हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – सबसे बड़ा मज़ाक ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

@ निठल्ला चिंतन

? संजय दृष्टि – सबसे बड़ा मज़ाक ? ?

कभी विचार किया कि तुम्हारे न होने से कितने लोगों को पर असर पड़ेगा? पत्नी-बच्चों पर, बहन पर, भाई पर, माता-पिता हैं तो उन अभागों पर, एकाध संगी-साथी पर, और…..?

नाम सूझ नहीं रहे न! …सच कहूँ, तुम्हारे होने का भी सिर्फ़ इन्हीं लोगों पर असर पड़ता है।

बाकी ये जो सोच रहे हो कि तुम हो तो दुनिया चल रही है, यह अपने समय और हर समय का सबसे बड़ा मज़ाक है।

…मानना न मानना, तुम्हारी मर्ज़ी..!

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 श्रीगणेश साधना, गणेश चतुर्थी मंगलवार दि. 19 सितंबर को आरम्भ होकर अनंत चतुर्दशी तदनुसार गुरुवार 28 सितंबर तक चलेगी। 💥

🕉️ इस साधना का मंत्र होगा- ॐ गं गणपतये नमः🕉️

💥 साधक इस मंत्र के मालाजप के साथ ही कम से कम एक पाठ अथर्वशीर्ष का भी करने का प्रयास करें। जिन साधकों को अथर्वशीर्ष का पाठ कठिन लगे, वे कम से कम श्रवण अवश्य करें।💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – सबसे ऊँची ज़मीन ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

श्री हरभगवान चावला

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा  लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – सबसे ऊँची ज़मीन)

☆ लघुकथा – सबसे ऊँची ज़मीन ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

लुटे पिटे, पस्त लोगों का क़ाफ़िला सरहद पार करते ही रुक गया। सबने एक दूसरे को देखा – किसी की उँगली कटी हुई थी, किसी के कंधे पर ज़ख़्म था तो किसी के सिर पर। कोई लंगड़ाता हुआ चला आया था तो कोई रोता हुआ। लगभग सभी के जिस्मों पर ख़ून के सूख चुके या सूख रहे धब्बे थे। ख़ैरियत सिर्फ़ इतनी थी कि जान बच गई थी। अब सब इस तरफ़ की धरती को देख रहे थे, जहाँ उनका बसेरा होने वाला था। एक शख़्स ने कहा – इधर की ज़मीन उधर से ऊँची तथा पवित्र लग रही है।

ज़्यादातर लोगों ने उसकी बात से सहमति जताई। तभी एक छः महीने का बच्चा भूख से रोया। उसकी माँ की एक छाती बलवाइयों ने काट दी थी। माँ ने बच्चे को बची रह गई छाती से चिपका लिया और उसे दूध पिलाती हुई उसके सिर पर हाथ फिराने लगी।

उसी शख़्स ने फिर कहा – मैं ग़लत था, कोई भी ज़मीन बच्चे को दूध पिलाती माँ की छाती से ऊँची तथा पवित्र नहीं हो सकती। फिर सभी ने सिर झुकाकर सहमति जताई। इस बार सबके हाथ जुड़े हुए थे, आँखें चू रही थीं।

©  हरभगवान चावला

सम्पर्क – 406, सेक्टर-20, हुडा,  सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – अर्धनारीश्वर ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 450 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं बारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपने लघु कथा को लेकर कई  प्रयोग किये हैं।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है, जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय लघुकथा “अर्धनारीश्वर“.)

