हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 153 – रंगों की कशमकश ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है समसामयिक विषय,स्त्री विमर्श  एवं रंगपंचमी पर आधारित एक सुखांत एवं हृदयस्पर्शी लघुकथा रंगों की कशमकश”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 152 ☆

🌹 लघुकथा 🌹 रंगों की कशमकश ❤️

 मिनी का घर – भरा पूरा परिवार चाचा – चाची, बुआ – फूफा, दादा-दादी और ढेर सारे बच्चे। आज मिनी फिर होली –  रंग पंचमी पर मिले-जुले सभी रंगों से मैच करते परिवार के साथ होली का टाईटिल बना रही थी।

होली खेलने के बाद पूरा परिवार मिनी के यहाँ एकत्रित होता और सभी को उनके स्वभाव और व्यवहार को देखते हुए उन्हीं के अनुसार रंगो का टाईटिल दिया जाता था।

मिनी को याद है उनकी एक बड़ी मम्मी जो बरसों पहले शायद मिनी पैदा भी नहीं हुई थी, अचानक बड़े पापा के देहांत के बाद, घर वाले सभी उसे मनहूस कहकर आश्रम में छोड़ आए थे। यदा-कदा उसे जरूरत का सामान दे देते। दादा – दादी भी लगभग भूलते जा रहे थे।

मिनी यह बातें अक्सर घर में सुना करती थी। उसके मन में अनेकों विचार आते, परंतु वह कुछ कर नहीं पाती थी। थोड़ी बड़ी होने लगी और अक्सर अपने स्कूल कॉलेज से समय निकाल कर आश्रम जाने लगी। कभी-कभी वह अपनी बड़ी मम्मी की आँखों में बेबसी और निरपराध भाव को पढ व्याकुल हो जाती।

उसके मन में विचार आने लगे कि क्यों न… बड़ी मम्मी को घर लाया जाए।

आज रंग पंचमी थी। घर के सभी बच्चे टाईटिल बना रहे थे। मिनी की बातों से सभी सहमत थे। निश्चित समय पर रंगों का खेल शुरू हुआ सभी रंगों की प्रशंसा होती रही और टाईटिल मिलते गए। सभी खुश थे अचानक मिनी ने कहा… “सारे रंग तो बहुत अच्छे लग रहे हैं, पर फीके से लग रहे। चमक तो हैं पर  सफेद रंग के बिना सब कुछ अधूरा सा लग रहा है और समझ नहीं आ रहा है, यह सफेद रंग का टाईटिल  किसे दिया जाए।”

सभी एक-दूसरे का मुँह ताँकने लगे तभी दादी बोल उठी… “यह सफेद रंग तो हमारी बड़ी बहू बरसों से निभा रही है। इसकी हकदार तो वही है।” यही तो सब सुनना चाह रहे थे।

दरवाजे पर अचानक ढोल बजने लगा। बच्चों के बीच खड़ी सफेद साड़ी में बड़ी बहू आज रंग बिरंगे रंगों से सरोबार होती हुई घर में प्रवेश कर रही थी।

यही तो सब चाहते थे । खुशी से सभी की आँखें नम हो चली। रंगों की इस कशमकश से सारी दूरियाँ मिट चुकी थी। सभी रंग बिरंगी गुलाल उड़ाते नजर आ रहे थे। मिनी अपनी बड़ी मम्मी की बाहों में लिपटी दोनों हाथों से रंग उछाल रही थी।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – अनुगूँज ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

श्री हरभगवान चावला

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा  लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है आपकी – लघुकथा – पगडंडी)

☆ कथा कहानी ☆  लघुकथा – अनुगूँज ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

शहर के राजकीय वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय में बतौर अंग्रेज़ी प्राध्यापिका श्रीमती साक्षी ने जैसे ही कार्यभार ग्रहण किया, स्टाफ़ सदस्यों के बीच रहस्यमय खुसर-पुसर शुरू हो गई। साक्षी ने कार्यभार संभालते ही विभाग के मुखिया से अपना टाइम टेबल मांँगा और घण्टे भर बाद वह कक्षा में थी।

