हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – विनिमय ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – लघुकथा – विनिमय ??

…जानते हैं, कैसा समय था उन दिनों! राजा-महाराजा किसी साम्राज्य से संधि करने या लाभ उठाने के लिए अपने कुल की कन्याओं का विवाह शत्रु राजा से कर दिया करते थे। सौहार्द के नाम पर आदान-प्रदान की आड़ में हमेशा सौदे हुए।

…अत्यंत निंदनीय। मैं तो सदा कहता आया हूँ कि हमारा अतीत वीभत्स था। इस प्रकार का विनिमय मनुष्यता के नाम पर धब्बा है, पूर्णत: अनैतिक है।

…पहले ने दूसरे की हाँ में हाँ मिलाई। यहाँ-वहाँ से होकर बात विषय पर आई।

…अच्छा, उस पुरस्कार का क्या हुआ?

…हो जाएगा। आप अपने राज्य में हमारा ध्यान रख लीजिएगा, हमारे राज्य में हम आपका ध्यान रख लेंगे।

…विषय पूरा हो चुका था। उपसंहार के लिए वर्तमान, अतीत की आलोचना में जुटा था। भविष्य गढ़ा जा रहा था।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 आपदां अपहर्तारं साधना श्रीरामनवमी अर्थात 30 मार्च को संपन्न हुई। अगली साधना की जानकारी शीघ्र सूचित की जावेगी ।💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 114 ☆ लघुकथा – जिएं तो जिएं कैसे ? ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  स्त्री विमर्श आधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘जिएं तो जिएं कैसे ?’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 114 ☆

☆ लघुकथा – जिएं तो जिएं कैसे ? ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

कॉलबेल बजी। मैंने दरवाजा खोला, सामने एक वृद्धा खड़ी थीं। मैंने उनसे घर के अंदर आने का आग्रह किया तो बोलीं – ‘पहले बताओ मेरी कहानी पढ़ोगी तुम? ‘

अरे, आप अंदर तो आइए, बहुत धूप है बाहर – मैंने हँसकर कहा।

 ‘मुझे बचपन से ही लिखना पढ़ना अच्छा लगता है। कुछ ना कुछ लिखती रहती हूँ पर परिवार में मेरे लिखे को कोई पढ़ता ही नहीं। पिता ने मेरी शादी बहुत जल्दी कर दी थी। सास की डाँट खा- खाकर जवान हुई। फिर पति ने रौब जमाना शुरू कर दिया। बुढ़ापा आया तो बेटा तैयार बैठा है हुकुम चलाने को। पति चल बसे तो मैंने बेटे के साथ जाने से मना कर दिया। सब सोचते होंगे बुढ़िया सठिया गई है कि बुढ़ापे में लड़के के पास नहीं रहती। पर क्या करती, जीवन कभी अपने मन से जी ही नहीं सकी।‘

वह धीरे – धीरे चलती हुई अपने आप ही बोलती जा रही थीं।

मैंने कहा – ‘आराम से बैठकर पानी पी लीजिए, फिर बात करेंगे।‘ गर्मी के कारण उनका गोरा चेहरा लाल पड़ गया था और साँस भी फूल रही थी। वह सोफे पर पालथी मारकर बैठ गईं और साड़ी के पल्लू से पसीना पोंछने लगीं। पानी पीकर गहरी साँस लेकर बोलीं – ‘अब तो सुनोगी मेरी बात?’

