराई हुई सी चिल्लाई-

‘ममा गजब हो गया, दादा दादी के लिए तो इसमें जगह ही नहीं बन पा रही है।’

ममा की आवाज आई-

‘आउट हाउस बनाकर समस्या का निराकरण कर लो, दादा दादी वहीं रह लेंगे’।

मम्मी की सलाह सुनकर बच्ची एकाएक हतप्रभ होकर रह गई। उसे लगा कि सीनरी एकदम बदरंग हो गई है। चित्रकारी पर काली स्याही फिर गई है। झोपड़ी के बीचों बीच एक मोटी सी दरार भी पड़ गई है। ‌

☆ लघुकथा दो – “वर्चस्व” ☆

न जाने कितने कितने वर्षों से एक महिला सुप्रीम कोर्ट की जज बनी है।

अब तक मात्र छै महिलाएं ही तो बनी हैं।

इनकी गिनती सातवीं है।

हद कर दी इन पुरुषों ने, महिलाओं को आगे बढ़ने ही नहीं देते।

महिला मंडल में एक विचार विमर्श जोर पकड़ता जा रहा था। तब एक समझौतावादी महिला चुप न रह सकी।

‘बहनों जरा विराम लो, जो कुछ है, पुरुषों के बल पर ही तो हैं।

वर्चस्ववादी पुरुष ही हमें ऊंचाइयां प्रदान करते हैं। इसे नकारना मिथ्यावादी है। भाई, पिता, पति के बिना क्या हम एक कदम  भी बढ़ने में समर्थ हो सकेंगे।

🔥 🔥 🔥

© डॉ कुँवर प्रेमिल

संपादक प्रतिनिधि लघुकथाएं

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – बुनियाद ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – लघुकथा – बुनियाद ??

…मेरी राय में यह ब्याह नहीं करना चाहिए.., दादा ने अपनी पोती के बाप से कहा।

…बाऊ जी, पार्टी बहुत ऊँची है। इसलिए ऊँचा खर्चा कह रहे हैं। बड़े लोग हैं। बहुत पैसा है। उनका भी स्टेटस है। दो-चार चीज़ें मांग ली तो क्या हुआ?

…इसीलिए तो कह रहा हूँ कि यहाँ सम्बंध मत कर। लालच की बुनियाद पर खड़ा रिश्ता कभी नहीं टिकता।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ महादेव साधना- यह साधना मंगलवार दि. 4 जुलाई आरम्भ होकर रक्षाबंधन तदनुसार बुधवार 30 अगस्त तक चलेगी 🕉️

💥 इस साधना में इस बार इस मंत्र का जप करना है – 🕉️ ॐ नमः शिवाय 🕉️ साथ ही गोस्वामी तुलसीदास रचित रुद्राष्टकम् का पाठ  🕉️💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 167 – फ्रेम – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय एवं सार्थक लघुकथा “फ्रेम”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 167 ☆

☆ लघुकथा – 🔲 फ्रेम 🔲

फ्रेम कहते ही लगता है, किसी चीज को सुरक्षित रखने के लिए बनाया गया घेरा या सुरक्षा कवच, जिसमें उसे चोट ना पहुंचे। बस ऐसे ही प्रेम थे डॉक्टर रघुवीर सिंह, उस अभागी सोनाली के लिए जो सुख या खुशी किसको कहते हैं, जानती ही नहीं थी।

जीवन का मतलब भूल गई थी। माता-पिता की इकलौती संतान। बहुत कष्टों से जीवन यापन हो रहा था। माँ घर-घर का झाड़ू पोछा करती और पिताजी किसी किराने की दुकान पर नौकरी करते थे।

समय से पहले बुढ़ापा आ गया था। चिंता फिक्र और पैसे की तंगी से बेहाल। दोनों ने एक दिन घर छोड़ने का फैसला किया, परंतु सोनाली का क्या करें??? यह सोच चुपचाप रह गए।