☆ लघुकथा – अर्धनारीश्वर ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल

जब उसकी पत्नी नहीं रही तो नल पर पानी लेने उसे ही सड़क पर आना पड़ा। नल पर मोहल्ले की महिलाओं का पूरा वर्चस्व था।

एक के बाद एक महिलाएं पानी भरती जाती और वह टुकुर-टुकुर दूर से खड़ा देखता रह जाता। जब भी कभी उसने बीच में घुसने की कोशिश की तो उसे डांट दिया जाता।

जब पूरी महिला मंडली पानी भर लेती तब कहीं उसका नंबर आता। इस कारण उसका गृह कार्य पिछड़ जाता, ऑफिस भी प्राय; लेट हो जाता। फलस्वरुप उसे रोज ही डांट खानी पड़ती।

वह अंदर ही अंदर परेशान था, पर इसका कोई उपाय उसे समझ में नहीं आ रहा था।

अंततः उसे एक उपाय सूझा। उसने अपने केश बढ़ाए और अर्धनारीश्वर का रूप धारण कर लिया। वह भोंडेपन से कमर हिलाकर पानी लेने आता। उसे देखते ही महिलाएं तितर बितर हो जाती, जिसका फायदा उसे मिलता और उसका सारा गृह कार्य समय पर निबट जाता। अब उसे अपने बास की छत झिड़कियां नहीं खानी पड़ रही थी। अर्धनारीश्वर बनने का उसे पूरा फायदा मिल रहा था।

🔥 🔥 🔥

© डॉ कुँवर प्रेमिल

संपादक प्रतिनिधि लघुकथाएं

संपर्क – एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मध्यप्रदेश मोबाइल 9301822782

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लघुकथा # 208 ☆ “सहानुभूति…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय लघुकथा – “सहानुभूति…)

☆ लघुकथा – ‘सहानुभूति’ ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

अमीरों की बस्ती में बीस बाइस साल की सुंदर सी लड़की रोटी चोरी करते जब पकड़ी गई तो पुलिस ने झोपड़ी में बीमार सत्तर साल के मजदूर को पकड़ा। इसी मजदूर ने उसे पाला पोसा था, उसने बताया कि भोपाल गैस त्रासदी की रात तालाब के किनारे नौ-दस महीने की रोती हुई लड़की मिली थी, रोती हुई लड़की के पास एक महिला अचेत पड़ी थी शायद मर चुकी थी। तब से जब ये थोड़ी बड़ी हुई तो अमीरों के घर बर्तन साफ करके गुजारा करती रही।

बस्ती में न उसे कोई बहन कहता न कोई उसे बेटी कहता। इस बस्ती में उसने सिर्फ एक रिश्ता ही ज्यादा देखा कि प्रत्येक नजर उसके युवा तन पर फिसलती और वासना के अजनबी रिश्ते को जोड़ने का प्रयास करती। होली दीवाली, रक्षाबंधन सारे त्यौहार उसके लिए बेमानी। किसी पवित्र रिश्ते की सुगन्ध के लिए वह तरसती ही रही।

एक दिन जब बड़े साहब की पत्नी मायके गई थी और उस दिन मौसम भी बेईमान था, साहब ने उसे गर्म  पकौड़ी बनाने कहा, खौलते तेल में पकौड़ी जब तैर रहीं थीं तो साहब ने पीछे से उसके ब्लाउज में हाथ डाल दिए, कड़ाही पलट गयी थी, खौलते तेल से बेचारी का चेहरे, गले और स्तनों में फफोले पड़ गये थे, सुंदर चेहरा बदसूरती में तब्दील हो गया था।

कुछ दिन बाद जब वह ठीक होकर काम पर जाने लगी तो उसे आश्चर्य हुआ सभी घरों के साहब अब उसे बहन, बेटी जैसे संबोधनों से सहानुभूति देने लगे थे।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 212 ☆ लघुकथा – वक्त वक्त की बात ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक हृदयस्पर्शी एवं विचारणीय लघुकथा वक्त वक्त की बात-‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 212 ☆

☆ लघुकथा – वक्त वक्त की बात 

अम्माँजी अब अट्ठानवे पार की हुईं। अभी टनमन हैं। अपने सब काम खुद कर लेती हैं। किसी का हाथ नहीं थामना पड़ता। बड़ी बहू को बीनने-फटकने में मदद देती रहती हैं। सबेरे मुँह अँधेरे उठकर घर में कुछ न कुछ खड़बड़ करने लगती हैं।