हाँ, बताइए।

‘एक कहानी लिखी है बेटी ’ उन्होंने बड़ी विनम्रता से कागज मेरे सामने रख दिया। मैं उनकी भरी आँखों और भर्राई आवाज को महसूस कर रही थी। अपने ढ़ंग से जिंदगी ना जी पाने की कसक उनके चेहरे पर साफ दिख रही थी।

‘ मैं पचहत्तर साल की हूँ, बूढ़ी हो गई हूँ पर क्या बूढ़े आदमी की कोई इच्छाएं नहीं होतीं? उसे बस मौत का इंतजार करना चाहिए? और किसी लायक नहीं रह जाता वह? घर में सब मेरा मजाक बनाते हैं, कहते हैं- चुपचाप राम – नाम जपो, कविता – कहानी छोड़ो।‘

 कंप्यूटरवाले की दुकान पर गई थी कि मुझे कंप्यूटर सिखा दो। वह बोला – ‘माताजी, अपनी उम्र देखो।‘ जब उम्र थी तो परिवारवालों ने कुछ करने नहीं दिया। अब करना चाहती हूँ तो उम्र को आड़े ले आते हैं !

आखिर जिएं तो जिएं कैसे ?

©डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – शब्दार्थ ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – लघुकथा – शब्दार्थ ??

मित्रता का मुखौटा लगाकर शत्रु, लेखक से मिलने आया। दोनों खूब घुले-मिले, चर्चाएँ हुईं। ईमानदारी से जीवन जीने के सूत्र कहे-सुने, हँसी-मज़ाक चला। लेखक ने उन सारे आयामों का मान रखा जो मित्रता की परिधि में आते हैं।

एक बार शत्रु रंगे हाथ पकड़ा गया। उसने दर्पोक्ति की कि मित्र के वेष में भी वही आया था। लेखक ने सहजता से कहा, ‘मैं जानता था।’

चौंकने की बारी शत्रु की थी। ‘शब्दों को जीने का ढोंग करते हो। पता था तो जान-बूझकर मेरे सच के प्रति अनजान क्यों रहे?’

‘सच्चा लेखक शब्द और उसके अर्थ को जीता है। तुम मित्रता के वेष में थे। मुझे वेष और मित्रता दोनों शब्दों के अर्थ की रक्षा करनी थी’, लेखक ने उत्तर दिया।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम को समर्पित आपदां अपहर्तारं साधना गुरुवार दि. 9 मार्च से श्रीरामनवमी अर्थात 30 मार्च तक चलेगी।

💥 इसमें श्रीरामरक्षास्तोत्रम् का पाठ होगा, साथ ही गोस्वामी तुलसीदास जी रचित श्रीराम स्तुति भी। आत्म-परिष्कार और ध्यानसाधना तो साथ चलेंगी ही।💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 155 – माता की चुनरी ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श  और भ्रूण हत्या जैसे विषय पर आधारित एक सुखांत एवं हृदयस्पर्शी लघुकथा “माता की चुनरी ”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 155 ☆

🌹 लघुकथा 🌹 🚩 माता की चुनरी 🚩❤️

सुशील अपनी धर्मपत्नी सुरेखा के साथ बहुत ही सुखी जीवन व्यतीत कर रहा था। सदा अच्छा बोलना सब के हित की बातें सोचना, उसके व्यक्तित्व की पहचान थी।

दोनों पति-पत्नी अपने घर परिवार की सारी जरूरतें भी पूरी करते थे। धार्मिक प्रवृत्ति के साथ-साथ सहयोग की भावना से भरपूर जीवन बहुत ही आनंदित था। परंतु कहीं ना कहीं कहते हैं ईश्वर को कुछ और ही मंजूर होता है। विवाह के कई वर्षों के उपरांत भी उन्हें संतान सुख प्राप्त नहीं हो सका था।. 

सुशील का प्रतिदिन का नियम था ऑफिस से छुट्टी होते ही गाड़ी पार्किंग के पास पहुंचने से पहले बैठी फल वाली एक सयानी बूढ़ी अम्मा से चाहे थोड़ा सा फल लेता, परंतु लेता जरूर था। बदले में उसे दुआएँ मिलती थी और वह उसे पैसे देकर चला जाता।

