हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – धन बनाम ज्ञान ☆ श्री विजय कुमार, सह सम्पादक (शुभ तारिका) ☆

श्री विजय कुमार

 

(आज प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध एवं प्रतिष्ठित पत्रिका शुभ तारिका के सह-संपादक श्री विजय कुमार जी  की एक विचारणीय लघुकथा  “धन बनाम ज्ञान )

☆ लघुकथा – धन बनाम ज्ञान ☆

दोनों कॉलेज के दोस्त अरसे बाद आज रेलवे स्टेशन पर अकस्मात् मिले थे। आशीष वही सादे और शिष्ट् कपड़ों में था, हालांकि कपड़े अब सलीके से इस्त्री किये हुए और थोड़े कीमती लग रहे थे, जबकि दिनेश उसी तरह से सूट-बूट में था, पर उसके कपड़ों से अंदाजा लगाया जा सकता था कि उन्हें बहुत ज्यादा इस्तेमाल किया जा चुका है। आशीष के चेहरे पर वही पुरानी मुस्कुराहट और रौनक थी, जबकि दिनेश का चेहरा पीला पड़ गया लगता था, और उसमें अब वह चुस्ती-फुर्ती नज़र नहीं आ रही थी जो कॉलेज के दिनों में कभी हुआ करती थी।

आशीष तो उसे पहचान भी नहीं पाता, यदि दिनेश स्वयं आगे बढ़ कर उसे अपना परिचय न देता।

“अरे दिनेश यह क्या, तुम तो पहचान में भी नहीं आ रहे यार? कहाँ हो? क्या कर रहे हो आजकल?” आशीष ने तपाक से उसे गले लगाते हुए कहा।

“बस, ठीक हूँ यार, तुम अपनी कहो?” दिनेश ने फीकी सी हंसी हंसते हुए कहा।

“तुम तो जानते ही हो बंधु, हम तो हमेशा मजे में ही रहते हैं”, आशीष ने उसी जोशोखरोश से कहा, “अच्छा, वो तेरा मल्टीनेशनल कंपनी वाला बिज़नेस कैसा चल रहा है, कितना माल इकट्ठा कर लिया?”

“क्या माल इकट्ठा कर लिया यार, बस गुजारा ही चल रहा है। वैसे वह काम तो मैंने कब का छोड़ दिया था, और छोड़ दिया था तो बहुत अच्छा किया, वर्ना बिल्कुल बर्बाद ही हो जाता। उस कंपनी ने खुद को दिवालिया घोषित कर दिया, और लोगों का काफी पैसा हजम कर गयी। आजकल तो मैं अपना निजी काम कर रहा हूँ ट्रेडिंग का। गुजारा हो रहा है। तुम क्या कर रहे हो?”

“मैं आजकल इंदौर के एक कॉलेज में प्रोफेसर हूँ”, आशीष ने बताया, “कुल मिला कर बढ़िया चल रहा है।”

“तो तुम आखिर जीत ही गए आशीष”, दिनेश ने हौले से कहा तो आशीष चौंक गया, “कैसी जीत?”

“वही जो एक बार तुममें और मुझमें शर्त लगी थी”, दिनेश ने कहा।

“कैसी शर्त? मुझे कोई ऐसी बात याद नहीं?” आशीष को कुछ याद न आया।

“भूल गए शायद, चलो मैं याद करवा देता हूँ”, कह कर दिनेश ने बताया, “जब पहली बार किसी ने मुझे इस मल्टीनेशनल कंपनी का रुपए दे कर सदस्य बनने, अन्य लोगों को सदस्य बनाने और इसके महंगे-महंगे उत्पादों को बेच कर लाखों रुपए कमा कर अमीर बनने का लालच दिया, तो मैं उसमें फंस गया था। मैंने तुम्हें भी हर तरह का लालच दे कर इसका सदस्य बनाने की कोशिश की तो तुमने साफ मना कर दिया था। तुमने मुझे भी इस लालच से दूर रह कर पढ़ाई में मन लगाने की ताक़ीद दी थी। परंतु मैं नहीं माना। मुझे आज भी याद है कि तुमने कहा था, ‘धन और ज्ञान में से यदि मुझे एक चुनना पड़े तो मैं हमेशा ज्ञान ही चुनूँगा, क्योंकि धन से ज्ञान कभी नहीं कमाया जा सकता, परंतु ज्ञान से धन कभी भी कमाया जा सकता है। स्वयं ही देख लो, पढ़-लिख कर तुम फर्श से अर्श तक पहुंच गए, और मैं अर्श से फर्श पर…।