अम्माँजी परिवार के मित्रों-परिचितों के बीच अजूबा बनी हुई हैं। जो घर में आता है वह पहले उन्हीं के हाल-चाल पूछता है। घर में आने वाले के लिए उनके ‘दर्शन’ ज़रूरी होते हैं। दर्शन के बाद लोग उनके पास बैठ जाते हैं, कहते हैं, ‘अम्माँजी, हमारे सिर पर हाथ धर दो। हम भी कम से कम सत्तर पार हो जाएँ। अभी तो उम्मीद कम है।’ अम्माँजी को भी इन बातों में मज़ा आता है। मिलने वाला लौट कर अपने घर जाता है तो वहाँ सबसे पहले अम्माँजी की कैफियत ही ली जाती है।

परिवार के लोग भी अम्माँजी के कारण उन्हें मिलते महत्व से खुश होते हैं। बहुत से लोग सिर्फ अम्माँजी के दर्शन के लिए आते हैं। मन्दिर की देवी की तरह पहले उनके दर्शन करके ही आसन ग्रहण करते हैं। अम्माँजी के तीन बेटे हैं। वे बड़े बेटे गजराज के साथ रहती हैं।

लेकिन गजराज अम्माँजी जैसे खुशकिस्मत नहीं रहे। तम्बाकू खाने की लत लगी थी। उसे ही जबड़े में दबाये दबाये सो जाते। गले में तकलीफ रहने लगी। डॉक्टर ने जाँच की। कहा, ‘लक्षण अच्छे नहीं हैं। दवा लिखता हूँ। नियम से खाइए और तीन-तीन महीने में जाँच कराइए। रोग बढ़ा तो फिर दूसरा ट्रीटमेंट कराना पड़ेगा।’

गजराज ठहरे लापरवाह। दवा खाने में लापरवाही हो जाती, जाँच कराने में भी। अन्ततः वे कमज़ोर होते होते तेहत्तर साल की उम्र में दुनिया से विदा हो गये।

परिवार पर दुख का पहाड़ टूटा। अम्माँजी इस बड़ी विपत्ति के आघात से संज्ञाशून्य हो गयीं। अब वे दिन भर घर के किसी कोने में चुप बैठी रहतीं। खाने-पीने की याद दिलानी पड़ती। परिवार की ज़िन्दगी को जैसे लकवा लग गया।

अब जो मिलने वाले आते उनसे अम्माँजी बचतीं। ऐसा लगता है जैसे उन्हें किसी बात पर शर्म आती हो। लोग आते तो उन्हें प्रशंसा के बजाय सहानुभूति से देखते। मुँह से ‘च च’ की ध्वनि निकलती। बाहर निकलते तो साथियों से कहते, ‘अम्माँजी का भाग्य देखो। बेटा चला गया, वे अभी तक बैठी हैं। भगवान ऐसी किस्मत किसी को न दे। ऐसी लम्बी उम्र से क्या फायदा!

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 127 ☆ जेनरेशन गैप ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  स्त्री विमर्श आधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘जेनरेशन गैप’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 127 ☆

☆ लघुकथा – जेनरेशन गैप ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

‘माँ! मुझे हॉस्टल में नहीं रहना है, बहुत घुटन होती है वहाँ। शाम को सात बजे ही हॉस्टल में आकर कैद हो जाओ। लगता है जैसे जानवरों की तरह पिंजरे में बंद हों। मुझे अपने दोस्तों के साथ फ्लैट में रहना है। ‘

‘बेटी! अनजान शहर में लड़कियों के लिए हॉस्टल में रहना ही अच्छा होता है, सुरक्षा रहती है। हॉस्टल के कुछ नियम होते हैं, उन्हें मानना चाहिए। और मैं भी यहाँ निश्चिंत रहती हूँ ना!। ‘

 ‘ये नियम नहीं बंधन हैं, जेल में कैदी के जैसे। और नियम सिर्फ लड़कियों के हॉस्टल के लिए होते हैं? लड़कों के हॉस्टल में तो ऐसा कोई नियम नहीं होता कि उन्हें हॉस्टल में कब आना है और कब जाना है, उन्हें सुरक्षा नहीं चाहिए क्या?’