“कमाल है, यह तो क्लास में गई!” एक प्राध्यापक ने कहा।

“आज ही आई है न, इंप्रेस करना चाहती है। दो-चार दिन में दिखाएगी अपना रंग। वो क्या कहते हैं, रंग लाती है हिना…” स्टाफ़ रूम में एक सामूहिक अट्टहास गूंँजा।

समय बीतता गया, साक्षी ने वैसा कोई रंग नहीं दिखाया, जैसी अपेक्षा की गई थी। उसके चेहरे पर उपायुक्त (कलेक्टर) की पत्नी होने का कोई दर्प नहीं दिखा, न व्यवहार में कोई ठसक। वह अपनी स्कूटी पर आती, नियमित रूप से कक्षाएंँ लेती, स्टाफ़ के सभी सदस्यों से सहज ढंग से बात करती और खूब खुलकर हंँसती। महीने भर में ही वह स्टाफ़ और विद्यार्थियों की सबसे आत्मीय पारिवारिक सदस्य हो गई। लगता था, जैसे बरसों से यहीं हो।

एक दिन वह छुट्टी के आवेदन के साथ प्राचार्य के सामने मौजूद थी। वहीं तीन-चार स्टाफ़ सदस्य भी बैठे हुए थे। प्राचार्य ने आवेदन पढ़कर कहा, “आपके मामा की बेटी की शादी है, उन्हें हम सब की ओर से शुभकामनाएंँ दीजिएगा।”

“जी ज़रूर, शुक्रिया।”

“मुझे एक बात समझ में नहीं आई मैम, सिर्फ़ आधे दिन की छुट्टी ले रही हैं आप? बहन की शादी है, खूब एन्जॉय कीजिए। कितने भी दिन लगें, छुट्टी के बारे में सोचने की ज़रूरत नहीं मैम!”

“वो कैसे सर?”

“आप मालिक हैं, जब जी चाहे आएंँ, जी न चाहे तो न आएंँ।”

“मालिक न मैं हूंँ, न आप सर। स्कूल के मालिक तो बच्चे हैं। हम सब उनके नौकर हैं, बेहद प्रतिष्ठित नौकर। और आधे दिन की छुट्टी इसलिए एप्लाई की है कि बच्चों की परीक्षा सिर पर है। उन्हें मेरी ज़रूरत है सर!”

प्राचार्य सकपका गए तो पास बैठे एक शिक्षक ने जैसे सफ़ाई सी देते हुए कहा, “सर का मतलब यह था मैम कि उपायुक्त तो ज़िले के मालिक ही होते हैं।”

“उपायुक्त भी नौकर ही होता है सर, मालिक तो जनता होती है।”

“आपके विचार बहुत अलग हैं मैम, पर पिछले उपायुक्त की पत्नी भी क़रीब साल भर तक इसी स्कूल में टीचर थीं। वे एक दिन भी स्कूल में नहीं आईं। स्कूल का क्लर्क दस-पन्द्रह दिन में एक बार उनकी कोठी में जाकर हाज़िरी लगवा आता था। इसीलिए सर कह रहे थे…”

“यह तो बहुत ग़लत है सर! हमें वेतन टीचर होने के नाते मिलता है या उपायुक्त की बीवी की हैसियत से? आपने उन्हें कभी सख़्ती से टोका क्यों नहीं सर?

“मैं क्या टोकता मैम। हैड ऑफिस से आने वाली टीम भी इग्नोर करती थी। दोएक बार मैंने उनसे कहा भी, पर उल्टे उन्होंने मुझे ही चुप रहने की हिदायत दे दी। ऐसे में…”

साक्षी कुछ समय तक चुप बनी रही, फिर कहा, “टीचर को समदर्शी और निष्पक्ष होना ही चाहिए सर। समाज में हमारी प्रतिष्ठा इन्हीं कारणों से होती है। किसी एक व्यक्ति को विशेषाधिकार देने के बाद किसी को कुछ कह पाने का नैतिक आधार हम खो देते हैं। ऐसे में बच्चों को ईमानदारी का पाठ हम कैसे पढ़ा सकते हैं? माफ़ कीजियेगा सर, मैं अगर आप की जगह होती तो उसे स्कूल आने के लिए बाध्य करती, फिर नतीजा चाहे जो होता।”

