हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा कहानी # 49 – Representing People – 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना  जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय  कथा श्रंखला  “Representing People …“ की अगली कड़ी ।)   

☆ कथा कहानी  # 49 – Representing People – 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

सिर्फ शीर्षक इंग्लिश में है पर श्रंखला हिन्दी में ही रहेगी.

1977 से 1980 और फिर 1989 से 2014 तक के वर्षों के बीच बनी केंद्र सरकारों का ध्यान, येन केन प्रकारेण विघटन से बचने के लिये समझौतों में ही निकल जाता रहा. भ्रष्टाचार और एक के बाद एक घोटाले, सरकारों की कमजोरी और नियत पर शक पैदा कर रहे थे. इस बीच ही आंतकवाद अपने चरम पर था और आतंकवादियों के होसले बुलंद. नागरिक भयभीत थे कि कब कोई घटना, उन पर संकट बन जाये. जनआकांक्षा स्थिर सरकार और मजबूत, निर्भीक और स्वतंत्र नेतृत्व चाहती थी. वर्तमान सत्तारूढ़ दल ने जनआकांक्षा को पहचाना और नये चेहरे के साथ चुनावी समर में कदम रखा. ये भी जनआकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व था, लोग जो चाहते थे और जिस बात की कमी महसूस कर रहे थे, वो विकल्प उनके सामने था. बाकी जो हुआ, वह कहने की ज़रूरत नहीं है. पर शायद हर शासक और नेतृत्व को ये समझने की जरूरत है कि वो अपने एजेंडे और कार्यप्रणाली से ऊपर वरीयता, इस बात पर दें कि लोग क्या चाहते हैं और क्या ये उनके लिये आवश्यक, न्यायोचित है. वरना हर वो नेतृत्व जो लोगों को भ्रमित करता है या फिर खुद भी भ्रम में रहता है, अक्सर अपना प्रतिनिधित्व का अधिकार खो बैठता है और निर्मम इतिहास उसे डस्टबिन के सुपुर्द ही करता है.

कॉलेजों और विश्वविद्यालयों का रिप्रसेंटेशन, सामान्यतः निकटगामी मुद्दों के लिये ही होता है, शिक्षण संस्थान खुलने या नहीं खुलने का, एडमीशन में पक्षपात का, डोनेशन और फीस का, कॉलेजों, हॉस्टल की आंतरिक व्यवस्था का, परीक्षा होने या नहीं होने का, रिजल्ट में अनावश्यक देरी, शिक्षण संस्थानों के नियंत्रकों द्वारा छात्रों के लिये अहितकर निर्णयों के लिये. अगर छात्र संघ के चुने हुये (और सुलझे हुये भी), प्रतिनिधि हैं तो अक्सर मामले बातचीत से हल हो जाते हैं जब तक कोई राजनैतिक दखलंदाजी न हो तो, वरना महानगरीय शिक्षण संस्थानों में ये प्रतिष्ठा का सवाल भी बन जाता है. जब प्रतिनिधित्व तो हो पर आंदोलन का निर्णय कोई और ही, अपने फायदे के लिये ले रहा हो. फिर तो छात्रसंघ के ये पदाधिकारी, छात्रों के प्रतिनिधि नहीं बल्कि किसी परिपक्व और शातिर राजनेता के मोहरे बन जाते हैं .शिक्षण संस्थानों में अगर चुने हुये प्रतिनिधि न हों तो कोई भी आंदोलन अपनी जायज़ मांगों से भटककर गलत दिशा पकड़ लेता है. मुझे सागर विश्वविद्यालय के शिक्षण सत्र 1972-73 का एक वाकया याद है जब चार हॉस्टल के छात्रों को निलंबित कर दिया गया था और निर्वाचित प्रतिनिधि न होने के कारण, प्रोटेस्ट को गलत दिशा देने वाला छात्र तो फरार हो गया पर भीड़ के रूप में फालोअर्स के लिए नुकसानदेह रहा.

कॉलेज और विश्वविद्यालयों से लेकर हर संस्थानों और राजनैतिक परिदृश्य में भी, जिम्मेदार, परिपक्व और समझदार नेतृत्व आवश्यक होता है वरना आंदोलन निष्कर्ष हीन और अहितकर ही होते हैं. आंदोलनों की सफलता यही है कि प्रतिनिधित्व और पदासीन एक टेबल पर आकर मामले को हल करने का प्रयास करें हमारे वेज़ सेटलमेंट, वार्तालाप से ही हल हुये हैं और जहाँ न्यायालय जाना पड़ा वहाँ बस तारीख पर तारीख और वकील की फीस दर फीस. ये स्थिति प्रबंधन के लिये सर्वश्रेष्ठ होती है क्योंकि वो अगले दस बीस सालों के लिये चिंतामुक्त हो जाता है. हम पैंशनर्स इसे साक्षात अनुभव कर रहे हैं. नादान हैं वो लोग जो फैसले और राहत का इंतजार करते हैं.