माँ सकपकाई – ‘हाँ- हाँ — लड़कों के हॉस्टल में भी ये नियम होने चाहिए। पर लड़कियाँ अँधेरा होने से पहले घर आ जाएं तो मन निश्चिंत हो जाता है बेटी! अँधेरे में जरा डर बना रहता है। ‘

‘क्यों? क्या दिन में लड़कियाँ सुरक्षित हैं? आपको याद है ना! दिन में ट्रेन में चढ़ते समय क्या हुआ था मेरे साथ? ‘

‘हाँ – हाँ, रहने दे बस, सब याद है’ – माँ ने बात को टालते हुए कहा – ‘पर चिंता तो —– ‘

‘पर – वर कुछ नहीं, मुझे बताईए कि इसमें क्या लॉजिक है कि लड़कियों को घर जल्दी आ जाना चाहिए। हॉस्टल में बताए गए समय पर गेट के अंदर आओ, फिर मैडम के पास जाकर हाजिरी लगाओ। और यह चिंता- विंता की रट क्या लगा रखी है? कब तक यही कहती रहेंगी आप? बोलिए ना! ‘

माँ चुप रही — ‘आप मानती ही नहीं, खैर छोड़िए, बेकार है आपसे बात करना। आप कभी नहीं समझेंगी मेरी इन बातों को ’, यह कहकर बेटी पैर पटकती हुई चली गई।

बेटी की नजर में दुराचार की घटनाओं के लिए रात -दिन बराबर थे।

माँ की आँखों में रात के अंधकार में घटी बलात्कार की सुर्खियाँ जिंदा थीं।

© डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – झोलाराम ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 450 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं बारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपने लघु कथा को लेकर कई  प्रयोग किये हैं।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है, जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय लघुकथा “झोलाराम“.)

☆ लघुकथा – झोलाराम ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल

एक था झोला राम। उसे झोला खरीदने का बड़ा शौक था। जहां भी कोई नया नायाब झोला दिखाई देता, उसे खरीद लेता।

बहुत सारे झोले उसके पास हो चुके थे।

एक दिन उसकी जिंदगी में बुरा समय आ गया। दाने दाने को मोहताज हो गया था झोला राम। जब फाका पड़ा तो उसने एक झोला बेच दिया। कुछ दिनों बाद दूसरा फिर तीसरा।

सुंदर और नायाब झोले, फटाफट बिक जाते।

एक दिन उसने पुराने और नए झोलों को मिलाकर एक नई डिजाइन का झोला बनाकर बाजार में पेश कर दिया।

झोले खूब बिके। एक दिन  वह सेठ झोला राम बन गया। उसने अपने नए महल का नाम ‘झोला महल’ रखा।

फिर झोला बाग, झोला बाजार बनते रहे। वह अपने घर में झोले की पूजा पहले करता, दूजा काम बाद में होता।

‘झोला नगर’ बनते बनते सेठ झोला राम प्रसिद्धि के सोपान पार कर चुका था। एक दिन अखबार वाले चले आए और सेठ झोलाराम से उसकी सफलता का राज पूछने लगे।

झोलाराम बोला- ‘अपने शौक को बाजार तक पहुंचाने की कला भर आनी चाहिए बस, यही मैंने किया है। शौक और कला मिलकर माला माल कर सकते हैं।’

सेठ झोला राम का यह वक्तव्य दूसरे दिन शहर के सारे अखबारों में मुख पृष्ठ पर छापा गया था।

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© डॉ कुँवर प्रेमिल

संपादक प्रतिनिधि लघुकथाएं

संपर्क – एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मध्यप्रदेश मोबाइल 9301822782

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 207 ☆ लघुकथा – “डमी कैमरा…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय लघुकथा – डमी कैमरा)

☆ लघुकथा – ‘डमी कैमरा’ ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

दीपावली में सब लोग मिलने मिलाने एक दूसरे के घर आया- जाया करते हैं, जो घर आता है उसे लोग अपनी हैसियत से खिलाते पिलाते भी हैं।  