साक्षी चली गई थी। कई लोगों की मौजूदगी के बावजूद प्राचार्य कक्ष में सन्नाटा था। एक ख़ामोश अनुगूंँज कक्ष में लगातार बनी हुई थी- ‘फिर नतीजा चाहे जो होता…’

©  हरभगवान चावला

सम्पर्क – 406, सेक्टर-20, हुडा,  सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ होली एवं अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस विशेष – लघुकथा – बहू उवाच ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 350 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं ग्यारह  पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं।  आपने लघु कथा को लेकर कई  प्रयोग किये हैं। आज प्रस्तुत है होली पर्व पर आपकी एक विचारणीय एवं हृदयस्पर्शी लघुकथा ‘‘बहू उवाच’’)

☆ होली एवं अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस विशेष ? लघुकथा – बहू उवाच ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल

मोहल्ले मोहल्ले होलिका दहन की तैयारियां जोर शोर से चल रही थी। स्पीकर पर होली के गीत प्रसारित हो रहे थे। चारों तरफ होलीमय वातावरण फैला पड़ा था।

एक घर की नववधू अपनी सास से बोली-आज इस मोहल्ले में एक साथ दो होली जलेंगी सासू मां, आप कौन सी होली पसंद करेंगी, घरवाली या बाहर वाली।

‘घरवाली होली भी होती है क्या? मैंने आज तक कहीं सुनी भी नहीं है बहू’। सास आश्चर्यचकित होकर गोली।

‘आज उसे भी देख लेना सासूजी, बड़ी लोमहर्षक होली होती है यह।’

‘इसी जलाता कौन है? और यह जलती कहां है बहू।’

‘ऐसी होली घर के किचन या बाथरूम के अंदर संपन्न होती है मां जी, इसे स्वयं बहू यह उसके सास ससुर, जेठ जेठानी, देवर देवरानी और नंनदें आदि जलाती है।’

‘तो क्या ऐसी होली हमारे घर में जलने वाली है’-सास ने बहू से पूछा।

‘हां माताजी यह होली हमारे घर में जलने वाली है इसके लिए मैंने सारा सामान जुटा लिया है। बस मैं थोड़ा सा श्रृंगार कर अभी हाजिर होती हूं, अपने हाथ से यह कार्यक्रम संपन्न कर लीजिए, मुझे बड़ी खुशी होगी।’

सास बुरी तरह चौकी फिर अपनी बहू के सिर पर हाथ फेर कर बोली – मुझे नहीं चाहिए तेरे पिता से ₹300000 तू मेरे घर की लक्ष्मी है, यह पाप मैं नहीं होने दूंगी, आज तूने मेरी आंखें खोल दी है। आज से तू मेरी बहू ही नहीं, मेरी बेटी भी है, ऐसी मनहूस बातें आज के बाद अपने मुंह से फिर कभी मत निकालना।

सास ने अपनी बहू को अपनी छाती से लगा लिया फिर सास बहू एक दूसरे से लिपट कर सिसक सिसक कर देर तक रोती रहीं।

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© डॉ कुँवर प्रेमिल

संपादक प्रतिनिधि लघुकथाएं

संपर्क – एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मध्यप्रदेश मोबाइल 9301822782

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ होली पर्व विशेष – लघुकथा – राजा कटारे ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 350 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं ग्यारह  पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं।  आपने लघु कथा को लेकर कई  प्रयोग किये हैं। आज प्रस्तुत है होली पर्व पर आपकी एक विचारणीय लघुकथा ‘‘राजा कटारे ’’)

☆ होली पर्व विशेष ? लघुकथा – राजा कटारे ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल

‘क्यों राजा कटारे, कैसे खड़े हो’

राजा कटारे चौंका, उसने देखा कि होली की मूर्ति सजीव होकर उसकी ओर धीमे धीमे मुस्कुरा रही है। राजा कटारे होलिका से नजरें नहीं मिला सका, उसने नजरें झुका ली।

तभी उसे होलिका का अट्टहास सुनाई दिया ह:ह:ह:ह:–‘अरे निर्लज्ज मेरे सामने लजा रहा है, क्यों?’