आज महागौरी का पूजन था। जल्दी-जल्दी घर पहुँचना चाह रहा था। अम्मा ने देखा कि आज वह बिना फल लिए जा रहा है उसने झट आवाज लगाई… “बेटा ओ बेटा आज बूढ़ी माँ से कुछ फल लिए बिना ही जा रहा है।” विचारों का ताना-बाना चल रहा था सुशील ने कहा…. “आज कन्या भोज है मुझे जल्दी जाना है कल ले लूंगा।”

अम्मा ने कहा… “फल तो लेता जा कन्या भोज में बांट देना।” पन्नी में दो तीन दर्जन केले वह देने लगी सुशील झुक कर लेने लगा और मजाक से बोला…. “इतने सालों से आप आशीर्वाद दे रही हो पर मुझे आज तक नहीं लगा।” कह कर वह हँसने लगा।

उसने देखा अम्मा की साड़ी का आँचल जगह-जगह से फटा हुआ है। और वह कह रही थी… “तेरी मनोकामना पूरी होते ही माता को चुनरी जरूर चढ़ा देना।”

जल्दी-जल्दी वह फल लेकर घर की ओर बढ़ चला। घर पहुँचने पर घर में कन्याएँ दिखाई दे रही थी और साथ में कुछ उनके रिश्तेदार भी दिखाई दे रहे थे।

माँ और पिताजी सामने बैठे बातें कर रहे थे और सभी को हँसते हुए मिठाई खिला रहे थे।” क्या बात है? आज इतनी खुशी हमेशा तो कन्या भोजन होता है परंतु आज इतनी सजावट और खुशहाली क्यों?” अंदर गया बधाइयों का तांता लग गया।

“बधाई हो तुम पापा बनने वाले हो!” सुशील के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा सुरेखा ने हाँ में सिर हिलाया। शाम ढलने वाली थी सुशील की भावना को समझ सुरेखा ने मन ही मन हाँ कह कर तैयारी में जुट गई।

 सुशील बाहर निकल कर गया। साड़ी की दुकान से साड़ी चुनरी और जरूरत का सामान ले वह फल वाली अम्मा के पास पहुँचा और कहा… “अभी घर पर आपको फलों की टोकरी सहित बुलाया है। चलो।” अम्मा ने कहा… “थोड़े से फल बच्चे हैं बेटा बेंच लूं।” सुशील ने कहा….. “नहीं इसी को टोकरी में डाल लो और अभी मेरे साथ गाड़ी में चलो।” उसने सोचा नेक दिल इंसान है और प्रतिदिन मेरे से सौदा लेता है। हमेशा आने को कहता है आज चली जाती हूं उनके घर।

दरवाजे पर पहुँचते ही उसकी टोकरी को रख सुशील उसे दरवाजे पर ले आया। सामने चौकी बिछी थी उसमें बिठाने लगा। वह आश्चर्यचकित थी परंतु हाथ पकड़कर उसने उसे बिठा दिया। फूलों का हार और सुंदर सी साड़ी चुनर लिए सुरेखा आई।

साड़ी भेंट कर वह हार पहना चुनर ओढा रही थी। अब तो अम्मा को सब समझ में आ गया। खुशी से वह नाचने लगी। सभी की आँखें खुशी से नम थी। सुशील की आँखों से बहते आँसू देख, अपने हथेलियों पर वह रखते हुए बोली… “मोती है इसे बचा कर रखना बिदाई पर देने पड़ेंगे।” आशय समझकर सुशील हंसने लगा। माता रानी के जयकारे लगने लगे।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 113 ☆ लघुकथा – बदलेगा बहुत कुछ ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  स्त्री विमर्श आधारित एक विचारणीय लघुकथा बदलेगा बहुत कुछ। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 113 ☆

☆ लघुकथा – बदलेगा बहुत कुछ ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

शिक्षिका ने हिंदी की कक्षा में आज अनामिका की कविता ‘बेजगह‘ पढानी शुरू की –

अपनी जगह से गिरकर कहीं के नहीं रहते, 

केश, औरतें और नाखून,

पहली कुछ पंक्तियों को पढ़ते ही लड़कियों के चेहरे के भाव बदलने लगे, लड़कों पर कोई असर नहीं दिखा। कविता की आगे की पंक्तियाँ शिक्षिका पढ़ती है –