पास में एक डाॅ. रघुवीर सिंह थे जो वर्षों से वहां पर रहते थे। उनकी अपनी संतान बाहर विदेश में थी। कभी-कभी सोनाली के पिता उनके पास जाकर बैठते और मालिश कर दिया करते। बातों ही बातों में उन्होंने कहा… “हम तीर्थ करना चाहते हैं और सोनाली को लेकर जा नहीं सकते। आप ही उपाय बताइए।” डाॅ. साहब ने कहा… “यहाँ मेरे पास छोड़ दो घर का काम करती रहेगी हमारी धर्मपत्नी के साथ उसका मन भी लगा रहेगा कुछ सीख लेगी।

और समय भी कट जाएगा। तुम्हारा तीर्थ भी हो जाएगा।” भले इंसान थे, डाॅ. साहब। उन्होंने पैसे वैसे का इंतजाम कर दिया। सोनाली को उनके यहाँ आउट हाउस में रख दोनों दृढ़ निश्चय कर चले गए कि अब लौटकर आना ही नहीं है। सोनाली को इस बात का पता नहीं था। समय गुजरता गया। एक दिन डॉक्टर साहब को पत्र मिला फोटो सहित लिखा हुआ सोनाली के माता-पिता का देहांत हो चुका था। सन्न रह गए चिंता से व्याकुल हो वह सोचने लगे कि सोनाली का क्या होगा?? कैसे उसे संभाले। उन्होंने बहुत ही समझ कर दो बड़े-बड़े फ्रेम बनवाएं।

एक में उनके माता-पिता की फोटो जिसमें माला पहनकर उसे ढक कर रखा गया और दूसरा फोटो सोनाली को दुल्हन के रूप में खड़ी साथ में डाॅ. रघुवीर और उनकी पत्नी दोनों का हाथ आशीर्वाद देते। उसे भी ढक कर रखा गया।

आज सब काम निपटाकर वह बैठी माता जी के पास बातों में लगी थी। बड़े प्रेम से माताजी में सिर पर हाथ फेरी और बोली “बहुत दिन हो गया सोनाली तुम कुछ कहती नहीं हो। आज हम तुम्हें एक सरप्राइज दे रहे हैं। इन दोनों फ्रेम में से तुम्हें एक फ्रेम तय करना है जो तुम्हारे भविष्य का रास्ता तय करेगी और एक सुखद सवेरा तुम्हारा इंतजार करती नजर आएगी। परंतु तुम्हें इन दोनों फ्रेम में से एक फ्रेम पर अपने आप को मजबूत कर प्रसन्न और खुश रहना होगा।

अपने भावों को समेटना होगा। ” सोनाली समझी नही। इस फ्रेम पर क्या हो सकता है?? सभी खड़े थे और पास में नौकर जाकर खड़े थे। सोनाली ने पहले फ्रेम उठाया देखा..  उसकी नजर जैसे ही माला पहने तस्वीर पर पड़ी सांसे रुक गई।

इसके पहले वह रोती डाॅ. साहब बोल पड़े..” दूसरी भी उठा लो हो सकता है तुम्हें कुछ अच्छा लगे।” आँखों में आंसू भर दूसरी फ्रेम उठाई.. रोती रोती जाकर डाॅ. साहब के बाहों में समा गई। माताजी ने प्यार से कहा… “चल अब जल्दी तैयार हो जा। लड़के वाले आते ही होंगे। सारी तैयारियाँ हो चुकी है।” सोनाली को बाहों में समेटे डाॅ. साहब ने धीरे से कहा..” बेटा ईश्वर को यही मंजूर था।” डाॅ. साहब के मजबूत बाहों का फ्रेम आज सोनाली अपने आप को किसी राजकुमारी से कम नहीं समझ रही थी। कुछ शब्द नही थे उसके पास। बस फ्रेम में सिमटी थी।

🙏 🚩🙏

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ कुंठा ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 450 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं बारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपने लघु कथा को लेकर कई  प्रयोग किये हैं।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है, जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा “कुंठा”.)