‘जब अपनी औरत को आग लगाई थी, तब भी तू ऐसे ही मुस्कुरा रहा था-है न।’

‘अरे नामर्दों, क्यों ऐसे ही घटिया काम करके, खुद अपनी ही निगाहों में गिर जाते हो तुम जैसे घटिया लोग।’

‘मेरे ही समान न जाने कितनी होलिकाएं तुम्हारे घरों में जल जल कर राख हो रही है और तुम्हें पछतावा तक नहीं होता, क्यों?’

‘थू थू तुम अभी भी न जाने कब का बदला चुका रहे हो–मेरी और निहारो–मुझे मेरे भाई ने ही जलाया था—और उसके बाद तो औरतें जलाने का सिलसिला ही चालू हो गया, अभी भी वक्त है, संभल जाओ, और ध्यान रहे, नारी अब शक्तिपुंज होकर उभर रही है। अब यदि ऐसे में नारी भी बदला लेने पर उतारू हो जाए तो पूरे संसार में हाहाकार मच जाएगा।

राजा कटारे को— हाथ जोड़ती, अपने प्राणों की भीख मांगती, उसकी पत्नी दृष्टिगोचर हो रही थी। उसकी हालत पतली हो रही थी—और वह पश्चाताप की भीषण अग्नि में जला जा रहा था।

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© डॉ कुँवर प्रेमिल

संपादक प्रतिनिधि लघुकथाएं

संपर्क – एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मध्यप्रदेश मोबाइल 9301822782

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 152 – होलिका दहन ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है समसामयिक विषय,स्त्री विमर्श  एवं होली पर्व पर आधारित एक सुखांत एवं भावप्रवण लघुकथा होलिका दहन”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 152 ☆

🌹 लघुकथा 🌹 होली पर्व विशेष – ❤️ होलिका दहन ?

मेघा पढ़ाई पूरी करके एक अच्छी कंपनी में जॉब करती थी। सोशल मीडिया और मोबाइल आज की जिंदगी में सभी पर हावी है। ऐसे ही शिकार हुई अपने ऑफिस के सुधीर के साथ और लिव-इन-रिलेशनशिप  में रहने लगे।

समय पंख लगा कर उड़ चला पता ही नहीं चला। किसी बात को लेकर दोनों में दूरी हो गई और मामला अलग अलग होने का हो गया।

मेघा मानसिक परेशान हो अपने घर वापस आ गई। वर्क फ्रॉम होम करते हुए घर परिवार में स्थिर हो खुश रहना चाहती थी। परंतु सुधीर के साथ बिताए हुए पल और उसके साथ की सभी मोबाइल पर तस्वीरें उसे परेशान कर रही थी।

घरवालों मेघा को कुछ समझ पाते, इसके पहले ही विवाह का निर्णय लेने लगे। घर पर खुशियाँ छा गई।

मेघा की शादी होना है। एक अच्छे परिवार से लड़का शिवा से उसका विवाह निश्चित हुआ। मेघा को डर था कि वह कि वह आज का लड़का है।  उसकी सारी बातें वह सब जान जायेगा।और सुधीर की बातें शिवा के सामने आ जायेगी।

शादी को कुछ वक्त था। मेघा का होने वाला पति शिवा होलिका दहन के दिन अचानक आ गया। सभी उसकी खातिरदारी में लग गए। मेघा के चेहरे का रंग उड़ा जा रहा था।

वह बड़े प्यार से मेघा के कमरे में आया। “मेघा… चलो आज हम होलिका दहन, शादी के पहले देख आएं।”

“शादी के बाद तो ससुराल की पहली होली होती है। पर मैं चाहता हूं शादी के पहले होलिका दहन में तुम्हें लेकर जाऊं।”