लड़कियां हवा, धूप, मिट्टी होती हैं, 

उनका कोई घर नहीं होता।

शिक्षिका कवयित्री के विचार समझा रही थी और क्लास में बैठी लड़कियां बेचैनी से एक – दूसरे की ओर देखने लगीं, लड़के मुस्करा रहे थे। कविता आगे बढ़ी –

कौन सी जगह होती है ऐसी

जो छूट जाने पर औरत हो जाती है कटे हुए नाखूनों, 

कंघी में फँसकर बाहर आए केशों सी

एकदम बुहार दी जाने वाली।

एक लड़की ने प्रश्न पूछने के लिए हाथ ऊपर उठाया- मैडम! बुहारना मतलब? जैसे हम घर में झाडू लगाकर कचरे को बाहर फेंक देते हैं, यही अर्थ है ना?

हाँ – शिक्षिका ने शांत भाव से उत्तर दिया।

एकदम से कई लड़कियों के हाथ ऊपर उठे – किस जगह की बात कर रही हैं कवयित्री और औरत को कैसे बुहार दिया जाता है मैडम! वह तो इंसान है कूड़ा– कचरा थोड़े ही है?

शिक्षिका को याद आई अपने आसपास की ना जाने कितनी औरतें, जिन्हें अलग – अलग कारण जताकर, बुहारकर घर से बाहर कर दिया गया था। किसी के मन – मस्तिष्क को बड़े योजनाबद्ध तरीके से बुहारा गया था यह कहकर कि इस उम्र में हार्मोनल बदलाव के कारण पागल होती जा रही हो। वह जिंदा लाश सी घूमती है अपने घर में। तो कोई सशरीर अपने ही घर के बाहर बंद दरवाजे के पास खड़ी थी। उसे एक दिन पति ने बड़ी  सहजता से कह दिया – तुम हमारे लायक नहीं हो, कोई और है तुमसे बेहतर हमारी जिंदगी में। ना जाने कितने किस्से, कितने जख्म, कितनी बेचैनियाँ —–

 मैडम! बताइए ना – बच्चों की आवाज आई।

हाँ – हाँ, बताती हूँ। क्या कहे ? यही कि सच ही तो लिखा है कवयित्री ने। नहीं – नहीं, इतना सच भी ठीक नहीं, बच्चियां ही हैं ये। पर झूठ भी तो नहीं बोल सकती। क्या करें, कह दे कि इसका उत्तर वह भी नहीं ढूंढ सकी है अब तक। तभी सोचते – सोचते उसके चेहरे पर मुस्कान दौड़ गई। वह बोली एक दूसरी कवयित्री की कविता की कुछ पंक्तियाँ सुनाती हूँ – शीर्षक है – बदलेगा बहुत कुछ

प्रश्न पुरुष – स्त्री या समाज का नहीं, 

मानसिकता का है।

बात किसी की मानसिकता की हो, 

जरूरी है कि स्त्री

अपनी सोच, अपनी मानसिकता बदले

बदलेगा बहुत कुछ, बहुत कुछ।

घंटी बज गई थी।

©डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 154 – आशा की किरण ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श  और भ्रूण हत्या जैसे विषय पर आधारित एक सुखांत एवं हृदयस्पर्शी लघुकथा “आशा की किरण”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 154 ☆

🌹 लघुकथा 🌹 आशा की किरण ❤️

बड़े बड़े अक्षरों पर लिख था – – – ” भ्रूण का पता लगाना कानूनी अपराध है।”

मेडिकल साइंस की देन गर्भ में भ्रूण का पता लगा लेना।

आशा भी इस बीमारी का शिकार बनी। उसे लगा कि भ्रूण पता करके यदि शिशु बालक है तो गर्भ में रखेगी अन्यथा वह गर्भ गिरा झंझट से मुक्त हो जाएगी।