Representing the people का अर्थ यही है कि उनकी न्यायोचित मांगों को आवाज और ताकत दी जाय, वो सुनी जायें और उनके समाधान मिलें. मुंबई में कपड़ा मिलों के बंद होने का कारणों का विश्लेषण यह भी इंगित करता है कि एक कारण मार्केट परिदृश्यों को नजरअंदाज कर मज़दूर नेता दत्ता सामंत द्वारा अनाप शनाप मांगे रखना और नतीजा मिलों के बंद होने से मजदूरों को बेरोजगार होना पड़ा. मांग और देने वाले के अस्तित्व के बीच का असंतुलन ही पब्लिक सेक्टर की असफलता का कारक बना और सरकारों को निजीकरण की तरफ बढ़ना पड़ा. निजीकरण, बेहतर सर्विस के पर्दे में छुपी अभिजात्य सोच को प्रोत्साहित करता है और श्रमजीवियों को टॉरगेट के नाम पर टाइमलेस और लिमिट लेस शोषण के रास्ते खोलता है. इसका सबसे बड़ा उदाहरण, होम डिलीवरी वाले कोरियर बॉय हैं जिन्हें फिक्स टाइम में आर्डर की डिलीवरी करनी पड़ती है वरना आर्थिक नुकसान और नौकरी से हाथ धोने की स्थिति का सामना करना पड़ता है. ये युवक बाकायदा डिग्री धारक होते हैं और बेरोजगारी के कारण, अपनी बाइक सहित इन समस्याओं के जाल में उलझे रहते हैं. कौन हैं जो इनको रिप्रसेंट करेंगे. ये वह लडाई है जो लग्जरी और मजबूरी के बीच लड़ी जा रही है and no body is representing these people.  

श्रंखला जारी रहेगी.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – हिंदी का लेखक ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

आज की साधना

समूह को कुछ दिनों का अवकाश रहेगा। 

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

? संजय दृष्टि – पुनर्पाठ- हिंदी का लेखक  ??

हिंदी का लेखक संकट में है। मेज़ पर सरकारी विभाग का एक पत्र रखा है। हिंदी दिवस पर प्रकाशित की जानेवाली स्मारिका के लिए उसका लेख मांगा है। पत्र में यह भी लिखा है कि आपको यह बताते हुए हर्ष होता है कि इसके लिए आपको रु. पाँच सौ मानदेय दिया जायेगा..। इसी पत्र के बगल में बिजली का बिल भी रखा है। छह सौ सत्तर रुपये की रकम का भुगतान अभी बाकी है।

हिंदी का लेखक गहरे संकट में है। उसके घर आनेवाली पानी की पाइपलाइन चोक हो गई है। प्लम्बर ने पंद्रह सौ रुपये मांगे हैं।…यह तो बहुत ज़्यादा है भैया..।…ज़्यादा कैसे.., नौ सौ मेरे और छह सौ मेरे दिहाड़ी मज़दूर के।….इसमें दिहाड़ी मज़दूर क्या करेगा भला..?….सीढ़ी पकड़कर खड़ा रहेगा। सामान पकड़ायेगा। पाइप काटने के बाद दोबारा जब जोड़ूँगा तो कनेक्टर के अंदर सोलुशन भी लगायेगा। बहुत काम होते हैं बाऊजी। दो-तीन घंटा मेहनत करेगा, तब कहीं छह सौ बना पायेगा बेचारा।…आप सोचकर बता दीजियेगा। अभी हाथ में दूसरा काम है..।

हिंदी के लेखक का संकट और गहरा गया है। दो-तीन घंटा काम करने के लिए मिलेगा छह सौ रुपया।… दो-तीन दिन लगेंगे उसे लेख तैयार करने में.., मिलेगा पाँच सौ रुपया।…सरकारी मुहर लगा पत्र उसका मुँह चिढ़ा रहा है। अंततः हिम्मत जुटाकर उसने प्लम्बर को फोन कर ही दिया।…काम तो करवाना है। ..ऐसा करना तुम अकेले ही आ जाना।..नहीं, नहीं फिकर मत करो। दिहाड़ी मज़दूर है हमारे पास। छह सौ कमा लेगा तो उस गरीब का भी घर चल जायेगा।…तुम टाइम पर आ जाना भैया..।

फोन रखते समय हिंदी के लेखक ने जाने क्यों एक गहरी साँस भरी!

© संजय भारद्वाज

रात्रि 1.11 बजे, 27.7.2019

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – देवी ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

श्री हरभगवान चावला

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा  लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर विचारणीय लघुकथा – देवी।)

☆ लघुकथा – देवी ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

अभी सूरज निकला नहीं था कि किसी ने दुर्गा के दरवाज़े को कई बार ज़ोर-ज़ोर से खटखटाया। उस खटखटाहट में ऐसी बेसब्री थी कि दुर्गा को किसी अनहोनी की आहट सुनाई दी। उसने दौड़कर दरवाज़ा खोला। सामने पड़ोस की कुछ औरतें खड़ी थीं। उसके मुख पर अभी कुछ पूछने की मुद्रा उभरी ही थी कि एक औरत ने अधीर स्वर में कहा,”तू अभी घर में ही खड़ी है, सारा गाँव तेरे खेत की तरफ़ दौड़ा जा रहा है। तूने पिछले जन्म में कोई बड़ा पुन्न का काम किया होगा जो तेरे खेत में देवी परकट हुई है।”

“मेरे खेत में देवी…”

“हाँ तेरे खेत में। चल अब देर न कर।”

देर अब वह कर भी कैसे सकती थी? उसके पास कुल एक एकड़ ज़मीन है। वह इस ज़मीन को अपने खेत के पड़ोसी सोहन को- जो ख़ुद दो एकड़ का किसान है- बँटाई पर देती है। जैसे-तैसे उसका गुज़ारा चल रहा है। उनकी ज़मीन के तीन तरफ़ सौ एकड़ ज़मीन शमशेर सिंह की है। पिछले कुछ समय से शमशेर सिंह की नज़र उन दोनों की ज़मीन पर है और वह उन पर ज़मीन उसे बेच देने के लिए दबाव बना रहा है। वे दोनों मान नहीं रहे हैं। ओह! तो… वह सब समझ गई। उसने लाठी उठाई और उन औरतों के साथ खेत की तरफ़ चल पड़ी।