तैयार हो घरवालों का आदेश ले शिवा के साथचल पड़ी। पास ही मैदान में होलिका को सजाया गया था। शिवा धीरे से मेघा का हाथ अपने हाथ में लेकर बोला…” मुझे सुधीर ने सब कुछ बता दिया है। वह बहुत अच्छा लड़का है।”

” मुझे तुम्हारे पुराने रिश्ते से कोई परेशानी नहीं है, परंतु मैं चाहता हूं तुम सब कुछ भूल कर इस होलिका दहन में खत्म करके नए सिरे से मेरे साथ विश्वास और पूरी जिंदगी खुशी के साथ रहना चाहोगी। वचन दो  यदि तुम्हें मंजूर है तो…” मेघा इतना सुनते ही पास रखी थाली से गुलाल ले आसमान में खुशी से उछाल कर होली के गीत पर नाचने लगी।

दोनों हाथों से लाल रंग लिए शिवा उसके मुखड़े पर लगा रहा था।

होलिका की परिक्रमा लगाते मेघा के नैन अश्रुं से भीगते चले जा रहे थे।

लाल गुलाबी चुनर से मेघा का सिर ढाकते शिवा होलिका दहन पर विजयी अनुभव कर रहा था।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – “बेरंग होली” ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

  ☆लघुकथा – “बेरंग होली” ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

होली का दिन । दम साधे बैठे रहे दिन भर कि कोई रंग लगाने आएगा । आमतौर पर पड़ोसी इकट्ठे होकर आ जाते और गेट पर ही गुलाल मल देते , माथे पर तिलक लगाकर छोड़ देने की गुहार बेकार जाती । फिर हमें भी अपने साथ लेकर दूसरे पड़ोसी के द्वार पर दस्तक देते । सब होली लगाने आने वालों को कुछ न कुछ मीठा खिलाते । नये नये आए थे तब पता नहीं था इधर के रीति रिवाज का । फिर पता चला तो हम भी रंग के पैकेट्स लाने के साथ साथ मिठाई भी लाने लगे ताकि सबका मुंह मीठा करवा सकें । कल शाम हम मिठाई और रंग के पैकेट्स खरीद लाये थे और नजरों व हाथ के करीब ही रखे थे ताकि दूसरों को रंगने में चूक न जायें और मुंह भी मीठा करवा सकें । होली पर पहने जाने वाले कपड़े भी छांटकर रख लिए थे ।

होली का दिन धीरे धीरे सरकने लगा और सरकता ही गया । पहले सोचा कि नाश्ता वाश्ता करके लोग निकलेंगे । बच्चों की पिचकारियाँ तो शुरू होकर कब की खत्म भी हो गयीं लेकिन बड़े नहीं निकले तो दिन भर नहीं निकले ।

न कोई कोरोना , न किसी के घर कोई शोक और न दुख । फिर क्या हुआ इस बार ? होली बेरंग क्यों रह गयी ? हमारे आस पड़ोस की सड़क रंगों से सराबोर क्यों न हो पाई ?

-ओह । आप भूल गये क्या मेरी सरकार ।

-क्या ? क्या भूल गये हुजूर ?

-वो पड़ोस वालों को अपने घर के आगे कार पार्क करने से आपने रोका जो था ?

-अच्छा ? चलो । वो तो हमने रोका पर सबके सब एक दूसरे को तो रंग लगा सकते थे ।

-कैसे ? फिर भूल गये भुलक्कड़ साहब ।

-अरे यार । एक बार में बता दो न । क्या छोटे छोटे सीन बता कर उत्सुकता बढ़ाती जा रही हो ।

-याद नहीं ? जब पड़ोस के सरदार जी रिनोवेशन करवा रहे थे , तब उनका सारा सामान कहां पड़ा रहता था ?

-वो सामने वाले खट्टर के घर के सामने ।

-याददाशत तो सही है ।

-क्यों फिर यह कैसे भूल रहे हो कि इसी बात को लेकर दोनों में इतनी लड़ाई हुई कि बात पुलिस तक शिकायत तक पहुंची ।

-हां । यार । खूब याद दिलाई । मुझे भी पुलिस चौकी बुला रहे थे पर मैं पड़ोसियों के झमेले में गया ही नहीं । हाथ जोड़कर माफी मांग ली थी ।

-आप दोनों ओर से बुरे बन गये । फिर आपके रंग लगाने कौन आता ?