क्योंकि गरीबी परिस्थिति के चलते अपने घर में बहनों के साथ होते अन्याय को वह बचपन से देखते आ रही थी।

सुंदर सुशील पढ़ी-लिखी होने के कारण उसका विवाह बिना दहेज के एक सुंदर नौजवान पवन के साथ तय हुआ। विवाह के बाद पता चला कि वह माँ बनने वाली है।

किसी प्रकार पैसों का इंतजाम कर अपने पति पवन को मना वह भ्रूण जांच कराने चली गई। रिपोर्ट आई कि होने वाली संतान बालक है खुशी का ठिकाना ना रहा। दुर्गा माता की नवरात्र का समय था। वह अपनी प्रसन्नता जल्दी से जल्दी बताना चाहती थी परंतु यह सोच कर कि लोग क्या कहेंगे समय आने पर पता चलेगा।

आज प्रातः स्नान कर वह खुशी-खुशी अस्पताल पहुंच गई। मन में संतुष्टि थी कि होने वाला बच्चा बेटा ही होगा। वह भी नवरात्र के पहला दिन। निश्चित समय पर ऑपरेशन से  बच्चा बाहर आया। आशा को  होश नहीं था। होश आने पर उसने देखा… उसका पति एक हाथ में शिशु और दूसरे हाथ में मिठाई का डिब्बा ले, सभी को मिठाइयाँ बाँट रहा है वह प्रसन्नता से भर उठी। उसकी आशा जो पूरी हो गई।

पास आकर पवन ने कहा… “बधाई हो मेरी ग्रहलक्ष्मी हमारे घर आशा की किरण आ गई। अब हमारे दिन सुधर जाएंगे।”

“साधु संतो के मुख से सुना है कि अश्वमेध यज्ञ करने के बाद भी आदमी को संतान की प्राप्ति नहीं होती, परंतु जिसके घर स्वयं भगवान चाहते हैं वहाँ बिटिया का जन्म होता है। स्वयं माँ भगवती पधारती है।”

आशा अपने पति को इतना खुश देख कर थोड़ी हतप्रभ थी क्योंकि, इतनी बड़ी बात उन्होंने छुपा कर रखा था और उसे एक महापाप से बचा लिया।

 आँखों से बहते आंसुओं की धार से बेटे और बेटी का फर्क मिट चुका था। आशा अपने किरण को पाकर बहुत खुश हो गई और पति देव का बार-बार धन्यवाद करने लगी।

शुभ नव वर्ष और नवरात्र की कामना करते वह भाव विभोर होने लगी।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 179 ☆ “ऐसा भी होता है…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपकी एक  विचारणीय लघुकथा – ऐसा भी होता है...”।)

☆ लघुकथा # 180 ☆ “ऐसा भी होता है…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

नर्मदा जी के किनारे एक श्मशान में जल रहीं हैं कुछ चिताएं। राजू ने बताया कि उनमें से बीच वाली चिता में कपाल क्रिया जो सज्जन कर रहे हैं वे फारेस्ट डिपार्टमेंट के बड़े अधिकारी हैं, इसीलिए चिता चंदन की लकड़ियों से सजाई गयी है,और उसके बाजू में जो चिता सजाई जा रही है, वह गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करने वाले अति गरीब की है।

उनके लोगों का कहना है कि जितनी लकड़ियां तौलकर आटो से आनीं थीं, उसमें से बहुत सी लकड़ियां आटो वाला चुरा ले गया। किन्तु, ऐसे समय कुछ कहा नहीं जा सकता, न शिकायत की जा सकती है,  क्योंकि, आजकल लोग बात बात में दम दे देते हैं, अलसेट दे देते हैं और काम नहीं होने देते।