खेत का नज़ारा अद्भुत था। खेत के बीचों-बीच एक छोटी सी मूर्ति थी, जैसे अभी-अभी ज़मीन को फाड़कर निकली हो। मूर्ति के आसपास की फ़सल उखाड़ दी गई थी। मिट्टी का एक चबूतरा बना था। चबूतरे पर आग जलाकर हवन किया जा रहा था। उसने ग़ौर किया, हवन करने वाले चारों लोग उसके गाँव के नहीं थे। उनके पीछे शमशेर सिंह हाथ जोड़े बैठा था। सैंकड़ों लोग देवी के दर्शन के लिए जुटे थे। उनके पैरों तले कपास की फ़सल रौंद डाली गई थी। सोहन ठुड्डी पर हाथ रखे हताश खड़ा रौंद दी गई फ़सल को देख रहा था। दुर्गा के वहाँ पहुँचते ही उसकी जय-जयकार शुरू हो गई। हवन करने वालों में से एक उसके पैरों में गिर कर कह रहा था,”धन्य हैं आप दुर्गा देवी जी, आपके खेत में देवी ने साक्षात् दर्शन दिए हैं…।

बन्द करो यह नाटक। मैं जानती हूँ देवी मेरे ही खेत में क्यों प्रकट हुई हैं। मैं तो किसी देवी देवता का कभी भूले से भी नाम नहीं लेती। देवी तुम भक्तों में से किसी के घर क्यों नहीं प्रकट हुई, उसे प्रकट होने के लिए मेरा ही खेत मिला था? चलो समेटो अपना तामझाम, नहीं तो…।” दुर्गा गरज रही थी।

“देखो भक्तो, देवी माँ का अपमान कर रही है ये औरत! हम ये अपमान नहीं सहेंगे।” हवन करने वाला दूसरा आदमी चिल्लाया।

“ऐसी तैसी अपमान की, नौटंकी कुत्ते।” यह कहते ही उसने लाठी उसकी पीठ पर दे मारी। दर्द के मारे वह बिलबिला गया। फिर तो उसकी लाठी जो घूमी- किस को कहाँ लगी- उसे कुछ पता नहीं। ग़रीब की लाठी के सामने अमीर का पाखण्ड टिक नहीं पाया। थोड़ी देर बाद खेत में सिर्फ़ दो लोग बचे थे- एक वह स्वयं और दूसरा सोहन। अब उसका हाथ ठुड्डी पर नहीं, कमर पर था और वह मुस्कुरा रहा था। खेत में हवन सामग्री बिखरी पड़ी थी। दुर्गा ने प्रकट हुई मूर्ति को गोद में उठाया और पास बह रही नहर में प्रवाहित करते हुए बोली,”मेरे पास तो कभी-कभी रूखी-सूखी रोटी भी  नहीं होती। अब कृपा करके वहीं प्रकट होना, जहाँ भोग के लिए छप्पन तरह के व्यंजन उपलब्ध हों।” हाथ झाड़ते हुए दुर्गा सोहन से मुख़ातिब हुई, “आए थे देवी को प्रकट करने, हुँह…”

सोहन  प्रशंसा भरी मुग्ध दृष्टि से कुछ देर तक दुर्गा को देखता रहा, फिर नहर में बहती दूर जा रही मूर्ति को देखा और ज़ोर से हँसते हुए बड़बड़ाया,”देवी तो प्रकट हुई ही है, रणचण्डी के रूप में।”

©  हरभगवान चावला

सम्पर्क –  406, सेक्टर-20, हुडा,  सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 137 – लघुकथा ☆ घड़ी भर की जिंदगी… ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है आपकी  बाल मनोविज्ञान और जिज्ञासा पर आधारित लघुकथा “घड़ी भर की जिंदगी …”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 137 ☆

☆ लघुकथा  🌿 🕛घड़ी भर की जिंदगी 🕛 

यूं तो मुहावरे बनते और बोले जाते रहते हैं। इनकी अपनी एक विशेष भाषा शैली होती है और वक्त के अनुसार अलग-अलग अर्थ भी होते हैं।

किन्तु, यदि किसी की जिंदगी ही घड़ी बनकर रह जाए और अंत समय में कहा जाए… ‘घड़ी भर की जिंदगी’ तो अनायास ही आँखें भर उठती है।

अशोक बाबू का जीवन भी बिल्कुल घड़ी की तरह ही बीता। बचपन से भागते-चलते अभाव और तनाव भरी जिंदगी में एक-एक पल घड़ी के सेकंड के कांटे की तरह बीता।

सदैव चलते जाना उनके जीवन का अंग बन चुका था। अध्यापक की नौकरी मिली, गृहस्थाश्रम में प्रवेश कर उन्हें जरा सा सुकून मिला। घर में किलकारियाँ गूंजी, फिर जरूरतों का सिलसिला बढ़ चला। सब की जरूरतें पूरी करते-करते आगे बढ़ते गए।

बेटा बड़ा हुआ, विदेश पढ़ाई के लिए जाना पड़ा और उसकी जरूरतों को पूरा करते गये। वह विदेश गया तो फिर लौट कर नहीं आया।

बस फिर क्या था, वही दीवाल में लगी घड़ी की टिक-टिक की आवाज उनकी अपनी दिनचर्या का हिस्सा बन चुकी थी। धर्मपत्नी ने भी असमय साथ छोड़ दिया।

स्कूल में भी घड़ी देख-देख कर काम करने की आदत हो चुकी थी। पास पड़ोसी आकर बैठते पर अशोक बाबू की आंखें दिन-रात घड़ी, समय पर आती जाती रहती, शायद वह वक्त बता दे कि बेटा वापस घर आ रहा हैं।