 

©  श्री विजय कुमार

सह-संपादक ‘शुभ तारिका’ (मासिक पत्रिका)

संपर्क – # 103-सी, अशोक नगर, नज़दीक शिव मंदिर, अम्बाला छावनी- 133001 (हरियाणा)
ई मेल- [email protected] मोबाइल : 9813130512

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 88 ☆ चिट्ठी लिखना बेटी ! ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है माँ की ममता पर आधारित एक मनोवैज्ञानिक लघुकथा ‘चिट्ठी लिखना बेटी !’. डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस ऐतिहासिक लघुकथा रचने  के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 88 ☆

☆ लघुकथा – चिट्ठी लिखना बेटी ! ☆

माँ का फोन आया – बहुत दिन हो गए तुम्हारी चिट्ठी  नहीं आई बेटी! हाँ, जानती हूँ समय नहीं मिलता होगा। गृहस्थी के छोटे –मोटे हजारों काम, बच्चे और तुम्हारी नौकरी, सब समझती हूँ। फोन पर तुमसे बात तो हो जाती है, पर  क्या करें मन नहीं भरता। चिट्ठी आती है तो जब चाहो इत्मीनान से जितनी बार पढ़ लो। मैंने तुम्हारी सब चिट्ठियां संभालकर रखी हैं अभी तक।

तुम कह रहीं थी कि चिट्ठी भेजे बहुत दिन हो गए? किस तारीख को भेजी थी? अच्छा दिन तो याद होगा? आठ –दस दिन हो गए? तब तो आती ही होगी। डाक विभाग का भी कोई ठिकाना नहीं, देर – सबेर आ ही जाती हैं चिट्ठियां। बच्चों की फोटो भेजी है ना साथ में? बहुत दिन हो गए बच्चों को देखे हुए। हमारे पास कब आओगी? स्वर मानों उदास होता चला गया।

ना जाने कितनी बातें, कितनी नसीहतें, माँ की चिट्ठी में हुआ करती थीं। जगह कम पड़ जाती लेकिन माँ की बातें मानों खत्म ही नहीं होती थी। धीरे- धीरे चिट्ठियों की जगह फोन ने ले ली। माँ फोन पर पूछती – कितने बच्चे हैं, बेटा है? नहीं है, बेटियां ही हैं, (माँ की याद्दाश्त खराब होने लगी थी) चलो कोई बात नहीं आजकल लड़की – लड़के में कोई अंतर नहीं है। ये मुए लड़के कौन सा सुख दे देते हैं? अच्छा, तुम चिट्ठी लिखना हमें, साथ में बच्चों की फोटो भी भेजना। तुम्हारे बच्चों को देखा ही नहीं हमने (बार – बार वही बातें दोहराती है)। 

कई बार कोशिश की, लिखने को पेन भी उठाया लेकिन कागज पर अक्षरों की जगह माँ का चेहरा उतर आता। अल्जाइमर पेशंट माँ को अपनी ही सुध नहीं है। क्या पता उसके मन में क्या चल रहा है? उसके चेहरे पर तो सिर्फ कुछ खोजती हुई – सी आँखें हैं और सूनापन। माँ ने फिर कहा – बेटी! चिट्ठी लिखना जरूर और फोन कट गया।

 सबके बीच रहकर भी सबसे अन्जान और खोई हुई – सी माँ को पत्र लिखूँ भी तो कैसे?

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – गिरहकट ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – लघुकथा – गिरहकट  ??