गरीब मर गया तो आखिरी समय भी उसके साथ गेम हो गया। गरीब के रिश्तेदारों ने बताया कि जलाने के लिए ये जो लकड़ियां ख़रीदीं गईं थीं, उसके लिए पैसे उधार लिए गए थे। इसके बाद भी गरीब का दाहसंस्कार करने के लिए तत्पर बेटे को इस बात से खुशी है कि पिताजी ने जरूर कोई पुण्य कार्य किए होंगे, तभी इतने अमीर की चिता के बाजू में स्थान मिला, और बाजू की चिता से जलती हुई चंदन की लकड़ी का धुंआ उनकी चिता को पवित्र करेगा और वैसा ही हुआ। चिता को अग्नि दी गई और हवा की दिशा बदल गई। चंदन की लकड़ी से उठता हुआ धुआं गरीब की चिता में समा गया। श्रद्धांजलि सभा में कहा गया उसने जीवन भर गरीबी से संघर्ष किया पर वो पुण्यात्मा था, तभी तो ऐसा चमत्कार हुआ।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – थानेदार सूरज सिंह ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 350 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं ग्यारह  पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं।  आपने लघु कथा को लेकर कई  प्रयोग किये हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा ‘‘थानेदार सूरज सिंह)

☆ लघुकथा – थानेदार सूरज सिंह ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल

एक लड़का टेढ़ी-मेढ़ी गलियों से निकलकर दौड़ता हांफता शहर के चौराहे के मध्य में आकर रुक गया। थोड़ी देर सुस्ता कर उसने बड़ी श्रद्धा से उगते सूरज को नमस्कार करने की मुद्रा में हाथ जोड़े ही थे कि जालिम थानेदार सूरज सिंह परिहार ठीक उसके सामने आ खड़ा हुआ।

‘क्यों बे, सूरज सिंह परिहार के रहते हुए इस बीते भर के सूरज की क्या विसात है जो उसे सिर नवाता है-ऐं।’

दैत्याकार सूरज सिंह को देखकर लड़का सकपका गया। उसकी बोलती बंद हो गई। जालिम सूरज सिंह की क्रूरता के कई किस्से कई कई बार सुने थे उसने।

लड़का घबराकर बोला-‘सूरज तो आपके पीछे है सर, आपके रहते मुझे उस सूरज से क्या डर, हाथ तो मैंने आपके ही जोड़े थे श्रीमान, भला आपके सामने उस सूरज की क्या विसात है जो—‘

ह: ह:ह: थानेदार सूरज सिंह हंसा – ‘हाथ जोड़ने से पहले अपने आसपास इस सूरज सिंह को जरूर देख लिया कर, समझा—अब फूट यहां से—नेताजी की सवारी निकलने वाली है यहां से—‘

लड़का फिर उसी तरह दौड़ता हांफता शहर की उन टेढ़ी मेढी गलियों में गुम हो गया। थानेदार की हंसी बहुत देर तक उसका पीछा करती रही।

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© डॉ कुँवर प्रेमिल

संपादक प्रतिनिधि लघुकथाएं

संपर्क – एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मध्यप्रदेश मोबाइल 9301822782

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 153 – रंगों की कशमकश ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है समसामयिक विषय,स्त्री विमर्श  एवं रंगपंचमी पर आधारित एक सुखांत एवं हृदयस्पर्शी लघुकथा रंगों की कशमकश”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 152 ☆

🌹 लघुकथा 🌹 रंगों की कशमकश ❤️

 मिनी का घर – भरा पूरा परिवार चाचा – चाची, बुआ – फूफा, दादा-दादी और ढेर सारे बच्चे। आज मिनी फिर होली –  रंग पंचमी पर मिले-जुले सभी रंगों से मैच करते परिवार के साथ होली का टाईटिल बना रही थी।

होली खेलने के बाद पूरा परिवार मिनी के यहाँ एकत्रित होता और सभी को उनके स्वभाव और व्यवहार को देखते हुए उन्हीं के अनुसार रंगो का टाईटिल दिया जाता था।