☆ लघुकथा – कुंठा ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल

ऐसा प्रतीत होता है कि मुझे कहानी लिखना ही नहीं आता. जब भी कभी अपने मित्रों को कहानी सुनाता तो वे किसिम- किसिम की गल्तियां निकालते मुंह बनाते फिरते.

‘पर उसकी कहानियां पत्रिकाओं में छपती कैसे हैं फिर?’वह मन ही मन में गुन्तारा लगाता.

एक दिन उसने अपनी कहानी किसी नामवर कहानीकार से जोड़कर सुनाई तो सभी वाह-वाह कर उठे. एक मित्र अति उत्साह में बोला-‘ऐसी होती है कहानी, कितने गटस है कहानी में, कितने उतार-चढ़ाव, लोकेशन, उपजीव्य, भाई वाह मजा आ गया.’

दूसरों ने भी प्रशंसा में तारीफ के पुल बांधे.

‘पर यह कहानी तो मेरी है’ – मैंने जोखिम उठाई.

‘क्या बात करते हो, यह मुंह और मसूर की दाल. साहित्य के मामले में ऐसी मजाक शोभा नहीं देती. कहानी जिसकी है, उसी की रहने दो, उसमें अपनी टांग मत घुसेड़ो.’

एक मित्र बोला तो मैं कृत्रिम हंसी हंसकर बोला – ‘सही कहते हो, आपको कहानी की कितनी परख है, मैं क्या जानता नहीं, कहानी की यह उत्तम कला क्या मेरे जैसे के वश की बात है. मैंने तो एक मजाक कर दिया था बस और क्या?’

मित्र नरम होकर बोला – ‘चलो, यदा-कदा ऐसी मजाक चल सकती है पर ऐसी मजाक लेखन के मामले में कभी स्वीकार्य नहीं होगी–ठीक है न.’

‘बिल्कुल दुरुस्त फरमाया जी’ – मैं अपने कान पकड़ कर सच्चाई को स्वीकार करता हूं.’

मित्रों के चेहरे पढ़कर मैं पूरी तरह आश्वस्त होना चाहता था.

🔥 🔥 🔥

© डॉ कुँवर प्रेमिल

संपादक प्रतिनिधि लघुकथाएं

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ – “सिपाही…” ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

☆ लघुकथा – “सिपाही…” ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

“अनिल भाई, आजकल दिखते नहीं हो ।कहां, बिजी रहते हो ?”

“राकेश जी, नौकरी की ड्युटी में लगा रहता हूं ।”

“अरे, तो इसका मतलब, क्या हम नौकरी नहीं कर रहे ?”

“ऐसी बात नहीं, आप भी कर रहे हैं, पर ऑफिस की बाबूगिरी और पुलिस के सिपाही की नौकरी में बहुत अंतर है ?”

“क्या मतलब ?”

“मतलब यह कि इस समय हम इमर्जेंसी सेवा में लगे हुए हैं, हमारी ज़रा सी लापरवाही देश और लोगों के लिए मंहगी पड़ जाएगी ।”

“अरे अनिल, बहाना बनाकर छुट्टी लो, और ऐश करो ।”

“नहीं जी, यह मुसीबत का काल है, तो क्या हमें पूरी ज़िम्मेदारी के साथ अपनी ड्युटी से न्याय नहीं करना चाहिए ।”

“अरे,छोड़ो तुम भी । अब तुम मुझे ही ज्ञान बांटने लगे ।”

” नहीं भाई, इसमें ज्ञान की क्या बात है, मैं तो अपने दिल की बात कह रहा हूं ।”

दो दोस्त मोबाइल पर ये बातें कर ही रहे थे कि तभी सड़क पर दो मोटरसाइकिलें ज़बरदस्त ढ़ंग से एक-दूसरे से भिड़ गईं ।दोनों गाड़ियों के सवार छिटककर दूर जा गिरे । एक तो, जो अधिक घायल नहीं हुआ था, तत्काल खड़ा हो गया, पर दूसरा जो बहुत घायल हुआ था, वह अचेत हो चुका था। तत्काल ही एम्बुलेंस को बुलाकर ड्युटी पर तैनात सिपाही अनिल उसे अस्पताल लेकर पहुंचा । उसकी जांच करते ही डॉक्टर ने कहा कि घायल को लाने में अगर थोड़ी देर और हो गई होती,तो उसे बचाना मुश्किल होता।