पत्रिका पलटते हुए आज फिर एक पृष्ठ पर वह ठिठक गया। यह तो उसकी रचना थी जो कुछ उलजलूल काँट-छाँट और भद्दे पैबंदों के साथ उसके एक परिचित के नाम से छपी थी। यह पहली बार नहीं था। वह इस ‘इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी थेफ्ट’ का आदी हो चला था। वैसे इससे उसकी साख पर कोई असर कभी न पड़ना था, न पड़ा। उन उठाईगीरों की साख तो थी ही नहीं, जो कुछ भी थी, उसमें इन हथकंडों से कभी बढ़ोत्तरी भी नहीं हुई।

आज उसने अपनी नई रचना लिखी। पत्रिका के संपादक को भेजते हुए उसे उठाईगीरे याद आए और उसका मन, उनके प्रति चिढ़ के बजाय दया से भर उठा। अपनी रचना में कुछ काँट-छाँट कर और अपेक्षाकृत कम भद्दे पैबंद लगाकर उसने एक और रचना तैयार की। साथ ही संपादक को लिखा कि उठाईगीरों को परिश्रम न करना पड़े, अतः ओरिजिनल के साथ डुप्लीकेट भी संलग्न हैं। दोनों के शीर्षक भी भिन्न हैं ताकि बेचारों को नाहक परेशानी न झेलना पड़े।

संपादक ने देखा, मूल रचना का शीर्षक था, ‘गिरह‘ और डुप्लीकेट पर लिखा था- ‘गिरहकट।’

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆  ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी #22 – परम संतोषी भाग – 8 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव 

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे।  उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आपने ‘असहमत’ के किस्से तो पढ़े ही हैं। अब उनके एक और पात्र ‘परम संतोषी’ के किस्सों का भी आनंद लीजिये। आप प्रत्येक बुधवार साप्ताहिक स्तम्भ – परम संतोषी   के किस्से आत्मसात कर सकेंगे।)   

☆ कथा – कहानी # 22 – परम संतोषी भाग – 8 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

असहमत फिर से, क्या करते हैं आप आज असहमत का कार्यक्रम सुबह फिर जलेबी-पोहा खाने का बना. सबेरे यही किया जाता है, ब्रेकफास्ट और कड़क चाय के बाद ही लोग सोशल मीडिया पर सक्रिय होते हैं. तो घर से बाहर निकलकर, सीधे सीधे सत्तर कदम चलने के बाद नुक्कड़ पर असहमत के कदम थम गये. दो रास्ते थे, राईट जाता तो मंदिर पहुंचता और लेफ्ट जाता तो गरमागरम जलेबियाँ खाता. असहमत, स्वतंत्र विचारों की रचना थी, गरमागरम जलेबी खाने का फैसला अटल था तो राइट नहीं लेफ्ट ही जाना था. पर नुक्कड़ पर चौबे जी खड़े थे. दोनों एक दूसरे को नज़र अंदाज़ कर सकते थे पर जब असहमत ने चौबे जी से “हैलो अंकल” कहा तो बात से बात निकलने का सिलसिला शुरु हो गया. चौबे जी तो श्राद्ध पक्ष से ही असहमत से खार खाये बैठे थे तो मौके का भरपूर प्रयोग किया. “अरे प्रणाम पंडित जी कहो, अंगरेज चले गये औलाद छोड़ गये. “

असहमत : अरे पंडित जी औलाद नहीं अंगरेजी है, अंग्रेजी छोड़ गये.

चौबे जी: तुम्हारे जैसे अंग्रेजों के गुलाम ही हिंदू धर्म को कमजोर कर रहे हैं तुम नकली हिंदुओं के कारण ही हिंदू एक नहीं हो पाते.

असहमत: अरे चोबे जी, ऐसा तो मत कहो, मैं मंदिर जाता हूँ जब मेरा मन अशांत होता है. “इस्लाम खतरे में है ” बोलबोलकर उन्होंने सरहद पार आतंकवादियों की फसल तैयार कर दी, अब आप हमको क्या सिखाना चाहते हो. भक्त और भगवान का तो सीधा लिंक है फिर ये एकता वाली चुनावी बातें किसलिए.

चौबे जी : हमको ज्ञान मत बांटो, तुम्हारे जैसे दो टके के लोग वाट्सएप पढ़ पढ़ कर ज्ञानी बने घूमते हैं. चलो हमारे साथ, राईट टर्न लो जहाँ मंदिर है.