-ओह । यह बेरंग होली ,,,,

क्या आगे भी बेरंग होती जायेगी ?

मेरे लाये रंग और मिठाई मेरा ही मुंह चिढ़ा रहे थे ।

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – “नामकरण” ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

  ☆लघुकथा – “नामकरण” ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

कच्चे घर में जब दूसरी बार भी कन्या ने जन्म लिया तब चंदरभान घुटनों में सिर देकर दरवाजे की दहलीज पर बैठ गया । बच्ची की किलकारियां सुनकर पड़ोसी ने खिड़की में से झांक कर पूछा -ऐ चंदरभान का खबर ए ,,,?

-देवी प्रगट भई इस बार भी ।

-चलो हौंसला रखो ।

-हाँ , हौसला इ तो रखेंगे बीस बरस तक । कौन आज ही डिक्री की रकम मांगी गयी है । डिक्री ही तो आई है । कुर्की जब्ती के ऑर्डर तो नहीं ।

-नाम का रखोगे ?

-लो । गरीब की लड़की का भी नाम होवे है का ? जिसने जो पुकार लिया सोई नाम हो गया । होती किसी अमीर की लड़की तो संभाल संभाल कर रखते और पुकार लेते ब्लैक मनी ।

दोनों इस नाम पर काफी देर तक हो हो करते हंसते रहे । भूल गये कि जच्चा बच्चा की खबर सुध लेनी चाहिए ।

पड़ोसी ने खिड़की बंद करने से पहले जैसे मनुहार करते हुए कहा -ऐ चंदरभान, कुछ तो नाम रखोगे इ । बताओ का रखोगे?

-देख यार, इस देवी के भाग से हाथ में बरकत रही तो इसका नाम होगा लक्ष्मी । और अगर यह कच्चा घर भी टूटने फूटने लगा तो इसका नाम होगा कुलच्छनी ।

पड़ोसी ने ऐसे नामकरण की उम्मीद नहीं की थी । झट से खिड़की के दोनों पट आपस में टकराये और बंद हो गये ।

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 112 ☆ लघुकथा – अब अहिल्या को राम नहीं मिलते ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  स्त्री विमर्श आधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘अब अहिल्या को राम नहीं मिलते’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 112 ☆

☆ लघुकथा – अब अहिल्या को राम नहीं मिलते ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

पुलिस की रेड पड़ी  थी। इस बार वह पकड़ी  गई। थाने में महिला पुलिस फटकार लगा रही थी – ‘ शर्म नहीं आती तुम्हें शरीर बेचते हुए? औरत के नाम पर कलंक हो तुम। ‘ सिर नीचा किए सब सुन रही थी वह। सुन – सुनकर पत्थर- सी हो गई है। पहली बार नहीं पड़ी थी यह लताड़, ना जाने कितनी बार लोगों ने उसे उसकी औकात बताई है। वह जानती है कि दिन में उसकी औकात बतानेवाले रात में उसके दरवाजे पर खड़े होते हैं पर —।

महिला पुलिस की बातों का उसके पास कोई जवाब नहीं था। उसे अपनी बात कहने का हक  है ही कहाँ? यह अधिकार तो  समाज के तथाकथित सभ्य समाज को ही है। उसे तो गालियां ही सुनने को मिलती हैं। वह एक कोने में सिर नीचे किए चुपचाप बैठी रही। बचपन में  माँ  गौतम ऋषि की पत्नी अहिल्या की कहानी सुनाती थी। एक दिन जब ऋषि  कहीं बाहर गए हुए थे तब इंद्र गौतम ऋषि का रूप धरकर उनकी कुटिया में पहुँच गए। अहिल्या  इंद्र को अपना पति ही समझती रही। गौतम ऋषि के वापस आने पर  सच्चाई पता चली। उन्होंने गुस्से में अहिल्या को शिला हो जाने का शाप दे दिया। पर अहिल्या का क्या दोष था इसमें? वह आज फिर सोच रही थी, दंड तो इंद्र को मिलना चाहिए? 