घायल विवेक के पर्स में रखे आधार कार्ड से उसके पेरेंट्स का कॉन्टेक्ट नंबर लेकर जब पेरेंट्स को बुलाया गया, और उसके पिता आये, तो अनिल ने पाया कि विवेक तो उसके उसी दोस्त राकेश का ही बेटा है, जो कुछ देर पहले ही उसे मोबाइल से अपनी ड्युटी से बचने के उपाय बता रहा  था।

सच्चाई जानकर राकेश अनिल से आंखें मिलाने की हिम्मत नहीं कर पा रहा था, वह बगलें झांकने लगा था ।

© प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे

प्राचार्य, शासकीय महिला स्नातक महाविद्यालय, मंडला, मप्र -481661

(मो.9425484382)

ईमेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – आत्मकथा ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – आत्मकथा ??

बेहद गरीबी में जन्मा था वह। तरह-तरह के पैबंदों पर टिकी थी उसकी झोपड़ी। उसने कठोर परिश्रम आरम्भ किया। उसका समय बदलता चला गया। अपनी झोपड़ी से 100 गज की दूरी पर आलीशान बिल्डिंग खड़ी की उसने। अलबत्ता झोपड़ी भी ज्यों की त्यों बनाये रखी।

उसकी यात्रा अब चर्चा का विषय है। अनेक शहरों में उसे आइकॉन के तौर पर बुलाया जाता है। हर जगह वह बताता है,” कैसे मैंने परिश्रम किया, कैसे मैंने लक्ष्य को पाने के लिए अपना जीवन दिया, कैसे मेरी कठोर तपस्या रंग लाई, कैसे मैं यहाँ तक पहुँचा..!” एक बड़े प्रकाशक ने उसकी आत्मकथा प्रकाशित की। झोपड़ी और बिल्डिंग दोनों का फोटो पुस्तक के मुखपृष्ठ पर है। आत्मकथा का शीर्षक है ‘मेरे उत्थान की कहानी।’

कुछ समय बीता। वह इलाका भूकम्प का शिकार हुआ। आलीशान बिल्डिंग ढह गई। आश्चर्य झोपड़ी का बाल भी बांका नहीं हुआ। उसने फिर यात्रा शुरू की, फिर बिल्डिंग खड़ी हुई। प्रकाशक ने आत्मकथा के नए संस्करण में झोपड़ी, पुरानी बिल्डिंग का मलबा और नई बिल्डिंग की फोटो रखी। स्वीकृति के लिए पुस्तक उसके पास आई। झुकी नजर से उसने नई बिल्डिंग के फोटो पर बड़ी-सी काट मारी। अब मुखपृष्ठ पर झोपड़ी और पुरानी बिल्डिंग का मलबा था। कलम उठा कर शीर्षक में थोड़ा- सा परिवर्तन किया। ‘मेरे उत्थान की कहानी’ के स्थान पर नया शीर्षक था ‘मेरे ‘मैं’ के अवसान की कहानी।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ महादेव साधना- यह साधना मंगलवार दि. 4 जुलाई आरम्भ होकर रक्षाबंधन तदनुसार बुधवार 30 अगस्त तक चलेगी 🕉️

💥 इस साधना में इस बार इस मंत्र का जप करना है – 🕉️ ॐ नमः शिवाय 🕉️ साथ ही गोस्वामी तुलसीदास रचित रुद्राष्टकम् का पाठ  🕉️💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – आज़ादी मुबारक 🇮🇳 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

पुनर्पाठ-

? संजय दृष्टि – आज़ादी मुबारक 🇮🇳 ??