असहमत : मैं अभी तो लेफ्ट ही लूंगा क्योंकि गरमागरम जलेबी और पोहा मेरा इंतजार कर रहे हैं, डिलीवरी ऑन पेमेंट. चलना है तो आप चलो मेरे साथ. चौबे जी का मन तो था पर बिना मंदिर गये वो कुछ ग्रहण नहीं करते थे.

तो चौबे जी ने अगला तीर छोड़ा ” हिंदू धर्म मानते हो तुम, मुझे तो नहीं लगता.

असहमत : अरे पंडित जी, ऐसी दुश्मनी मत निकालो, बजरंगबली का भक्त हूं मैं, थ्रू प्रापर चैनल पहुंचना है राम के पास. मेरे धर्म में मंदिर हैं, दर्शन की कतारें हैं, पूजा है, आरती है, जुलूस हैं, भंडारे हैं, ऊंचे पर्वतों पर माता रानी बैठी हैं और गुफाओं में शिव, बजरंगबली के दर्शन कभी कभी मंगलवार को कर लेता हूं पर जब यन अशांत होता है तो जरूर मंदिर जाता हूं, बहुत शांति और ऊर्जा मिलती है मुझे.

असहमत के जवाबों और अंदर की आस्था ने, धर्म के ब्रांड एम्बेसडर को हिला दिया. तर्क का स्थान असभ्यता और अनर्गल आरोपों ने ले लिया.

चौबे जी : चल झूठे, दोगला है तू, साले देशद्रोही है.

अब पानी शायद असहमत के सर से ऊपर जा रहा था या फिर गरमागरम जलेबी ठंडी होने की आशंका बलवती हो रही थी पर देशद्रोही होने का आरोप सब पर भारी पड़ा. जलेबी और पोहे को भूलकर, असहमत ने चौबेजी से कहा: अब ये तो आपने वो बात कह दी जिसे कहने का हक आपको देश के संविधान ने दिया ही नहीं. आप मुझे नकली हिंदू कहते रहते हैं मुझे बुरा नहीं लगता पर देशद्रोही, कैसे

  1. मैं तिरंगे का अपमान नहीं करता
  2. जब राष्ट्र गीत बजता है तो मैं चुइंगम नहीं खाता.
  3. मैं रिश्वत नहीं खाता, चंदा नहीं खाता
  4. आपत्तिजनक नारे नहीं लगाता
  5. सेना में भर्ती होना चाहता था पर उनके मानदंडों पर पास नहीं हो पाया.
  6. न मैं देशविरोधी हूँ और ना तो मैं सोचता हूँ न ही मेरी औकात है
  7. मैं कोई अपराध भी नहीं हूँ, बेरोजगारी मुझे कभी कभी गुस्सा दिलाती है तो मैं जिम्मेदार लोगों की आलोचना करने लगता हूँ. मैं अपना वर्तमान सुधारने में लगा हूँ और वो इतिहास सुधारने में. अरे भाई लोगों मेरी चिंता करो, मुझे मेरे वोट का प्रतिदान चाहिये, मेरी समस्याओं का समाधान चाहिये, आपके वादों के परिणाम चाहिए. और आप हैं लगे हुये अगली वोटों की फसल उगाने में. एक फसल जाती है फिर दूसरी आती है और हमारे जैसे लोग हर गली हर नुक्कड़ पर इंतजार करते हैं वादों और सपनों के साकार होने का.

बात चौबे जी के लेवल की नहीं थी, उनके बस की भी नहीं तो उन्होंने इस मुलाकात का दार्शनिक अंत किया, वही संभव भी था और मंदिर की ओर बढ़ गये.

 “होइ हे वही जो राम रचि राखा, को करि तर्क बढावे साखा”

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – यह घर किसका है ? ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ लघुकथा ☆ यह घर किसका है ? ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

अपनी धरती , अपने लोग थे । यहां तक कि बरसों पहले छूटा हुआ घर भी वही था । वह औरत बड़ी हसरत से अपने पुरखों के मकान को देख रही थी । ईंट ईंट को, ज़र्रे ज़र्रे को आंखों ही आंखों में चूम रही थी । दुआएं मांग रही थी कि पुरखों का घर इसी तरह सीना ताने, सिर उठाये, शान से खड़ा रहे ।