उसने जिस पति को जीवन साथी माना था, उसी ने इस दलदल में ढ़केल दिया। जितना बाहर निकलने की कोशिश करती, उतना धँसती जाती। अब जीवन भर इस शाप को ढ़ोने को मजबूर है। सुना है अहिल्या को राम के चरणों के स्पर्श से मुक्ति मिल गई थी। हमें मुक्ति क्यों नहीं मिलती? उसने सिर उठाकर चारों तरफ देखा। इंद्र तो बहुत मिल जाते हैं जीती-जागती स्त्री को बुत बनाने को, पर कहीं कोई राम क्यों नहीं मिलता? 

©डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – पगडंडी ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

श्री हरभगवान चावला

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा  लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है आपकी – लघुकथा – पगडंडी)

☆ कथा कहानी ☆  लघुकथा – पगडंडी ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

एक लम्बी सड़क में से थोड़ी-थोड़ी दूरी में कई पगडंडियांँ निकलती थीं। एक दिन एक पगडंडी ने सड़क से कहा – तुम्हारे तो मज़े होंगे बहन! कहीं खेत, कहीं पहाड़, कहीं नदी, कहीं झील, कहीं बाग़। तुम तो रोज़ नए नजारे देखती हो। और फिर तुम्हारी देह पर कितनी सुन्दर-सुन्दर गाड़ियांँ दौड़ती हैं- काली, सफ़ेद, लाल, नीली, पीली और उन गाड़ियों में सुन्दर चेहरे, ख़ुशबू, संगीत हंँसी… मज़ा आ जाता होगा। नहीं? एक मैं हूंँ। कभी-कभी कोई आता है। आता भी कौन है – बैलगाड़ी, ऊंँटगाड़ी, कंधे पर हल लादे किसान – दलिद्दर जिनके चेहरों से टपकता है, सिर पर लकड़ियों या घास के गट्ठर लादे औरतें या दिशा-मैदान जाते ऊंँघते से आदमी… फ़क़त!

सड़क ने एक ठंडी सांँस ली – शुक्र कर कि तू सड़क नहीं है। हर रोज़ दुर्घटनाओं में लोगों को मरते देखती हूंँ, परिजनों की चीख़ों से दिल दहल जाता है। कभी अलग-अलग समुदायों के लोग मेरी छाती पर चढ़कर आपस में मारकाट करने लगते हैं। कभी मेरी देह पर धरना देते मजदूरों या छात्रों पर लाठियां गोलियांँ बरसने लगती हैं। मैं ख़ून से सन जाती हूंँ। अभी पिछला ख़ून सूखता नहीं कि एक और झरना फूट पड़ता है। हर समय अपनी देह को ख़ून से लिथड़े देखना कितना वीभत्स है, तुम क्या जानो। काश मैं पगडंडी होती!

©  हरभगवान चावला

सम्पर्क – 406, सेक्टर-20, हुडा,  सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि –एक दिन ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – एक दिन ??

“एक दिन मेरे पास चार-छह एकड़ में फैला बंगला होगा।….एक दिन मेरे पास दुनिया की सबसे महंगी कार होगी।…. एक दिन मेरे पास अपना चार्टर्ड प्लेन होगा….एक दिन मेरे पास ये होगा…एक दिन मेरे पास वो होगा…।”

दिन आते रहे, दिन जाते रहे। विचार को कर्म का आधार नहीं मिला। विचार बस विचार रहा, व्यवहार में नहीं उतरा। उस एक दिन की प्रतीक्षा में दिन-रात एक तरह की नींद में बीतते रहे। नींद का एक्सटेंशन होता रहा।

एकाएक एक दिन, सचमुच वो एक दिन आ गया। उस दिन वह मर गया।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 कृपया आत्मपरिष्कार एवं ध्यानसाधना जारी रखें। होली के बाद नयी साधना आरम्भ होगी 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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