रिटायरमेंट के बाद घर में अकेलापन और घड़ी की टिक-टिक। एक नौकर जो सेवा करता रहता था, वह भी अपने काम से काम रखता था।

आज पलंग पर लेटे-लेटे घड़ी देख रहे थे। नौकर ने कहा… बाबूजी खाना लगा दिया हूँ। कोई जवाब नहीं आया। पड़ोसियों को बुलाया गया। आंखें घड़ी पर टिकी हुई थी और घड़ी की कांच दो टुकड़ों में चटक कर गिर चुकी थी। प्राण पखेरू उड़ चले थे। आए हुए बुजुर्गों में से किसी ने कहा…. “घड़ी भर की जिंदगी, घड़ी में समाप्त हो गई”। घड़ी भी अशोक बाबू के साँसों सी  चलने लगी थीं, घड़ी चल रही थी, साँसें रुक गई थी।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा कहानी # 154 ☆ लघुकथा – “एकलव्य और अंगूठा” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी  की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपकी एक लघुकथा – “एकलव्य और अंगूठा”)  

☆ लघुकथा # 154 ☆ “एकलव्य और अंगूठा” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

घर के आंगन में लगे अमरूद के पेड़ के नीचे बैठे बड़े पंडित जी चाय पी रहे हैं ,ऊपर कोयल बोल रही है , शिक्षक दिवस के कारण शिष्यों का आना जाना सुबह से लगा है। गुरु जी आज स्कूल नहीं गये, सुबह से शिष्य गुरु वंदना करने आते हैं और कुछ कुछ गुरु जी को चढ़ा जाते हैं, कुछ ने मोबाइल दिया, कुछ ने लिफाफा। एक जमींदार शिष्य खाली हाथ आया था तो गुरु जी उसका अंगूठा देखने लगे, शिष्य ने मजाक में कहा कि जल्दबाजी में गुरु जी कुछ ला नहीं पाया, एक काम कीजिए ज्यादा है तो ये मेरा अंगूठा ले लीजिए। शिष्य जमींदार की बात सुनकर गुरु जी अपने पीए से बोले कि इनका अंगूठा स्टांपित दानपत्र पर लगवा लीजिए, पांच एकड़ जमीन बहुत है। शिष्य ने लघुशंका का बहाना बनाकर दौड़ लगा दी और एकलव्य बनने से बच गया।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – विवशता ☆ डॉ ब्रजेन्द्र नारायण द्विवेदी ‘शैलेश’☆

डॉ ब्रजेन्द्र नारायण द्विवेदी ‘शैलेश’

☆ कथा कहानी ☆ लघुकथा – विवशता ☆ डॉ ब्रजेन्द्र नारायण द्विवेदी ‘शैलेश’

हरिद्वार से आ रहा था। लक्सर से ज्यूं ही गाड़ी आगे बढ़ी चार या पांच की संख्या में कुछ लोग तालियां पीटते कंपार्टमेंट में घुसे नए-नए उम्र के लड़कों के साथ हंसी मजाक करते हुए ,शउनसे पैसे मांगने लगे। कुछ नहीं ₹10 ₹20 दिए कुछ भद्दा मजाक करने लगे। यह वही लोग हैं, जिन्हें प्रकृति ने हंसी का पात्र बना दिया। उनके जननांग गायब कर दिए।  इसी के कारण समाज उन्हें जनखा, हिजड़ा, उभय लिंगी यहां और जो भी नाम से संबोधित करता है, जगह जगह अब गाड़ियों में घूम घूम कर स्टेशन पर बैठे हुए यात्रियों से,या राह चलते हुए लोगों से या मेले में आए हुए संभ्रांत लोगों से पैसे मांगते हैं। देर तक मैं बच्चों, मनचले युवकों और उनके बीच का उल्टा-सीधा हास्य व्यंग सुनता रहा।

कुछ मनचले उन्हें हाथ पकड़ कर अपने बगल  बैठने का आग्रह कर रहे थे, तो कुछ उन्हें 10या ₹5 देकर चले जाने के लिए अवसर दे रहे थे।

अच्छा नहीं लगा मैंने एक से कहा- मैं तुमसे कुछ पूछना चाहता हूं।एक साथी और आ गया साथ में, उम्र अट्ठारह उन्नीस की रही होगी और दूसरे की उम्र 24- 25 वर्ष । थोड़ी देर बाद वे संपूर्ण डिब्बे का भ्रमण कर जो कुछ भी मांग सके थे ,लेकर आए और मेरे सामने वाली सीट पर जो खाली थी बैठ गए।

मैंने कहा – आप लोग तो कलाकार हैं, आपके पास नृत्य और गायन है, उससे आप लोग क्यों नहीं पैसा प्राप्त कर लेते हैं ।एक का नाम विद्या था।उसने उत्तर दिया -“बाबूजी दुनिया बदल गई है। पहले लोग प्रेम से बच्चे-बच्चियों के जन्म पर हम को बुलाते थे। हम नाचने -गाने के साथ ही बच्चों को गोद में लेकर खिलाते थे ।बहुत-बहुत उनके सुखी जीवन का आशीर्वाद देते थे ।आज कोई हमें नहीं बुलाता है। लोग अब पैसे को अधिक महत्व देते हैं ।सामाजिक मान्यताओं को कम। हम लाचार हैं, कभी गाड़ी पर एक एक यात्री से उनके व्यंग बाण सहते हुए भी भिक्षा मांगने के लिए। क्योंकि पेट तो सभी के साथ है न। हमें ना खाली अपना पेट भरना होता है, बल्कि हमारी ही बिरादरी में कई एक अशक्त, बूढ़े, रोगी और असमर्थ लोग रहते हैं। हम केवल अपना पेट नहीं भरते, हम सभी का ध्यान रखते हैं। बगल में एक आदमी भूखा तड़प रहा हो ,तो दूसरे कैसे चैन की नींद सो सकता है, ऐसा नहीं कहती मानवता।