उसके ज़हन में घर का नक्शा एक प्रकार से खुदा हुआ था । बरसों की धूल भी उस नक्शे पर जम नहीं पाई थी । कदम कदम रखते रखते जैसे वह बरसों पहले के हालात में पहुंच गयी । यहां बच्चे किलकारियां भरते थे । किलकारियों की आवाज साफ सुनाई देने लगीं । वह भी मुस्करा दी । फिर एकाएक चीख पुकार मच उठी । जन्नत जैसा घर जहन्नुम में बदल गया ।परेशान हाल औरत ने अपने कानों पर हाथ धर लिए और आसमान की ओर मुंह उठा कर बोली-या अल्लाह रहम कर । साथ खड़ी घर की औरत ने सहम कर पूछा- क्या हुआ ?

– कुछ नहीं ।

– कुछ तो है । आप फरमाइए ।

– इस घर से बंटवारे की बदबू फिर उठ रही है । कहीं फिर नफरत की आग सुलग रही है । अफवाहों का धुआं छाया हुआ है । कभी यह घर मेरा था । एक मुसलमान औरत का । आज तुम्हारा है । कल … कल यह घर किसका होगा ? इस घर में कभी हिंदू रहते हैं तो कभी मुसलमान । अंधेर साईं का, कहर खुदा का । इस घर में इंसान कब बसेंगे ???

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 116 – लघुकथा – लिहाफ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री शक्ति को समर्पित अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर विशेष लघुकथा  “*लिहाफ *”। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 116 ☆

? अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस विशेष – लिहाफ ?

आज महिला दिवस पर सम्मान समारोह चल रहा था। सभी गणमान्य व्यक्ति वहां उपस्थित थे। दहेज प्रथा का विरोध कर अपने जीवन में आगे बढ़ कर एक सशक्त मुकाम पर अपनी जगह बनाने के लिए, जिस महिला को बुलाया गया था। आज उन्हीं का सम्मान होना है।

सभी उन्हीं का इंतजार कर रहे थे। मंच पर बैठे गांव के दीवान साहब भी अपने मूछों पर ताव रखते हुए अपने धर्म पत्नी के साथ सफेद लिहाफ ओढ़े सफेद कपड़ों में चमक रहे थे।

निश्चित समय पर महिला अधिकारी आई और धीरे से कदम बढ़ाते मंच की ओर जाने लगी। तालियों से स्वागत होने लगा। परंतु दीवन की आंखें अब ऊपर की बजाय नीचे गड़ी  जा रही थी क्योंकि उन्हें अंदाज और आभास भी नहीं था कि दहेज प्रथा का इतना बड़ा इनाम  बरसों बाद आज उन्हें मिलेगा।

साथ साथ दोनों पढ़ते थे। सुहानी और दीवान तरंग। विवाह तक जा पहुंचे थे। घर के दबाव और दहेज मांग के कारण सुहानी को छोड़कर कहीं और जहां पर अधिक दान दहेज मिला वहीं पर शादी कर लिया तरंग ने।

सुहानी ने बहुत मेहनत की ठान लिया कि आज से वह उस दिन का ही इंतजार करेगी। जिस दिन गांव के सामने वह बता सके वह भी नारी शक्ति का एक रूप है। दहेज पर न आकां जाए। आज वह दिन था माइक पकड़कर सुहानी ने सभी का अभिवादन स्वीकार किया।

अपना भाषण समाप्त करने के पहले बोली.. आप जो सफेद लिहाफ के दीवान साहब को देख रहे हैं उन्हीं की कृपा दृष्टि से मैं यह मुकाम हासिल कर सकी। समझते देर न लगी नागरिकों को। शुरू हो गए अच्छा तो यह वह सफेद लिहाफ है जिसके कारण हमारी मैडम ने अपनी सारी जिंदगी दहेज विरोध के लिए समर्पित किया है।

मंच पर भी बातें होने लगी। अपना सफेद लिहाफ ओढ़े दीवान उठकर जा भी नहीं सकते थे। नारी शक्ति का सम्मान जो करना था।

परंतु बाजू में बैठी धर्मपत्नी ने अपने पतिदेव को बड़ी बड़ी आंखों से देखा और जोर जोर से ताली बजाने लगी। शायद यह तालियां दीवान साहब के झूठे लिहाफ के लिए थीं।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #81 – सत्य के तीन पहलू ☆ श्री आशीष कुमार ☆