घटना 15 अगस्त 2016 की है। मेरा दफ़्तर जिस इलाके में है, वहाँ वर्षों से सोमवार की साप्ताहिक छुट्टी का चलन है। दुकानें, अन्य व्यापारिक प्रतिष्ठान, यों कहिए कमोबेश सारा बाज़ार सोमवार को बंद रहता है। मार्केट के साफ-सफाई वाले कर्मचारियों की भी साप्ताहिक छुट्टी इसी दिन रहती है।

15 अगस्त को सोमवार था। स्वाभाविक था कि सारे छुट्टीबाजों के लिए डबल धमाका था। लॉन्ग वीकेंड वालों के लिए तो यह मुँह माँगी मुराद थी।

किसी काम से 15 अगस्त की सुबह अपने दफ्तर पहुँचा। हमारे कॉम्प्लेक्स का दृश्य देखकर सुखद अनुभूति हुई। रविवार के आफ्टर इफेक्ट्स झेलने वाला हमारा कॉम्प्लेक्स कामवाली बाई की अनुपस्थिति के चलते अमूमन सोमवार को अस्वच्छ रहता है है। आज दृश्य सोमवारीय नहीं था। पूरे कॉम्प्लेक्स में झाड़ू-पोछा हो रखा था। दीवारें भी स्वच्छ ! पूरे वातावरण में एक अलग अनुभूति, अलग खुशबू।

पता चला कि कॉम्प्लेक्स में सफाई का काम करनेवाली सीताम्मा, सुबह जल्दी आकर पूरे परिसर को झाड़-बुहार गई है। लगभग दो किलोमीटर पैदल चलकर काम करने आनेवाली इस निरक्षर लिए 15 अगस्त किसी तीज-त्योहार से बढ़कर था। तीज-त्योहार पर तो बख्शीस की आशा भी रहती है, पर यहाँ तो बिना किसी अपेक्षा के अपने काम को राष्ट्रीय कर्तव्य मानकर अपनी साप्ताहिक छुट्टी छोड़ देनेवाली इस सच्ची नागरिक के प्रति गर्व का भाव जगा। छुट्टी मनाते सारे बंद ऑफिसों पर एक दृष्टि डाली तो लगा कि हम तो धार्मिक और राष्ट्रीय त्योहार केवल पढ़ते-पढ़ाते रहे, स्वाधीनता दिवस को राष्ट्रीय त्योहार, वास्तव में सीताम्मा ने ही समझा।

आज़ादी मुबारक सीताम्मा, तुम्हें और तुम्हारे जैसे असंख्य कर्मनिष्ठ भारतीयों को!

सभी मित्रों को, भारत के हम सब नागरिकों को देश के स्वाधीनता दिवस की वर्षगांठ पर हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ। 🙏🏻🇮🇳🙏🏻🇮🇳🙏🏻

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – बुत का दर्द ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

श्री हरभगवान चावला

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा  लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – बुत का दर्द )

☆ लघुकथा – बुत का दर्द ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

बुत बना। बुत का कोई अंग टूटा। हिंसा हुई। ख़ूब ख़ून बहा। ख़ून देख बुत बहुत रोया, पर उसका रोना किसी ने नहीं देखा। उसका टूटा अंग जोड़ा गया। कुछ लोग आए। बुत के सामने हाथ जोड़े, बुत के चरणों में सिर झुकाया और मुस्कुराए। उनकी मक्कार मुस्कान देख बुत का ख़ून खौल उठा। उसने चाहा इन सबका सिर तोड़ दे, पर वह इन्सान नहीं बुत था; मर्यादा नहीं लाँघ सकता था।

अब वह पुलिस के जवानों की क़ैद में था।

वह चिल्लाता, “मुझे इस क़ैद से रिहा करो। मुझे यहाँ से हटाओ।” पर उसका चिल्लाना किसी ने नहीं सुना। लोग अब एक नए बुत की तैयारी में लगे थे।

©  हरभगवान चावला

सम्पर्क – 406, सेक्टर-20, हुडा,  सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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