अब तो जो हमारे साथ हैं, वही हमारे साथी  हैं। मां-बाप हैं, गुरु हैं ,सहायक हैं, मित्र हैं, उनका ध्यान हमें रखना पड़ता है। आज के बच्चे भले ही अपने मां-बाप को छोड़ दें ।जाकर कहीं दूर ऊंची कमाई करते हो। लेकिन हम अपने उन लोगों को कष्ट में नहीं देख सकते जिन्होंने हमें आश्रय देकर शिक्षा के माध्यम से ऐसा बनाया है कि हम कुछ अपनी कला का प्रदर्शन करके कुछ प्राप्त कर लें। पेट प्रत्येक जीव के साथ होता है, हम भी उसी से विवश हैं, अन्यथा एक गाड़ी से दूसरी गाड़ी एक डिब्बे से दूसरे डिब्बे ताली बजाते ही वे लोगों के आगे हाथ फैलाते हुए क्यों घूमते। आप समझते हैं, पढ़े लिखे हैं, हमने भी कहीं कहीं जा करके थोड़ा बहुत पढ़ने का प्रयास किया है इसी कारण मानवीय संबंध का क्या महत्व है। हमारी समझ में आता है । किंतु, हमें कोई काम नहीं देता। यदि अवसर मिले तो हम भी अपनी योग्यता का प्रदर्शन करें। पढ़ लिख कर के अच्छे पदों पर जाएं । देश की सेवा करें किंतु हमें तो उपेक्षित दृष्टि से देखा जाता है। नपुंसक माना जाता है। सत्य है हम प्रकृति की भूल के शिकार हो गए किंतु अन्य किसी क्षमता में हम किसी से कम नहीं है।”मैंने ₹50 उन्हें देकर विदा किया। आशीर्वाद देते हुए दोनों चले गए। सचमुच किसी को भिक्षा मांगना अच्छा नहीं लगता। किंतु, समाज इन प्रकृति के कोप के मारे हुए लोगों को उपेक्षा के भाव से देखता है। यह भी अच्छा नहीं लगता, वास्तव में वे भी समाज के प्राणी है। उनका भी सम्मान है उनका भी जीवन है। उनकी भी आवश्यकताएं हैं। उनकी भी अपनी मानसिक पीड़ा- शारीरिक पीड़ा होती है।

आज समाज को उनकी क्षमता का प्रयोग करके अपने विकास में उन्हें सहभागी बनाना चाहिए।

© डॉ ब्रजेन्द्र नारायण द्विवेदी ‘शैलेश’

भगवानपुर, वाराणसी (उत्तर प्रदेश) 

मो 9450186712

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार # 106 – लक्ष्मी नारायण और स्वर्ग ☆ श्री आशीष कुमार ☆

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #106  🌻 लक्ष्मी नारायण और स्वर्ग 🌻 ☆ श्री आशीष कुमार

लक्ष्मी नारायण बहुत भोला लड़का था। वह प्रतिदिन रात में सोने से पहले अपनी दादी से कहानी सुनाने को कहता था। दादी उसे नागलोक, पाताल, गन्धर्व लोक, चन्द्रलोक, सूर्यलोक आदि की कहानियाँ सुनाया करती थी।

एक दिन दादी ने उसे स्वर्ग का वर्णन सुनाया। स्वर्ग का वर्णन इतना सुन्दर था कि उसे सुनकर लक्ष्मी नारायण स्वर्ग देखने के लिये हठ करने लगा। दादी ने उसे बहुत समझाया कि मनुष्य स्वर्ग नहीं देख सकता, किन्तु लक्ष्मीनारायण रोने लगा। रोते- रोते ही वह सो गया।

उसे स्वप्न में दिखायी पड़ा कि एक चम-चम चमकते देवता उसके पास खड़े होकर कह रहे हैं- बच्चे ! स्वर्ग देखने के लिये मूल्य देना पड़ता है। तुम सरकस देखने जाते हो तो टिकट देते हो न? स्वर्ग देखने के लिये भी तुम्हें उसी प्रकार रुपये देने पड़ेंगे।

स्वप्न में लक्ष्मीनारायण सोचने लगा कि मैं दादी से रुपये माँगूँगा। लेकिन देवता ने कहा- स्वर्ग में तुम्हारे रुपये नहीं चलते। यहाँ तो भलाई और पुण्य कर्मों का रुपया चलता है।

अच्छा, काम करोगे तो एक रुपया इसमें आ जायगा और जब कोई बुरा काम करोगे तो एक रुपया इसमें से उड़ जायगा। जब यह डिबिया भर जायगी, तब तुम स्वर्ग देख सकोगे।

जब लक्ष्मीनारायण की नींद टूटी तो उसने अपने सिरहाने सचमुच एक डिबिया देखी। डिबिया लेकर वह बड़ा प्रसन्न हुआ। उस दिन उसकी दादी ने उसे एक पैसा दिया। पैसा लेकर वह घर से निकला।

एक रोगी भिखारी उससे पैसा माँगने लगा। लक्ष्मीनारायण भिखारी को बिना पैसा दिये भाग जाना चाहता था, इतने में उसने अपने अध्यापक को सामने से आते देखा। उसके अध्यापक उदार लड़कों की बहुत प्रशंसा किया करते थे। उन्हें देखकर लक्ष्मीनारायण ने भिखारी को पैसा दे दिया। अध्यापक ने उसकी पीठ ठोंकी और प्रशंसा की।