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #81 – सत्य के तीन पहलू ☆ श्री आशीष कुमार

भगवान बुद्ध के पास एक व्यक्ति पहुँचा। बिहार के श्रावस्ती नगर में उन दिनों उनका उपदेश चल रहा था। शंका समाधान के लिए- उचित मार्ग-दर्शन  के लिए लोगों की भीड़ उनके पास प्रतिदिन लगी रहती थी।

एक आगन्तुक ने पूछा- क्या ईश्वर है? बुद्ध ने एक टक उस युवक को देखा- बोले, “नहीं है।” थोड़ी देर बाद एक दूसरा व्यक्ति पहुँचा। उसने भी उसी प्रश्न को दुहराया- क्या ईश्वर हैं? इस बार भगवान बुद्ध का उत्तर भिन्न था। उन्होंने बड़ी दृढ़ता के साथ कहा- “हाँ ईश्वर है।” संयोग से उसी दिन एक तीसरे आदमी ने भी आकर प्रश्न किया- क्या ईश्वर है? बुद्ध मुस्कराये और चुप रहे- कुछ भी नहीं बोले। अन्य दोनों की तरह तीसरा भी जिस रास्ते आया था उसी मार्ग से वापस चला गया।

आनन्द उस दिन भगवान बुद्ध के साथ ही था। संयोग से तीनों ही व्यक्तियों के प्रश्न एवं बुद्ध द्वारा दिए गये उत्तर को वह सुन चुका था। एक ही प्रश्न के तीन उत्तर और तीनों ही सर्वथा एक-दूसरे से भिन्न, यह बात उसके गले नहीं उतरी। बुद्ध के प्रति उसकी अगाध श्रद्धा- अविचल निष्ठा थी पर तार्किक बुद्धि ने अपना राग अलापना शुरू किया, आशंका बढ़ी। सोचा, व्यर्थ आशंका-कुशंका करने की अपेक्षा तो पूछ लेना अधिक उचित है।

आनन्द ने पूछा- “भगवन्! धृष्टता के लिए क्षमा करें। मेरी अल्प बुद्धि बारम्बार यह प्रश्न कर रही है कि एक ही प्रश्न के तीन व्यक्तियों के लिए भिन्न-भिन्न उत्तर क्यों? क्या इससे सत्य के ऊपर आँच नहीं आती?”

बुद्ध बोले- “आनन्द! महत्व प्रश्न का नहीं है और न ही सत्य का सम्बन्ध शब्दों की अभिव्यक्तियों से है। महत्वपूर्ण वह मनःस्थिति है जिससे प्रश्न पैदा होते हैं। उसे ध्यान में न रखा गया- आत्मिक प्रगति के लिए क्या उपयुक्त है, इस बात की उपेक्षा की गयी तो सचमुच  ही सत्य के प्रति अन्याय होगा। पूछने वाला और भी भ्रमित हुआ तो इससे उसकी प्रगति में बाधा उत्पन्न होगी।”

उस सत्य को और भी स्पष्ट करते हुए भगवान बुद्ध बोले-  “प्रातःकाल सर्वप्रथम जो व्यक्ति आया था, वह था तो आस्तिक पर उसकी निष्ठा कमजोर थी। आस्तिकता उसके आचरण में नहीं, बातों तक सीमित थी। वह मात्र अपने कमजोर विश्वास का समर्थन मुझसे चाहता था। अनुभूतियों की गहराई में उतरने का साहस उसमें न था। उसको हिलाना आवश्यक था ताकि ईश्वर को जानने की सचमुच ही उसमें कोई जिज्ञासा है तो उसे वह मजबूत कर सके इसलिए उसे कहना पड़ा- “ईश्वर नहीं है।”