मिनी को याद है उनकी एक बड़ी मम्मी जो बरसों पहले शायद मिनी पैदा भी नहीं हुई थी, अचानक बड़े पापा के देहांत के बाद, घर वाले सभी उसे मनहूस कहकर आश्रम में छोड़ आए थे। यदा-कदा उसे जरूरत का सामान दे देते। दादा – दादी भी लगभग भूलते जा रहे थे।

मिनी यह बातें अक्सर घर में सुना करती थी। उसके मन में अनेकों विचार आते, परंतु वह कुछ कर नहीं पाती थी। थोड़ी बड़ी होने लगी और अक्सर अपने स्कूल कॉलेज से समय निकाल कर आश्रम जाने लगी। कभी-कभी वह अपनी बड़ी मम्मी की आँखों में बेबसी और निरपराध भाव को पढ व्याकुल हो जाती।

उसके मन में विचार आने लगे कि क्यों न… बड़ी मम्मी को घर लाया जाए।

आज रंग पंचमी थी। घर के सभी बच्चे टाईटिल बना रहे थे। मिनी की बातों से सभी सहमत थे। निश्चित समय पर रंगों का खेल शुरू हुआ सभी रंगों की प्रशंसा होती रही और टाईटिल मिलते गए। सभी खुश थे अचानक मिनी ने कहा… “सारे रंग तो बहुत अच्छे लग रहे हैं, पर फीके से लग रहे। चमक तो हैं पर  सफेद रंग के बिना सब कुछ अधूरा सा लग रहा है और समझ नहीं आ रहा है, यह सफेद रंग का टाईटिल  किसे दिया जाए।”

सभी एक-दूसरे का मुँह ताँकने लगे तभी दादी बोल उठी… “यह सफेद रंग तो हमारी बड़ी बहू बरसों से निभा रही है। इसकी हकदार तो वही है।” यही तो सब सुनना चाह रहे थे।

दरवाजे पर अचानक ढोल बजने लगा। बच्चों के बीच खड़ी सफेद साड़ी में बड़ी बहू आज रंग बिरंगे रंगों से सरोबार होती हुई घर में प्रवेश कर रही थी।

यही तो सब चाहते थे । खुशी से सभी की आँखें नम हो चली। रंगों की इस कशमकश से सारी दूरियाँ मिट चुकी थी। सभी रंग बिरंगी गुलाल उड़ाते नजर आ रहे थे। मिनी अपनी बड़ी मम्मी की बाहों में लिपटी दोनों हाथों से रंग उछाल रही थी।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – अनुगूँज ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

श्री हरभगवान चावला

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा  लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है आपकी – लघुकथा – पगडंडी)

☆ कथा कहानी ☆  लघुकथा – अनुगूँज ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

शहर के राजकीय वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय में बतौर अंग्रेज़ी प्राध्यापिका श्रीमती साक्षी ने जैसे ही कार्यभार ग्रहण किया, स्टाफ़ सदस्यों के बीच रहस्यमय खुसर-पुसर शुरू हो गई। साक्षी ने कार्यभार संभालते ही विभाग के मुखिया से अपना टाइम टेबल मांँगा और घण्टे भर बाद वह कक्षा में थी।

“कमाल है, यह तो क्लास में गई!” एक प्राध्यापक ने कहा।

“आज ही आई है न, इंप्रेस करना चाहती है। दो-चार दिन में दिखाएगी अपना रंग। वो क्या कहते हैं, रंग लाती है हिना…” स्टाफ़ रूम में एक सामूहिक अट्टहास गूंँजा।

समय बीतता गया, साक्षी ने वैसा कोई रंग नहीं दिखाया, जैसी अपेक्षा की गई थी। उसके चेहरे पर उपायुक्त (कलेक्टर) की पत्नी होने का कोई दर्प नहीं दिखा, न व्यवहार में कोई ठसक। वह अपनी स्कूटी पर आती, नियमित रूप से कक्षाएंँ लेती, स्टाफ़ के सभी सदस्यों से सहज ढंग से बात करती और खूब खुलकर हंँसती। महीने भर में ही वह स्टाफ़ और विद्यार्थियों की सबसे आत्मीय पारिवारिक सदस्य हो गई। लगता था, जैसे बरसों से यहीं हो।