घर लौटकर लक्ष्मीनारायण ने वह डिबिया खोली, किन्तु वह खाली पड़ी थी। इस बात से लक्ष्मी नारायण को बहुत दुःख हुआ। वह रोते- रोते सो गया। सपने में उसे वही देवता फिर दिखायी पड़े और बोले- तुमने अध्यापक से प्रशंसा पाने के लिये पैसा दिया था, सो प्रशंसा मिल गयी।

अब रोते क्यों हो ? किसी लाभ की आशा से जो अच्छा काम किया जाता है, वह तो व्यापार है, वह पुण्य थोड़े ही है। दूसरे दिन लक्ष्मीनारायण को उसकी दादी ने दो आने पैसे दिये। पैसे लेकर उसने बाजार जाकर दो संतरे खरीदे।

उसका साथी मोतीलाल बीमार था। बाजार से लौटते समय वह अपने मित्र को देखने उसके घर चला गया। मोतीलाल को देखने उसके घर वैद्य आये थे। वैद्य जी ने दवा देकर मोती लाल की माता से कहा- इसे आज संतरे का रस देना।

मोतीलाल की माता बहुत गरीब थी। वह रोने लगी और बोली- ‘मैं मजदूरी करके पेट भरती हूँ। इस समय बेटे की बीमारी में कई दिन से काम करने नहीं जा सकी। मेरे पास संतरे खरीदने के लिये एक भी पैसा नहीं है।’

लक्ष्मीनारायण ने अपने दोनों संतरे मोतीलाल की माँ को दिये। वह लक्ष्मीनारायण को आशीर्वाद देने लगी। घर आकर जब लक्ष्मीनारायण ने अपनी डिबिया खोली तो उसमें दो रुपये चमक रहे थे।

एक दिन लक्ष्मीनारायण खेल में लगा था। उसकी छोटी बहिन वहाँ आयी और उसके खिलौनों को उठाने लगी। लक्ष्मीनारायण ने उसे रोका। जब वह न मानी तो उसने उसे पीट दिया।

बेचारी लड़की रोने लगी। इस बार जब उसने डिबिया खोली तो देखा कि उसके पहले के इकट्ठे कई रुपये उड़ गये हैं। अब उसे बड़ा पश्चाताप हुआ। उसने आगे कोई बुरा काम न करने का पक्का निश्चय कर लिया।

मनुष्य जैसे काम करता है, वैसा उसका स्वभाव हो जाता है। जो बुरे काम करता है, उसका स्वभाव बुरा हो जाता है। उसे फिर बुरा काम करने में ही आनन्द आता है। जो अच्छा काम करता है, उसका स्वभाव अच्छा हो जाता है। उसे बुरा काम करने की बात भी बुरी लगती है।

लक्ष्मीनारायण पहले रुपये के लोभ से अच्छा काम करता था। धीरे- धीरे उसका स्वभाव ही अच्छा काम करने का हो गया। अच्छा काम करते- करते उसकी डिबिया रुपयों से भर गयी। स्वर्ग देखने की आशा से प्रसन्न होता, उस डिबिया को लेकर वह अपने बगीचे में पहुँचा।

लक्ष्मीनारायण ने देखा कि बगीचे में पेड़ के नीचे बैठा हुआ एक बूढ़ा साधु रो रहा है। वह दौड़ता हुआ साधु के पास गया और बोला- बाबा ! आप क्यों रो रहे है? साधु बोला- बेटा जैसी डिबिया तुम्हारे हाथ में है, वैसी ही एक डिबिया मेरे पास थी। बहुत दिन परिश्रम करके मैंने उसे रुपयों से भरा था।

बड़ी आशा थी कि उसके रुपयों से स्वर्ग देखूँगा, किन्तु आज गंगा जी में स्नान करते समय वह डिबिया पानी में गिर गयी। लक्ष्मी नारायण ने कहा- बाबा ! आप रोओ मत। मेरी डिबिया भी भरी हुई है। आप इसे ले लो।

साधु बोला- तुमने इसे बड़े परिश्रम से भरा है, इसे देने से तुम्हें दुःख होगा। लक्ष्मी नारायण ने कहा- मुझे दुःख नहीं होगा बाबा ! मैं तो लड़का हूँ। मुझे तो अभी बहुत दिन जीना है। मैं तो ऐसी कई डिबिया रुपये इकट्ठे कर सकता हुँ। आप बूढ़े हो गये हैं। आप मेरी डिबिया ले लीजिये।

साधु ने डिबिया लेकर लक्ष्मीनारायण के नेत्रों पर हाथ फेर दिया। लक्ष्मीनारायण के नेत्र बंद हो गये। उसे स्वर्ग दिखायी पड़ने लगा। ऐसा सुन्दर स्वर्ग कि दादी ने जो स्वर्ग का वर्णन किया था, वह वर्णन तो स्वर्ग के एक कोने का भी ठीक वर्णन नहीं था।

जब लक्ष्मीनारायण ने नेत्र खोले तो साधु के बदले स्वप्न में दिखायी पड़ने वाला वही देवता उसके सामने प्रत्यक्ष खड़ा था। देवता ने कहा- बेटा ! जो लोग अच्छे काम करते हैं, उनका घर स्वर्ग बन जाता है। तुम इसी प्रकार जीवन में भलाई करते रहोगे तो अन्त में स्वर्ग में पहुँच जाओगे।’ देवता इतना कहकर वहीं अदृश्य हो गये।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 100 ☆ अदालत में हिंदी ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा ‘अदालत में हिंदी’।  डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस लघुकथा रचने  के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 100 ☆

☆ लघुकथा – अदालत में हिंदी ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

अदालत में आवाज लगाई गई – हिंदी को बुलाया जाए। हिंदी बड़ी सी बिंदी लगाए भारतीय संस्कृति में लिपटी फरियादी के रूप में कटघरे में आ खड़ी हुई।

मुझे अपना केस खुद ही लड़ना है जज साहब ! – उसने कहा।

अच्छा, आपको वकील नहीं चाहिए ?