“दूसरा व्यक्ति नास्तिक था। नास्तिकता एक प्रकार की छूत की बीमारी है जिसका उपचार न किया गया तो दूसरों को भी संक्रमित करेगी। उसे अपनी मान्यता पर अहंकार और थोड़ा अधिक ही विश्वास था। उसे भी समय पर तोड़ना जरूरी था। इसलिए कहना पड़ा- “ईश्वर है।” इस उत्तर से उसके भीतर आस्तिकता के भावों का जागरण होगा। परमात्मा की खोज के लिए आस्था उत्पन्न होगी। उसकी निष्ठा प्रगाढ़ है। अतः उसे दिया गया उत्तर उसके आत्म विकास में सहायक ही होगा।”

“तीसरा व्यक्ति सीधा-साधा, भोला था। उसके निर्मल मन पर किसी मत को थोपना उसके ऊपर अन्याय होता। मेरा मौन रहना ही उसके लिए उचित था। मेरा आचरण ही उसकी सत्य की खोज के लिए प्रेरित करेगा तथा सत्य तक पहुँचायेगा।”

आनन्द का असमंजस दूर हुआ। साथ ही इस सत्य का अनावरण भी कि महापुरुषों द्वारा एक ही प्रश्न का उत्तर भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के लिए भिन्न-भिन्न क्यों होता है? साथ ही यह भी ज्ञात हुआ कि सत्य को शब्दों में बाँधने की भूल कभी भी नहीं की जानी चाहिए।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा- जो बोओगे वही काटोगे ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – लघुकथा- जो बोओगे वही काटोगे  ??

…मुझे कोई पसंद नहीं करता। हरेक, हर समय मेरी बुराई करता है।

.. क्यों भला?

…मुझे क्या पता! वैसे भी मैंने सवाल किया है, तुमसे जवाब चाहिए।

… अच्छा, अपना दिनभर का रूटीन बताओ।

… मेरी पत्नी गैर ज़िम्मेदार है। सुबह उठाने में अक्सर देर कर देती है। समय पर टिफिन नहीं बनाती। दौड़ते, भागते ऑफिस पहुँचता हूँ। सुपरवाइजर बेकार आदमी है। हर दिन लेट मार्क लगा देता है। ऑफिस में बॉस मुझे बिल्कुल पसंद नहीं करता। बहुत कड़क है। दिखने में भी अजीब है। कोई शऊर नहीं। बेहद बदमिज़ाज और खुर्राट है। बात-बात में काम से निकालने की धमकी देता है।

…सबको यही धमकी देता है?

…नहीं, उसने हम कुछ लोगों को टारगेट कर रखा है। ऑफिस में हेडक्लर्क है नरेंद्र। वह बॉस का चमचा है। बॉस ने उसको तो सिर पर बैठा रखा है।

… शाम को लौटकर घर आने पर क्या करते हो?

… बच्चों और बीवी को ऑफिस के बारे में बताता हूँ। सुपरवाइजर और बॉस को जी भरके कोसता हूँ। ऑफिस में भले ही होगा वह बॉस, घर का बॉस तो मैं ही हूँ न!

…अच्छा बताओ, इस चित्र में क्या दिख रहा है।

…किसान फसल काट रहा है।

…कौनसी फसल है?

…गेहूँ की।

…गेहूँ ही क्यों काट रहा है? धान या मक्का क्यों नहीं?

…कमाल है। इतना भी नहीं जानते आप! उसने गेहूँ बोया, सो गेहूँ काट रहा है। जो बोयेगा, वही तो काटेगा।

…यही तुम्हारे सवाल का जवाब भी है।

बोने से पहले विचार करो कि क्या काटना है। नागफनी बोकर, छुईमुई पाना संभव नहीं है।

 

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 87 ☆ बदलेगा बहुत कुछ ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘माँ सी …! ’. डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस ऐतिहासिक लघुकथा रचने  के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 87 ☆

☆ लघुकथा – बदलेगा बहुत कुछ ☆

शिक्षिका ने हिंदी की कक्षा  में आज  अनामिका की कविता ‘ बेजगह ‘ पढानी शुरू की –

अपनी जगह  से गिरकर कहीं के नहीं रहते,

केश, औरतें और नाखून,

पहली कुछ पंक्तियों को पढते ही लडकियों के चेहरे के भाव बदलने लगे, लडकों पर कोई असर  नहीं दिखा। कविता की आगे की पंक्तियाँ  शिक्षिका पढती है –