दीवाली के दूसरे दिन मैं अपने एक मित्र के यहां गया, उसने ड्राइफ्रुट से भरी एक ट्रे लाकर मेरे सामने रख दी। थोड़ी देर बातचीत हुई, हैप्पी दिवाली, बधाई, शुभकामनाएं आदि की औपचारिकता के बाद वो चाय लेने अंदर चला गया तभी मैंने मुठ्ठा भरकर पिस्ते खाने के लिए उठाया ही था कि मेरी नजर सामने लगे CCTV कैमरे पर गई और फिर मैंने कैमरे को गाली देते हुए एक ही पिस्ता खाया।

जब चाय लेकर मित्र आया तो उससे पूछा कि ये कैमरे कितने में लगाए हो तो उसने हंसते हुए बताया कि ये तो डमी कैमरा है, हर साल दिपावली पर इस ड्राइंग रूम में लगा देता हूँ… आप तो जानते ही हैं कि दुनिया में तरह तरह के लोग होते हैं।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – शाही विनम्रता ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 450 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं बारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपने लघु कथा को लेकर कई  प्रयोग किये हैं।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है, जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय लघुकथा “शाही विनम्रता“.)

☆ लघुकथा – शाही विनम्रता ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल

‘हाय! मैं दिल्ली के तख्ते ताऊस का मालिक, शहंशाहों का शहंशाह, आज बेताज का बादशाह होकर ताजमहल के अंधेरे प्रकोष्ठ में कैद कर दिया गया हूं।’

शाहजहां ने ताजमहल के अंदर कैद होने पर उपरोक्त कथन बड़ी असहाय अवस्था में कहा था – ‘नहीं अब्बा हुजूर– यह कैद थोड़े ही है। मैंने तो आपके जज्बातों की कद्र की है। क्या यह सच नहीं है कि आपके दिल में अम्मा हुजूर के लिए  बेइंतेहा प्यार था — और यह कि आप अपने आपको जरा भी दूर नहीं रख सकते इस खूबसूरत संगमरमरी इमारत से’।

‘यहां बेगम हुजूर अपनी तमाम यादगारों के कीमती दस्तावेज लेकर खामोश लेटी हैं — आपकी  बेपनाह मोहब्बत प्यार की निशानी इस ताजमहल के प्रकोष्ठ में आपको खुश होना चाहिए शहंशाह आलम।’

शाहजहां के पुत्र ने पिता से विनम्रतापूर्वक  वार्तालाप किया और बाहर पहरेदार को कैदी के पैरों में भारी बेड़ियां डालकर सख्त पहरे की हिदायत देकर स्वयं इमारत से बाहर चला गया।

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© डॉ कुँवर प्रेमिल

संपादक प्रतिनिधि लघुकथाएं

संपर्क – एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मध्यप्रदेश मोबाइल 9301822782

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – डर ☆ श्री सदानंद आंबेकर ☆

श्री सदानंद आंबेकर

(श्री सदानंद आंबेकर जी की हिन्दी एवं मराठी साहित्य लेखन में विशेष अभिरुचि है। उनके ही शब्दों में – “1982 में भारतीय स्टेट बैंक में सेवारम्भ, 2011 से स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति लेकर अखिल विश्व गायत्री परिवार में स्वयंसेवक के रूप में 2022 तक सतत कार्य। माँ गंगा एवं हिमालय से असीम प्रेम के कारण 2011 से गंगा की गोद एवं हिमालय की छाया में शांतिकुंज आश्रम हरिद्वार में निवास। यहाँ आने का उद्देश्य आध्यात्मिक उपलब्धि, समाजसेवा या सिद्धि पाना नहीं वरन कुछ ‘ मन का और हट कर ‘ करना रहा। जनवरी 2022 में शांतिकुंज में अपना संकल्पित कार्यकाल पूर्ण कर गृह नगर भोपाल वापसी एवं वर्तमान में वहीं निवास।” आज प्रस्तुत है श्री सदानंद जी  की एक भावप्रवण लघुकथा “डर। इस अतिसुन्दर रचना के लिए श्री सदानंद जी की लेखनी को नमन।) 