नहीं, जज साहब ! जब मेरी आवाज बन भारत  विदेशियों से  जीत गया तो मैं अपनी लड़ाई खुद नहीं लड़ सकती ?

ठीक है, बोलिए, क्या कहना चाहती हैं आप ?

जब देश स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ रहा था तब मैंने कमान संभाली थी। देशभक्ति की ना जाने कितनी कविताएं मेरे शब्दों में लिखी गईं। जब मैं कवि के शब्दों में कहती थी – जो भरा नहीं है भावों से, बहती जिसमें रसधार नहीं, वह ह्रदय नहीं है पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं,  तब इसे सुनकर नौजवान  देश के लिए अपनी जान तक न्यौछावर कर देते थे।  मैं सबकी प्रिय थी,  कोई नहीं कहता था कि तुम मेरी नहीं हो। लेकिन अब  मेरे अपने देश के माता – पिता अपने बच्चों को मुझसे दूर रखते हैं, देश के नौजवान मुझसे मुँह चुराते हैं। इतना ही नहीं महाविद्यालयों में तो युवा मुझे पढ़ने से कतराते हैं। मेरे मुँह पर तमाचा- सा लगता है जब वे कहते हैं कि क्या करें तुम्हें पढ़कर ?  हमें नौकरी चाहिए, दिलवाओगी तुम ? जीने के लिए रोटी चाहिए,  हिंदी नहीं ! मैं उन्हें दुलारती हूँ, पुराने दिन याद दिलाती हूँ, कहती हूँ अच्छे दिन आएंगे परंतु वे मेरे वजूद को नकारकर अपना भविष्य संवारने चल देते हैं। जज साहब! मैं अपने ही देश में पराई हो गई। इस अपमान से मेरी  बहन बोलियों ने अपनी जमीन पर ही दम तोड़ दिया। मुझे न्याय चाहिए जज साहब! – हिंदी हाथ जोड़कर उदास स्वर में बोली।

अदालत में सन्नाटा छा गया। न्यायधीश महोदय खुद भी दाएं- बाएं झांकने  लगे। उन्होंने आदेश दिया –  गवाह पेश किया जाए।

हिंदी सकपका गई, गवाह कहाँ से लाए ? पूरा देश ही तो गवाह है, यही तो हो रहा है हमारे देश में – उसने विनम्रता से कहा।

नहीं, यहाँ आकर कटघरे में खड़े होकर आपके पक्ष में बात कहनेवाला होना चाहिए – जज साहब बोले।

हिंदी ने बहुत आशा से अदालत के कक्ष में  नजर दौड़ाई,  बड़े – बड़े नेता, मंत्री, संस्थाचालक वहाँ बैठे थे, सब अपनी – अपनी रोटियां सेंकने की फिक्र में  थे। किसी ने उसकी ओर आँख उठाकर देखा भी नहीं।

गवाह के अभाव में मुकदमा खारिज कर दिया गया।

©डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #118 – लघुकथा – “सेवा” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है एक ज्ञानवर्धक एवं विचारणीय लघुकथा – “सेवा।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 118 ☆

☆ लघुकथा – सेवा ☆ 

दो घंटे आराम करने के बाद डॉक्टर साहिबा को याद आया, ” चलो ! उस प्रसूता को देख लेते हैं जिसे आपरेशन द्वारा बच्चा पैदा होगा, हमने उसे कहा था,” कहते हुए नर्स के साथ प्रसव वार्ड की ओर चल दी. वहां जा कर देखा तो प्रसू​ता के पास में बच्चा किलकारी मार कर रो रहा था तथा दुखी परिवार हर्ष से उल्लासित दिखाई दे रहा था.

” अरे ! यह क्या हुआ ? इस का बच्चा तो पेट में उलझा हुआ था ?”

इस पर प्रसूता की सास ने हाथ जोड़ कर कहा, ” भला हो उस मैडमजी का जो दर्द से तड़फती बहु से बोली— यदि तू हिम्मत कर के मेरा साथ दे तो मैं यह प्रसव करा सकती हूँ.”

”फिर ?”

”मेरी बहु बहुत हिम्मत वाली थी. इस ने हामी भर दी. और घंटे भर की मेहनत के बाद में ​प्रसव हो गया. भगवान ! उस का भला करें.”

” क्या ?” डॉक्टर साहिबा का यकीन नहीं हुआ, ” उस ने इतनी उलझी हुई प्रसव करा दी. मगर, वह नर्स कौन थी ?”

सास को उस का नाम पता मालुम नहीं था. बहु से पूछा,” बहुरिया ! वह कौन थी ? जिसे तू 1000 रूपए दे रही थी. मगर, उस ने लेने से इनकार कर दिया था.”

” हां मांजी ! कह रही थी सरकार तनख्वाह देती है इस सरला को मुफ्त का पैसा नहीं चाहिए.”

यह सुनते ही डॉक्टर साहिबा का दिमाग चकरा गया था. सरला की ड्यूटी दो घंटे पहले ही समाप्त हो गई थी. फिर वह यहाँ मुफ्त में यह प्रसव करने के लिए अतिरिक्त दो घंटे रुकी थी. 