लडकियां हवा, धूप, मिट्टी होती हैं,

उनका कोई घर नहीं होता।

शिक्षिका  कविता के भाव समझाती जा रही थी। क्लास में बैठी लडकियां बैचैनी से  एक – दूसरे की ओर देखने लगीं, लडके मुस्कुरा रहे थे। कविता आगे बढी –

कौन सी जगह होती है ऐसी

जो छूट जाने पर औरत हो जाती है कटे हुए नाखूनों,

कंघी में फँसकर बाहर आए केशों सी

एकदम बुहार दी जानेवाली।

एक लडकी ने प्रश्न पूछ्ने के लिए झट से हाथ उपर उठाया- मैडम ! बुहारना मतलब? जैसे हम घर में झाडू लगाकर कचरे को  बाहर फेंक देते हैं, यही अर्थ है ना?

हाँ –  शिक्षिका ने गंभीरता से उत्तर दिया।

एकदम से  कई लडकियों के हाथ उपर उठे – किस जगह की बात कर रही हैं कवयित्री और औरत को कैसे बुहार दिया जाता है  मैडम! वह तो इंसान है कूड़ा – कचरा थोडे ही है?

शिक्षिका को याद आई अपने आसपास की ना जाने कितनी औरतें, जिन्हें अलग – अलग कारण जताकर , बुहारकर घर से बाहर कर दिया  गया था । किसी के मन-मस्तिष्क को बडे योजनाबद्ध तरीके से बुहारा गया था  यह कहकर कि इस उम्र में हार्मोनल बदलाव के कारण पागल होती जा रही हो। वह जिंदा लाश सी घूमती है अपने घर में। तो कोई सशरीर अपने ही घर के बाहर बंद दरवाजे के पास खडी  थी। उसे एक दिन  पति ने बडी सहजता से कह दिया – तुम हमारे लायक नहीं हो, कोई और है तुमसे बेहतर  हमारी जिंदगी में। ना जाने कितने किस्से, कितने जख्म, कितनी बेचैनियाँ  —–

 मैडम! बताइए ना – बच्चों की आवाज आई।

 हाँ – हाँ, बताती हूँ। क्या कहे? यही कि सच ही तो लिखा है कवयित्री ने। नहीं – नहीं,  इतना सच भी ठीक नहीं, बच्चियां ही हैं ये। पर झूठ भी तो नहीं बोल सकती। क्या करे, कह दे कि इसका उत्तर वह भी नहीं ढूंढ सकी है अब तक। तभी सोचते – सोचते  उसके चेहरे पर मुस्कान दौड गई।  वह बोली एक दूसरी कवयित्री की कविता की कुछ पंक्तियाँ सुनाती हूँ –

शीर्षक है – बदलेगा बहुत कुछ

प्रश्न पुरुष – स्त्री या समाज का नहीं,

मानसिकता का है।

बात किसी की मानसिकता की हो,

जरूरी है कि स्त्री

अपनी सोच, अपनी मानसिकता बदले

बदलेगा बहुत कुछ, बहुत कुछ ।

घंटी बज गई थी।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा- सोंध ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – लघुकथा- सोंध ??

इन्सेन्स- परफ्यूमर्स ग्लोबल एक्जीबिशन’.., इत्र बनानेवालों की यह यह दुनिया की सबसे बड़ी प्रदर्शनी थी। लाखों स्क्वेयर फीट के मैदान में हज़ारों दुकानें। हर दुकान में इत्र की सैकड़ों बोतलें। हर बोतल की अलग चमक, हर इत्र की अलग महक। हर तरफ इत्र ही इत्र।

अपेक्षा के अनुसार प्रदर्शनी में भीड़ टूट पड़ी थी। मदहोश थे लोग। निर्णय करना कठिन था कि कौनसे इत्र की महक सबसे अच्छी है।

तभी एकाएक न जाने कहाँ से बादलों का रेला आसमान में आ धमका। गड़गड़ाहट के साथ मोटी-मोटी बूँदें धरती पर गिरने लगीं। धरती और आसमान के मिलन से वातावरण महकने लगा।

दुनिया के सारे इत्रों की महक अब अपना असर खोने लगी थीं। माटी से उठी सोंध सारी सृष्टि पर छा चुकी थी।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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