एक दिन वह छुट्टी के आवेदन के साथ प्राचार्य के सामने मौजूद थी। वहीं तीन-चार स्टाफ़ सदस्य भी बैठे हुए थे। प्राचार्य ने आवेदन पढ़कर कहा, “आपके मामा की बेटी की शादी है, उन्हें हम सब की ओर से शुभकामनाएंँ दीजिएगा।”

“जी ज़रूर, शुक्रिया।”

“मुझे एक बात समझ में नहीं आई मैम, सिर्फ़ आधे दिन की छुट्टी ले रही हैं आप? बहन की शादी है, खूब एन्जॉय कीजिए। कितने भी दिन लगें, छुट्टी के बारे में सोचने की ज़रूरत नहीं मैम!”

“वो कैसे सर?”

“आप मालिक हैं, जब जी चाहे आएंँ, जी न चाहे तो न आएंँ।”

“मालिक न मैं हूंँ, न आप सर। स्कूल के मालिक तो बच्चे हैं। हम सब उनके नौकर हैं, बेहद प्रतिष्ठित नौकर। और आधे दिन की छुट्टी इसलिए एप्लाई की है कि बच्चों की परीक्षा सिर पर है। उन्हें मेरी ज़रूरत है सर!”

प्राचार्य सकपका गए तो पास बैठे एक शिक्षक ने जैसे सफ़ाई सी देते हुए कहा, “सर का मतलब यह था मैम कि उपायुक्त तो ज़िले के मालिक ही होते हैं।”

“उपायुक्त भी नौकर ही होता है सर, मालिक तो जनता होती है।”

“आपके विचार बहुत अलग हैं मैम, पर पिछले उपायुक्त की पत्नी भी क़रीब साल भर तक इसी स्कूल में टीचर थीं। वे एक दिन भी स्कूल में नहीं आईं। स्कूल का क्लर्क दस-पन्द्रह दिन में एक बार उनकी कोठी में जाकर हाज़िरी लगवा आता था। इसीलिए सर कह रहे थे…”

“यह तो बहुत ग़लत है सर! हमें वेतन टीचर होने के नाते मिलता है या उपायुक्त की बीवी की हैसियत से? आपने उन्हें कभी सख़्ती से टोका क्यों नहीं सर?

“मैं क्या टोकता मैम। हैड ऑफिस से आने वाली टीम भी इग्नोर करती थी। दोएक बार मैंने उनसे कहा भी, पर उल्टे उन्होंने मुझे ही चुप रहने की हिदायत दे दी। ऐसे में…”

साक्षी कुछ समय तक चुप बनी रही, फिर कहा, “टीचर को समदर्शी और निष्पक्ष होना ही चाहिए सर। समाज में हमारी प्रतिष्ठा इन्हीं कारणों से होती है। किसी एक व्यक्ति को विशेषाधिकार देने के बाद किसी को कुछ कह पाने का नैतिक आधार हम खो देते हैं। ऐसे में बच्चों को ईमानदारी का पाठ हम कैसे पढ़ा सकते हैं? माफ़ कीजियेगा सर, मैं अगर आप की जगह होती तो उसे स्कूल आने के लिए बाध्य करती, फिर नतीजा चाहे जो होता।”

साक्षी चली गई थी। कई लोगों की मौजूदगी के बावजूद प्राचार्य कक्ष में सन्नाटा था। एक ख़ामोश अनुगूंँज कक्ष में लगातार बनी हुई थी- ‘फिर नतीजा चाहे जो होता…’

©  हरभगवान चावला

सम्पर्क – 406, सेक्टर-20, हुडा,  सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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