”इस की समाज सेवा ने मेरी रात की डयूटी का मजा ही किरकिरा कर दिया. बेवकूफ कहीं की,” धीरे से साथ आई नर्स को कहते हुए डॉक्टर साहिबा झुंझलाते हुए अगले वार्ड में चल दी.

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

07/03/2018

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य#149 ☆ लघुकथा – बुजुर्गों की गप्प गोष्ठी… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का  चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी लघुकथा  “बुजुर्गों की गप्प गोष्ठी…”)

☆  तन्मय साहित्य # 149 ☆

☆ लघुकथा – बुजुर्गों की गप्प गोष्ठी ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

सायंकालीन दिनचर्या में टहलते हुए किसी पार्क के कोने या किसी पुलिया पर समय काटते बुजुर्गों के समूह में अजीब चर्चाओं का दौर चलता रहता है।

आज चर्चा शुरू करते हुए रूपचंद ने पूछा – “रामदीन! यह बताओ इन भगवानों के बारे में तुम्हारे क्या विचार हैं?”

“विचार क्या! ये सब इंसानी दिमागों की उपज है। ढूँढो तो इन भगवानों में भी कई खोट मिल जाएंगे। अब राम जी को ही ले लो, कहने को मर्यादा पुरुषोत्तम और एक धोबी के कहने से अग्नि में पवित्र हुई गर्भवती सीता जी को अकेली जंगल में छुड़वा दिया।”

“सच कहते हो रामदीन! बृजमोहन जी बीच में ही बोल पड़े, सोलह कलाओं के स्वामी पूर्णावतार कृष्ण जी ने क्या कम गुल खिलाये थे! सुना है सोलह हजार रानियों के बीच में  केवल सत्यभामा और रुक्मणी जी की पूछ-परख बाकी सब बाँदियों की तरह थी। वैसे तत्वदर्शी मनीषी इन बातों की अलग तरह से भी आध्यात्मिक व्याख्या करते हैं।”

“अरे ब्रजमोहन!  दूर क्यों जाते हो ईश्वर के बारहवें अवतार भगवान बुद्ध तो अपनी सोई हुई पत्नी और वृद्ध माता-पिता को बीच मँझधार में छोड़ कर अपने मोक्ष के लिए रातों रात घर से पलायन कर गए थे, रघुनंदन ने कहा, जबकि विदेही राजा जनक की भांति अपने राजधर्म का पालन करते हुए भी वे बुद्धत्व को प्राप्त कर सकते थे।”

 “हाँ भाई रघुनंदन, वैसे बुद्ध को भी छोड़ दें तो अभी-अभी के हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के बारे में कहते हैं कि, वृद्धावस्था में भी अपनी कामवासना पर काबू कर पाए हैं कि नहीं यह जाँचने के लिए विचित्र-विचित्र प्रयोग करने लगे थे। बाकी उनके यौवनकाल की घटना तो जानते ही हैं हम सब रूपचंद ने कहा।”

“गांधी जी ने तो फिर भी देश के लिए बहुत कुछ किया था रूपचंद भाई!”

बीच में ही भवानी प्रसाद बोल उठे – “किंतु आज तो सभी नेता अपनी तिजोरी भरने और देश का पैसा विदेशी बैंकों में जमा करने में लगे हैं। देश प्रेम के मुखौटे लगाए ये लोग अंदर कुछ और बाहर कुछ हैं। अब अपने क्षेत्र से ही जीते हुए नेता जी को ले लो साल में दो बार शिर्डी, वैष्णो देवी और आसपास के मंदिरों की शाही यात्राएं कर सदा मजमें लगा कर अपने को चर्चाओं में बनाये रखते हैं। उनका असली रूप क्या है सब लोग उनके आशिक मिज़ाजी  कुकर्मों से परिचित ही हैं।”

“भवानी प्रसाद! कुकर्मों की बात तुम नहीं ही करो तो अच्छा है। करम  तो तुम्हारे भी ठीक नहीं थे, देवीसिंह ने हँसते हुए कहा – रंगीन मिजाजी के तुम्हारे किस्से हम आज तक भी भूले नहीं हैं, याद है न तुम्हें?”

“और तुम कौन से दूध के धुले हो यार! मुँह न खुलवाओ मेरा नहीं तो तुम्हारी भी पूरी पोथी बाँच सकता हूँ यहाँ।”

“पोथियाँ तो यहाँ सबकी सब की बनी है, बस बाँचने भर की देर है, रूपचन्द ने कहा।”

बात भगवान से शुरू होकर अपने तक आ गई, लगने लगा कि इसके बाद अब सब लपेटे में आने वाले हैं।

रामदीन ने आज की गोष्ठी का समापन करते हुए कहा “साथियों! रात के आठ बजने वाले हैं, यदि अब भी हम लोग घर नहीं पहुँचे और घर का चूल्हा चौका एक बार बंद हो गया तो फिर कुछ अलग सी पोथी श्रवण के साथ कल दोपहर तक ही खाना नसीब हो पाएगा हमें, इसलिए आज की यह चर्चा गोष्ठी कल तक के लिए स्थगित की जाती है। सब कुछ ठीक रहा तो कल फिर मिलेंगे।”

आखिर खाली मन रोज-रोज बातें करें भी तो क्या कभी राजनीति, कभी मँहगाई, कभी पेंशन, तो कभी अड़ोस-पड़ोस की, बस इसी प्रकार कुछ नए नए विषय लेकर उनके तार मिलाते दिल बहलाते हल्की-फुल्की छींटाकशी करते फिर पूरे समय के लिए चुप्पियों की शरण में चले जाते हैं- अपनत्व से वंचित ये बुजुर्ग लोग

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

अलीगढ़/भोपाल   

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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