☆ कथा कहानी ☆ लघुकथा – डर ☆ श्री सदानंद आंबेकर ☆

राज्य की राजधानी की पुलिस लाइन में ”रा” साहब के बंगले पर आज काफी चहल-पहल है। स्टाफ के काफी लोग आज बंगले में विभिन्न काम करते हुये दिखाई दे रहे थे।

पहले आप को इन ”रा” साहब से पहचान करा दें। यह ”रा” यानि राव का लघु रूप है। राव साहब यानि श्री वी के आर सी राव, प्रांत के डी आई जी, नक्सल अभियान। पूरा नाम जानना चाहेंगे- वेमुला कृष्णप्पा रामचंद्र राव!! सारा स्टाफ राव राव बोलता तो जल्दी जल्दी में वह रा साहब सुनाई देने लगा। युवा आई पी एस अधिकारी और इस खतरनाक नक्सली इलाके में विशेष सक्षम अधिकारी के रूप में राजधानी की पोस्टिंग। काम में बहुत तेज तर्रार एवं अनुशासन में कठोरतम। उनके बोलने में बास्टर्ड, फूल, रास्कल, ब्लडी आदि शब्दों का सर्वाधिक उपयोग होता था। बात-बात में नक्सली इलाके में फिंकवाने की धमकी का प्रयोग सामान्य बात थी। अब तक कई सफल मुठभेडों का नेतृत्व भी कर चुके थे। कुल मिलाकर रौबीले और दबंग व्यक्तित्व के स्वामी थे ये ”रा” साहब। बहुत आवश्यक न हो तो सामान्यतः उनके सामने आने से सब कतराते थे।

आज उनके बंगले पर इस चहल-पहल का विशेष कारण  है। पिछली रात उनकी मां आंध्र प्रदेश के उनके पैतृक गांव से अपने बेटे के पास आई थी। अभी तक अविवाहित रहे पुत्र से शायद विवाह की बात करने आई थी। अतः खानसामा से लेकर आफिस स्टाफ तक सब बंगले पर मदद हेतु उपस्थित थे।

बंगले के बैठकखाने में राव साहब अपनी माताजी के साथ बैठे थे। दक्षिणी रंगरूप से हटकर गौरवर्ण, तेजस्वी चेहरे पर चष्मा, इस आयु में भी श्याम केशों में करीने से सजी वेणी, ऐसी माता के साथ तेलुगु में संवाद चल रहा था। अंतर यह था कि इस संवाद में मां सतत बोल रही थी एवं पुत्र बस अम्मा, अम्मा, अम्मा इसी से उत्तर दे रहा था। साहब के चेहरे पर सदा दिखने वाला रौद्र भाव न होकर आज एक सौम्यता दिख रही थी।

इससे निवृत्त होकर माताजी अचानक आसपास के कर्मचारियों की ओर देखकर दक्षिणी उच्चारण के साथ बोलीं – सब तोडा इदर आओ। कैसा है तुम लोग? इदर सब टीक लगता ना जी ? अम रामा की अम्मा, इदर पैली बार आया। ये रामा…. बहुत कड़क ना जी ? बहुत गुस्सा करता ??

फिर साहब के निज सचिव अग्रवाल जी को इशारे से पास बुलाया और बहुत प्रेम से उनके सिर हाथ फेरते हुये बोलीं – ये तुमको कुच डांटता तो अमको बोलने का, अम उसकू डांटेगा। ये रामा ना, दिल से बहुत अच्चा है। अमे मालूम, तुम उसका बहुत ध्यान रखता, क्यों रामा, टीक बोला ना ? राव साहब बस मुस्कुरा दिये।

अग्रवाल साहब का कंठ भर आया, उन्हें लगा ज्यों उनकी स्वर्गवासी मां उनके सिर पर हाथ फेर रही हैं, उन्होंने अचानक झुक कर उनके चरण छू लिये।

सारा स्टाफ मौन खड़ा था, उन्हें लगा जिन ”रा” साहब से सारा विभाग डरता है, वे भी किसी से डरते हैं, पर यह डर, प्रेम का डर था।

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©  सदानंद आंबेकर

म नं सी 149, सी सेक्टर, शाहपुरा भोपाल मप्र 462039

मो – 8755 756 163 E-mail : [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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